सुध-बुध भूल गईं। देर दिन चढ़ने तक वह प्रभु की भक्ति में ही लीन रहीं, तब ध्यान तोड़ा गुलाब ने। माँ! घर चलो, बहुत देर हो गई, मुझे भूख लगी है। भक्ति का आनंद वहीं छोड़कर भागू बेटे के साथ घर आ गई।
दिवस और रात्रि के स्वर्णिम क्षण बीतने लगे। अब तो भाग्यवती प्रतिदिन पति से तीर्थयात्रा पर चलने को कहने लगीं क्योंकि इस द्वितीय पुत्र के गर्भ में आने से उसे तीर्थवंदना का दोहला जो हुआ था। रामसुख अपनी पत्नी को तीर्थों की वंदना हेतु लेकर चल दिए। हर्ष और आनंद के साथ दोनों ने सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र आदि कितने ही तीर्थों की वंदना की और वापस घर आ गए।
देखते ही देखते नवमास हर्षोल्लास में व्यतीत हो गए। वि. सं. १९३३, ईसवी सन् १८७६ में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन भाग्यवती ने एक अपूर्व चाँद को जन्म दिया जिसके आगमन की अप्रतिम प्रसन्नता ने माता की प्रसव वेदना भी समाप्त कर दी।
सारे गाँव में बाजे-नगाड़े की ध्वनि होने लगी। चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ छाई हुई थीं। सौभाग्यवती महिलाएँ मंगल गीत गा रही थीं। पुत्र जन्मोत्सव की खुशी में सेठ रामसुख जी फूले नहीं समा रहे थे। हर्षातिरेक में गरीबों को खूब दान बाँट रहे थे।
इस होनहार बालक का नाम घर वालों ने मिलकर हीरालाल रखा। सवा महीने के बाद जब माता और बालक को लेकर सभी नगर निवासी जिनमंदिर गए, तब वहाँ भगवान के समक्ष जैनसंस्कृति के अनुसार एक पण्डितजी ने बालक के कानों में णमोकार मंत्र सुनाकर सर्वसाक्षीपूर्वक अष्टमूलगुण धारण करवाया तथा ८ वर्ष तक इन मूलगुणों को पालन करवाने की जिम्मेदारी माता पर डाली। बार-बार आँखें खोलकर हीरा मानों कह रहा था कि मैं सब कुुछ समझ रहा हूँ।
चंद्रमा की कलाओं के समान हीरालाल भी अपनी बालक्रीडाओं को करता हुआ वृद्धिंगत होने लगा। इस घर में मानो कोई साधारण पुत्र नहीं, अपितु किसी अद्वितीय पुरुष का अवतार ही हुआ है। माता-पिता इसके जन्म से अपने को धन्य समझने लगे और अपना अधिक से अधिक समय हीरा की चमक-दमक देखने में बिताने लगे।
लोक में कहा जाता है कि जीवन में दुख के किंंचित् क्षण भी अत्यन्त लम्बे लम्हे जैसे लगते हैं और सुखमय लम्बा जीवन कब जल्दी ही निकल जाता है,
ज्ञात नहीं हो पाता। इसी प्रकार से बालक हीरालाल सात वर्र्ष के पूरे होकर आठवें वर्ष में प्रवेश कर गए। माता-पिता ने अब शुभ मुहूर्त में उपनयन संस्कार का आयोजन कराया।
इस कृतयुग की आदि में भगवान ऋषभदेव ने जब मनुष्यों को जीने की कला सिखाई थी, उस समय उपनयन आदि मनुष्योचित क्रियाओं का वर्णन भी किया था। उसी विधि के अनुसार बालक हीरालाल को मंगलचौक के ऊपर बिठाकर मंत्रन्यासपूर्वक संस्कार किए गए और तीन सूत्र का धागा गले में डाल दिया गया जो कि रत्नत्रय का प्रतीक होता है। अब वह बालक से श्रावक बन गया। अपनी समस्त क्रियाओं का पालन करते हुए हीरालाल अब पाठशाला में पढ़ने भी जाने लगा। बुद्धि की तीक्ष्णता तो थी ही, स्कूल में सभी अध्यापकों के प्रेमपात्र बन गए और लड़कों के नायक चुन लिए गए। इनके शुभ लक्षण और ज्ञान की प्रखरता देखकर अनायास ही लोग कह उठते थे कि यह तो जरूर कोई महापुरूष होने वाला है। चंचलबुद्धि, मानकषाय की मंदता हीरालाल के जीवन की प्रमुख विशेषता थी।
हिन्दी, उर्दू इन दोनों भाषाओं में उन्होंने सातवीं कक्षा तक अध्ययन किया, उसके पश्चात् पिता की आज्ञानुसार व्यापार कार्य प्रारम्भ कर दिया।
हीरालाल अब तक १५ वर्ष के युवक हो गए थे। पिता के साथ व्यापार तो करते थे किन्तु इनका चित्त उदासीन रहने लगा और ये अपना अधिक समय भगवान की पूजन, भक्ति एवं शास्त्र स्वाध्याय में व्यतीत करते।
बेटे की यह उदासीनता पिता को सहन न हो पाई। यद्यपि उनको किंंंचित् अहसास था और लोगों के मुख से भी सुना करते थे कि हीरालाल मात्र एक घर में ही अपनी चमक को सीमित न रखकर सारे संसार को जगमगाएगा किन्तु वैराग्य के चंगुल में कहीं मेरा बेटा फंस न जाए इसलिए शीघ्र ही उसे विवाह-बंधन में बाँधने की युक्ति सोचने लगे।
सुन्दर, रूपवान और बुद्धिमान हीरालाल की शादी के रिश्ते जगह-जगह से आ रहे थे। एक दिन पिताजी ने उनसे शादी के विषय में कुछ राय लेनी चाहिए अतः हीरालाल से बोले –
बेटा! अब तुम एक होनहार नवयुवक के रूप में युवावस्था देहलीज पर खड़े हो अत: मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे घर में आने वाली बहू का चयन स्वयं करो। माँ ने भी कहा – मुझे तो तेरे जैसी ही सुन्दर और सुघड़ बहू चाहिए। सुन हीरा! अच्छी कन्या पसंद करना जो कि मेरी कुछ सेवा भी कर सके।