Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
Search
विशेष आलेख
पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
29.शरीराष्टक!
March 13, 2018
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका
jambudweep
शरीराष्टक
।।चौबीसवाँ अधिकार।।
(१)
दुर्गंध और अपवित्र धातु रूपी भीतों से बना हुआ।
यह तन रूपी झोपड़ा है जो वह चर्म धातु से ढ़का हुआ।।
अरु इसमें क्षुधा आदि दुखमय चूहों ने छिद्र बना रखे।
अत्यन्त क्लिष्ट मल मूत्रादिक से भरा हुआ क्यूं शुचि समझे।।
इसके चउ तरफ जरा रूपी अग्नी जल रही मगर फिर भी।
बस मूर्ख जीव स्थिर समझे और माने इसमें शुचिता भी।।
(२)
दुर्गंधमयी कृमि कीट जाल से व्याप्त सदा सब रस बहता।
उत्तम जल से स्नान करे फिर भी रोगों का घर रहता।।
जिसकी औषधि है अन्न तथा पट्टी वस्त्रादिक होती है।
नाडीव्रण की संज्ञा ऐसे मानव के तन की होती है।।
तब भी आश्चर्य बड़ा होता ऐसे शरीर से राग करे।
जिसमें है घाव समान रक्त और पीव आदि चउ ओर बहे।।
(३)
होता है सभी मनुष्यों का तन सदा अशुचि ऐसा जानो।
स्नान और चंदन लेपन कर इसको क्यों पवित्र मानो।।
(४)
यह तन कड़वी तूमड़ी सदृश उपभोग योग्य नहिं रहता है।
यदि इस काया में मोह और कूजन्म छिद्र ना रहता है।।
तपधर्म धूप से शुष्क हुआ अभिमान नहीं अंतर में हो।
तब यह भव नदी पार करने में प्राणी बनता सक्षम हो।।
इसलिए तो ऐसी काया में चंदन का लेपन व्यर्थ कहा।
तप सहित तथा अभिमान रहित प्राणी को मुक्ती मिले अहा।।
(५)
तत्त्वों को दर्शाने वाले गुरु वचन अगर मेरे मन में।
तो यह शरीर चाहे जैसा भी रहे नहीं िंचता मन में।।
उनके अनुभव से बहुत जल्द अविनाशी मुक्तिरमा वरती।
जो देती है आनंद बहुत और बहुत असाधारण होती।।
(६)
ऐसा श्रीमान् कौन होगा जो तन की खातिर पाप करे।
जो अंत समय में लट आदिक कीड़ों से व्याप्त तन प्राप्त करे।।
अग्नी से भस्मस्वरूप तथा नहिं नित्य कभी भी रहता ये।
मछली के खाने से विष्ठा में परिणत हो जाता तन ये।।
विष आदि रसायन खाकर भी यह देह नष्ट हो जाती है।
इस तरह अनेकों पापों से आगे दुर्गति मिल जाती है।।
(७)
जिस तरह लोह के आश्रय से अग्नी घन से पीटी जावे।
वैसे ही संसारी प्राणी तन के निमित्त से दुख पावे।।
इसलिए मुमुक्षूजन कोई युक्ती से तन का त्याग करे।
जिससे इस आत्मा को जग में तन धर कर भ्रमण नहीं होवे।।
(८)
यह मानव तन की रक्षा अरु पोषण में सदा लगा रहता।
पर वृद्धावस्था इस शरीर को जर्जर सदा किया करता।।
आपस में ईष्र्या है जिसके इस जन्म मरण के मध्यकाल।
और कालसेविका वृद्धावस्था कब तक यह रखें संभाल।।
।।इति शरीराष्टक।।
Tags:
Padamnadi Panchvinshatika
Previous post
25.करुणाष्टक!
Next post
अध्यात्म प्रवाह
Related Articles
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका
October 28, 2022
jambudweep
अध्यात्म प्रवाह
July 13, 2022
jambudweep
18.ऋषभ जिनेन्द्र स्तोत्र!
March 11, 2018
jambudweep
error:
Content is protected !!