इसीलिए आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के प्रथम शिष्य होने का परम सौभाग्य मुनि वीरसागर जी को ही प्राप्त हुआ।
मुनि दीक्षा के पश्चात् आपने आचार्य संघ के साथ दक्षिण से उत्तर तक बहुत सी तीर्थवंदनाएँ करते हुए पदविहार किया। गुरुदेव के चरण सानिध्य में अनमोल शिक्षाओं को जीवन में गाँठ बाँधकर आपने रखने का निर्णय किया था इसीलिए अन्त तक गुरुभक्ति का प्रवाह ह्रदय में प्रवाहित रहा।
आचार्यश्री के साथ आपने १२ चातुर्मास किए। उन गाँवों के नाम-
श्रवणबेलगोल, कुम्भोज, समडोली, बड़ी नांदनी, कटनी, मथुरा, ललितपुर, जयपुर, ब्यावर, प्रतापगढ़, उदयपुर तथा देहली।
उस समय तक आचार्यश्री के १२ शिष्य बन चुके थे-
मुनि वीरसागरजी, चन्द्रसागर, नेमिसागर, कुन्थुसागर, सुधर्मसागर, पायसागर, नमिसागर, श्रुतसागर, आदिसागर, अजितसागर, विमलसागर, पार्श्वकीर्ति।
एक बार आचार्यश्री ने सभी शिष्यों को निकट बुलाकर धर्मप्रचारार्थ अलग-अलग विहार करने का आदेश दिया और संघ को २-३ भागों में विभक्त कर दिया। यद्यपि सभी शिष्य बहुत दुःखी हुए क्योंकि वे पूज्यश्री की छत्रछाया से वंचित नहीं होना चाहते थे किन्तु –
सिंह लगन सत्पुरुष वचन, कदलीफल इक बार।
तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़े न दूजी बार।।
इसी सूक्ति के अनुसार आचार्य महाराज एक बार आज्ञा के पश्चात् कभी उसमें परिवर्तन नहीं करते थे।
अन्त में गुरुवर्य का आशीर्वाद प्राप्तकर सभी ने यत्र-तत्र विहार किया एवं आचार्यश्री की समस्त शिक्षाओं के माध्यम से धर्मप्रचार करना प्रारम्भ कर दिया। प्रमुख शिष्य मुनि वीरसागर जी ने अपने साथ में मुनि श्री आदिसागर और अजितसागर महाराज को लेकर विहार किया।
वि. सं. १९९२, सन् १९३५ में गुरुवियोग के दुःख को सहन करते हुए मुनि श्री वीरसागर जी के संघ का प्रथम चातुर्मास गुजरात के ईडर शहर में हुआ, जहाँ अपूर्व धर्मप्रभावना हुई। इस शताब्दी में लुप्त साधु परम्परा को जीवन्तरूप प्रदान करने वाले आचार्यश्री को सभी नर-नारियों ने एक नरपुंगव के रूप में देवता मानकर मुक्तकंठ से प्रशंसा की।
समस्त शिष्यों के विहार करने के पश्चात् आचार्यश्री के पास मात्र एक मुनि नेमिसागर जी आग्रहपूर्वक रह गए थे जिन्हें अहर्निश गुरुचरणों का सानिध्य प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
आत्मकल्याण के साथ-साथ परकल्याण की भावना में तत्पर वीरसागर महाराज ने गाँव-गाँव में विहार करते हुए अनेक शिष्यों को क्षुल्लक, ऐलक, मुनि बनाया तथा अनेकों महिलाओं को आर्यिका, क्षुल्लिका के व्रत प्रदान कर मोक्षमार्ग में लगाया।
वि. सं. १९६५ में इन्दौर चातुर्मास में आपने अपने गृहस्थावस्था के बड़े भाई गुलाबचंद को सप्तमप्रतिमा के व्रत दिए थे, जो आगे जाकर दसवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक प्रसिद्ध हुए हैं।
वि. सं. २००० में आप खातेगांव चातुर्मास करके सिद्धवरकूट क्षेत्र पधारे। दो चक्री दश कामकुमारों की निर्वाणभूमि के पवित्र स्थल पर औरंगाबाद के अन्तर्गत अड़गाँव निवासी खंडेलवाल जाति में जन्म लेने वाले राँवका गोत्रीय श्रावक हीरालाल को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की और उनका शिवसागर नाम रखा।
शिष्यपरम्परा की शृँखला में वीरसागर जी के मुनियों में प्रथम शिष्य शिवसागर ही बने, जो भविष्य में गुरु के पट्टाचार्य पद को सुशोभित कर संघ संचालन का श्रेय प्राप्त कर चुके हैं।
बीस वर्षों के लम्बे अन्तराल के पश्चात् सन् १९५५ में कुंथलगिरि क्षेत्र पर आचार्यश्री शांतिसागर महाराज ने चातुर्मास किया था। इधर वीरसागर महाराज अपने चतुर्विध संघ सहित जयपर खानिया में चातुर्मास कर रहे थे। हजारों मील की दूरी भी गुरु-शिष्य के परिणामों का मिलन करा रही थी।
आचार्यश्री ने अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य यम सल्लेखना ग्रहण कर ली थी। इस समाचार से उनके समस्त शिष्यों एवं सम्पूर्ण जैनसमाज के ऊपर एक वङ्काप्रहार सा प्रतीत होने लगा था। कुंथलगिरि में प्रतिदिन हजारों व्यक्ति इस महान आत्मा के दर्शन हेतु आ-जा रहे थे।
सल्लेखना की पूर्व बेला में ही आचार्यश्री ने अपना आचार्यपद त्याग कर दिया और तत्कालीन संघपति श्रावक श्री गेंदनमल जी जौहरी, बम्बई वालों से एक पत्र लिखवाया। अपने प्रथम शिष्य मुनि श्री वीरसागर महाराज को सर्वथा आचार्यपद के योग्य समझकर एक आदेशपत्र जयपुर समाज के नाम लिखाकर भेजा। यहाँ पर समयोचित ज्यों का त्यों उस पत्र को दिया जा रहा है-