आचार्यश्री के अन्दर समाविष्ट हो गई थी? आचार्यश्री ने शिष्यों के प्रश्न पर यही बताया कि मैं अपने चित्त को गोम्मटसार कर्मकाण्ड में वर्णित कर्मप्रकृतियों के चिन्तन में लगाकर सोच रहा था कि यह जीव संसार में किस प्रकार से कौन-कौन से कर्मों का बंध करता है? किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का उदय, अनुदय और उदयव्युच्छित्ति है? इस गणितीय विज्ञान में दर्द का अहसास नहीं हुआ।
धन्य हैं ऐसे धीरवीर महामना योगिराज! वास्तव में ऐसे ही योगी के प्रति पं. दौलतराम जी ने ये शब्द लिखे हैं-
तिन सुथिर मुद्रा देख मृगगण, उपल खाज खुजावते।
आपकी गुरुभक्ति विशिष्ट थी। प्रत्येक प्रतिक्रमण के दिन आप अपने गुरु का स्मरण अवश्य करते और शिष्यों से कहते थे कि तुम लोग तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाते हो परन्तु मेरे गुरु मेरे समीप नहीं हैं, मैं अपनी शुद्धि वैâसे करूँ?
इसी प्रकार से आचार्यश्री की प्रमुख शिष्याओं में से पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कई बार अपने गुरुदेव के संस्मरण सुनाते हुए कहा करती हैं कि-
आचार्यश्री प्रायः सायंकाल के समय समस्त शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहते थे कि देखो! तुम शिष्यगण मेरे अनुशासन में रहकर एकता के सूत्र में बंधे हो इसीलिए मेरे आचार्यपद की गरिमा है क्योंकि गुरु से शिष्यों की और शिष्यों से गुरु की शोभा रहती है। उनकी शिक्षाओं में प्रमुख शिक्षा थी-
जीवन में सदैव सुई का काम करो, केंची का नहीं अर्थात् समाज एवं परिवार में रहकर संगठन के कार्य करो, विघटन के नहीं क्योंकि वैंâची कपड़े को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर देती है लेकिन एक छोटी सी सुई उन टुकड़ों को भी सिलकर एक कर देती है। उसी प्रकार से कभी ऐसे कार्य मत करो जिससे संघ के टुकड़े हों, सब लोग सहनशील बनकर संगठन के धागे से बंधे रहो। यही कारण था कि आचार्यश्री के जीवनकाल तक कोई भी शिष्य उन्हें छोड़कर कभी संघ से अलग नहीं हुआ।
सम्यक्त्व की दृढ़ता हेतु वे कहा करते थे-
तृण मत बनो, पत्थर बनो। पाश्चात्य संस्कृतिरूपी हवा के झकोरे में जो तृणवत् हल्के हैं, अस्थिर बुद्धि के हैं, वे बह जाते हैं किन्तु जो पत्थर के समान अचल हैं, जिनवाणी के दृढ़ श्रद्धालु हैं, वे अपने स्थान पर एवं सम्यक्त्व में अचल रहते हैं। वे गुरुदेव सम्यक्त्व में सदैव स्वयं भी अचल रहे हैं और अपने शिष्यों को भी आगममार्ग में अचल रखा है।
कभी-कभी महाराज पुत्रवत् अपने शिष्यों के मुँह से अमुक रोगों की चर्चा सुनकर हँसकर कहते कि-
मुझे तो मात्र दो रोग हैं-एक तो भूख लगती है, दूसरे नींद आती है अर्थात् जिनके ये दो रोग समाप्त हो जावेंगे, वे संसारी ही नहीं रहेंगे बल्कि मुक्त कहलाएँगे अतः इन्हीं दो रोगों के नष्ट करने का उपाय करना चाहिए।
शिष्य परिकर के मनोरंजन हेतु श्री वीरसागर महाराज सदैव कुछ न कुछ घूँटी पिलाने का प्रयास करते हुए कहते-
अपने दीक्षा दिवस को कभी मत भूलो अर्थात् दीक्षा के समय परिणामों में विशेष निर्मलता रहती है इसीलिए उस दिवस के उज्ज्वल भावों को हमेशा याद रखने वाला साधु कभी भी अपने पद से च्युत नहीं हो सकता है और उत्तरोत्तर चारित्र की वृद्धि ही होती है।
ऐसे अनेकों सूत्ररूप वाक्य हैं जिन्हें आचार्यश्री अपने जीवनकाल में प्रयोग करते थे।
आचार्यश्री वीरसागर महाराज को मृगी का रोग था। जब उसका असर होता था, उस समय वे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः आदि सूत्रों को उच्चस्वर से बोलते हुए उनका अर्थ करने लगते और उपदेश देने लगते थे, तब पास में बैठे हुए साधुओं को पता लग जाता था कि आचार्यश्री को इस समय दौरे का प्रकोप है। कभी-कभी जोर-जोर से महामंत्र का उच्चारण करने लगते, तब यह ज्ञात हो जाता कि आचार्यश्री को मृगी का प्रकोप हो रहा है। यह उनके जीवन के संस्कारों की ही प्रबलता थी कि मूचर््िछत अवस्था में भी आचार्यश्री की धार्मिक क्रियाओं के अतिरिक्त अनर्गल चर्या नहीं होती थी।
वे धवला की भिन्न-भिन्न पुस्तकों का स्वाध्याय दिन भर किया करते थे। एक बार उन्होंने कहा कि इन ग्रन्थों के बहुत से विषयों को मैं समझ नहीं पाता हूँ फिर भी धवला की प्रथम पुस्तक में यह बात लिखी है कि स्वाध्याय के समय असंख्यातगुणितरूप से कर्मों की निर्जरा होती है इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं सतत इन ग्रन्थों का स्वाध्याय करता रहता हूँ।
शुद्धोपयोगरूप वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित नहीं रह सकने वाले साधुओं के लिए श्रीकुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार में कहा है कि-
दंसणणाणुवदेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं।