राजा जितशत्रु बड़े ही विलासी कामुक व्यक्ति थे। एक दो नही अपितु ३६ राजकुमारियों से उन्होंने विवाह किया था! बसंत का सुहावना समय था। कोयल की कूक और सुगन्धित पवन के झोंके कामियों को उन्मत्त करते थे। वस्त्रालंकारों से विरहित वसुन्धरा और पादपवृन्द भी संकोच वश हरित परिधानों से विभूषित हो रहे थे। लतायें शरमीली दुलहिन बनकर पेड़ों के एक ओर, घूँघट डाल कर छिप गई थीं। कामुक व्यक्ति पर कामदेव चौबीसों घन्टे सवारी किये रहता है। पर इधर तो सोने में सुहागा था।मानो बंसत की बहार नवजवानों की कामोद्दीपन शक्ति को चौगुनी कर देती है। राजा जितशत्रु वन-क्रीड़ा को जा रहे थे। साथ में ३६ रानियों और उनकी दासियाँ थी।एकान्त -निर्जन वन में स्थित सरोवर में स्नान का सुन्दर आयोजन था। रानियों ने पारदर्शी महीन सुन्दर वस्त्र धारण किये और राजा सहित स्नान के लिए सरोवर में कूदनें लगीं। दासियाँ भी जल में उतर चुकी थीं। यह सम्पूर्ण समूह जल जन्तुओं के समान घन्टों जल-क्रीड़ा में मग्न रहा। रानियों के पारदर्शक महीन वस्त्र शरीर से सट गए थे और प्रत्येक दासियाँ अपनी-अपनी स्वामिनियों के वस्त्राभरण संवारने का प्रयत्न कर रही थीं; किन्तु फिर भी महीन वस्त्रों में से उनके उभरे हुये अंग-प्रत्यंग स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।कामदेव के साक्षात् अवतार जितशत्रु रानियों की इस मोहक दशा पर मन ही मन विमुग्ध हो रहे थे। सहस्रों मुनि-तपस्वी-साधु और त्यागी-वैरागी केवल इसलिये पदच्युत हुए कि परीक्षा को आई हुई किसी स्त्री विशेष ने उनके मन का अपहरण कर आत्मा के उद्दीप्त चिराग को बुझाकर अपनी ओर आकर्षित किया। पाठक ध्यान दीजिए। जहाँ एक साधक स्त्री के सम्मोहन रूप को पाकर अध्यात्मवाद के नीरस ज्ञान को छोड़ सकता है, वहाँ अद्र्धनग्नावस्था में वनक्रीड़ा करती हुई कई रानियाँ क्या व्यक्ति विशेष के विवेक को स्थिर रख सकती हैं?गर्ज यह कि राजा इस आयोजन से संतुष्ट न हो सके। उनका कामुक चंचल मन दूसरी ओर ही भटक रहा था।फाग में राग का होना भी आवश्यक था अतएव ध्रुपद से लेकर शास्त्रीय संगीत वाद्य यंत्रों पर झंकृत हो उठे। नृत्य का लुभावना आयोजन अवशिष्ट रह गया,जिसे देखने को राजा जितशत्रु अधीर हो रहे थे। अंत में रानियों की घुंघरू युक्त पादध्वनि सुनाई देने लगी। संगीत और नृत्य का संमिश्रण आज के मनोरंजन गृहों की ही देन नहीं है। नहीं तो कथा नायक जितशत्रु को अपवाद कहना पड़ेगा। दासियाँ वाद्य यंत्रों पर अपनी अँगुलियाँ फैर रही थीं और रानियाँ थिरक-थिरक कर नृत्य कर रही थीं। नृत्योपरान्त, श्रम से थकी हुई रानियाँ मदमाती चाल से घर लौट रही थीं।समस्त रानियाँ पागलों की भांति दिखने लगीं। पटरानी अपने वस्त्रों की सुध-बुध भूलकर जंगल के रास्ते पर दौड़ रही थी। कमला और विमला ये दो रानियाँ एक कुएँ पर बैठकर रो रही थीं। निर्मला और साधना बालों को छितराये चीत्कार कर रही थीं। माधवी और रेवती सरोवर के किनारे का गन्दा कीचड़ अपने अंग प्रत्यङ्गों पर उबटन सा लपेट रही थीं। कई रानियाँ अपने पारदर्शक परिधानों की चिन्दियाँ बना बनाकर आकाश में उड़ान का नाटक कर रही थीं। जिनदत्ता और वासवदत्ता तो हँस-हँस कर ठिठोली करती हुई राजा को सरोवर के गहरे जल में ढकेले ही ले जा रही थीं। राजा को फाग के आयोजन की वास्तविकता दिख रही थी।धूल, पानी और कीचड़ उछाल-उछाल कर उनका अट्टहास करती हुर्इं स्वागत कर रही थीं। इधर राजा जितशत्रु अब परेशानी से बचने के लिये उन्मत्त रानियों के समूह में से भागने की असफल कोशिश कर रहे थे। उसी बियाबान जंगल में व्यापार को जाते हुए एक वैश्य-पुत्र ने राजा जितशत्रु को देखा और स्वागतार्थ उनके समीप पहँुचने के पूर्व ही मदान्ध उन्मत्त रानियों ने बेचारे वणिकपुत्र की विचित्र हालत बना दी । राजा रानियो पर बरस पड़ा। किन्तु उसका असर उलटा ही हुआ।उन्मत्त रानियाँ पूर्वापेक्षा और अधिक विफर पड़ी और राजा पर मधुमक्खियों की तरह टूट पड़ी।रानियों के इस आघात-प्रतिघात से राजा और वणिक पुत्र दोनों ही चिन्तित हो उठे। अन्ततोगत्वा वणिकपुत्र की सलाह से समस्त मंडली समीप के वन में विराजमान श्री शांतिकीर्ति मुनिराज की शरण में पहुँची।नग्न दिगम्बर मुनिश्री के कान्तियुक्त शरीर को देखकर पागल रानियाँ कामदेव से प्रपीड़ित हो और अधिक उन्मत्त हो उठीं। और वे उन्हें घेर कर बैठ गई। सहसा कुछ क्षणो के उपरान्त पटरानी कामोन्मत्त हो ऊपर का परिधान पेंâकती हुई दोनों को पैâलाये-मुनिश्री की ओर बढ़ी कि उसके पूर्व ही उसके पैरों में मानों किसी ने लोह श्रृंखला पहिना दी। वह जहाँ की तहाँ मूर्ति की तरह खड़ी की खड़ी रह गई। पटरानी की यह हालत देख सभी आश्चर्य चकित रह गये, मानो मानो सभी को लकवा मार गया हो। अत्यन्त शान्त, गम्भीर, दया के सागर शान्तिकीर्ति मुनिराज ने तब अपने कंमडलु से चुल्लू भर जल निकाल कर सभी उन्मत्त-विक्षिप्त रानियो पर डालकर फाग खेल डाली और तभी उन्होंने महाप्रभावक भक्तामर के २४-२५ वें श्लोक का पढ़ना प्रारम्भ किया। दोनों श्लोकों के असीम प्रभाव से विक्षिप्त और पागल भी अपनी पूर्वावस्था को प्राप्त कर लेता है।वह भक्तामर स्तोत्र सदा-सर्वदा जन-जन के लिये कल्याणकारी हो। रानियाँ अपनी और राजा की दशा को देखकर मन ही मन लज्जित हो उठीं और दासियों नवीन वस़्त्रों को लाने के लिये राजमहल की ओर दौड़ पडीं।