नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा। रोते हुए रामसुख जी हीरालाल को छाती से लगाते हुए कहते हैं-
मेरे चाँद! तू समझता नहीं है कि त्यागमार्ग में कितने कष्ट होते हैं। तलवार की धार पर तेरे जैसे सुकुमार का चलना श्रेयस्कर नहीं है। मेरी बात मानो बेटा! घर बसाओ और हमारे बुढ़ापे का सहारा बनो। मैं तेरा वियोग कभी नहीं सहन कर सकता हीरा।
हीरालाल अब कोई नादान नहीं थे। वे परिवार की सारी स्थिति को समझ रहे थे। अन्ततोगत्वा उन्होंने ब्रह्मचारी रूप में ही घर में रहते हुए माता-पिता की सेवा करना स्वीकार किया।
रामसुख भी अब कुछ आश्वस्त हुए कि बहू नहीं न सही, किन्तु कम से कम बेटा तो हमारे जीवन का अंग बना ही रहेगा।
घर में रहकर भी हीरा द्वारा अपनी चमक में निखार लाने हेतु रसपरित्यागपूर्वक भोजन करना एवं शास्त्रों का मनन-चिन्तन पूर्व की अपेक्षा अधिक प्रारम्भ हो गया।
दिवस, मास और वर्ष व्यतीत होने लगे। कुछ दिनों के बाद ही रामसुख जी का स्वर्गवास हो गया। पितृवियोग के साथ-साथ कतिपय दिवसों के पश्चात् ही माता भी स्वर्ग सिधार गईं। अब हीरालाल के लिए मात्र भाई का ही संबल था।
ज्ञानी के लिए तो सबसे प्रबल संबल उसका तत्वज्ञान ही होता है, उसी का आधार लेकर हीरालाल ने अपनी मंजिल को अब निराबाध समझ लिया किन्तु योग्य गुरु के अभाव में अभी दीक्षा की भावना को बल नहीं प्रदान किया।
वि.सं. १९७३, सन् १९१६ में औरंगाबाद के निकट कचनेर नामक अतिशय क्षेत्र में धार्मिक पाठशाला खोलकर हीरालाल जी बालकों को निःशुल्क धार्मिक शिक्षण देने लगे पुनः औरंगाबाद में भी एक विद्यालय खोलकर उन्होंने धार्मिक अध्ययन कराया। दोनों जगह उन्होंने अवैतनिक अध्ययन कराया था और उस प्रान्त में सभी के द्वारा गुरूजी कहे जाने लगे थे। यह अध्ययनक्रम सात वर्ष तक चला जिसके मध्य निःस्वार्थ सेवाभाव से जनमानस के नस-नस में जैनधर्म का अंश भर दिया था।
वि.सं. १९७८, सन् १९२१ में नांदगांव में ऐलक श्री पन्नालाल जी का चातुर्मास होने वाला था। चातुर्मास के समाचार सुनकर हीरालाल गुरुदर्शन की