जीवमजीवं दव्वं, जिणवरवसहेण जेण णिद्दिट्ठं।
देविंदविंदवंदं, वंदे तं सव्वदा सिरसा।।१।।
जिनवर में श्रेष्ठ सुतीर्थंकर, जिनने जग को उपदेशा है।
बस जीव अजीव सुद्रव्यों को, विस्तार सहित निर्देशा है।
सौ इन्द्रों से वंदित वे प्रभु, उनको मैं वंदन करता हूँ।
भक्ती से शीश झुका करके, नितप्रति अभिनंदन करता हूँ।।१।।
जो जीता है सो जीव कहा, उपयोगमयी वह होता है।
मूर्ती विरहित कर्ता स्वदेह, परिमाण कहा औ भोक्ता है।।
संसारी है औ सिद्ध कहा, स्वाभाविक ऊध्र्वगमनशाली।
इन नव अधिकारों से वर्णित, है जीव द्रव्य गुणमणिमाली।।२।।
जिसके व्यवहार नयापेक्षा, तीनों कालों में चार प्राण।
इन्द्रिय बल आयू औ चौथा, स्वासोच्छ्वास ये मुख्य जान।।
निश्चयनय से चेतना प्राण, बस जीव वही कहलाता है।
ये दोनों नय से सापेक्षित, होकर पहचाना जाता है।।३।।
उपयोग कहा है दो प्रकार, दर्शन औ ज्ञान उन्हें जानो।
पहले दर्शन के चार भेद, उससे आत्मा को पहचानो।।
चक्षूदर्शन बस नेत्रों से, होता अचक्षुदर्शन सबसे।
अवधीदर्शन केवलदर्शन, ये दोनों आत्मा से प्रगटें।।४।।
ज्ञानोपयोग के आठ भेद, उनमें मति श्रुत और अवधि जान।
मिथ्या सम्यक् के आश्रय से, छह हो जाते ये तीन ज्ञान।।
मनपर्यय केवलज्ञान इन्हीं, में भेद प्रत्यक्ष परोक्ष कहे।
मति श्रुत परोक्ष केवल प्रत्यक्ष, बाकी त्रय देश प्रत्यक्ष कहे।।५।।
ये ज्ञान आठ दर्शन चारों, बारह प्रकार उपयोग कहे।
व्यवहार नयाश्रित होता है, सामान्य जीव का लक्षण ये।।
औ शुद्ध नयाश्रित शुद्धज्ञान, दर्शन यह लक्षण कहलाता।
बस उभय नयों के आश्रय से, यह जीव द्रव्य जाना जाता।।६।।
रस पाँच वर्ण भी पाँच गंध, द्वय आठ तथा स्पर्श कहे।
निश्चयनय से नहिं जीव में ये, इसलिए अमूर्तिक इसे कहें।।
व्यवहार नयाश्रित कर्मबंध, होने से मूर्तिक भी जानो।
एकांत अमूर्तिक मत समझो, नय द्वय सापेक्ष सदा मानो।।७।।
पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श, निश्चयनय से ये जीव में नहीं हैं चूँकि ये बीस गुण पुद्गल के हैं अत: जीव अमूर्तिक है तथा जीव के साथ कर्मबंध लग रहा है इसलिए व्यवहारनय से मूर्तिक है।
सपेâद, पीला, नीला, लाल और काला ये पाँच वर्ण हैं, तिक्त, कटु, कषायला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस हैं, सुगंध और दुर्गंध ये दो गंध हैं तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कर्वâश, गुरु और लघु, स्पर्श के ये आठ भेद हैं, ये सब पुद्गल में पाये जाते हैं। शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी होने से शुद्ध हैं अत: शुद्ध निश्चयनय से सभी जीव अमूर्तिक ही हैं अर्थात् सभी संसारी जीव शक्तिरूप से अमूर्तिक हैं तथा सिद्ध जीव व्यक्तरूप से अमूर्तिक हैं।
प्रश्न यह उठता है कि यदि जीव अमूर्तिक है तो उसे कर्मबंध वैâसे होगा ?
तब ग्रन्थकार कहते हैं कि यह जीव व्यवहारनय से मूर्तिक है इसीलिए इसके कर्मबंध होता है अथवा संसारी जीव के कर्मों का संबंध अनादिकाल से ही चला आ रहा है इसलिए संसारी जीव अमूर्तिक न होकर मूर्तिक ही है।
यह कौन सा व्यवहारनय है ?
यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। अनन्त ज्ञान आदि की उपलब्धि होना मोक्ष है, इस मोक्ष से विपरीत जो कर्मबंध है, वह अनादिकाल से इस जीव के साथ चला आ रहा है इसीलिए यह संसारी जीव मूर्तिक है, अत: जीव कथंचित् मूर्तिक है, कथंचित् अमूर्तिक है। कहा भी है-
बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवदि तस्स भिण्णत्तं।
तम्हा अमुत्तिभावो णेगंतो होदि जीवस्स।।
कर्मबंध के प्रति जीव की एकता है और लक्षण की अपेक्षा उस कर्मबंध से भिन्नता है। इसलिए एकांत से जीव का अमूर्तिक भाव नहीं है अर्थात् कर्मबंध की अपेक्षा जीव मूर्तिक है और लक्षण से अमूर्तिक है क्योंकि जैसे जीव का लक्षण ज्ञान दर्शन है वैसे ही अमूर्तिक भाव भी जीव का लक्षण है। यहाँ टीकाकार कहते हैं-
जिस अमूर्तिक आत्मा की प्राप्ति नहीं होने पर यह जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है, मूर्तिक पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग करके उसी अमूर्तिक स्वभावी अपनी शुद्ध आत्मा का निरंतर ध्यान करना चाहिए।
श्री अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में यह चर्चा उठाई है-‘जीव अमूर्तिक है अत: कर्मों से उसका अभिभव-तिरस्कार नहीं होना चािहए ?’
आचार्य कहते हैं कि एकांत से जीव अमूर्तिक नहीं है चूँकि कर्म के साथ संबंध होने से जीव कथंचित् मूर्तिक है तभी तो कर्मों से उसकी स्वभाव हानि देखी जा रही है। जीव का स्वभाव सर्वज्ञानदर्शी है फिर भी ज्ञानावरण आदि कर्मों के निमित्त से जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों पर आवरण आ रहा है इसीलिए जीव का ज्ञान दर्शन पूर्ण न होकर अल्प-अल्प दिख रहा है। जब रत्नत्रय संपत्ति से इन कर्मों का विनाश हो जाता है तब यह जीव अपने ज्ञान-दर्शन, अमूर्तिक आदि गुणों को पूर्णतया प्रगट कर लेता है।
इस प्रकरण से सम्यग्दृष्टि का यह कर्तव्य हो जाता है कि तत्त्वदृष्टि से आत्मा को अमूर्तिक समझकर सतत उसके स्वभाव का चिंतवन करता रहे। आगे-आगे के गुणस्थानों में चारित्र के निमित्त से परिणामों की निर्मलता बढ़ जाने से यही अध्यात्म भावना धीरे-धीरे ध्यान का रूप ले लेती है। आगे प्रश्न होता है कि जीव निष्क्रिय है, अमूर्तिक है, टांकी से उकेरे हुए के समान ज्ञायक एक स्वभाव वाला है तब तो वह कर्मों का कर्ता भी नहीं हो सकता है ?
इस पर आचार्य उत्तर देते हैं-
‘यह आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मादि का कर्ता है, निश्चयनय से चेतन कर्मों का कर्ता है और शुद्धनय से शुद्धभावों का कर्ता है।’
व्यवहार नयाश्रित जीव कहा, पुद्गल कर्मादिक का कर्ता।
होता अशुद्ध निश्चयनय से, रागादिक भावों का कर्ता।।
है कहा शुद्ध निश्चयनय से, निज शुद्धभाव का ही कर्ता।
जब नय के भेद मिटा देता, तब होता भव दुख का हर्ता।।८।।
यह जीव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है तथा औदारिक, वैक्रियिक, आहारक ये तीन शरीर और छह पर्याप्ति इनके योग्य पुद्गल पिंडरूप नोकर्मों का कर्ता है। उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बाह्य पदार्थ जो घट-पट आदि हैं उनका कर्ता है।
आत्मा व्यवहारनयाश्रय से, पुद्गल कर्मों के फल नाना।
सुख-दु:खों को भोगा करता, निज सुख को विंâचित् नहिं जाना।।
निश्चयनय से निज आत्मा के, चेतन भावों का भोक्ता है।
निज शुद्ध ज्ञान दर्शन सहजिक, उनका ही तो अनुभोक्ता है।।९।।
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गला:।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा।।
यह आत्मा व्यवहारिक नय से, छोटे या बड़े स्वतनु में ही।
संकोच विसर्पण के कारण, रहता उस देह प्रमाण सही।।
हो समुद्घात में तनु बाहर, अतएव अपेक्षा नहिं उसकी।
निश्चयनय से होते प्रदेश, हैं संख्यातीत लोक सम ही।।१०।।
प्रश्न होता है-ऐसा वैâसे ?
तो उत्तर देते हैं-जीव में संकोच और विस्तार धर्म पाया जाता है। यह धर्म शरीर नामकर्म के उदय से होता है। जैसे दीपक किसी छोटे से पात्र में रख दिया जाता है, तो उसका प्रकाश उसी में रह जाता है और जब उसे बड़े कमरे में रख दिया जाता है तो उसका प्रकाश बड़े कमरे तक पैâल जाता है।
प्रश्न-जीव इन नाना प्रकार के शरीर को क्यों ग्रहण करता है ?
उत्तर-शरीर नामकर्म के उदय से।
प्रश्न-यह नामकर्म क्यों बांधता है ?
उत्तर-अनादिकाल से शरीर को आत्मा समझकर उसमें ममत्व परिणाम रखने से शरीर आदि कर्मों का बंध होता है। शरीर में ममत्व बुद्धि होने से यह जीव निरंतर आहार, भय, मैैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं के आश्रित रहता है तथा इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष आदि करते रहने से नये-नये शरीर को ग्रहण करता है।
प्रश्न-समुद्घात को छोड़कर यह आत्मा अपने शरीर प्रमाण रहता है। सो समुद्घात क्या है ?
उत्तर-अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेश देह से बाहर निकलकर उत्तर देह के प्रति जाते हैं, उसको समुद्घात कहते हैं।
प्रश्न-समुद्घात के कितने भेद हैं ?
उत्तर-सात हैं-वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणांतिक, तैजस, आहारक और केवली।
पृथ्वी, जल, अग्नी, वायुकाय, औ वनस्पतिकायिक जानो।
एकेन्द्रिय स्थावर पाँच कहे, इनके सब भेद विविध मानो।।
दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, औ पंचेन्द्रिय त्रस माने हैं।
जो शंख, पिपील, भ्रमर, मानव, आदिक से जाते जाने हैं।।११।।
पंचेन्द्रिय संज्ञि-असंज्ञी दो, इनसे अतिरिक्त सभी प्राणी।
होते मन रहित असंज्ञी ही, विकलेन्द्रिय तीन भेद प्राणी।।
एकेन्द्रिय बादर-सूक्ष्म कहे, ये सात भेद हो जाते हैं।
पर्याप्त-अपर्याप्तक दो से, ये चौदह भेद कहाते हैं।।१२।।
चौदह मार्गणा तथा चौदह, गुणस्थानों युत यह संसारी।
औ चौदह जीवसमासों युत, जग में संसरण करे भारी।।
यह कथन अशुद्ध नयापेक्षा, इस नय से ही संसारी हैं।
फिर भी सब जीव शुद्ध नय से, नित शुद्ध अवस्थाधारी हैं१।।१३।।
(१) जो जीव मिथ्यात्व के उदय से जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित वचनों पर श्रद्धान नहीं करता है, वह जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है।
(२) जो उपशम सम्यक्त्वी अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों में से किसी एक का उदय आ जाने से सम्यक्त्व से तो गिर जाता है और मिथ्यात्व में नहीं पहुँचा है, उस अल्पकालीन मध्य के स्थान का नाम सासादन गुणस्थान है।
(३) जो अपने आत्मा आदि तत्वों को वीतराग सर्वज्ञ के कहे अनुसार मानता है और अन्य मत के अनुसार भी मानता है, वह दही और गुड़ मिले हुए मिश्रित स्वाद के समान मिश्र गुणस्थान वाला है।
शंका-‘‘चाहे जिससे हो मुझे तो कोई एक देव से मतलब है अथवा सभी देव वंदनीय हैं। निंदा किसी भी देव की नहीं करनी चाहिए।’’ इस प्रकार वैनयिक और सांशयिक मिथ्यादृष्टि मानते हैं, तब उनमें तथा मिश्रगुणस्थानवर्ती में क्या अन्तर है ?
समाधान-वैनयिक मिथ्यादृष्टि तो सभी देवों, शास्त्रों, गुरुओं में भक्ति, विनय करने से या इनमें से किसी की भी विनय करने से मुझे पुण्य होगा, ऐसा मानते हैं। फिर भी संशय रूप से ही भक्ति करते हैं, उन्हें किसी एक देव में निश्चय नहीं है और मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव दोनों में ही निश्चय कर लेता है, बस यही अन्तर है।
(४) जो अनंत गुणों के आधारभूत निज परमात्म द्रव्य को उपादेय तथा इन्द्रिय सुखों को त्याज्य मानता है फिर भी प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, उसे छोड़ नहीं पाता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि है।
(५) जो सम्यग्दृष्टि प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इनके एकदेश त्यागरूप अणुव्रतों और दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओं में से किसी एक को भी धारण किए हुए है, वह पंचम गुणस्थानवर्ती देशविरत श्रावक कहलाता है।
(६) यही सम्यग्दृष्टि जीव जब सम्पूर्ण रूप से हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह का त्याग करके महाव्रती हो जाता है और निश्चयनय के अवलम्बन से अन्तरंग में रागादि उपाधि रहित निज शुद्ध आत्मा के सुखरूपी अमृत का अनुभव करता रहता है, वह छठा गुणस्थानी है। इस गुणस्थान में दु:स्वप्न आदि के निमित्त से प्रगट अथवा अप्रगट प्रमाद पाया जाता है इसलिए इसे प्रमत्तविरत कहते हैं। यह गुणस्थान दिगम्बर मुनियों के ही होता है।
(७) जिनके संज्वलन कषाय का भी उदय मंद हो गया है ऐसे व्यक्त-अव्यक्त प्रमादों से रहित शुद्ध आत्मा का अनुभव करने वाले मुनि सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत कहलाते हैं।
(८) वे ही मुनि जब श्रेणी में आरोहण कर शुक्लध्यान में स्थित हो जाते हैं, तब वे अपूर्व परम आल्हाद सुख का अनुभव करते हैं। उस समय वे अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनि होते हैं।
(९) देखे, सुने तथा अनुभव किए हुए भोगों की वांछादि रूप सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प रहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूप के एकाग्र ध्यान के परिणाम से जिन मुनियों के एक समय में परस्पर अन्तर नहीं होता वे शरीर, संस्थान आदि से भेद होने पर भी अनिवृत्तिकरण नामक नवमें गुणस्थानवर्ती होते हैं। यहाँ पर मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का क्षय या उपशम करने की सामथ्र्य प्रगट हो जाती है।
(१०) सूक्ष्म परमात्मतत्व की भावना के बल से जिनके मात्र सूक्ष्म लोभ कषाय ही शेष रही है वे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान वाले होते हैं।
(११) परम उपशम मूर्ति, निज आत्म स्वभाव के अनुभव के बल से सम्पूर्ण मोह को उपशम करने वाले उपशांत मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती वीतरागी मुनि होते हैं।
(१२) क्षपक श्रेणी के मार्ग से कषायरहित शुद्ध आत्मा की भावना के बल से जिनके समस्त कषाय नष्ट हो चुकी हैं और जो शेष तीन घातिया कर्मों को भी नष्ट करने वाले हैं, वे क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती परम वीतरागी निर्र्ग्रन्थ मुनि होते हैं।
आठवें, नवमें और दशवें इन तीन गुणस्थानों में दो प्रकार की श्रेणी होती है। एक उपशम श्रेणी, द्वितीय क्षपक श्रेणी। उपशम श्रेणी में आरोहण करते हुए मुनि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करते हुए ग्यारहवें तक चले जाते हैं, फिर नियम से ग्यारहवें गुणस्थान में किसी कषाय का उदय आ जाने से या तो गिरकर नीचे आ जाते हैं या उसी गुणस्थान में मरण को प्राप्त होकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो जाते हैं।
इनसे अतिरिक्त क्षपक श्रेणी में आरोहण करने वाले मुनि नियम से मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्षय करते हुए दशवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मलोभ का नाश कर मोहनीय कर्म को सर्वथा जड़मूल से नष्ट कर एकदम बारहवें गुणस्थान में चले जाते हैं। वहाँ पर भी अन्तर्मुहूर्त काल में ही निज शुद्ध आत्मानुभवरूप एकत्ववितर्वâ अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान में स्थिर होकर अन्त समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों को एक साथ सर्वथा निर्मूल नाश कर देते हैं।
(१३) पुन: वे ही महामुनि मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान निर्मल केवलज्ञान किरणों से सम्पूर्ण लोक-अलोक के प्रकाशक जिनभास्कर हो जाते हैं। इन्हें तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगिकेवली कहते हैं क्योंकि यहाँ पर मन, वचन, कायवर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदरूप योग मौजूद है। यद्यपि इस योग से वहाँ पर अर्हन्त केवली भगवान के कर्मों का आस्रव हो रहा है तो भी यह ईर्यापथ आस्रव है, आता है, चला जाता है, रुकता नहीं है।
केवली भगवान के स्वभाव से ही गमनागमन रूप विहार, दिव्यध्वनि खिरना आदि क्रियाएँ मौजूद हैं। ये योग के निमित्त से होती हैं फिर भी मोहनीय कर्म का नाश हो जाने से उनके कर्मों का स्थिति अनुभाग बंध नहीं होता है, ऐसा समझना।
(१४) आत्मप्रदेश परिस्पंदरूप योग का निरोध करके चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली होते हैं।
इसके अनन्तर परम यथाख्यात चारित्र जो कि निश्चय रत्नत्रय स्वरूप कारण समयसार है, उस चारित्र के बल से शेष अघातिया कर्मों का भी नाश करके चौदह गुणस्थानों से परे कार्यसमयसार रूप सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। ये सिद्ध ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित और सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से अंंतर्भूत ऐसे निर्नाम, निर्गोत्र आदि अनन्त गुणों से युक्त होते हैं।
प्रश्न-केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर मोक्ष के लिए कारणभूत रत्नत्रय की परिपूर्णता हो जाती है तब पुन: उसी क्षण में ही मोक्ष हो जाना चाहिए और ऐसा होने पर तो सयोगकेवली-अयोगकेवली ये दो गुणस्थान नहीं बनेंगे ?
उत्तर-केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी यथाख्यात चारित्र ही हुआ है किन्तु परम यथाख्यात नहीं हुआ है। जैसे कि चोरी कार्य के छोड़ देने पर भी कोई पुरुष चोरों का संसर्ग कर रहा है तो उनका संसर्ग दोष को उत्पन्न करता ही है, उसी प्रकार से चारित्रविनाशक चारित्र मोह कर्म का नाश हो जाने पर भी सयोगकेवलियों के मन-वचन-काय रूप तीनों योगों का व्यापार होता रहता है जो कि निष्क्रिय शुद्धात्मा के आचरण से विलक्षण है, वो ही चारित्र मल को उत्पन्न करता है और तीनों योगों के नष्ट हो जाने पर अयोगकेवली के भी अंतिम समय को छोड़कर शेष अघातिया कर्मों का तीव्र उदय है, वह भी चारित्रमल को उत्पन्न करता है। उन्हीं अयोगकेवलियों के अंतिम समय में इन अघातिया कर्मों का उदय मंद हो जाने से चारित्र मल का अभाव हो जाता है, उसी क्षण यह जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार से चौदह गुणस्थानों का अति संक्षेप से कथन किया गया है। इनमें से मिथ्यात्व गुणस्थान से निकलकर यह जीव जब सम्यग्दृष्टि हो जाता है तब पुरुषार्थ के बल से अणुव्रत, महाव्रतों को ग्रहण कर उस भव से या दो चार भवों से आगे के गुणस्थानों में आरोहण करते हुए सिद्ध पद प्राप्त कर लेता है। जहाँ फिर अनंत-अनंत काल के लिए सुखी हो जाता है, ऐसा समझकर प्रत्येक गृहस्थ को अणुव्रती-महाव्रती बनने का पुरुषार्थ करते रहना चाहिए।
जिनमें या जिनके द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं। ये मार्गणाएँ अपने-अपने कर्मों के उदय से होती हैं। इनके १४ भेद हैं-
गइ इंदिए य काये, जोगे वेदे कसाय णाणे य।
संजम दंसण लेस्सा, भविया सम्मत्त सण्णि आहारे।।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारक ये चौदह मार्गणाएँ हैं। इनमें से प्रत्येक के भेद होने से अवान्तर भेद अनेक हैं-
प्रश्न-‘शुद्ध पारिणामिक परमभाव रूप, शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा सभी जीव, गुणस्थान और मार्गणाओं से रहित हैं’ ऐसा आपने कहा था और अब यहाँ भव्य-अभव्य मार्गणाओं को भी पारिणामिक भाव रूप लेते हो, सो यह पूर्वापर विरोध आता है ?
उत्तर-पूर्व में जो परम पारिणामिक भाव रूप निश्चयनय है, वह शुद्ध पारिणामिक भाव है। उस शुद्ध पारिणामिक भाव की अपेक्षा से प्रत्येक जीव गुणस्थान, मार्गणा आदि भावों से रहित शुद्ध ही है और यहाँ पर जो भव्यत्व मार्गणा के भेद हैं, वे अशुद्ध पारिणामिक भावरूप हैं।
प्रश्न-पारिणामिक भाव शुद्ध-अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का नहीं हो सकता है ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि यद्यपि सामान्य रूप से पारिणामिक भाव शुद्ध है, ऐसा कहा जाता है फिर भी अपवाद व्याख्यान से अशुद्ध पारिणामिक भाव भी होता है। इसी कारण ‘जीव भव्याभव्यत्वानि च’ तत्त्वार्थसूत्र के इस सूत्र में जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ऐसे पारिणामिक भाव के तीन भेद किये हैं। उनमें से शुद्ध चैतन्यरूप से जो जीवत्व भाव है वह अविनश्वर होने के कारण शुद्ध द्रव्य के आश्रित होने से शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है तथा जो कर्म से उत्पन्न दश प्रकार के प्राणों रूप जीवत्व है वह अशुद्ध जीवत्व भाव है। इस तरह दश प्राण रूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीनों भाव विनाशशील होने के कारण पर्याय के आश्रित होने से पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अशुद्ध पारिणामिक भाव कहे जाते हैं।
(१२) सम्यक्त्व-औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीन सम्यक्त्व हैं तथा इनसे विपरीत मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र हैं। ये तीनों मिलकर सम्यक्त्व मार्गणा के ६ भेद होते हैं।
(१३) संज्ञित्व-संज्ञी-असंज्ञी के भेद से यह मार्गणा दो प्रकार की है।
(१४) आहारक-आहारक और अनाहारक के भेद से दो भेद रूप है।
इस प्रकार से गति ४+इन्द्रिय ५+काय ६+योग १५+वेद ३+कषाय २५+ज्ञान ८+संयम ७+दर्शन ४+लेश्या ६+भव्यत्व २+सम्यक्त्व ६+संज्ञित्व २+आहारक २=·९५ अवान्तर मार्गणाएँ हैं। इस प्रकार मार्गणाओं का संक्षिप्त लक्षण कहा है।
१‘इस प्रकार गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग ये बीस प्ररूपणाएँ आगम ग्रंथों में कही गई हैं।’ यहाँ द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में टीकाकार का कहना है-जो उपर्युक्त बीस प्ररूपणा, गुणस्थान, मार्गणा आदि का कथन किया गया है, वह धवला, जयधवला और महाधवला (टीका सहित षट्खण्डागमसूत्र, कषायपाहुडसूत्र और महाबंध सूत्र) इन तीन सिद्धांत ग्रंथों के बीजपद के समान है तथा ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ सभी जीव शुद्ध नय से शुद्ध ही हैं। यह गाथा का चतुर्थ पाद शुद्धात्मतत्त्व का प्रतिपादन करने वाला है। यह पाद पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीन प्राभृत (आध्यात्मिक) ग्रंथों के बीजपद रूप है। अभिप्राय यह है कि द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में ११, १२ और १३वीं गाथा में जो अशुद्ध संसारी जीवों का कथन है, वह बहुत ही संक्षिप्त बीजरूप है। इन्हीं संसारी जीवों के इन मार्गणा, समास आदि का विस्तार धवला आदि तीन सिद्धान्त ग्रंथों में वर्णित है। ऐसे ही १३वीं गाथा के अन्तिम चरण में सभी जीवों को शुद्धनय से शुद्ध कहा है सो पंचास्तिकाय आदि अध्यात्म ग्रंथों का संक्षेप है। उन तीन ग्रंथों में शुद्ध जीवों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है।
यहाँ पर इन मार्गणा आदि को पढ़कर क्या करना ? सो बताते हैं। इन गुणस्थान और मार्गणा आदि मेें केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व और अनाहारक ये शुद्धात्मा के स्वरूप हैं, ये ही साक्षात् उपादेय हैं-ग्रहण करने योग्य हैं। इनको प्राप्त करने के लिए साधनभूत जो सामग्री है वह भी उपादेय है। जैसे कि महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी उपादेय है।
शुद्धात्मा का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में अनुचरण लक्षण चारित्र ये तीनों निश्चय रत्नत्रय हैं, इन्हें ही कारणसमयसार कहते हैं। ये ही केवलज्ञान आदि के लिए साधन हैं अत: उस उपादेयभूत शुद्ध आत्मा के साधक होने से परम्परा से ये भी उपादेय हैं और इस निश्चय रत्नत्रय के लिए साधन व्यवहार रत्नत्रय है जो कि निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिमुद्रा रूप है, वह भी उपादेय ही है तथा जब तक मुनिवेष न धारण किया जाए तब तक उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए एकदेश चारित्र स्वरूप अणुव्रत भी उपादेय है। ऐसा समझकर कारण के कारण का भी मूल्यांकन करते हुए अणुव्रती बनना चाहिए और मुनि, आर्यिका आदि संयमियों की भक्ति, उपासना करते हुए उन्हें आहार आदि देते हुए अपने श्रावक धर्म का पालन करते रहना चाहिए।
निष्कर्म जीव सब कर्मरहित, वे सिद्ध अष्ट गुण से युत हैं।
अन्तिम शरीर से विंâचित् कम, उत्पाद और व्यय संयुत हैं।।
स्वाभाविक ऊध्र्वगमन करके, वे नित्य निरंजन परमात्मा।
लोकाग्र शिखर पर स्थित हैं, अनुपम गुणशाली शुद्धात्मा।।१४।।
इस प्रकार ये सम्यक्त्व आदि आठ गुण मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए कहे गये हैं। विस्तार रुचि वाले शिष्यों के प्रति विशेष भेद नय के अवलम्बन से गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदरहितता, कषायरहितता आदि विशेष गुण हैं और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुण हैं। इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण ज्ञातव्य हैं और संक्षेप रुचि वाले शिष्यों के लिए विवक्षित अभेद नय की अपेक्षा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्य ये चार गुण अथवा अनन्तज्ञान, दर्शन और सुखरूप तीन गुण अथवा केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो गुण हैं तथा साक्षात् अभेद नय से एक शुद्ध चैतन्य गुण ही सिद्धों का है। यहाँ तक सिद्धों के गुणों का वर्णन है।
ये सिद्ध भगवान चरम-अन्तिम शरीर से कुछ न्यून आकार वाले हैं। वह जो विंâचित् न्यूनता है, सो शरीर अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों से अपूर्ण (खाली स्थान) होने से ही है। जिस समय सयोगकेवली गुणस्थान के अन्त समय में तीस प्रकृतियों के उदय का नाश हुआ है। उस समय उनके शरीरांगोपांग कर्म का भी नाश हो गया है अत: उसी समय किञ्चित् ऊनता हुई है, तब आत्मा के प्रदेश उसी छूटने वाले अन्तिम शरीर के आकार के रह गये हैं।
शंका–जैसे दीपक को ढकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक का प्रकाश पैâल जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों की आत्मा भी पैâलकर लोकप्रमाण हो जाना चाहिए ?
समाधान–जो यह दीपक के प्रकाश का पैâलना है सो वह तो पहले से ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण से संकुचित हो जाता है। वैसे ही जीव का लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशत्व स्वभाव तो है किन्तु प्रदेशों का लोकप्रमाण विस्तार (पैâल जाना) स्वभाव नहीं है अर्थात् जीव स्वभाव से लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी तो है किन्तु प्रदेशों का विस्तार होना यह जीव का स्वभाव नहीं है इसीलिए अन्तिम शरीर छूटने पर आत्मा के प्रदेशों का आकार जैसे का तैसा पुरुषाकार रह जाता है।
शंका–जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर पैâले हुए, आवरण रहित रहते हैं पुन: जैसे प्रदीप के उâपर आवरण होता है उसी तरह जीव प्रदेशों के भी आवरण हो जाता है ?
समाधान–ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के प्रदेश तो पहले अनादिकाल से सन्तान रूप से चले आ रहे शरीर के आवरण सहित ही (शरीर के आकार) रहते हैं अर्थात् जीव अनादिकाल से शरीररूपी पात्र में ही रहा है। कभी पहले शुद्ध शरीररहित रहा हो पुन: अशुद्ध शरीरधारी हुआ हो, ऐसा है ही नहीं। इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार (संकोच) और विस्तार (पैâलना) शरीर नामक नामकर्म के आधीन ही है, यह प्रदेशों का संकोच-विस्तार जीव का स्वभाव नहीं है इसीलिए जीव के शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता है।
इस विषय में और भी उदाहरण हैं-जैसे किसी मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र बंधा-भिंचा हुआ है। अब यह वस्त्र मुट्ठी खोल देने पर पुरुष के प्रयोग के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता है, जैसा उस पुरुष ने छोड़ा है वैसा ही रह जाता है अथवा गीली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता रहता है किन्तु जब वह सूख जाता है तब जल का अभाव होने से वह बर्तन संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता है। इसी तरह मुक्त जीव भी जल के अभाव सदृश, शरीर के अभाव में संकोच विस्तार नहीं करता है। जब तक शरीर नामकर्म का उदय है तभी शरीर के बराबर प्रदेशों का संकोच-विस्तार किया करता है किन्तु सम्पूर्ण कर्मों के अभाव में अपने अन्तिम शरीर से विंâचित् न्यून ही आत्मा के प्रदेशों का आकार रहता है इसलिए सिद्ध भगवान चरमदेह से विंâचित् न्यून कहलाते हैं।
जीव का ऊध्र्वगमन स्वभाव है
जीव जिस स्थान में सम्पूर्ण कर्मों से छूटता है ठीक उसी स्थान के ऊपर एक समय में ऊध्र्वगमन करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है। चूँकि यह ऊध्र्वगमन उसका स्वभाव है।
शंका-जीव जिस स्थान में कर्मोें से छूटा है उसी स्थान पर रह जाता है। चूँकि ऊपर जाने का कोई कारण नहीं है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि ऊध्र्वगमन करना यह जीव का स्वभाव है।
शंका-पुन: संसार में भी यह तिर्यग्गमन क्यों करता है, जब ऊध्र्वगमन स्वभाव है तब सतत ऊध्र्वगमन ही करना चाहिए ?
समाधान-जैसे जीव का पूर्णज्ञानी और सर्वदर्शी होना स्वभाव है किन्तु संसार में कर्मों के आवरण से वह स्वभाव प्रगट नहीं हो पाता है, फिर भी कर्मों के नष्ट होते ही जीव सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। उसी प्रकार से जीव संसार में कर्मों के निमित्त से ऊध्र्वगति नहीं कर पाता है किन्तु कर्मों से छूटते ही स्वभाव से ऊध्र्वगमन कर लेता है। इसके लिए चार दृष्टांत हैं-जैसे वुंâभार का चाक पूर्व प्रयोग से (घुमाना छोड़ देने पर भी) घूमता रह जाता है, वैसे ही सिद्धों ने मुनि अवस्था में ध्यान में जो सतत ही ऊध्र्वगमन का अभ्यास किया है, सो इस समय वे ऊध्र्वगमन कर जाते हैं। जैसे-मिट्टी का लेप धुल जाने से तुम्बी जल के ऊपर आ जाती है उसी प्रकार से कर्मलेप के छूट जाने से यह आत्मा ऊपर चला जाता है। जैसे-बंध का नाश होने से एरण्ड का बीज ऊपर को उछलता है वैसे कर्मबंध का नाश होने से यह आत्मा ऊपर को चला जाता है। जैसे-अग्नि की लौ स्वभाव से ऊपर को ही उठती है उसी प्रकार से आत्मा भी स्वभाव से ऊपर को गमन कर जाता है। यह ऊध्र्वगमन लोक के अग्रभाग तक ही होता है, लोक के आगे नहीं होता है।
शंका-जब आत्मा का ऊध्र्वगमन स्वभाव ही है तब वह लोकाग्र के भी आगे क्यों नहीं चला जाता है ?
समाधान-नहीं, आगे नहीं जा सकता है क्योंकि लोक के बाहर धर्मास्तिकाय का अभाव है१, ऐसा आगम वाक्य है। धर्मास्तिकाय का यह लक्षण है कि जो जीव और पुद्गलों को गमन करने में सहकारी हो। अत: सिद्ध जीव भी जीव हैं, उनके गमन में सहकारी कारण धर्मास्तिकाय का आगे अलोकाकाश में अभाव होने से वहाँ पर वे मुक्तजीव भी नहीं जा सकते हैं। परद्रव्य का सहयोग न मिलने से उनका ऊध्र्वगमन स्वभाव आगे काम नहीं कर पाता है। यह परद्रव्य की पराधीनता कितनी विचित्र है ?
सिद्धजीव नित्य हैं। कभी अपने स्थान और स्वभाव से च्युत नहीं होते हैं।
शंका-हम सदाशिव मतावलम्बियों के यहाँ सिद्ध जीवों का भी पुनरागमन माना है। देखो, सौ कल्प प्रमाण समय के बीत जाने पर जब यह सारा जगत् शून्य हो जाता है तब फिर उन मुक्त जीवों का पुन: संसार में आगमन होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव सदा नित्य माने गये हैं अतएव सैकड़ों कल्पकालों के बीत जाने पर भी उनमें विकार-परिवर्तन या कर्म का संबंध संभव नहीं है। भले ही तीन लोक को वंâपा देने वाला उत्पात ही क्यों न हो जाए किन्तु सिद्ध जीवों का पुन: इस संसार में आना नहीं हो सकता है।२ जैसे एक बार बीज को अग्नि के द्वारा जला देने पर वह पुन: अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकता है वैसे ही कर्मरूपी संसार बीज के जल (नष्ट) जाने पर पुन: जन्म-मरण रूप संसार में आगमन नहीं हो सकता है।
ये सभी सिद्ध परमेष्ठी उत्पाद-व्यय से सहित हैं। सर्वथा अपरिणामी, वूâटस्थ नित्य नहीं हैं।
शंका-सिद्ध परमात्मा निरन्तर ही निश्चल, अविनश्वर, शुद्ध आत्मस्वरूप हैं। उससे भिन्न नरक आदि गतियों में भ्रमण नहीं करते हैं अत: उनमें उत्पाद, व्यय वैâसे घटेगा ?
समाधान-उन सिद्धों में अगुरुलघु गुण के षट्हानि-वृद्धि रूप से अर्थपर्यायरूप परिणमन पाया जाता है जो कि आगमगम्य है, वचन के अगोचर है। इस अर्थपर्यायरूप से ही उनमें उत्पाद-व्यय होता है अथवा ज्ञेय पदार्थ अपने-अपने जिस-जिस उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से परिणमते हैं, उन-उनके आकार से निरिच्छुक वृत्ति से सिद्धों का ज्ञान भी परिणमता है। इस कारण भी सिद्धों में उत्पाद-व्यय घटित हो जाता है अथवा सिद्धों में व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से संसार-पर्याय का नाश, सिद्ध पर्याय का उत्पाद तथा शुद्ध जीव द्रव्यपने से ध्रौव्य अवस्था विद्यमान है। इस प्रकार अगुरुलघु गुण की षट्हानि वृद्धिरूप, ज्ञेयाकार से ज्ञान के परिणमन रूप और व्यंजन पर्याय की अपेक्षा सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति और संसार पर्याय के नाशरूप आदि नय विभागों से सिद्धों में उत्पाद, व्यय भी माना जाना आगमसम्मत है।
आत्मा के ३ भेद हैं-बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा।
पुद्गल औ धर्म अधर्म तथा, आकाश काल ये हैं अजीव।
इन पाँचों में पुद्गल मूर्तिक, रूपादि गुणों से युत सदीव।।
बाकी के चार अमूर्तिक हैं, स्पर्श वर्ण रस गंध रहित।
चैतन्य प्राण से शून्य अत:, ये द्रव्य अचेतन ही हैं नित।।१५।।
ये शब्द और जो बंध कहे, सूक्ष्मत्व और स्थूलपना।
आकार भेद तम छाया औ, उद्योत तथा आतप जितना।।
ये सब पुद्गल की पर्यायें, जो हैं विभाव व्यंजन जानो।
इन सबसे विरहित निज आत्मा, को निश्चयनय से पहचानो।।१६।।
‘शरीरवाङ्मन: प्राणापाना: पुद्गलानाम्१।’ शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये सब पुद्गल के उपकार हैं जो कि जीव में होते हैं।
बंध-मिट्टी आदि में जो पिण्डरूप से बंध होता है वह मात्र पुद्गल बंध है। जीव और पुद्गल के संयोग से जो बंध होता है वह कर्मबंध और नोकर्मबंध कहा जाता है।
यहाँ यह बात विशेष है कि जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य बंध है और अशुद्ध निश्चयनय से रागादि परिणाम रूप भाव बंध है तथा शुद्ध निश्चयनय से जीव में बंध नहीं है। मात्र पुद्गल की ही बंध पर्याय है।
सूक्ष्मत्व-बेल, नारंगी आदि की अपेक्षा बेर में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है अर्थात् वह किसी की अपेक्षा से नहीं है।
स्थूलत्व-बेर आदि की अपेक्षा बेल, नारियल आदि में स्थूलता-बड़ापन है। तीन लोक में व्याप्त महास्वंâध में सबसे अधिक स्थूलता है अर्थात् इससे बड़ा और कोई नहीं है।
संस्थान-संस्थान अर्थात् आकार। इस संस्थान के ६ भेद हैं-समचतुरस्र, न्यग्रोध, सातिक-स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक। व्यवहारनय से ये संस्थान जीव के हैं किन्तु निश्चयनय से ये जीव के नहीं हैं प्रत्युत पुद्गल के ही हैं। चूँकि जीव चेतन चमत्कार परिणाम वाला है अत: जीव से भिन्न पुद्गल के ही गोल, त्रिकोण, चौकोन आदि प्रगट, अप्रगट अनेक आकार माने गये हैं। ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं।
भेद-गेहूँ आदि के दलिया, आटा तथा घी, शक्कर आदि के प्रकार से भेद भी अनेक प्रकार का होता है।
तम-अंधकार की ‘तम’ संज्ञा है। यह दृष्टि को रोकने वाला है। यह भी पुद्गल की पर्याय है।
छाया-पेड़ आदि के आश्रय से होने वाली छाया है। मनुष्य, घर आदि वस्तुओं की जो परछार्इं पड़ती है, उसे भी छाया कहते हैं। जो फोटो-चित्र खिचते हैं, टेलीविजन आदि में चित्र दिखते हैं, ये सब छाया ही हैं।
उद्योत-चन्द्रमा के विमान से जो चांदनी छिटकती है, वह उद्योत है उसी प्रकार से जुगनू आदि तिर्यंच जीवों के भी उद्योत नामकर्म के उदय से उद्योत होता है। यह सब प्रकाश भी पुद्गल की ही पर्यायें हैं।
आतप-सूर्य के विमान में तथा सूर्यकांत आदि मणिरूप पृथ्वीकाय में ‘आतप’ जानना चाहिए। सूर्य के विमान में रहने वाले एक इन्द्रिय पृथ्वीकायिक जीव के आतप नामकर्म का उदय पाया जाता है तथा सूर्यकांत मणि से जो प्रकाश निकलता है, आतप-घाम, जिसे धूप भी कहते हैं, यह पुद्गल की ही पर्यायें हैं। यह आतप नामकर्म भी जीव में अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से पाया जाता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव में आतप आदि कुछ भी नहीं हैं।
जीव से सर्वथा भिन्न ऐसे पुद्गल द्रव्य का वर्णन पढ़ा है। इसमें पुद्गल के भेद अणु-स्वंâध व पुद्गल के गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा पुद्गल की पर्यायें शब्द, बंध आदि बताई गई हैं। संसार में जो भी दिख रहा है, वह सब पुद्गल ही है। चूँकि धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्य रूप, रसादिरहित अमूर्तिक ही हैं। वे कथमपि दृष्टिगोचर नहीं हो सकते हैं। उन्हें मात्र आगमज्ञान से या अनुमान से अथवा केवलज्ञान रूप प्रत्यक्षज्ञान से ही जाना जा सकता है। जीव द्रव्य भी वस्तुत: अमूर्तिक है किन्तु जब तक वह संसारी है तब तक पुद्गल से निर्मित शरीर आदि के संबंध से मूर्तिक हो रहा है और वही मूर्तिक जीव ही दिख रहा है अथवा यों कहिए कि जीव का शरीर ही दिख रहा है। श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है-
अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं तत:।
क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यत:१।।
जो भी दिख रहा है, वह सब अचेतन है और चेतना दिखता नहीं है अत: मैं किसमें रोष या द्वेष करूँ और किसमें संतोष या राग करूँ इसीलिए मैं अब मध्यस्थ भाव को अर्थात् समताभाव को धारण करता हूँ। इसी वीतराग अवस्था को प्राप्त करने के लिए स्वाध्याय आदि साधन हैं।
गति क्रियाशील जो जीव और, पुद्गल नित गमन करें जग में।
इन दोनों के ही चलने में, यह धर्मद्रव्य सहकारि बने।।
जैसे मछली को चलने में, जल सहकारी बन जाता है।
नहिं रुकी हुई को प्रेरक हो, वैसे यह द्रव्य कहाता है।।१७।।
गमन करते हुए जीव और पुद्गल को जो गति क्रिया में सहकारी है, वह धर्म द्रव्य है। जैसे जल मछलियों को गमन में सहकारी है किन्तु वह नहीं चलते हुए को नहीं ले जाता है अर्थात् जैसे जल प्रेरक नहीं है वैसे यह द्रव्य प्रेरक नहीं है।
यह धर्मद्रव्य धर्म नाम का जीव का स्वभाव नहीं है प्रत्युत यह एक स्वतंत्र द्रव्य है।
पुद्गल औ जीव ठहरते हैं, उनको जो होता सहकारी।
वह द्रव्य अधर्म कहाता है, नहिं बल से ठहराता भारी।।
जैसे चलते पथिकों को तरु, छाया नहिं रोके बलपूर्वक।
रुकते को मात्र सहायक है, वैसे यह द्रव्य सहायक बस।।१८।।
ठहरते हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में जो सहायक है वह अधर्म द्रव्य है। जैसे-छाया पथिकों को ठहरने में सहकारी है किन्तु यह द्रव्य चलते हुए को रोकता नहीं है।
जीवादी द्रव्यों को नित ही, अवकाश दान के योग्य रहे।
जिनदेव कथित आकाश द्रव्य, उसके भी हैं दो भेद कहे।।
पहला है लोकाकाश कहा, औ दुतिय अलोकाकाश सही।
बस एक अखण्ड द्रव्य के भी, दो भेद हुए कारणवश ही।।१९।।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन द्रव्यों को अवकाश देने में योग्य आकाश द्रव्य है, ऐसा तुम जानो। जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित इस आकाश द्रव्य के लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भेद होते हैं।
जितने आकाश प्रदेशों में, पुद्गल औ जीव सभी रहते।
औ धर्म अधर्म व काल रहें, बस लोकाकाश उसे कहते।।
उसके बाहर में सभी तरफ है, वृहत् अलोकाकाश रहा।
जिससे बढ़कर नहिं कोई है, फिर भी यह चेतनशून्य कहा।।२०।।
धर्म, अधर्म, काल, जीव और पुद्गल ये पाँचों द्रव्य जितने आकाश में रहते हैं, वह लोकाकाश है और उससे परे चारों तरफ अलोकाकाश है फिर भी यह आकाश चैतन्य शून्य अचेतन ही है।
द्रव्यों में परिवर्तनकारी, व्यवहारकाल कहलाता है।
परिणाम क्रियादिक लक्षण से, यह जग में जाना जाता है।।
व्यवहार और निश्चय से जो, दो भेद रूप भी हो जाता।
बस मात्र वर्तना लक्षण से, परमार्थकाल जाना जाता।।२१।।
कालद्रव्य के दो भेद हैं-व्यवहार और निश्चय। जो द्रव्यों में परिवर्तन कराने वाला है और परिणाम, क्रिया आदि लक्षण वाला है वह व्यवहारकाल है तथा वर्तना लक्षण वाला परमार्थकाल है।
जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों के परिवर्तन में अर्थात् नई या जीर्ण अवस्थाओं के होने में काल द्रव्य सहायक हैं, इनमें घड़ी, घण्टा, दिन, रात आदि व्यवहार काल है और वर्तना रूप सूक्ष्म परिणमन रूप निश्चयकाल है।
सब लोकाकाश प्रदेशों में, इक-इक प्रदेश पर एक-एक।
कालाणू संस्थित हैं सदैव, सब पृथक रहें नहिं एकमेक।।
रत्नों की राशी के समान, वे अलग-अलग ही रहते हैं।
वे हैं असंख्य कालाणु द्रव्य, जो लोकाकाश प्रमित ही हैं।।२२।।
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है जो कि रत्नों की राशि के समान पृथक्-पृथक् है। काल द्रव्य असंख्यात हैं अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश पर अलग-अलग एक-एक कालद्रव्य स्थित है इसलिए वे कालद्रव्य असंख्यात हैं।
यहाँ पर अजीव के अन्तर्गत धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और कालद्रव्य का वर्णन किया है। संसारी जीवों के लिए ये चारों द्रव्य सहकारी तो हैं ही हैं किन्तु मुक्त जीवों के लिए भी सहकारी कारण हैंं। देखिए, जब यह आत्मा कर्मों से छूटता है, तब धर्म की सहायता से ही इस मध्यलोक से ऊपर सात राजू जाकर सिद्धशिला से आगे लोक के अग्रभाग में पहुँचता है। लोकाकाश के बाहर क्यों नहीं चला जाता ? तो आगे धर्म द्रव्य का अभाव है। उसी प्रकार वहाँ लोकाग्र पर ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण है। वैसे ही आकाश द्रव्य में ही सिद्ध जीव निवास कर रहे हैं अत: लोकाकाश ने अवकाश भी दिया है। साथ ही प्रतिसमय अनंतगुणों में षट्गुण हानि वृद्धि रूप सूक्ष्म परिणमन भी काल द्रव्य की सहायता से हो रहा है इसलिए सिद्धों के लिए भी ये द्रव्य सहकारी कारण हैं तो हम और आपके लिए तो हैं ही हैं। यद्यपि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है फिर भी निमित्त कारण अवश्य मिलते हैंं। निश्चयनय की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है और अपने में ही है किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से पर की सहायता स्वीकार किये बिना सिद्धांत ग्रंथों से बाधा आती है। स्वयं श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी नियमसार में कहा है कि-
कर्म से रहित आत्मा लोक के अग्रभाग पर चला जाता है क्योंकि जीवों और पुद्गलों का गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहीं तक जानो। यह मुक्त जीव धर्मास्तिकाय के अभाव में लोकाकाश से बाहर नहीं जा सकते हैं१।
इस प्रकार से इन द्रव्यों के अस्तित्व को तथा कार्य को आगम से जानकर उस पर दृढ़ श्रद्धान रखना ही सम्यग्दर्शन है।
इस विधि से ये छह भेद रूप, जो द्रव्य कहे परमागम में।
वे जीव अजीवों के प्रभेद, से ही माने जिनशासन में।।
इनमें से कालद्रव्य वर्जित, जो पाँच द्रव्य रह जाते हैं।
वे ही अर्हंतदेव भाषित, पंचास्तिकाय कहलाते हैं।।२३।।
मूल में द्रव्य के जीव और अजीव ये दो ही भेद हैं। इसी में अजीव के पाँच भेद होने से द्रव्य के जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह भेद हो जाते हैं।
इन छहों द्रव्यों में काल द्रव्य को छोड़कर पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। ग्रंथकार स्वयं अस्तिकाय का लक्षण बतलाते हैं-
जिस हेतू से ये ‘सन्ति’ हैं, इस हेतू से ही ‘अस्ति’ कहे।
इस विध श्रीजिनवर कहते हैं, ये विद्यमान ही सदा रहें।।
ये बहुप्रदेशयुत काय सदृश, इसलिए ‘काय’ माने जाते।
दोनों पद मिलकर ‘अस्तिकाय’, संज्ञा से ये जाने जाते।।२४।।
ये द्रव्य ‘सन्ति’ अर्थात् विद्यमान हैं इसलिए इन्हें ‘अस्ति’ अर्थात् ‘हैं’ ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव कहते हैं और जिस हेतु से ये काय-शरीर के समान बहुत प्रदेशी हैं उसी हेतु से ये काय इस नाम को प्राप्त हैं अत: ये पाँच द्रव्य ‘अस्तिकाय’ इस सार्थक नाम वाले हैं।
यद्यपि इन पाँचों द्रव्यों में संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदि से परस्पर में भेद है फिर भी अस्तित्व की अपेक्षा से अभेद है अर्थात् अस्तित्व की दृष्टि से सभी द्रव्य एक रूप ही हैं। इसी अस्तित्व को न समझकर ही ब्रह्माद्वैत आदि ‘अद्वैत’ मतों की स्थापना हो गई है।
प्रत्येक द्रव्य में सामान्य और विशेष ऐसे दो प्रकार के गुण माने गये हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं और ज्ञान, दर्शन, रूप, रस आदि विशेष गुण हैं। शुद्ध जीवास्तिकाय में सिद्धत्व लक्षण शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है, केवलज्ञान आदि विशेष गुण हैं और इसी शुद्ध मुक्त जीव में अस्तित्व आदि सामान्य गुण हैं। ऐसे ही सिद्धजीव में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी होते हैं। उनमें अव्याबाध, अनंतसुख आदि अनंत गुणों की प्रगटता रूप कार्य समयसार का उत्पाद हुआ है। रागादि विभाव रहित परम स्वास्थ्यरूप कारण समयसार का विनाश हो गया है और कार्य-कारण समयसार दोनों के आधारभूत परमात्म द्रव्यरूप से वो ही आत्मा ध्रौव्य स्थिर रूप हैं। ये तीनों एक ही समय में होते हैं।
जैसे-गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लक्षण से सहित सिद्ध जीवों का अस्तित्व है, वैसे ही संसार अवस्था में अशुद्ध गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से सहित सम्पूर्ण जीव समूह का भी अस्तित्व है। ऐसे ही सभी द्रव्यों का भी अस्तित्व है अत: शुद्ध-अशुद्ध सभी द्रव्यों में अस्तित्व गुण समान रूप से पाया जाता है।
इस कारण छहों द्रव्य अस्तिरूप हैं किन्तु काय का लक्षण काल द्रव्य में घटित न होने से उसे छोड़कर शेष पाँच द्रव्य कायरूप हैं अत: पाँच द्रव्य ही ‘अस्तिकाय’ कहलाते हैं। बहुत से प्रदेशों का प्रचय जिसमें पाया जाए, उसे ही काय संज्ञा है।
किसमें कितने प्रदेश हैं, अब इसे स्पष्ट करते हैं-
इक जीव धर्म व अधर्म में, माने प्रदेश हैं असंख्यात।
नभ में अनंत होते प्रदेश, औ लोकाकाश में असंख्यात।।
पुद्गल में त्रिविध प्रदेश कहे, जो संख्य असंख्य अनंते भी।
बस काल में एक प्रदेश कहा, नहिं काय नाम है अत: सही।।२५।।
एक जीव द्रव्य में, धर्मद्रव्य में और अधर्मद्रव्य में असंख्यात प्रदेश होते हैं। एक जीव में असंख्यात प्रदेश हैं यदि वे पैâल जावें तो लोकाकाश प्रमाण हो जाए किन्तु संसार अवस्था में कर्म से सहित जीव को जितना छोटा या बड़ा शरीर मिलता है उतने ही प्रमाण में संकुचित होकर या विस्तृत होकर रहते हैं, शरीर से बाहर नहीं जाते हैं। आगम में सात प्रकार के समुद्घात कहे हैं। उन प्रसंगों में आत्मा से बाहर भी प्रदेश चले जाते हैं तथा इसी में एक केवली समुद्घात है उसकी अपेक्षा से जीव के प्रदेश पूरे लोकाकाश में पैâल जाते हैं। आकाश द्रव्य में अनंत प्रदेश हैं अर्थात् आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेद हैं। उनमें से लोकाकाश में एक जीव के बराबर असंख्यात प्रदेश हैं और अलोकाकाश में अनंत प्रदेश हैं। मूर्तिक पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनंत ऐसे तीनों प्रकार के प्रदेश हैं। काल द्रव्य का एक प्रदेश होता है इसीलिए वह ‘काय’ नहीं कहलाता है। तात्पर्य यही है कि कालद्रव्य एकप्रदेशी होने से ‘काय’ नहीं है इसीलिए वह द्रव्य तो है किन्तु अस्तिकाय नहीं है। इस बात से यह शंका सहज ही हो जाती है कि पुद्गल का परमाणु भी ‘एक प्रदेशी है’ उसे भी ‘काय’ नहीं कहना चाहिए। उसी के समाधान में आचार्य कहते हैं-
जो एकप्रदेशी भी अणु है, वह कारण बहु स्वंâधों का।
उपचार विधी से कहलाता, वह बहुत प्रदेशी जो होगा।।
इसलिए काय संज्ञा अणु की, सर्वज्ञदेव बतलाते हैं।
पर कालद्रव्य में बहुप्रदेश, की शक्ती भी नहिं पाते हैं।।२६।।
अणु-परमाणु यद्यपि एक प्रदेश वाला है फिर भी वह अनेक प्रदेशी स्वंâधों का कारण है अर्थात् आगे द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि होकर अनेक प्रदेशी स्वंâध बन सकता है इसीलिए वह अणु भी उपचार से बहुप्रदेशी माना जाता है अत: यह अणु भी ‘काय’ संज्ञक होने से अस्तिकाय है किन्तु काल द्रव्य कभी भी दो आदि बहुत प्रदेश वाला नहीं हो सकता है, यही कारण है कि वह ‘अस्ति’ तो है किन्तु ‘काय’ नहीं है।
अब प्रदेश का लक्षण और उसकी योग्यता को बतलाते हैं-
इस जितने मात्र नभस्तल को, अविभागी इक पुद्गल अणु ने।
रोका है उतने नभ को ही, इक प्रदेश संज्ञा दी प्रभु ने।।
ऐसा जो एक प्रदेश कहा, वह युगपत् सब परमाणू को।
ठहरा सकता है अपने में, तुम जानो इतना क्षम उसको।।२७।।
जितने मात्र आकाश को एक अविभागी पुद्गल के परमाणु ने रोका है उतने मात्र को तुम ‘प्रदेश’ जानो। वह प्रदेश सभी परमाणु को ठहराने में समर्थ हो सकता है। तात्पर्य यह है कि आकाश के एक प्रदेश में असंख्यात और अनंत परमाणुओं का स्वंâध भी रह सकता है। ऐसी आकाश में अवकाश देने की योग्यता विद्यमान है, तभी तो असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनंतानंत जीव और उनसे भी अनंतगुणे पुद्गल रह रहे हैं।
कहा भी है-
एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा।
सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण।।
एक निगोदिया जीव के शरीर में द्रव्य प्रमाण से अतीतकाल के सब सिद्धों से भी अनंतगुणे जीव देखे गये हैं और निगोदिया जीव की अवगाहना बहुत ही छोटी मानी गई है।
उदाहरणस्वरूप सुई की नोक के अग्रभाग पर अनंत निगोदिया जीव रह जाते हैं।
इस प्रकार द्रव्यसंग्रह ग्रंथ के प्रथम अधिकार में छहों द्रव्य और पाँच अस्तिकाय का वर्णन किया गया है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय हैं, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव का उपदेश है।
।। प्रथम अधिकार पूर्ण।।