पुद्गल में विपाक करने वाले शरीर और अंगोपाङ्ग नामकर्म की प्रकृति का उदय होने पर मन, वचन और काय से युक्त हो रहे जीव की जो कर्म और नोकर्मों के आगमन की कारण हो रही शक्ति योग है, यह भाव योग कहा जा सकता है। इस भावयोग रूप पुरुषार्थ से आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द हो जाना स्वरूप द्रव्ययोग उपजता है। ग्रहण की जा चुकी या ग्रहण करने योग्य हो रही मन, वचन, कार्यों की वर्गणाओं का अवलम्ब पाकर आत्मा के वह कर्म रूप योग उत्पन्न हुआ अनादिकाल से तेरहवें गुणस्थान तक सदा कर्म नोकर्मों का आकर्षण करता रहता है। भावयोग अपरिस्पन्दात्मक है और द्रव्ययोग परिस्पन्दात्मक है।1तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ६/१ पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, न्यायाचार्य की व्याख्या, पृ. ४३१ योग आत्मा के निकट ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव का हेतु हैं।
स च कार्यवीङ् मन: कर्म तेनैवात्मनि ज्ञानावरणादिकर्मभिबन्धिस्य करणात् तस्य बन्धहेतुत्वोपपत्ते।