स्याद्वाद चन्द्रिका विशयक यह विवेचना ग्रंथ के कथ्य को सर्वसामान्य हेतु प्रकट करने का प्रयास है। इसमें सत्य अर्थात व्यवहार नय और तथ्य अर्थात निष्चय नय दोनों के सफल रूप में अनेकान्त स्याद्वाद की सिद्धि हेतु दर्षन होते हैं। सापेक्ष “शैली से नियमसार रूप रत्नत्रय मोक्षमार्ग के निरूपण से पाठक को पथ्यापथ्य का निर्णय कराना ही इस टीकाकृति का मुख्य उद्देष्य है। यथातथ्य रूप में समस्त परद्रव्यों से भिन्न एवं अपने से अभिन्न जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है उसे श्रद्धा ज्ञान चारित्र के रूप में अभेदता के साथ अनुभव कराना परम प्रयोजन है। आत्मोत्थ सुख जो वर्तमान में नेपथ्य में है उस सुख की प्राप्ति के यथार्थ साधनों, चाहे वे बाह्य हों या अभ्यन्तर, सभी को मध्यस्थ भाव से प्रस्तुत करना स्याद्वाद चन्द्रिका का विषेश गुण है। कहा भी है-
व्यवहारनिष्चयौ यः प्रबुध्य तत्वेन भवति मध्यस्थः।
प्राप्नोति देषनायाः स एव फलमविकलं षिश्यः।।’
एक नय से तत्व की प्राप्ति नहीं होती। जो व्यवहार और निष्चय दोनों के स्वरूप को भली भांति जानकर मध्यस्थ होता है किसी का पक्षग्रहण रूप एकान्त नहीं पकड़ता वही षिश्य देषना (तत्वज्ञान) का फल प्राप्त करता है। माता जी ने स्वयं ही कहा है कि इस टीका ग्रंथ में पद पद पर व्यवहार और निष्चय नयों की तथा व्यवहार और निष्चय मोक्षमार्ग की, सापेक्ष “शैली से, गौणता और मुख्यता प्रयोग से भिन्नता के दर्षन होते हैं तथा चांदनी के “शीतल प्रकाष की तरह इसमें पदार्थों का अवलोकन होता है अतः इसकी ‘‘स्याद्वाद चन्द्रिका’’ संज्ञा सार्थक है। ऐसा विदित होता है कि इसमें सम्यग्दर्षन के आठों अंगों की समश्टि के भाव को लेकर निरूपण किया गया है। प्रभावना सर्वश्रेश्ठ लक्ष्य रहा है। प्रभावना का सर्वप्रधान साधन अनेकान्त स्याद्वाद है जो इस टीका का प्रमुख परिधान है।
प्रस्तुत स्याद्वाद चन्द्रिका का प्रारंभ आद्य मंगल ‘सिद्धेसाधनमुत्तमम्’ इत्यादि से हुआ है तथा समापन अन्तमंगल ‘त्रैलोक्यचक्रवर्तिन् ! हे शांतिष्वर’ आदि सूत्र से हुआ है। लगभग 5 हजार पदों के द्वारा लेखिका ज्ञानमती माता जी ने इसकी रचना स्वान्तः सुखाय की है। भेदाभेद रत्नत्रय की सिद्धि माता जी का प्रयोजन है। लेखन कार्य का निमित्त कोई एक व्यक्ति नहीं अपितु सर्वजीव हैं। सबके हित में, जैन और जैनेतर दर्षन की मान्यता वाले सभी के रत्नत्रय सिद्धि में माँ की भावना है। इस प्रकार इस नियमसार टीकाकृति विशयक मंगल, निमित्त, हेतु, नाम, परिमाण और ग्रंथकर्ता विशयक विवेचन है।
सारांष में कहा जा सकता है कि ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ एक प्रषस्त दर्पण है जिसमें आ० कुन्दकुन्द और उनका नियमसार रूप तत्वज्ञान स्याद्वाद के परिपे्रक्ष्य में सम्यक् रूप से प्रतिविम्बित हो रहा है। आवष्यकता है देखने की, झांकने की और अपने रूप को संवारने की।