ज्ञानन्न जायते यस्मात्तदज्ञानं प्रक्रीर्तम्।
तद् भित्वोदितं यत्तत् केवलज्ञानमिश्यते।।1।।
केवलज्ञानप्राप्त्यर्थं या बुद्धिर्गरीयसी।
तस्यै सम्यक्त्वलाभाय ज्ञानमत्यै नमो नमः।।
2 स्वरचित।।
अर्थ-जिसके कारण ज्ञान उत्पन्न नहीं होता वह अज्ञान कहा गया है। उस अज्ञान को नष्टकर जो प्रकट होता है वह केवल ज्ञान है। केवल ज्ञान की प्राप्ति हेतु जो श्रेष्ठ, समीचीन बुद्धि है उस ज्ञानमती को सम्यक्त्व प्राप्ति हेतु बारंबर नमस्कार करता हूँ।
स्याद्वाद चन्द्रिका प्रसिद्ध अध्यात्म ग्रन्थ नियमसार प्राभृत की टीका है अतः स्वभाविक रूप से ही यह अध्यात्म ग्रन्थ बनी हुई है।
यहाँ हम सर्वप्रथम स्याद्वाद चन्द्रिका में गर्भित अध्यात्म के प्रकाशक कतिपय स्थल उद्धृत करते हैं जिससे पाठकों को प्रस्तुत टीका के हार्द को समझने में सुविधा होगी। गाथा क्रमांक 18 (पृश्ठ 69) पर गौर करें।
तात्पर्यमेतत्, यद्यप्येश आत्मा कायवाड्मनःकर्मयोगरहितसहज“शुद्धद्रव्यत्वान्निश्क्रिय-टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावः सहज“शुद्धनिर्विकारपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतनिमग्नष्च, तथापि अनुपचरितासद्भूतनयेन ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मणां कत्र्ता भोक्ता च।
तथाऽषुद्धनिष्चयनयेन कर्मजनितरागद्वेशादीनां कत्र्ता भोक्ता च इति ज्ञात्वा स्वस्यानन्तचतुश्टयव्यक्त्यर्थं भेदाभेदरत्नत्रयबलेन परकत्र्तत्वं भोक्तृत्वं च परिहणीयम्।
अर्थ-निष्कर्ष यह निकला कि यद्यपि यह आत्मा काय, वचन और मन की क्रिया रूप तीनों योगों से रहित सहज शुद्ध द्रव्य होने से निष्क्रिय, टंकोत्कीर्य ज्ञायक एक स्वभाव वाला है। सहज शुद्ध निर्विकार परमानन्द एक लक्षण सुख रूपी अमृत समुद्र में निमग्न है फिर भी अनपचरित असद्भूत व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों का कत्र्ता और भोक्ता है।
उसी प्रकार अशुद्ध निश्चय से कर्म से उत्पन्न हुए रागद्वेशादि भावों का कत्र्ता और भोक्ता है। ऐसा जानकर अपने अनन्त चतुष्टय को प्रकट करने के लिए भेद-अभेद रत्नत्रय के बल से पर का कर्तव्य और भोक्तृत्व छोड़ना चाहिए। यही भाव बृहद द्रव्यसंग्रह व समयसार में व उनकी टीकाओं में व्यक्त किया गया है।
”नियमो मो़क्षोपायो यद्यपि व्यवहारनयेन क्षीणकशायान्तसमयपरिणामस्तथाप्यघातिकर्मवषेन केवलीनामपि चारित्रगुणेशु आनुशंगिकदोशाः सम्भवन्ति।
तथा व व्यपुरतक्रियानिवृत्तिलक्षणं ध्यानमपि उपचारेण तत्र कथ्यते। अतो निष्चयनयेनायोग-केवलिनामन्त्यसमयपरिणामोऽपि रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग एव।“
अर्थ-यह नियम नाम से जो मोक्ष का उपाय है अर्थात् रत्नत्रय है वह यद्यपि व्यवहार नय से क्षीण कषाय मुनि के अन्तिम समय का परिणाम है फिर भी अघाति कर्म के निमित्त से केवली भगवन्तों के चारित्र गुणों में आनुशगिक दोषसंभव हैं तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान भी उनके वहाँ पर उपचार से कहा गया है इसलिए निश्चय नय से आयोग केवलियों का अन्तिम समय का परिणाम भी रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष मार्ग ही है। (क्योंकि आगे सिद्ध पद तो मार्गफल हैं।)
स्याद्वाद चन्द्रिका में अध्यात्म के पल्लवित स्वरूप के दर्शन होते हैं। इसमें भव्य जीवों को अध्यात्म के सम्मुख आत्म परिणाम रखने हेतु पग – पग पर प्रेरणा दी गई है। सम्पूर्ण भावार्थ एवं तात्पर्य संज्ञाओं से रचित यह दृष्टिकोण सर्वत्र ज्ञात होता है। जैसे –
एतज्ज्ञात्वा शुद्धनयेन स्वद्रव्यं पर्यायष्च शुद्धमेवेति श्रद्दधानः शुद्धसिद्धपरमात्मनो भक्तिं प्रकुवाणष्च व्यवहार नयेन निजात्मा पवित्री कर्तव्यः।“
अर्थ – ऐसा जानकर शुद्धनय से अपना द्रव्य और पर्याय शुद्ध ही है ऐसा श्रद्धान करते हुए शुद्ध सिद्ध परमात्मा की भक्ति करते हुए व्यवहार नय से अपनी आत्मा को पवित्र करना चहिए। किन्तु सर्वत्र माता जी का यह अभिप्राय रहा है कि अध्यात्म की पृष्ठभूमि जब तक तैयार नहीं होगी अध्यात्म का गरिष्ठ स्वरूप ग्रहण कर तदनुरूप अनुभव असंभव है।
अतः यथा स्थान उन्होंने शुद्ध निश्चय नय के विषय अध्यात्म के साधन रूप में व्यवहार रत्नत्रय (भक्ति, पूजा, तप, स्वाध्याय, व्रत आदि) का स्वागत करते हुए उसे उल्लिखित किया है। जैसा कि उपर्युक्त गाथा क्रमांक 19 के वाक्य से स्पष्ट है। यहाँ यह स्पष्ट है कि व्यवहार मोक्षमार्ग से ही अपनी आत्मा पवित्र हो सकती है।
अपेक्षित पवित्र होने पर वह शुद्ध निश्चय नय के विषयरूप शुद्धप्रयोग रूप परम पवित्र रूप में विद्यमान होगी तथा क्षण में ही परमात्मत्व प्राप्त कर लेगी। वर्तमान में संसारी जीव में शुद्ध निश्चय का विषयरूपशुद्ध आत्मा शक्ति रूप से हैं, व्यक्त नहीं हैं। तभी तो उसे पवित्र करने की आवश्यकता है कहा भी है,
जीवष्चेत् सर्वतः शुद्ध मोक्षादेषो निरर्थकः।
नेश्टमिश्टत्वमत्रापि तदर्थं वा वृथा श्रमः।। पंचाध्यायी।।
अर्थ-आशय यह है कि यदि जीव सर्व प्रकार शुद्ध है तो मोक्षोपदेश व्यर्थ है व मोक्ष के हेतु श्रम करना तथा श्रमण धर्म ही वृथा है। यतः श्रम की निरर्थकता इष्ट नहीं है अतः जीव सर्वथाशुद्ध नहीं है।
नियमसार की उपर्युक्त स्याद्वाद चन्द्रिका टीका वर्तमान युग का एक चमत्कार है। मैंने उसका आद्योपान्त आलोढन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि इसमें अध्यात्म रस का अति सुन्दर ढंग से परिपाक हुआ है। नियमसार अध्यात्म ग्रन्थ पर यह टीका सोने में सुगन्ध को चरितार्थ कर रही है।
इससे प्रतिस्थल जीव को निर्भ्रम कर शुद्ध आत्मा के सन्मुख होने की प्रेरणा मिलती है। इसमें अर्थ पद्धति के सभी रूपों शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ, एवं भावार्थ से अध्यात्म प्रमुख वर्णन उपलब्ध होता है। भावार्थ के माध्यम से निम्न अध्यात्म पोषक भावचित्र दर्षनीय है,
”अत्रानन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपभावनमस्कारो अषुद्धनिष्चयनयेन ‘नत्वेति’
वचनात्मकद्रव्यनमस्कारो व्यवहारनयेन शुद्धनिष्चयनयेन तु स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति नयार्थो ग्राह्यः।।
अर्थ-यहाँ अशुद्ध निश्चय से अनन्त ज्ञानादि गुणस्मरणरूप भाव नमस्कार व्यवहार नय से ‘नत्वा’ इति वचनात्मक नमस्कार और शुद्ध निश्चय नय से अपनी आत्मा में ही आराध्या आराधक भाव यह नयार्थ ग्रहण करना चाहिए। यहाँ सभी नयों का लक्ष्य अध्यात्म रूप ही प्रस्तुत है। अशुद्ध और शुद्ध निश्चय नय भी अध्यात्म भाषा के तत्व ही हैं। आगम भाषा में अशुद्ध द्रव्यार्थिक और शुद्ध द्रव्यार्थिक नयों का प्रयोग पाया जाता है।
टीकाकत्री ने प्रायः सर्वत्र ही सर्वजनहिताय अध्यात्मोन्मुख होने की प्रेरणा की है ठीक भी है साधु जन स्वयं मोक्षमार्ग में रत रहकर दूसरों को भी अध्यात्म (आत्म सम्मुख होकर) अमृत पान करने के प्रति सचेष्ट रखते हैं। निम्न पक्तियाँ बरबस स्व की ओर आकृषित करने में कितनी सक्षम हैं,
”यः सर्वदोशरहितः सन् सर्वगुणसहितष्च य एव परमात्मा न च तस्माद् भिन्न इति मत्वा तं परमात्मानं निज मनोमन्दिरे संस्थाप्य तस्य प्रसादात् निजदेहदेवालये स्थितो भगवान् आत्माऽपि तत्त्वज्ञानचक्षुशा दृश्टव्यः श्रद्धातव्यो, अनुमन्तव्यष्च उपासनीयष्चेति।“
अर्थ– जो सर्व दोषों से रहित और सर्वगुण सहित है वही परमात्मा है उससे भिन्न नहीं ऐसा मानकर उस परमात्मा को अपने मन मन्दिर में स्थित करके उसके प्रसाद से अपने देह रूपी देवालय में विराजमान भगवान् आत्मा तत्त्व ज्ञान नेत्र से दर्शनीय, श्रद्धेय, अनुभव करने योग्य तथा उपासना करने योग्य है।
इस संबध में आ कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा भी है,
एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होह णिच्चमेदम्हि।
एदम्हि होह तित्तो होहदि तुह उत्तम सोक्खं।।2061।।
इसी (परमात्म तत्त्व) में नित्य आसक्त, संतुष्ट तथा तृप्त हो तो तुम्हें उत्तम सुख प्राप्त होगा। परमात्म प्रकाश के निम्न दोहे में भी यही भाव व्यक्त किया गया है।
देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ अणंतु।
केवलणाणु फुरंतु तणु जो परमप्प णिभंतु।। 33।।
आ० योगीन्द्रदेव
अध्यात्म में विभिन्न विषयों में संभव भ्रमों का निवारण करने हेतु पू० माता जी ने कितना प्रयत्न किया है इसका एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना अप्रासंगिक न होगा।
“यथा भवद्धिः सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिरूपमभेदचारित्रं प्राक् मत्वा, पष्चात् भेदचारित्रं मन्यते, तथैव श्रावकाणामपि निष्चय-रत्नत्रयं प्राक् भवेत् तदनु व्यवहाररत्नत्रयं, का हानिर्युश्माकमितिचेत्।
न हानिर्युश्माकमितिचेत्।
न असम्भवमेतत्, यतः सिद्धान्तशस्त्रे श्रूयते यत् सप्तमगुणस्थानादेव शजायते न, तु प्रथमात्, चतुर्थात् पंचमात् वेति।
न तथा चतुर्थपचमगुण-स्थानविशये दृष्यते प्रत्युत व्यवहारचारित्रस्यैव एकदेषरूपं श्रावकाणाम् चारित्रम्।
अर्थ – शंका – जैसे आपने सर्व पापोपयोग रूप से निवृत्ति रूप अभेद चारित्र को मुनियों में पहले मानकर अनन्तर भेद चारित्र माना है। वैसे ही श्रावको को भी पहले निश्चय रत्नत्रय हो जावे इसके बाद व्यवहार रत्नत्रय होवे क्या हानि है।
समाधान – ऐसा नही मानना यह असंभव है क्योंकि सिद्धान्त शस्त्र में सुना जाता है कि सातवें गुणस्थान से ही छठा होता है किन्तु प्रथम चतुर्थ या पाँचवे गुणस्थान से नहीं होता है और वैसा चतुर्थ पंचम गुणस्थान के विषय में नहीं है बल्कि व्यवहार चारित्र का ही एकदेश रूप श्रावकों का चारित्र है।
माता जी ने उपयुक्त अध्यात्म विशयक निर्णय हेतु पंचास्तिकाय का आचार्य जयसेन स्वामी का उद्धरण भी प्रस्तुत किया है। अन्य आगमिक उद्धरण भी टीका को अध्यात्म रस से ओतप्रोत करने हेतु विभिन्न स्थलों पर प्रकट किये हैं माता जी का जीवन भी प्रारम्भ से आध्यात्मिक ही रहा है।
माता जी यद्यपि नैतिक षिक्षा अक्षर ज्ञान से (कक्षा 3 से ऊपर) अधिक प्राप्त नहीं की थी। किन्तु विरक्त जीवन में प्रवेश कर विशेष तपश्चरण एवं अध्यात्म प्रेम तथा अभ्यास के प्रभाव से मोहनीय और ज्ञानवरण कर्म का उपशम एवं क्षयोपशम होने से प० पू० आचार्य शन्तिसागर जी, आ० देशभूषण जी, वीर सागर जी आदि गुरूओं की कृपा से उन्होंने सहज ही अभीक्ष्णज्ञानोपयोग पूर्वक आगम का बहु आयामी ज्ञान प्राप्त किया है। सन्त कबीर की निम्न उक्ति उनके अध्यात्म प्रेममय व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सटीक बैठती है।
पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
एकै अक्षर प्रेम का पढ़ै सेा पंडित होय।।
उनका आगम और अध्यात्म पर समान अधिकार है एवं वे न्याय की प्रकाण्ड विदुषी है। न्याय प्रभाकर उपाधि भी उनके वैदुष्य को स्पष्ट करने मे असमर्थ है। ज्ञातव्य है कि अध्यात्म भी धार्मिक वाङ्मय की सहयोगी विधाओं पर टिका है। स्याद्वाद चन्द्रिका में पूज्य माता जी ने अपने आगम एवं न्याय का प्रयोग अध्यात्म पक्ष का समर्थन हेतु किया है।
अध्यात्म को पुष्ट करना भी उनका अभिप्रेत है। टीकाकत्री ने यत्रतत्र पूर्वाचार्या के उदाहरणों के माध्यम से अध्यात्म जैसे सामान्यजन के लिए शुष्क विषय को रोचक एवं बोधगम्य बना दिया है।
माता जी ने बाल्य काल में ही अपनी माँ के सानिध्य में आत्मरस परिपूर्ण पनन्दिपंचविंष्ति का स्वाध्याय किया था। उसके अध्यात्म एवं वैराग्य रस से प्रेरित होकर उन्होंने त्याग मार्ग में प्रवेष किया था। पुराणों में वर्णित महासती मैनासुन्दरी के जीवन के उत्थान-पतन घोर विपत्ति आदि तथा अंत में विरक्त होकर आर्यिका दीक्षा ग्रहण के वृत्तान्त से माता जी की पूर्व श्रावक पर्याय मैना को पर्याप्त दिशा बोध मिला था।
स्याद्वाद चन्द्रिका में प्रस्तुत उदाहरणों से ज्ञात होता है कि पू० माता जी भक्ति और अध्यात्म दोनो को पूरक मानती हैं उन्होंने बडे़ कौषल से अध्यात्म के पोशक के रूप में शुभराग, भक्ति एवं मोक्ष मार्ग के व्यवहार पक्ष को समुचित स्थान दिया है। दृष्टव्य हैं,
”सर्वकर्मभिः निर्मुक्ताः सिद्धा तस्मिन् सिद्धक्षेत्रे गत्वा तत्रैव तिश्ठन्ति।
एतानन्तानन्तान् सिद्धभगवन्तो निजहृदिसरसीरुहे धारयन्ति,
ते लीलयैव संसारमहाघोरार्णवं तरिश्यन्ति।“ ।।
”सर्वकर्म से निर्मुक्त सिद्ध हुए भगवान उस सिद्ध क्षेत्र में जाकर वहाँ विराजमान हो जाते हैं इन अनन्तानन्त सिद्ध भगवान को जो हृदय कमल पर विराजमान करते है वे लीलामात्र से ही संसार महासागर को पार कर लेते हैं।“ अपने पक्ष के समर्थन में उन्होंने निम्न पद्य प्रस्तुत किया है,
स्वामिन्नल्पगरिमाणमपिप्रपन्नाः त्वाम् जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः।
जन्मोदधिं लघु तरन्त्यति लाघवेन चिन्त्यो न हन्त महता इति वा प्रभावः।
स्याद्वाद चन्द्रिका संज्ञा के अनुरूप उन्होंने समस्त अध्यात्म विषय को अनेकान्त के परिप्रेक्ष्य में ही प्रस्तुत किया है। वर्तमान में प्रचलित एकांत निश्चयाभास के अवांछनीय हानिकर रूप को दृष्टिगत कर उन्होंने निश्चय एवं व्यवहार नय के सापेक्ष वर्णन से अध्यात्म के यथार्थ चित्र का अंकन किया है।
स्याद्वाद का अनुसरण करते हुए अध्यात्म को परिपक्व एवं स्पष्ट करने हेतु माता जी ने प्रत्येक स्थल पर व्यवहार एवं निश्चय नयों का द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों का आगम और अध्यात्म दोनों रीतियों से अभियोजन किया है। इसी पद्धति से कुन्दकुन्द की अध्यात्म सम्बन्धी विचित्र नय परक शैली का स्पष्टीकरण सम्यक् हो गया है। ठीक ही है। अध्यात्म अमृत की प्राप्ति किसी एक नय को सत्य और असत्य मानने से नहीं हो सकती।
आ० कुन्द कुन्द स्वामी पू० माता जी के उल्लिखित अध्यात्म विषय के प्रमुख केन्द्र हैं। नियमसार के अतिरिक्त अन्य भी मूलाचार, समयसार, प्रवचनसार आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों का सार माता जी ने इस टीका में समाविष्ट किया है। गौतम स्वामी के प्राचीन उद्धरणों का भी पर्याप्त सहारा लिया है। आचार्य अमृतचन्द्र जी भी माता जी के लक्ष्य रहे हैं। इससे अध्यात्म रसमय चन्द्रिका इस टीका में प्रकाश करने लगी है। यह शैली अन्य टीकाओं में प्रायः दुर्लभ है।
यद्यपि प्रस्तुत कृति सर्वत्र अध्यात्म से परिपूर्ण है तथापि उत्थानिकाओं में भी टीकाकत्री ने आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखते हुए पाठकों को आत्मोन्मुख किया है। सन्तों की रुचि तो स्व के साथ पर कल्याण की होती है। दृष्टव्य है, गाथा संख्याक 16 की उत्थानिका,
“अधुना सर्वसंसारिजनसुलभत्वात् स्पश्टत्वाच्च चतुर्गतिभ्रमणरूपेण विभावपर्यायान् विवृवन्ति कुन्दकुन्ददेवाः।
अर्थ– अब श्री कुन्दकुन्द देव सब संसारी जीवों को सुलभ होने से और स्पष्ट होने से चारों गति के भ्रमण रूप जो विभाव पर्याय हैं उनका विवेचन करते हैं।”
यद्यपि इस गाथा की उत्थानिका को संक्षिप्त किया जा सकता है। यहाँ चतुर्गति रूप संसार परिभ्रमण मय दुःख से भयभीत होने हेतु तथा उससे मुक्ति प्राप्ति हेतु कुछ विस्तृत किया गया है ताकि जीव इससे विरक्त होकर आत्मिक सुख का उपाय करें।