जिन-शासन के देवी-देवताओं और अन्य मिथ्यात्वी विषय कषाय युक्त व्यन्तर देवी देवताओं के द्वन्द्व सम्बन्धी अनेक कथानक पाठको ने पढे-सुने होंगे। प्रस्तुत कथा प्रसंग भी लगभग ऐसी ही रोचक घटना का विवरण प्रस्तुत करता है।श्रीमदभट्टाकलंकदेव ने जिस भांति बौद्धमत की अधिष्ठात्री तारा देवी को शास्त्रार्थ में परास्त किया था, वैसा ही वणिक् पुत्र महीचन्द ने चण्डीदेवी को अपने विद्याबल से पराजित कर एक निग्र्रन्थ मुनिराज का उपसर्ग निवारण किया था! इस वणिक पुत्र की शिक्षा-दीक्षा का सम्पूर्ण भार तत्कालीन उज्जयिनी नरेश श्रीचन्द्र ने अपने कंधों पर ले लिया था। क्योंकि वह उनके प्रिय मंत्री मतिसागर का एकलौता पुत्र जो था।फलत: कालान्तर में बालक महीचन्द सभी प्रकार की लौकिक एवं आध्यामिक विद्याओं में निष्णात् हो गया। गुरु प्रशाद से महाप्रभावक स्तोत्रराज श्री भक्तामर जी के चमत्कारी काव्यों पर तो उसे कमाल हासिल हो गया था। एक दिन क्या हुआ कि नग्न दिगम्बर मुनि एकाकी बिहार करते हुए किसी रम्य एकान्त स्थल की खोज-खबर में उज्जयिनी नगरी से दूर एक ऐसे विमोचित शून्यागार में पहुँचे जहाँ उन्हें एकाग्रचिन्ता निरोध पूर्वक ध्यान करने की अनुकूल सुविधा दिखाई दी।… और बस फिर क्या था? बैठ ही तो गये वे कमलासन विराजित हो अन्तरात्मा की खोज में…। परन्तु कौन जानता था कि इस एकान्त शून्यागार में व्यन्तर जाति की देवी चण्डी का आवास है-चण्डी का स्वरूप वस्तुत: उसके नामानुकूल ही था। अर्थात् भयानक रस की निष्पत्ति करने वाली प्रचण्ड रौद्र-मुद्रा और हिंसक अस्त्र—शस्त्रों से सुसज्जित वेशभूषा उसके आतंकवादी प्रभुत्व की स्पष्ट घोषणा कर रही थी। प्रशान्त मुद्रा के धारी मुनिराज पर उस पिशाचिनी ने यथाशक्ति विविध उपसर्ग किये। कभी अंगारे बरसाये तो कभी हिंसक पशु सिंह, चीते, भेड़िये, स्वान आदि उन अकिंचन आत्मध्यानी योगी पर छोड़े परन्तु दीन दुनिया से दूर, अपने में मस्त उन महात्मा का क्या बिगड़ता? उसकी श्रद्धा में तो यह सब उनके ही पूर्वकृत कर्मों का उदय था, जिन्हें समता पूर्वक सहकर वे संवर और निर्जरा का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे—उनकी अजर-अमर आत्मा का, कर्म भला क्या बिगाड़ते? आत्मा तो अजर-अमर-अविनश्वर आनन्दकर-अभेद्य-अछेद्य हैं। उपसर्ग तो उनके पौद्गलिक शरीर का प्रहार कर सकता है। क्या अबद्ध अस्पृश्य आत्मा पर भी उपसर्गों की रंच माच आँच आ सकती थी? कदापि नहीं। भावकर्मों द्वारा यदि नवीन द्रव्यकर्मों का आश्रव न किया जाये तो कर्मों की संतति का प्रवाह एक दम ही बन्द हो जाता है और उनका उदय अपनी स्थिति नि:शेषकर अस्त को प्राप्त हो जाता हैं। इसलिये बाहिरी दर्शक संसार को यह तो दिख रहा था कि परम दिगम्बर मुनिराज पर कितना घोर संकट है, परन्तु स्वयं मुनिराज के आन्तरिक लोक में जो आलोक छाया था, उसका आल्हादमय आस्वाद और अनुभव केवल उन्हें ही था। वे तो मानो चैतन्य का पीयूष पीते न अघाते थे। राजा श्रीचन्द के कानों में भी यह चर्चा सुन पड़ी कि नगर में चण्डीमठ में एक निग्र्रन्थ साधु पर घोर उपसर्ग किया जा रहा है। उन्होंने तत्काल महीचन्द को बुलाया और देवी को किसी विधि से भी उस मठ से निष्कासित करने का संकल्प दुहराया…। अनादिनिधन णमोकार मंत्र का जाप्य करते हुये महीचन्द यथास्थान पहँुच गये तथा श्री मुनिराज के समीप बैठकर महाप्रभावक भक्तामरस्तोत्र का पाठ कर ही रहे थे कि २२वे २३वें श्लोक पर पहॅुंचते ही जिनशासन की अधिष्ठात्री ‘‘मानस्थम्भिनी’’ देवी प्रकट हुई—बोली— ‘‘वत्स!क्या चाहते हो?’’ ‘‘प्रशान्तमूर्तें!मैं अपने लिये तो कुछ नहीं चाहता, परन्तु हाँ, यहाँ का वातावरण अवश्य शान्त चाहता हूँ जो कि क्षुब्ध हो उठा है। इस गुफा की रहने वाली पिशाचिनी चण्डिका के कारण।’’ ‘‘इस रौद्र रूपधारिणी की यह मजाल कि एक योगी के ध्यान में बाधा डाले। कदाचित् इसे ज्ञात नहीं कि रौद्ररूप सदैव से शान्त रूप से परास्त हुआ है। रौद्र-रस तो आत्मा का विभाव-भाव है परन्तु शान्त-रस तो आत्मा का अपना निजी स्वभाव है! अच्छा वत्स! देखों मैं इसे कैसे परास्त करती हूँ…।’’ देखते ही देखते मानस्थम्मिनीदेवी ने अपनी दोनों आँखों बन्द कर ली। ओठों पर मन्द-मन्द मुस्कान लाकर दाहिना हाथ ज्योंही ऊपर उठाया कि चण्डीदेवी के हथियार अपने आप हाथों से गिरने लगे। मायावी भूत-प्रेत तथा सिंह, चीते, व्याल आदि सभी हिंस पशु भाग खड़े हुए। अन्त में चण्डीदेवी मानस्थम्मिनी देवी के चरणों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी- हे जिनशासन देवी! मुझे क्षमा करो-देवि! मुझ हतभागिन को क्षमा करो!! पर पीड़ा में कौतुक मनाने वाली दुष्टे!तूने यह नहीं सोचा कि मैं किस शान्त शक्ति से टकरा रही हूँ?क्या तुझे सम्यदर्शन का प्रभाव ज्ञात नहीं है? ‘‘हे प्रशान्तमुद्रे! मुझे क्षमा करो…क्षमा करो! ‘‘क्षमा,क्षमा मैं नहीं बल्कि ये प्रशान्त चित्त महामुनिराज ही तुझे क्षमा करेंगे।’’ मुनिराज भला क्या क्षमा करते? तो वे समदर्शी होते हैं। असिप्रहारण और अर्घावतारण दोनों स्थितियाँ एक बराबर हैं जिन्हें क्षमा और क्रोध से क्या प्रयोजन?…उनके मुखारबिन्द से तो जो अमृत-वचन निकले, उनसे यह हुआ कि चण्डीदेवी ने सम्यक्त्व धारण कर लिया और जिनधर्म भक्त बनने की प्रतिज्ञा कर ली। क्षुब्ध वातावरण शांति और अहिंसा में परिणत हो गया। शांति के समक्ष रौद्रता ने आत्मसमर्पण जो कर दिया था। जय जिनवर की गगन भेदी ध्वनि से गुफा का कोना-कोना गूंज उठा!