चिदानंदैकरूपाय जिनाय परमात्मने।
परमात्मप्रकाश नित्यं सिद्धात्मने नम:।।
प्रभाकरभट्ट मुनिराज भावशुद्धिपूर्वक पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके श्री योगीन्द्रदेव गुरुराज से निर्मल भाव करके भक्तिपूर्वक प्रश्न करते हैं-
गउ संसारि वसंता हं सामिय कालु अणंतु।
पर मइँ किं पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु।।
हे स्वामिन्! इस संसार में निवास करते हुए मेरा अंनतकाल बीत गया है किन्तु मैंने किंचितमात्र भी सुख नहीं पाया प्रत्युत महान् दु:ख ही पाया है। यह संसार एक प्रकार का महासागर है, इसमें नरक आदि गतियों का महान दु:खरूपी खारा जल भरा हुआ है, यह जन्म, जरा और मरणरूपी मगरादि जलचर जन्तुओं से व्याप्त है, इसके भीतर अनेकों मानसिक, शारीरिक आदि दु:खरूपी बड़वानल की ज्वालाएं भड़क रही हैं, इसमें अनेकों संकल्प-विकल्पों के समूहरूपी लहरें उठ रही हैं, हे भगवन्! ऐसे इस संसार सागर में मैं डूब रहा हूँ। बोधि और समाधि के अभाव में ही मैंने इस संसार में अनंत काल व्यतीत किए हैं।
प्रश्न- बोधि और समाधि क्या है ?
उत्तर– सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र जो आज तक नहीं प्राप्त हुए हैं उनका प्राप्त हो जाना बोधि है और उन्हीं रत्नत्रय को निर्विघ्नतया अगले भव तक ले जाना समाधि है, ये दोनों ही अतिदुर्लभ हैं।
प्रश्न-कैसे दुर्लभ हैं ?
उत्तर– एकेन्द्रिय पर्याय से दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय पर्याय पाना कठिन है, उसके बाद पंचेन्द्रिय होना अतिदुर्लभ है, पंचेन्द्रियों में भी सैनी होना, उनमें भी पर्याप्तक होना, उसमें भी मनुष्य पर्याय पाना, उत्तम देश और उत्तम कुल में जन्म लेना, सुन्दर रूप को प्राप्त करना, पांचों इन्द्रियों की पूर्णता होना, व्याधिरहित शरीर प्राप्त करना, अधिक आयु वाला होना, इन सबके मिलने के बाद भी श्रेष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना, पुन: सच्चे धर्म को सुनना, उस धर्म को ग्रहण करना, धारण करना, उसका दृढ़ श्रद्धान करना, अनन्तर संयम को धारण करना, विषय सुखों से पूर्णतया विरक्त होना और कषायों का अभाव होना अत्यन्त दुर्लभ है। ये सभी चीजें क्रम-क्रम से बहुत ही दुर्लभता से मिलती हैं। इन सबके मिल जाने पर भी तपो भावना रूप धर्म और शुद्धात्मतत्त्व की भावना रूप धर्म मिलना अति कठिन है। इनके प्राप्त हो जाने पर भी वीतराग निर्विकल्प समाधि का मिलना अतीव दुर्लभ है क्योंकि वीतराग निर्विकल्प समाधि और बोधि से विपरीत जो मिथ्यात्व विषय कषाय आदि रूप विभाव परिणाम हैं, वे अति प्रबल हो रहे हैं। कहा भी है कि-
इत्यादि दुर्लभ रूपां बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादीस्यात्।
संसृति भीमारण्ये भ्रमति वराको नर: सुचिरं।।
इस प्रकार से अतिदुर्लभ रूप इस बोधि को प्राप्त करके भी यदि कोई प्रमादी हो जाता है तो वह बेचारा मनुष्य इस संसाररूपी भयंकर वन में बहुत काल तक भ्रमण करता रहता है।
इसलिए श्री प्रभाकरभट्ट यह कहते हैं कि हे भगवन्! वीतराग परमानन्द सुख को नहीं प्राप्त कर सकने से मैं आज तक इस जगत में भ्रमण कर रहा हूँ।
हे भगवन्! चार गति के दुखों से संतप्त हुए जीवों के चतुर्गति दु:खों का विनाशक ऐसा जो कोई परमात्मा है उसको आप प्रसन्न होकर कहिए।
इतना सुनकर योगीन्द्र देव कहते हैं कि-
पुन:- पुन: पंच परम गुरुओं को नमस्कार करके और उन्हें भक्तिभावपूर्वक अपने हृदय में धारण करके मैं तीन प्रकार की आत्मा का वर्णन करता हूँ सो हे प्रभाकर भट्ट! तुम मन स्थिर करके सुनो। जैसे तुमने मुझसे प्रश्न किया है, ऐसे ही पूर्व में वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर परम देवों के समवशरण में भव्यवर जीवों में प्रमुख ऐसे राजा भरत, राजा सगर, श्री रामचन्द्र, पांडव और श्रेणिक आदि महापुरुषों ने भी पूछा था। वे सभी श्रोतागण भेदाभेद रत्नत्रय की भावना के प्रेमी थे, परमात्मा की भावना से उत्पन्न हुए वीतराग परमानन्द रूपी अमृत के पिपासु थे एवं वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुए सुखरूपी अमृत से विपरीत जो नरकगति आदि के दु:ख हैं, उन दु:खों से भयभीत थे। उन लोगों ने सपरिवार आकर भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर नम्रीभूत होकर सर्व प्रकार से उपादेयभूत ऐसी शुद्धात्मा को पूछा था।
पुन: योगीन्द्र देव कहते हैं कि हे प्रभाकर भट्ट! आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद होते हैं। उनमें से मिथ्यात्व रागादि से परिणत हुआ आत्मा बहिरात्मा है, वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान से परिणत हुआ अंतरात्मा है और शुद्ध, बुद्ध, एक स्वभाव वाला आत्मा परमात्मा है अर्थात् जो शरीर को ही आत्मा मानता है वह आत्मा बहिरात्मा है, उससे विपरीत अन्तरात्मा है और अर्हन्त तथा सिद्ध परमेष्ठी परमात्मा हैं।
जो नित्य है, निरंजन है-ज्ञानमय है और परमानन्द स्वभाव वाला है वही शांत और शिवस्वरूप परमात्मा व्यक्त रूप से-प्रगट रूप से शांत और शिव इन नामों को प्राप्त हो रहा है किन्तु संसार अवस्था में शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शक्तिरूप से शिवस्वरूप है। कहा भी है-‘‘परमार्थनयाय सदाशिवाय नमोस्तु’’ परमार्थनय स्वरूप ऐसे सदाशिव को नमस्कार हो अर्थात् परमार्थिकनय से सभी संसारी जीव सदा ही सिद्धों के समान शुद्ध हैं, उनके कर्ममल का संसर्ग है ही नहीं, न किसी काल में था। यह नय त्रिकाल में ही जीवों को शुद्ध कहता है, इस नय की अपेक्षा से नित्य और शुद्ध ऐसे सदाशिव स्वरूप आत्माओं को नमस्कार किया है। वास्तव में अपने शरीर में रहने वाला आत्मा इस शुद्धनय से शुद्ध शिवस्वरूप ही है, ऐसा अभिप्राय है।
यहां शिव शब्द से परमकल्याण, निर्वाण, शांत, अक्षय ऐसे मुक्तिपद को लिया जाता है अर्थात् ये सब शिव के ही पर्यायवाची नाम हैं। ऐसे मुक्तिपद को जिन्होंने प्राप्त कर लिया है वे ‘शिव’ कहलाते हैं बल्कि इस जगत का कत्र्ता, व्यापी, सदा मुक्त, शांत ऐसा शिव कोई नहीं है।
जिन भगवान के श्वेत, कृष्ण, रक्त, पीत और नील ये पांच प्रकार के वर्ण नहीं हैं, सुगंध और दुर्गंध ऐसी दो प्रकार की गंध नहीं हैं, कटु, तिक्त, मधुर, कषाय और आम्ल ये पांच रस नहीं हैं, जिस परमात्मा में भाषा और अभाषा रूप शब्द नहीं हैं, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मृदु, कठिन रूप आठ प्रकार के स्पर्श नहीं हैं, जिसके जन्म, जरा तथा मरण नहीं हैं, उन्हीं चिदानंदस्वरूप परमात्मा को निरंजन परमात्मा कहते हैं, पुन: वे निरंजन परमात्मा कैसे हैं ? जिनमें क्रोध नहीं है, आठ प्रकार का मद नहीं है, माया नहीं है और मान नहीं है, जिनके नाभिहृदय आदि स्थान नहीं हैं, चित्त के रोकने रूप ध्यान नहीं है, ऐसी अपनी शुद्धात्मा ही निरंजन है ऐसा तुम समझो। ख्याति, पूजा, लाभ, देखे हुए, सुने हुए, अनुभव में आए भोग तथा ऐसे भोगों की आकांक्षा रूप समस्त विभाव परिणामों को छोड़कर अपनी शुद्ध आत्मा की अनुभूतिरूप ऐसी निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर तुम उस निरंजन परमात्मा स्वरूप अपनी आत्मा का अनुभव करो।
उस निरंजन परमात्मा में और क्या-क्या नहीं है ?
उस आत्मा में द्रव्य और भावरूप ऐसे पुण्य तथा पाप नहीं हैं, राग रूप हर्ष तथा द्वेष रूप विषाद भी नहीं है, वही शुद्धात्मा निरंजन है। हे प्रभाकर भट्ट! ऐसा तुम समझो अर्थात् अपनी शुद्धात्मा के संवेदन रूप वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर तुम उसी का अनुभव करो क्योंकि जो विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला निरंजन आत्मा है, वही उपादेय है ऐसा समझो।
इस परमात्मा में कुम्भक, पूरक आदि धारणाएं नहीं हैं, इसमें प्रतिमादि ध्येय भी नहीं है, अक्षर रचनारूप यंत्र, विविध अक्षरों के उच्चारण रूप मंत्र, जलमंडल, पृथ्वीमंडल आदि मंडल, गरुड़मुद्रा, ज्ञानमुद्रा आदि मुद्राएं भी नहीं हैं, वही परमात्मा देव है अर्थात् आराधना करने योग्य है और अनंत है अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से अविनश्वर है, अनंत ज्ञानादि गुण स्वभाव वाला है ऐसा तुम समझो।
इस आत्मस्वरूप के अनुभव में बाधक क्या-क्या हैं ?
अतीन्द्रिय सुखास्वाद के विपरीत जो जिह्वा इन्द्रिय के विषय का सुख है वह बाधक है, मोहरहित शुद्धात्म स्वभाव के प्रतिवूâल जो मोह है, वीतराग सहजानंदमय परम समरसीभावरूप सुखरस का जो अनुभव है उसके प्रतिवूâल जो नव प्रकार का अब्रह्म है और वीतराग निर्विकल्प समाधि का घातक जो मन में होने वाला संकल्प-विकल्प जाल है ये सभी आत्मस्वरूप के अनुभव में बाधक हैं इनको जीतकर हे प्रभाकर भट्ट! तुम शुद्धात्मा का अनुभव करो। कहा भी है-
‘अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभ च।
गुत्तीसुय मणगुत्ती चउरो दुक्खेहिं सिज्झंति।।’
इंद्रियों में रसना इंद्रिय प्रबल है, कर्मों में मोहनीय कर्म प्रबल है उसी प्रकार से व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है और तीन गुप्तियों में मनोगुप्ति पालना कठिन है, ये चारों बातें बड़ी कठिनाई से सिद्ध होती हैं ऐसा समझना।
यह आत्मा वेद, शास्त्र और इंद्रिय आदि परद्रव्यों के अगोचर है तथा वीतराग निर्विकल्प समाधि के ही गोचर है ऐसा समझो। कहा भी है-
अन्यथा वेदपांडित्यं शास्त्रपांडित्यमन्यथा।
अन्यथा परमं तत्त्वं लोका: क्लिश्यंति चान्यथा।।
वेद ग्रन्थों की पंडिताई कुछ अलग है और शास्त्रों की पंडिताई भी कुछ अलग है, परमतत्त्व कुछ अलग ही है तथा सभी लोग क्लेश कुछ अलग ही उठा रहे हैं अर्थात् वेदों की पंडिताई, शास्त्र की पंडिताई से आत्मतत्त्व का अनुभव नहीं होता है इसलिए जब तक लोग उस परमतत्त्व को नहीं समझते हैं तब तक जितना भी पुरुषार्थ करते हैं वह उन्हें मुक्ति को प्राप्त नहीं करा सकता है इसलिए वह उनके लिए क्लेशरूप ही है क्योंकि मोही प्राणी अन्य ही मार्ग में लगे हुए हैं।
यदि यह परमात्मा वेदादि का विषय नहीं है तो किसका विषय है ?
यह परमात्मा समाधि का विषय है अर्थात् निर्विकल्प समाधि के द्वारा ही इसका अनुभव होता है अन्यथा नहीं। यह आत्मा केवलज्ञान और दर्शन से निर्मित है इसलिए केवलज्ञान दर्शनमय है, केवल आनन्द सुख स्वभाव रूप है और केवल अनंतवीर्य स्वभाव रूप है और यह आत्मा अर्हन्त परमेष्ठियों में भी उत्कृष्ट है अर्थात् सिद्ध स्वरूप है, पुन: यह आत्मा त्रिभुवनवंदित है, निष्कल है-पांच प्रकार के शरीरों से रहित है यही आत्मा परमपद ऐसे मोक्षस्थान में निवास करती है। यहां पर ऐसा समझना कि मुक्त जीवों के सदृश ही अपनी शुद्ध आत्मा का स्वरूप है, उसी का निरन्तर ध्यान करना चाहिए।
अब श्री योगीन्द्रदेव कहते हैं कि जैसा प्रगट रूप परमात्मा मुक्ति में विराजमान है वैसा ही परमात्मा शुद्ध निश्चयनय से शक्ति रूप से शरीर में विराजमान है।
जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिं णिवसइ देउ।
तेहउ णिवसइ बंभु परू देहं मंकरि भेउ।।२६।।
जैसा निर्मल ज्ञानमय देव सिद्धलोक में निवास करता है, वैसा ही परमब्रह्मा देह में निवास करता है तुम उसमें भेद मत करो।
भावार्थ –जिनके केवलज्ञान आदि प्रगट हो चुके हैं, जो कार्य समयसार इस नाम को प्राप्त हो चुके हैं, जो रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्म, इन तीन प्रकार के कर्ममल रहित निर्मल हो चुके हैं, जो केवलज्ञान से ही बने हुए होने से ज्ञानमय हैं तथा केवलज्ञान के अंतर्गत अनंत गुणों से सहित हैं, ऐसे सिद्ध भगवान् सिद्धालय में निवास करते हैं, वे ही परम आराध्य होने से देव कहलाते हैं। शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से इन्हीं पूर्वोक्त विशेषणों से सहित शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव वाला ब्रह्मस्वरूप उत्कृष्ट परमात्मा शक्ति रूप से देह देवालय में निवास करता है। हे प्रभाकर भट्ट! तुम इनमें भेद मत करो।
ऐसा ही श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव ने भी कहा है-
णमिएहिं जं णमिज्जइ झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं।
भुव्वंतेहिं भुणिज्जइ देहत्थ किं पि तं मुणह।।
जो नमस्कार करने योग्य महापुरुषों के द्वारा नमस्कार योग्य है, हमेशा ध्यान करने योग्य आचार्य परमेष्ठी आदि के द्वारा भी ध्यान करने योग्य है और स्तुति करने योग्य महापुरुषों से भी स्तुत्य है, ऐसा जीव नाम का पदार्थ इस देह में स्थित है तुम उसको समझो।
पुनरपि श्री योगीन्द्रदेव कहते हैं कि-
जिस परमात्मा के अवलोकन करने मात्र से शीघ्र ही पूर्व संचित कर्म टूट जाते हैं अर्थात् अंतर्मुहूर्त मात्र में सौ टुकड़े रूप से चूर्ण-चूर्ण हो जाते हैं, हे योगिराज! तुम उस नित्य ही आनंद स्वभावी परम उत्कृष्ट अपनी आत्मा को क्यों नहीं जानते हो ? जो कि तुम्हारे देह में ही रह रहा है।
सार- पहले श्रीयोगीन्द्र देव ने निरंजन परमात्मा का स्वरूप बतलाया है पुन: यह बतलाया है कि ऐसा निरंजन देव अपने गुणों को प्रगट करके सिद्धालय में स्थित है किन्तु इस देहरूपी देवालय में भी जो अपनी आत्मा निवास कर रही है, वह शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शक्तिरूप से सिद्ध स्वरूप निरंजन परमात्मा ही है ऐसा श्रद्धान करके उसे प्रगट रूप परमात्मा बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
देह देवालय में परमात्मा स्थित है-
जहां इन्द्रिय सुख-दु:ख नहीं हैं, जहाँ मन का व्यापार नहीं है, हे प्रभाकरभट्ट मुनिराज! वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर नित्यानंद एकस्वरूप ऐसी उस अपनी शुद्धात्मा का अनुभव करो तथा परमात्मा के स्वरूप से विपरीत, पंचेन्द्रिय के विषय स्वरूपादि विभाव समूह को दूर से छोड़ो।
प्रश्न–निर्विकल्प समाधि में सर्वत्र वीतराग विशेषण किसलिए लगाया है ?
उत्तर– जिस हेतु से वे वीतरागी हैं, उसी हेतु से ही वे निर्विकल्प हैं। इस प्रकार से कारणकार्य भाव को बतलाने के लिए ही वीतराग विशेषण दिया गया है अर्थात् वीतरागता कारण है और निर्विकल्प अवस्था होना कार्य है, बिना वीतरागता के निर्विकल्प ध्यान होना संभव नहीं है अथवा जो सरागी होते हुए भी कहते हैं कि हम निर्विकल्प समाधि में स्थित हैं उनका निषेध करने के लिए ही यह निर्विकल्प समाधि में वीतराग विशेषण दिया गया है।
जो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा अभेद नय से आत्मा और शरीर से अभिन्न ऐेसे अपने शरीर में निवास करता है और शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा भेदनय से अपने शरीर से भिन्न ऐसी अपनी आत्मा में निवास करता है, हे जीव! तुम नित्यानंद रूप एक वीतराग निर्विकल्प ध्यान में तन्मय होकर उस आत्मा का ध्यान करो, अपनी शुद्धात्मा से भिन्न इस शरीर से रागादि करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? हे प्रभाकर भट्ट! तुम जीव और अजीव को एक मत करो किन्तु लक्षण के भेद से उनमें भेद समझो। देखो! रागादि रहित शुद्ध चैतन्य यह जीव का लक्षण है और इससे भिन्न जड़ रूप होना यह अजीव का लक्षण है।
यह आत्मा मानस विकल्प जालों से रहित होने से अमनस्क है। इन्द्रिय समूह से रहित होने से अतीन्द्रिय है, लोकालोक प्रकाशी ऐसे केवलज्ञान से निवृत्त-बना हुआ होने से ज्ञानमय है, स्पर्श, रस, गंध और वर्णमयी मूर्ति से रहित होने से अमूर्तिक है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाने वाले ऐसे असाधारण शुद्ध चेतना से निष्पन्न-परिपूर्ण होने से चिन्मात्र है। ऐसा होते हुए भी यह आत्मा इंद्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है क्योंकि यह वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा ही ग्रहण किया जाता है-जाना जाता है।
इन लक्षणों से लक्षित जो परमात्मा है वही उपादेय है।
प्रश्न–इस परमात्मा का ध्यान कब होता है ?
उत्तर-जो संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो जाता है वही इस शुद्धात्मा का ध्यान कर सकता है, अन्य कोई नहीं। जिनका मन संसार, शरीर और भोगों में अनुरंजित है, मूच्र्छित है, वासित है, आसक्त है वे बेचारे इन्द्रिय विषयों से ठगाये गये प्राणी अपनी शुद्धात्मा के स्वरूप को समझने में और उसमें रत होने में अनधिकारी हैं-असमर्थ हैं किन्तु जो विषयासक्त चित्त को स्वानुभवजन्य वीतराग परमानंद सुख रसास्वादन के द्वारा अपनी तरफ खींच लेते हैं वे ही स्वशुद्ध आत्मा के सुख में रत होकर शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं-अनुभव करते हैं और उसी में तन्मय हो जाते हैं पुन: उनकी बहुत बड़ी संसार बेल टूट जाती है, उसके सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं। अभिप्राय यह है कि जिस परमात्मा के ध्यान से संसार रूपी वल्ली नष्ट हो जाती है निरंतर उसी परमात्मा की भावना करना चाहिए।
जो देह देवालय में रहता है वही शुद्ध निश्चयनय से परमात्मा है, व्यवहारनय की अपेक्षा से शरीररूपी मंदिर में रहते हुए भी यह आत्मा निश्चयनय से शरीर से भिन्न है इसलिए शरीरी मूर्तिक और सर्वथा अशुचिमय नहीं है। यद्यपि यह शरीर आराध्य नहीं है, फिर भी स्वयं परमात्मा आराध्य है, पूज्य है। यद्यपि शरीर सादि और शांत है फिर भी स्वयं शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से अनादि अनंत है। यद्यपि शरीर जड़ है फिर भी स्वयं लोकालोक प्रकाशक ऐसे केवलज्ञान प्रकाशमय शरीर स्वरूप है। ऐसा आत्मा शरीर में रहते हुए भी सर्वथा अपवित्र आदि शरीर के धर्म को स्पर्श नहीं करता है उसी शुद्धात्मा की निरंतर भावना करना उचित है।
बात यह है कि क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विभाव परिणाम के द्वारा जो कर्म उपार्जित होते हैं उनके द्वारा ही शरीर का निर्माण होता है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव इस शरीर में निवास कर रहा है फिर भी निश्चय से यह इस शरीर का स्पर्श भी नहीं करता है तथा इस पौद्गलिक शरीर के द्वारा स्पर्शित किया भी नहीं जाता है। बस वही परमात्मा है ऐसा तुम समझो। हे आत्मन्! तुम शरीर से निर्मम होकर वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर उस आत्मा का अवलोकन करो।
यह परमात्मा परम योगियों के हृदय में ही स्पुâरायमान होता है। वे योगीजन ही इसका अनुभव कर सकते हैं, अन्य नहीं और वे योगी भी वैâसे होने चाहिए ? जो जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख,शत्रु-मित्र आदि में समता भाव को रखने वाले हैं और अपनी शुद्ध आत्मा का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान, उसी के अनुष्ठान रूप जो अभेद रत्नत्रय है उस निश्चयरत्नत्रय से परिणत वीतराग निर्विकल्प समाधि में प्रतिष्ठित होने वाले हैं, ऐसे साधु ही वीतराग परमानंद का अनुभव करते हुए जब ध्यान में स्थिर होते हैं तब स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव कर लेते हैं।
जैसे अनंत आकाश में एक नक्षत्र चमकता है उसी प्रकार यह सारा भुवन जिस ज्ञान में एक नक्षत्र के समान छोटा सा प्रतिभासित होता है अर्थात् मुक्त जीवों के केवलज्ञान में यह सारा विश्व दर्पण के अंदर झलकते हुए प्रतिबिंब के समान झलकता है ऐसे केवलज्ञान स्वरूप आत्मा की निरंतर भावना करते रहना चाहिए। वास्तव में समस्त रागादि विकल्प जालों से रहित यह आत्मा ही केवलज्ञानरूप सूर्य को उदित करता है।
यह आत्मा ही ज्ञानावरण आदि कर्मोदय हेतु को प्राप्त करके त्रस-स्थावर रूप इस जगत् की-सृष्टि की रचना करता है अन्य कोई ब्रह्मा आदि इस सृष्टि के उत्पन्न करने वाले नहीं हैं। वास्तव में यह आत्मा रागादि विभाव परिणामों से विकारी बन रहा है यही कारण है कि यह कर्मों के उदय से तद्रूप परिणत होते हुए नाना प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करता है और इसी हेतु से यह इस सृष्टि को उत्पन्न करने वाला कहलाता है। इस संसारी सकर्मा जीव के ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक रूप तीन लिंग माने गये हैं। यह आत्मा यद्यपि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्ध है फिर भी अनादि परम्परा से आये हुए कर्मों के सम्बन्ध से सहित होने से अशुद्ध हो रहा है। वीतराग निर्विकल्प सहजानंद एक अद्वितीय सुखामृत आस्वाद को नहीं प्राप्त करते हुए व्यवहारनय से त्रस हो जाता है तो कभी स्थावर योनि में चला जाता है। नाना योनियों में नाना प्रकार के शरीर का निर्माण करते रहने से यह आत्मा जगत् का कर्ता कहलाता है किन्तु कोई परिकल्पित, हरिहर ब्रह्मा आदि जगत् के कर्ता नहीं हो सकते हैं क्योंकि परमपिता परमेश्वर कभी भी किसी को दु:ख देने की सोच भी नहीं सकते हैं अथवा परम वीतरागी, निर्विकल्प और कृतकृत्य परमेष्ठी किसी को सुख-दु:ख देने के प्रपंच में पड़ते ही नहीं हैं।
प्रश्न– ऐसा परमात्मा जो कि व्यक्त रूप से केवलज्ञान स्वरूप है, वह कहां रहता है ?
उत्तर– जिस परमात्मा के केवलज्ञान रूप प्रकाश के मध्य में यह सारा विश्व रह रहा है और उसी जगत् में यह परमात्मा रह रहा है फिर भी वह तद्रूप नहीं होता है। जैसे रूपादि पदार्थों में चक्षु रहता है और चक्षु में रूपादि पदार्थ रहते हैं फिर भी वे पदार्थ चक्षु रूप नहीं हैं और न चक्षु ही उन पौद्गलिक पदार्थमय हो सकता है उसी प्रकार से भगवान के केवलज्ञान में सारा विश्व समाया हुआ है और भगवान भी इसी विश्व में ज्ञान रूप से सर्वत्र व्याप्त हैं तथा प्रदेशों की अपेक्षा से लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं अत: विश्व के भीतर ही हैं न कि बाहर, फिर तो न तो यह विश्व ज्ञान रूप परिणत होता है और न यह ज्ञान विश्वरूप परिणत होता है। दोनों ही अपने-अपने स्वभाव को लिए हुए हैं, ऐसा समझो।
मोक्षमार्ग के लिए रत्नत्रय की उपादेयता पर ऊहापोह-
इस जगत् में चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते हुए इस जीव ने एक प्रदेश भी ऐसा नहीं छोड़ा है कि जहां जन्म न लिया हो क्योंकि सर्वत्र भ्रमण कर चुका है। जिनेन्द्र भगवान के वचनों को नहीं प्राप्त करते हुए ही इस जीव ने संसार में भ्रमण किया है।
प्रश्न– जिनेन्द्रदेव के वचन कैसे हैं ?
उत्तर– जिनेन्द्रदेव के वचन निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय को कहने वाले हैं।
प्रश्न–निश्चय रत्नत्रय क्या है ?
उत्तर-जब वीतरागी साधु निर्विकल्प ध्यान में स्थित होते हैं उस समय शुद्धात्मा की ही रुचि, उसी का ही ज्ञान और उसी में ही तन्मयतारूप जो एक अवस्था होती है जो कि कहने में अवश्य ही तीन रूप है किन्तु वास्तव में वहां अभेद परिणति मात्र ही है जो चिच्चैतन्य स्वरूप परमानंदमय है। इस अभेद रत्नत्रय का नाम ही निश्चय रत्नत्रय है।
प्रश्न–व्यवहार रत्नत्रय क्या है ?
उत्तर-निश्चय रत्नत्रय के लिए जो साधक व्यवहार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और व्यवहार प्रवृत्ति रूप तेरह प्रकार का चारित्र है उसे ही व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं। जिनेन्द्र भगवान् के वचन निश्चय-व्यवहार नयों के द्वारा ही प्रत्येक वस्तु का विवेचन करते हैं।
यह आत्मा पंगु के सदृृश है, तीनों लोक में न तो कहीं स्वयं आता है और न कहीं जाता है किन्तु विधि-कर्म ही इसे तीनों लोकों में कहीं भी ले जाता है और कहीं भी ले आता है। यह आत्मा शुद्ध निश्चयनय से अनंतवीर्य संपन्न है। इसी निश्चयनय से शुभ और अशुभ कर्मरूप दो बेड़ियों से रहित होते हुए भी व्यवहारनय से इन पुण्य-पापरूप उभय बेड़ियों से मजबूत जकड़ा हुआ है इसीलिए पंगु के समान है, न कहीं जा सकता है और न कहीं आ सकता है। अनादि संसार में स्वशुद्धता की भावना से विपरीत मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से जो कर्म उपार्जित करता है, उस कर्म के द्वारा निर्मित ही ये पुण्य-पाप रूप दो बेड़ी हैं जिनके द्वारा यह अनादिकाल से जकड़ा हुआ है किन्तु जो यह विधाता, ब्रह्मा आदि शब्दों से कहा गया कर्म है उसके द्वारा ही जगत् में सर्वत्र घुमाया गया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वीतराग सदानंद ही है एक स्वरूप जिसका, ऐसी अपनी परमात्मा की ही भावना करनी चाहिए। उससे विपरीत शुभ-अशुभ रूप दोनों प्रकार के कर्मों को हेय समझना चाहिए।
प्रश्न–तब तो देवपूजा, आहारदान, औषधि आदि दान रूप क्रियायें हेय रूप ही हो गई पुन: उनके करने का जिनागम में उपदेश क्यों दिया गया है ? तथा मुनियों की षट् आवश्यक क्रियायें आदि भी शुभ रूप होने से हेय हैं पुन: उनका भी अनुष्ठान क्यों ?
उत्तर-समयसार में कहा है-
वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता।
परमट्ठबाहिरा जेण तेण ते होंति अण्णाणी।।१६१।।
अर्थ-यद्यपि जो व्रत और नियमों को धारण करते हैं, शील पालते हैं तथा तप भी करते हैं किन्तु वे परमात्म स्वरूप के ज्ञान से रहित हैं इसलिए वे सब अज्ञानी हैं। पुन: श्रीजयसेनाचार्य तात्पर्यवृत्ति टीका में कहते हैं-
त्रिगुप्ति समाधि लक्षणा भेदज्ञानाद् बाह्या ये ते व्रत नियमान धारयंत: शीलानि तपश्चरणं च कुर्वाणा अपि मोक्षं न लभंते ।
जिसमें तीन गुप्तियों का पालन हुआ करता है ऐसी परमसमाधि रूप भेदज्ञान से जो बाह्य हैं, वे व्रत और नियमों को धारण करते हुए और तपश्चरण करते हुए भी मुक्तिको प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि पूर्वोक्त त्रिगुप्तिगुप्त परमसमाधि रूप भेदज्ञान के न होने से वे परमार्थ से दूर हैं। हां, जो इस परमसमाधि से युक्त हैं वे व्रत, नियम, शीलों को बिना धारण किए भी और बाह्य द्रव्य रूप तपश्चरण को बिना किए भी मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
शंका-यदि व्रत-नियम-शील और तपश्चरण न करने पर भी मोक्ष हो जाता है तब तो सांख्य और शैव मतानुसारी शिष्यों का कहना ठीक मानना चाहिए ?
समाधान-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि बहुत बताया जा चुका है कि त्रिगुप्ति सहित निर्विकल्प समाधि रूप भेद ज्ञान से ही मोक्ष होता है।
‘‘एवंभूत भेदज्ञान काले शुभरूपा ये मनोवचन काय व्यापारा: परंपरया मुक्तिकारण भूतास्तेऽपि न संति। ये पुनरशुभ विषयकषाय व्यापार रूपास्ते विशेषेण न संति। न हि चित्तस्थे रागभावे विनष्टे सति बहिरंगविषय व्यापारो दृश्यते तंदुलस्याभ्यंतरे तुषेगते सति बहिरंगतुष इव। तदपि कस्मात् ? इति चेत् निर्विकल्पसमाधि लक्षण भेदज्ञान विषय कषायोद्र्वयो: परस्पर विरुद्धत्वात् शीतोष्णवदिति।’’
इस प्रकार के त्रिगुप्ति रूप भेदज्ञान के समय में जो शुभ मन, वचन, काय के व्यापार हैं जो कि परंपरा से मुक्ति के कारण हैं। (पंचमहाव्रत, समिति, आवश्यक क्रिया आदि रूप हैं।) वे भी नहीं रहते हैं तो फिर अशुभ विषय कषाय के व्यापार रूप जो मन, वचन, काय की चेष्टा है वह तो वहाँ रहेगी ही कैसे ? क्योंकि चित्त में होने वाले रागभाव के नष्ट हो जाने पर वहां ध्यान में बहिरंग विषयों में होने वाला व्यापार नहीं देखा जाता है जैसे कि तुष के भीतर और तंदुल के ऊपर की ललाई जहां दूर हो गई वहां फिर तुष का सद्भाव कैसा ? इसी प्रकार निर्विकल्प समाधि के समय बाह्य विषय संबंधी व्यापार कभी नहीं रह सकता क्योंकि जैसे शीत और उष्ण में परस्पर में विरोध है वैसे ही निर्विकल्प समाधि लक्षण भेदज्ञान और विषय कषायरूप व्यापार इन दोनों का परस्पर में विरोध है। दोनों एक जगह एक काल में नहीं रह सकते हैं।
निष्कर्ष यह निकला कि त्रिगुप्तिरूप निर्विकल्प ध्यान में पुण्य और पाप को छोड़ने का उपदेश है जबकि वहां व्रत और अव्रत का सवाल ही नहीं है। ‘‘निर्विकल्प समाधिकाले व्रताव्रतस्य स्वयमेव प्रस्तावो नास्ति।’’ निर्विकल्प समाधि के समय व्रत और अव्रत का स्वयं ही प्रकरण नहीं है पुन: छोड़ने की कोई बात ही नहीं आती है बल्कि उस अवस्था में शुभ परिणाम रूप क्रियायें स्वयमेव नहीं रहती हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस अवस्था को प्राप्त होने के पूर्व पंच महाव्रत आदि और सामायिक आदि आवश्यक क्रियायें मुनियों के लिए अवश्य करणीय हैं तथैव देशव्रती श्रावकों के लिए उनके पद के अनुसार देवपूजा, दान स्वाध्याय, संयम आदि अवश्य करणीय हैं क्योंकि ये सभी शुभ क्रियायें सम्यक्त्वी जीव के परंपरा से मुक्ति के लिए कारणभूत हैं ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव का सर्वत्र सभी ग्रन्थों में उपदेश है इसलिए ये शुभ अनुष्ठान एकांत हेय रूप नहीं हैं बल्कि ध्यानस्थ वीतरागी महामुनियों के लिए ही हेय रूप है। हमारे और आपके लिए तो चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थान में ये उपादेय रूप हैं।
अत: जिनवचन के रहस्य को नय विवक्षा से समझकर ही अवधारण करना चाहिए अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
हे जीव! यदि तू परमाणु मात्र भी दु:ख सहन करने को समर्थ नहींं है तो फिर चारों गतियों के दु:खों के लिए कारणभूत ऐसे कर्मों का संचय क्यों कर रहा है ? यदि तुझे दु:ख इष्ट नहीं हैं फिर भी आश्चर्य है कि उन्हीं के साधनों में लगा हुआ है। क्या कहीं कोदों का धान्य बोने से चावल उत्पन्न हो सकता है ? अहो! यह सारा जगत् मिथ्यात्व, विषय और कषायों से उत्पन्न हुए आर्तध्यान और रौद्रध्यान रूप धंधे में-प्रपंच में उलझा हुआ तमाम कर्मों को बांध रहा है किन्तु मोक्ष के लिए कारणभूत ऐसी अपनी आत्मा का एक क्षण के लिए भी चिंतवन नहीं करता है। जब तक इसे अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं है तभी तक यह पुत्र, स्त्री, धन, मकान आदि पर वस्तुओं में मोहित हो रहा है। पुन: इस मोह के निमित्त से दु:ख सहन करता हुआ चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है। इसलिए-हे जीव! घर, परिजन, शरीर और इष्ट बंधुवर्गों को तू अपना मत समझ क्योंकि ये कर्मों के आश्रित हैं और कृत्रिम हैं ऐसा योगियों ने आगम में देखा है अथवा कहा है। वास्तव में तू सब कुछ अनुवूâल सामग्री चाहता है किन्तु कर्माधीन होने से ये सब अनुकूल ही प्राप्त हो, ऐसा नहीं है। क्या मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र राजतिलक के समय वन में जाना चाहते थे ? अथवा वन में विचरण करते हुए क्या सीता का हरण अथवा रावण से युद्ध करना चाहते थे ? क्या महासती सीता अपवाद के निमित्त वनवास का दु:ख देखना चाहती थीं ? क्या पतिदेव का वियोग उन्हें इष्ट था ? कहना पड़ेगा कि नहीं। फिर भी पूर्वसंचित कर्म ने यह सब दृश्य दिखाये। अहो! क्या भगवान पाश्र्वनाथ कमठचर दैत्य के द्वारा उपसर्ग चाहते थे ? नहीं। फिर भी उन्हें झेलना पड़ा। हां, अंतर इतना ही है कि वे महापुरुष संकट या अलाभ या उपसर्ग से किंचित् भी घबराये नहीं तो कर्मों का नाशकर आज मोक्षधाम में पहुँच गये हैं और वहाँ परमानंदमयी सुखामृत का पान कर रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी पिता के वचन की रक्षा हेतु जब वन में गये थे तब तो धीर-वीरमना थे, किंचित् भी क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए थे किन्तु सीता के वियोग में और भाई लक्ष्मण के वियोग में अत्यधिक दु:खी हुए थे, फिर भी उन दु:खों को छोड़कर निर्मम होकर जब आत्मसाधना में लीन हो गये तभी वे संसार समुद्र को पारकर अपने निजपद में विश्रांति को प्राप्त हो गये।
कहने का मतलब यही है कि चाहे महापुरुष हों, चाहे हम जैसे सामान्यजन, सभी लोग प्रतिकूल सामग्री नहीं चाहते हैं किन्तु सांसारिक सुख कर्माधीन हैं इसलिए वे चाहने मात्र से नहीं मिल सकते हैं।
टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव जो अपनी शुद्धात्मा है वह अकृत्रिम, अनादिनिधन है किन्तु ये घर, परिजन आदि कृत्रिम हैं, विनाशीक हैं ऐसा समझकर हे भव्य! तू इनसे अपने को दूर कर। इन घर और परिजनों की चिंता से तू मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है इसलिए तू तपश्चरण का अवलंबन ले, उस तपश्चरण के बारंबार अभ्यास से ही मोक्ष की सिद्धि होगी।
प्रश्न–मोक्ष तो आत्मा के ज्ञान से और आत्मा के ही ध्यान से होता है, पुन: तपश्चरण से मोक्ष कैसे होगा ?
उत्तर-नहीं! तपश्चरण से ही कर्मों की निर्जरा होती है। देखो, ज्ञान की प्राप्ति का साधन जो स्वाध्याय है वह तप ही है और ध्यान भी तपश्चरण का ही अंतिम भेद है। इसके बजाय अनशन आदि तपश्चरण भी ध्यान की सिद्धि में साधनभूत हैं। तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने भी पूर्वजन्म में सिंहनिष्क्रीडित आदि घोर-घोर तपश्चरण किए हैं और इस जन्म में तपश्चरण किया है। दूसरी बात यह है कि जिसकी आत्मा और शरीर का भेद विज्ञान हो चुका है वह सम्यग्दृष्टि तपश्चरण में प्रमाद कभी भी नहीं करेगा चूंकि वह शरीर को आत्मा से भिन्न समझता है पुन: वह उसे सुखिया बनाने में ही कैसे प्रवृत्त होगा, वह तो रत्नत्रय की सिद्धि हेतु शरीर से श्रम ही कराएगा।
प्रश्न–जब तक हम घर और स्त्री, पुत्र, मित्र आदि को नहीं छोड़ सकते तब तक हम क्या करें ?
उत्तर-तब तक तुम्हें श्रावक की क्रिया का पालन करते हुए दान-पूजन में उन गृहत्यागी साधुओं में अत्यर्थ अनुराग रखना चाहिए। देखो! परमात्मप्रकाश ग्रंथ में कहते हैं कि१ ‘‘श्रावक साधुओं के लिए भक्तिपूर्वक आहारदान, अभयदान, औषधिदान और शास्त्रदान देवे। जिसने मुनि को आहारदान दिया तो समझिये कि शुद्धात्मानुभूति के लिए साधनभूत ऐसे बाह्य-अभ्यंतर भेद सहित बारह प्रकार तपश्चरण ही दिया है और शुद्धात्म भावना लक्षण जो संयम है उसका साधक जो यह शरीर है उस शरीर की ही स्थिति की है तथा उसने शुद्धात्मा की उपलब्धि रूप भवांतर गति-मोक्ष को ही प्रदान किया है’’ अर्थात् जिसने यति को आहारदान दिया, उसने तपश्चरण का ही दान किया है ऐसा समझो, चूंकि तपश्चरण और संयम का साधन शरीर है और इसकी स्थिति आहार पर ही अवलंबित है तथा उसने मोक्ष का ही दान कर दिया है ऐसा समझना चाहिए चूंकि इस शरीर के द्वारा ही रत्नत्रय की सिद्धि करके मोक्ष की प्राप्ति की जाती है।
शिष्य–हे स्वामिन्! मुझे ऐसा उपदेश देवो कि जिससे यह मोह शीघ्र ही छूट जावे और मन भी मर जावे अर्थात् चंचल मन स्थिरता को प्राप्त हो जावे, तभी तो कर्मों का बंध रुकेगा और निर्जरा हो सकेगी।
गुरूदेव–हे वत्स! नासिका से निकला हुआ जो श्वासोच्छ्वास है वह जब मिथ्यात्व, विषय और कषाय रहित निर्विकल्प समाधि में मिल जाता है तभी यह मोह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और मन भी अस्तंगत हो जाता है।
जब यह जीव रागादि परभावों से शून्य निर्विकल्प समाधि में स्थिर होता है तब यह उच्छ्वास रूप वायु नासिका के दोनों छिद्रों को छोड़कर स्वयं ही क्षणमात्र तो अनीहितवृत्ति से-स्वभाव से तालुरन्ध्र में-जो कि बाल की अनी के आठवें भाग प्रमाण अति सूक्ष्म छिद्र है उसमें होकर बारीक निकलती है अर्थात् नाक के छेद को छोड़कर तालुरंध्र में होकर निकलती है पुन: कुछ क्षण मात्र तक नासिका से निकलती है पुन: क्षण मात्र तक उसी दशम द्वार (तालुरन्ध्र) से निकलती है। उस समय मोह नष्ट हो जाता है, मन मर जाता है, और श्वासोच्छ्वास रुक जाता है और तभी केवलज्ञान भी प्रगट हो जाता है अर्थात् शुद्धोपयोगी महामुनि तो अपने स्वरूप में तल्लीन हो जाते हैं उन्हीं की यह अवस्था विशेष होती है और तभी वह जीव कर्मों से छुटकारा पा लेता है।
शिष्य–पुन: हम लोगों के लिए इस मोह को घटाने का क्या उपाय है और मन के वशीकरण का क्या उपाय है ?
गुरुदेव–मन को वश में करने का और मोह को क्षीण करने का एक उपाय स्वाध्याय ही है। स्वाध्याय के समय मन अर्थ के चिंतन में लग जाता है, अन्य इंद्रियां भी अपना व्यापार बाहर से संकोच लेती हैं। श्रुत२ से संस्कारित हुआ मन स्वसंवेदन ज्ञान के बल से अपने शुद्ध तत्त्व को प्राप्त कर लेता है जैसे कि क्षारमृत्तिका-सज्जी आदि के संयोग को प्राप्त हुआ जल मलिन वस्त्र को स्वच्छ कर देता है अर्थात् जैसे साबुन आदि क्षार पदार्थ के संयोग से जल मलिन से मलिन वस्त्र को उज्ज्वल कर देता है उसी प्रकार से श्रुताभ्यास से संस्कारित मन आत्मा को शुद्ध निर्मल बना देता है।
‘‘केवलज्ञान ही साक्षात् मुक्ति का साधन है और वह स्वानुभूति के बल से प्रगट होता है और वह स्वानुभूति श्रुत के एक ही उत्कृष्ट संस्कार से संस्कारित मन द्वारा होती है इसलिए स्वाध्याय का ही अवलंबन लेना चाहिए।’’
चित्ते बद्धे बद्धो मुमुत्ति णत्थि संदेहो।
अप्पा विमल सहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते।।
मन के बंधने से ही यह जीव कर्मों से बंधा हुआ है और मन के मुक्त होने से ही यह जीव मुक्त हो जाता है इसमें कोई संदेह नहीं है। चूंकि यह आत्मा विमल स्वभाव वाला है और फिर भी इस मलिन चित्त के होने से ही मलिन-कर्म मल सहित अपवित्र हो रहा है अर्थात् जब तक यह मन धन-धान्य आदि परिग्रहों में आसक्त हो रहा है तभी तक ही संसार है और जब यह मन इन परिग्रहों से, विषय और कषायों से छूट जाता है तभी यह जीव संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है। जब तक यह मन मैला है तभी तक आत्मा भी मैली है, मन के उज्ज्वल होते ही शुक्लध्यानमय परिणमन करते ही यह आत्मा भी शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार, चैतन्य धातुमय प्रगट हो जाती है।
निष्कर्ष यह निकला कि आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए परिग्रह आदि के त्याग की पूर्ण आवश्यकता है आप जब तक उसका त्याग नहीं कर सकते तब तक श्रावकोचित दान, पूजन, स्वाध्याय आदि आवश्यक क्रियाओं द्वारा अपने आपको अशुभ कर्मों के बंध से बचाते रहेंगे तो भी इस युग में आपके लिए बहुत कुछ लाभ ही है, ऐसा समझो। इस काल में शुभ कर्म के संचय से छूटकर शुद्ध होना तो असंभव ही है।