लालसा से नांदगांव पहुंच गए। अब तो हीरालाल को अपनी स्वार्थसिद्धि का मानो स्वर्ण अवसर ही प्राप्त हुआ था अतः मौके का लाभ उठाते हुए आषाढ़ शुक्ला ग्यारस को ऐलक श्री पन्नालाल जी के पास सप्तमप्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिए पुनः नांदगांव के ही एक प्रसिद्ध श्रावक खुशालचंद जी को हीरालाल ने अपना साथी बना लिया अर्थात् उनके ह्रदय के अंकुरित वैराग्य को बीजरूप दे दिया और उन्हें भी सप्तमप्रतिमा के व्रत दे दिए।
युगल ब्रह्मचारी की जोड़ी अब तो राम-लक्ष्मण की जोड़ी बन गई थी। दोनों ही अपने-अपने वैराग्य को वृद्धिंगत करने हेतु उपवास, रसपरित्याग आदि करने लगे जिससे प्रारम्भ से ही उनका शरीर तपस्या की बलिवेदी पर चढ़कर मजबूत बन गया था।
ब्र. हीरालाल और खुशालचंद अभी योग्य गुरु के अभाव में इससे आगे नहीं बढ़ सके थे। इसी अवस्था मेंं उन्होंने घी, नमक, तेल और मीठे का जीवनपर्यंत के लिए त्याग कर दिया था।
सच्चे ह्रदय से भाई गई भावना अवश्य एक दिन भवनाशिनी सिद्ध होती है इसी प्रकार हीरालाल जी को ज्ञात हुआ कि दक्षिण के कोन्नूर ग्राम में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज नाम के दिगम्बर मुनि विराजमान हैं। बस फिर क्या था, दोनों ब्रह्मचारी शीघ्र ही आचार्यश्री के पास पहुँच गए। दर्शन-वंदन करके आशीर्वाद प्राप्त किया। जिस प्रकार आचार्य धरसेन स्वामी के पास पुष्पदंत और भूतबलि दो शिष्य उनकी इच्छापूर्ति के लिए पहुँचे थे उसी प्रकार मानो आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के पास युगल ब्रह्मचारी उनकी अविच्छिन्न परम्परा चलाने का भावी स्वप्न संजोकर पहुँचे थे।
गुरुवर की कठोर तपश्चर्या और त्याग की चरम सीमा को देखकर दोनों बड़े प्रभावित हुए और उन्हीं से दीक्षा लेना निश्चित कर लिया। आचार्यश्री ने दोनों भव्यात्माओं को दूरदृष्टि से परखकर दीक्षा देना तो स्वीकार कर लिया किन्तु एक बार घर जाकर परिवारजनों को सन्तुष्ट करके क्षमायाचनापूर्वक आज्ञा लेकर आने का आदेश दिया।
संसारसिंधुतारक गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य करते हुए युगल ब्रह्मचारी अपने घर आ गए। औपचारिकरूप से सबसे क्षमायाचना करके स्वीकृति माँगी, तब बड़े भाई गुलाबचंद और उनकी पत्नी का ह्रदय विह्वल हो गया। यद्यपि दोनों इस बात को समझ चुके थे कि ब्रह्मा की शक्ति भी अब हीरा को घर में बाँधकर नहीं रख सकती है किन्तु मोह का प्रबल आवेग आँसुओं के सहारे फूट पड़ा। हीरालाल को उन्होंने बहुत समझाया कि भाई! अब तुमने सप्तमप्रतिमा तो ले ही ली है, घर में रहकर अभ्यास करो। मैं तुम्हारी किसी भी चर्या में बाधक नहीं बनूँगा। हीरा! तुम मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ।
भाभी बार-बार देवर के चरणों का स्पर्श करती हुई विलाप करने लगी। वह बोली – भैया! मुझ अभागिन के भाग्य से सास-ससुर की सेवा का सुख विधाता ने छीन लिया, अब आपके जाने से तो हम बिल्कुल असहाय हो रहे हैं। मैं आपकी कुछ सेवा करके अपने को भाग्यशाली समझूँगी।
वैरागी के विरक्त मन को संसार की कोई भी रागिनी लुभा नहीं सकती है। उसी प्रकार हीरालाल पत्थर के समान कठोर बने रहे, उन्होंने समझाते हुए भाई-भाभी को कहा-
भैया! आप और भाभी तो मेरे माता-पिता के समान हैं। आप मुझे मत रोकें। देखो! इस असार संसार में हम लोगों ने कितने भवों को धारण कर दुख उठाए हैं। आर्तरौद्र ध्यानों को करके सदा अपने संसार को बढ़ाया ही है। ओह! न जाने किस पुण्योदय से यह मनुष्य पर्याय प्राप्त करके त्याग के भाव बने हैं जो संसार की स्थिति का ह्रास करने वाले हैं। हे तात! अब मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान करें, मेरा एक-एक पल आत्मचिंतन के लिए इंतजार कर रहा है।
पत्थर की मूर्ति की भाँति जड़वत् खड़े-खड़े भाई-भाभी हीरालाल को आत्मपथ की ओर जाते देखते रहे और मौनपूर्वक लघु भ्राता के निराबाध जीवन के लिए आशीर्वाद प्रदान करते रहे।
सबके मोह को त्यागकर हीरालाल जी अब पूर्ण निश्चिंत होकर खुशालचंद को साथ लेकर वापस आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पास पहुंँच गए। उस समय आचार्यश्री कुम्भोज नगर में विराजमान थे। गुरुचरणों में ंपहुँचकर हीरालाल प्रसन्नता के अथाह सागर में गोते लगाने लगे। उनको नमन कर पुनः दीक्षा के लिए याचना की।
आचार्यश्री ने परीक्षा के तौर पर उन ब्रह्मचारियों को कहा-
हे भव्ययुगल! जैन दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व खूब विचार मंथन कर लो। जिसे लेना ही नहीं वरन् एक सबल योद्धा की भाँति पालन करना अति आवश्यक है क्योंकि तलवार की धार के समान यह जैनी दीक्षा लाखों कष्ट-