उपसर्गों के आने पर भी छोड़ी नहीं जाती। सर्दी-गर्मी, नग्नता, केशलोंच, एक बार भोजन आदि समस्त परीषह समतापूर्वक सहन करने वाला ही अपने आत्मतत्त्व को सिद्ध कर सकता है।
यद्यपि आचार्यदेव की दूरदृष्टि उनके अन्तस्तल को पहचान चुकी थी किन्तु खूब ठोक-बजाकर एक बार दोनों की दृढ़ता तो देखनी ही थी इसीलिए उन्होंने पुनः प्रश्न किया-
शिष्यों! यदि तुम वास्तविक रूप में संसार से विरक्त होकर मेरे पास आए हो एवं इन कष्टों को सहन करने की पूर्ण क्षमता रखते हो तो मुझे दीक्षा देने में कोई एतराज नहीं है।
निराश मन में आशा की किरणें फूट पड़ीं, रश्मियाँ बिखरने लगीं और प्रकाश चारों ओर पैâल गया। ह्रदय में ज्ञानसूर्य उदित हो गया। सच्चे ह्रदय से दोनों ने स्वयं को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया और कहने लगे-
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
हे भगवन् ! आप सबके निष्कारण बंधु हैं, जैसे भी चाहें हम लोगों का कल्याण करें। हम तो मात्र आपकी शरण में आए हुए अबोध शरणागत हैं।
आचार्यश्री ने उभय ब्रह्मचारी को अपना शिष्य बना लिया एवं दीक्षा के लिए तत्पर उन दोनों को धार्मिक अध्ययन कराना प्रारम्भ कर दिया। श्रावक की चर्या, उनके कर्तव्य आदि बतलाते हुए ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप बताया।
ऊँचे महल की ऊँचाई तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों पर क्रम-क्रम से चढ़ना पड़ता है तभी मंजिल प्राप्त हो सकती है उसी प्रकार मोक्ष महल तीनलोक से भी ऊँचा है उसे प्राप्त करने के लिए क्रम-क्रम से श्रावक, क्षुल्लक, ऐलक, मुनि आदिरूपी सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता है तभी वह मंजिल प्राप्त हो सकती है।
इसी क्रम के अनुसार आचार्यदेव ने ब्रह्मचारीयुगल को सर्वप्रथम श्रावकोत्तम क्षुल्लक दीक्षा देने का निर्णय किया और शुभमुहूर्त निकाला वि. सं. १९८०, सन् १९२३, फाल्गुन शुक्ला सप्तमी का पवित्र दिवस।
हीरालाल यद्यपि मुनिदीक्षा को ही सर्वप्रथम धारण करना चाहते थे किन्तु आचार्यश्री की आज्ञानुसार शारीरिक परीक्षण हेतु क्षुल्लक दीक्षा में ही सन्तोष प्राप्त किया।
दो नवयुवक ब्रह्मचारियों की दीक्षा का समाचार सुनकर सारी जनता उमड़ पड़ी। अश्रुपूरित नयनों से लोग इनके वैराग्य की प्रशंसा कर रहे थे और जय-जयकारों के अविरल स्वर से अपने पापों का क्षालन कर रहे थे।
आचार्यश्री अपने नवशिष्यों के मस्तक पर दीक्षा के संस्कार करने में मग्न थे। संस्कारों के साथ-साथ पारम्परिक और शास्त्रिक नियम भी नवदीक्षित शिष्यों को ग्रहण कराए।
दोनों ने विशाल जनसमूह के मध्य खड़े होकर आचार्यश्री के द्वारा प्रदत्त समस्त नियमों को सविनय स्वीकार किया एवं जीवन भर गुरु के अनुशासन में रहने का संकल्प लिया। तभी गुरुदेव ने सभा के मध्य ब्र. हीरालाल को क्षुल्लक श्री वीरसागर और ब्र. खुशालचंद को क्षुल्लक चंद्रसागर नाम से सम्बोधित किया, जिसका सभी ने जय-जयकारों के साथ स्वागत किया।
मस्तक पर प्रथम संस्कारों के कारण क्षुल्लक वीरसागर बड़े और चंद्रसागर छोटे क्षुल्लक जी बन गए।मात्र चादर और लंगोटी को धारण करके दोनों शिष्य आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के दाएँ-बाएँ हाथ बन गए थे। गुरु के साथ ये भी पैदल ही विहार करने लगे।
कुछ ही दिनों में वि.सं. १९८१, सन् १९२४ में संघ समडोली ग्राम में पहुँचा और वहीं वर्षायोग स्थापना हुई। सतत ज्ञानाराधना एवं अपनी चर्या में सावधान क्षुल्लक वीरसागर को अभी पूर्ण संतुष्टि नहीं थी, वे तो दिगम्बरी दीक्षा धारण करके कठोर तपश्चरण करना चाहते थे।
गुरु आज्ञा में निरन्तर प्रयत्नशील शिष्य को एक न एक दिन गुरु का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है।
एक दिवस क्षुल्लक वीरसागर ने आचार्यश्री के पास जाकर निवेदन किया-
गुरुदेव! मैं मुनिव्रत की दीक्षा लेना चाहता हूँ । आप विश्वास रखें, मैं आपके निर्देशानुसार प्रत्येक चर्या का निर्दोष रीति से पालन करूँगा।
शिष्य की तीव्र अभिलाषा एवं पूर्ण योग्यता देखकर आचार्यश्री ने समडोली में ही इन्हें मुनि दीक्षा प्रदान की। अब तो वीरसागर जी क्षुल्लक से मुनि वीरसागर बन गए और मानो आज तो त्रैलोक्यसम्पदा ही प्राप्त हो गई हो।ऐसी असीमित प्रसन्नता वीरसागर जी ने अपने जीवन में प्रथम बार प्राप्त की थी।