जो पुरुष१ ऐसा मानता है कि मैं परजीव को मारता हॅूं और परजीवों द्वारा मैं मारा जाता हूँ वह पुरुष मूढ़ है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है वह ज्ञानी है क्योंकि जीवों का मरण तो आयु के क्षय से होता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है और तुम आयु का हरण नहीं कर सकते पुन: तुमने उनका मरण वैâसे किया तथा अन्य जीव भी तुम्हारी आयु का हरण नहीं कर सकते पुन: उनके द्वारा भी तुम्हारा मरण वैâसे होगा ?
इसी तरह जो जीव ऐसा मानता है कि मैं परजीवों को जीवनदान देता हूँ और परजीव भी मेरी रक्षा करते हैं वह मूढ़ है अज्ञानी है परन्तु ज्ञानी इससे विपरीत है अर्थात् ऐसी मान्यता नहीं रखता है क्योंकि आयु के उदय से जीव जीवित रहते हैं ऐसा सर्वज्ञदेव का वचन है और तुम आयु का दान कर नहीं सकते पुन: तुम उन्हें वैâसे जीवित रखते हो ? और तुम्हें भी वे आयु प्रदान नहीं कर सकते पुन: वे तुम्हें भी वैâसे जिलाते हैं ?
इसी प्रकार से यदि कोई जीव यह मानता है कि मैं अपने द्वारा परजीवों को दु:खी या सुखी करता हूँ वह जीव मूढ़ है, अज्ञानी है किन्तु ज्ञानी इससे विपरीत है क्योंकि यदि संसारी जीव अपने-अपने कर्मों के उदय से दु:खी या सुखी होते हैं और कर्म तुम दे नहीं सकते पुन: तुमने उन्हें दु:खी या सुखी वैâसे किया ?
आगे चलकर समयसार में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं गाथा २६० से २६५ तक कहते हैं कि-
हे आत्मन्! यह जो तेरा अभिप्राय है कि मैं जीवों को दु:खी या सुखी करता हूँ वह तेरा अभिप्राय पाप का बंधक है या पुण्य का बंधक है। अथवा मैं जीवों को मारता हूँ या जिलाता हूँ ऐसा जो तेरा अभिप्राय है वह भी पाप का बंधक है अथवा पुण्य का बंधक है। पुन: आगे कहते हैं निश्चयनय ऐसा कहता है कि जीवों को मारो अथवा मत मारो किन्तु अध्यवसान-परिणामों से बंध होता है। यही बंध का संक्षेप से कथन है।
इसी प्रकार से जो असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह में परिणामों को लगाता है अर्थात् इन पापों को करता है तो वह इन परिणामों से पाप का बंध कर लेता है। उसी प्रकार से जो जीव सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत और परिग्रहत्यागरूप अपरिग्रह महाव्रतरूप परिणामों को करता है उसके इन परिणामों से पुण्य का बंध होता है।
आगे आचार्य स्वयं बाह्य वस्तु के त्याग की उपयोगिता को स्पष्ट करते हैं-
जीवों के जो अध्यवसान-परिणाम हैं वे वस्तु बाह्य पदार्थों को अवलंबन करके होते हैं अत: बाह्य वस्तु से बंध नहीं होता है किन्तु परिणामों से ही बंध होता है।
यह प्रकरण गाथा २४५ से प्रारंभ करके आचार्यदेव ने गाथा २७० तक लिया है। उस अंतिम गाथा में कहते हैं कि-
‘‘ये पूर्वोक्त परिणाम तथा इसी तरह से अन्य भी परिणाम जिनके नहीं हैं वे मुनिराज अशुभ अथवा शुभ कर्म से लिप्त नहीं होते२ हैं।’’
अब यहाँ समझने की बात है कि श्री कुन्दकुन्द भगवान ने जिनके लिए इन मारने, जिलाने अथवा दु:खी, सुखी करने के अभिप्राय को मना किया है वे मुनि हैं और जब वे इन अशुभ और शुभ ऐसे दोनों विकल्पों से छूटकर निर्विकल्प अवस्थारूप परमसमाधि में अर्थात् शुद्धोपयोग में स्थित हो जाते हैं तब वे इन परिणामों से छूट जाने से पाप अथवा पुण्य कर्मों का बंध नहीं करते हैं। इसके पहले हम और आप जैसे चतुर्थ या पंचम गुणस्थानवर्तियों के लिये तो प्रारंभिक अवस्था होने से ये अशुभ और शुभ भाव भी हो रहे हैं और उनके निमित्त से पाप और पुण्य का बंध भी हो रहा है।
अधिक से अधिक पुरुषार्थ करें तो हम पाप कर्मों के बंध से ही अपने को बचा सकते हैं पुण्य कर्मों के बंध से बचाने की बात तो आज के युग में असंभव है और यही कारण है कि आज मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अगर पुण्य का भी निरोध हम कर सकते तो अवश्य ही मुक्ति की प्राप्ति हो जाती।
हाँ! इतनी बात अवश्य है कि हमें कर्मसिद्धांत का दृढ़ श्रद्धान करके यह अवश्य निर्णय कर लेना चाहिए कि हम किसी को आयु नहीं दे सकते हैं न हम किसी की आयु को हर सकते हैं प्रत्युत उसमें हम निमित्त अवश्य बन जाते हैं तथा अकालमृत्यु भी जैनसिद्धांतों में मानी है।
उस आयु की उदीरण में भी हमारा शस्त्रप्रहार आदि कारण बन सकता है तथा किसी के साता-असाता के उदय या उदीरणा से भी हम निमित्त बन सकते हैं इसलिये कर्मसिद्धांत के निश्चयनय की अपेक्षा तो सभी प्राणियों का जीवन, मरण और सुख, दु:ख उनके कर्मों पर निर्भर है फिर भी बाह्य वस्तुयें निमित्त अवश्य होती हैं। आगे चलकर आचार्य ने परिणामों को बंध का कारण कहकर उसी को मुख्य कहा है पुन: यह बात भी स्पष्ट कर दी है कि बाह्य वस्तु के आश्रय से परिणामों में राग-द्वेष होता है अत: बाह्य वस्तु का त्याग भी आवश्यक है।
यथा-
प्रश्न-१बाह्य वस्तु के होने पर नियम से बंध हो ऐसा अन्वय नहीं है और बाह्य वस्तु के न होने पर बंध न हो ऐसा व्यतिरेक भी नहीं है तो फिर बाह्य वस्तु का त्याग क्यों कराया है ?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है क्योंकि रागादि परिणामों को दूर करने के लिए ही बाह्य वस्तुओं का त्याग कराया गया है अर्थात् पंचेन्द्रियों के विषयभूत ऐसी बाह्य वस्तुओं के होने पर अज्ञान भाव से राग-द्वेष आदि परिणाम होते हैं और पुन: उन रागादि परिणामों से बंध होता है। इस प्रकार से परम्परा से बाह्य वस्तुयें बंध का कारण हैं किन्तु साक्षात् से बंध का कारण नहीं हैं तथा परिणाम तो निश्चय से बंध के कारण ही हैं।
दूसरी बात यह है कि आचार्य महोदय ने गाथा २६३ और २६४ में कहा है कि हिंसा के समान ही झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहरूप परिणामों से भी पाप बंध होता है और अहिंसा के समान ही सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह से पुण्य बंध होता है। तो वहाँ पर ‘एवं’ और ‘तथा’ शब्द से पीछे के मारने, जिलाने तथा दु:खी-सुखी करने के भावों से संबंध है अर्थात् मारने के भावों से एवं दु:खी करने के भावों से पाप बंध और जिलाने के भावों से एवं सुखी करने के भावों से पुण्य बंध होता है।
अब देखना यह है कि क्या हम आज चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थानवर्ती पुण्य बंध की क्रियाओं से अपने को छुटा सकते हैं ? यदि नहीं, तो फिर जीवों की रक्षा के भाव मिथ्यात्वरूप वैâसे हो जावेंगे ? वे तो अहिंसाव्रतरूप हैं चाहे अणुव्रतरूप हों चाहे महाव्रतरूप।
हाँ, अहंकार भाव से कर्तृत्व बृद्धि रखकर कोई एकांत से यही सोच ले कि मैं ही इसे जीवनदान देने वाला हूँ, मैं ही रक्षक हूँ, मैं ही सुखी करता हूँ, इसके भाग्य पुण्योदय की कुछ भी आवश्यकता ही नहीं है, सब कुछ कर्ता धर्ता मैं ही हूँ तो अवश्य ही मिथ्यात्व हो जाता है किन्तु निमित्त, नैमित्तिक भाव से कर्तृत्व भाव को रखते हुये एवं कर्मसिद्धांत को समझते हुए भी जो जीव रक्षा के या जीवों को सुखी करने के, मोक्षमार्गी बनाने के शुभ भाव हैं वे मिथ्यात्व नहीं हैं प्रत्युत सम्यक्त्व के सहचारी होने से सातिशय पुण्यबंध के कारण बन जाते हैं। अतिशयरूप प्रशस्त राग से ही अर्थात् जीवों के उद्धार की उत्कट भावना से ही तो सातिशय तीर्थंकर प्रकृति बंध जाती है अत: जीवरक्षा के भाव मिथ्यात्व नहीं है।
हाँ, इतना अवश्य है कि यहाँ पर आचार्यदेव महामुनियों को शुद्धोपयोग की प्राप्ति का उपदेश देते हुए इन पाप और पुण्यरूप दोनों प्रकार के भावों को छोड़कर निर्विकल्प में स्थिर होने की प्रेरणा दे रहे हैं। जैसा कि २७० वीं गाथा से स्पष्ट है। स्वयं कुंदकुंद भगवान ने ही कहा है कि ‘जो उपर्युक्त अच्छे या बुरे परिणामों को नहीं करते हैं वे मुनि शुभ या अशुभ कर्म से लिप्त नहीं होते हैं।
श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं कि ‘‘येषामेवैतानि न विद्यंते त एव मुनिकुंजरा:।’’
जिनके ऐसे ये परिणाम नहीं है वे ही मुनिकुंजर हैं। किन्तु ऐसा नहीं कहा है कि ‘त एव श्रावककुंजरा:’ वे ही श्रावक कुंजर हैं अर्थात् श्रावकों में यह अवस्था असंभव ही है। वे तो अधिक से अधिक अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने आपको पापों से ही बचा लें ये ही बहुत बड़ी बात है। वस्त्रधारी ऐलक, क्षुल्लक और आर्यिकायें भी शुभोपयोग से आगे शुद्धोपयोग में नहीं जा सकते हैं।
उनके निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यही कारण है कि वे पुण्य और पाप दोनों का निरोध कर मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं अत: आगम के अर्थ को सही समझना है तो पूर्वापर संबंध अवश्य जोड़ना चाहिए। यदि आप समयसार की गाथा २४५ से प्रारंभ कर २७० तक संबंध जोड़ेंगे और निश्चयनय की अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए अर्थ करेंगे तो समयसार के सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल बनायेंगे अन्यथा जीवदया को ही मिथ्यात्व समझकर शुद्धोपयोग में नहीं पहुँचकर अंततोगत्वा जीवअदया में ही पड़े रहकर पापों का ही बंध करते रहेंगे अत: इससे अच्छा यही है कि गुरुमुख से समयसार ग्रंथ आदि महान ग्रंथों को पढ़ें जिससे अनर्गल अर्थ नहीं किया जा सके।