सरकसों में कौशल के जितने भी कार्य दिखाये जाते हैं,उनमें सब से अधिक जोखिम का दृश्य होता है- सिहों-बब्बर शेरों-चीतों और बाघों के बीच रहकर उन पर कठोर नियंत्रण रखना, यह कार्य जहाँ एक ओर मानव के अदम्य साहस का द्योतक है,वहाँ दूसरी ओर प्राणि जगत में उसे सर्वशक्तिमान भी घोषित करता है। प्रकृति पर विजय पाने के लिए मनुष्य ने अभी तक जितने भी कदम सफलता की मंजिल की ओर बढ़ाये हैं वे सब भौतिकता को लक्ष्य करके ही उठाये गये हैं, और यही कारण है कि उसकी चेतना की पुकार- उसकी आत्मा का तकाजा अभी भी उसे ऐसा कुछ करने के लिए आह्वान करता है, जिससे इनके पुद्गल कृत चमत्कारों की चकाचौंध से बचकर आध्यामिकता के अलौकिक आलोक का दर्शन कर सके। सरकस का खेल देखते समय हम दाँतों तले अँगुली दबाना तो जानते हैं, पर क्या कभी यह भी सोचा है कि सफलता का क्या रहस्य है? बर्बर-खूंख्वार शेरों के साथ खिलवाड़ करना क्या अपने जीवन से खिलवाड़ करना नहीं है? गम्भीरता पूर्वक मनन करने से ज्ञात होगा कि बचपन से ही इन जंगली जानवरों पर निरन्तर ऐसे संस्कार डाले जाते हैं कि वे एकदम मानवीय नियंत्रण में आ जाते हैं और फिर उन्हें मनचाहा प्रशिक्षण देकर जड़ जनता को विमोहित किया जा सकता है। कोमल शाखा को जैसा चाहो वैसा मोड़ दो पर कठोर शुष्क सख्त काठ को नहीं! तंत्र विद्या क्या है? दूसरों को जड़ बनाने के लिए स्वयं चैतन्य बनकर उनके समस्त शासन तंत्र उनकी सारी बागडोर अपने हाथ में ले लेना। और कठपुतलियों की भांति उस जड़ीभूत जनता को मनमाने रूप से अंगुलियों पर नचाना-यही सब तंत्र विद्या है।…परन्तु मंत्र विद्या का सम्बन्ध चेतना से रहता है। तुम्हारे मंत्रों के शब्दों में यदि किचिंत् भी चेतना की पुट है, तो अवश्य ही सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी।
‘‘अहिंसा प्रतिष्ठायाम् तत्सन्निधौ बैरत्याग:’’
यह महर्षि पातंजलि का एक सूत्र हैं। उसके अनुसार उन्होंने सिद्ध किया है कि हिंसक जीव भी अपने परस्पर के बैर-विरोध को भूलकर उसमें शांति की श्वांस लेते हैं। भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध आदि अनेक महान् योगियों के तपस्या काल में सिंह और बकरी एक घाट पानी पीते थे। आधुनिक सरकसों की भाँति उस विद्युत हंटर के आतंक से बर्बर सिंहों पर नियंत्रण नहीं किया जाता था, वरन अहिंसा के परमाणुओं में हिंसक से हिंसक-निर्दय से निर्दय जीवों के परिर्वितत करने की अनुपम शक्ति होती थी। आज से लगभग १०० वर्ष पूर्व की सत्य घटना है। राजस्थान में दीवान अमरचन्द जी का नाम आज भी बड़े गौरव के साथ लिया जाता है।क्यों? इसलिये कि एक बार उनके कुछ ईष्यालु सहयोगियों ने राजा से चुगली की कि दीवान अमरचन्द जी अहिंसा धर्म की बड़ी डींग हांका करते हैं और कहते हैं कि अहिंसक के सामने शेर भी वूâकर जैसा आचरण करने लगता है। क्यों न उनकी परीक्षा जी जाये? निदान वे शेर के कठघरे में नि:शस्त्र अकेले छोड़ दिये गये। दीवान अमरचन्द की अहिंसा पर दृढ़ आस्था थी। सिंह के कठघरे में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ताजी गरम जलेबियों का एक थाल अपने साथ ले लिया था। वें दहाड़ते हुए शेर के सामने पहँुचे और उससे मानवीय भाषा में बोले- ‘‘स्वयमेव मृगेन्द्रता के साक्षात प्रतीक! तुम एक आदतन मांसाहारी जीव हो, परन्तु क्या तुम्हारा पेट केवल ताजे मांस से ही भरा जा सकता है? अन्य शाकाहारियों की तरह दूसरी खाद्य वस्तुओं से नहीं?…जरा अपनी लोलुपता को कम करो, अपनी दृष्टि बदलो और आत्म-कल्याण करो।’’ दीवान अमरचन्द्र के ये चेतन स्पूर्त शब्द कुछ ऐसी करुण भाषा में कहे गये थे कि बर्बर सिंह की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे और उसी भावुकता में उसने थाल की जलेबियाँ खाकर अपना पेट भर लिया।इस अहिंसा के अलौकिक चमत्कार को देखकर सभी दंग रह गये। तो क्या दीवान अमरचन्द जी के इन शब्दों में कोई मंत्र की महाशक्ति थी या उन्हें सिंह के वशीकरण का कोई मंत्र याद था?… नहीं, कोई भी शब्द यदि उन्होंने थोड़ा भी करुणा, अहिंसा आदि तत्वों को छुआ है और उनमें किंचित् भी यदि चेतना की पुट है तो वही शब्द मंत्र का रूप धारण कर लेते हैं। श्रीमन्मानतुँगाचार्य के इस ३९ वें काव्य के पीछे उनकी कुछ ऐसी दीर्घ साधना है कि उपर्युक्त काव्य के शब्दों में आज भी वह चेतनता विद्यमान है और सिंहादिक हिंसक पशुओं को बातों में वश में किया जा सकता है। जैसा कि श्रीपुर नगर के सेठ देवराज जी ने इस काव्य को ऋद्धि मंत्र सहित सिद्ध कर लाभ उठाया। व्यापार को जाते समय सेठ जी के सम्मुख दहाड़ता गुर्राता शेर आया तो उन्होंने महाप्रभावक भक्तामर स्तोत्र के ३९वें काव्य व उसके मंत्र का आराधन विधि पूर्वक किया और सफलता प्राप्त की।