[ श्री लाला छोटेलालजी कृत]
२७. रूपी पुद्गल जान अरु पुद्गल रूपी जीव।
थोड़ी पर्जाओं सहित जाने अवधि सदीव ॥११॥
॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥
॥छन्द विजया ॥
॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥
२. जिन नर्कोंमें बिले कहे हैं तिनकी संख्या सुनो सुजान।
प्रथम नर्कमें तीस लाख बिल दूजे लाख पचीस बखान ॥
तीजे पन्द्रह लाख गिनो बिल दश लख चौथे में परमान।
११. हिमवन महाहिमवान निषध्या नीलसु रुक्मि शिखिरनी जानो।
पूरब पच्छिम लंबे कहे पुनि क्षेत्र विभागको कारण मानो ॥
१२. सुवरन रूपो तायो सुवरन मनो वैडूर्य सु रंग कहो है।
२३. गंग कुटुम्ब सहस्त्र चतुर्दश सिन्धु कतुर्दशतें दूनो।
२४. पंच शतक छबीस कला षट् योजन भरतसु क्षेत्र कहानो।
इक योजनकी उनईस कला तामें छै लेख सु ऊपर हैं।
३७. भरतक्षेत्र ऐरावत मान। और विदेह कर्मभुअ जान।
देवकुरु उत्तरकुरु थान। भोग भूमि तहैं कही सुखदान ॥ २६ ॥
आयु पल्य त्रय। ३८. नर उतकृष्टि।
अन्त मुहूरत जघनसु दृष्टि उत्तम भोगभूमि मनुजान ।
३९. अरु तिर्यंच आयु इह मान ॥ २७ ॥
॥ इति तृतीयोध्यायः ॥
असुर नाक विद्युत तथा, सुपर्न अग्नि रु वात।
तनित उदधि अरु द्वीप दिग, दशकुमार विख्यात ॥
■ दोहा-
२१. गति शरीर परिग्रह तथा, और जान अभिमान ।
इनमें हीन निहारिये, ऊपर ऊपर जान ॥१२ ॥
२२. लेश्या पीत सु जानियो दोय जुगलके मांहि।
तीन जगलमे पद्म है शेष शुक्ल शक नाहि ॥ १३॥
॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥
॥इति पंचमोऽध्यायः ॥
१०. दर्शनज्ञान के धारककी अरु दर्शन ज्ञान बडाई न भावै।
जानत हैं गुण नीकी तरह अरु पूछैतें गुण नाहिं बतावै ।।
मांगे न पोथी देय कभी विद्वान पुरुषसौं फेर सु राखै।
गुणवान को निर्गुण मूढ कहै सो दर्शन ज्ञान अवर्ण बढावै ॥ ८ ॥
॥इति षष्ठोध्यायः ॥
४. मन अरु वचन गुप्ति सुखकार। देख चलै अरु धेरै निहार।
खान-पान विधि निरख करेय। व्रत अहिंसा पंच गिनेय ॥ ३ ॥
३५ सचितवस्तु आहारसु देय। सचित मिलाय जुदा न करेय।
वस्तु सचित्त मिलो आहार। और पुष्ट रस जानो सार ॥ ३२॥
दुखकर पचै सु भुजै नाहिं । भोगुपभोग अतिचार कहांहिं।
सचितमाहिं धारी जो वस्तु। और सचित ढांकी अप्रशस्त ।॥ ३३॥
॥ इति सप्तमोऽध्यायः ॥
४. पहिले विधिको है जो भेद । ज्ञानावर्णी पांच विभेद।
दर्शन आवर्णी नव जान। वेदनि दोय प्रकार बखान ॥ ४ ॥
॥ इति अष्टमोऽध्यायः ॥
१८. सामायिक व्रत त्रिकाल सुनो उत्कृष्टि घड़ी छहर सु कहाई।
सब जीवविर्षं सम भाव करें तजि आरति रौद्र सु भाव लहाई॥
गुणमूल अट्ठाइस माहिं लगौ कोउ दोषसु ताहि उथापहिं ज्ञानी।
छेदोपस्थापन नाम कहो लख सूत्र विचारसु या विध ठानी ॥ २० ॥
हिंसादिक त्यागमें निर्मलता परिहारविशुद्धि नाम कहायो ॥
सूक्षम साम्पराय कहु ताको भेद सु सूक्षम लोभ लहायो।
यथाख्यात चारित्र सुनो सो आतम सोई स निरमल थायो
या विध पांच प्रकार लखौ शुभ चारित नाम सुसूत्रमें गायो ॥ २१ ॥
४६. सम्यकदर्शनधारी मुनी। पांच प्रकार संज्ञा तिन भनी
परिग्रह रहित कहे निरग्रन्थ। तिनके सुनो भेद अरु पंथ
उत्तरगुण भावैं नहिं भाव। कोऊ क्षेत्रकालके भाव।
व्रतकी पूरणता नहिं होय। तातें नाम पुलाक जु सोय।५४ ।।
दृढता मूलगुणनके मांहिं। राग उपकरण शरीर कराहि।
वकुशनाम जगत विख्यात। भेद कुशील लखो दो भांति।
प्रतिसेवन सु कषाय कुशील। उत्तर मूल धेरै गुण शील
पुस्तक शिष्य कमंडलु देह। इनमें राखै भाव सनेह ।। ५५।
उत्तरगुण सु विराधन करै। प्रतिसेवन तसु नाम सु धो
है अधीन संज्वलन कषाय। नाम कुशील कषाय कहाय
॥इति नवमोऽध्यायः ॥
दोहा-तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल ।
दशाध्याय पूरण भयो, मिथ्यामतिको शूल ॥ १३ ॥
॥ इति दशमोऽध्यायः ॥
कविनाम ठाम वर्णन
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