मध्ययुगीन इतिहास के पन्नो में जहॉ। भारत की सांस्कृतिक गौरव-गरिमा का सूर्य अस्ताचल की ओर ढलता हुआ दिखलाई देता है, वहीं उसमें कुछ ऐसे स्वर्णिम अध्याय भी हैं जिनमें भक्ति-काल का उदीयमान मार्तण्ड अपनी प्रखर रश्मियों से राजा-प्रजा दोनों को चमत्कृत कर रहा था। मध्ययुग के इसी भक्तिकाल में मीरा ने हँसते-हँसते विष का प्याला पिया तुलसी ने पवनपुत्र हनुमान का साक्षात्कार किया, सूर ने कृष्ण की बाहें पकड़ी, गुरुनानक ने जिस ओर पैर पसारे उसी तरफ मन्दिर मस्जिद पहुच गये। तारणतरण स्वामी ने शास्त्रों को आकाश में, उड़ते हुए दिखलाय।
पूज्य प्रात: स्मरणीय मानतुंगाचार्य जी ने कठोर कारावास के एक के बाद एक अड़तालीस ताले अपनी समाधि स्तुति द्वारा तोड़े और स्वामी हेमचन्द्राचार्य, शंकराचार्य, एवं श्री मद्भट्टाकलंक देव आदि ने अपने युगों में जो-जो चमत्कार दिखलाये वे उनकी आध्यात्मिक प्रतिभा के ज्वलन्त प्रतीक हैं-योग विद्या के उदाहरण हैं।
राजपूताने का जैन वीर युवराज रणपाल एक सुन्दर, स्वस्थ, सुशील, सुशिक्षित किशोर था। पिता उरपाल राज दरबार में सिंहासनासीन थे कि उसी समय पड़ौसी मित्र राज्य वासुपुर के नृपति का उनके राजदूत द्वारा एक गुप्त-पत्र प्राप्त हुआ। महा मान्यवर, नृपतिवर। उभयत्र कुशल! अपरंच जोमिनपुर के नवाब शाह सुलतान आप पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं। मित्र राज्य होंने के नाते मेरा यह राज्यधर्म है कि आपको इस संदर्भ की अग्रिम सूचना देकर सचेत कर दूँ।
शेष शुभ। आदेश की प्रतीक्षा में- विनयावनत:- वासुपुर नरेश पत्र पढ़कर अजमेर नरेश ‘उरपाल’ प्रथम तो कुछ गंभीर हुए परन्तु क्षण भर में ही साहस और शूरवीरता का ऐलान करके बोले- ‘‘कोई ऐसा बहादुर इस भारी सभा में है जो शाह सुलतान को जीवित पकड़ कर ला सके?’’
‘‘मैं ला सकता हूँ’’-बुलन्द आवाज में युवराज रणपाल ने हाथ उठाकर संक्षिप्त सा उत्तर दिया। इतिहास साक्षी है कि भारत के भाग्य में वीरतापूर्ण अमर बलिदान के रक्तिम टीके तो अवश्य लगे हैं,परन्तु जिसे ‘‘विजयलक्ष्मी’’ के नाम से पुकारा जाता है, वह सदैव राजपूत और हिन्दुओं से रूठी ही रही और अपनी वरमाला फिरंगी व मुसलिमों के गले में ही बहुधा डालती रही।
यही परिणाम उरपाल एवं शाह सुलतान के मध्य होने वाले घमासान युद्ध का हुआ।…राजकुमार रणपाल बन्दी बना लिया गया व जेलखाने में डाल दिया गया। सामान्य वैदी की भाँति उससे व्यवहार किया गया तथा कारागार में भूखा-प्यासा निराहार दो दिन-दो रात पड़ा अपने उदीयमान कर्मों का तमाशा देखता रहा।पराधीनता में केवल एक ही पुरुषार्थ शेष रहता है और वह है आत्मा का परमात्मा तक सीधा कनेक्शन। संस्कार अपना प्रभाव समय आने पर आवश्यमेव दिखलाते हैं। छात्र जीवन में गुरुदेव से सीखा हुआ महाप्रभावी भक्तामर मंत्र का उन्होंने तन्मय होकर पाठ प्रारम्भ किया।
छियालीसवें पद तक पहँचते-पहँचते लौह निर्मित सख्त बेड़ियाँ अपने आप टूट कर नीचे गिर गर्इं।
बन्धनयुक्त राजकुमार प्रात: शाह सुल्तान के दरबार में बैठा हुआ दिखलाई दिया।
नवाब ही नहीं, सभी दरबारी भी भौंचक्के रह गये।कोतवाल, दरोगा, पहरेदार व सिपाही आदि सभी से वैफियत तलब हो गई।
परन्तु, सब खामोश-निरुतर-मौन! अततोगत्वा पुन: राजकुमार रनपाल को शाह सुल्तान ने स्वयं अपनी देखरेख में बेडियों और सांकलो से जकड़वाकर जेलखाने में बन्द करवाया-और इस बार शाह सुल्तान निगरानी के लिए स्वयं एक झरोखे में सावधानी पूर्वक बैठ गया और जो दृश्य उसने अपनी विश्वासी आँखों से देखा उसे अब उसके अविश्वासी दृश्य को बरबस स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि पुन: राजकुमार बन्धनमुक्त होकर शाह सुल्तान के दरबार में पहुँचने की तैयारी कर रहे थे।