देखते ही देखते करोड़ों की संपत्ति स्वाहा हो गई। प्रचण्ड अग्नि की लपलपाती हुई जिह्वा ने क्षण मात्र में लक्ष्मीधर जी की समस्त विभूति राख में परिणत कर दी। डेरे में जितने भी तम्बू लगे थे-सब के सब अग्नि देवता की भेंट चढ़ गये।माल-असबाव से लदी हुई बैलगाड़ियाँ उस दावानल में होम हो चुकी! गनीमत रही कि किसी चर प्राणी की आहुति उसकी बलिवेदी पर न चढ़ पाई। चारों ओर जोर शोर का कोलाहल मच गया।’’ पानी लाओ-पानी लाओ’’ चिल्लाने वालों की संख्या जितनी ही अधिक थी, लाने वालों की संख्या उतनी ही कम थी। सेठ लक्ष्मीधर के सहयोगी व्यापारी बन्धु मानों घर पूंâक तमाशा देख रहे थे। उनकी तो जैसे अक्ल में गोदरेज का ताला ही लग गया था। अग्नि को बुझाने के लिये डाला गया पानी भी उस समय घी का काम कर रहा था। ज्यों—ज्यों वह डाला जाता त्यों—त्यों उसकी लपटें और अधिक भभकती तथा आकाश को छूने की होड़ लगाती। अग्नि-शामक यंत्र तो उस समय थे नहीं कि गैस छोड़कर बात की बात में अग्नि की विकरालता को समाप्त किया जाता। हाँ अग्नि-शामक मंत्र जरूर थ उस जमाने में। आस्तिक एवं श्रद्धालु लोग उसी का सहारा लेकर प्रकृति के इस रुद्र रूप पर विजय प्राप्त करते थे।जब सती सीता की सतीत्व परीक्षा के लिए रचाया गया अग्निकुंड जैनधर्म के प्रभाव से एक लहराता हुआ सरोवर बन सकता है, तो कोई कारण नहीं कि जैनधर्म श्रद्धालु सेठ लक्ष्मीधर जी उसे शान्त करने में सफल न होते।उन्होंने अपने अमूल्य जीवन में विषय-वासनाओं की होली जलाकर न जाने कितने पापों को भस्म किया था। वे धीरता पूर्वक इस होली काण्ड को उसी तरह देखते रहे जिस प्रकार कि जिनेन्द्र भगवान अष्ट कर्मों का र्इंधन बनाकर उन्हें अपनी आखों से भस्मीभूत होते देखते हैं। सेठ लक्ष्मीधर जी इस विकट संकट काल में किंचित भी न घबराए। वे सोचते कि-अशुभ कर्मोदय से क्या नहीं होता?…रावण की तो सोने की लंका ही जल कर राख हो गई थी; फिर मेरी संपत्ति तो किस गिनती में है? निदान वे एकाग्रचित से ऋद्धि और मंत्र सहित ‘‘कल्पान्तकाल पवनोद्धतबन्हिकल्पं…।’’ का पाठ मधुर स्वर में जोर-जोर से करने लगे। आस-पास के लोग सेठ जी का यह कृत्य देखकर उनप पर कस-कस कर पानी के छीटे मारते हुये दांत निकाल कर विद्रूप हँसी हँसते हुए कह रहे थे- सेठ जी!! कुछ पानी का प्रबन्ध करो। भक्ति-भावना यहाँ काम आने वाली नहीं है। आज लगने पर कुआ खोदना ही बेकार है। सेठ जी उन्हें सीधा-सादा सा उत्तर देकर अपनी साधना में तल्लीन हो जाते! सरकारी संविधान में देर-अंधेर चाहे भले ही,परन्तु विधाता के विधान में विलम्ब नहीं। यहाँ धर्म श्रद्धालु सेठ लक्ष्मीधर जी ने महाप्रभावक भक्तामर जी के ४०वें काव्य का ऋद्धि-मंत्र सहित जाप्य किया कि वहाँ जैन शासन की अधिष्ठात्री ‘‘चव्रेâश्वरी’’ देवी हाथ जोड़े सामने खड़ी थी। अब जरा सरकारी संविधान के अनुसार चलने वाली व्यवस्था पर एक नजर डालिये। एक बार किसी सरकारी इमारत में अकस्मात् आग लग गई। उसे बुझाने का प्रयत्न करने के बजाय वहाँ के अधिकारियों ने अग्निशामक विभाग के पास कागजी घोड़े दौड़ाने प्रारम्भ किये कि अमुक भवन में आग लग गई है, अविलम्ब उसे बुझाने का प्रबन्ध किया जावे। सो लीजिये पाठक गण! कोई ६ महीने के बाद उस विभाग से उत्तर आता है कि उसे शीघ्र बुझा दिया जाये। बस यही हाल आज हमारा है। हम थोथे प्रयत्न तो बहुत करते हैं, परन्तु चेतना से सम्बन्ध रखने वाले सारभूत प्रयत्नों में सदैव दूर भागते हैं।अस्तु,हमें पुन: अपने प्रसंग पर आ जाना चाहिये। पाठक वृन्द कदाचित् बहुत देर से इन प्रश्नों को अपने में संजोये हुए होंगे कि यह लक्ष्मीधर कौन थे? आग कैसे लगी? कहाँ पर लगी? सबका समाधान निम्न पंक्तियों से हो जावेगा। लक्ष्मीधर जी पोदनपुर के एक धनिक श्रेष्ठी थे। दीपावली के दिन शुभ बेला में व्यापार के निमित्त अपने कई साथियों के साथ उन्होंने सिंहलद्धीप की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में एक जगह डेरे डाले गये। संध्या के समय सेठ जी ने सोचा कि आज त्यौहार का पवित्र दिन है। लक्ष्मी पूजन कर ली जावे तो ठीक रहे। यह सोच कर उन्होंने भौतिक लक्ष्मी की उपासना करने के लिए आरती का एक दीपक जलाया। भौतिक लक्ष्मी की चकाचौंध में वे भूल गए कि दीपावली का त्यौहार इस भौतिक लक्ष्मी की पूजन का दिन नहीं वरन् मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करने का है। श्री भगवान् महावीर स्वामी की पूजा का पावन दिवस। सेठ जी भौतिक लक्ष्मी की पूजन-अर्चन के बाद सो गये। एक घन्टे के बाद शोरगुल से उनकी आँख खुल गई-तब वे देखते क्या हैं, कि आज की दीवाली तब तक होली में परिणत हो चुकी थी। जैन शासन की अधिष्ठात्री ‘‘चव्रेâश्वरी’’ देवी ने जिन प्रतिमा का न्हवन जल (गंधोदक) लाकर सेठ जी को दिया। वह जहाँ सींचा गया, पावक तत्काल शीतल होती गई-शान्त होती गई। भगवान् महावीर स्वामी की जय-जयकार से सारा जंगल गूंज उठा।