आचार्यश्री के जीवन की विशेषताएँ-
पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं इसी सूक्ति के अनुसार आचार्यश्री का प्रारम्भिक जीवन ही उनकी महानता का दिग्दर्शन करा रहा था पुनः पारसमणि के स्पर्श से जैसे लोहा भी सोना बन जाता है उसी प्रकार आपने चारित्रचक्रवर्तीरूपी पारस के चरणों का जब स्पर्श कर लिया था तो जीवन कुन्दन ही नहीं बना प्रत्युत् गुरु के समस्त गुणों को भी अपनाकर मानो सोने में सुगंधि ही डाल दी थी। यही कारण रहा कि आपके जीवन में पग-पग पर विशेषताएँ चरण चूमने लगीं।
वीरसागर नाम क्यों पड़ा?
व्याकरणशास्त्र के अनुसार वि-विशेषेण, ई-लक्ष्मी, रा-राति ददाति असौ वीरः। जो अपूर्व लक्ष्मी को देता है उसे वीर कहते हैं किन्तु ये वीरसागर तो स्वयं नग्न थे तो दूसरे को लक्ष्मी कहाँ से देते?
नहीं, नहीं, यह संसार की क्षणिक, विनाशीक लक्ष्मी नहीं वरन् गुरुदेव तो शिष्यों को रत्नत्रय की शाश्वत, अविनश्वर, अपूर्व लक्ष्मी प्रदान करते थे तथा जिनकी आत्मा रणक्षेत्र के बहादुर सैनिकों की भांति कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के दृढ़संकल्पपूर्वक दीक्षा के मैदान में प्रवृत्त हुई थी, वे तो काम और नाम दोनों से ही वीर नाम को सार्थक कर रहे थे।
वीर के साथ सागर शब्द भी जुड़ा है अतः आप सागर के समान गम्भीर, स्याद्वादवचनरूपी तरंगों से व्याप्त एवं मूलगुण एवं उत्तरगुणरूपी रत्नों से युक्त और अगाध ज्ञान के धारी होने से वीरसागर नाम से जाने जाते थे किन्तु क्या सागर जल के समान आपके वचनों में खारापन था?
ऐसा होता, तो सभी उन वचनों को सुनकर भाग जाते क्योंकि खारा जल कोई पीना नहीं चाहता। सागर तो मानों इन श्रीगुरु के चरणों में अपनी हार मानकर मस्तक झुकाकर कह रहा था-
मैं तो नकली सागर हूँ किन्तु असली सागर तो आप ही हैं क्योंकि आप संसार सागर से लोगों को पार लगाकर मोक्ष पहुँचाते हैं किन्तु मैं तो मात्र खड़ा हिलोरे ही भर रहा हूँ।
वह तो बार-बार अपनी बदनसीबी पर आँसू बहाते हुए कहता है-
भगवन्! सैकड़ों, हजारों टन मिश्री मेरे पेट में डाल दी जावे तो भी मेरा दुःस्वादु जल सुस्वादु अर्थात् मीठा नहीं बन पाता किन्तु आपके वचन तो स्वयमेव मिश्रीरूप ही हैं जो सारे संसार को मिष्टता प्रदान करते हैं अतः आप ही सच्चे सागर हैं, मैं तो नामधारी सागर ही रह गया।
ऐसे सागर की सार्थकता को पहचानने वाले वीरसागर महाराज थे। जिसने एक ही बार आपके धर्मामृत का पान किया हो तो उसकी बार-बार पीने की इच्छा होती थी। आपकी सहनशीलता अत्यन्त आश्चर्यकारी थी।
एक बार नागौर चातुर्मास में आपके पीठ में एक भयंकर फोड़ा हुआ जिसमें तीव्र वेदना होती थी, भयंकर ज्वर आता था परन्तु आपके मुख से कभी दुःखपूर्ण शब्द सुनने को नहीं मिला बल्कि फोड़ा पूरा पक जाने पर जब डॉक्टर को उसके आप्रेशन को बुलाया गया तब डॉक्टर तो भयभीत सा पीछे खड़ा था और महाराजश्री अपनी दैनिक क्रियाओं में संलग्न थे।
उस समय एक श्रावक ने महाराज का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा-महाराज! डॉक्टर आ गए हैं, आपके फोड़े का आप्रेशन होगा।
आचार्यश्री ने एक नजर से डॉक्टर को देखा और पूछा-
भाई! तुम मुझे यह बता दो कि इसके आप्रेशन में कितना समय लगेगा? डॉक्टर बोला-गुरुदेव! आपके इतने बड़े फोड़े का आप्रेशन बिना बेहोशी के हो पाना असम्भव है, आप इस असह्य वेदना को सहन नहीं कर सकते।
महाराज बोले-भैया! जब हम अनादिकाल से जन्म-मरण के घोर कष्ट सहन करते आ रहे हैं तो यह कष्ट कौन सा असह्य है? तुम अपना काम शुरू करो, मुझे समय बता दो।
डॉक्टर पूज्यश्री की दृढ़ता को भांप चुका था अतः काँपते हाथों से उसने औजार निकाले और मुनिश्री को कह दिया कि १ घण्टा तो साधारण सी बात है। वह सोच रहा था कि मेरे तीखे पैने औजार इस भयंकर दर्दनाक फोड़े पर लगते ही ये बाबा तो चीत्कार कर उठेंंगे किन्तु यह क्या! डॉक्टर १ घण्टे तक उस पीठ पर अपना कार्य करते रहे, सारा कार्य सम्पन्न हो गया। वह तपस्वी अपने चिन्तन में मग्न। कुछ क्षण डॉक्टर उस आत्मसाधक को अपलक निहारता रहा पुन: ध्यान भंग किया-
मुनिवर! मैंने ऑप्रेशन कर दिया है। आचार्यश्री के चरणों में वह नतमस्तक हो गया।
हमारे पाठक बन्धुओं को भी आश्चर्य हो रहा होगा कि ऐसी कौन सी शक्ति