‘‘आँखों के अंधे, नाम नयन सुख।’’ कहावत चरितार्थ हो रही थी।राजकुमारी रतनशेखर की शादी को अभी कुछ ही दिन शेष थे।राजसी वृत्ति के युवक विवाह के लिए तत्पर रहते हैं, और विशेष कर मंगनी के पश्चात् तो विवाह के शुभ दिन का बैचनी से इन्तजार किया करते हैं। रत्नशेखर के विवाह का दिन हुआ चुका था। वह कल्पना की उत्ताल तरंगों में बह रहा था कि उसकी भावी पत्नी सम्पूर्ण गुणों से युक्त होगी, उसकी-लचीली कमर, और कामदेव को मात देने वाले नेत्र तो आकर्षक होंगे ही, साथ ही उसका दिव्य कोमल कान्त शरीर-उर्वशी, रम्भा और रेणुका की सुन्दर देह से किसी भांति कम न होगा। मित्र लोग तो कल्पना की उड़ान में और भी ऊँचे उड़ चुके थे। राजकुमार को संबोधित करते हुए कहते-‘‘रानी तो नृत्य -विशारदा होंगी, राज्य कार्य से थके मांदे स्वामी को जब पग-ध्वनि और वीणा की मधुर झंकार से सम्मोहित करेंगी तो राजकुमार अपनी थकावट का बहाना भूलकर उसके साथ स्वयं नाचने लगेगा।’’ तीसरा और भी आगे बढ़ चुका था- बोला-‘‘पुत्र जन्म के समय हम गरीब सहपाठियों को याद कर लीजियेगा। रत्नशेखर के पिता बड़ी धूमधाम से शादी का इरादा करके आये थे। राजा का वह एकलौता पुत्र जो था। राज्य मंत्रियों को आज्ञा दी गई थी कि वैवाहिक सामग्री आवश्यकता से अधिक रख ली जावे।भाट लोग वाद्य-यंत्र बजा रहे थे।वाद्ययंत्रों की सुरीली ध्वनि नगर भर में गूंज रही थी। नर्तकियाँ जनवासे में सामन्तों का मनोरंजन कर रही थीं।सुरा और सुन्दरी का अपूर्व संगम सुसज्जित मंडप में दृष्टिगोचर हो रहा था। चारों ओर उल्लास और उमंग का वातावरण था। हर्षोल्लास के बीच विवाह का कार्य सानन्द सम्पन्न हुआ। वर ने वधू को अग्नि और पंचपरमेश्वरों के समक्ष अद्र्धांगनीरूप में स्वीकार किया। बारात घर लौट चुकी थी। रात्रि के समय राजकुमार रत्नशेखर ने उत्सुकता वश-नववधू मदन-सुन्दरी का घूँघट-पट हटा दिया। सोच रहा था वह कि स्वर्ग-लोक की अप्सरा के दर्शन करने जा रहा है-पर इधर माजरा ही दूसरा था। मदनसुन्दरी को उसका स्वयं का नाम लज्जित कर रहा था सिर पर खड़े छोटे-छोटे काले भूरे बाल, कम चौड़ा ललाट, चपटी जल स्रोत वत् बहती हुई नाक, अपनी सीमा से बाहर निकले हुए खिडविड्डे दांत, मोटी कमर, पतली जँघाये, बिंवाई फटी भद्दी एड़ियाँ, हाथी के समान कड़े सर्वांग में छितरे हुए रोम, फूली हुई ग्रीवा, और मवाद बहते हुए कान उसकी विद्रूपता में चार चांद लगा रहे थे, इतने पर भी गलित कुष्ट के धब्बे, खांसी-दमा उसकी दम लिये डालते थे। राजकुमार रत्नशेखर कुछ क्षण हतप्रभ सा होकर अवाक् रह गया। उसके संजोये हुए सारे स्वप्न एक के बाद एक ढह गये, उन्नत ललाट को टटोलते हुए रुंधी हुई आवाज से बोला-देवि! मैंने अग्नि के समक्ष तुम्हें अद्र्धांगिनी के रूप में अपनाया है, स्वीकार किया है अतएव इस रूप में श्पाकर भी तुम्हारा आजीवन शुभचिन्तक रहूँगा। तुम्हारे शारीरिक कठिन कष्ट को अपने आधे शरीर की पीड़ा जानकर उसे दूर करने का प्रयत्न करूँगा। राजकुमार के पूंछने पर फटे गले से मदन सुन्दरी ने कहा-‘‘ वर्तमान में उसे गलित कुष्ट कीr संक्रामक बीमारी है। खांसी और दमा उसकी दम लिए डालते हैं।’’ अत्यन्त दुखी अपने में सिमटी मदनसुन्दरी की इस फटी-फटी सी दर्द भरी आवाज को सुनकर रत्नशेखर शय्या-स्थल पर न रह सका और भावों के पंखों पर बैठ कर उड़ता हुआ उस काली अंधेरी रात में एकाकी राज्य की सीमा से दूर, बहुत दूर जा पहँुचा। मुनिश्रेष्ठ श्री धर्मसेन के प्रधान शिष्य रत्नशेखर थे।उनके आत्मिकज्ञान की सूदूर प्र्रदेशों तक विशेष चर्चा थी। रत्नशेखर को संसार से वास्तविक विरक्ति हो गई थी और यही कारण था कि वे धार्मिक क्रिया कलापों को विश्वास ही नही गाढ़ श्रद्धा की दृष्टि देखते थे।प्रतिदिन वह जैन स्तोत्र पढ़ा करते थे। एक दिन तपस्वी राजकुमार रत्नशेखर ध्यान मग्न थे तथा महाप्रभावक भक्तामर स्तोत्र के काव्यों को तन्मय हो पढ़ रहे थे। स्तोत्र के ३२-३३वें काव्य को उनकी जिव्हा घंटो दुहरा रही थी कि तभी जैन शासन की अधिष्ठात्री ‘‘पद्मावती’’ देवी ने प्रकट होकर कहा-कि ‘‘वत्स! तुम्हारी उम्र अभी तपस्या के योग्य नहीं है। तुम्हारे वृद्ध पिता तुम्हारी याद में मृत्यु-शय्या पर अन्तिम श्वांसे गिन रहे हैं और तुम्हारी विदुषी पत्नि मदनसुन्दरी अपने श्वसुर की सेवा में रत रहती है। राजकुमार रत्नशेखर अपनी पत्नि के विषय में जानने का उत्सुक था। पूँछने लगा-देवि! मदन सुन्दरी का रोग कैसा है? ‘‘वत्स!’’ पद्मावती देवी ने कहा- ‘‘जब तुम दो दिन पूर्व भक्तामर स्तोत्र का अखंड पाठ कर रहे थे तब ही उसका कुष्ठ युक्त शरीर दिव्य-स्वर्ण देह में परिणत हो चुका है।’’ देवी के अमृत वचन सुनकर राजकुमार रत्नशेखर प्रमुदित मन होकर गुरुदेव के समक्ष गया तथा आशीर्वाद लेकर राजधानी की ओर चल पड़ा। राजकुमार के राजमहल में प्रवेश करते ही वृद्ध पिता ने उसे गले लगा लिया तथा उनकी विदुषी पत्नी पैरों पर गिर कर आनन्दाश्रुओं से राजकुमार के पाँव पखार रही थी।