दक्षिण भारत का तत्कालीन प्रसिद्ध बन्दरगाह ‘ताम्रलिप्ति’-संभवत: जिसका आधुनिक नाम तामली है-अपने युग का एक ऐसा बन्दरगाह था जहाँ से सामुद्रिक व्यापार के सभी मार्ग खुलते थे। समुद्रों द्वारा व्यापार यहाँ बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। भौगालिक अध्ययन करने वालों को परिज्ञात है कि दक्षिणी तट की निर्यात सामग्री जहाँ प्रारंभ से ही लवंग, इलायची, डोंड़ा, सुपारी , काजू, पिस्ता, नारियल आदि वस्तुएँ रहीं हैं, वहाँ आयात सामग्री के रूप में हीरा, जवाहरात , मणि, माणिक्य आदि बहुमूल्य रत्नों के द्वारा जहाजों के जहाज भर कर यहाँ लाए जाते थे। कहाँ से लाए जाते थे-इसका ठीक-ठीक ऐतिहासिक पता नहीं लगता है।यद्यपि रत्नद्वीप का उल्लेख कई प्राचीन पुराणों में मिलता है। आधुनिक भू-ज्ञान वेत्ताओं ने इस रत्नद्वीप को वर्तमान प्रवाल द्वीप माना है, जो कि लक्ष्यद्वीप के ही आस-पास विद्यमान है। लक्ष्यद्वीप समुदाय वर्तमान सरकार द्वारा केन्द्र शासित राज्यों में से एक है। जिस काल से घटना का सम्बन्ध है—उस समय कहते हैं कि सारा समुद्रीय वाणिज्य वणिकजनों के हाथ में था। उन वणिकों में सेठ ताम्रलिप्त का नाम प्रमुख था। आधे से अधिक व्यापार तो उस समय आप अकेले ही हथियाये हुए थे। व्यावसायिक दृष्टि से सारे हिन्द महासागर पर उनका एकाधिपत्य था।जिस समय तामली बन्दरगाह पर स्वस्तिक चिन्हांकित केशरिया ध्वजों से लहराते फहराते हुए उनके जहाजों पर काफिला आता दिखाई देता तो उस समय जैनधर्म की अद्वितीय प्रभावना का एक अजीबोगरीब सा समाँ बँध जाता था। वणिक् श्रेष्ठि ताम्रलिप्त के इस प्रत्यक्ष वैभव के परिणाम पर जब अन्य पुरुषार्थी विचार करते थे, तो उन्हें केवल उसका एक ही कारण मिलता था और वह था ‘जैनधर्म का पुण्य-प्रताप।’ वास्तव में ताम्रलिप्तजी थे तो एक कुशल व्यापारी परन्तु उनका लक्ष्य अर्थ पुरुषार्थ से पहले धर्म पुरुषार्थ पर ही रहता था। उनका अपना विश्वास था कि ‘‘जिसने धर्म पुरुषार्थ का साधन यथाविधि कर लिया उसके द्वारा ही अर्थ पुरुषार्थ सरलता तथा सफलता पूर्वक सम्पादित हो सकता है।धर्म और अर्थ वाला ही काम पुरुषार्थ के परिणाम का उपभोग कर सकता है और फिर पुंरुषार्थी परम्परा से मोक्षपुरुषार्थ को भी साध सकता है’’ वास्तव मे देव दर्शनादि षट् आवश्यक पालन तथा महाप्रभावक भक्तामरस्तोत्र की भक्ति आराधना उनका नित्य नैमित्तिक कत्र्तव्य था। किसी भी अवस्था में वे इतना करना कदापि नहीं भूलते थे। आप में से जिन लोगों ने समुद्रों की यात्राओं की हैं-वे जानते हैं कि किन-किन मुसीबतों का सामना उन्हें करना पड़ता है। तूफान का खतरा तो जैसे चौबीसों घन्टे नंगी तलवार के समान सिरपर लटकता रहता है। उत्ताल तरंगों के बीच में यदि जहाज फस जाये तो लेने के देने पड़ जावें। समद्री जीव-जन्तुओं के धावा बोलने की भी वहाँ कम संभावना नहीं रहती। ऐसे दुखद भयावह प्रसंगों पर कोई अक्ल या विद्या काम नहीं आती। सब की सब खुद तो पानी में जाती ही हैं।-हमें भी ले डूबती हैं। पावन हृदय से भगवान का स्मरण करने के सिवाय वहाँ उस समय कोई दूसरा चारा नहीं रहता। व्यन्तर जाति के देव जिनका आधिपत्य जल, थल और नभ में सब जगह रहता है-अपना बदला लेने अथवा अपनी पूजा प्रतिष्ठादि कराने के लिए चलती हुई जहाजों को कील देते हैं और इस प्रकार जगत में वे मिथ्यात्व एवं असत् की दुष्प्रभावना कराने की कुचेष्टा करते हैं।हिंसा पूर्ण बलिदानों की माँग करते हैं। सद्धर्म से डिगाने के लिए यात्रियों को नाना प्रकार की यातनाएँ देते हैं। जिनकी श्रद्धा सत्य धर्म पर नहीं होती वे नर बलि या पशुबलि देकर उस कुदेव को संतुष्ट करते है,और इस प्रकार हिंसा का बोलबाला बढ़ता चला जाता है।परन्तु सेठ ताम्रलिप्त जो पूर्ण अहिंसक थे अपनी वणिक् मंडली के साथ जब अपने जहाज में हीरा जवाहरात भर कर स्वदेश को प्रत्यार्वितत हो रहे थे तो एक जलवासिनी देवी ने उनके जहाज को बीच समुद्र में कील दिया। फलस्वरूप वह किंचित्मात्र भी आगे न बढ़ सका। जलवासिनी देवी की माँग थी-कि बना पशुबलि दिये जहाज का आगे बढ़ना असंभव है। परन्तु सेठ ताम्रलिप्त भी एक ही दृढ़ निश्चयी सम्यक्त्वी व्यक्ति थे।उन्हें विश्वास था कि भला सत् कहीं असत् से मात खा सकता है?क्या हिंसा कभी अहिंसा पर विजय प्राप्त कर सकती है? क्या सृजन और निर्माण की अपेक्षा विनाश इतना सस्ता है? कभी नहीं। मैं ऐसा कभी नहीं होने दूँगा। अपने सुखों के पीछे मैं इस राक्षसी देवी को संतुष्ट करने के लिए कभी भी बेकसूर मूक प्राणियों की बलि न दूँगा। चाहे यह सौदा मुझे कितना ही महँगा क्यों न पड़े?ताम्रलिप्त जलवासिनी देवी से कड़ककर बोले-‘‘हे दुष्टे! तू सीधी तरह से मेरे मार्ग से एक तरफ हट जा, अन्यथा मारे धर्म की शसन देवी तेरा नामोनिशान भी न रहने देगी। मैं वह सुभौम चक्रवर्ती तो हूँ नहीं जिसने सच्चे जिनधर्म में अश्रद्धा करके णमोकार मंत्र को पानी मे लिखकर लात से मिटाया था और फिर उस जल व्यन्तर के हाथों से बचने के बजाय समुद्र मे ही डुबो दिया गया था और जो आज तक नरक में सड़ रहा है। मैं तो अहिंसा धर्म का आस्थावान अनुयायी हूँ, तू मेरा क्या बिगाड़ सकती है? क्या तुझे नही मालूम कि मारने वाले की अपेक्षा बचाने वाले की भुजाएँ ज्यादा लम्बी होती हैं। इतना कहने के उपरान्त ताम्रलिप्त जोर-जोर से अम्भोनिधौ क्षुभितभीषण-नक्रचक्र- पाठीन्पीठ भयदोल्वड वाडवाग्नौ। रंगत्तरंग शिखरस्थित-यानपात्रा
का जाप्य ऋद्धि मंत्र सहित करने लगे। आँखे उनकी बंद थीं परन्तु अन्त:करण जागृत था। आँखें खोलने पर कुछ देर बाद देखते क्या हैं-कि जहाज आगे बढ़ रहा है तथा आगे-आगे एक दिव्य रूपधारिणी ‘‘चक्रेश्वरी’’देवी जलवासिनी देवी की लम्बायमान चोटी को पकड़े हुए पानी में घसीटती हुई बढ़ी जा रही है। जहाज में बैठे हुए वणिकजनों की आवाजें समुद्र की उत्ताल तरंगों तथा लहराती लहरों और आकाश की हवा को भेदकर थल की ओर बढ़ती हुई गूंज रही थी-
अहिंसा धर्म की जय। अहिंसा परमो धर्म: यतो धर्मस्ततो जय: