प्रायेण जायते पुंसां वीतरागस्य दर्शनम्।
तद्दर्शनविरक्तानां भवेज्जन्मापि निष्फलम्।।
षडावश्यकक्रियं मूलगुणान्तर्गतमधिकारं प्रपंचेन विवृण्वन् प्रथमतरं तावन्नमस्कारमाह-
काऊण णमोक्कारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं।
आइरियउवज्भâाए लोगम्मि य सव्वसाहूणं।।५०२।।
कृत्वा नमस्कारं, केषामर्हतां तथैव सिद्धानां, आचार्योपाध्यायानां च लोके च सर्वसाधूनां। लोकशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। कारशब्दो येन तेन षष्ठी संजाताऽन्यथा पुनश्चतुर्थी भवति। अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो लोकेऽस्मिन्नमस्कृत्वा आवश्यकनिर्युिंक्त वक्ष्ये इति सम्बन्ध: सापेक्षत्वात् क्त्वान्तप्रयोगस्येति।।५०२।।
नमस्कारपूर्वकं प्रयोजनमाह-
आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि जहाकमं समासेण।
आयरिपरंपराए जहागदा आणुपुव्वीए।।५०३।।
आवश्यकनिर्युंिक्तं वक्ष्ये। यथाक्रमं क्रममनतिलंघ्य परिपाट्या। समासेन संक्षेपत:। आचार्यपरंपरया यथागतानुपूर्व्या। येन क्रमेणागता पूर्वाचार्यप्रवाहेण संक्षेपतोऽहमपि तेनैव क्रमेण पूर्वागमक्रमं चापरित्यज्य वक्ष्ये कथयिष्यामीति।।५०३।।
श्लोकार्थ–जीवों को प्रायः ही वीतराग का दर्शन होता है और जो वीतराग भगवान के दर्शन से विरक्त हैं उनका जन्म भी निष्फल है।
मूलगुण के अन्तर्गत जो षट्-आवश्यक क्रिया नामक अधिकार है उसे विस्तार से कहते हुए, उसमें सबसे पहले नमस्कार वचन कहते हैं–
गाथार्थ-अर्हंतों को, सिद्धों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को और लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार करके मैं आवश्यक अधिकार कहूँगा।।५०२।।
आचारवृत्ति–‘लोक’ शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध करना चाहिये। ‘अरहंताणं’ आदि पदों में जो षष्ठी विभक्ति है उसमें कारण यह है कि नमः शब्द के साथ ‘कार’ शब्द का प्रयोग किया गया है। यदि नमः शब्द मात्र होता तो पुनः चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया जाता।
तात्पर्य यह हुआ कि इस लोक में जो अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं उनको नमस्कार करके मैं आवश्यक निर्युक्ति का कथन करूँगा, ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए, क्योंकि ‘क्त्वा’ प्रत्यय वाले शब्दों का प्रयोग सापेक्ष रहता है, वह अगली क्रिया की अपेक्षा रखता है।
अब नमस्कार पूर्वक प्रयोजन को बतलाते हैं–
गाथार्थ–आचार्य परंपरा के अनुसार और आगम के अनुरूप संक्षेप में यथाक्रम से मैं आवश्यक निर्युक्ति को कहूँगा।।५०३।।
आचारवृत्ति–जिस क्रम से इन छह आवश्यक क्रियाओं का वर्णन चला आ रहा है, उसी क्रम से पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसार मैं संक्षेप में पूर्वागम का उल्लंघन न करके उनका कथन करूँगा।
तावत्पंचनमस्कारनिर्युक्तिमाह-
रागद्दोसकसाए य इंदियाणि य पंच य।
परिसहे उवसग्गे णासयंतो णमोरिहा।।५०४।।
राग: स्नेहो रतिरूप:। द्वेषोऽप्रीतिररतिरूप:। कषाया: क्रोधादय:। इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि पंच। परीषहा: क्षुदादयो द्वाविंशति:। उपसर्गा देवादिकृतसंक्लेशा:। तान् रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गान् स्वत: कृतकृत्यत्वाद् भव्यप्राणिनां नाशयद्भ्यो विनाशद्भ्योऽर्हद्भ्यो नम इति।।५०४।।
अथार्हन्त: कया निरुक्त्या उच्यन्त इत्याह-
अरिहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए।
रजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चंदे।।५०५।।
नमस्कारमर्हन्ति नमस्कारयोग्या:। पूजाया अर्हा योग्या:। लोके सुराणामुत्तमा: प्रधाना:। रजसो ज्ञानदर्शनावरणयोर्हन्तार:। अरेर्मोहस्यान्तरायस्य च हन्तारोऽपनेतारो यस्मात्तस्मादर्हन्त इत्युच्यन्ते। येनेह कारणेनेत्थम्भूतास्तेनार्हन्त: सर्वलोकनाथा लोकेस्मिन्नुच्यन्ते।। ५०५।।
अत: किं ?अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।।५०६।।
इत्थंभूतानामर्हतां नमस्कारं य: करोति भावेन प्रयत्नमति: स सर्वदु:खमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति।। ५०६।।
पंच नमस्कार की निर्युक्ति को कहते हैं–
गाथार्थ–राग, द्वेष और कषायों को, पांच इन्द्रियों को, परीषह और उपसर्गों को नाश करने वाले अरिहंतों को नमस्कार होवे।।५०४।।
आचारवृत्ति–राग स्नेह अर्थात् रति रूप हैं। द्वेष अप्रीति अर्थात् अरतिरूप है। क्रोधादि को कषाय कहते हैं। चक्षु आदि इन्द्रियाँ पांच हैं। क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषह होती हैं। देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन के द्वारा दिए गए क्लेश को उपसर्ग कहते हैं। इन राग-द्वेष आदि को जो स्वयं नष्ट करके कृतकृत्य हैं किन्तु भव्य जीवों के इन राग-द्वेष, कषाय, इन्द्रिय परीषह और उपसर्ग को नष्ट करने वाले हैं, ऐसे अरिहंत भगवान को मेरा नमस्कार हो।
अब अरिहंत शब्द की व्युत्पत्ति बतलाते हैं–
गाथार्थ–नमस्कार के योग्य हैं, लोक में उत्तम देवों द्वारा पूजा के योग्य हैं, आवरण का और मोहनीय शत्रु का हनन करने वाले हैं, इसलिए वे अरिहंत कहे जाते हैं।।५०५।।
आचारवृत्ति–इस संसार मे जो देवों में प्रधान इन्द्रादिगण द्वारा नमस्कार के योग्य हैं, उनके द्वारा की गयी पूजा के योग्य हैं, ‘रज’ शब्द से–ज्ञानावरण और दर्शनावरण का हनन करने वाले हैं, तथा ‘अरि’ शब्द से–मोहनीय और अन्तराय का हनन करने वाले है अतः वे ‘अरिहंत’ इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं। और जिस कारण से वे भगवान इस प्रकार सर्वपूज्य हैं उसी कारण से वे इस लोक में अरिहंत, सर्वज्ञ, सर्वलोकनाथ कहे जाते हैं।
नमस्कार का क्या फल है–
गाथार्थ–जो प्रयत्नशील भाव से अरिहंत को नमस्कार करता है, वह अति शीघ्र ही सभी दु:खों से छुटकारा पा लेता है।।५०६।।
आचारवृत्ति–टीका सरल है।
सिद्धानां निरुक्तिमाह-
दीहकालमयं जंतू उसिदो अट्ठकम्मिंह।
सिदे धत्ते णिधत्ते य सिद्धत्तमुवगच्छइ।।५०७।।
श्लोकोऽयं। दीर्घकालमनादिसंसारं। अयं जन्तुजीव:। उषित: स्थित: अष्टसु कर्मसु ज्ञानावरणादिभि: कर्मभि: परिवेष्टितोयं जीव: परिणत: स्थित:। सिते कर्मबन्धे निवृत्ते१। निर्धत्ते परप्रकृतिसंक्रमोदयोदीरणोत्कर्षापकर्षणरहिते ध्वस्ते प्रणाशमुपगते सिद्धत्वमुपगच्छति। निर्धत्ते बन्धे ध्वस्ते सत्ययं जन्तुर्यद्यपि दीर्घकालं कर्मसु व्यवस्थितस्तथापि सिद्धो भवति सम्यग्ज्ञानाद्यनुष्ठानेनेति।।५०७।।
तथोपायमाह-
आवेसणी सरीरे इंदियभंडो मणो व आगरिओ।
धमिदव्व जीवलोहो वावीसपरीसहग्गीिंह।।५०८।।
आवेसनी चुल्ली यत्रांगाराणि क्रियन्ते। शरीरे िंकविशिष्टे, आवेशनीभूते। इन्द्रियाण्येव भाण्डमुपस्कारभूतं सदंशकाभीरणी हस्तकूटघनादिकं। मनस्त्वाकरी चेता उपाध्यायो लोहकार:। ध्मातव्यं दार्ह्यं निर्मलीकर्तव्यं। जीवलोहं जीवधातु:। द्वाविंशतिपरीषहाग्निना।
एवं द्वाविंशतिपरीषहाग्निना कर्मबन्धे ध्वस्ते चुल्लीकृतं शरीरं त्यक्त्वेन्द्रियाणि चोपस्करणभूतानि परित्यज्य निर्मलीभूतं जीवसुवर्णं गृहीत्वा मन: केवलज्ञानमाकरी सिद्धत्वमुपगच्छति सिद्धो भवतीति सम्बन्ध:। तस्मात् सिद्धत्वयुक्तानां सिद्धानां नमस्कारं भावेन य: करोति प्रयत्नमति: स सर्वदु:खमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति।।५०८।।
गाथार्थ–यह जीव अनादिकाल से आठ कर्मों से सहित है। कर्मों के नष्ट हो जाने पर सिद्धपने को प्राप्त हो जाता है।।५०७।।
आचारवृत्ति–यह श्लोक है। अनादिकाल से यह जीव ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से वेष्टित है, कर्मो से परिणत हो रहा है। निधत्ति रूप जो कर्म है अर्थात् जिनका पर-प्रकृति-रूप संक्रमण नहीं होता है, जिनका उदय, उदीरणा, उत्कर्षण और अपकर्षण नहीं हो रहा हैं ऐसे कर्मों के ध्वस्त हो जाने पर यह जीव सिद्धपने को प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि यह जीव अनादिकाल से कर्मों से सहित है फिर भी सम्यग्ज्ञान आदि अनुष्ठान के द्वारा कर्मों को ध्वस्त करके सिद्ध हो जाता है।
उसी का उपाय बताते हैं–
गाथार्थ–शरीर चूल्हा है, इन्द्रियां बर्तन है और मन लोहकार है। बाईस परिषहों के द्वारा जीवरूपी लोह को तपाना चाहिए।।५०८।।
आचारवृत्ति–आवेशनी अर्थात् चूल्हा, जिसमे अंगारे किये जाते है। ऐसा यह शरीर आवेशनीभूत अर्थात चूल्हा है। इन्द्रियाँ भांड अर्थात् तपाने के साधनरूप संडासी, हथौड़ी, घन आदि हैं। मन अर्थात् यह चित्त उपाध्याय है–लोहकार या स्वर्णकार है। बाईस परीषहरूपी अग्नि के द्वारा इस जीवरूपी लोह या स्वर्ण को तपाना चाहिए, निर्मल करना चाहिए।
इस प्रकार से बाईस परीषहरूपी अग्नि के द्वारा कर्मबंध को ध्वस्त कर देने पर चूल्हे रूप शरीर को छोड़कर और उपकरण रूप इन्द्रियों को भी छोड़कर निर्मल हुए जीवरूप स्वर्ण को ग्रहण करके, मन: अर्थात् केवलज्ञान रूपी स्वर्णकार सिद्ध हो जाता है, ऐसा संबंध लगाना। इसलिए सिद्धत्व से युक्त इन सिद्ध परमेष्ठी को जो प्रयत्नशील जीव भावपूर्वक नमस्कार करता है, वह शीघ्र ही सभी दु:खों से छूट जाता है।
आचार्यस्य निरुक्तिमाह-
सदा आयारबिद्दण्हू सदा आयरियं चरे।
आयारमायारवंतो आयरिओ तेण उच्चदे।।५०९।।
िश्लोकोऽयं। सदा सर्वकालं आचारं वेत्तीति सदाचारवित् रात्रौ दिने वाचरस्य परमार्थसंवेदनं यत्नेन युक्तोऽथवा सदाचार: शोभनाचार: सम्यग्ज्ञानवांश्च सदा सर्वकालमाचरितं चर आचरितं गणधरादिरभिप्रेतं चेष्टितं चरतीति वा चरितं चरोऽथवा चरणीयं श्रामण्ययोग्यं दीक्षाकालं च शिक्षाकालं च चरितवानिति कृतकृत्य इत्यर्थ:। आचारमन्यान् साधूनाचारयन् हि यस्मात् प्रभासते तस्मादाचार्यं इत्युच्यते।।५०९।।
तथा च-जम्हा पंचविहाचारं आचरंतो पभासदि।
आयरियाणि देसंतो आयरिओ तेण वुच्चदे।।५१०।।
श्लोकोऽयं। पंचविधमाचारं दर्शनाचारादिपंचप्रकारमाचारं चेष्टयन्। प्रभासते शोभते। आचरितानि स्वानुष्ठानानि दर्शयन् प्रभासते आचार्यस्तेन कारणेनोच्यते इति। एवं विशिष्टाचार्यस्य यो नमस्कारं करोति स सर्वदु:खमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति।।५१०।।
आचार्य पद का अर्थ कहते हैं-
गाथार्थ–सदा आचार वेत्ता है, सदा आचार का आचरण करते हैं और आचारों का आचरण कराते हैं इसलिए आचार्य कहलाते हैं।।५०९।।
आचारवृत्ति–यह श्लोक है। जो हमेशा आचारों को जानते हैं वे आचारविद् है अर्थात् रात-दिन होने वाले आचरणों को जो परमार्थ से जानते हैं, यत्नपूर्वक उसमें लगे हुए हैं। अथवा जो सदाचार–शोभन आचार का पालन करते हैं, सम्यग्ज्ञानवान् हैं, वे आचारविद् कहलाते हैं।
जो सर्वकाल गणधर देव आदिकों के द्वारा अभिप्रेत अर्थात् आचरित आचरण को धारण करते हैं अथवा जो श्रमणपने के योग्य दीक्षाकाल और शिक्षाकाल का आचरण करते हुए कृतकृत्य हो रहे हैं तथा जो पांच आचारों का अन्य साधुओं को भी आचरण कराते रहते हैं इसी हेतु से वे ‘आचार्य’ इस नाम से कहे जाते हैं।
उसी प्रकार से और भी लक्षण बताते हैं–
गाथार्थ–जिस कारण वे पांच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते हुए शोभित होते हैं और अपने आचरित आचारों को दिखलाते हैं इसी कारण से वे आचार्य कहलाते हैं।।५१०।।
आचारवृत्ति–यह श्लोक हैं। दर्शनाचार आदि पांच आचारों को धारण करते हुए जो शोभित होते हैं और अपने द्वारा किये गए अनुष्ठानों को जो अन्यों को दिखलाते-बतलाते हुए अर्थात् आचरण कराते हुए शोभित होते हैं। इसी कारण से वे आचार्य इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं।
उपाध्यायनिरुक्तिमाह-
बारसंगे जिणक्खादं सज्भâायं कथितं बुधे।
उवदेसइ सज्भâायं तेणुवज्भâाउ उच्चदि।।५११।।
द्वादशांगानि जिनाख्यातानि जिनै: प्रतिपादितानि स्वाध्याय इति कथितो बुधै: पंडितैस्तं स्वाध्यायं द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरूपं यस्मादुपदिशति प्रतिपादयति तेनोपाध्याय इत्युच्यते। तस्योपाध्यायस्य नमस्कारं य: करोति प्रयत्नमति: स सर्वदुखमोक्षं प्रापनोत्यचिरेण कालेनेति।।५११।।
साधूनां निरुक्तितो नमस्कारमाह-
णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजंति साधवो।
समा सव्वेसु भूदेसु तह्मा ते सव्वसाधवो।।५१२।।
ियस्मान्निर्वाणसाधकान् योगान् मोक्षप्रापकान् मूलगुणादितपोऽनुष्ठानानि सदा सर्वकालं रािंत्रदिवं युंजन्ति तैरात्मानं योजयन्ति साधव: साधुचरितानि। यस्माच्च समा: समत्वमापन्ना: सर्वभूतेषु तस्मात्कारणात्ते सर्वसाधव इत्युच्यन्ते। तेषां सर्वसाधूनां नमस्कारं भावेन य: करोति प्रयत्नमति: स सर्वदु:खमोक्षं करोत्यचिरेण कालेनेति।।५१२।।
पंचनमस्कारमुपसंहरन्नाह-
इन गुणों से विशिष्ट आचार्यों को जो नमस्कार करता है वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से मुक्ति पा लेता है।
उपाध्याय का निरुक्ति अर्थ कहते हैं–
गाथार्र्थ–जिनेंद्रदेव द्वारा व्याख्यात द्वादशांग को विद्वानों ने स्वाध्याय कहा है। जो उस स्वाध्याय का उपदेश देते हैं वे इसी कारण से उपाध्याय कहलाते हैं ।।५११।।
आचारवृत्ति–जिनेंद्रदेव द्वारा प्रतिपादित द्वादशांग को पंडितों ने ‘स्वाध्याय’ नाम से कहा है। उस द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वरूप स्वाध्याय का जो उपदेश देते हैं, अन्य जनों को उसका प्रतिपादन करते है इस हेतु से वे ‘उपाध्याय’ इस नाम से कहे जाते है। जो प्रयत्नशील होकर उन उपाध्यायों को नमस्कार करता है वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है।
अब साधुओं को निरुक्ति अर्थ पूर्वक नमस्कार करते हैं–
गाथार्थ–साधु निर्वाण के साधक ऐसे योगों में सदा अपने को लगाते हैं, सभी जीवों में समताभावी हैं इसलिए वे साधु कहलाते हैं ।।५१२।।
आचारवृत्ति–जिस कारण से मोक्ष को प्राप्त कराने वाले ऐसे मूलगुण आदि तपों के अनुष्ठान में हमेशा रात–दिन वे अपनी आत्मा को लगाते है, जिनका आचरण साधु–सुन्दर है और जिस हेतु से वे सम्पूर्ण जीवों में समता भाव को धारण करने वाले हैं, इसी हेतु से वे सर्व साधु इस नाम से कहे जाते हैं। जो प्रयत्नशील होकर उन सभी साधुओ को नमस्कार करता है, वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है ।
पंचनमस्कार का उपसंहार करते हुए कहते हैं–
एवंगुणजुत्ताणं पंचगुरूणं विसुद्धकरणेहिं।
जो कुणदि णमोक्कारं सो पावदि णिव्वुिंद सिग्घं।।५१३।।
िएवं गुणयुक्तानां पंचगुरूणां पंचपरमेष्ठिनां सुनिर्मलामनोवाक्कायैर्य: करोति नमस्कारं स प्राप्नोति निर्वृत्तिं सिद्धिसुखं शीघ्रं। न पौनरुक्त्यं, द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकयोरुभयोरपि संग्रहार्थत्वादिति।।५१३।।
किमर्थं पंचनमस्कार: क्रियत इति चेदित्याह-
एसो पंच णमोयारो सव्वपावपणासणो।
मंगलेसु य सव्वेसु पढमं हवदि मंगलं।।५१४।।
एष पंचनमस्कार: सर्वपापप्रणाशक: सर्वविघ्नविनाशक: मलं पापं गालयन्तीति विनाशयन्ति, मंगं सुखं लान्त्याददतीति वा मंगलानीति तेषु मंगलेषु द्रव्यमंगलेषु भावमंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं भवति मंगलं यस्मात्तस्मात् सर्वशास्त्रादौ मंगलं क्रियत इति।।५१४।।
पंचनमस्कारनिरुक्तिमाख्यायावश्यकनिर्युक्तेर्निरुक्तिमाह-
ण वसो अवसो अवसस्सकम्ममावस्सयंति बोधव्वा।
जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिज्जुत्ती।।५१५।।
गाथार्थ–इन गुणों से युक्त पाँचों परम गुरुओं को जो विशुद्ध मन–वचन–काय से नमस्कार करता है वह शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।।५१३।।
आचारवृत्ति–यहाँ प्रश्न यह होता है कि आपने पहले पृथक्–पृथक् पाँचों परमेष्ठियों के नमस्कार का फल निर्वाण बताया है पुनः यहाँ पांचों के नमस्कार का फल एक साथ फिर क्यों कहा ?
यह तो पुनरुक्ति दोष हो गया। इस पर आचार्य समाधान करते हैं कि यह पुनरुक्ति दोष नहीं है क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों का यहाँ पर संग्रह किया गया हैं।
अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अर्थ को समझने वाले संक्षेप रुचि वालों के लिए यह समष्टिरूप कथन है और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से विस्तार में रुचि रखने वाले शिष्यों के लिए पहले विस्तार से कहा जा चुका है।
पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किसलिए किया जाता है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–यह पंचनमस्कार मन्त्र सर्व पापों का नाश करने वाला है और सर्व मंगलों में यह प्रथम मंगल हैं ।।५१४।।
आचारवृत्ति–यह पंच नमस्कार मंत्र सम्पूर्ण विघ्नों का नाश करने वाला है इसलिए मंगल स्वरूप हैं। मंगल का व्युत्पत्ति अर्थ करते हैं कि जो मल–पाप का गालन करते हैं–विनाश करते हैं अथवा जो मंग अर्थात् सुख को लाते हैं–देते हैं वे मंगल हैं।
इस मंगल के दो भेद होते हैं–द्रव्य मंगल और भाव मंगल। जिस हेतु से इन दोनों प्रकारों के सम्पूर्ण मंगलों में पंचनमस्कार प्रथम मंगल है इसी से सम्पूर्ण शास्त्रों के प्रारंभ में वह मंगल किया जाता है ऐसा समझना चाहिए।
पंचनमस्कार की व्युत्पत्ति का व्याख्यान करके अब आवश्यक निर्युक्ति का निरुक्ति अर्थ कहते हैं–
गाथार्थ–जो वश में नहीं हैं वह अवश है। उस अवश की मुनि की क्रिया को आवश्यक जाननान वश्य: पापादेरवश्यो यदेन्द्रियकषायेषत्कषायरागद्वेषादिभिरनात्मीयकृतस्तस्यावश्यकस्य यत्कर्मानुष्ठानं तदावश्यकमिति बोद्धव्यं ज्ञातव्यं। युक्तिरिति उपाय इति चैकार्थ:।
निरवयवा सम्पूर्णाऽखण्डिता भवति निर्युक्ति:। आवश्यकानां निर्युक्तिरावश्यक-निर्युक्तिरावश्यकसम्पूर्णोपाय: अहोरात्रमध्ये साधूनां यदाचरणं तस्याववोधकं पृथक्पृथक् स्तुति१स्वरूपेण ‘‘जयति भगवानित्यादि’’ प्रतिपादकं यत्पूर्वापराविरुद्धं शास्त्रं न्याय आवश्यकनिर्युक्तिरित्युच्यते। सा च षट्प्रकारा भवति।।५१५।।
तस्य (स्या) भेदान् प्रतिपादयन्नाह-
सामाइय चउवीसत्थव वंदणयं पडिक्कमणं।
पच्चक्खाणं च तहा काओसग्गो हवदि छट्ठो।।५१६।।
सम: सर्वेषां समानो यो सर्ग: पुण्यं वा समायस्तस्मिन् भवं, तदेव प्रयोजनं पुण्यं तेन दीव्यतीति वा सामायिकं समये भवं सामायिकं। चतुर्विंशतिस्तव: चतुा\वशतितीर्थकराणां स्तव: स्तुति:। वन्दना सामान्यरूपेण स्तुतिर्जयति भगवानित्यादि, पंचगुरुभक्तिपर्यन्ता पंचपरमेष्ठिविषयनमस्कारकरणं वा शुद्धभावेन।
प्रतिक्रमणं व्यतिक्रान्तदोषनिर्हरणं व्रताद्युच्चारणं च। प्रत्याख्यानं भविष्यत्कालविषयवस्तुपरित्यागश्च। तथा कायोत्सर्गो भवति षष्ठ:। सामायिकावश्यकनिर्युक्ति:, चतुर्विंशतिस्तववाश्यकनिर्युक्ति: वन्दनावश्यकनिर्युक्ति:, प्रतिक्रमणावश्यकनिर्युक्ति:, प्रत्याख्यानावश्यकनिर्युक्ति:, कायोत्सर्गावश्यकनिर्युक्तिरिति।।५१६।।
चाहिए। युक्ति और उपाय एक हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण उपाय निर्युक्ति कहलाते हैं।।५१५।।
आचारवृत्ति–जो पाप आदि के वश्य नहीं है वे अवश्य हैं। जब जो इन्द्रिय, कषाय, नोकषाय और राग-द्वेष आदि के द्वारा आत्मीय नहीं किये गए हैं अर्थात् जिस समय इन इन्द्रिय कषाय आदिकों ने जिन्हें अपने वश में नहीं किया है उस समय वे मुनि अवश्य होने से आवश्यक कहलाते हैं और उनका जो कर्म अर्थात् अनुष्ठान है वह आवश्यक कहा गया है ऐसा जानना चाहिए ।
युक्ति और उपाय ये एकार्थवाची हैं, उस निरवयव अर्थात् सम्पूर्ण–अखंडित उपाय को निर्युक्ति कहते हैं। आवश्यकों की जो निर्युक्ति है उसे आवश्यक निर्युक्ति कहते हैं अर्थात् आवश्यक का संपूर्णतया उपाय आवश्यक निर्युक्ति है।
अहोरात्र के मध्य साधुओं का जो आचरण है उसको बतलाने वाले जो पृथक्-पृथक् स्तुति रूप से ‘जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता’ इत्यादि के प्रतिपादक जो पूर्वापर से अविरुद्ध शास्त्र हैं जो कि न्यायरूप हैं, उन्हें आवश्यक निर्युक्ति कहते हैं। उस आवश्यक निर्युक्ति के छह प्रकार है।
भावार्थ–यहाँ पर आवश्यक क्रियाओं के प्रतिपादक शास्त्रों को भी आवश्यक निर्युक्ति शब्द से कहा है सो कारण में कार्य का उपचार समझना।
अब उन आवश्यक निर्युक्ति के भेदों का प्रतिपादन करते हैं–
गाथार्थ–सामायिक, चतुविंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और छठा कायोत्सर्ग ये छह हैं।।५१६।।
आचारवृत्ति–सम अर्थात् सभी का सामान रूप जो सर्ग अथवा पुण्य है उसे ‘समाय’ कहते हैं (पुण्य का नाम ‘अय’ भी है अतः पुण्य के पर्यायवाची शब्द से सम±अय·समाय बना है।
उसमें जो होवे सो सामायिक है। यहाँ ‘समाय’ में इकण् प्रत्यय होकर बना है) अथवा वही पुण्य प्रयोजन है जिसका, अथवा ‘तेन दिव्यति’ उस समाय से शोभित होता है (इस अर्थ में भी इकण् प्रत्यय हो गया है) अथवा समय में जो होवे सो सामायिक है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति को चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं ।
सामान्यरूप से ‘जयति भगवान् हेमांभोजप्रचारविजृंभिता’–इत्यादि चैत्यभक्ति से लेकर पंचगुरुभक्ति पर्यन्त विधिवत् जो स्तुति की जाती है उसे वंदना कहते हैं अथवा शुद्ध भाव से पंचपरमेष्ठी विषयक नमस्कार तत्र सामायिकनामावश्यकनिर्युिंक्त वक्तुकाम:
प्राह- सामाइयणिज्जुत्ती वोच्छामि जहाकमं समासेण।
आयरियपरंपराए जहागदं आणुपुव्वीए।।५१७।।
सामायिकनिर्युिंक्त सामायिकनिरवयवोपायं वक्ष्ये यथाक्रमं समासेनाचार्यपरंपरया यथागतमानुपूर्व्या। अधिकारक्रमेण पूर्वं यथानुक्रमं सामायिककथनविशेषणं पाश्चात्यानुपूर्वीग्रहणं, यथागतविशेषणमिति कृत्वा न पुनरुक्तदोष:।।५१७।।
सामायिकनिर्युक्तिरपि१ षट्प्रकारा तामाह-
णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले तहेव भावे य।
सामाइयह्मि एसो णिक्खेओ छव्विओ णेओ।।५१८।।
अथवा निक्षेपविरहितं शास्त्रं व्याख्यायमानं वक्तु: श्रोतुश्चोत्पथोत्थानं कुर्यादिति सामायिकनिर्युक्ति निक्षेपो वर्ण्यते-नामसामायिकनिर्युक्ति:, स्थापनासामायिकनिर्युक्ति:, द्रव्यसामायिकनिर्युक्ति:, क्षेत्रसामायिकनिर्युक्ति:, कालसामायिकनिर्युक्ति:, भावसामायिकनिर्युक्ति:।
नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदेन सामायिक एष निक्षेप उपाय: षट्प्रकारो भवति ज्ञातव्य:। शुभनामान्यशुभनामानि च श्रुत्वा रागद्वेषादिवर्जनं नामसामायिकं नाम। काश्चन स्थापना: सुस्थिता: सुप्रमाणा: सर्वावयवसम्पूर्णा: सद्भावरूपा मन आह्लादकारिण्य:। काश्चन पुन: स्थापना दुस्थिता: प्रमाणरहिता: सर्वावयवैरसम्पूर्णा: सद्भावरहितास्तास्तासूपरि रागद्वेषयोरभाव: स्थापनासामायिकं नाम।
सुवर्णरजतमुक्ताफलमाणिक्यादिमृत्तिकाकाष्ठकंटकादिषु समदर्शनं रागद्वेषयोरभावा द्रव्यसामायिकं नाम। कानिचित् क्षेत्राणि रम्याणि आरामनगरनदीकूपवापीतडागजनपदोपचितानि, करना वंदना है। पूर्व में किये गए दोषों का निराकरण करना और व्रतादि का उच्चारण करना अर्थात् व्रतों के दण्डकों का उच्चारण करते हुए उन सम्बन्धी दोषों को दूर करने के लिए ‘मिच्छा मे दुक्कडं’ बोलना सो प्रितक्रमण है।
भविष्यकाल के लिए वस्तु का त्याग करना प्रत्याख्यान है। तथा काय से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। इस प्रकार सामायिक आवश्यक निर्युक्ति, चतुर्विंशति आवश्यक निर्युक्ति, वंदना आवश्यक निर्युक्ति, प्रतिकमण आवश्यक निर्युक्ति, प्रत्याख्यान आवश्यक निर्युक्ति और कायोत्सर्ग आवश्यक निर्युक्ति ये छह भेद हैं।
अब उनमें से सामायिक नामक आवश्यक निर्युक्ति को कहते हैं–
गाथार्थ–आचार्य परम्परानुसार आगत क्रम से संक्षेप में मैं क्रम से सामायिक निर्युक्ति को कहूँगा।।५१७।।
आचारवृत्ति–अधिकार के क्रम से संक्षेप में मैं आचार्य परंपरा के अनुरूप अविच्छिन्न प्रवाह से आगत सामायिक के सम्पूर्ण उपाय रूप इस प्रथम आवश्यक को कहूँगा।
सामायिक निर्युक्ति के भी छह भेद कहते हैं–
गाथार्थ–नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सामायिक में यह छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए।।५१८।।
आचारवृत्ति–अथवा निक्षेप रहित शास्त्र का व्याख्यान यदि किया जाता है तो वह वक्ता और श्रोता दोनों को ही उत्पथ में–गलत मार्ग में पतन करा देता है इसलिए सामायिक निर्युक्ति में निक्षेप का वर्णन करते हैं।
नाम सामायिक निर्युक्ति, स्थापना सामायिक निर्युक्ति, द्रव्य सामायिक निर्युक्ति, क्षेत्र सामायिक निर्युक्ति, काल सामायिक निर्युक्ति और भाव सामायिक निर्युक्ति इस तरह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से सामायिक में यह निक्षेप अर्थात् जानने का उपाय छह प्रकार का समझना चाहिए।
उसे ही स्पष्ट करते हैं– शुभ नाम और अशुभ नाम को सुनकर राग-द्वेष आदि का त्याग करना नाम सामायिक है।
कुछेक स्थापनाएं–मूर्तियाँ सुस्थित हैं, सुप्रमाण हैं, सर्व अवयवों से सम्पूर्ण है, सदभावरूप–कानिचिच्च क्षेत्राणि रूक्षकंटकविषमविरसास्थिपाषाणसहितानि जीर्णाटवीशुष्कनदीमरुसिकतापुंजादिबाहुल्यानि तेषूपरि रागद्वेषयोरभाव: क्षेत्रसामायिकं नाम। प्रावृड्वर्षाहैमन्तशिशिरवसन्तनिदाघा: षड्ऋतवो रात्रिदिवसशुक्लपक्षकृष्णपक्षा: कालस्तेषूपरि रागद्वेषवर्जनं कालसामायिकं नाम। सर्वजीवेषूपरि मैत्रीभावोऽशुभपरिणामवर्जनं भावसामायिकं नाम।
अथवा जातिद्रव्यगुणक्रियानिरपेक्षं संज्ञाकरणं सामायिकशब्दमात्रं नामसामायिकं नाम। सामायिकावश्यकेन परिणतस्याकृतिमत्यनाकृतिमति च वस्तुनि गुणारोपणं स्थापनासामायिकं नाम। द्रव्यसामायिकं द्विविधं आगमद्रव्यसामायिकं नोआगमद्रव्यसामायिकं चेति। सामायिकवर्णनप्राभृतज्ञायी अनुपयुक्तो जीव आगमद्रव्यसामायिकं नाम।
नोआगमद्रव्यसामायिकं त्रिविधं सामायिकवर्णनप्राभृतज्ञायकशरीरसामायिकप्राभृतभविष्यज्ज्ञायकजीवतद्व्यतिरिक्तभेदेन। ज्ञायकशरीरमिति त्रिविधं भूतवर्तमानभविष्यद्भेदेन। भूतमपि त्रिविधं च्युतच्यावितत्यक्तभेदेन। सामायिकपरिणतजीवाधिष्ठितं क्षेत्रं क्षेत्रसामायिकं नाम। यस्मिन् काले सामायिकं करोति स काल: पूर्वाण्हादिभेदभिन्न: कालसामायिकं। भावसामायिकं द्विविधं, आगमभावसामायिकं, नोआगमभावसामायिकं चेति।
सामायिकवर्णनप्राभृतज्ञाय्युपयुक्तो जीव आगमभावसामायिकं नाम, सामायिकपरिणतपरिणामादि तदाकार हैं और मन के लिए आह्लादकारी हैं। पुनः कुछ एक स्थापनाएँ दुःस्थित हैं, प्रमाण रहित हैं, सर्व अवयवों से परिपूर्ण नहीं है और सदभाव रहित–अतदाकार हैं। इन दोनों प्रकार की मूर्तियों में राग-द्वेष का अभाव होना स्थापना सामायिक है।
सोना, चांदी, मोती, माणिक्य आदि तथा लकड़ी, मिटटी का ढेला और कंटक आदिकों में समान भाव रखना, उनमें राग-द्वेष नहीं करना द्रव्य सामायिक है।
कोई-कोई क्षेत्र रम्य होते हैं; जैसे की बगीचे, नगर, नदी, कूप, बावड़ी, तालाब, जनपद–देश आदि से सहित स्थान तथा कोई-कोई क्षेत्र अशोभन होते हैं–जैसे कि रूक्ष, कंटकयुक्त, विषम, विरस, हड्डी और पाषाण सहित स्थान, जीर्ण अटवी, सूखी नदी, मरुस्थल–बालू के पुंज की बहुलतायुक्त भूमि, इन दोनों प्रकार के क्षेत्रो में राग-द्वेष का अभाव होना क्षेत्र सामायिक कहा गया है।
प्रावृड्, वर्षा, हेमन्त, शिशिर, वसंत और निदाघ अर्थात् ग्रीष्म इस प्रकार इन छह ऋतुओं में, रात्रि दिवस तथा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष में, इन कालों में राग-द्वेष का त्याग काल सामायिक है।
सभी जीवों पर मैत्री भाव रखना और अशुभ परिणामों का त्याग करना यह भाव सामायिक है। अथवा जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया से निरपेक्ष किसी का ‘सामायिक’ ऐसा शब्द मात्र संज्ञाकरण करना–नाम रख देना नाम सामायिक है। सामायिक आवश्यक से परिणत हुए आकार वाली अथवा अनाकार वाली किसी वस्तु में गुणों का आरोपण करना स्थापना समायिक है।
द्रव्य समायिक के दो भेद हैं–आगम द्रव्य समायिक और नो-आगम द्रव्य सामायिक। सामायिक के वर्णन करने वाले शास्त्र को जानने वाला किन्तु जो उस समय उस विषय में उपयोग युक्त नहीं है वह आगम द्रव्य सामायिक है। नो-आगम द्रव्य सामायिक के तीन भेद हैं–ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त।
सामायिक के वर्णन करने वाले प्राभृत को जानने वाले का शरीर ज्ञायकशरीर है, भविष्यकाल में सामायिक प्राभृत को जानने वाले जीव भावी है और उससे भिन्न तद्व्यतिरिक्त है। ज्ञायकशरीर के भी तीन भेद हैं–भूत, वर्तमान और भविष्यत्। भूतकालीन ज्ञायकशरीर के भी तीन भेद हैं–च्युत, च्यावित और त्यक्त।
सामायिक से परिणत हुए जीव से अधिष्ठित क्षेत्र, क्षेत्र-सामायिक है। जिस काल में सामायिक करते हैं, पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न आदि भेद युक्त काल, काल-सामायिक है।
भाव-सामायिक के भी दो भेद हैं–आगमभाव-सामायिक और नोआगम भाव-सामायिक। सामायिक नोआगमभावसामायिकं नाम। तथेषां मध्ये आगमभावसामायिकेन नोआगमभावसामायिकेन च प्रयोजनमिति।।५१८।।
निरुक्तिपूर्वकं भावसामायिकं प्रतिपादयन्नाह-
सम्मत्तणाणसंजमतवेहिं जं तं पसत्थसमगमणं।
समयंतु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाण।।५१९।।
सम्यक्त्वज्ञानसंयमतपोभिर्यत्तत् प्रशस्तं समागमनं प्रापणं तै: सहैक्यं च जीवस्य यत् समयस्तु समय एव भणितस्तमेव सामायिकं जानीहि।। ५१९।।
तथा य:-जिदउवसग्गपरीसह उवजुत्तो भावणासु समिदीसु।
जमणियमउज्जदमदी सामाइयपरिणदो जीवो।।५२०।।
जिता: सोढा उपसर्गा: परीषहाश्च येन स जितोपसर्गपरीषह: समितिषु भावनासु चोपयुक्तो य: यमनियमोद्यतमतिश्च य:, स सामायिकपरिणतो जीव इति।। ५२०।।
तथा-जं च समो अप्पाणं परे य मादूय सव्वमहिलासु।
अप्पियपियमाणादिसु तो समणो तो य सामइयं।।५२१।।
के वर्णन करने वाले–प्राभृत-ग्रन्थ का जो ज्ञाता है और उसके उपयोग से युक्त है वह जीव आगमभाव-सामायिक है और सामायिक से परिणत परिणाम आदि को नो-आगमभाव सामायिक कहते हैं।
इनमे से यहाँ आगम-भाव सामायिक और नो-आगमभाव सामायिक से प्रयोजन है ऐसा समझना।
भावार्थ–यहाँ पर सामायिक के छह भेद दो प्रकार से बताये गए हैं। उनमें पहले जो शुभ-अशुभ नाम आदि में समताभाव रखना, राग-द्वेष नहीं करना बतलाया है वह तो छहों भेदरूप सामायिक उपादेय है।
इस साम्यभावना के लिए ही मुनिजन सारे अनुष्ठान करते हैं। अनन्तर जो नाम आदि निक्षेप घटित किये हैं उनमें अंत में जो भाव निक्षेप है वही यहाँ पर उपादेय है ऐसा समझना। इन निक्षेपों का विस्तृत विवेचन राजवार्तिक, धवला टीका आदि से समझना चाहिए।
निरुक्तिपूर्वक भाव सामायिक का प्रतिपादन करते हैं–
गाथार्थ–सम्यग्दर्शन, ज्ञान, संयम और तप के साथ जो प्रशस्त समागम है वह समय कहा गया है, तुम उसे ही सामायिक जानो ।।५१९।।
आचारवृत्ति–सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के साथ जो जीव का एक्य है वह ‘समय’ इस नाम से कहा जाता है और उस समय को ही सामायिक कहते हैं (यहाँ पर ‘समय’ शब्द से स्वार्थ में इकण् प्रत्यय होकर ‘समय एव सामायिकं’ ऐसा शब्द बना)।
उसी प्रकार से–
गाथार्थ–जिन्होंने उपसर्ग और परीषह को जीत लिया है, जो भावना और समितियों में उपयुक्त हैं, यम और नियम में उद्यमशील हैं, वे जीव सामायिक से परिणत हैं।।५२०।।
आचारवृत्ति–जो उपसर्ग और परिषहों को जीतने वाले होने से जितेंद्रिय हैं, पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं अथवा मैत्री आदि भावनाओं में तथा समितियों में लगे हुए हैं , यम और नियम में तत्पर हैं वे मुनि सामायिक से परिणत हैं ऐसा समझो ।
उसी प्रकार–
गाथार्थ–जिस कारण से अपने और पर में , माता और सर्व महिलाओं में, अप्रिय और प्रिय तथा मान-अपमान आदि में समान भाव होता है इसी कारण से वे श्रमण हैं और इसी से वे सामायिक हैं।।५२१।।
यस्माच्च यमो रागद्वेषरहित आत्मनि परे च, यस्माच्च मातरि सर्वमहिलासु च शुद्धभावेन समान:, सर्वा योषितो मातृसदृश: पश्यति, यस्माच्च प्रियाप्रियेषु समान:, यस्माच्च मानापमानादिषु समानस्तस्मात् स श्रवणस्ततश्च तं सामायिकं जानीहीति१।। ५२१।।
जो जाणइ समवायं दव्वाण गुणाण पज्जयाणं च।
सब्२भावं तं सिद्धं सामाइयमुत्तमं जाणे३।।५२२।।
पूर्वगाथाभ्यां सम्यक्त्वसंयमयो: समागमनं४ व्याख्यातं अनया पुनर्गाथया ज्ञानसमागमन५माचष्टे। यो जानाति समवायं सादृश्यं स्वरूपं वा द्रव्याणां, द्रव्यसमवायं क्षेत्रसमवायं कालसमवायं भावसमवायं च जानाति तत्र द्रव्यसमवायो नाम धर्माधर्मलोकाकाशैकजीवप्रदेशा: समा:। क्षेत्रसमवायोनामसीमन्तनरकमनुष्यक्षेत्रर्जुविमानसिद्धालय: समा:।
कालसमवायो नाम समय: समयेन सम:, अवसर्पिण्युत्सर्पिण्या समेत्यादि। भावसमवायो नाम केवलज्ञानं केवलदर्शनेन सममिति। गुणा रूपरसगन्धस्पर्शज्ञातृत्वद्रष्टृत्वादयस्तेषां समानतां जानाति। अथवौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिका गुणास्तेषां समानतां जानाति। पर्याया नारकत्वमनुष्यत्वतिर्यक्त्वदेवत्वादयस्तेषां समानतां जानाति।
द्रव्याधारत्वेनापृथग्वर्तित्वेन च गुणानां समवाय:। पर्यायाणां उत्पादविनाशध्रौव्यत्वेन समवायो भावसमवायो गुणेष्वन्तर्भवति। क्षेत्रसमवाय: पर्यायेष्वन्तर्भवति। कालसमवायो द्रव्यसमवायेऽन्तर्भवतीति। द्रव्यसमवायं गुणसमवायं पर्यायसमवायं च यो जानाति तेषां सिद्धिं१ सदभावं
आचारवृत्ति–जिससे वे अपने और पर में राग-द्वेष रहित समभाव हैं , जिससे वे माता और सर्व महिलाओं में शुद्धभाव से समान हैं अर्थात् सभी स्त्रियों को माता के सदृश देखते हैं , जिस हेतु से प्रिय और अप्रिय में समानभावी हैं और जिस हेतू से वे मान–अपमान (आदि शब्द से जीवन-मरण, सुख–दुःख, लाभ–अलाभ, महल, श्मशान तथा शत्रु-मित्र आदि) में जो समभावी हैं, इन्ही हेतुओं से वे श्रमण कहलाते हैं और इसलिए तुम उन्हें सामायिक जानो। यहाँ पर समताभाव से युक्त मुनि को ही सामायिक कहा है।
गाथार्थ–जो द्रव्यों के गुणों और पर्यायों के समवाय को और सद्भाव को जानता है उसके उत्तम सामायिक सिद्ध हुई ऐसा तुम जानो ।।५२२।।
आचारवृत्ति–पूर्व में दो गाथाओं द्वारा सम्यक्त्व और संयम का समागमन अर्थात् जीव के साथ ऐक्य बतलाया है और अब इस गाथा के द्वारा जीव के साथ ज्ञान का समागमन–एक्य बतलाते हैं। जो द्रव्यों के समवाय अर्थात् सादृश्य को अथवा स्वरूप को जानते हैं अर्थात् द्रव्य समवाय, क्षेत्र समवाय, काल समवाय और भाव समवाय को जानते हैं वे मुनि उत्तम सामायिक कहलाते हैं।
उसमें द्रव्य के समवाय–सादृश्य को कहते हैं। द्रव्यों की सदृशता का नाम द्रव्य समवाय है जैसे–धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव– इनके प्रदेश समान हैं अर्थात् इन चारों में असंख्यात प्रदेश हैं और वे पूर्णतया समान हैं। ऐसे ही क्षेत्र में सदृशता क्षेत्र समवाय है ।
प्रथम नरक का सीमंतक बिल, मनुष्य क्षेत्र (ढाई द्वीप), प्रथम स्वर्ग का ऋजुविमान और सिद्धालय ये समान हैं अर्थात् ये सभी पैंतालिस लाख योजन प्रमाण है। काल की सदृशता काल–समवाय है, जैसे समय-समय के समान हैं अवसर्पिणी उत्सर्पिणी के समान है इत्यादि। भावों की सदृशता भाव समवाय है, जैसे केवलज्ञान केवलदर्शन के समान है।
रूप-रस–गंध और स्पर्श तथा ज्ञातृत्व और दृष्टृत्व आदि गुणों की समानता को जो जानते हैं वे गुणों के समवाय को जानते हैं। अथवा जो औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक गुण हैं उनकी समानता को जानना गुणसमवाय है। नारकत्व, मनुष्यत्व, तिर्यक्त्व और देवत्व आदि पर्यायें हैं। इनकी समानता को जानना पर्यायसमवाय है।
अर्थात् जो द्रव्य के आधार में रहते हैं और द्रव्य से अपृथग्वर्ती हैं– कभी भी उनसे पृथव्â नहीं किये जा सकते हैं अतः अयुत सिद्ध हैं, यह गुणों का समवाय है। उत्पाद, व्यय निष्पन्नं परमार्थरूपं च यो जानाति तं संयतं सामायिकमुत्तमं जानीहि। अथवा द्रव्याणां समवायं सिद्धिं , गुणपर्यायाणां च सद्भावं यो जानाति तं सामायिकं जानीहि। अथवा २समवृत्ति समवायं, द्रव्यगुणपर्यायाणां समवृत्ति, द्रव्यं गुणविरहितं नास्ति गुणाश्च द्रव्यविरहिता न सन्ति पर्यायाश्च द्रव्यगुणरहिता न सन्ति। ३एवंभूतं समवृत्ति समवायं सद्भावरूपं न संवृत्तिरूपं, न कल्पनारूपं, नाप्यविद्यारूपं, स्वत: सिद्धं न समवाय–द्रव्यबलेन यो जानाति तं सामायिकं जानीहीति सम्बन्ध:।।५२२।।
सम्यक्त्वचारित्रपूर्वकं सामायिकमाह-
रागदोसो णिरोहित्ता समदा सव्वकम्मसु४।
सुत्तेसु य परिणामो सामाइयमुत्तमं जाणे।।५२३।।
और ध्रौव्य रूप से पर्यायों का समवाय होता है ।
ऊपर में जो द्रव्य , क्षेत्र , काल और भाव समवाय कहे गए हैं उनको द्रव्य, गुण और पर्यायों के अंतर्गत करने से द्रव्य, गुण और पर्याय नाम से तीन प्रकार के समवाय माने जाते हैं। सो ही बताते हैं–कि भाव समवाय गुणों में अंतर्भूत हो जाता है। क्षेत्रसमवाय पर्यायों में, काल समवाय द्रव्यसमवाय में अंतर्भूत हो जाता है। इस तरह जो मुनि द्रव्यसमवाय, गुणसमवाय और पर्यायसमवाय को जानते हैं, इनकी सिद्धि को–निष्पन्नता को अर्थात् पूर्णता को और इनके सद्भाव को–परमार्थ रूप को जानते है उन संयतों को तुम उत्तम सामायिक जानो ।
अथवा द्रव्यों की समवाय सिद्धि को और गुणों तथा पर्यायों के सद्भाव को जो जानते हैं उन्हें सामायिक जानो ।
अथवा समवृत्ति–सहवृत्ति अर्थात् साथ-साथ रहने का नाम समवाय है । इस तरह द्रव्य गुण, पर्यायों की सहवृत्ति को जो जानते हैं उनको तुम सामायिक जानो। जैसे-द्रव्य गुणों से विरहित नही हैं और गुण द्रव्य से विरहित नहीं रहते हैं तथा पर्यायें भी द्रव्य और गुणों से रहित होकर नहीं होती हैं। इस प्रकार का जो सहवृत्ति रूप समवाय है वह सद्भाव रूप है, वह न संवृत्ति रूप है न ही कल्पनारूप और न अविद्यारूप ही है।
वह समवाय किसी एक पृथग्भूत समवाय नामक पदार्थ के बल से सिद्ध नहीं है बल्कि स्वत: सिद्ध है ऐसा जो मुनि जानते हैं उनको ही तुम सामायिक जानो, ऐसा गाथा के अर्थ का सम्बन्ध होता है।
भावार्थ–अन्य सम्प्रदायों में कोई द्रव्य, गुण और पर्यायों को पृथक्-पृथक् मानते हैं। कोई उन्हें संवृति–असत्यरूप मानते हैं इत्यादि, उन्हीं की मान्यता का यहाँ अन्त में निराकरण किया गया है। जैसे कि बौद्ध द्रव्य, गुण आदि को सर्वथा संवृतिरूप अर्थात् असत्य मानते हैं ।
शून्यवादी आदि सभी कुछ कल्पनारूप मानते हैं । ब्रह्माद्वैतवादी इस चराचर जगत् को अविद्या–माया का विलास मानते हैं और यौग द्रव्य को गुणों से पृथक् मानकर समवाय सम्बन्ध से गुणी कहते हैं अर्थात् अग्नि को उष्ण गुण समवाय सम्बन्ध से उष्ण कहते हैं किन्तु जैनाचार्यों ने द्रव्य, गुण पर्यायों को सर्वथा अपृथग्रूप–तादात्म्य सम्बन्धयुत माना है अत: वास्तव में यह द्रव्य गुण पर्यायों का समवाय–तादात्म्य स्वत:सिद्ध है, परमार्थभूत है ऐसा समझना और इस सम्यग्ज्ञान से परिणत हुए महामुनि स्वयं सामायिक रूप ही हैं ऐसा यहाँ कहा गया है। क्योंकि इस परमार्थज्ञान के साथ उन मुनि का ऐक्य हो रहा है इसलिए वे मुनि ही ‘सामायिक’ इस नाम से कहे गए हैं ।
सम्यक्त्व चारित्रपूर्वक सामायिक को कहते हैं–
गाथार्थ–राग-द्वेष का निरोध करके सभी कार्यों में समता भाव होना और सूत्रों में परिणाम होना–इनको तुम उत्तम सामायिक जानो।।५२३।।
रागद्वेषौ निरुध्य सर्वकर्मसु सर्वकर्तव्येषु या समता, सूत्रेषु च द्वादशांगचतुर्दशपूर्वेषु च य: परिणाम: श्रद्धानं सामायिकमुत्तमं प्रकृष्टं जानीहि।।५२३।।
तप:पूर्वकं सामायिकमाह-
विरदो सव्वसावज्जं तिगुुत्तो पिहिदिंदिओ।
जीवो सामाइयं णाम संजमट्ठाणमुत्तमं।।५२४।।
सर्वसावद्याद्यो विरतस्त्रिगुप्त: , पिहितेन्द्रियो निरुद्धरूपादिविषय:, एवंभूतो जीव: सामायिकं संयमस्थानमुत्तमं जानीहि जीवसामायिकसंयमयोरभेदादिति।।५२४।।
भेदं च प्राह-
जस्स सण्णिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे।
तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे।।५२५।।
यस्य संनिहित: स्थित: आत्मा। क्व, संयमे नियमे तपसि च तस्य सामायिकं तिष्ठति। इत्येवं केवलिनां शासनं एवं केवलिनामाज्ञा शिक्षा वा। अथवास्मिन् केवलिशासने जिनागमे तस्य सामायिकं तिष्ठतीति।।५२५।।
समत्वभावपूर्वंकं भेदेन सामायिकमाह-
जो समो सव्वभूदेसु तसेसु थावरेसु य।
१तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे।।५२६।।
आचारवृत्ति–राग द्वेष को दूर करके सभी कार्यों में जो समता है और द्वादशांग तथा चतुर्दश पूर्वरूप सूत्रों का जो श्रद्धान है वही प्रकृष्ट सामायिक है ऐसा तुम जानो।
अब तपपूर्वक सामायिक को कहते हैं–
गाथार्थ–सर्व सावद्य से विरत, तीन गुुप्ति से गुप्त, जितेन्द्रिय जीव संयमस्थान रूप उत्तम सामायिक नाम को प्राप्त होता है।। ५२४।।
आचारवृत्ति–जो मुनि सर्व पापयोग से विरत हैं, तीन गुप्ति से सहित हैं, रूपादि विषयों में इन्द्रियों को न जाने देने से जो जितेन्द्रिय हैं ऐसे संयत जीव को ही संयम के स्थान भूत उत्तम सामायिक रूप समझो। क्योंकि जीव और सामायिक संयम में अभेद है अर्थात् जीव के आश्रय में ही सामायिक संयम पाया जाता है। यहाँ अभेदरूप से सामायिक का प्रतिपादन हुआ है।
अब भेद को कहते हैं–
गाथार्थ–जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में स्थित है उसके सामायिक रहता है ऐसा केवली के शासन में कहा है।।५२५।।
आचारवृत्ति–जिनकी आत्मा संयम आदि में लगी हुई है उसके ही सामायिक होता है, इस प्रकार केवली भगवान् का शासन है अर्थात केवली भगवान् की आज्ञा है अथवा उनकी शिक्षा है। अथवा केवली भगवान् के इस शासन में अर्थात् जिनागम में उसी जीव के सामायिक होता है ऐसा अभिप्राय समझना।
समत्वभावपूर्वक भेद के द्वारा सामायिक को कहते हैं–
गाथार्थ–सभी प्राणियों में, त्रसों और स्थावरों में, जो समभावी है उसके सामायिक होता है ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा है।।५२६।।
य: सम: सर्वभूतेषु-त्रसेषु स्थावरेषु च समस्तेषामपीडाकरस्तस्य सामायिकमिति।।५२६।।
रागद्वेषविकाराभावभेदेन सामायिकमाह-
जस्स रागो य दोसो य वियडिं ण जणेंति दु।।५२७।।
यस्य रागद्वेषौ विकृतिं विकारं न जनयतस्तस्य सामायिकमिति।।५२७।।
कषायजयेन सामायिकमाह-
जेण कोधो य माणो य माया लोभो य णिज्जिदो।।५२८।।
येन क्रोधमानमायालोभा: सभेदा: सनोकषाया निर्जिता दलितास्तस्य सामायिकमिति।।५२८।।
संज्ञालेश्याविकाराभावभेदेन सामायिकमाह-
जस्स सण्णा य लेस्सा य वियडिं ण जणंति दु।।५२९।।
यस्य संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाभिलाषा विकृतिं विकारं न जनयन्ति। तथा यस्य लेश्या: कृष्णनीलकापोत-पीतपद्मलेश्या: कषायानुरञ्जितयोगवृत्तयो विकृतिं विकारं न जनयन्ति तस्य सामायिकमिति।।५२९।।
कामेन्द्रियविषयवर्जनद्वारेण सामायिकमाह–
जो दुरसे य फासे य कामे वज्जदि णिच्चसा।।५३०।।
रस: कटुकषायादिभेदभिन्न:, स्पर्शो मृद्वादिभेदभिन्न: रसस्पर्शौ काम इत्युच्यते। रसनेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रियं च कामेन्द्रिये। यो रसस्पर्शौ कामौ वर्जयति नित्यं। कामेन्द्रियं च निरुणद्धि तस्य सामायिकमिति।।५३०।।
जो सर्व प्राणियों में, त्रसों और स्थावरों में समभाव रखते हैं अर्थात् उनको पीड़ा नहीं देते हैं उनके सामायिक होता है।
राग-द्वेष विकारों के अभाव से भेदरूप सामायिक को कहते हैं–
गाथार्थ–जिस जीव के राग और द्वेष विकार को उत्पन्न नहीं करते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है।।५२७।।
कषाय-जय के द्वारा सामायिक को कहते हैं–
गाथार्थ–जिन्होंने क्रोध, मान, माया और लोभ को जीत लिया है उनके सामायिक होता है ऐसा जिन- शासन में कहा है।।५२८।।
आचारवृत्ति–जिन्होंने अनन्तानुबन्धी आदि चार भेदों सहित क्रोध, मान, माया, लोभ का तथा हास्य आदि नोकषायों का दलन कर दिया है उन्हीं के सामायिक होता है।
संज्ञा और लेश्यारूप विकारों के अभावपूर्वक भेदरूप सामायिक को कहते हैं–
गाथार्थ–जिनके संज्ञाएँ और लेश्याएँ विकार को उत्पन्न नहीं करतीं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है।।५२९।।
आचारवृत्ति–जिनके आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इनकी अभिलाषारूप चार संज्ञाएँ विकार को उत्पन्न नहीं करती हैं, तथा जिनके कृष्ण, नील, कापोत, पीत और पद्म ये कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्तिरूप लेश्याएं विकार को पैदा नहीं करती हैं उनके सामायिक होता है।
कामेन्द्रिय के विषय वर्जन द्वारा सामायिक को कहते हैं–
गाथार्थ–जो मुनि रस और स्पर्श इन काम को नित्य ही छोड़ते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है।।५३०।।भोगेन्द्रियविषयवर्जनद्वारेण सामायिकमाह–
जो रूवगंधसद्दे य भोगे वज्जदि णिच्चसा।।५३१।।
य: रूपं कृष्णनीलादिभेदभिन्नं, गन्धो द्विविध: सुरभ्यसुरभिभेदेन च, शब्दो वीणावंशादिसमुद्भव:, रूपगन्धशब्दा भोगा इत्युच्यन्ते, चक्षुर्घ्राणश्रोत्राणि भोगेन्द्रियाणि, यो रूपगन्धशब्दान् वर्जयति, भोगेन्द्रियाणि च नित्यं सर्वकालं निवारयति तस्य सामायिकमिति।।५३१।।
दुष्टध्यानपरिहारेण सामायिकमाह–
जो दु अट्ठं च रुद्दं च भâाणं वज्जदि णिच्चसा।।५३२।।
चकारावनयो: स्वभेदग्राहकाविति कृत्वैवमुच्यते यस्त्वार्तं चतुष्प्रकारं रौद्रं च चतुष्प्रकारं ध्यानं वर्जयति सर्वकालं तस्य सामायिकमिति।।५३२।।
शुभध्यानद्वारेण सामायिकस्थानमाह–
जो दु धम्मं च सुक्कं च भâाणे भâायदि णिच्चसा।।५३३।।
अत्रापि चकारावनयो: स्वभेदप्रतिपादकाविति कृत्वैवमाह-यस्तु धर्मं चतुष्प्रकारं शुक्लं च चतुष्प्रकारं ध्यानं ध्यायति युनक्ति सर्वकालं तस्य सामायिकं तिष्ठतीति। केवलिशासनमिति सर्वत्र सम्बन्धो दृष्टव्य इति।।५३३।।
आचारवृत्ति–कटु, कषाय, अम्ल, तिक्त और मधुर ऐसे रस पाँच हैं। मृदु, कठोर, लघु, गुरु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ऐसे स्पर्श के आठ भेद हैं। इन रस और स्पर्श को काम कहते हैं तथा रसनेंद्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय को कामेन्द्रिय कहते हैं। जो मुनि रस और स्पर्श का नित्य ही वर्जन करते हैं और कामेन्द्रिय का निरोध करते हैं उन्हीं के सामायिक होता है।
भोगेन्द्रिय के विषय-वर्जन द्वारा सामायिक को कहते हैं–
गाथार्थ–जो रूप, गन्ध और शब्द इन भोगों को नित्य हो छोड़ देता है उसके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है।।५३१।।
आचारवृत्ति–कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत ये रूप के पाँच भेद हैं। सुरभि के और असुरभि के भेद से गन्ध दो प्रकार का है और वीणा, बाँसुरी आदि से उत्पन्न हुए शब्द अनेक प्रकार के हैं।
इन रूप, गन्ध और शब्द को भोग कहते हैं तथा इनको ग्रहण करने वाली चक्षु, घ्राण एवं कर्ण इन तीनों इन्द्रियों को भोगेन्द्रिय कहते हैं। जो मुनि इन रूप, गन्ध और शब्द का वर्जन करते हैं तथा भोगेन्द्रियों का नित्य ही निवारण करते हैं अर्थात् इन इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष नहीं करते हैं उनके सामायिक होता है।
दुष्ट ध्यान के परिहार द्वारा सामायिक का वर्णन करते हैं–
गाथार्थ–जो आर्त और रौद्रध्यान का नित्य ही त्याग करते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है।।५३२।।
आचारवृत्ति–इस गाथा में जो दो बार ‘च’ शब्द है वे इन दोनों ध्यानों के अपने-अपने भेदों को ग्रहण करने वाले हैं। इसलिए ऐसा समझना कि जो मुनि चार प्रकार के आर्तध्यान को और चार प्रकार के रौद्रध्यान को सर्वकाल के लिए छोड़ देते हैं उनके सामायिक होता है।
अब शुभ ध्यान द्वारा सामायिक का प्रतिपादन करते हैं–
गाथार्थ–जो धर्म और शुक्ल ध्यान को नित्य ही ध्याते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है।। ५३३।।
आचारवृत्ति–यहाँ पर भी दो चकार इन दोनों ध्यानों के स्वभेदों के प्रतिपादक हैं। अर्थात् जो मुनि किमर्थं सामायिकं
प्रज्ञप्तमित्याशंकायामाह–
सावज्जजोगपरिवज्जणट्ठं सामाइयं केवलिहिं पसत्थं।
गिहत्थधम्मोऽपरमत्ति णिच्चा कुज्जा बुधो अप्पहियं पसत्थं।।५३४।।
वृत्तमेतत्। सावद्ययोगपरिवर्जनार्थं पापास्रववर्जनाय सामायिकं केवलिभि: प्रशस्तं प्रतिपादितं स्तुतमिति। यस्मात्तस्माद् गृहस्थधर्म: सारम्भारम्भादिप्रवृत्तिविशेषोऽपरमो जघन्य: संसारहेतुरिति ज्ञात्वा बुध: संयत: प्रशस्तं शोभनमात्महितं सामायिकं कुर्यादिति।।५३४।।
पुनरपि सामायिकमाहात्म्यमाह–
सामाइयह्मि दु कदे समणो इर सावओ हवदि जह्मा।
एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा।।५३५।।
सामायिके तु कृते सति श्रावकोऽपि किल श्रमण: संयतो भवति। यस्मात्किंस्मश्चित् पर्वणि कश्चित् श्रावक: सामायिकसंयमं समत्वं गृहीत्वा श्मशाने स्थि (त:) तस्य पुत्रनप्तृबन्ध्वादिमरणपीडादिमहोपसर्ग: संजातस्तथाप्यसौ न सामायिकव्रतान्निर्गत:। भावश्रमण: संवृत्तस्तर्हि श्रावकत्वं कथं ? प्रत्याख्यानमन्दतरत्वात्। अत्र कथा वाच्या। तस्मादनेन कारणेन बहुशो बाहुल्येन सामायिकं कुर्यादिति।।५३५।।
चार प्रकार के धर्मध्यान को और चार प्रकार के शुक्लध्यान को ध्याते हैं, हमेशा उनमें अपने को लगाते हैं उनके सर्वकाल सामायिक ठहरता है ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है। इस अन्तिम पंक्ति का सम्बन्ध सर्वत्र समझना चाहिए।
किसलिए सामायिक को कहा है ऐसी शंका होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–सावद्य योग का त्याग करने के लिए केवली भगवान् ने सामायिक कहा है। गृहस्थ धर्म जघन्य है, ऐसा जानकर विद्वान् प्रशस्त आत्महित को करे।।५३४।।
आचारवृत्ति–यह वृत्त छन्द है। सावद्य योग का त्याग करने के लिए अर्थात् पापास्रव का वर्जन करने के लिए केवली भगवान् ने सामायिक का प्रतिपादन किया है उसे स्तुत कहा गया है। क्योंकि गृहस्थ धर्म आरम्भ आदि का प्रवृत्ति विशेष रूप होने से जघन्य अर्थात् संसार का हेतु है ऐसा समझकर संयत मुनि प्रशस्त–शोभन आत्महित रूप सामायिक को करे।
पुनरपि सामायिक के माहात्म्य को कहते हैं–
गाथार्थ–सामायिक करते समय जिससे श्रावक भी श्रमण हो जाता है इससे तो बहुत बार सामायिक करना चाहिए।।५३५।।
आचारवृत्ति–सामायिक के करते समय श्रावक भी आश्चर्य है कि संयत हो जाता है अर्थात् मुनि सदृश हो जाता है। जैसे किसी पर्व में कोई श्रावक सामायिक संयम अर्थात् समता भाव को ग्रहण करके श्मशान में स्थित हो गया है–खड़ा हो गया है, उस समय, (किसी के द्वारा)उसके पुत्र, पौत्र, नाती बन्धुजन आदि के मरण अथवा उनको पीड़ा देना आदि महा-उपसर्ग हो रहे हैं या स्वयं के ऊपर उपसर्ग हो रहे हैं तो भी वह सामायिक व्रत से च्युत नहीं हुआ अर्थात् सामायिक के समय एकाग्रता रूप धर्मध्यान से चलायमान नहीं हुआ उस समय वह श्रमण होता है।
प्रश्न–यदि वह उस समय भाव श्रमण हो गया तब तो उसे श्रावकपना वैâसे रहा होगा ?
उत्तर–वह भाव-श्रमण नहीं है किन्तु श्रमण के सदृश उसे समझना चाहिए, क्योंकि उस समय उसके प्रत्याख्यान कषाय का उदय मन्दतर है। यहाँ पर (सुदर्शन आदि की) कथा कही जा सकती है। इसलिए बहुलता से सामायिक करना चाहिए।
पुनरपि सामायिकमाहात्म्यमाह–
सामाइए कदे सावएण विद्धो मओ अरणह्मि।
सो य मओ उद्धादो ण य सो सामाइयं फिडिओ।।५३६।।
सामाइए-सामायिके। कदे-कृते। सावएण-श्रावकेन। विद्धो-व्यथित: केनापि। मओ-मृगो हरिणपोत:। अरणम्मि-अरण्येऽटव्यां। सो य मओ-सोऽपि मृग:। उद्धादो-मृत: प्राणैर्विपन्न:। ण य सो-न चासौ। सामाइयं-सामायिकात्। फिडिओ-निर्गत: परिहीण:।
केनचिच्छ्रावकेणाटव्यां सामायिके कृते शल्येन विद्धो मृग: पादान्तरे आगत्य व्यवस्थितो वेदनार्त्त: सन् स्तोकबारं स्थित्वा मृतो मृगो नासौ श्रावक: सामायिकात् संयमान्निर्गत: संसारदोषदर्शनादिति, तेन कारणेन सामायिकं क्रियत इति सम्बन्ध:।।५३६।।
भावार्थ–कदाचित् किसी श्रावक ने अष्टमी या चतुर्दशी को दिन में या रात्रि में श्मशान भूमि में जाकर निश्चल ध्यान रूप सामायिक शुरू किया, उस समय उसने कुछ घण्टों का नियम कर लिया है और उतने समय तक सभी से समता भाव धारण करके वह राग-द्वेष रहित होकर स्थित हो गया है।
उस समय किसी देव या विद्याधर मनुष्य आदि ने पूर्व जन्म के वैरवश या दृढ़ता की परीक्षा हेतु उस पर उपसर्ग करना चाहा, उसके सामने उसके परिवार को, पुत्र, स्त्री आदि को मार डाला या उन्हें अनेक यातनाएँ देने लगा फिर भी वह श्रावक अपनी दृढ़ता से च्युत नहीं हुआ अथवा उस श्रावक पर ही उपसर्ग कर दिया उस समय वह श्रावक, उपसर्ग में वस्त्र जिन पर डाल दिया गया है ऐसे वस्त्र से वेष्टित मुनि के समान है।
अथवा जैसे सुदर्शन ने श्मशान में रात्रि में प्रतिमायोग ग्रहण किया था तब अभयमती रानी ने उसे अपने महल में मँगाकर उसके साथ नाना कुचेष्टा करते हुए उसे ब्रह्मचर्य से चलित करना चाहा था किन्तु वे सुदर्शन सेठ निर्विकार ही बने रहे थे। ऐसी अवस्था में वे निर्वस्त्र मुनि के ही समान थे।
किन्तु इन श्रावकों के छठा, सातवाँ गुणस्थान न हो सकने के कारण ये भाव से मुनि नहीं हो सकते हैं। अतः ये भावसंयत या श्रमण नहीं कहलाते हैं किन्तु इनके प्रत्याख्यान कषाय का उदय उस समय अत्यन्त मन्दतर रहता है अतः ये यहाँ श्रमण कहे गये हैं। इससे ‘श्रमण सदृश’ ऐसा अर्थ ही समझना।
पुनरपि सामायिक के माहात्म्य को कहते हैं–
गाथार्थ–कोई श्रावक सामायिक कर रहा होता है। उस समय वन में कोई हरिण बाणों से बिद्ध हुआ आया और मर गया किन्तु उस श्रावक ने सामायिक भंग नहीं किया।।५३६।।
आचारवृत्ति–वन में कोई श्रावक सामायिक कर रहा है, उस समय किसी व्याध के द्वारा बाणों से विद्ध होकर व्यथित होता हुआ कोई हिरण वहाँ उस श्रावक के पैरों के बीच में आकर गिर पड़ा और वेदना से पीड़ित हुआ, वह तड़फता हुआ बार-बार उसके पास स्थित रह कर मर भी गया फिर भी वह श्रावक अपने सामायिक संयम से पृथक् नहीं हुआ अर्थात् सामायिक का नियम भंग नहीं किया, क्योंकि वह उस समय संसार की स्थिति का विचार करता रहा। इसलिए अनेक प्रकार से सामायिक करना चाहिए, यहाँ ऐसा सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए।
भावार्थ–वन में या श्मशान में जाकर सामायिक वे ही श्रावक करेंगे, जो अतिशय धीर-वीर और स्थिरचित्त वाले हैं। अतः उनका यहाँ पर करुणापूर्वक उस जीव की रक्षा की तरफ कोई विशेष लक्ष्य नहीं होता। वे तो अपने धर्मध्यान में अतिशय स्थित होकर अपनी शुद्धात्मा की भावना कर रहे होते हैं।
इस केन सामायिकमुद्दिष्टमित्याशंकायामाह–
बावीसं तित्थयरा सामायियसंजमं उवदिसंति।
छेदुवठावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य।।५३७।।
द्वािंवशतितीर्थंकरा अजितादिपार्श्वनाथपर्यन्ता:, सामायिकसंयममुपदिशन्ति प्रतिपादयन्ति। छेदोपस्थानं पुन: संयमं वृषभो वीरश्च प्रतिपादयत:।।५३७।।
किमर्थं वृषभमहावीरौ छेदोपस्थापनं प्रतिपादयतो यस्मात्–
आचक्खिदुं विभजिदुं विण्णादुं चावि सुहदरं होदि।
एदेण कारणेण दु महव्वदा पंच पण्णत्ता।।५३८।।
आचक्खिदुं-आख्यातुं कथयितुं आस्वादयितुं वा। विभयिदुं-विभक्तुं पृथक्-पृथव्â भावयितुं। विण्णादुं-विज्ञातुमवबोद्धुं चापि। सुहदरं-सुखतरं सुखग्रहणं। होदि-भवति। एदेण-एतेन। कारणेन महव्वदा-महाव्रतानि। पंच पण्णत्ता-पंच प्रज्ञप्तानि। यस्मादन्यस्मै प्रतिपादयितुं स्वेच्छयानुष्ठातुं विभक्तुं, विज्ञातुं चापि भवति सुखतरं सामायिकं, तेन कारणेन महाव्रतानि पंच प्रज्ञप्तानीति।।५३८।।
किमर्थ १मादितीर्थेऽन्ततीर्थे च छेदोपस्थापन२संयममित्याशंकायामाह–
उदाहरण को सामायिक करनेवाले घर में या मन्दिर में बैठकर ध्यान का अभ्यास करते हुए श्रावक अपने में नहीं घटा सकते हैं। वे सामायिक छोड़कर उस समय उस जीव की रक्षा का प्रयत्न कर सकते हैं। यदि रक्षा न कर सकें तो उसे महामन्त्र सुनाते हुए तथा नाना प्रकार से सम्बोधन करके शिक्षा देते हुए उसका भवान्तर सुधार सकते हैं पुनः गुरु के पास जाकर सामायिक भंग करने का अल्प प्रायश्चित्त लेकर अपनी शुद्धि कर सकते हैं।
किनने सामायिक का उपदेश किया है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–बाईस तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश देते हैं किन्तु भगवान् वृषभदेव और महावीर छेदोपस्थापना संयम का उपदेश देते हैं।।५३७।।
अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश देते हैं। किन्तु छेदोपस्थापना संयम का वर्णन वृषभदेव और वर्द्धमान स्वामी ने ही किया है।
भावार्थ–यहाँ पर अभेद संयम का नाम सामायिक संयम है और मूलगुण आवश्यक क्रिया आदि से भेदरूप संयम का नाम छेदोपस्थापना संयम है ऐसा समझना।
वृषभदेव और महावीर ने छेदोपस्थापना का प्रतिपादन किसलिए किया है ? सो ही बताते हैं–
गाथार्थ–जिस हेतु से कहने, विभाग करने और जानने के लिए सरल होता है उस हेतु से महाव्रत पाँच कहे गये हैं।।५३८।।
आचारवृत्ति–कहने के लिए अथवा अनुभव करने के लिए तथा पृथक्-पृथक् भावित करने के लिए और समझने के लिए भी जिनका सुख से अर्थात् सरलता से ग्रहण हो जाता है। अर्थात् जिस हेतु से अन्य शिष्यों को प्रतिपादन करने के लिए, अपनी इच्छानुसार उनका अनुष्ठान करने के लिए, विभाग करके समझने के लिए भी सामायिक संयम सरल हो जाता है इसलिए महाव्रत पाँच कहे गये हैं।
आदितीर्थ में और अन्ततीर्थ में छेदोपस्थापना संयम को किसलिए कहा ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं–आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुट्ठु दुरणुपाले य।
पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति।।५३९।।
आदितीर्थे शिष्या: दु:खेन शोध्यन्ते सुष्ठु ऋजुस्वभावा यत:। तथा पश्चिमतीर्थे शिष्या: दु:खेन प्रतिपाल्यन्ते सुष्ठु वक्रस्वभावा यत:। पूर्वकालशिष्या: पश्चिमकालशिष्याश्च अपि स्फुटं कल्प्यं-योग्यं, अकल्प्यं अयोग्यं च न जानन्ति यतस्तत: आदौ निधने च छेदोपस्थानमुपदिशत इति।।५३९।।
सामायिककरणक्रममाह–
पडिलिहियअंजलिकरो उवजुत्तो उट्ठिऊण एयमणो।
अव्वाखित्तो वुत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू।।५४०।।
प्रतिलेखितावञ्जलिकरौ येनासौ प्रतिलेखिताञ्जलिकर:। उपयुक्त: समाहितमति:, उत्थाय-स्थित्वा, एकाग्रमना अव्याक्षिप्त:, आगमोक्तक्रमेण करोति सामायिकं भिक्षु:। अथवा प्रतिलेख्य शुद्धो भूत्वा द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिं कृत्वा, प्रकृष्टाञ्जलि १करमुकलितकर: प्रतिलेखनेन सहिताञ्जलिकरो वा सामायिकं करोतीति।।५४०।।
गाथार्थ–आदिनाथ के तीर्थ में शिष्य कठिनता से शुद्ध होने से तथा अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में दुःख से उनका पालन होने से वे पूर्व के शिष्य और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य योग्य और अयोग्य को नहीं जानते है।।५३९।।
आचारवृत्ति–आदिनाथ के तीर्थ में शिष्य दुःख से शुद्ध किये जाते हैं, क्योंकि वे अत्यर्थ सरल स्वभावी होते हैं। तथा अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में शिष्यों का दुःख से प्रतिपालन किया जाता है, क्योंकि वे अत्यर्थ वक्रस्वभावी होते हैं। ये पूर्वकाल के शिष्य और पश्चिम काल के शिष्य–दोनों समय के शिष्य भी स्पष्टतया योग्य अर्थात् उचित और अयोग्य अर्थात अनुचित नहीं जानते हैं इसीलिए आदि और अन्त के दोनों तीर्थंकरों ने छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है।
भावार्थ–आदिनाथ के तीर्थ के समय भोगभूमि समाप्त होकर ही कर्मभूमि प्रारम्भ हुई थी, अतः उस समय के शिष्य बहुत ही सरल और किन्तु जड़ (अज्ञान) स्वभाव वाले थे तथा अन्तिम तीर्थंकर के समय पंचमकाल का प्रारम्भ होने वाला था अतः उस समय के शिष्य बहुत ही कुटिल परिणामी और जड़ स्वभावी थे इसीलिए इन दोनों तीर्थंकरों ने छेद अर्थात् भेद के उपस्थापन अर्थात् कथन रूप पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है।
शेष बाईस तीर्थकरों के समय के शिष्य विशेष बुद्धिमान थे, इसीलिए उन तीर्थंकरों ने मात्र ‘सर्व सावद्य योग’ के त्यागरूप एक सामायिक संयम का ही उपदेश दिया है; क्योंकि उनके लिए उतना ही पर्याप्त था।
आज भगवान् महावीर का ही शासन चल रहा है अतः आज-कल के सभी साधुओं को भेदरूप चारित्र के पालन का ही उपदेश है।
अब सामायिक करने का क्रम कहते हैं–
गाथार्थ–प्रतिलेखन सहित अंजलि जोड़कर, उपयुक्त हुआ, उठकर एकाग्रमन होकर, मन को विक्षेप रहित करके, मुनि सामायिक करता है।। ५४०।।
आचारवृत्ति-जिन्होंने पिच्छी को लेकर अंजलि जोड़ ली है, जो सावधान बुद्धिवाले हैं, वे मुनि व्याक्षिप्त चित्त न होकर, खड़े होकर एकाग्रमन होते हुए, आगम में कथित विधि से सामायिक करते हैं। अथवा पिच्छी से प्रतिलेखन करके शुद्ध होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि को करके प्रकृष्ट रूप से अंजलि को सामायिकनिर्युक्तिमुपसंहर्तुं चतुर्विंशतिस्तवं सूचयितुं प्राह–
सामाइयणिज्जुत्ती एसा कहिया मए समासेण।
चउवीसयणिज्जुत्ती एतो उड्ढं पवक्खामि।।५४१।।
सामायिकनिर्युक्तिरेषा कथिता समासेन। इत ऊर्ध्वं चतुर्विंशतिस्तवनिर्युक्तिं प्रवक्ष्यामीति।।५४१।।
१तदवबोधनार्थं २निक्षेपमाह–
णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य।
एसो थवह्मि णेओ णिक्खेवो छव्विहो होई।।५४२।।
नामस्तव: स्थापनास्तवो द्रव्यस्तव: क्षेत्रस्तव: कालस्तवो भावस्तव एष स्तवे निक्षेप: षड्विधो भवति ज्ञातव्य:। चतुर्विंशतितीर्थंकराणां यथार्थानुगतैरष्टोत्तरसहस्रसंख्यैर्नामभि: स्तवनं चतुर्विंशतिनामस्तव:, चतुर्विंशतितीर्थंकराणामपरिमितानां कृत्रिमाकृत्रिमस्थापनानां स्तवनं चतुर्विंशतिस्थापनास्तव:। तीर्थंकरशरीराणां परमौदारिकस्वरूपाणां वर्णभेदेन स्तवनं द्रव्यस्तव:।
वैâलाससम्मेदोर्जयन्तपावाचम्पानगरादिनिर्वाणक्षेत्राणां समवसृतिक्षेत्राणां च स्तवनं क्षेत्रस्तव:। स्वर्गावतरण-जन्मनिष्क्रमणकेवलोत्पत्तिनिर्वाणकालानां स्तवनं कालस्तव: केवलज्ञानकेवलदर्शनादिगुणानां स्तवनं भावस्तव:।
अथवा जातिद्रव्यगुणक्रियानिरपेक्षं संज्ञाकर्म चतुर्विंशतिमात्रं नामस्तव:। चतुर्विंशतितीर्थंकराणां साकृत्यनाकृतिवस्तुनि गुणानारोप्य स्तवनं स्थापनास्तव:। द्रव्यस्तवो द्विविध: आगमनोआगमभेदेन। चतुर्विंशतिस्तवव्यावर्णनप्राभृतज्ञाय्यनुपयुक्त आगमद्रव्यस्तव:।
मुकुलित/कमलाकार बना कर अथवा प्रतिलेखन–पिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर सामायिक करते हैं।
सामायिक निर्युक्ति का उपसंहार कर अब चतुर्विंशति स्तव को सूचित करते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–मैंने संक्षेप में यह सामायिक निर्युक्ति कही है इससे आगे चतुर्विंशति स्तव को कहूँगा।।५४१।।
आचारवृत्ति–गाथा सरल होने से टीका नहीं है।
द्वितीय आवश्यक का ज्ञान कराने के लिए कहते हैं–
गाथार्थ–नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव स्तव में यह छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए।।५४२।।
आचारवृत्ति–स्तव में नामस्तव, स्थापनास्तव, द्रव्यस्तव, क्षेत्रस्तव, कालस्तव और भावस्तव यह छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए। चौबीस तीर्थंकरों के वास्तविक अर्थ का अनुसरण करने वाले एक हजार आठ नामों से स्तवन करना चतुर्विंशति नामस्तव है। चौबीस तीर्थकरों की कृत्रिम-अकृत्र्िाम प्रतिमाएँ स्थापना प्रतिमाएँ हैं जो कि अपरिमित हैं।
अर्थात् कृत्रिम प्रतिमाएँ अगणित हैं, अकृत्रिम प्रतिमाएँ तो असंख्य हैं उनका स्तवन करना चतुर्विंशति स्थापना-स्तव है। तीर्थंकरों के शरीर, जो कि परमौदारिक हैं, के वर्णभेदों का वर्णन करते हुए स्तवन करना द्रव्यस्तव है। कैलाशगिरि, सम्मेदगिरि, ऊर्जयन्तगिरि, पावापुरी, चम्पापुरी आदि निर्वाण क्षेत्रों का और समवसरण क्षेत्रों का स्तवन करना क्षेत्रस्तव है।
स्वर्गावतरण, जन्म, निष्क्रमण, केवलोत्पत्ति और निर्वाणकल्याणक के काल का स्तवन करना अर्थात् उन-उन कल्याणकों के दिन भक्तिपाठ आदि करना या उन-उन तिथियों की स्तुति करना कालस्तव है। तथा केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि गुणों का स्तवन करना भावस्तव है।
अथवा जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया से निरपेक्ष चतुर्विंशति मात्र का नामकरण है वह नामस्तव है।
चौबीस तीर्थंकरों की आकारवान अथवा अनाकारवान अर्थात् तदाकार अथवा अतदाकार वस्तु में गुणों का आरोपण करके स्तवन करना स्थापनास्तव है।चतुर्विंशतिस्तवव्यावर्णनप्राभृत१ज्ञायक-शरीरभाविजीवतद्व्यतिरिक्तभेदेन नोआगमद्रव्यस्तवस्त्रिविध:, पूर्ववत्सर्वमन्यत्। चतुर्विंशतिस्तवसहितं क्षेत्रं कालश्च क्षेत्रस्तव: कालस्तवश्च। भावस्तव आगमनोआगमभेदेन द्विविध:।
चतुर्विंशतिस्तवव्यावर्णन-प्राभृतज्ञायी उपयुक्त आगमभावचतुर्विंशतिस्तव:। चतुर्विंशतिस्तवपरिणतपरिणामो नोआगमभावस्तवइति। भरतैरावतापेक्षश्चतुर्विंशतिस्तव उक्त:। पूर्वविदेहा२परविदेहापेक्षस्तु सामान्यतीर्थकरस्तव इति कृत्वा न दोष इति।।५४२।।
अत्र नामस्तवेन भावस्तवेन प्रयोजनं सर्वैर्वा प्रयोजनं।
तदर्थमाह–लोगुज्जोए धम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहंते।
कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहिं मम दिसंतु।।५४३।।
लोको जगत्। उद्योत: प्रकाश:। धर्मं उत्तमक्षमादि:। तीर्थं संसारतारणोपायं। धर्ममेव तीर्थं कुर्वन्तीति धर्मतीर्थंकरा:। कर्मारातीन् जयन्तीति जिनास्तेषां वरा प्रधाना जिनवरा:। अर्हन्त: सर्वज्ञा:। कीर्तनं प्रशंसनं कीर्तनीया वा केवलिन: सर्वप्रत्यक्षावबोधा:। एवं च। उत्तमा: प्रकृष्टा: सर्वपूज्या:। मे बोधिं संसारानिस्तरणोपायं।
दिशन्तु ददतु। एवं स्तव: आगम और नोआगम के भेद से द्रव्यस्तव दो प्रकार का है। जो चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन का वर्णन करने वाले प्राभृत का ज्ञाता है किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है ऐसा आत्मा आगमद्रव्यस्तव है। नो-आगम द्रव्यस्तव के तीन भेद हैं-ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त। चौबीस तीर्थंकरों के स्तव का वर्णन करनेवाले प्राभृत के ज्ञाता का शरीर ज्ञायकशरीर है। इसके भी भूत, भविष्यत्, वर्तमान की अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं। बाकी सब पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
चौबीस तीर्थंकरों से सहित क्षेत्र का स्तवन करना क्षेत्रस्तव है। चौबीस तीर्थंकरों से सहित काल अथवा गर्भ, जन्म आदि का जो काल है उनका स्तवन करना काल–स्तव है।
भावस्तव भी आगम, नोआगम की अपेक्षा दो प्रकार का है। चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन का वर्णन करने वाले प्राभृत के जो ज्ञाता हैं और उपयोग भी जिनका लगा हुआ है उन्हें आगमभाव चतुर्विंशति–स्तव कहते हैं।
चतुर्विंशति तीर्थंकरों के स्तवन से परिणत हुए परिणाम को नोआगम भाव–स्तव कहते हैं।
भरत और ऐरावत क्षेत्रों की अपेक्षा यह चतुर्विंशति स्तव कहा गया है। किन्तु पूर्व-विदेह और अपरविदेह की अपेक्षा से सामान्य तीर्थंकर स्तव समझना चाहिए। इस प्रकार से इसमें कोई दोष नहीं हैं।
अर्थात् पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में ही चतुर्थ काल में चौबीस–चौबीस तीर्थंकर होते हैं किन्तु एक सौ साठ विदेह क्षेत्रों में हमेशा ही तीर्थंकर होते रहते हैं अत: उनकी संख्या का कोई नियम नहीं है। उनकी अपेक्षा से इस आवश्यक को सामान्यतया तीर्थंकर स्तव ही कहना चाहिए इसमें कोई दोष नहीं है।
यहाँ पर नामस्तव से प्रयोजन है या भावस्तव से अथवा सभी स्तवों से ? ऐसा प्रश्न होने पर उसी का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-लोक में उद्योत करने वाले धर्म तीर्थ के कर्ता अर्हन्त केवली जिनेश्वर प्रशंसा के योग्य हैं। वे मुझे उत्तम बोधि प्रदान करें।।५४३।।
आचारवृत्ति-लोक अर्थात् जगत् में उद्योत अर्थात् प्रकाश को करने वाले लोकोद्योतकर कहलाते हैं। उत्तमक्षमादि को धर्म कहते हैं और संसार से पार होने के उपाय को तीर्थ कहते हैं अत: यह धर्म ही तीर्थ है। इस धर्मतीर्थ को करनेवाले अर्थात् चलानेवाले धर्म तीर्थंकर कहलाते हैं। कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले को क्रियते।
अर्हन्तो लोकोद्योतकरा धर्मतीर्थकरा जिनवरा: केवलिन उत्तमाश्च ये तेषां कीर्तनं प्रशंसनं बोधिं मह्यं दिशन्तु प्रयच्छन्तु। अथवा एते अर्हंतो धर्मतीर्थकरा लोकोद्योतकरा: जिनवरा: कीर्तनीया उत्तमा: केवलिनो मम बोिंध दिशन्तु। अथवा अर्हन्त: सर्वविशेषणविशिष्टा: केवलिनां च कीर्तनं मह्यं बोधिं प्रयच्छन्त्विति सम्बन्ध:।।५४३।।
एतैर्दशभिरधिकारैश्चतुर्विंशतिस्तवो व्याख्यायत इति कृत्वादौ तावल्लोकनिरुक्तिमाह–
लोयदि आलोयदि पल्लोयदि सल्लोयदित्ति एगत्थो१।
जह्मा जिणेिंह कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ।।५४४।।
लोक्यते आलोक्यते प्रलोक्यते संलोक्यते दृश्यते इत्येकार्थ:। वैâर्जिनैरिति तस्माल्लोक इत्युच्यते ? कथं छद्मस्थावस्थायां–मतिज्ञानश्रुतज्ञानाभ्यां लोक्यते दृश्यते यस्मात्तस्माल्लोक:।
अथवावधिज्ञानेनालोक्यते पुद्गलमर्यादारूपेण दृश्यते यस्मात्तस्माल्लोक:। अथवा मन:पर्ययज्ञानेन प्रलोक्यते विशेषेण रूपेण दृश्यते यस्मात्तस्माल्लोक:। अथवा केवलज्ञानेन जिनै: कृत्स्नं यथा भवतीति तथा संलोक्यते सर्वद्रव्यपर्यायै: सम्यगुपलभ्यते यस्मात्तस्माल्लोक:। तेन कारणेन लोक: स इत्युच्यत इति।।५४४।।
जिन कहते हैं और उनमें वर अर्थात् जो प्रधान है वे जिनवर कहलाते हैं। सर्वज्ञदेव को अर्हन्त कहते हैं। तथा सर्व को प्रत्यक्ष करने वाला जिनका ज्ञान है वे केवली हैं। इन विशेषणों से विशिष्ट अर्हन्त भगवान् उत्तम हैं, प्रकृष्ट हैं, सर्व पूज्य हैं। ऐसे जिनेन्द्र भगवान् मुझे संसार से पार होने के लिए उपायभूत ऐसी बोधि को प्रदान करें। इस प्रकार से यह स्तव किया जाता है।
तात्पर्य यह है कि लोक में उद्योतकारी, धर्मतीर्थंकर, जिनवर, केवली, अर्हन्त भगवान् उत्तम हैं। इस प्रकार से उनका कीर्तन करना, उनकी प्रशंसा करना तथा ‘वे मुझे बोधि प्रदान करें ’ ऐसा कहना ही स्तव है। अथवा ये अर्हन्त, धर्मतीर्थंकर, लोकोद्योतकर, जिनवर, कीर्तनीय, उत्तम, केवली भगवान् मुझे बोधि प्रदान करें। अथवा अर्हन्त भगवान् सर्व विशेषणों से विशिष्ट हैं वे मुझे बोधि प्रदान करें ऐसा केवली भगवान् का स्तवन करना ही स्तव हैं।
अब आगे इन्हीं दश अधिकारों द्वारा चतुर्विंशतिस्तव का व्याख्यान किया जाता है। उसमें सर्वप्रथम लोक शब्द की निरुक्ति करते हुए आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-लोकित किया जाता है, आलोकित किया जाता है, प्रलोकित किया जाता है और संलोकित किया जाता है, ये चारों क्रियाएँ एक अर्थवाली हैं। जिस हेतु से जिनेन्द्रदेव द्वारा यह सब कुछ अवलोकित किया जाता है इसीलिए यह ‘लोक’ कहा जाता है।।५४४।।
आचारवृत्ति-लोकन करना-(अवलोकन करना), आलोकन करना, प्रलोकन करना, संलोकन करना और देखना ये शब्द पर्यायवाची शब्द हैं। जिनेन्द्र देव द्वारा यह सर्व जगत् लोकित-अवलोकित कर लिया जाता है इसीलिए इसकी ‘लोक’ यह संज्ञा सार्थक है।
यहाँ पर इन चारों क्रियाओं का पृथक्करण करते हुए भी टीकाकार स्पष्ट करते हैं। छद्मस्थ अवस्था में मति और श्रुत इन दो ज्ञानों के द्वारा यह सर्व ‘लोक्यते’ अर्थात् देखा जाता है इसीलिए इसे ‘लोक’ कहते हैं। अथवा अवधिज्ञान द्वारा मर्यादारूप से यह ‘आलोक्यते’ आलोकित किया जाता है इसलिए यह ‘लोक’ कहलाता है। अथवा मन:पर्ययज्ञान के द्वारा ‘प्रलोक्यते’ विशेष रूप से यह देखा जाता है अत: ‘लोक’ कहलाता है।
अथवा केवलज्ञान के द्वारा श्री जिनेन्द्र भगवान् इस सम्पूर्ण जगत् को जैसा है वैसा ही ‘संलोक्यते’ संलोकन करते हैं अर्थात् सर्व द्रव्य, पर्यायों को सम्यव्â प्रकार से उपलब्ध कर लेते हैं-जान लेते हैं इसलिए इसको ‘लोक’ इस नाम से कहा गया है।
नवप्रकारैर्निक्षेपैर्लोकस्वरूपमाह–
णाम ट्ठवणं दव्वं खेत्तं चिण्हं कसायलोओ य।
भवलोगो भावलोगो पज्जयलोगो य णादव्वो।।५४५।।
नात्र विभक्तिनिर्देशस्य प्राधान्यं प्राकृतेऽन्यथापि वृत्ते:। लोकशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। नामलोक: स्थापनालोको द्रव्यलोक: क्षेत्रलोकश्चिह्नलोक: कषायलोको भवलोको भावलोक: पर्यायलोकश्च ज्ञातव्य इति।।५४५।।
तत्र नामलोकं विवृण्वन्नाह–
णामाणि जाणि काणि१ चि सुहासुहाणि२ लोगह्मि।
णामलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं।।५४६।।
नामानि संज्ञारूपाणि, यानि कानिचिच्छुभान्यशुभानि च शोभनान्यशोभनानि च सन्ति विद्यंते जीवलोकेस्मिन् तन्नामलोकमनन्तजिनदर्शितं विजानीहि। न विद्यतेऽन्तो विनाशोऽवसानं वा येषां तेऽनन्तास्ते च ते जिनाश्चानन्तजिनास्तैर्दृष्टो यत: इति।।५४६।।
स्थापनालोकमाह–
ठविदं ठाविदं चावि जं िंकचि अत्थि लोगह्मि।
ठवणालोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं।।५४७।।
ठविदं–स्वत: स्थितमकृत्रिमं। ठाविदं–स्थापितं कृत्रिमं चापि यिंत्कचिदस्ति विद्यतेऽस्मिन् लोके तत्सर्वं स्थापनालोकमिति जानीहि, अनन्तजिनदर्शितत्वादिति।।५४७।।
नव प्रकार के निक्षेपों से लोक का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, चिह्न, कषायलोक, भवलोक, भावलोक और पर्यायलोक ये नवलोक जानना चाहिए।।५४५।।
आचारवृत्ति-यहाँ इस गाथा में लोक के निर्देश की विभक्ति प्रधान नहीं है क्योंकि प्राकृत में अन्यथा भी वृत्ति देखी जाती है। इनमें प्रत्येक के साथ ‘लोक’ शब्द को लगा लेना चाहिए। जैसे कि नामलोक, स्थापनालोक, द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, कषायलोक, भवलोक, भावलोक और पर्यायलोक, इन भेदों से लोक की व्याख्या नव प्रकार की हो जाती है।
उनमें से अब नामलोक का वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-लोक में जो कोई भी शुभ या अशुभ नाम हैं उनको अन्तरहित जिनेन्द्रदेव ने नामलोक कहा है ऐसा जानो।।५४६।।
आचारवृत्ति-इस जीव लोक में जो कुछ भी शोभन और अशोभन नाम हैं उनको अनन्त जिनेन्द्र ने नामलोक कहा है। जिनका अन्त अर्थात् विनाश या अवसान नहीं है वे अनन्त कहलाते हैं। ऐसे अनन्त विशेषण से विशिष्ट जिनेश्वरों ने देखा है-इस कारण से नामलोक ऐसा कहा है।
स्थापना लोक को कहते हैं-
गाथार्थ-इस लोक में स्थित और स्थापित जो कुछ भी है उसको अनन्त जिन द्वारा देखा गया स्थापना लोक समझो।।५४७।।
आचारवृत्ति-जो स्वत: स्थित है वह अकृत्रिम है और जो स्थापना निक्षेप से स्थापित किया गया है वह कृत्रिम है। इस लोक में ऐसा जो कुछ भी है वह सभी स्थापना–लोक है ऐसा जानो, क्योंकि अनन्त जिनेश्वर ने उसे देखा है।
द्रव्यलोकस्वरूपमाह–
जीवाजीवं रूवारूवं सपदेसमप्पदेसं च।
दव्वलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं।।५४८।।
जीवाश्चेतनावन्त:। अजीवा: कालाकाशधर्माधर्मा: पुद्गला:। रूपिणो रूपरसगन्धस्पर्शशब्दवन्त: पुद्गला:। अरूपिण: कालाकाशधर्माधर्मा जीवाश्च। सप्रदेशा: सर्वे जीवादय:। अप्रदेशौ कालाणुपरमाणू च। एनं सर्वलोकं द्रव्यलोकं विजानीहि, अक्षयसर्वज्ञदृष्टो यत इति।।५४८।।
तथेममपि द्रव्यलोकं विजानीहीत्याह–
परिणाम जीव मुत्तं सपदेसं एक्कखेत्त किरिओ य।
णिच्चं कारण कत्ता सव्वगदिदरह्मि अपवेसो।।५४९।।
परिणामोऽन्यथाभावो विद्यते येषां ते परिणामिन:। के ते जीवपुदगला:। शेषाणि धर्माधर्मकालाकाशान्यपरिणामीनि कुतो द्रव्यार्थिकनयापेक्षया व्यञ्जनपर्यायं चाश्रित्यैतदुक्तं। पर्यायार्थिकनयापेक्षयान्वर्थपर्यायमाश्रित्य सर्वेऽपि परिणामापरिणामात्मका यत इति। जीवो जीवद्रव्यं चेतनालक्षणो यत:।
अजीवा: पुन: सर्वे पुदगलादयो ज्ञातृत्वदृष्टृत्वाद्य- भावादिति। मूर्तं पुद्गलद्रव्यं रूपादिमत्वात्। शेषाणि जीवधर्माधर्मकालाकाशान्यमूर्तानि रूपादिविरहितत्वात्। सप्रदेशानि सांशानि जीवधर्माधर्मपुद्गलाकाशानि१ प्रदेशबन्धदर्शनात्। अप्रदेशा: कालाणव: परमाणुश्च प्रचयाभावाद् बन्धाभावाच्च।
द्रव्यलोक का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-जीव, अजीव, रूपी, अरूपी तथा सप्रदेशी एवं अप्रदेशी को अनन्तजिन द्वारा देखा गया द्रव्यलोक जानो।।५४८।।
आचारवृत्ति-चेतनावान् जीव है और धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा पुदगल ये अजीव हैं। रूप, रस, गन्ध,स्पर्श और शब्दवाले पुदगल रूपी हैं। काल, आकाश, धर्म, अधर्म और जीव ये अरूपी हैं। सभी जीवादि द्रव्य सप्रदेशी हैं और कालाणु तथा परमाणु अप्रदेशी हैं अर्थात् ये एक प्रदेशी हैं। इस सर्वलोक को द्रव्यलोक समझो क्योंकि यह अक्षय सवज्ञदेव के द्वारा देखा गया है।
तथा इनको भी द्रव्यलोक जानो ऐसा आगे और कहते हैं-
गाथार्थ-परिणामी, जीव, मूर्त, सप्रदेश, एक, क्षेत्र, क्रियावान्, नित्य, कारण, कर्ता और सर्वगत तथा इनसे विपरीत अपरिणामी आदि के द्वारा द्रव्य लोक को जानना चाहिए।।५४९।।
आचारवृत्ति-परिणाम अर्थात् अन्य प्रकार से होना जिनमें पाया जाय वे द्रव्य परिणामी कहलाते हैं। वे जीव और पुदगल हैं। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य अपरिणामी हैं। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से व्यंजनपर्याय का आश्रय लेकर यह कथन किया गया है।
तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सेधर्माधर्माकाशान्येकरूपाणि सर्वदा प्रदेशविघाताभावात्। शेषा: संसारिजीवपुद्गलकाला अनेकरूपा: प्रदेशानां भेददर्शनात्। आकाशं क्षेत्रं सर्वपदार्थानामाधारत्वात्। शेषा जीवपुद्गलधर्माधर्मकाला अक्षेत्राणि अवगाहनलक्षणाभावात्। जीवपुद्गला: क्रियावन्तो गतेर्दर्शनात् शेषा धर्माधर्माकाशकाला अक्रियावन्तो गतिक्रियाया अभावदर्शनात्। नित्या धर्माधर्माकाशपरमार्थकाला व्यवहारनयापेक्षया व्यञ्जनपर्यायाभावमपेक्ष्य विनाशाभावात्।
जीवपुद्गला अनित्या व्यञ्जनपर्यायदर्शनात्। कारणानि पुद्गलधर्माधर्मकालाकाशानि जीवोपकारकत्वेन वृत्तत्वात्। जीवोऽकारणं स्वतंत्रत्वात्। जीव: कर्ता शुभाशुभभोत्तृâत्वात्। शेषा धर्माधर्मपुद्गलाकाशकाला अकर्तार: शुभाशुभभोत्तृâत्वाभावात् आकाशं सर्वगतं सर्वत्रोपलभ्यमानत्वात्। शेषाण्यसर्वगतानि जीवपुद्गलधर्माधर्मकालद्रव्याणि सर्वत्रोपलंभाभावात्।
तस्मात्परिणामजीवमूर्तसप्रदेशैैकक्षेत्रक्रियावन्नित्यकारणकर्तृ सर्वगति (गत) स्वरूपेण द्रव्यलोकं जानीहि, इतरैश्चापरिणामादिभि: प्रदेशै: द्रव्यलोकं जानीहीति सम्बन्ध:।।५४९।।
अन्वर्थपर्याय का आश्रय लेकर सभी द्रव्य परिणामापरिणामात्मक हैं अर्थात् सभी द्रव्य कथंचित् परिणामी हैं, कथंचित् अपरिणामी हैं। जीव द्रव्य चेतना लक्षणवाला है, बाकी पुद्गल आदि सभी अजीव द्रव्य हैं, क्योंकि इनमें ज्ञातृत्व, दृष्ट्रत्व आदि का अभाव है। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, क्योंकि वह रूपादिमान् है।
शेष जीव, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं, क्योंकि ये रूपादि से रहित हैं। जीव, धर्म, अधर्म, पुद्गल और आकाश सप्रदेशी हैं अर्थात् ये अंश सहित हैं ; क्योंकि इनमें प्रदेश–बन्ध देखा जाता है। कालाणु और परमाणु अप्रदेशी हैं क्योंकि इनमें प्रचय का अभाव है और बंध का भी अभाव है।
धर्म, अधर्म और आकाश ये एक रूप हैं अर्थात् अखण्ड हैं, क्योंकि हमेशा इनके प्रदेश के विघात का अभाव है। शेष संसारी जीव, पुद्गल और काल ये अनेकरूप हैं, चूँकि इनके प्रदेशों में भेद देखा जाता है। अर्थात् ये अनेक हैं इनके प्रदेश पृथव्â–पृथव्â हैं।
आकाश क्षेत्र है क्योंकि वह सर्व पदार्थों के लिए आधारभूत है। शेष जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल अक्षेत्र है क्योंकि इनमें अवगाहन लक्षण का अभाव है। जीव और पुद्गल क्रियावान् है क्योंकि इनकी गति देखी जाती है। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल अक्रियावान् हैं क्योंकि इनमें गति क्रिया का अभाव है।
धर्म, अधर्म, आकाश और परमार्थकाल नित्य हैं क्योंकि व्यवहार नय की अपेक्षा से, व्यंजन पर्याय के अभाव की अपेक्षा से उनका विनाश नहीं होता है। अर्थात् इन द्रव्यों में व्यंजन पर्याय नहीं होने से उनका विनाश नहीं होता है। जीव और पुद्गल अनित्य हैं क्योंकि इनमें व्यंजन पर्याय देखी जाती हैं।
अर्थात् जीव, पुद्गल भी द्रव्यार्थिक नय से नित्य हैं किन्तु व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से अनित्य हैं। पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश कारण हैं क्योंकि जीव के प्रति उपकार रूप से ये वर्तन करते हैं। किन्तु जीव अकारण है क्योंकि वह स्वतन्त्र है। जीव कर्ता है, क्योंकि वह शुभ और अशुभ का भोक्ता है। शेष धर्म, अधर्म, पुद्गल, आकाश और काल अकर्ता हैं, क्योंकि उनमें शुभ–अशुभ के भोत्तृâत्व का अभाव है। आकाश सर्वगत है क्योंकि वह सर्वत्र उपलब्ध हो रहा है। किन्तु शेष बचे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य असर्वगत हैं क्योंकि इनके सर्वत्र (लोकालोक में ) उपलब्ध होने का अभाव है।
इसलिए परिणाम, जीव, मूर्त, सप्रदेश, एक, क्षेत्र, क्रियावान, नित्य, कारण, कर्तृत्व और सर्वगत इन स्वरूप से द्रव्य लोक को जानो। इससे इतर अर्थात् अपरिणाम, अजीव, अमूर्त आदि प्रदेशों से द्रव्यलोक को जानो, ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
भावार्थ-यहाँ पर ‘भिन्न रूप धारण करना’ यह परिणाम का लक्षण किया है।
यह मात्र व्यंजन पर्याय की अपेक्षा रखता है। अन्यत्र परिणाम का लक्षण ऐसा किया है कि पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय को ग्रहण करते हुए अपने मूल स्वभाव को न छोड़ना उस लक्षणवाला परिणाम तो सभी द्रव्यों में पाया जाता है क्षेत्रलोकस्वरूपं विवृण्वन्नाह–
आयासं सपदेशं उड्ढमहो तिरियलोगं च।
खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं।।५५०।।
आकाशं सप्रदेशं प्रदेशै: सह। ऊर्ध्वलोकं मध्यलोकमधोलोकं च। एतत्सर्वं क्षेत्रलोकमनन्तजिनदृष्टं विजानीहीति।।५५०।।
चिह्नलोकमाह–
जं दिट्ठं संठाणं दव्वाण गुणाण पज्जयाणं च।
चिण्हलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं।।५५१।।
द्रव्यसंस्थानं धर्माधर्मयोर्लोकाकारेण संस्थानं। कालद्रव्यस्याकाशप्रदेशस्वरूपेण संस्थानं। आकाशस्य केवलज्ञानस्वरूपेण संस्थानं। लोकाकाशस्य गृहगुहादिस्वरूपेण संस्थानं। पुद्गलद्रव्यस्य लोकस्वरूपेण संस्थानं द्वीपनदीसागरपर्वतपृथिव्यादिरूपेण संस्थानं। जीवद्रव्यस्य समचतुरस्रन्यग्रोधादिस्वरूपेण संस्थानं।
गुणानां द्रव्याकारेण कृष्णनीलशुक्लादिस्वरूपेण वा इसलिए व्यंजन पर्याय की दृष्टि से जीव और पुद्गल इनमें ही परिणमन होता है। शेष चार द्रव्य अपरिणामी हो जाते हैं किन्तु अर्थपर्याय की अपेक्षा से छहों द्रव्य परिणामी हैं। कूटस्थ नित्य अपरिणामी नहीं है। जीव पुद्गल में अन्यथा परिणमन देखा जाता है किन्तु शेष द्रव्य अपने–अपने सजातीय परिणमन की अपेक्षा से परिणमनशील हैं। ऐसे ही, आगे भी छहों द्रव्यों में नय विवक्षा से यथायोग्य जीवत्व, मूर्तत्व, सप्रदेशत्व इत्यादि धर्म घटित करना चाहिए।
क्षेत्रलोक का स्वरूप कहते हैं-
ग्ााथार्थ-आकाश सप्रदेशी है। ऊर्ध्व, अधो और मध्य लोक हैं। अनन्त जिनेन्द्र द्वारा देखा गया यह सब क्षेत्रलोक है, ऐसा जानो।।५५०।।
आचारवृत्ति-आकाश अनन्त प्रदेशी है किन्तु लोकाकाश में असंख्यात प्रदेश हैं। उसमें ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक ऐसे भेद हैं। अनन्त-शाश्वत जिनेन्द्र देव के द्वारा देखा गया यह सब क्षेत्रलोक है ऐसा तुम समझो।
चिह्नलोक को कहते हैं-
गाथार्थ-द्रव्य, गुण और पर्यायों का जो आकार देखा जाता है अनन्त जिन द्वारा दृष्ट वह चिह्न लोक है ऐसा जानो।।५५१।।
आचारवृत्ति-पहले द्रव्य का संस्थान-आकार बताते हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य का लोकाकार से संस्थान है अर्थात् ये दोनों द्रव्य लोकाकाश में व्याप्त होने से लोकाकाश के समान ही आकारवाले हैं। काल द्रव्य का आकाश के एक प्रदेश स्वरूप से आकार है अर्थात् काल द्रव्य असंख्यात हैं। प्रत्येक कालाणु लोकाकाश के एक–एक प्रदेश पर स्थित हैं इसलिए जो एक प्रदेश का आकार है वही कालाणु का आकार है। आकाश का केवलज्ञान स्वरूप से संस्थान है।
लोकाकाश का घर, गुफा आदि स्वरूप से संस्थान है। पुद्गल द्रव्य का लोकस्वरूप से संस्थान है तथा द्वीप, नदी, सागर, पर्वत और पृथ्वी आदि रूप से संस्थान हैं। अर्थात् महास्कन्ध की अपेक्षा पुद्गल द्रव्य का आकार लोकाकाश जैसा है क्योंकि वह महास्कन्ध लोकाकाशव्यापी है। तथा अन्य पुद्गल स्कन्ध नदी, द्वीप आदि आकार से स्थित हैं।
जीव द्रव्य का समचतुरस्र, न्यग्रोध आदि स्वरूप से संस्थान है अर्थात् नाम कर्म के अन्तर्गत संस्थान के समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, वामन, कुब्जक और हुंडक ऐसे छह भेद माने हैं। जीव संसार में इन छहों में से किसी एक संस्थान को लेकरसंस्थानं। पर्यायाणां दीर्घह्नस्ववृत्तत्र्यस्रचतुरस्रादिनारकत्वतिर्यक्त्वमनुष्यदेवत्वादिस्वरूपेण संस्थानं। यद्दृष्टं संस्थानं द्रव्याणां गुणानां पर्यायाणां च चिह्नलोकं विजानीहीति।।५५१।।
कषायलोकमाह–
कोधो माणो माया लोभो उदिण्णा जस्स जंतुणो।
कसायलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं।।५५२।।
यस्य जन्तोर्जीवस्य क्रोधमानमायालोभा उदीर्णा उदयमागता: तं कषायलोकं विजानीहीति अनन्तजिनदर्शितम्।।५५२।।
भवलोकमाह–
णेरइयदेवमाणुसतिरिक्खजोणिं गदाय जे सत्ता।
णिययभवे वट्टं ता भवलोगं तं विजाणाहि।।५५३।।
नारकदेवमनुष्यतिर्यग्योनिषु गताश्च ये जीवा निजभवे निजायु:प्रमाणे वर्तमानास्तं भवलोकं विजानीहीति।।५५३।।
भावलोकमाह–
तिव्वो रागो य दोसो य उदिण्णा जस्स जंतुणो।
भावलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं।।५५४।।
ही शरीर धारण करता है तथा मुक्तजीव भी जिस संस्थान से मुक्त होते हैं उनके आत्म प्रदेश मुक्तावस्था में उसी आकार के ही रहते हैं। इस प्रकार यहाँ द्रव्यों के संस्थान कहे गये।
गुणों के संस्थान को कहते हैं-द्रव्य के आकार से रहना गुणों का संस्थान है अथवा कृष्ण, नील, शुक्ल आदि स्वरूप जो गुण हैं उन रूप से रहना गुणों का संस्थान है।
पर्यायों के संस्थान को भी बताते हैं-दीर्घ, ह्रस्व, गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण आदि तथा नारकत्व, तिर्यक्त्व, मनुष्यत्व और देवत्व आदि स्वरूप से आकार होना यह पर्यायों का संस्थान हैं। अर्थात् दीर्घ, ह्रस्व आदि आकार पुद्गल की पर्यायों के हैं। तथा नारकपना आदि संस्थान जीव की पर्यायों के हैं। इस प्रकार से जो भी द्रव्यों के, गुणों के तथा पर्यायों के संस्थान देखे जाते हैं उन्हें ही चिह्नलोक जानो।
कषायलोक को कहते हैं-
गाथार्थ-क्रोध, मान, माया और लोभ जिस जीव के उदय में आ रहे हैं, उसे अनन्त जिनदेव के द्वारा कथित कषायलोक जानो।।५५२।।
आचारवृत्ति-जिन जीवों के क्रोधादि कषायें उदय में आ रही हैं, उन कषायों को अथवा उनसे परिणत हुए जीवों को कषायलोक कहते हैं।
भवलोक को कहते हैं-
गाथार्थ-नारक, देव, मनुष्य और तिर्यंच योनि को प्राप्त हुए जो जीव अपने भव में वर्तमान हैं उन्हें भवलोक जानो।।५५३।।
आचारवृत्ति-नरक आदि योनि को प्राप्त हुए जीव अपने उस भव में अपनी-अपनी आयु प्रमाण जीवित रहते हैं। उन जीवों के भावों को या उन जीवों को ही भवलोक कहा है।
भावलोक को कहते हैं-
गाथार्थ-तीव्र राग और द्वेष जिस जीव के उदय में आ गये हैं उसे तुम अनन्तजिन के द्वारा कथित भावलोक जानो।।५५४।।
यस्य जन्तोस्तीव्रौ रागद्वेषौ प्रीतिविप्रीती उदीर्णौ उदयमागतौ तं भावलोकं विजानीहीति।।५५४।।
पर्यायलोकमाह–
दव्वगुणखेत्तपज्जय भवाणुभावो य भावपरिणामो।
जाण चउव्विहमेयं पज्जयलोगं समासेण।।५५५।।
द्रव्याणां गुणा ज्ञानदर्शनसुखवीर्यकर्तृत्वभोत्तृâत्वकृष्णनीलशुक्लरक्तपीतगतिकारकत्वस्थितिकारकत्वावगाहनागुरु-लघुवर्तनादय:। क्षेत्रपर्याया: सप्तनरकपृथ्वीप्रदेशपूर्वविदेहापरविदेहभरतैरावतद्वीपसमुद्रत्रिषष्टिस्वर्गभूमिभेदादय:। भवानामनुभव: आयुषो जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्प:।
भावो १नाम परिणामोऽसंख्यातलोकप्रदेशमात्र: शुभाशुभरूप: कर्मादाने परित्यागे वा२ समर्थ:। द्रव्यस्य गुणा: पर्यायलोक:, क्षेत्रस्य पर्याया: पर्यायलोक:, भवस्यानुभवा: पर्यायलोक:, भावो नाम परिणाम: पर्यायलोक:। एवं चतुर्विधं पर्यायलोकं समासेन जानीहीति।।५५५।।
उद्योतस्य स्वरूपमाह–
उज्जोवो खलु दुविहो णादव्वो दव्वभावसंजुत्तो।
दव्वुज्जोवो३अग्गी चंदो सूरो मणी चेव।।५५६।।
आचारवृत्ति-जिस जीव के तीव्र राग-द्वेष उदय को प्राप्त हुए हैं, अर्थात् किसी में प्रीति, किसी में अप्रीति चल रही है उन उदयागत भावों को ही भावलोक कहते हैं।
पर्यायलोक को कहते हैं-
गाथार्थ-द्रव्यगुण, क्षेत्र पर्याय, भवानुभाव और भाव परिणाम, संक्षेप से यह चार प्रकार का पर्यायलोक जानो।।५५५।।
आचारवृत्ति-द्रव्यों के गुण-ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, कर्तृत्व और भोक्तृत्व ये जीव के गुण हैं। कृष्ण, नील, शुक्ल, रक्त और पीत ये पुद्गल के गुण हैं। गतिकारकत्व धर्म द्रव्य का गुण है। स्थितिकारकत्व यह अधर्म द्रव्य का गुण है। अवगाहनत्व आकाश द्रव्य का गुण है। अगुरुलघु गुण सब द्रव्यों का गुण है और वर्तना आदि काल का गुण है।
क्षेत्रपर्याय-सप्तम नरक पृथ्वी के प्रदेश, पूर्वविदेह, अपरविदेह, भरतक्षेत्र, ऐरावतक्षेत्र, द्वीप, समुद्र, त्रेसठ स्वर्गपटल इत्यादि भेद क्षेत्र की पर्यायें हैं। भवानुभाव-आयु के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद भवानुभाव हैं।
भावपरिणाम-भाव अर्थात् परिणाम ये असंख्यात लोक प्रदेश प्रमाण हैं, शुभ-अशुभरूप हैं। ये कर्मों को ग्रहण करने में अथवा कर्मों का परित्याग करने में समर्थ हैं। अर्थात् आत्मा के शुभ-अशुभ परिणामों से कर्म आते हैं तथा उदय में आकर फल देकर नष्ट भी हो जाते हैं।
द्रव्य के गुण पर्यायलोक हैं, क्षेत्र की पर्यायें पर्यायलोक हैं, भव का अनुभव पर्यायलोक है और भावरूप परिणाम पर्यायलोक है। इस प्रकार संक्षेप से पर्यायलोक चार प्रकार का है, ऐसा जानो। इस तरह नव प्रकार के निक्षेप से नवप्रकार के लोक का स्वरूप कहा गया है।
उद्योत का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-द्रव्य और भाव से युक्त उद्योत निश्चय से दो प्रकार का जानना चाहिए। अग्नि, चन्द्र, सूर्य और मणि ये द्रव्य उद्योत हैं।।५५६।।
उद्योत: प्रकाश खलु द्विविध: स्फुटं ज्ञातव्यो द्रव्यभावभेदेन। द्रव्यसंयुक्तो भावसंयुक्तश्च। तत्र द्रव्योद्योतोऽग्निश्चन्द्र: सूर्यो मणिश्च। एवकार: प्रकारार्थ:। एवंविधोऽन्योऽपि द्रव्योद्योतो ज्ञात्वा वक्तव्यं इति।।५५६।।
भावोद्योतं निरूपयन्नाह–
भावुज्जोवो णाणं जह भणियं सव्वभावदरिसीिंह।
तस्स दु पओगकरणे भावुज्जोवोत्ति णादव्वो।।५५७।।
भावोद्योतो नाम ज्ञानं यथा भणितं सर्वभावदर्शिभि: येन प्रकारेण सर्वपदार्थदर्शिभिर्ज्ञानमुक्तं तद्भावोद्योत: परमार्थोद्योतस्तथा ज्ञानस्योपयोगकरणात् स्वपरप्रकाशकत्वाद्भावोद्योत इति ज्ञातव्य:।।५५७।।
पुनरपि भावोद्योतस्य भेदमाह–
पंचविहो खलु भणिओ भावुज्जोवो य जिणविंरदेिंह।
आभिणिबोहियसुदओहि-णाणमणकेवलमओ१ य।।५५८।।
स भावोद्योतो जिनवरेन्द्रै: पंचविध: पंचप्रकार: खलु स्फुटं, भणित: प्रतिपादित:। आभिनिबोधिक–श्रुतावधिज्ञानमन:- पर्ययकेवलमयो मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानभेदेन पंचप्रकार इति।।५५८।।
िद्रव्यभावोद्योतयो: स्वरूपमाह–
आचारवृत्ति-उद्योत-प्रकाश स्पष्टरूप से द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। अर्थात् द्रव्यसंयुक्त और भावसंयुक्त उद्योत। उसमें अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा और मणि ये द्रव्य-उद्योत हैं। इसी प्रकार के अन्य भी द्रव्य-उद्योत जानकर कहना चाहिए। अर्थात् प्रकाशमान पदार्थ को यहाँ द्रव्य-उद्योत कहा गया है।
भाव- उद्योत को कहते हैं-
गाथार्थ-भाव-उद्योत ज्ञान है जैसाकि सर्वज्ञदेव के द्वारा कहा गया है। उसके उपयोग करने में भाव उद्योत है ऐसा जानना चाहिए।।५५७।।
आचारवृत्ति-जिस प्रकार से सर्वपदार्थ के देखने, जाननेवाले सर्वज्ञदेव ने ज्ञान का कथन किया है वह भाव उद्योत है, वही परमार्थ उद्योत है। वह ज्ञान स्वपर का प्रकाशक होने से भाव उद्योत है ऐसा जानना चाहिए। अर्थात् ज्ञान ही चेतन-अचेतन पदार्थों का प्रकाशक होने से सच्चा प्रकाश है।
पुनः भाव-उद्योत के भेद कहते हैं-
गाथार्थ-जिनवर देव ने निश्चय से भावोद्योत पाँच प्रकार का कहा है। वह आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं ऐसा जानना।।५५८।।
आचारवृत्ति-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के भेद से वह भावोद्योत पाँच प्रकार का है ऐसा श्रीजिनेन्द्र ने कहा है।
द्रव्यभाव उद्योत का स्वरूप कहते हैं-
दव्वुज्जोवोजोवो पडिहण्णदि परिमिदह्मि खेत्तह्मि।
भावुज्जोवोजोवो लोगालोगं पयासेदि।।५५९।।
द्रव्योद्योतो य उद्योत: स प्रतिहन्यतेऽन्येन द्रव्येण परिमिते च क्षेत्रे वर्तते। भावोद्योत: पुनरुद्योतो लोकमलोकं च प्रकाशयति न प्रतिहन्यते नापि परिमिते क्षेत्रे वर्ततेऽप्रतिघातिसर्वगतत्वादिति।।५५९।।
तस्मात्–
लोगस्सुज्जोवयरा दव्वुज्जोएण ण हु जिणा होंति।
भावुज्जोवयरा पुण होंति जिणवरा चउव्वीसा।।५६०।।
लोकस्योद्योतकरा द्रव्योद्योतेन नैव भवन्ति जिना:। भावोद्योतकरा: पुनर्भवन्ति जिनवराश्चतुर्विंशति:। अतो भावोद्योतेनैव लोकस्योद्योतकरा जिना इति स्थितमिति। लोकोद्योतकरा इति व्याख्यातं।।५६०।।
धर्मतीर्थकरा इति पदं व्याख्यातुकाम: प्राह–
तिविहो य होदि धम्मो सुदधम्मो अत्थिकायधम्मो य।
तदिओ चरित्तधम्मो सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं।।५६१।।
धर्मस्तावत्त्रिप्रकारो भवति। श्रुतधर्मोऽस्तिकायधर्मस्तृतीयश्चारित्रधर्म:। अत्र पुन: श्रुतधर्मस्ती१र्थान्तरं संसारसागरं तरन्ति येन तत्तीर्थमिति।।५६१।।
गाथार्थ-द्रव्योद्योत रूप प्रकाश अन्य से बाधित होता है, परिमित क्षेत्र में रहता है और भावोद्योत प्रकाश, लोक-अलोक को प्रकाशित करता है।। ५५९।।
आचारवृत्ति-जो द्रव्योद्योत का प्रकाश है वह अन्य द्रव्य के द्वारा नष्ट हो जाता है और सीमित क्षेत्र में रहता है। किन्तु भावोद्योत रूप प्रकाश लोक और अलोक को प्रकाशित करता है, किसी के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता है और न परिमित क्षेत्र में ही रहता है; क्योंकि वह अप्रतिघाती और सर्वगत है।
अर्थात् ज्ञानरूप प्रकाश सर्व लोक-अलोक को प्रकाशित करनेवाला है, किसी मेघ या राहु आदि के द्वारा बाधित नहीं होता है और सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है। किन्तु सूर्य, मणि आदि के प्रकाश अन्य के द्वारा रोके जा सकते हैं एवं स्वल्प क्षेत्र में ही प्रकाश करनेवाले हैं।
इसलिए-
गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् निश्चितरूप से द्रव्यउद्योत के द्वारा लोक को प्रकाशित करनेवाले नहीं होते हैं, किन्तु वे चौबीसों तीर्थंकर तो भावोद्योत से प्रकाश करनेवाले होते हैं।।५६०।।
आचारवृत्ति-चौबीस तीर्थंकर द्रव्य प्रकाश से लोक को प्रकाशित नहीं करते हैं, किन्तु वे ज्ञान के प्रकाश से ही लोक का उद्योत करने वाले होते हैं यह बात व्यवस्थित हो गई। इस तरह ‘लोकोद्योतकरा’ इसका व्याख्यान हुआ।
‘धर्मतीर्थकरा’ इस पद का व्याख्यान करते हैं-
गाथार्थ-धर्म तीन प्रकार का है-श्रुतधर्म, अस्तिकायधर्म और चारित्रधर्म। किन्तु यहाँ श्रुतधर्म तीर्थ है।।५६१।।
आचारवृत्ति-श्रुतधर्म, अस्तिकाय धर्म और चारित्रधर्म इन तीनों में श्रुतधर्म को तीर्थ माना है। जिससे संसार सागर को तिरते हैं वह तीर्थ है, सो यह श्रुत अर्थात् जिनदेव कथित आगम ही सच्चा तीर्थ है।
तीर्थस्य स्वरूपमाह–
दुविहं च होइ तित्थं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं।
एदेसिं दोण्हं पि य पत्तेय परूवणा होदि।।५६२।।
द्विविधं च भवति तीर्थं द्रव्यसंयुक्तं भावसंयुक्तं चेति।
द्रव्यतीर्थमपरमार्थरूपं। भावतीर्थं पुन: परमार्थभूतमन्यापेक्षाभावात्।
एतयोर्द्वयोरपि तीर्थयो: प्रत्येकं प्ररूपणा भवति।।५६२।।
द्रव्यतीर्थ१स्य स्वरूपमाह–
दाहोपसमण तण्हाछेदो मलपंकपवहणं चेव।
तिहिं कारणेिंह जुत्तो तह्मा तं दव्वदो तित्थं।।५६३।।
द्रव्यतीर्थेन दाहस्य संतापस्योपशमनं भवति तृष्णायाश्छेदो विनाशो भवति स्तोककालं पंकस्य च प्रवहणं शोधनमेव भवति न धर्मादिको गुणस्तस्मात्त्रिभि: कारणैर्युक्तं द्रव्यतीर्थं भवतीति।।५६३।।
भावतीर्थस्वरूपमाह–
दंसणणाणचरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सव्वेवि।
तििंह कारणेिंह जुत्ता तह्मा ते भावदो तित्थं।।५६४।।
दर्शनज्ञानचारित्रैर्युक्ता: संयुक्ता जिनवरा: सर्वेऽपि ते तीर्थं भवंति तस्मात्त्रिभि: कारणैरपि भावतस्तीर्थमिति भावोद्योतेन लोकोद्योतकरा भावतीर्थकर्तृत्वेन धर्मतीर्थकरा इति। अथवा दर्शनज्ञानचारित्राणि जिनवरै: सर्वैरपि निर्युक्तानि सेवितानि तस्मात्तानि भावतस्तीर्थमिति।।५६४।।
तीर्थ का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-द्रव्य और भाव से संयुक्त तीर्थ दो प्रकार का है । इन दोनों में से प्रत्येक की प्ररूपणा करते हैं।।५६२।।
आचारवृत्ति-द्रव्य और भाव की अपेक्षा तीर्थ के दो भेद हैं। द्रव्यतीर्थ तो अपरमार्थभूत है और भावतीर्थ परमार्थभूत है, क्योंकि इसमें अन्य की अपेक्षा का अभाव है। इन दोनों का वर्णन करते हैं।
द्रव्यतीर्थ का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-दाह को उपशम करना, तृष्णा का नाश करना और मल कीचड़ को धो डालना, इन तीन कारणों से जो युक्त है, वह द्रव्य से तीर्थ है।।५६३।।
आचारवृत्ति-द्रव्यतीर्थ से (गंगा पुष्कर आदि से ) संताप का उपशमन होता है, प्यास का विनाश होता है और कुछ काल तक ही मल का शोधन हो जाता है, किन्तु उससे धर्म आदि गुण नहीं होते हैं। इसलिए इन तीन कारणों से सहित होने से उसे द्रव्य तीर्थ कहते हैं।
भावतीर्थ को कहते हैं-
गाथार्थ-सभी जिनेश्वर दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त हैं। इन तीन कारणों से युक्त हैं इसलिए वे भाव से तीर्थ हैं।।५६४।।
आचारवृत्ति-दर्शन, ज्ञान, चारित्र से संयुक्त होने से सभी तीर्थंकर भावतीर्थ कहलाते हैं। इस प्रकार से ये तीर्थंकर, भावउद्योत से लोक को प्रकाशित करनेवाले हैं और भावतीर्थ के कर्ता होने से ‘धर्मतीर्थंकर’ कहलाते हैं। अथवा सभी जिनवरों ने इस रत्नत्रय का सेवन किया है इसलिए वह भी भावतीर्थ कहलाता है।
जिनवरा अर्हन्निति पदं व्याख्यातुकाम: प्राह–
जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति।
हंता अिंर च जम्मं अरहंता तेण १वुच्चंति।।५६५।।
यस्माज्जितक्रोधमानमायालोभास्तस्मात्तेन कारणेन ते जिना इति भवंति येनारीणां हन्तारो जन्मन: संसारस्य च हन्तारस्तेनार्हन्त इत्युच्यन्ते।।५६५।।
येन च–अरिहंति वंदणणमंसणाणि अरिहंति पूयसक्कारं।
अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण उच्चंति।।५६६।।
वंदनाया नमस्कारस्य च योग्या वंदनां नमस्कारमर्हंति, पूजाया: सत्कारस्य च योग्या: पूजासत्कारमर्हन्ति च यत: सिद्धिगमनस्य च योग्या: सिद्धिगमनमर्हन्ति, यस्मात्तेनाऽर्हन्त इत्युच्यन्ते।।५६६।।
किमर्थमेते कीर्त्यन्त इत्याशंकायामाह–
जिनवर और अर्हन् इन पदों का अर्थ कहते हैं-
गाथार्थ-क्रोध, मान, माया, लोभ को जीत चुके हैं इसलिए वे ‘जिन’ होते हैं। शत्रुओं का और जन्म का हनन करने वाले हैं अत: वे अर्हंत कहलाते हैं।।५६५।।
आचारवृत्ति-जिस कारण से उन्होंने क्रोध, मान, माया और लोभ को जीत लिया है इसी कारण से वे ‘जिन’ कहलाते हैं। तथा जिस कारण से वे मोह शत्रु के तथा संसार के नाश करनेवाले हैं इसी कारण से वे ‘ अरिहंत’ इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं।
िऔर भी अरिहंत शब्द की निरुक्ति करते हैं-
गाथार्थ-वन्दना और नमस्कार के योग्य हैं, पूजा सत्कार के योग्य हैं और सिद्धि गमन के योग्य हैं इसलिए वे ‘अर्हंत’ कहलाते हैं।।५६६।।
आचारवृत्ति-अर्हंतदेव वन्दना, नमस्कार, पूजा, सत्कार और मोक्ष गमन के योग्य हैं-समर्थ हैं अतएव वे ‘अर्हंत’ इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं।
भावार्थ-अरिहंत और अर्हंत दो पद माने गये हैं अत: यहाँ पर दोनों पदों की व्युत्पत्ति दिखाई है। जो अरि अर्थात् मोह कर्म का हनन करने वाले हैं वे ‘अरिहंत’ हैं और ‘अर्ह’ धातु पूजा तथा क्षमता अर्थ में है अत: जो वन्दना आदि के लिए योग्य हैं, पूज्य हैं, सक्षम हैं वे ‘अर्हंत’ इन नाम से कहे जाते हैं। महामन्त्र में ‘अरिहंताणं’ और अरहंताणं’ दोनों पद मिलते हैं वे दोनों ही शुद्ध माने गये हैं।
किसलिए इनका कीर्तन किया जाता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
किह ते ण कित्तणिज्जा सदेवमणुयासुरेिंह लोगेिंह।
दंसणणाणचरित्ते तव विणओ जेिंह पण्णत्तो।।५६७।।
कथं ते न कीर्तनीया: व्यावर्णनीया: सदेवमनुष्यासुरैर्लोवैâर्दर्शनज्ञानचारित्रतपसां विनयो यै: प्रज्ञप्त: प्रतिपादित: ते चतुर्विंशतितीर्थंकरा: कथं न कीर्त्तनीया:।।५६७।।
इति कीर्तनमधिकारं व्याख्याय केवलिनां स्वरूपमाह–
सव्वं केवलिकप्पं लोगं जाणंति तह य पस्सन्ति।
केवलणाणचरित्ता१ तह्मा ते केवली होंति।।५६८।।
किमर्थं केवलिन इत्युच्यन्त इत्याशंकायामाह–यस्मात्सर्वं निरवशेषं केवलिकल्पं केवलज्ञानविषय-लोकमलोकं च जानन्ति तथा च पश्यंति केवलज्ञानमेव चरित्रं येषां ते केवलज्ञानचरित्रा: परित्यक्ताशेषव्यापारास्तस्मात्ते केवलिनो भवंतीति।।५६८।।
अथोत्तमा: कथमित्याशंकायामाह–
मिच्छत्तवेदणीयं णाणावरणं चरित्तमोहं च।
तिविहा तमाहु मुक्का तह्मा ते उत्तमा होंति।।५६९।।
मिथ्यात्ववेदनीयमश्रद्धानरूपं ज्ञानावरणं ज्ञानदर्शयोरावरणं चारित्रमोहश्चैतत्त्रिविधं तमस्तस्मात् मुक्ता यतस्तस्मात्ते उत्तमा: प्रकृष्टा भवंतीति।।५६९।।
गाथार्थ-देव, मनुष्य और असुर इन सहित लोगों के द्वारा वे अर्हंत कीर्तन करने योग्य क्यों नहीं होंगे ? जबकि उन्होंने दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के विनय का प्रज्ञापन किया है।।५६७।।
आचारवृत्ति-वे चौबीस तीर्थंकर देव आदि सभी जनों द्वारा कीर्तन-वर्णन-प्रशंसन करने योग्य इसीलिए हैं, कि उन्होंने दर्शन आदि के विनय का उपदेश दिया है।
इस तरह कीर्तन अधिकार को कहकर अब केवलियों का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-केवलज्ञान विषयक सर्वलोक को जानते हैं तथा देखते हैं एवं केवलज्ञान रूप चारित्रवाले हैं इसलिए वे केवली होते हैं।।५६८।।
आचारवृत्ति-अर्हंत को केवली क्यों कहते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
जिस हेतु वे अर्हंत भगवान् केवलज्ञान के विषयभूत सम्पूर्ण लोक और अलोक को जानते हैं तथा देखते हैं और जिनका चारित्र केवलज्ञान ही है अर्थात् जिनके अशेष व्यापार छूट चुके हैं इसलिए वे केवली
कहलाते हैं।
तीर्थंकर उत्तम क्यों हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-मिथ्यात्व वेदनीय, ज्ञानावरण और चारित्रमोह इन तीन तम से मुक्त हो चुके हैं इसलिए वे उत्तम कहलाते हैं।।५६९।।
आचारवृत्ति-अश्रद्धानरूप मिथ्यात्व वेदनीय है अर्थात् मिथ्यात्वकर्म के उदय से जीव को सम्यक् तत्त्वों का श्रद्धान नहीं होता है। यह दर्शनमोह गाढ़ अंधकार के सदृश है।
ज्ञानावरण से दर्शनावरण भी आ जाता है चूंकि वे सहचारी हैं। चारित्रमोह से मोहनीय की, दर्शनमोह से अतिरिक्त सारी प्रकृतियाँ आ जाती हैं। ये मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण और दर्शनावरण तीनों ही कर्म ‘तम’ के समान हैं इस ‘तम’ से मुक्त हो जाने से ही तीर्थंकर ‘उत्तम’ शब्द से कहे जाते हैं।
त एवं विशिष्टा मम–
आरोग्ग बोहिलाहं िंदतु समािंह च मे जिणविंरदा।
िंक ण हु णिदाणमेयं णवरि विभासेत्थ कायव्वा।।५७०।।
एवं विशिष्टास्ते जिनवरेन्द्रा मह्यमारोग्यं जातिजरामरणाभावं बोधिलाभं च जिनसूत्रश्रद्धानं दीक्षाभिमुखीकरणं वा समाधिं च मरणकाले सम्यक्परिणामं ददतु प्रयच्छन्तु, िंक पुनरिदं निदानं न भवति न भवत्येव कस्माद्विभाषाऽत्र विकल्पोऽत्र कर्तव्यो यस्मादिति।।५७०।।
एतस्माच्चेदं निदानं न भवति यत: –
भासा असच्चमोसा णवरि हु भत्तीय भासिदा १एसा।
ण हु खीण२रागदोसा ३दिंति समािंह च बोहिं च।।५७१।।
असत्यमृषा भाषेयं किंतु भक्त्या भाषितैषा यस्मान्नहि क्षीणरागद्वेषा जिना ददते समािंध बोधिं च। यदि दाने प्रवर्त्तेरन् सरागद्वेषा: स्युरिति।।५७१।।
अन्यच्च– इन विशेषणों से विशिष्ट तीर्थकर हमें क्या देवें ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-वे जिनेन्द्रदेव मुझे आरोग्य, बोधि का लाभ और समाधि प्रदान करें। क्या यह निदान नहीं
है ? अर्थात् नहीं है, यहाँ केवल विकल्प समझना चाहिए।।५७०।।
आचारवृत्ति-इस प्रकार से पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट वे जिनेन्द्रदेव मुझे आरोग्य-जन्ममरण का अभाव, बोधिलाभ-जिन सूत्र का श्रद्धान अथवा दीक्षा के अभिमुख होना और समाधि-मरण के समय सम्यक् परिणाम इन तीन को प्रदान करें।
क्या यह निदान नहीं है ?
नहीं है।
क्यों ?
क्योंकि यहाँ पर इसे विभाषा-विकल्प समझना चाहिए।
भावार्थ-गाथा ५४१ में तीर्थंकरस्तव के प्रकरण में सात विशेषण बताये थे-लोकोद्योतकर, धर्मतीर्थंकर, जिनवर, अर्हंत, कीर्तनीय, केवली और उत्तम। पुनः उनसे बोधि की प्रार्थना की थी। उनमें से प्रत्येक विशेषण के एक-एक पदों को पृथक् कर करके उनका विशेष अर्थ किया है।
१२ गाथा पर्यंत ‘लोक’ शब्द का व्याख्यान किया है, ५ गाथाओं में ‘उद्योत’ का, ४ गाथाओं में ‘तीर्थ’ का, १ गाथा के पूर्वार्ध में ‘जिनवर’ का एवं उत्तरार्ध तथा एक और गाथा में ‘अर्हंत’ का, १ गाथा में ‘कीर्तनीय’ का, १ गाथा में ‘केवली’ का, १ गाथा में ‘उत्तम’ का एवं अन्त की गाथा में ‘बोधि’ की प्रार्थना का स्पष्टीकरण किया है।
यहाँ जो वीतरागदेव से याचना की गई है सो आचार्य का कहना है कि यह निदान नहीं है बल्कि भक्ति का एक प्रकार है।
किस कारण से यह निदान नहीं है सो बताते हैं-
गाथार्थ-यह असत्यमृषा भाषा है, वास्तव में यह केवल भक्ति से कही गई है क्योंकि राग–द्वेष से रहित भगवान् समाधि और बोधि को नहीं देते हैं।।५७१।।
जं तेिंह दु दादव्वं तं दिण्णं जिणवरेिंह सव्वेिंह।
दंसणणाणचरित्तस्स एस तिविहस्स उवदेसो।।५७२।।
यत्तैस्तु दातव्यं तद्दत्तमेवं जिनवरै: सर्वै: किं ? तद्दर्शनज्ञानचारित्राणां त्रिप्रकाराणां एष उपदेशोऽस्मात्ंिकमधिकं यत्प्रार्थ्यते। इति एषा च समाधिबोधिप्रार्थना भक्तिर्भवति यत:।।५७२।।
अत आह–
भत्तीए जिणवराणं खीयदि जं पुव्वसंचियं कम्मं।
आयरियपसाएण य विज्जा मंता य सिज्भâंति।।५७३।।
जिनवराणां भक्त्या पूर्वसंचितं कर्म क्षीयते विनश्यते यस्माद् आचार्याणां च भक्ति: किमर्थं ? आचार्याणां च प्रसादेन विद्या मंत्राश्च सिद्धिमुपगच्छंति यस्मादिति तस्माज्जिनानामाचार्याणां च भक्तिरियं न निदानमिति।।५७३।।
अन्यच्च–
अरहंतेसु य राओ ववगदरागेसु दोसरहिएसु।
धम्मह्मि य जो राओ सुदे य जो बारसविधह्मि।।५७४।।
आयरियेसु य राओ समणेसु य बहुसुदे चरित्तड्ढे।
एसो पसत्थराओ हवदि सरागेसु सव्वेसु।।५७५।।
व्यपगतरागेष्वष्टादशदोषरहितेषु अर्हत्सु य: राग: या भक्तिस्तथा धर्मे यो रागस्तथा श्रुते द्वादशविधे य: राग:।।५७४।। तथा–
आचारवृत्ति-यह बोधि, समाधि की प्रार्थना असत्यमृषा भाषा है, यह मात्र भक्ति से ही कही गई है, क्योंकि जिनके राग–द्वेष नष्ट हो चुके हैं वे जिनेन्द्र भगवान् समाधि और बोधि को नहीं देते हैं। यदि वे देने का कार्य करेंगें तो राग–द्वेष सहित हो जावेंगे।
और भी कहते हैं-
गाथार्थ-उनके द्वारा जो देने योग्य था, सभी जिनवरों ने वह दे दिया है। सो वह दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों का उपदेश है।।५७२।।
आचारवृत्ति-उनके द्वारा जो देने योग्य था सो तो उन्होंने दे ही दिया है। वह क्या है ? वह रत्नत्रय का उपदेश है। हम लोगों के लिए और इससे अधिक क्या है कि जिसकी प्रार्थना करें, इसलिए यह समाधि और बोधि की प्रार्थना भक्ति है।
इस भक्ति का माहात्म्य कहते हैं-
गाथार्थ-जिनवरों की भक्ति से जो पूर्व संचित कर्म है वे क्षय हो जाते है और आचार्य के प्रसाद से विद्या तथा मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं।।५७३।।
आचारवृत्ति-जिनेन्द्रदेव की भक्ति से पूर्व संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं सो ठीक है, किन्तु आचार्यों की भक्ति किसलिए है ? आचार्यों के प्रसाद से विद्या और मन्त्रों की सिद्धि होती है। इसलिए जिनवरों की और आचार्यों की यह भक्ति निदान नहीं है।
और भी कहते हैं-
गाथार्थ-राग रहित और द्वेष रहित अर्हंतदेव में जो राग है, धर्म में जो राग है और द्वादशविध श्रुत में जो राग है-वह तीनों भक्ति हैं।
आचार्यों में, श्रमणों में और चारित्रयुक्त बहुश्रुत विद्वानों में जो राग है यह प्रशस्त राग सभी सरागी मुनियों में होता है।।५७४-५७५।।
आचार्येषु राग: श्रमणेषु बहुश्रुतेषु च यो रागश्चरित्राढ्येषु च राग: स एष राग प्रशस्त: शोभनो भवति सरागेषु सर्वेष्विति।।५७५।।
अन्यच्च–
तेिंस अहिमुहदाए अत्था सिज्भâंति तह य भत्तीए।
तो भत्ति रागपुव्वं वुच्चइ एदं ण हु णिदाणं।।५७६।।
तेषां जिनवरादीनामभिमुखतया भक्त्या चार्था वांछितेष्टसिद्धय: सिध्यन्ति हस्तग्राह्या भवन्ति यस्मात्तस्माद्भक्ती रागपूर्वकमेतदुच्यते न हि निदानं, संसारकारणाभावादिति।।५७६।।
चतुर्विंशतिस्तवविधानमाह–
चउरंगुलंतरपादो पडिलेहिय अंजलीकयपसत्थो।
अव्वाखित्तो वुत्तो कुणदि य चउवीसत्थयं भिक्खू।।५७७।।
चतुरंगुलान्तरपाद: स्थितांग: परित्यक्तशरीरावयवचालनश्चकारादेतल्लब्धं प्रतिलिख्य शरीरभूमिचित्तादिकं प्रशोध्य प्रांजलि: सिंपड: कृतांजलिपुटेन प्रशस्त: सौम्यभावोऽव्याक्षिप्त: सर्वव्यापाररहित: करोति चतुा\वशतिस्तवं भिक्षु: संयतश्चतुरंगुलमंतरं ययो: पादयोस्तौ चतुरंगुलान्तरौ तौ पादौ यस्य स चतुरंगुलान्तरपाद: स्थितं निश्चलमंगं यस्य स: स्थितांग: शोभनकायिकवाचिकमानसिकक्रिय इत्यर्थ:।।५७७।।
आचारवृत्ति-रागद्वेष रहित अर्हंतों में, धर्म में, द्वादशांग श्रुत में, आचार्यों में, मुनियों में, चारित्रयुक्त बहुश्रुत विद्वानों में जो राग होता है वह प्रशस्त-शोभन राग है वह सभी सरागी मुनियों में पाया जाता है। अर्थात् सराग संयमी मुनि इन सभी में अनुराग रूप भक्ति करते ही हैं।
और भी कहते हैं-
गाथार्थ-उनके अभिमुख होने से तथा उनकी भक्ति से मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। इसलिए भक्ति रागपूर्वक कही गई है। यह वास्तव में निदान नहीं है।।५७६।।
आचारवृत्ति-उन जिनवर आदिकों के अभिमुख होने से-उनकी तरफ अपने मन को लगाने से, उनकी भक्ति से वांछित इष्ट की सिद्धि हो जाती है-इष्ट मनोरथ हस्तग्राह्य हो जाते है। इसलिए यह भक्ति रागपूर्वक ही होती है। यह निदान नहीं कहलाती है, क्योंकि इससे संसार के कारणों का अभाव होता है।
अब चतुर्विंशतिस्तव के विधान को कहते हैं-
गाथार्थ-चार अंगुल अन्तराल से पाद को करके, प्रतिलेखन करके, अंजलि को प्रशस्त जोड़कर, एकाग्रमना हुआ भिक्षु चौबीस तीर्थंकर का स्तोत्र करता है।।५७७।।
आचारवृत्ति-पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर स्थिर अंग कर जो खड़े हुए हैं अर्थात् शरीर के अवयवों के हलन चलन से रहित स्थिर हैं; चकार से ऐसा समझना कि जिन्होंने अपने शरीर और भूमि का पिच्छिका से प्रतिलेखन करके एवं चित्त आदि का शोधन करके अपने हाथों की अंजुलि जोड़ रखी है, जो प्रशस्त–सौम्यभावी हैं, व्याकुलता रहित अर्थात् सर्वव्यापार रहित हैं ऐसे संयत मुनि चतुर्विंशतिस्तव को करते हैं।
अर्थात् पैरों में चार अंगुल के अंतराल को रखकर निश्चल अंग करके खड़े होकर, मुनि शोभनरूप कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया वाले होते हुए स्तव नामक आवश्यक को करते हैं।
चतुा\वशतिस्तवनिर्युक्तिमुपसंहर्तुं वेदनानिर्युक्तिं च प्रितपादयितुं प्राह–
चउवीसयणिज्जुत्ती एसा कहिया मए समासेण।
वंदणणिज्जुत्ती पुण एत्तो उड्ढं पवक्खामि।।५७८।।
चतुा\वशतिनिर्युक्तिरेषा कथिता मया समासेन वंदनानिर्युक्तिं पुनरित ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि प्रतिपादयिष्यामीति।।५७८।।
तथैतां नामादिनिक्षेपै: प्रतिपादयन्नाह–
णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य।
एसो खलु वंदणगे णिक्खेवो छव्विहो भणिदो।।५७९।।
एकतीर्थकरनामोच्चारणं सिद्धाचार्यादिनामोच्चारणं च नामावश्यकवंदनानिर्युक्तिरेकतीर्थकरप्रतििंबबस्य सिद्धाचार्यादि-प्रतििंबबानां च स्तवनं स्थापनावंदनानिर्युक्तिस्तेषामेव शरीराणां स्तवनं द्रव्यवंदनानिर्युक्तिस्तैरेव यत्क्षेत्रमधिष्ठितं कालश्च योऽधिष्ठितस्तयो: स्तवनं क्षेत्रवन्दना च, एकतीर्थकरस्य सिद्धाचार्यादीनां च शुद्धपरिणामेन यद्गुणस्तवनं तद्भावावश्यक-वंदनानिर्युक्ति: नामाथवा जातिद्रव्यगुणक्रियानिरपेक्षं संज्ञाकर्म वंदनाशब्दमात्रं नाम, वंदनापरिणतस्य प्राभृतज्ञौ प्रतिकृतिवंदनास्थापनावंदना, वन्दनाव्यावर्णनप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्त आगमद्रव्यवंदना शेष: पूर्ववदिति। एष वंदनाया निक्षेप: षड्विधो भवति ज्ञातव्यो नामादिभेदेनेति।।५७९।।
नामवंदनां प्रतिपादयन्नाह–
चतुर्विंशतिस्तव निर्युक्ति का उपसंहार करने के लिए और वन्दना निर्युक्ति का प्रतिपादन करने के लिए अगली गाथा कहते हैं-
गाथार्थ-मैंने संक्षेप से यह चतुर्विंशतिनिर्युक्ति कही है, पुन: इसके बाद वन्दना निर्युक्ति को कहूँगा।।५७८।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है।
वन्दना को नामादि निक्षेपों के द्वारा प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, निश्चय से वन्दना का यह छह प्रकार का निक्षेप कहा गया है।।५७९।।
आचारवृत्ति-एक तीर्थंकर का नाम उच्चारण करना तथा सिद्ध, आचार्यादि का नाम उच्चारण करना नाम–वन्दना आवश्यक निर्युक्ति है। एक तीर्थंकर के प्रतिबिम्ब का तथा सिद्ध, आचार्य आदि के प्रतिबिम्बों का स्तवन करना स्थापनावन्दना निर्युक्ति है। एक तीर्थंकर के शरीर का तथा सिद्ध, आचार्यों के शरीर का स्तवन करना द्रव्य–वन्दना निर्युक्ति है।
इन एक तीर्थंकर, सिद्ध और आचार्यों से अधिष्ठित जो क्षेत्र हैं उनकी स्तुति करना क्षेत्र–वन्दना निर्युक्ति है। ऐसे ही इन्हीं से अधिष्ठित जो काल है उनकी स्तुति करना काल वन्दना निर्युक्ति है। एक तीर्थंकर और सिद्ध तथा आचार्यों के गुणों का शुद्ध परिणाम से जो स्तवन है वह भाववन्दना निर्युक्ति है।
अथवा जाति, द्रव्य व क्रिया से निरपेक्ष किसी का ‘वन्दना’ ऐसा शब्द मात्र से संज्ञा कर्म करना नाम- वन्दना है। वन्दना से परिणत हुए का जो प्रतिबिम्ब है वह स्थापनावन्दना है। वन्दना के वर्णन करने वाले शास्त्र का जो ज्ञाता है किन्तु उसमें उस समय उपयोग उसका नहीं है वह आगमद्रव्य वन्दना है। बाकी के भेदों को पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। वन्दना का यह निक्षेप नाम आदि के भेद से छह प्रकार का है ऐसा जानना।
नाम वन्दना का प्रतिपादन करते हैं-
किदियम्मं चिदियम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च।
कादव्वं केण कस्स व कधे व किंह व कदिखुत्तो।।५८०।।
पूर्वगाथार्धेन वंदनाया एकार्थ: कथ्यते१ऽपरार्द्धेन तद्विकल्पा इति। कृत्यते छिद्यते अष्टविधं कर्म येनाक्षरकदंबकेन परिणामेन क्रियया वा तत्कृतिकर्म पापविनाशनोपाय:२। चीयते समेकीक्रियते संचीयते पुण्यकर्म तीर्थकरत्वादि येन तच्चितिकर्म पुण्यसंचयकारणं।
पूज्यंतेऽर्च्यन्तेऽर्हदादयो येन तत्पूजाकर्म बहुवचनोच्चारणस्रव्âचंदनादिकं। विनीयंते निराक्रियन्ते संक्रमणोदयोदीरणादिभावेन प्राप्यंते येन कर्माणि तद्विनयकर्म। शुश्रूषणं तत्क्रिया कर्म कर्तव्यं केन कस्य कर्तव्यं कथमिव केन विधानेन कर्त्तव्यं कस्मिन्नवस्थाविशेषे कर्त्तव्यं कतिवारान्।।५८०।।
तथा–कदि ओणदं कदि सिरं कदिए आवत्तगेहिं परिसुद्धं।
कदिदोसविप्पमुक्कं किदियम्मं होदि कादव्वं।।५८१।।
कदि ओणदं–कियन्त्यवनतानि। कति करमुकुलांकितेन शिरसा भूमिस्पर्शनानि कर्त्तव्यानि। कदि सिरं–कियन्ति शिरांसि कतिवारान् शिरसि करकुड्मलं कर्त्तव्यं। कदि आवत्तगेिंह परिसुद्धं–कियद्भिरावर्त्तवैâ: परिशुद्धं
गाथार्थ-कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ये वन्दना के एकार्थ नाम हैं। किसको, किसकी, किस प्रकार से, किस समय और कितनी वार वन्दना करना चाहिए।।५८०।।
आचारवृत्ति-गाथा के पूर्वार्ध से वन्दना के पर्यायवाची नाम कहे हैं अर्थात् कृतिकर्म आदि वन्दना के ही नाम है। तथा गाथा के अपरार्ध से वन्दना के भेद कहे हैं।
कृतिकर्म-जिस अक्षर समूह से या जिस परिणाम से अथवा जिस त्रिâया से आठ प्रकार का कर्म काटा जाता है-छेदा जाता है वह कृतिकर्म कहलाता है अर्थात् पापों के विनाशन का उपाय कृतिकर्म है।
चितिकर्म-जिस अक्षर समूह से या परिणाम से अथवा क्रिया से तीर्थंकरत्व आदि पुण्य कर्म का चयन होता है-सम्यव्â प्रकार से अपने साथ एकीभाव होता है या संचय होता है, वह पुण्य संचय का कारणभूत चितिकर्म कहलाता है।
पूजाकर्म-जिन अक्षर आदिकों के द्वारा अरिहंत देव आदि पूजे जाते हैं-अर्चें जाते हैं ऐसा बहुवचन से उच्चारण कर उनको जो पुष्पमाला, चन्दन आदि चढ़ाये जाते हैं वह पूजाकर्म कहलाता है।
विनयकर्म-जिसके द्वारा कर्मों का निराकरण किया जाता है अर्थात् कर्म संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि भाव से प्राप्त करा दिये जाते हैं वह विनय है जोकि शुश्रूषा रूप है।
वह वन्दनाक्रिया नामक आवश्यक कर्म किसे करना चाहिए ? किसकी करना चाहिए ? किस विधान से करना चाहिए ? किस अवस्थाविशेष में करना चाहिए ? और कितनी बार करना चाहिए ? इस आवश्यक के विषय में ऐसी प्रश्नमाला होती है।
उसी प्रकार से और भी प्रश्न होते हैं-
गाथार्थ-कितनी अवनति, कितनी शिरोनति, कितने आवर्तों से परिशुद्ध, कितने दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए।।५८१।।
आचारवृत्ति-हाथों को मुकुलित जोड़कर, मस्तक से लगाकर, शिर से भूमि स्पर्श करके जो नमस्कार होता है उसे अवनति या प्रणाम कहते हैं। वह अवनति कितने बार करना चाहिए ?
मुकुलित-जुड़ेंकतिवारान्मनोवचनकाया आवर्त्तनीया:।
कदि दोसविप्पमुक्कं–कति दोषैर्विप्रमुक्तं कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यमिति।।५८१।।
इति प्रश्नमालायां कृतायां तावत्कृति१ कर्मविनयकर्मणोरेकार्थ इति कृत्वा विनयकर्मण: सप्रयोजनां निरुक्तिमाह–
जह्मा विणेदि२ कम्मं अट्ठविहं चाउरगमोक्खो य।
तह्मा वदंति विदुसो विणओत्ति विलीणसंसारा।।५८२।।
यस्माद्विनयति विनाशयति कर्माष्टfिवधं चातुरंगात्संसारान्मोक्षश्च यस्माद्विनयात्तस्माद्विद्वांसो विलीनसंसारा विनय इति वदंति।।५८२।।
यस्माच्च–पुव्वं चेव य विणओ परूविदो जिणवरेिंह सव्वेिंह।
सव्वासु कम्मभूमिसु णिच्चं सो मोक्खमग्गम्मि।।५८३।।
यतश्च पूर्वस्मिन्नेव काले विनय: प्ररूपितो जिनवरै: सर्वै: सर्वासु कर्मभूमिषु सप्तत्यधिकक्षेत्रेषु नित्यं सर्वकालं मोक्षमार्गे मोक्षमार्गहेतोस्तस्मान्नार्वाक्कालिको रथ्यापुरुषप्रणीतो वा शंकाऽत्र न कर्त्तव्या निश्चयेनात्र प्रवर्तितव्यमिति।।५८३।।
कतिप्रकारोऽसौ विनय इत्याशंकायामाह–
लोगाणुवित्तिविणओ अत्थणिमित्ते य कामतंते य।
भयविणओ य चउत्थो पंचमओ मोक्खविणओ य।।५८४।।
हुए हाथ पर मस्तक रखकर नमस्कार करना शिरोनति है सो कितनी होनी चाहिए ? मनवचनकाय का आवर्तन करना या अंजुलि–जुड़े हाथों को घुमाना सो आवर्त है-यह कितनी बार करना चाहिए ? एवं कितने दोषों से रहित यह कृतिकर्म होना चाहिए ? इस प्रकार से प्रश्नमाला के करने पर पहले कृतिकर्म और विनयकर्म का एक ही अर्थ है इसलिए विनयकर्म की प्रयोजन सहित निरुक्ति को कहते हैं-
गाथार्थ-जिससे आठ प्रकार का कर्म नष्ट हो जाता है और चतुरंग संसार से मोक्ष हो जाता है इस कारण से संसार से रहित विद्वान् उसे ‘विनय’ कहते हैं।।५८२।।
आचारवृत्ति-जिस विनय से कर्मों का नाश होता है और चतुर्गति रूप संसार से मुक्ति मिलती है। इससे संसार का विलय करनेवाले विद्वान् उसे ‘विनय’ यह सार्थक नाम देते हैं।
क्योंकि-
गाथार्थ-पूर्व में सभी जिनवरों ने सभी कर्मभूमियों में मोक्षमार्ग के कथन में नित्य ही उस विनय का प्ररूपण किया है।।५८३।।
आचारवृत्ति-क्योंकि पूर्वकाल में भी सभी जिनवरों ने एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में हमेशा ही मोक्ष मार्ग के हेतु में विनय का प्ररूपण किया है, इसलिए यह विनय आजकल के लोगों द्वारा कथित है या रथ्यापुरुष-पागलपुरुष-यत्र तत्र फिरने वाले पुरुष के द्वारा कथित है, ऐसा नहीं कह सकते।
अत: इसमें शंका नहीं करनी चाहिए प्रत्युत इस विनय कर्म में निश्चय से प्रवृत्ति करनी चाहिए। अर्थात् यह विनयकर्म सर्वज्ञदेव द्वारा कथित है।
कितने प्रकार का यह विनय है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-लोकानुवृत्ति विनय, अर्थनिमित्त विनय, कामतन्त्रविनय, चौथा भयविनय और पाँचवाँ मोक्षविनय है।।५८४।।
लोकस्यानुवृत्तिरनुवर्त्तनं लोकानुवृत्तिर्नाम प्रथमो विनय:, अर्थस्य निमित्तमर्थनिमित्तं कार्यहेतुर्विनयो द्वितीय:, कामतंत्रे कामतंत्रहेतु: कामानुष्ठाननिमित्तं तृतीयो विनय: भयविनयश्चतुर्थ:१ भयकारणेन य: क्रियते विनय: स चतुर्थ: पंचमो मोक्षविनय:, एवं कारणेन पंचप्रकारो विनय इति।।५८४।।
तत्रादौ तावल्लोकानुवृत्तिविनयस्वरूपमाह–
अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अतिहिपूजा य।
लोगाणुवित्तिविणओ देवदपूया सविहवेण।।५८५।।
अभ्युत्थानं किंश्मश्चिदागते आसनादुत्थानं प्रांजलिरंजलिकरणं स्वावासमागतस्यासनदानं तथाऽतिथिपूजा च मध्याह्नकाले आगतस्य साधोरन्यस्य वा धार्मिकस्य बहुमानं देवतापूजा च स्वविभवेन स्ववित्तानुसारेण देवपूजा च तदेतत्सर्वं लोकानुवृत्तिर्नाम विनय:।।५८५।।
तथा–भासाणुवत्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च।
लोकाणुवत्तिविणओ अंजलिकरणं च अत्थकदे।।५८६।।
भाषाया वचनस्यानुवृत्तेरनुवर्त्तनं यथासौ वदति तथा सोऽपि भणति भाषानुवृत्ति: छंदानुवर्त्तनं तदभिप्रायानुकूलाचरणं, देशयोग्यं कालयोग्यं च यद्दानं स्वद्रव्योत्सर्गस्तदेतत्सर्वं लोकानुवृत्तिविनयो लोकात्मीकरणार्थो यथाऽयं विनयोंजलिकरणादिक: प्रयुज्यते तथांऽजलिकरणादिको योऽर्थनि२मित्तं क्रियते सोऽर्थहेतु:।।५८६।।
आचारवृत्ति-लोक की अनुकूलता करना सो लोकानुवृत्ति का पहला विनय है। अर्थ-कार्य के हेतु विनय करना दूसरा अर्थनिमित्त विनय है। काम के अनुष्ठान हेतु विनय करना कामतन्त्र नाम का तीसरा विनय है। भय के कारण से विनय करना यह चौथा भय विनय है। और मोक्ष के हेतु विनय पाँचवाँ मोक्षविनय है।
उनमें से पहले लोकानुवृत्ति विनय का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-उठकर खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, अतिथि की पूजा करना और अपने विभव के अनुसार देवों की पूजा करना यह लोकानुवृत्ति विनय है।।५८५।।
आचारवृत्ति-किसी के अर्थात् बड़ों के आने पर आसन से उठकर खड़े होना, अंजुलि जोड़ना, अपने आवास में आये हुए को आसन देना, अतिथि पूजा-मध्याह्र काल में आये हुए साधु या अन्य धार्मिकजन अतिथि कहलाते हैं उनका बहुमान करना और अपने विभव या धन के अनुसार देवपूजा करना, सो यह सब लोकानुवृत्ति नाम का विनय है।
तथा-
गाथार्थ-अनुकूल वचन बोलना, अनुकूल प्रवृत्ति करना, देशकाल के योग्य दान देना, अंजुलि जोड़ना और लोक के अनुकूल रहना सो लोकानुवृत्ति विनय है तथा अर्थ के निमित्त से ऐसा ही करना अर्थविनय है।।५८६।।
आचारवृत्ति-भाषानुवृत्ति-जैसे वे बोलते हैं वैसे ही बोलना, छन्दानुवर्तन-उनके अभ्िाप्राय के अनुकूल आचरण करना, देश के योग्य और काल के योग्य दान देना–अपने द्रव्य का त्याग करना यह सब लोकानुवृत्ति विनय है, क्योंकि यह लोक को अपना करने के लिए अंजुलि जोड़ना आदि यथार्थ विनय किया जाता है।
उसी प्रकार से जो अर्थ के निमित्त प्रयोजन के लिए अंजुलि जोड़ना आदि उपर्युक्त विनय किया जाता है वह अर्थनिमित्त विनय है।
तथा–
एमेव कामतंते भयविणओ चेव आणुपुव्वीए।
पंचमओ खलु विणओ परूवणा तस्सिमा होदि।।५८७।।
यथा लोकानुवृत्तिविनयो व्याख्यातस्तथैवं कामतन्त्रो भयार्थश्च भवति आनुपूर्व्या विशेषाभावात्, य: पुन: पंचमो विनयस्तस्येयं प्ररूपणा भवतीति।।५८७।।
दंसणणाणचरित्ते तवविणओ ओवचारिओ चेव।
मोक्खह्मि एस विणओ पंचविहो होदि णायव्वो।।५८८।।
दर्शनज्ञानचारित्रतप औपचारिकभेदेन मोक्षविनय एष: पंचप्रकारो भवति।।५८८।।
स पंचाचारे यद्यपि विस्तरेणोक्तस्तथाऽपि विस्मरणशीलशिष्यानुग्रहार्थं संक्षेपत: पुनरुच्यत इति–
जे दव्वपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेिंह सुदणाणे।
ते तह सद्दहदि णरो दंसणविणओत्ति णादव्वो।।५८९।।
ये द्रव्यपर्याया: खलूपदिष्टा जिनवरै: श्रुतज्ञाने तांस्तथैव श्रद्दधाति यो नर: स दर्शनविनय इति ज्ञातव्यो भेदोपचारादिति।।५८९।।
अथ ज्ञाने किमर्थं विनय: क्रियते इत्याशंकायामाह–
भावार्थ-सामने वाले के अनुकूल वचन बोलना, उसी के अनुकूल कार्य करना आदि जो विनय लोगों को अपना बनाने के लिए किया जाता है वह लोकानुवृत्ति विनय है और जो कार्य सिद्धि के लिए उपर्युक्त क्रियाओं का करना है सो अर्थनिमित्त विनय है।
उसी प्रकार से कामतन्त्र और भय विनय को कहते हैं-
गाथार्थ-इसी प्रकार से कामतन्त्र में विनय करना कामतन्त्र विनय है और इसी क्रम से भय हेतु विनय करना भय विनय है। निश्चय से पंचम जो विनय है उसकी यह-आगे प्ररूपणा होती है।।५८७।।
आचारवृत्ति-जैसे लोकानुवृत्ति विनय का व्याख्यान किया है, उसी प्रकार से काम के निमित्त विनय कामतन्त्र विनय है तथा वैसे ही क्रम से भय-निमित्त विनय भयविनय है इनमें कोई अन्तर नहीं है अर्थात् अभिप्राय मात्र का अन्तर है, क्रियाओं में कोई अन्तर नहीं है। अब जो पाँचवाँ मोक्ष विनय है उसकी आगे प्ररूपणा करते हैं।
गाथार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप में विनय तथा औपचारिक विनय यह पांच प्रकार का मोक्ष विनय जानना चाहिए।।५८८।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है।
यह मोक्ष विनय यद्यपि पंचाचार के वर्णन में विस्तार से कहा गया है फिर भी विस्मरणशील शिष्यों के अनुग्रह के लिए पुनः संक्षेप से कहा जाता है-
गाथार्थ-जिनेन्द्रदेवों ने श्रुतज्ञान में निश्चय से जिन द्रव्य, पर्यायों का उपदेश दिया है मनुष्य उनका वैसा ही श्रद्धान करता है वह दर्शनविनय है ऐसा जानना चाहिए।।५८९।।
आचारवृत्ति-जिनवरों ने द्रव्यादिकों का जैसा उपदेश दिया है जो मनुष्य उनका वैसा ही श्रद्धान करता है वह मनुष्य ही दर्शनविनय है। यहाँ पर गुण–गुणी में अभेद का उपचार किया गया है।
अब ज्ञान की किसलिए विनय करना ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
णाणी गच्छदि णाणी वंचदि णाणी णवं च णादियदि।
णाणेण कुणदि चरणं तह्मा णाणे हवे विणओ।।५९०।।
यस्माज्ज्ञानी गच्छति मोक्षं जानाति वा गतेर्ज्ञानगमनप्राप्त्यर्थकत्वात् , यस्माच्च ज्ञानी वंचति परिहरति पापं यस्माच्चज्ञानी नवं कर्म नाददाति न बध्यते कर्मभिरिति यस्माच्च ज्ञानेन करोति चरणं चारित्रं तस्माच्च ज्ञाने भवति विनय: कर्त्तव्य इति।।५९०।।
अथ चारित्रे विनय: किमर्थं क्रियत इत्याशंकायामाह–
पोराणय कम्मरयं चरिया रित्तं करेदि जदमाणो।
णवकम्मं ण य बंधदि चारित्तविणओत्ति णादव्वो।।५९१।।
चिरंतनकर्मरजश्चर्यया चारित्रेण रिक्तं तुच्छं करोति यतमानश्चेष्टमानो नवं कर्म च न बध्नाति यस्मात्, तस्माच्चारित्रे विनयो भवति कर्त्तव्य इति ज्ञातव्य:।।५९१।।
तथा तपोविनयप्रयोजनमाह–
अवणयदि तवेण तम उवणयदि मोक्खमग्गमप्पाणं।
तवविणयणियमिदमदी सो तवविणओ त्ति णादव्वो।।५९२।।१
इत्येवमादिगाथानां ‘आयारजीदा’दिगाथापर्यन्तानां तप आचारेर्थ: प्रतिपादित इति कृत्वा नेह प्रतन्यते पुनरुक्तदोषभयादिति।।५९२।।
गाथार्थ-ज्ञानी जानता है, ज्ञानी छोड़ता है और ज्ञानी नवीन कर्म को नहीं ग्रहण करता है, ज्ञान से चारित्र का पालन करता है इसलिए ज्ञान में विनय होवे।।५९०।।
आचारवृत्ति-जिस हेतु से ज्ञानी मोक्ष को प्राप्त करता है अथवा जानता है। गति अर्थ वाले धातु ज्ञान, गमन और प्राप्ति अर्थवाले होते हैं ऐसा व्याकरण का नियम है अत: यहाँ गच्छति का जानना और प्राप्त करना अर्थ किया है।
जिससे ज्ञानी पाप की वंचना-परिहार करता है और नवीन कर्मों से नहीं बँधता है तथा ज्ञान से चारित्र को धारण करता है इसीलिए ज्ञान में विनय करना चाहिए।
चारित्र में विनय क्यों करना ? ऐसी आश्ांका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता हुआ साधु चारित्र से पुराने कर्मरज को खाली करता है और नूतन कर्म नहीं बाँधता है इसलिए उसे चारित्रविनय जानना चाहिए।।५९१।।
आचारवृत्ति-यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता हुआ मुनि अपने आचरण से चिरकालीन कर्मधूलि को तुच्छ-समाप्त या साफ कर देता है तथा नूतन कर्मों का बंध नहीं करता है अत: चारित्र में विनय करना चाहिए।
अब तपोविनय का प्रयोजन कहते हैं-
गाथार्थ-तप के द्वारा तम को दूर करता है और अपने को मोक्षमार्ग के समीप करता है। जो तप के विनय में बुद्धि को नियमित कर चुका है वह ही तपोविनय है ऐसा जानना चाहिए।।५९२।।
आचारवृत्ति-गाथा का अर्थ स्पष्ट है। इसी प्रकार से पूर्व में ‘आयार२जीदा’ आदि गाथा पर्यंत तप आचार में तप विनय का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसलिए यहाँ पर विस्तार नहीं करते हैं, क्योंकि वैसा करने से पुनरुक्त दोष आ जाता है।यतो विनय: शासनमूलं यतश्च विनय: शिक्षाफलम्–
तह्मा सव्वपयत्तेण विणयत्तं मा कदाइ छंडिज्जो।
अप्पसुदो विय पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण।।५९३।।
यस्मात्सर्वप्रयत्नेन विनयत्वं नो कदाचित्परिहरेत् भवान् यस्मादल्पश्रुतोऽपि पुरुष: क्षपयति कर्माणि विनयेन तस्माद्विनयो न त्याज्य इति।।५९३।।
कृतिकर्मण: प्रयोजनं तं दत्वा प्रस्तुताया: प्रश्नमालायास्तावदसौ केन कर्तव्यं तत्कृतिकर्म यत्पृष्टं तस्योत्तरमाह–
पंचमहव्वयगुत्तो संविग्गोऽणालसो अमाणी य। किदियम्म णिज्जरट्ठी कुणइ सदा ऊणरादिणिओ।।५९४।।
पंचमहाव्रतैर्गुप्त: पंचमहाव्रतानुष्ठानपर: संविग्नो धर्मफलयोर्विषये हर्षोत्कंठितदेहोऽनालस: उद्योगवान् अमाणीय अमानी च परित्यक्तमानकषायो निर्जरार्थी ऊनरात्रिको दीक्षया लघुर्य: एवं स कृतिकर्म करोति सदा सर्वकालं, पंचमहाव्रतयुक्तेन परलोकार्थिना विनयकर्म कर्त्तव्यं भवतीति सम्बन्ध:।।५९४।।
कस्य तत्कृतिकर्म कर्त्तव्यं यत्पृष्टं तस्योत्तरमाह–
आइरियउवज्भâायाणं पवत्तयत्थेरगणधरादीणं।
एदेिंस किदियम्मं कादव्वं णिज्जरट्ठाए।।५९५।।
तेषामाचार्योपाध्यायप्रवर्त्तकस्थविरगणधरादीनां कृतिकर्म कर्तव्यं निर्जरार्थं न मन्त्रतन्त्रोपकरणायेति।।५९५।।
विनय शासन का मूल है और विनय शिक्षा का फल है, इसी बात को कहते हैं-
गाथार्थ-इसलिए सभी प्रयत्नों से विनय को कभी भी मत छोड़ो, क्योंकि अल्पश्रुत का धारक भी पुरुष विनय से कर्मों का क्षपण कर देता है।।५९३।।
आचारवृत्ति-अत: सर्व प्रयत्न करके विनय को कदाचित् भी मत छोड़ो, क्योंकि अल्पज्ञानी पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मों का नाश कर देता है इसलिए विनय को सदा काल करते रहना चाहिए।
कृतिकर्म अर्थात् विनय कर्म का प्रयोजन दिखलाकर अब प्रस्तुत प्रश्नमाला में जो पहला प्रश्न था कि ‘वह कृतिकर्म किसे करना चाहिए ?’ उसका उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-जो पाँच महाव्रतों से युक्त है, संवेगवान है, आलस रहित है और मान रहित है ऐसा एक रात्रि भी छोटा मुनि निर्जरा का इच्छुक हुआ हमेशा कृतिकर्म को करे।।५९४।।
आचारवृत्ति-जो पाँच महाव्रतों के अनुष्ठान में तत्पर हैं, धर्म और धर्म के फल के विषय में जिनका शरीर हर्ष से रोमांचित हो रहा है, आलस्य रहित-उद्यमवान् हैं, मान कषाय से रहित हैं, कर्म निर्जरा के इच्छुक हैं ऐसे मुनि दीक्षा में एक रात्रि भी यदि लघु हैं तो वे सर्वकाल गुरुओं की कृतिकर्मपूर्वक वन्दना करें।
अर्थात् मुनियों को अपने से बड़े मुनियों की कृतिकर्म पूर्वक विनय करना चाहिए। यहाँ पर कृतिकर्म करनेवाले का वर्णन किया है।
किसका वह कृतिकर्म करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-निर्जरा के लिए आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर का कृतिकर्म करना चाहिए।।५९५।।
आचारवृत्ति-इन आचार्य आदिकों का कृतिकर्म-विनय कर्म कर्मों की निर्जरा के लिए करे, मन्त्र–तन्त्र या उपकरण के लिए नहीं।
एते पुन: क्रियाकर्मायोग्या इति प्रतिपादयन्नाह–
णो वंदिज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु णिंरद अण्णतित्थं व।
देसविरद देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा।।५९६।।
णो वंदिज्ज न वंदेत न स्तुयात् कं अविरदमविरतमसंयतं मातरं जननीं पितरं जनकं गुरुं दीक्षा–गुरुं श्रुतगुरुमप्यसंयतं चरणादिशिथिलं नरेन्द्रं राजानं अन्यतीर्थिकं पाखंडिनं वा देशविरतं श्रावकं शास्त्रादि–प्रौढमपि देवं वा नागयक्षचन्द्रसूर्येन्द्रादिकं वा विरत: संयत: सन् पार्श्वस्थपणकं वा ज्ञानदर्शनचारित्रशिथिलान् पंचजनान्निर्ग्रन्थानपि संयत: स्नेहादिना पार्श्वस्थपणकं न वंदेत मातरमसंयतां पितरमसंयतं अन्यं च मोहादिना न स्तुयात् भयेन लोभादिना वा नरेन्द्रं न स्तुयात् ग्रहादिपीडाभयाद्देवं सूर्यादिकं न पूजयेत् शास्त्रादिलोभेनान्यतीर्थिकं न स्तुयादाहारादिनिमित्तं श्रावकं न स्तुयात्।
आत्मगुरुमपि विनष्टं न वंदेत तथा वा शब्दसूचितानन्यानपि स्वोपकारिणोऽसंयतान्न स्तुयादिति।।५९६।।
इति के ते पंच पार्श्वस्था इत्याशंकायामाह–
पासत्थो य कुसीलो संसत्तोसण्ण मिगचरित्तो य।
दंसणणाणचरित्ते अणिउत्ता मंदसंवेगा।।५९७।।
संयतगुणेभ्य: पार्श्वे अभ्यासे तिष्ठतीति पार्श्वस्थ: वसतिकादिप्रतिबद्धो मोहबहुलो रात्रिंदिवमुपकरणानां कारकोऽसंयतजनसेवी संयतजनेभ्यो दूरीभूत:, कुत्सितं शीलं आचरणं स्वभावो वा यस्यासौ कुशील: क्रोधादिकलुषितात्मा व्रतगुणशीलैश्च परिहीन: संघस्यायश:करणाकुशल:, सम्यगसंयतगुणेष्वाशक्त: संशक्त: आहारादिगृद्ध्या पुन: जो विनयकर्म के अयोग्य है उनका वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-अविरत माता–पिता व गुरु की, राजा की, अन्य तीर्थ की या देशविरत की अथवा देवों की या पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के मुनि की वह विरत मुनि वन्दना न करे।।५९६।।
आचारवृत्ति-असंयत माता–पिता की, असंयत गुरु की अर्थात् दीक्षागुरु यदि चारित्र में शिथिल-भ्रष्ट हैं या श्रुतगुरु यदि असंयत हैं अथवा चारित्र में शिथिल हैं तो संयत मुनि इनकी वन्दना न करे। वह राजा की, पाखंडी साधुओं की, शास्त्रादि से प्रौढ़ भी देशव्रती श्रावक की या नाग, यक्ष, चन्द्र-सूर्य, इन्द्रादि देवों की भी वन्दना न करे। तथा पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के मुनि जो कि निर्ग्रंथ होते हुए भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र में शिथिल हैं इनकी भी वन्दना न करे।
विरत मुनि मोहादि से असंयत माता–पिता आदि की, या अन्य किसी की स्तुति न करे। भय से या लोभ आदि से राजा की स्तुति न करे। ग्रहों की पीड़ा आदि के भय से सूर्य आदि की पूजा न करे। शास्त्रादि ज्ञान के लोभ से अन्य मतावलम्बी पाखंडी साधुओं की स्तुति न करे। आहार आदि के निमित्त श्रावक की स्तुति न करे एवं स्नेह आदि से पार्श्वस्थ आदि मुनियों की स्तुति न करे। तथैव अपने गुरु भी यदि हीनचारित्र हो गये हैं तो उनकी भी वन्दना न करे तथा अन्य भी जो अपने उपकारी हैं किन्तु असंयत हैं उनकी वन्दना न करे।
वे पाँच प्रकार के पार्श्वस्थ कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अपसंज्ञक और मृगचरित्र ये पाँचों दर्शन, ज्ञान और चारित्र में नियुक्त नहीं हैं एवं मन्द संवेग वाले हैं।।५९७।।
आचारवृत्ति-जो संयमी के गुणों से ‘पार्श्वे तिष्ठति’ ‘पास में-निकट में रहते हैं वे पार्श्वस्थ कहलाते हैं। ये मुनि वसतिका आदि से प्रतिबद्ध रहते हैं अर्थात् वसतिका आदि में अपनेपन की भावना रखकर उनमें आसक्त रहते हैं।
इनमें मोह की बहुलता रहती है, ये रात–दिन उपकरणों के बनाने में लगे रहते हैं, वैद्यमन्त्रज्योतिषादिकुशलत्वेन प्रतिबद्धो राजादिसेवातत्पर:, ओसण्णोऽपगतसंज्ञोऽपगता विनष्टा संज्ञा सम्यग्ज्ञानादिकं यस्यासौ अपगतसंज्ञश्चारित्राद्यपहीनो जिनवचनमजानञ्चारित्रादिप्रभ्रष्ट: करणालस: सांसारिकसुखमानस:, मृगस्येव पशोरिव चरित्रमाचरणं यस्यासौ मृगचरित्र: परित्यक्ताचार्योपदेश: स्वच्छन्दगतिरेकाकी जिनसूत्रदूषणस्तप:सूत्राद्यविनीतो धृतिरहितश्चेत्येते पंच पार्श्वस्था दर्शनज्ञानचारित्रेषु अनियुक्ताश्चारित्राद्यनुष्ठान (द्यननुष्ठान)-परा मंदसंवेगास्तीर्थधर्माद्यकृतहर्षा: सर्वदा न वंदनीया इति।।५९७।।
पुनरपि स्पष्टमवन्दनाया: कारणमाह–
दंसणणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकाल पासत्था।
एदे अवंदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणं।।५९८।।
असंयतजनों की सेवा करते हैं और संयमीजनों से दूर रहते हैं अत: ये पार्श्वस्थ इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं।
कुत्सित–शील-आचरण या खोटा स्वभाव जिनका है वे ‘कुशील’ कहलाते हैं। ये क्रोधादि कषायों से कलुषित रहते हैं, व्रत, गुण और शीलों से हीन हैं, संघ के साधुओं की निन्दा करने में कुशल रहते हैं, अत: ये कुशील कहे जाते हैं। जो अच्छी तरह से असंयत गुणों में आसक्त हैं वे ‘संसक्त’ कहलाते हैं।
ये मुनि आहार आदि की लंपटता से वैद्य–चिकित्सा, मन्त्र, ज्योतिष आदि में कुशलता धारण करते हैं और राजा आदि की सेवा में तत्पर रहते हैं। जिनकी संज्ञा-सम्यग्ज्ञान आदि गुण अपगत-नष्ट हो चुके हैं वे ‘अपसंज्ञक’ कहलाते हैं। ये चारित्र आदि से हीन हैं, जिनेन्द्रदेव के वचनों को नहीं जानते हुए चारित्र आदि से परिभ्रष्ट हैं, तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी हैं एवं जिनका मन सांसारिक सुखों में लगा हुआ है वे अपसंज्ञक इस सार्थक नामवाले हैं।
मृग के समान अर्थात् पशु के समान जिनका चारित्र है वे ‘मृगचरित्र’ कहलाते हैं। ये आचार्यों का उपदेश नहीं मानते हैं, स्वच्छन्दचारी हैं, एकाकी विचरण करते हैं, जिनसूत्र-जिनागम में दूषण लगाते हैं, तप और श्रुत की विनय नहीं करते हैं, धैर्य रहित होते हैं, अत: ‘मृगचरित्र’–स्वैराचारी होते हैं।
ये पाँचों प्रकार के मुनि ‘पार्श्वस्थ’ नाम से भी कहे जाते हैं। ये दर्शन-ज्ञान–चारित्र आदि के अनुष्ठान से शून्य रहते हैं, इन्हें तीर्थ और धर्म आदि में हर्ष रूप संवेग भाव नहीं होता है अत: ये हमेशा ही वन्दना करने योग्य नहीं है ऐसा समझना।
पुनरपि इनको वन्दना न करने का स्पष्ट कारण कहते हैं-
गाथार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की विनय से ये नित्य ही पार्श्वस्थ हैं। ये गुणधारियों के छिद्र देखनेवाले हैं अत: ये वन्दनीय नहीं हैं।।५९८।।
िदर्शनज्ञानचारित्रतपोविनयेभ्यो नित्यकालं पार्श्वस्था दूरीभूता यतोऽत एते न वंदनीयाश्छिद्रप्रेक्षिण: सर्वकालं गुणधराणां च छिद्रान्वेषिण: संयतजनस्य दोषोद्भाविनो यतोऽतो न वंदनीया एतेऽन्ये चेति।।५९८।।
के तर्हि वंद्यतेऽत आह–
समणं वंदिज्ज मेधावी संजदं सुसमाहिदं।
पंचमहव्वदकलिदं असंजमदुगंछयं धीरं।।५९९।।
हे मेधाविन् ! चारित्राद्यनुष्ठानतत्पर ! श्रमणं निर्ग्रन्थरूपं वंदेत पूजयेत् किंविशिष्टं संयतं चारित्राद्यनुष्ठानतन्निष्ठं। पुनरपि िंकविशिष्टं ? सुसमाहितं ध्यानाध्ययनतत्परं क्षमादिसहितं पंचमहाव्रतकलितं असंयमजुगुप्सकं प्राणेन्द्रियसंयमपरं धीरं धैर्योपेतं चागमप्रभावनाशीलं सर्वगुणोपेतमेवं विशिष्टं स्तूयादिति।।५९९।।
तथा–दंसणणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकालमुवजुत्ता।
एदे खु वंदणिज्जा जे गुणवादी गुणधराणं।।६००।।
आचारवृत्ति-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों की विनय से ये नित्यकाल दूर रहते हैं अत: ये वन्दनीय नहीं हैं, क्योंकि ये गुणों से युक्त संयमियों का दोष उद्भावन करते रहते हैं इसलिए इन पार्श्वस्थ आदि मुनियों की वन्दना नहीं करनी चाहिए।
तो कौन वन्दनीय हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-हे बुद्धिमन् ! पाँच महाव्रतों से सहित, असंयम से रहित, धीर, एकाग्रचित्त–वाले संयत ऐसे मुनि की वन्दना करो।।५९९।।
आचारवृत्ति-हे चारित्रादि अनुष्ठान में तत्पर विद्वन् मुने ! तुम ऐसे निर्ग्रंथरूप श्रमण की वन्दना करो जो चारित्रादि के अनुष्ठान में निष्ठ हैं, ध्यान अध्ययन में तत्पर रहते हैं, क्षमादि गुणों से सहित हैं, पाँच महाव्रतों से युक्त हैं, असंयम के जुगुप्सक-प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम में परायण हैं, धैर्यगुण से सहित हैं, आगम की प्रभावना करने के स्वभावी हैं इन सर्वगुणों से सहित मुनियों की वन्दना व स्तुति करो।
उसी प्रकार से और भी बताते हैं-
गाथार्थ-जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनके विनयों में हमेशा लगे रहते हैं, जो गुणधारी मुनियों के गुणों का बखान करते हैं वास्तव में वे मुनि वन्दनीय हैं।।६००।।
दर्शनज्ञानचारित्रतपोविनयेषु नित्यकालमभीक्ष्णमुपयुक्ता: सुष्ठु निरता ये ते एते वंदनीया गुणधराणां शीलधराणां च गुणवादिनो ये च ते वंदनीया इति।।६००।।
संयतमप्येवं स्थितमेतेषु स्थानेषु च न वंदेतेत्याह–
वाखित्तपराहुत्तं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो।
आहारं च करंतो णीहारं वा जदि करेदि।।६०१।।
िव्याक्षिप्तं १ध्यानादिनाकुलचित्तं परावृत्तं पराङ्मुखं पृष्ठदेशत: स्थितं प्रमत्तं निद्राविकथादिरतं मा कदाचिद् वंदिज्ज नो वंदेत संयतमिति संबंधस्तथाऽहारं च कुर्वन्तं भोजनक्रियां कुर्वाणं नीहारं वा मूत्रपुरीषादिकं यदि करोति तदाऽपि नो कुर्वीत वंदनां साधुरिति।।६०१।।
केन विधानेन स्थितो वंद्यत इत्याशंकायामाह–
आसणे आसणत्थं च उवसंतं उवट्ठिदं।
अणु२विण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदे।।६०२।।
आसने विविक्तभूप्रदेशे आसनस्थं पर्यंकादिना व्यवस्थितं अथवा आसने आसनस्थमव्याक्षिप्तमपराङ्मुखमुपशांतं
आचारवृत्ति-गाथा सरल हैं।
संयत भी यदि इस तरह स्थित हैं तो उन स्थानों में उनकी भी वन्दना न करे, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-जो व्याकुलचित्त हैं, पीठ फेर कर बैठे हुए हैं या प्रमाद सहित हैं उनकी भी कभी उस समय वन्दना न करे और यदि आहार कर रहे हैं अथवा नीहार कर रहे हैं उस समय भी वन्दना न करे।।६०१।।
आचारवृत्ति-व्याक्षिप्त-ध्यान आदि से आकुलचित्त हैं, पीठ फेर कर बैठे हुए हैं,प्रमत्त-निद्रा या विकथा आदि में लगे हुए हैं, आहार कर रहे हैं या मल–मूत्रादि विसर्जन कर रहे हैं। संयमी मुनि भी यदि इस प्रकार की स्थिति में हैं तो साधु उस समय उनकी भी वन्दना न करे।
भावार्थ-यह प्रकरण मुख्यतया साधु के लिए है अतः आहार करते समय श्रावक यदि उन्हें आहार देने आते हैं तो ‘नमोस्तु’ करके ही आहार देते हैं।
किस विधान से स्थित हों तो वन्दना करे ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-जो आसन पर बैठे हुए हैं, शांतचित्त हैं एवं सन्मुख मुख किए हुए हैं उनकी अनुज्ञा लेकर विद्वान् मुनि वन्दना विधि का प्रयोग करे।।६०२।।
आचारवृत्ति-एकांत भूमिप्रदेश में जो पर्यंक आदि आसन से बैठे हुए हैं अथवा आसन-पाटे आदि स्वस्थचित्तं उपस्थितं वंदनां कुर्वीत इति स्थितं अनुविज्ञाप्य वंदनां करोमिति संबोध्य मेधावी प्राज्ञोऽनेन विधानेन कृतिकर्म प्रारभेत प्रयुंजीत विदधीतेत्यर्थ:।।६०२।।
कथमिव गतं सूत्रं वंदनाया: स्थानमित्याह–
आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूयणे य सज्भâाए।
अवराहे य गुरूणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।।६०३।।
आलोचनाया: करणे आलोचनाकालेऽथवा करणे षडावश्यककाले परिप्रशने प्रश्नकाले पूजने पूजाकाले च स्वाध्याये स्वाध्यायकालेऽपराधे क्रोधाद्यपराधकाले च गुरूणामाचार्योपाध्यायादीनां वंदनैतेषु स्थानेषु कर्तव्येति।।६०३।।
कस्मिन्स्थाने यदेतत्सूत्रं स्थापितं तद् व्याख्यातमिदानीं कतिवारं कृतिकर्म कर्तव्यमिति यत्सूत्रं स्थापितं तद् व्याख्यानायाह–
चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्भâाए। पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दसा होंति।।६०४।।
सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतुा\वशतितीर्थकरस्तवपर्यन्त: १कृतिकर्मेत्युच्यते। प्रतिक्रमणकाले चत्वारि क्रियाकर्माणि स्वाध्यायकाले च त्रीणि क्रियाकर्माणि भवंत्येवं पूर्वाण्हे क्रियाकर्माणि सप्त तथाऽपराण्हे च क्रियाकर्माणि सप्तैवं पूर्वाण्हेऽपराण्हे च क्रियाकर्माणि चतुर्दश भवंतीति।
कथं प्रतिक्रमणे चत्वारि क्रियाकर्माणि आलोचनाभक्तिकरणे कायोत्सर्ग एकं क्रियाकर्म तथा प्रतिक्रमणभक्तिकरणे कायोत्सर्ग: द्वितीय क्रियाकर्म तथा२ वीरभक्तिकरणे कायोत्सर्गस्तृतीयं त्रिâयाकर्म पर बैठे हुए हैं, जो शांत-निराकुल चित्त हैं, अपनी तरफ मुख करके बैठे हुए हैं, स्वस्थ चित्त हैं, उनके पास आकर-‘हे भगवन् !
मैं वन्दना करूंगा’ ऐसा सम्बोधन करके विद्वान् मुनि इसविध से कृतिकर्म-विधिपूर्वक वन्दना प्रारम्भ करे। इस प्रकार से वन्दना किनकी करना और कैसे करना इन दो प्रश्नों का उत्तर हो चुका है।
अब वन्दना कब करना सो बताते हैं-
गाथार्थ-आलोचना के करने में, प्रश्न पूछने में, पूजा करने में, स्वाध्याय के प्रारम्भ में और अपराध के हो जाने पर इन स्थानों में गुरुओं की वन्दना करे।।६०३।।
आचारवृत्ति-आलोचना के समय, करण अर्थात् छह आवश्यक क्रियाओं के समय, प्रश्न करने के समय, पूजन के समय, स्वाध्याय के समय और अपने से क्रोधादि रूप किसी अपराध के हो जाने पर गुरु-आचार्य, उपाध्याय आदिकों की वन्दना करे। अर्थात् इन-इन प्रकरणों में गुरुओं की वन्दना करनी होती है। ‘किस स्थान में वन्दना करना’ जो यह प्रश्न था उसका उत्तर दे दिया है।
‘अब कितनी बार कृतिकर्म करना चाहिए ’ जो यह प्रश्न हुआ था उसका व्याख्यान करते हैं-
गाथार्थ-प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म, स्वाध्याय में तीन, ये पूर्वाह्न और अपरान्ह से सम्बन्धित ऐसे चौदह कृतिकर्म होते है।।६०४।।
आचारवृत्ति-सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशतितीर्थंकरस्तव पर्यंत जो क्रिया है उसे ‘कृतिकर्म’ कहते हैं। प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म और स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म इस तरह पूर्वान्ह सम्बन्धी क्रियाकर्म सात होते हैं तथा अपरान्ह सम्बन्धी क्रियाकर्म भी सात होते हैं। ऐसे चौदह क्रियाकर्म होते हैं।
प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म वैâसे होते हैं ?
आलोचना भक्ति (सिद्धभक्ति) करने में कायोत्सर्ग होता है वह एक क्रियाकर्म हुआ। प्रतिक्रमण भक्ति के तथा चतुा\वशतितीर्थकरभक्तिकरणे शांतिहेतो: कायोत्सर्गश्चतुर्थं क्रियाकर्म।
कथं च स्वाध्याये त्राrणि क्रियाकर्माणि, श्रुतभक्तिकरणे कायोत्सर्ग एकं क्रियाकर्म तथाऽऽचार्यभक्तिक्रियाकरणे द्वितीयं क्रियाकर्म तथा स्वाध्यायोपसंहारे श्रुतभक्तिकरणे कायोत्सर्गस्तृतीयं क्रियाकर्मैवं जातिमपेक्ष्य त्रीणि क्रियाकर्माणि भवंति स्वाध्याये शेषाणां वंदनादिक्रियाकर्मणामत्रैवान्तर्भावो द्रष्टव्य:।
प्रधानपदोच्चारणं कृतं यत: पूर्वाण्हे दिवस इति एवमपराण्हे रात्रावपि द्रष्टव्यं भेदाभावात् अथवा पश्चिमरात्रौ प्रतिक्रमणे क्रियाकर्माणि चत्वारि स्वाध्याये त्रीणि वंदनायां द्वे, सवितर्युदिते स्वाध्याये त्रीणि मध्याह्नवंदनायां द्वे एवं पूर्वाण्हक्रियाकर्माणि चतुर्दश भवन्ति, तथाऽपराण्हे वेलायां स्वाध्याये त्रीणि क्रियाकर्माणि प्रतिक्रमणे चत्वारि वंदनायां द्वे योगभक्तिग्रहणोपसंहारकालयो: द्वे रात्रौ प्रथमस्वाध्याये त्रीणि।
एवमपराण्हे क्रियाकर्माणि चतुर्दश भवंति, प्रतिक्रमणस्वाध्याय-कालयोरुपलक्षणत्वादिति, अन्यान्यपि क्रियाकर्माण्यत्रैवान्तर्भवन्ति नाव्यापकत्वमिति संबन्ध:। पूर्वाण्हसमीपकाल: पूर्वाण्ह इत्युच्येतऽपराण्हसमीपकालोऽपराण्ह इत्युच्यते तस्मान्न दोष इति।।६०४।।
करने में कायोत्सर्ग होता है वह दूसरा क्रियाकर्म हुआ। वीरभक्ति के करने में जो कायोत्सर्ग है वह तृतीय क्रियाकर्म हुआ तथा चतुविंशतितीर्थंकरभक्ति के करने में शान्ति के लिए जो कायोत्सर्ग है वह चतुर्थ क्रियाकर्म हुआ।
स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म वैâसे हैं ?
स्वाध्याय के प्रारम्भ में श्रुतभक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है वह एक कृतिकर्म है तथा आचार्य भक्ति की क्रिया करने में जो कायोत्सर्ग है वह दूसरा कृतिकर्म है। तथा स्वाध्याय की समाप्ति में श्रुतभक्ति करने में जो कायोत्सर्ग है वह तीसरा कृतिकर्म है। इस तरह जाति की अपेक्षा तीन क्रियाकर्म स्वाध्याय में होते हैं।
शेष वन्दना आदि क्रियाओं का इन्ही में अन्तर्भाव हो जाता है। प्रधान पद का ग्रहण किया है जिससे पूर्वाण्ह कहने से दिवस का और अपराण्ह कहने से रात्रि का भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि पूर्वाण्ह से दिवस में और अपराण्ह से रात्रि में कोई भेद नहीं है।
अथवा पश्चिम रात्रि के प्रतिक्रमण में क्रियाकर्म चार, स्वाध्याय में तीन और वन्दना में दो, सूर्य उदय होने के बाद स्वाध्याय के तीन, मध्यान्ह देववन्दना के दो इस प्रकार से पूर्वाण्ह सम्बन्धी क्रियाकर्म चौदह होते हैं।
तथा अपराण्हबेला में स्वाध्याय में तीन क्रियाकर्म, प्रतिक्रमण में चार, वन्दना में दो, योगभक्ति ग्रहण और उपसंहार में दो एवं रात्रि में प्रथम स्वाध्याय के तीन इस तरह अपराण्ह सम्बन्धी क्रियाकर्म चौदह होते हैं। गाथा में प्रतिक्रमण और स्वाध्याय काल उपलक्षण रूप हैं इससे अन्य भी क्रियाकर्म इन्हीं में अन्तर्भूत हो जाते हैं। अत: अव्यापक दोष नहीं आता है। चूँकि पूर्वाण्ह के समीप का काल पूर्वाण्ह कहलाता है और अपराण्ह के समीप का काल अपराण्ह कहलाता है इसलिए कोई दोष नहीं है।
भावार्थ-मुनि के अहोरात्र सम्बन्धी अटठाईस कायोत्सर्ग कहे गये हैं। उन्हीं का यहाँ वर्णन किया गया है। यथा दैवसिक-रात्रिक इन दो प्रतिक्रमण सम्बन्धी कायोत्सर्ग ८, त्रिकाल देववन्दना सम्बन्धी ६, पूर्वाण्ह, अपराण्ह, तथा पूर्वरात्रि और अपररात्रि इन चार काल में तीन बार स्वाध्याय सम्बन्धी १२, रात्रियोग ग्रहण और विसर्जन इन दो समयों में दो बार योगभक्ति सम्बन्धी २,कुल मिलाकर २८ कायोत्सर्ग होते हैं। अन्यत्र ग्रन्थों में भी इनका उल्लेख है यथा-
स्वाध्याये द्वादशेऽष्टा षड्वन्दनेऽष्टौ प्रतिक्रमे।
कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचरा:१।।७५।।
कत्यवनतिकरणमित्यादि यत्पृष्टं तदर्थमाह–
दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य।
चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे।।६०५।।
दोणदं–द्वे अवनती पंचनमस्कारादावेकावनतिर्भूमिसंस्पर्शस्तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ द्वितीयाऽवनति: शरीरनमनं द्वे अवनती जहाजादं–यथाजातं जातरूपसदृशं क्रोधमानमायासंगादिरहितं।
वारसावत्तमेव य–द्वादशावर्त्ता एवं च पंचनमस्कारोच्चारणादौ मनोवचनकायानां संयमनानि शुभयोगवृत्तयस्त्रय आवर्त्तास्तथा पंचनमस्कारसमाप्तौ मनोवचनकायानां शुभवृत्तयस्त्रीण्यन्यान्यावर्त्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ मनोवचनकाया: शुभवृतस्त्रीण्यपराण्यावर्त्तनानि तथा चतुाशतिस्तवसमाप्तौ शुभमनोवचनकायवृत्तयस्त्रीण्यावर्त्तनान्येवं द्वादशधा
मनोवचनकायवृत्तयो द्वादशावर्त्ता भवति, अथवा चतसृषु दिक्षु चत्वार: प्रणामा एकस्मिन् भ्रमणे एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवंति, चदुस्सिरं–चत्वारि शिरांसि पंचनमस्कारस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर:करणं तथा चतुा\वशतिस्तवस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर: करणमेवं चत्वारि शिरांसि भवंति, त्रिशुद्धं मनोवचनकायशुद्धं क्रियाकर्म प्रयुंक्ते करोति।
द्वे अवनती यस्मिन्तत् द्व्यवनति क्रियाकर्म द्वादशावर्त्ता: यस्ंिमस्तत् द्वादशावर्त्तं, मनोवचनकायशुद्ध्या चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तत् चतु:शिर: क्रियाकर्मैवं विशिष्टं यथाजातं क्रियाकर्म प्रयुंजीतेति।।६०५।।
अर्थ-स्वाध्याय के बारह, वन्दना के छह, प्रतिक्रमण के आठ और योगभक्ति के दो ऐसे अहोरात्र सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैं।
‘कितनी अवनति करना ?’ इत्यादि रूप जो प्रश्न हुए थे उन्हीं का उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-जातरूप सदृश दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें।।६०५।।
आचारवृत्ति-दो अवनति-पंच नमस्कार के आदि में एक बार अवनति अर्थात् भूमि स्पर्शनात्मक नमस्कार करना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि में दूसरी बार अवनति-शरीर का नमाना अर्थात् भूमिस्पर्शनात्मक नमस्वâार करना ये दो अवनति हैं।
यथाजात-जातरूप सदृश क्रोध, मान, माया और संग-परिग्रह या लोभ आदि रहित कृतिकर्म को मुनि करते हैं। द्वादश आवर्त-पंच नमस्कार के उच्चारण के आदि में मन वचन काय के संयमन रूप शुभ योगों की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त पंचनमस्कार की समाप्ति में मन, वचन, काय की शुभवृत्ति होना ये तीन आवर्त तथा चतुर्विंशति स्तव की समाप्ति में शुभ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त-ऐसे मन-वचन-काय की शुभप्रवृत्ति रूप बारह आवर्त होते हैं।
अथवा चारों ही दिशाओं में चार प्रणाम एक भ्रमण में, ऐसे तीन बार के भ्रमण में बारह प्रणाम हो जाते हैं।
चतु:शिर-पंचनमस्कार के आदि और अन्त में कर मुकुलित करके अंजलि जोड़कर माथे से लगाना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में कर मुकुलित करके माथे से लगाना ऐसे चार शिर-शिरोनति होती हैं।
इस तरह इसे एक कृतिकर्म में दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैं। मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक मुनि इस विधानयुक्त यथाजात कृतिकर्म का प्रयोग करें।
विशेषार्थ-एक बार के कायोत्सर्ग में यह उपर्युक्त विधि की जाती है, उसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारम्भ में की जाती है। जैसे-देववन्दना में चैत्यभक्ति के प्रारम्भ में-पुनरपि क्रियाकर्मप्रयुंजनविधानमाह–
तिविहं तियरणसुद्धं मयरहियं दुविहठाण पुणरुत्तं।
विणएण कमविसुद्धं किदियम्मं होदि कायव्वं।।६०६।।
त्रिविधं ग्रंथार्थोभयभेदेन त्रिप्रकारं, अथवाऽवनतिद्वयमेक: प्रकार: द्वादशावर्त्त: द्वितीय: प्रकारश्चतु:-शिरस्तृतीयं विधानमेवं त्रिविधं, अथवा कृतकारितानुमतिभेदेन त्रिविधं, अथवा प्रतिक्रमणस्वाध्यायवन्दनाभेदेन त्रिविधं, अथवा पंचनमस्कारध्यानचतुा\वशतिस्तवभेदेन त्रिविधमिति।
त्रिकरणशुद्धं मनोवचनकायाशुभपरिणामविमुक्तं अथवाऽवनतिद्वय-द्वादशावर्त्तचतु: शिर: क्रियाभि: शुद्धं। मदरहितं जात्यादिमदहीनं। द्विविधस्थानं द्वे पर्यंककायोत्सर्गौ स्थाने यस्य तत् द्विविधं स्थानं।
पुनरुक्तं क्रियां क्रियां प्रति, तदेव क्रियत इति पुनरुक्तं, विनयेन विनय युक्ता ‘अथ पौर्वाण्हिक-देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्री चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’।
यह प्रतिज्ञा हुई, इसको बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें। यह एक अवनति हुई। अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके ‘णमो अरिहंताणं……..चत्तारिमंगलंंं……अड्ढाइज्जदीव….. इत्यादि पाठ बोलते हुए …..दुच्चरियं वोस्सरामि’ तक पाठ बोले यह ‘सामायिकस्तव’ कहलाता है।
पुन: तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह सामायिक दण्डक के आदि और अंत में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुई। पुन: नौ बार णमोकार मन्त्र को सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में जपकर भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करें।
इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो गयीं।
बाद में तीन आवर्त,एक शिरोनति करके ‘थोस्सामि स्तव’ पढ़कर अन्त में पुन: तीन आवर्त, एक शिरोनति करें। इस तरह चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति हो गयीं। ये सामायिक स्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयीं।
इस तरह एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं।
जुड़ी हुई अंजुलि को दाहिनी तरफ से घुमाना सो आवर्त का लक्षण है। यहाँ पर टीकाकार ने मन-वचन- काय की शुभप्रवृत्ति का करना आवर्त कहा है, जोकि उस क्रिया के करने में होना ही चाहिए।
इतनी क्रियारूप कृतिकर्म को करके ‘जयति भगवान्’ इत्यादि चैत्यभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। ऐसे ही जो भी भक्ति जिस क्रिया में करना होती है तो यही विधि की जाती है।
पुनरपि क्रियाकर्म की प्रयोगविधि बताते हैं-
गाथार्थ-अवनति, आवर्त और शिरोनति ये तीन विध, मनवचनकाय से शुद्ध, मदरहित, पर्यंक और कायोत्सर्ग इन दो स्थान युक्त, पुनरुक्ति युक्त विनय से क्रमानुसार कृतिकर्म करना होता है।।६०६।।
आचारवृत्ति-त्रिविध-ग्रंथ, अर्थ और उभय के भेद से तीन प्रकार अथवा दो अवनति यह एक प्रकार, बारह आवर्त यह दो प्रकार, चार शिर यह तृतीय प्रकार, ऐसे तीन प्रकार अथवा कृत, कारित, अनुमोदना के भेद से तीन प्रकार अथवा प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और वन्दना के भेद से तीन प्रकार अथवा पंचनमस्कार, ध्यान और चतुर्विंशतिस्तव अर्थात् सामायिक दण्डक, कायोत्सर्ग और थोस्मामिस्तव इन भेदों से तीन प्रकार होते हैं।
अर्थात् यहाँ त्रिविध शब्द से पांच तरह से तीन प्रकार को लिया है जो कि सभी ग्राह्य हैं, किन्तु फिर भी यहाँ कृतिकर्म में द्वितीय प्रकार और पाँचवाँ प्रकार ही मुख्य है।
क्रमविशुद्धं१ क्रममनतिलंघ्यागमानुसारेण कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यं। न पुनरुक्तो दोषो द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक-शिष्यसंग्रहणादिति।।६०६।।
कति दोषविप्रमुक्तं कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यमिति यत्पृष्टं तदर्थमाह–
अणाठिदं च थट्टं च पविट्ठं परिपीडिदं।
दोलाइयमंकुसियं तहा कच्छभिंरगियं।।६०७।।
मच्छुव्वत्तं मणोदुट्ठं वेदिआवद्धमेव य।
भयसा चेव भयत्तं इड्ढिगारव गारवं।।६०८।।
तेणिदं पडिणिदं चावि पदुट्ठं तज्जिदं तधा।
सद्दं च हीलिदं चावि २तह तिवलिद३ कुंचिदं।।६०९।।
दिट्ठमदिट्ठं चावि य संघस्स करमोयणं।
आलद्धमणालद्धं च हीणमुत्तरचूलियं।।६१०।।
मूगं च दद्दुरं चावि चुलुलिदमपच्छिमं।
बत्तीसदोसविसुद्धं किदियम्मं पउंजदे।।६११।।
अनाठिदमनादृतं विनादरेण संभ्रममंतरेण यत् क्रियाकर्म क्रियते तदनादृतमित्युच्यते अनादृतनामा४ दोष:। थट्टं च– स्तब्धश्च विद्यादिगर्वेणोद्धत: सन् य: करोति क्रियाकर्म तस्य स्तब्धनामा५ दोष: पविट्टं–प्रविष्ट: पंचपरमेष्ठिनामत्यासन्नो त्रिकरणशुद्ध-मन-वचन-काय के अशुभ परिणाम से रहित अथवा दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिर इन क्रियाओं से शुद्ध।
मदरहित-जाति, कुल आदि आठ मदों से रहित।
द्विविधस्थान-पर्यंक आसन और खड़े होकर कायोत्सर्ग आसन ये दो प्रकार के स्थान कृतिकर्म में होते हैं।
पुनरुक्त -क्रिया–क्रिया के प्रति अर्थात् प्रत्येक क्रियाओं के प्रति वही विधि की जाती है यह पुनरुक्त होता है। यहाँ यह दोष नहीं है। प्रत्युत करना ही चाहिए।
इस तरह से त्रिविध, त्रिकरणशुद्ध, मदरहित, द्विविधस्थान युक्त और पुनरुक्त इतने विशेषणों से युक्त, विनय से युक्त होकर, क्रम का उल्लंघन न करके, आगम के अनुसार कृतिकर्म करना चाहिए। पूर्वगाथा में यद्यपि कृतिकर्म का लक्षण बता दिया था फिर भी इस गाथा में विशेष रूप से कहा गया है अत: पुनरुक्त दोष नहीं है।
क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायाथर््िाक शिष्यों के संग्रह के लिए ऐसा कहा गया है। अर्थात् संक्षेप से समझने की बुद्धि वाले शिष्य पहली गाथा से स्पष्ट समझ लेंगे, किंतु विस्तार से समझने की बुद्धि वाले शिष्यों के लिए दोनों गाथाओं के द्वारा समझना सरल होगा ऐसा जानना।
कितने दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिये ? ऐसा जो प्रश्न हुआ था अब उसका समाधान करते हैं-
गाथार्थ-अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायति, अंकुशित, कच्छपरिंगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्यत्त्व, ऋद्धिगौरव, गौरव, स्तेनित, प्रतिनीत, प्रदुष्ट, तर्जित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन, आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तर चूलिका, मूक, दर्दुर और चुलुलित इस प्रकार साधु इन बत्तीस दोषों से विशुद्ध कृतिकर्म का प्रयोग करते हैं।।६०७-६११।।
आचारवृत्ति-वन्दना के समय जो कृतिकर्म प्रयोग होता है उसके अर्थात् वन्दना के बत्तीस दोष होते हैं, उन्हीं का क्रम से स्पष्टीकरण करते हैं-
भूत्वा य: करोति कृतिकर्म तस्य प्रविष्टदोष:, परिपीडिदं–परिपीडितं करजानुप्रदेशै: परिपीड्य संस्पर्श्य य: करोति वंदनां तस्य परिपीडितदोष: दोलायिदं–दोलायितं दोलामिवात्मानं चलाचलं कृत्वा शयित्वा वा यो विदधाति वन्दनां तस्य दोलायितदोष: अंकुसियं–अंकुशितमंकुशमिव करांगुष्ठं ललाटदेशे कृत्वा यो वन्दनां करोति तस्यांकुशितदोष:, तथा कच्छभिंरगियं–कच्छपरिंगितं चेष्टितं कटिभागेन कृत्वा यो विदधाति वन्दनां तस्य कच्छपरिंगितदोष:।।६०७।।
तथा–
मत्स्योद्वर्त्त: पार्श्वद्वयेन वन्दनाकारणमथवा मत्स्यस्य इव कटिभागेनोद्वर्त्तं कृत्वा यो वंदनां विदधाति तस्य मत्स्योद्वर्त्तदोष:, मनसाचार्यादीनां दुष्टो भूत्वा यो वंदनां करोति तस्य मनोदुष्टदोष:।
संक्लेशयुक्तेन मनसा यद्वा वंदनाकरणं, वेदियावद्धमेव य–वेदिकाबद्ध एव च वेदिकाकारेण हस्ताभ्यां बंधो हस्तपंजरेण वामदक्षिणस्तनप्रदेशं प्रपीड्य जानुद्वयं वा प्रबद्ध्य वंदनाकरणं वेदिकाबद्धदोष:, भयसा चेव–भयेन चैव मरणादिभीतस्य भयसंत्रस्तस्य यद्वन्दनाकरणं भयदोष: भयतो
१. अनादृत-बिना आदर के या बिना उत्साह के जो क्रियाकर्म किया जाता है वह अनादृत कहलाता है। यह अनादृत नाम का पहला दोष है।
२. स्तब्ध-विद्या आदि के गर्व से उद्धत-उद्दंड होकर जो क्रियाकर्म किया जाता है वह स्तब्ध दोष है।
३. प्रविष्ट-पंचपरमेष्ठी के अति निकट होकर जो कृतिकर्म किया जाता है वह प्रविष्ट दोष है।
४. परिपीड़ित-हाथ से घुटनों को पीड़ित-स्पर्श करके जो वन्दना करता है उसके परिपीड़ित दोष होता है।
५. दोलायित-झूला के समान अपने को चलाचल करके अथवा सोकर (या नींद से झूमते हुए) जो वन्दना करता है उसके दोलायित दोष होता है।
६. अंकुशित-अंकुश के समान हाथ के अंगूठे को ललाट पर रखकर जो वन्दना करता है उसके अंकुशित दोष होता है ।
७. कच्छपिंरगित-कछुए के समान चेष्टा करके कटिभाग से सरककर जो वन्दना करता है उसके कच्छपरिंगित दोष होता है ।
८. मत्स्योद्वर्त-दो पसवाड़ों से वन्दना करना अथवा मत्स्य के समान कटिभाग को ऊपर उठाकर (या पलटकर) जो वन्दना करता है उसके मत्स्योद्वर्त दोष होता है ।
९. मनोदुष्ट-मन से आचार्य आदि के प्रति द्वेष धारण करके जो वन्दना करता है। अथवा संक्लेशयुक्त मन से जो वन्दना करता है, उसके मनोदुष्ट नाम का दोष होता है।
१०. वेदिकाबद्ध-वेदिका के आकार रूप से दोनों हाथों को बाँधकर हाथ पंजर से वाम-दक्षिण स्तन प्रदेश को पीड़ित करके या दोनों घुटनों को बाँध करके वन्दना करना वेदिकाबद्ध दोष है।
११. भय-भय से अर्थात् मरण आदि से भयभीत होकर या भय से घबड़ाकर वन्दना करना, भय दोष है।
१२. बिभ्यत्त्व-गुरु आदि से डरते हुए या परमार्थ से परे बालकस्वरूप परमार्थ के ज्ञान से शून्य अज्ञानी हुए वन्दना करना बिभ्यत् दोष है ।
१३. ऋद्धिगौरव-वन्दना को करने से महापरिकर वाला चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ मेरा भक्त हो जावेगा इस अभिप्राय से जो वन्दना करता है उसके ऋद्धिगौरव दोष होता है ।
१४. गौरव-अपना माहात्म्य आसन आदि के द्वारा प्रगट करके या रस के सुख के लिए जो वन्दना करता है उसके गौरव नाम का दोष होता है ।
बिभ्यतो गुर्वादिभ्यतो बिभ्यतो भयं प्राप्नुवत: परमार्थात्परस्य बालस्वरूपस्य वंदनाभिधानं बिभ्यद्दोष: इड्डिगारव ऋद्धिगौरवं वंदनामकुर्वतो महापरिकरश्चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघो भक्तो भवत्येवमभिप्रायेण यो वंदनां विदधाति तस्य ऋद्धिगौरवदोष:। गारवं गौरवं आत्मनो माहात्म्यासनादिभिरावि:कृत्य रससुखहेतोर्वा यो वंदनां करोति तस्य गौरववंदनादोष:।।६०८।।
तथा–तेणिदं स्तेनितं चौरबुद्ध्या यथा गुर्वादयो न जानंति वन्दनादिकमपवरकाभ्यन्तरं प्रविश्य वा परेषां वंदनां चोरयित्वा य: करोति वंदनादिकं१ तस्य स्तेनितदोष:, पडिणिदं प्रतिनीतं देवगुर्वादीनां प्रतिकूलो भूत्वा यो वंदनां विदधाति तस्य प्रतिनीतदोष:, पदुटठं प्रदुष्टोऽन्यै: सह प्रद्वेषं वैरं कलहादिकं विधाय क्षंतव्यमकृत्वा य: करोति क्रियाकलापं तस्य प्रदुष्टदोष:।
तज्जिदं तर्जितं तथा अन्यांस्तर्जयन्नन्येषां भयमुत्पादयन्यदि वन्दनां करोति तदा तर्जितदोषस्त-स्याथवाऽचार्यादिभिरंगुल्यादिना तर्जित: शासितो यदि ‘नियमादिकं न करोषि निर्वासयामो भवन्त’’-मिति तर्जितो य: करोति तस्य तर्जितदोष:। सद्द च शब्दं ब्रुवाणे यो वन्दादिकं करोति मौनं परित्यज्य तस्य शब्ददोषोऽथवा सट्ठं चेति पाठस्तत एवं ग्राह्मं शाठ्येन मायाप्रपंचेन यो वन्दनां करोति तस्य शाठ्य्य्ादोष:।
हीलिदं हीलितं वचनेनाचार्यादीनां परिभवं कृत्वा य: करोति वन्दनां तस्य हीलितदोष:, तह तिवलिदं तथा त्रिविलिते शरीरस्य त्रिषु कटिहृदयग्रीवाप्रदेशेषु भंगं कृत्वा ललाटदेशे वा त्रिवलिं कृत्वा यो विदधाति वन्दनां तस्य त्रिवलितदोष:, कुंचिदं कुचितं कुंचितहस्ताभ्यां शिर: परामर्शं कुर्वन् यो वन्दनां विदधाति जानुमध्ययोर्वा शिर: कृत्वा संकुचितो भूत्वा यो वन्दनां करोति तस्य संकुचितदोष:।।६०९।।
१५. स्तेनित-जिस प्रकार से गुरु आदि न जान सकें ऐसी चोर बुद्धि से या कोठरी में प्रवेश करके वन्दना करना या अन्य जनों से आँखें चुराकर अर्थात् नहीं देख सकें ऐसे स्थान में वन्दना करना सो स्तेनित दोष है ।
१६. प्रतिनीत-गुरु आदि के प्रतिकूल होकर जो वन्दना करता है उसके प्रतिनीत दोष होता है।
१७. प्रदुष्ट-अन्य के साथ प्रद्वेष-वैर, कलह आदि करके पुन: उनसे क्षमाभाव न कराकर जो क्रियाकलाप करता है उसके प्रदुष्ट दोष होता है।
१८. तर्जित-अन्यों की तर्जना करते हुए अर्थात् अन्य साधुओं को भय उत्पन्न करते हुए यदि वन्दना करता है। अथवा आचार्य आदि के द्वारा अंगुली आदि से तर्जित-शासित-दंडित होता हुआ यदि वन्दना करता है अर्थात् ‘यदि तुम नियम आदि क्रियाएँ नहीं करोगे तो हम तुम्हें संघ से निकाल देंगे।’ ऐसी आचार्यों की फटकार सुनकर जो वन्दना करता है उसके तर्जित दोष होता है।
१९. शब्द-मौन को छोड़कर शब्द बोलते हुए जो वन्दना आदि करता है उसके शब्द दोष होता है। अथवा ‘सट्ठं च’ ऐसा पाठ भेद होने से उसका ऐसा अर्थ करना कि शठता से, माया प्रपंच से जो वन्दना करता है उसके शाठ्य दोष होता है।
२०. हीलित-वचन से आचार्य आदिकों का तिरस्कार करके जो वन्दना करता है उसके हीलित दोष होता है ।
२१. त्रिवलित-शरीर के कटि, हृदय और ग्रीवा इन तीन स्थानों में भंग डालकर अर्थात् कमर, हृदय और गरदन को मोड़कर वन्दना करना या ललाट में त्रिवली-तीन सिकुड़न डालकर वन्दना करना सो त्रिवलित दोष है।
२२. कुंचित-संकुचित किए हाथों से शिर का स्पर्श करते हुए जो वन्दना करता है या घुटनों के मध्य शिर को रखकर संकुचित होकर जो वन्दना करता है उसके संकुचित दोष होता है।
२३. दृष्ट–आचार्यादि यदि देख रहे हैं तो सम्यक् विधान से वन्दना आदि करता है अन्यथा स्वेच्छानुसार करता है अथवा दिशाओं का अवलोकन करते हुए यदि वन्दना करता है तो उसके दृष्ट दोष होता है।दिट्ठं दृष्टं आचार्यादिभिर्दृष्ट: सन् सम्यग्विधानेन वन्दनादिकं करोत्यन्यथा स्वेच्छयाऽथवा दिगवलोकनं कुर्वन् वन्दनादिकं यदि विदधाति तदा तस्य दृष्टो दोष:।
अदिट्ठं अदृष्टं आचार्यादीनां दर्शनं पृथक् त्यक्त्वा भूप्रदेशं शरीरं चाप्रतिलेख्यातदगतमना: पृष्ठदेशतो वा भूत्वा यो वन्दनादिकं करोति तस्यादृष्टदोष:, अपि च संघस्स करमोयणं संघस्य करमोचनं संघस्य मायाकरो वृष्टिदतिव्योऽन्यथा न ममोपरि संघ: शोभन: स्यादिति ज्ञात्वा यो वन्दनादिकं करोति तस्य संघकरमोचनदोष:।
आलद्धमणालद्धं उपकरणादिकं लब्ध्वा यो वन्दनां करोति तस्य लब्धदोष:। अणालद्धं–अनालब्धं उपकरणादिकं लप्स्येऽहमिति बुद्ध्या य: करोति वन्दनादिकं तस्यानालब्धदोष:। हीणं हीनं ग्रंथार्थकालप्रमाणरहितां वन्दनां य: करोति तस्य हीनदोष:। उत्तरचूलियं उत्तरचूलिकां वन्दनां स्तोकेन निर्वर्त्य वन्दनायाश्चूलिकाभूतस्यालोचनादिकस्य महता कालेन निर्वर्त्तकं कृत्वा यो वन्दनां विदधाति तस्योत्तरचूलिकादोष:।।६१०।।
तथा– मूगं च मूकश्च मूक इव मुखमध्ये य: करोति वन्दनामथवा वन्दनां कुर्वन् हुंकारांगुल्यादिभि: संज्ञां च य: करोति तस्य मूकदोष:, दद्दुरं दर्दुरं आत्मीयशब्देनान्येषां शब्दानभिभूय महाकलकलं वृहद्गलेन कृत्वा यो वन्दनां करोति तस्य दर्दुरदोष:, अविचुलुलिदमपच्छिमं अपि चुरुलितमपश्चिमं एकस्मिन्प्रदेशे स्थित्वा करमुकुलं संभ्राम्य सर्वेषां यो
२४. अदृष्ट-आचार्य आदिकों को पृथक्-पृथक् न देखकर भूमिप्रदेश और शरीर का पिच्छी से परिमार्जन न करके, वन्दना की क्रिया और पाठ में उपयोग न लगाते हुए अथवा गुरु आदि के पृष्ठ देश में- उनके पीठ पीछे होकर जो वन्दना आदि करता है उसके अदृष्ट दोष होता है।
२५. संघकरमोचन-संघ को मायाकर-वृष्टि अर्थात् कर भाग देना चाहिए अन्यथा मेरे प्रति संघ शुभ नहीं रहेगा अर्थात् मुझसे संघ रुष्ट हो जावेगा ऐसा समझ कर जो वन्दना आदि करता है उसके संघकर -मोचन दोष होता है ।
२६. आलब्ध-उपकरण आदि प्राप्त करके जो वन्दना करता है उसके लब्ध दोष होता है ।
२७. अनालब्ध-‘उपकरणादि मुझे मिलें’ ऐसी बुद्धि से यदि वन्दना आदि करता है तो उसके अनालब्ध दोष होता है ।
२८. हीन-ग्रन्थ, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित जो वन्दना करता है उसके हीन दोष होता है। अर्थात् वन्दना सम्बन्धी पाठ के शब्द जितने हैं उतने पढ़ना चाहिए, उनका अर्थ ठीक समझते रहना चाहिये और जितने काल में उनको पढ़ना है उतने काल में ही पढ़ना चाहिए। इससे अतिरिक्त जो इन प्रमाणों को कम कर देता है, जल्दी-जल्दी पाठ पढ़ लेता है इत्यादि उसके हीन दोष होता है।
२९. उत्तरचूलिका-वन्दना का पाठ थोड़े ही काल में पढ़कर वन्दना की चूलिका भूत आलोचना आदि को बहुत काल तक पढ़ते हुए जो वन्दना करता है उसके उत्तरचूलिका दोष होता है। अर्थात् ‘जयतु भगवान् हेमाम्भोज’ इत्यादि भक्तिपाठ जल्दी पढ़कर ‘इच्छामि भंते ! चेइय भक्ति’ इत्यादि चूलिका रूप आलोचनादि पाठ को बहुत मंदगति से पढ़ना आदि उत्तर चूलिका दोष है।
३०. मूक-गूंगे के समान मुख में ही जो वन्दना का पाठ बोलता है अथवा वन्दना करने में ‘हुंकार’ आदि शब्द करते हुए या अंगुली आदि से इशारा करते हुए जो वन्दना करता है उसके मूक दोष होता है।
३१. दर्दुर-अपने शब्दों से दूसरों के शब्दों को दबाकर महाकलकल ध्वनि करते हुए ऊँचे स्वर से जो वन्दना करता है उसके दर्दुर दोष होता है।
वन्दनां करोत्यथवा पंचमादिस्वरेण यो वन्दनां करोति तस्य चुरुलितदोषो भवत्यपश्चिम:। एतैर्द्वात्रिंशद्दोषै: परिशुद्धं विमुक्तं यदि कृतिकर्म प्रयुंक्ते करोति साधुस्ततो विपुलनिर्जराभागी भवति।।६११।।
यदि पुनरेवं करोति तदा–
किदियम्मं पि करंतो ण होदि किदयम्मणिज्जराभागी।
बत्तीसाणण्णदरं साहू ठाणं विराहंतो।।६१२।।
कृतिकर्म कुर्वन्नपि न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी कृतिकर्मणा या कर्मनिर्जरा तस्या: स्वामी न स्यात्, यदि द्वात्रिंशद्दोषेभ्योऽन्यतरं स्थानं दोषं १निवारयन्नाचरन् क्रियाकर्म कुर्यात्साधुरिति। अथवा द्वात्रिंशद्दोषेभ्योऽन्यतरेण दोषेण स्थानं कायोत्सर्गादिवन्दनां विराधयन्कुर्वीतेति।।६१२।।
कथं तर्हि वन्दना कुर्वीत साधुरित्याह–
हत्थंतरेणबाधं संफासपमज्जणं पउज्जंतो।
२जाचेंतो वंदणयं इच्छाकारं कुणइ भिक्खू।।६१३।।
हस्तान्तरेण हस्तमात्रान्तरेण यस्य वन्दना क्रियते यश्च करोति तयोरन्तरं हस्तमात्रं भवेत् तस्मिन् हस्तान्तरे स्थित्वा अणावाधेऽनाबाधे बाधामन्तरेण संफासपमज्झणं स्वस्य देहस्य स्पर्श: संस्पर्शनं कटिगुह्यादिकं च तस्य प्रमार्जनं प्रतिलेखनं शुद्धिं पउंजंतो प्रयुंजान: प्रकर्षेण कुर्वन् जाचेंतो वन्दणयं वन्दनां च याचमानो ‘भवद्भ्यो वन्दनां विदधामि’ ३२. चुलुलित-एक प्रदेश में खड़े होकर मुकुलित अंगुलि को घुमाकर जो सभी की वन्दना कर लेता है या जो पंचम आदि स्वर से वन्दना पाठ करता है उसके चुलुलित दोष होता है।
यदि साधु इन बत्तीस दोषों से रहित कृतिकर्म का प्रयोग करता है-वन्दना करता है तो वह विपुल कर्मों की निर्जरा करता है ऐसा समझना।
यदि पुन: ऐसा करता है तो लाभ है उसे ही ग्रन्थकार स्वयं बताते हैं-
गाथार्थ-इन बत्तीस स्थानों में से एक भी स्थान की विराधना करता हुआ साधु कृतिकर्म को करते हुए भी कृतिकर्म से होने वाली निर्जरा को प्राप्त नहीं होता है।।६१२।।
आचारवृत्ति-इन बत्तीस दोषों में से किसी एक भी दोष को करते हुए यदि साधु क्रियाकर्म-वन्दना करता है तो कृतिकर्म को करते हुए भी उस कृतिकर्म व्ाâे द्वारा होने वाली निर्जरा का स्वामी नहीं हो सकता है। अथवा इन बत्तीस दोषों में से किसी एक दोष के द्वारा स्थान अर्थात् कायोत्सर्ग आदि क्रियारूप वन्दना की विराधना कर देता है ।
तो फिर साधु किस प्रकार वन्दना करे ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-बाधा रहित एक हाथ के अन्तर से स्थित होकर भूमि शरीर आदि का स्पर्श व प्रमार्जन करता हुआ मुनि वन्दना की याचना करके वन्दना को करता है।।६१३।।
आचारवृत्ति-जिसकी वन्दना की है और जो वन्दना करता है उन दोनों में एक हाथ का अन्तर रहना चाहिए अर्थात् गुरु या देव आदि की वन्दना के समय उनसे एक हाथ के अन्तर से स्थित होकर उनको बाधा न करते हुए वन्दना करे।
अपने शरीर का स्पर्श और प्रमार्जन अर्थात् कटि, गुह्य आदि प्रदेशों का पिच्छिका से स्पर्श व प्रमार्जन करके शरीर की शुद्धि को करता हुआ प्रकर्ष रीति से वन्दना की याचना करे। अर्थात् ‘हे भगवन्! मैं आपकी वन्दना करूँगा’ इस प्रकार याचना-प्रार्थना करके साधु इच्छाकार-वन्दना और प्रणाम को करता है।
इति याञ्चां कुर्वन्निच्छाकारं वन्दनाप्रणामं करोति भिक्षु: साधुरेवं द्वात्रिंशद्दोषपरिहारेण तावत् द्वात्रिंशद् गुणा भवंति तस्माद्यत्नपरेण हास्यभयासादनारागद्वेषगौरवालस्यमदलोभस्तेनभावप्रातिकूल्यवालत्वोपरोधहीनाधिकभावशरीर-परामर्शवचनभृकुटिकरणषाट्करणादिवर्जनपरेण देवतादिगतमानसेन विवर्जितकार्यान्तरेण विशुद्धमनोवचनकाययोगेन मौनपरेण वन्दना करणीया वन्दनाकारकेणेति।।६१३।।
यस्य क्रियते वन्दना तेन कथं प्रत्येषितव्येत्याह–
तेण च पडिच्छिदव्वं गारवरहिएण सुद्धभावेण।
किदियम्मकारकस्सवि संवेगं संजणंतेण।।६१४।।
तेण च तेनाचार्येण पडिच्छिदव्वं प्रत्येषितव्यमभ्युगन्तव्यं गौरवरहितेन ऋद्धिवीर्यादिगर्वरहितेन कृतिकर्मकारकस्य वन्दनाया: कर्तुरपि संवेगधर्मे धर्मफले च हर्षं संजनयता सम्यग्विधानेन कारयता शुद्धपरिणामवता वन्दनाऽभ्यु-पगंतव्येति।।६१४।।
वन्दनानिर्युक्तिं संक्षेपयन् प्रतिक्रमणे निर्युक्तिं सूचयन्नाह–
वंदणणिज्जुत्ती पुण एसा कहिया मए समासेण।
पडिकमणणिजुत्ती पुण एतो उड्डं पवक्खामि।।६१५।।
तथा बत्तीस दोषों के परिहार से बत्तीस ही गुण होते हैं। उन गुणों सहित, यत्न में तत्पर हुआ मुनि वन्दना करे। हास्य, भय, आसादना, राग, द्वेष, गौरव, आलस्य, मद, लोभ, चौर्य भाव, प्रतिकूलता, बालभाव, उपरोध-दूसरों को रोकना, हीन या अधिक पाठ बोलना, शरीर का स्पर्श करना, वचन बोलना, भृकुटी चढ़ाना, खात्कार-खांसना, खखारना इत्यादि दोषों को छोड़कर वन्दना करे।
जिनकी वन्दना कर रहे हैं ऐसे देव या गुरु आदि में अपने मन को लगाकर अर्थात् उनके गुणों में अपने उपयोग को लगाते हुए, अन्य कार्यों को छोड़कर वन्दना करनेवाले को विशुद्ध मन-वचन-काय के द्वारा मौनपूर्वक वन्दना करना चाहिए।
भावार्थ-साधु, गुरु या देव की वन्दना करने के लिए कम से कम उनसे एक हाथ दूर स्थित होवे। पिच्छिका से अपने शरीर का एवं भूमि का परिमार्जन करे। पुन: प्रार्थना करे कि ‘हे भगवन्! मैं आपकी वन्दना करूँगा’ यदि गुरु की वन्दना की जा रही है तो उनकी स्वीकृति पाकर भय, आसादना आदि दोषों को छोड़कर उनमें अपना उपयोग स्थिर कर विनयपूर्वक विधिवत् उनकी वन्दना करे। उपर्युक्त बत्तीस दोषों से रहित होकर क्रिया करे यह अभिप्राय है।
जिनकी वन्दना की जाती है वे वन्दना को किस प्रकार से स्वीकार करें ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-कृतिकर्म करने वाले को हर्ष उत्पन्न करते हुए वे गुरु गर्वरहित शुद्ध भाव से वन्दना स्वीकार करें।।६१४।।
आचारवृत्ति-शुद्ध परिणाम वाले वे आचार्य ऋद्धि और वीर्य आदि के गर्व से रहित होकर वन्दना करने वाले मुनि के धर्म और धर्म के फल में हर्ष उत्पन्न करते हुए उसके द्वारा की गई वन्दना को स्वीकार करें।
भावार्थ-जब शिष्य मुनि आचार्य, उपाध्याय आदि गुरुओं की या अपने से बड़े मुनियों की वन्दना करते हैं तो बदले में वे आचार्य आदि भी ‘नमोस्तु’ शब्द बोलकर प्रतिवन्दना करते हैं। यही वन्दना की स्वीकृति होती है।
वन्दना-निर्युक्ति को संक्षिप्त करके अब आचार्य प्रतिक्रमण-निर्युक्ति को कहते हैं-
गाथार्थ-मैंने संक्षेप में यह वन्दना-निर्युक्ति कही है अब इसके बाद प्रतिक्रमण निर्युक्ति को कहूँगा।।६१५।।
वन्दनानिर्युक्तिरेषा पुन: कथिता मया संक्षेपेण प्रतिक्रमणनिर्युक्तिं पुनरित ऊर्ध्वं वक्ष्य इति।।६१५।।
तां निक्षेपस्वरूपेणाह–
णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले तहेव भावे य।
एसो पडिक्कमणगे णिक्खेवो छव्विहो णेओ।।६१६।।
नामप्रतिक्रमणं पापहेतु१नामातीचारान्निवर्त्तनं प्रतिक्रमणदंडकगतशब्दोच्चारणं वा, सरागस्थापनाभ्य: परिणामनिवर्त्तनं स्थापनाप्रतिक्रमणं। सावद्यद्रव्यसेवाया: परिणामस्य निवर्त्तनं द्रव्यप्रतिक्रमणं।
क्षेत्राश्रितातिचारान्निवर्त्तनं क्षेत्रप्रतिक्रमणं, कालमाश्रितातीचारान्निवृत्ति: कालप्रतिक्रमणं, रागद्वेषाद्याश्रितातीचारान्निवर्त्तनं भावप्रतिक्रमणमेष नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल-भावाश्रितातीचारनिवृत्तिविषय: प्रतिक्रमणे निक्षेप: षड्विधो ज्ञातव्य इति।
अथवा नाम प्रतिक्रमणं नाममात्रं, प्रतिक्रमणपरिणतस्य प्रतििंबबस्थापना स्थापनाप्रतिक्रमणं, प्रतिक्रमणप्राभृतज्ञोप्यनुपयुक्त आगमद्रव्यप्रतिक्रमणं, तच्छरीरादिकं नोआगमद्रव्य-प्रतिक्रमणमित्येवमादि पूर्ववद् द्रष्टव्यमिति।।६१६।।
प्रतिक्रमणभेदं प्रतिपादयन्नाह–
पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं।
पक्खिय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तममट्ठं च।।६१७।।
प्रतिक्रमणं कृतकारितानुमतााfतचारान्निवर्त्तनं, दिवसे भवं दैवसिकं दिवसमध्ये नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावा-श्रितातीचारस्य कृतकारितानुमतस्य मनोवचनकायै: शोधनं, तथा रात्रौ भवं रात्रिकं रात्रिविषयस्य षड्विधातीचारस्य
आचारवृत्ति-गाथा सरल है ।
उस प्रतिक्रमण निर्युक्ति को निक्षेप स्वरूप से कहते हैं-
गाथार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, प्रतिक्रमण में यह छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए।।६१६।।
आचारवृत्ति-पाप हेतुक नामों से हुए अतिचारों से दूर होना या प्रतिक्रमण के दण्डकरूप शब्दों का उच्चारण करना नाम प्रतिक्रमण है।
सराग स्थापना से अर्थात् सराग मूर्तियों से या अन्य आकारों से परिणाम का हटाना स्थापना प्रतिक्रमण है। सावद्य-पाप कारक द्रव्यों के सेवन से परिणाम को निवृत्त करना द्रव्य प्रतिक्रमण है। क्षेत्र के आश्रित हुए अतिचारों से दूर होना क्षेत्र प्रतिक्रमण है। काल के आश्रय से हुए अतिचारों से दूर होना काल प्रतिक्रमण है।
इस तरह प्रतिक्रमण में छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए।
अथवा नाममात्र को नाम प्रतिक्रमण कहते हैं। प्रतिक्रमण में परिणत हुए के प्रतिबिम्ब की स्थापना करना स्थापना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण शास्त्र का जानने वाला तो है किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है तो वह आगम द्रव्य प्रतिक्रमण है, उसके शरीर आदि नो-आगमद्रव्य प्रतिक्रमण हैं। इत्यादि रूप से अन्य और भेद पूर्ववत् समझने चाहिए।
प्रतिक्रमण के भेदों को कहते हैं-
गाथार्थ-प्रतिक्रमण दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ इन सात भेद रूप जानना चाहिए।।६१७।।
आचारवृत्ति-कृत, कारित और अनुमोदना से हुए अतीचार को दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके सात भेद हैं। उन्हें ही क्रम से दिखाते हैं-कृत्तकारितानुमतस्य त्रिविधेन निरसनं रात्रिकं, ईर्यापथे भवमैर्यापथिकं षड्जीवनिकायविषयातीचारस्य निरसनं ज्ञातव्यं, पक्षे भवं पाक्षिकं पंचदशाहोरात्रविषयस्य षड्विधनामादिकारणस्य कृतकारितानुमतस्य मनोवचनकायै: परिशोधनं, चतुर्मासेषु भवं चातुर्मासिकं, संवत्सरे भवं सावत्सरिकं।
चतुर्मासमध्ये संवत्सरमध्ये नामादिभेदेन षड्विधस्यातीचारस्य बहुभेदभिन्नस्य वा, कृतकारितानुमतस्य मनोवचनकायै: निरसनं, उत्तमार्थे भवमौत्तमार्थं यावज्जीवं चतुर्विधाहारस्य परित्याग: सर्वातिचारप्रतिक्रमणस्यात्रान्तर्भावो द्रष्टव्य: १एवं प्रतिक्रमणसप्तकं द्रष्टव्यम्।।६१७।।
पुनरप्यन्येन प्रकारेण भेदं प्रतिपादयन्नाह–
दैवसिक-दिवस में हुए दोषों का प्रतिक्रमण दैवसिक है। दिवस के मध्य नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से कृत, कारित और अनुमोदना रूप जो अतिचार हुए हैं उनका मन-वचन- काय से शोधन करना दैवसिक प्रतिक्रमण है।
रात्रिक–रात्रि सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण रात्रिक है अर्थात् रात्रि विषयक अतीचार जोकि कृत, कारित व अनुमोदना से किए गये हैं एवं नाम, स्थापना आदि छह निमित्तों से हुए हैं, उनका मन–वचन–काय से निरसन करना रात्रिक प्रतिक्रमण हैं।
ऐर्यापथिक–ईर्यापथ सम्बन्धी प्रतिक्रमण अर्थात् ईर्यापथ से चलते हुए मार्ग में छह जीव निकाय के विषय में जो अतीचार हुआ है उसको दूर करना ऐर्यापथिक है।
पाक्षिक–पक्ष सम्बन्धी प्रतिक्रमण, पन्द्रह अहोरात्र विषयक जो दोष हुए हैं, जो कि कृत, कारित और अनुमोदना से एवं नाम आदि छह के आश्रय से हुए हैं उनका मन-वचन-काय से शोधन करना सो पाक्षिक प्रतिक्रमण है।
चातुर्मासिक–चार महीने सम्बन्धी प्रतिक्रमण।
सांवत्सरिक–एक वर्ष सम्बन्धी प्रतिक्रमण।
चातुर्मास के मध्य और संवत्सर के मध्य हुए अतीचार जोकि नाम, स्थापना आदि छह कारणों से अथवा बहुत से भेदों से सहित और कृत, कारित और अनुमोदना से होते हैं उनको मनवचनकाय से दूर करना सो चातुर्मासिक और वार्षिक कहलाते हैं।
उत्तमार्थ–उत्तम–अर्थ सल्लेखना से सम्बन्धित प्रतिक्रमण उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है इसमें यावज्जीवन चार प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है अर्थात् मरणान्त समय जो सल्लेखना ली जाती है उसी में चार प्रकार के आहार का त्याग करके दीक्षित जीवन के सर्व-दोषों का प्रतिक्रमण किया जाता है।
सर्वातिचार प्रतिक्रमण का इसी में अन्तर्भाव हो जाता है। इस तरह प्रतिक्रमण के सात भेद जानना चाहिए।
भावार्थ-दिवस के अन्त में, सायंकाल में, दैवसिक प्रतिक्रमण होता है। रात्रि के अन्त में रात्रिक प्रतिक्रमण होता है। ईर्यापथ से चलकर आने के बाद ऐर्यापथिक होता है। प्रत्येक चतुर्दशी या अमावस्या अथवा पौर्णमासी को पाक्षिक प्रतिक्रमण होता है।
कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी या पूर्णिमा को तथा फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी या पूर्णिमा को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण होता है। आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी या पूर्णिमा को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण होता है। तथा सल्लेखनाकाल में औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण होता है।
पुनरपि अन्य प्रकार से भेदों का प्रतिपादन करते हैं-
पडिकमओ पडिकमणं पडिकमिदव्वं च होदि णादव्वं।
एदेिंस पत्तेयं परूवणा होदि १तिण्हं पि।।६१८।।
प्रतिक्रामति कृतदोषाद्विरमतीति प्रतिक्रामक: अथवा दोषनिर्हरणे प्रवर्तते अविघ्नेन प्रतिक्रमत इति प्रतिक्रामक: पंचमहाव्रतादिश्रवणधारणदोषनिर्हरणतत्पर:, प्रतिक्रमणं पंचमहाव्रताद्यतीचारविरतिर्व्रतशुद्धिनिमित्ताक्षरमाला वा, प्रतिक्रमितव्यं द्रव्यं च परित्याज्यं मिथ्यात्वाद्यतीचाररूपं भवति ज्ञातव्यं, एतेषां त्रयाणां प्रत्येकमेकमेकं प्रति प्ररूपणाप्रतिपादनं भवति।।६१८।।
तथैव प्रतिपादयन्नाह–
जीवो दु पडिक्कमओ दव्वे खेत्ते य काल भावे य।
पडिगच्छदि जेण २जह्मि तं तस्स भवे पडिक्कमणं।।६१९।।
जीवस्तु प्रतिक्रामक: दोषद्वारागतकर्मविक्षपणशीलो जीवश्चेतनालक्षण:। क्व प्रतिक्रामक: ? द्रव्यक्षेत्र कालभावविषये, द्रव्यमाहारपुस्तकभेषजोपकरणादिकं, क्षेत्रं शयनासनस्थानचंक्रमणादिविषयो भूभागोंऽगुल–वितस्तिहस्तधनु: क्रोशयोजनादि-प्रमित:, काल: घटिकामुहूर्तसमयलवदिवसरात्रिपक्षमासर्त्वयनसंवत्सरसंध्यापर्वादि:, भाव: परिणामरागद्वेषादि-मदादिलक्षण:, एतद्विषयादतिचारान्निवर्त्तनपरो जीव: प्रतिक्रामक इत्युच्यते ज्ञेयाकारवहिर्व्यावृत्तरूप:, अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयादति-चारात्प्रतिगच्छति निवर्त्तते स प्रतिक्रामकोऽथवा येन परिणामेनाक्षरकदंबकेन वा प्रतिगच्छति पुनर्याति यस्मिन् व्रतशुद्धिपूर्वकस्वरूपे यस्मिन् वा जीवे पूर्वव्रतशुद्धिपरिणतेऽतीचारं परिभूतं स परिणामोऽक्षरसमूहो३ वा तस्य व्रतस्य तस्य वा व्रतशुद्धिपरिणतस्य
गाथार्थ-प्रतिक्रामक, प्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण करने योग्य वस्तु इनको जानना चाहिए। इन तीनों की भी अलग–अलग प्ररूपणा करते हैं।।६१८।।
आचारवृत्ति-जो प्रतिक्रमण करता है अर्थात् किए हुए दोषों से विरक्त होता है-उनसे अपने को हटाता है वह प्रतिक्रामक हैं। अथवा जो दोषों को दूर करने में प्रवृत्त होता है, निर्विघ्नरूप से प्रतिक्रमण करता है वह प्रतिक्रामक है, वह साधु पांच महाव्रत आदि को श्रवण करने, उनको धारण करने और उनके दोषों को दूर करने में तत्पर रहता है।
पाँच महाव्रत आदि में हुए अतीचारों से विरति अथवा व्रतशुद्धि निमित्त अक्षरों का समूह प्रतिक्रमण है।
मिथ्यात्व, असंयम आदि अतीचाररूप द्रव्य त्याग करने योग्य हैं इन्हें ही प्रतिक्रमि–तव्य कहते हैं। आगे इन तीनों का पृथव्â–पृथव्â निरूपण करते हैं।
उन्हीं का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जीव प्रतिक्रामक होता है। जिसके द्वारा, जिसमें वापस आता है वह उसका प्रतिक्रमण है।।६१९।।
आचारवृत्ति-जीव चेतना लक्षणवाला है। जो दोषों द्वारा आए हुए कर्म को दूर करने के स्वभाव वाला है वह प्रतिक्रामक है।
किस विषय में प्रतिक्रमण करने वाला होता हैं ?
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में प्रतिक्रमण करने वाला होता है। आहार, पुस्तक, औषध और उपकरण आदि द्रव्य हैं।
सोने, बैठने, खड़े होने, गमन करने आदि विषयक भूमिप्रदेश क्षेत्र हैं जो कि अंगुल, वितस्ति, हाथ, कोश, योजन आदि से परिमित होता है। घड़ी, मुहूर्त, समय, लव, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, संध्या और पर्वादि दिवस ये सब काल हैं।
राग, द्वेष, मद आदि लक्षण परिणाम भाव जीवस्य भवेत्प्रतिक्रमणं व्रतविषयमतीचारं येन परिणामेन प्रक्षाल्य प्रतिगच्छति पूर्वव्रतशुद्धौ स परिणामस्तस्य जीवस्य भवेत्प्रतिक्रमणमिति। मिथ्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रियं द्रव्यक्षेत्रकालभावमाश्रित्य प्रतिक्रमणमिति वा।।६१९।।
प्रतिक्रमितव्यं तस्य स्वरूपमाह–
पडिकमिदव्वं दव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं तिविहं।
खेत्तं च गिहादीयं कालो दिवसादिकालह्मि।।६२०।।
प्रतिक्रमितव्यं परित्यजनीयं। किं तत् द्रव्यं सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिविधं। सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तं द्विपदचतुष्पदाद्यचित्तं सुवर्णरूप्यलोहादिमिश्रं वस्त्रादियुक्तद्विपदादि। तथा क्षेत्रं गृहपत्तनकूपवाप्यादिकं प्रतिक्रमितव्यं तथा कालो दिवसमुहूर्तरात्रिवर्षाकालादि: प्रतिक्रमितव्य:।
येन द्रव्येण क्षेत्रेण कालेन वा पापागमो भवति तत् द्रव्यं तत् क्षेत्रं स काल परिहरणीय: द्रव्यक्षेत्रकालाश्रितदोषाभाव इत्यर्थ:। काले च प्रतिक्रमितव्यं यस्मिन् काले च प्रतिक्रमणमुक्तं हैं। इन द्रव्य आदि विषयक अतिचार से निवृत्त होनेवाला जीव प्रतिक्रामक कहलाता है। अर्थात् ज्ञेयाकार से परिणत होकर बाह्य द्रव्य क्षेत्रादि से पृथव्â रहने वाला-अतिचारों से हटनेवाला आत्मा प्रतिक्रामक है। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावनिमित्तक अतिचारों से जो वापस आता है वह प्रतिक्रामक है।
जिन परिणामों से या जिन अक्षर समूहों से यह जीव जिस व्रतशुद्धिपूर्वक अपने स्वरूप में वापस आ जाता है अथवा पूर्व के व्रतों की शुद्धि से परिणत हुए जीव में वापस आ जाता है, अतीचार को तिरस्कृत करने रूप वह परिणाम अथवा वह अक्षर समूह उस व्रत के अथवा व्रतों की शुद्धि से परिणत हुए जीव का प्रतिक्रमण है। अर्थात् व्रत शुद्धि के परिणाम या प्रतिक्रमण पाठ के दण्डक प्रतिक्रमण कहलाते हैं।
यह जीव जिन परिणामों से व्रतों में हुए अतीचारों का प्रलाक्षन करके पुन: पूर्व के व्रत की शुद्धि में वापस आ जाता है अर्थात् उसके व्रत पूर्ववत् निर्दोष हो जाते हैं वह परिणाम उस जीव का प्रतिक्रमण है। अथवा ‘मिथ्या में दुष्कृतं’ इस शब्द से अभिव्यक्त है प्रतिक्रिया जिसकी ऐसा वह प्रतिक्रमण होता है, जोकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से होता है।
भावार्थ-टीकाकार ने भाव प्रतिक्रमण और द्रव्य प्रतिक्रमण इन दोनों की अपेक्षा से प्रतिक्रमण का अर्थ किया है। जिन परिणामों से दोषों का शोधन होता है वे परिणाम भाव प्रतिक्रमण हैं एवं जिन अक्षरों का उच्चारण अर्थात् ‘मिच्छा मे दुक्कडं’ इत्यादि दण्डकों का उच्चारण करना द्रव्यप्रतिक्रमण है। ये शब्द भी दोषों को दूर करने में हेतु होते हैं। इस गाथा में प्रतिक्रामक और प्रतिक्रमण इन दो का लक्षण किया है।
अब प्रतिक्रमितव्य का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-सचित्त, अचित्त और मिश्र ये तीन प्रकार का द्रव्य, गृह आदि क्षेत्र, दिवस आदि समय रूप काल प्रतिक्रमण करने योग्य हैं।।६२०।।
आचारवृत्ति-त्याग करने योग्य को प्रतिक्रमितव्य कहते हैं। वह क्या हैं ? सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का जो द्रव्य है, वह त्याग करने योग्य है। द्विपद-दास–दासी आदि और चतुष्पद-गाय, भैंस आदि ये सचेतन पदार्थ सचित्त हैं। सोना, चांदी, लोहा आदि पदार्थ अचित्त हैं और वस्त्रादि युक्त मनुष्य, नौकर–चाकर आदि मिश्र हैं। ये तीनों प्रकार के द्रव्य त्याग करने योग्य हैं।
गृह, पत्तन, कूप, बावड़ी आदि क्षेत्र त्यागने योग्य हैं।
तस्मिन् काले कर्तव्यमिति अथवा कालेऽष्टमीचतुर्दशीनंदीश्वरादिके द्रव्यं क्षेत्रं प्रतिक्रमितव्यं कालश्च दिवसादि: प्रतिक्रमितव्य उपवासादिरूपेण, अथवा भावो हि पाठान्तरं भावश्च प्रतिक्रमितव्य इति। अप्रासुकद्रव्यक्षेत्रकालभावास्त्याज्यास्तद्द्वारेणातीचाराश्च परिहरणीया इति।।६२०।।
भावप्रतिक्रमणमाह–
मिच्छत्तपडिक्कमणं तह चेव असंजमे पडिक्कमणं।
कसाएसु पडिक्कमणं जोगेसु य अप्पसत्थेसु।।६२१।।
मिथ्यात्वस्य प्रतिक्रमणं त्यागस्तद्विषयदोषनिर्हरणं तथैवासंयमस्य प्रतिक्रमणं तद्विषयातीचारपरिहार:। कषायाणां क्रोधादीनां प्रतिक्रमणं तद्विषयातीचारशुद्धिकरणं। योगानामप्रशस्तानां प्रतिक्रमणं मनोवाक्कायविषयव्रतातीचारनिवर्त्तनमित्येवं भावप्रतिक्रमणमिति।।६२१।।
आलोचनापूर्वकं यतोऽत आलोचनास्वरूपमाह–
काऊण य किदियम्मं पडिलेहिय अंजलीकरणसुद्धो।
आलोचिज्ज सुविहिदो गारव माणं च मोत्तूण।।६२२।।
कृतिकर्म विनयं सिद्धभक्तिश्रुतभक्त्यादिकं कृत्वा पूर्वापरशरीरभागं स्वोपवेशनस्थानं च प्रतिलेख्य सम्मार्ज्य मुहूर्त, दिन, रात, वर्षाकाल आदि काल त्यागने योग्य हैं।
अर्थात् जिन द्रव्यों से, जिन क्षेत्रों और जिन कालों से पाप का आगमन होता है वे द्रव्य, क्षेत्र, काल छोड़ने योग्य हैं। अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र और काल के आश्रित होने वाले दोषों का निराकरण करना चाहिए।
काल में प्रतिक्रमण का अभिप्राय यह है कि जिस काल में प्रतिक्रमण करना आगम में कहा गया है उस काल में करना। अथवा काल में-अष्टमी, चतुर्दशी, नंदीश्वर आदि काल में द्रव्य क्षेत्र का प्रतिक्रमण करना और दिवस आदि काल का भी उपवास आदि रूप से प्रतिक्रमण करना।
अथवा ‘भावो हि’ ऐसा पाठांतर भी है। उसके आधार से ‘भाव का प्रतिक्रमण करना चाहिए ’ ऐसा अर्थ होता हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अप्रासुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव त्याग करने योग्य हैं और उनके द्वारा होनेवाले अतिचार भी त्याग करने योग्य हैं।
भावप्रतिक्रमण का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण तथा असंयम का प्रतिक्रमण, कषायों का प्रतिक्रमण और अप्रशस्त योगों का प्रतिक्रमण, यह भावप्रतिक्रमण है।।६२१।।
आचारवृत्ति-मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण-त्याग करना अर्थात् उस विषयक दोष को दूर करना, उसी प्रकार से असंयम का प्रतिक्रमण अर्थात् उस विषयक अतीचार का परिहार करना, क्रोधादि कषायों का प्रतिक्रमण अर्थात् उस विषयक अतीचारों को शुद्ध करना, अप्रशस्त योगों का प्रतिक्रमण अर्थात् मन-वचन-काय से हुए अतीचारों से निवृत्त होना, यह सब भावप्रतिक्रमण है।
भावार्थ-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मबन्ध के कारण हैं। इनसे हुए दोषों को दूर करना ही भावप्रतिक्रमण है।
आलोचनापूर्वक प्रतिक्रमण होता है अत: आलोचना का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-कृतिकर्म करके तथा पिच्छी से परिमार्जन कर, अंजली जोड़कर, शुद्ध हुआ गौरव और मान को छोड़कर समाधान चित्त हुआ साधु आलोचना करे।।६२२।।
आचारवृत्ति-कृतिकर्म-विनय, सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति आदि करके अपने शरीर के पूर्व-अपर भागपिच्छिकया चक्षुषा चाथवा चारित्रातीचारान् सम्यङ्निरूप्यांजलिकरणं शुद्धिर्ललाटपट्टविन्यस्तकरकुड्मलक्रियाशुद्ध एवमालोचयेत् गुरवेऽपराधान्निवेदयेत् सुविहित: सुचरित: स्वच्छवृत्ति: ऋद्धिगौरवं रसगौरवं मानं च जात्यादिमदं मुक्त्वा परित्यज्यैवं गुरवे स्वव्रतातीचारान्निवेदयेदिति।।६२२।।
आलोचनाप्रकारमाह–
आलोचणं दिवसियं रादिअ इरियापधं१ च बोद्धव्वं।
पक्खिय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमट्ठं च।।६२३।।
आलोचनं गुरुवेऽपराधनिवेदनं अर्हदभट्टारकस्याग्रत: स्वापराधाविष्करणं वा स्वचित्तेऽपराधानामनवगूहनं, दिवसे भवं दैवसिकं, रात्रौ भवं रात्रिकं, ईर्यापथे भवमैर्यापथिकं बोद्धव्यं।
पक्षे भवं पाक्षिकं, चतुर्षु मासेषु भवं चातुर्मासिकं, संवत्सरे भवं सांवत्सरिकं, उत्तमार्थे भवमौत्तमार्थं च दिवसरात्रीर्यापथपक्षचतुर्माससंवत्सरोत्तमार्थविषयजातापराधानां गुर्वादिभ्यो निवेदनं सप्तप्रकारमालोचनं वेदितव्यमिति।।६२३।।
आलोचनीयमाह–
अणाभोगकिदं कम्मं जं किंवि मणसा कदं।
तं सव्वं आलोचेज्जहु२ अव्वाखित्तेण चेदसा।।६२४।।
को और अपने बैठने के स्थान को चक्षु से देखकर और पिच्छी से परिमार्जित करके अथवा चारित्र के अतिचारों को सम्यव्â प्रकार से निरूपण करके अंजलि जोड़े-ललाट पट्ट पर अंजलि जोड़कर रखे, पुन: ऋद्धि गौरव, रस गौरव और जाति आदि मद को छोड़कर स्वच्छवृत्ति होता हुआ गुरु के पास अपने व्रतों के अतिचारों को निवेदित करे। इसी का नाम आलोचना है।
आलोचना के प्रकार कहते हैं –
गाथार्थ-दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ यह सात तरह की आलोचना जाननी चाहिए।।६२३।।
आचारवृत्ति-गुरु के पास अपने अपराध का निवेदन करना अथवा अर्हंत भट्टारक३ के आगे अपने अपराधों को प्रगट करना अर्थात् अपने चित्त में अपराधों को नहीं छिपाना यह आलोचना है।
यह भी दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ ऐसी सात भेदरूप है। अर्थात् दिवस, रात्रिक, ईर्यापथ, चार मास, वर्ष और उत्तमार्थ इनके, इन विषयक हुए अपराधों को गुरु आदि के समक्ष निवेदन रूप आलोचना होती है।
आलोचना करने योग्य क्या है ? सो बताते हैं-
गाथार्थ-जो कुछ भी मन के द्वारा कृत अनाभोग कर्म है, मुनि विक्षेप रहित चित्त से उन सबकी आलोचना करे।।६२४।।
आभोग: सर्वजनपरिज्ञातव्रतातीचारोऽनाभोगो न परैर्ज्ञातस्तस्मादनाभोगकृतं कर्माऽऽभोगमन्तरेण कृतातीचारस्तथा-भोगकृतश्चातीचारश्च तथा यत्किंचिन्मनसा च कृतं कर्म तथा कायवचनकृतं च तत्सर्वमालोचयेत् यत्किंचिदनाभोगकृतं कर्माभोगकृतं कायावाङ्मनोभि: कृतं च पापं तत्सर्वमव्याक्षिप्तचेतसाऽनाकु१लितचेतसाऽऽलोचयेदिति।।६२४।।
आलोचनापर्यायनामान्याह–
आलोचणमालुंचण विगडीकरणं च भावसुद्धी दु।
आलोचदह्मि आराधणा अणालोचणे भज्जा।।६२५।।
आलोचनमालुंचनमपनयनं विकृतीकरणमाविष्करणं भावशुद्धिश्चेत्येकोऽर्थ:। अथ किमर्थमालोचनं क्रियत इत्याशंकायामाह–यस्मादालोचिते चरित्राचारपूर्वकेण गुरवे निवेदिते चेति आराधना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रशुद्धिरनालोचने पुनर्दोषाणामनाविष्करणे पुनर्भाज्याऽऽराधना तस्मादालोचयितव्यमिति।।६२५।।
आलोचने कालहरणं न कर्त्तव्यमिति प्रदर्शयन्नाह–
उप्पण्णा उप्पण्णा माया अणुपुव्वसो णिहंतव्वा।
आलोचणिंणदणगरहणािंह ण पुणो तिअं विदिअं।।६२६।।
उत्पन्नोत्पन्ना यथा यथा संजाता माया व्रतातीचारोऽनुपूर्वशोनुक्रमेण यस्मिन् काले यस्मिन् क्षेत्रे यद्द्रव्यमाश्रित्य येन भावेन तेनैव क्रमेण कौटिल्यं परित्यज्य निहन्तव्या परिशोध्या यस्मादालोचने गुरवे दोष निवेदने निंदने परेष्वाविष्करणे
आचारवृत्ति-सभी जनों के द्वारा जाने गए व्रतों के अतीचार आभोग हैं और जो अतीचार पद के द्वारा अज्ञात हैं वह अनाभोग हैं।
यह अनाभोगकृत कर्म और आभोगकृत भी कर्म तथा मन से किया गया दोष, वचन और काय से भी किया गया दोष, ऐसा जो कुछ भी दोष है, अर्थात् अपने व्रतों के अतिचारों को चाहे दूसरे जान चुकें हो या नहीं जानते हों ऐसे आभोगकृत दोष और अनाभोग दोष तथा मनवचनकाय से हुए जो भी दोष हुए हैं, साधु अनाकुलचित्त होकर उन सबकी आलोचना करे।
आलोचना के पर्यायवाची नाम को कहते हैं-
गाथार्थ-आलोचन, आलुंचन, विकृतिकरण और भावशुद्धि ये एकार्थवाची हैं। आलोचना करने पर आराधना होती है और आलोचना नहीं करने पर विकल्प है।।६२५।।
आचारवृत्ति-आलोचना और आलुंचन इन दो शब्दों का अर्थ अपनयन-दूर करना है, विकृतीकरण का अर्थ दोष प्रगट करना है तथा भावशुद्धि ये चारों ही शब्द एक अर्थ को कहने वाले हैं।
किसलिए आलोचना की जाती है ?
गुरु के सामने चारित्राचारपूर्वक दोषों की आलोचना कर देने पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धिरूप आराधना सिद्ध होती है। तथा दोषों को प्रगट न करने से पुन: वह आराधना वैकल्पिक है अर्थात् हो भी, नहीं हो भी, इसलिए आलोचना करनी चाहिए।
आलोचना करने में कालक्षेप नहीं करना चाहिए, इस बात को दिखाते हैं-
गाथार्थ-जैसे–जैसे उत्पन्न हुई माया है उसको उसी क्रम से नष्ट कर देना चाहिए। आलोचना, निंदन और गर्हण करने में पुन: तीसरा या दूसरा दिन नहीं करना चाहिए।।६२६।।
आचारवृत्ति-जिस–जिस प्रकार से माया अर्थात् व्रतों में अतीचार हुए हैं, अनुक्रम से उनको दूर करना चाहिए। अर्थात् जिस काल में, जिस क्षेत्र में, जिस द्रव्य का अाश्रय लेकर और जिस भाव से व्रतों में अतीचार उत्पन्न हुए हैं, मायाचारी को छोड़कर उसी क्रम से उनका परिशोधन करना चाहिए।
गर्हणे आत्मजुगुप्सने कर्त्तव्ये पुनर्द्वितीयं पुनर्न करिष्यामीत्यथवा न पुनस्तृतीयं दिनं द्वितीयं वा द्वितीयदिवसे तृतीयदिवसे आलोचयिष्यामीति न िंचतनीयं यस्माद्गतमपि कालं न जानंतीति भावार्थस्तस्माच्छीघ्रमालोचयितव्यमिति।।६२६।।
यस्मात्–
आलोचणणिंदणगरहणािंह अब्भुट्ठिओ अ करणाए।
तं भावपडिक्कमणं सेसं पुणदव्वदो भणिअं।।६२७।।
गुरवेऽपराधनिवेदनमालोचनं वचनेनात्मजुगुप्सनं परेभ्यो निवेदनं च निन्दा चित्तेनात्मनो जुगुप्सनं शासनविराधनभयं च गर्हणमेतै: क्रियायां प्रतिक्रमणेऽथवा पुनरतीचाराकरणेऽभ्युत्थित उद्यतो यतस्तस्माद्भावप्रतिक्रमणं परमार्थभूतो दोषपरिहार: शेषं पुनरेवमन्तरेण द्रव्यतोऽपरमार्थरूपं भणितमिति।।६२७।।
द्रव्यप्रतिक्रमणे दोषमाह–
भावेण अणुवजुत्तो दव्वीभूदो पडिक्कमदि जो दु।
जस्सट्ठं पडिकमदे तं पुण अट्ठंं ण साधेदि।।६२८।।
भावेनानुपयुक्त: शुद्धपरिणामरहित: द्रव्यीभूतेभ्यो। दोषेभ्यो न१ निर्गतमना रागद्वेषाद्युपहतचेता: प्रतिक्रमते दोषनिर्हरणाय प्रतिक्रमणं शृणोति करोति चेति य: स यस्यार्थं यस्मै दोषाय प्रतिक्रमते तं पुनरर्थं न साधयति तं दोषं न२ परित्यज-तीत्यर्थ:।।६२८।।
गुरु के सामने दोषों का निवेदन करना आलोचना है, पर के सामने दोषों को प्रकट करना निन्दा है और अपनी निन्दा करना गर्हा है। इन आलोचना, निन्दा और गर्हा के करने में ‘मैं दूसरे दिन आलोचना करूँगा। अथवा तीसरे दिन कर लूँगा’ इस तरह से नहीं सोचना चाहिए। क्योंकि बीतता हुआ काल जानने में नहीं आता है ऐसा अभिप्राय है। इसलिए शीघ्र ही आलोचना कर लेनी चाहिए।
भाव और द्रव्य प्रतिक्रमण को कहते हैं-
गाथार्थ-आलोचना, निन्दा और गर्हा के द्वारा जो प्रतिक्रमण क्रिया में उद्यत हुआ, उसका वह भाव प्रतिक्रमण है। पुन: शेष प्रतिक्रमण द्रव्य से कहा गया है।।६२७।।
आचारवृत्ति-गुरु के सामने अपराध का निवेदन करना आलोचना है, वचनों से अपनी जुगुप्सा करना और पर के सामने निवेदन करना निन्दा है तथा मन से अपनी जुगुप्सा-तिरस्कार करना और शासन की विराधना का भय रखना गर्हा है।
इनके द्वारा प्रतिक्रमण करने में अथवा पुन: अतीचारों के नहीं करने में जो उद्यत होता है, उसके वह भाव प्रतिक्रमण होता है, जो कि परमार्थभूत दोषों के परिहाररूप हैं। शेष पुन: इन आलोचना आदि के बिना जो प्रतिक्रमण है वह द्रव्य प्रतिक्रमण है। वह अपरमार्थ रूप कहा गया है।
द्रव्य प्रतिक्रमण में दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-जो भाव से उपयुक्त न होता हुआ द्रव्यरूप प्रतिक्रमण करता है, वह जिसलिए प्रतिक्रमण करता है उस प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर पाता है।।६२८।।
आचारवृत्ति-जो शुद्ध परिणामों से रहित है, दोषों से अपने मन को दूर नहीं करने वाला है, ऐसा साधु दोष को दूर करने के लिए प्रतिक्रमण को सुनता है या करता है तो वह जिस दोष के लिए प्रतिक्रमण करता है उस दोष को छोड़ नहीं पाता है।
अर्थात् यदि साधु का मन प्रतिक्रमण करते समय दोषों की आलोचना, निन्दा आदि रूप नहीं है तो वह प्रतिक्रमण दण्डकों को सुन लेने या पढ़ लेने मात्र से उन दोषों से छूट नहीं सकता है। अत: जिसलिए प्रतिक्रमण किया जाता है वह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो पाता है ऐसा समझकर भावरूप प्रतिक्रमण करना चाहिए।
भावप्रतिक्रमणमाह–
भावेण संपजुत्तो जदत्थजोगो य जंपदे सुत्तं।
सो कम्मणिज्जराए विउलाए वट्टदे साधू।।६२९।।
भावेन संप्रयुक्तो यदर्थं योगश्च यन्निमित्तं शुभानुष्ठानं यस्मै अर्थायाभ्युद्यतो जल्पति सूत्रं प्रतिक्रमणपदान्युच्चरति शृणोति वा स साधु: कर्मनिर्जरायां विपुलायां प्रवर्त्तते सर्वापराधान् परिहरतीत्यर्थ:।।६२९।।
किमर्थं प्रतिक्रमणे तात्पर्यं यस्मात्–
सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स।
अवराहे पडिकमणं मज्भिâमयाणं जिणवराणं।।६३०।।
सह प्रतिक्रमणेन वर्तत इति सप्रतिक्रमणो धर्मो दोषपरिहारेण चारित्रं पूर्वस्य प्राक्तनस्य वृषभतीर्थंकरस्य पश्चिमस्य पाश्चात्यस्य सन्मतिस्वामिनो जिनस्य तयोस्तीर्थंकरयोर्धर्म्म: प्रतिक्रमणसमन्वित: अपराधो भवतु मा वा, मध्यमानां पुनर्जिनवराणामजितादिपार्श्वनाथपर्यन्तानामपराधे सति प्रतिक्रमणं तेषां यतोऽपराधबाहुल्याभावादिति।।६३०।।
जावेदु अप्पणो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो।
तावेदु पडिक्कमणं मज्छिमयाणं जिणवराणं।।६३१।।
यस्मिन् व्रत आत्मनोऽन्यस्य वा भवेदतीचारस्तस्मिन् विषये भवेत्प्रतिक्रमणं मध्यमजिनवराणामाद्यपश्चिमयो: पुनस्तीर्थंकरयोरेकस्मिन्नपराधे सर्वान् प्रतिक्रमणदण्डकान् भणति।।६३१।।
भाव प्रतिक्रमण को कहते हैं-
गाथार्थ-भाव से युक्त होता हुआ जिस प्रयोजन के लिए सूत्र को पढ़ता है वह साधु उस विपुल कर्मनिर्जरा में प्रवृत्त होता है।।६२९।।
आचारवृत्ति-जो साधु भाव से संयुक्त हुआ जिस अर्थ के लिए उद्यत हुआ प्रतिक्रमण पदों का उच्चारण करता है अथवा सुनता है वह बहुत से कर्मों की निर्जरा कर लेता है अर्थात् सभी अपराधों का परिहार कर देता है।
प्रतिक्रमण करने का उद्देश्य क्या हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-प्रथम और अन्तिम जिनवरों का धर्म प्रतिक्रमण सहित है तथा अपराध होने पर मध्यम जिनवरों का प्रतिक्रमण करना धर्म है।।६३०।।
आचारवृत्ति-प्रतिक्रमण सहित धर्म अर्थात् दोष परिहारपूर्वक चारित्र। प्रथम जिन वृषभ तीर्थंकर और अन्तिम जिन सन्मति इन दोनों तीर्थंकरों का धर्म प्रतिक्रमण सहित है। अपराध हों अथवा न हों किन्तु इनके तीर्थ में शिष्यों को प्रतिक्रमण करना ही चाहिए।
किन्तु अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथपर्यंत मध्य के बाईस तीर्थंकरों का धर्म, अपराध के होने पर ही प्रतिक्रमण करने रूप है, क्योंकि उनके शिष्यों में अपराध की बहुलता का अभाव है।
गाथार्थ-जिस व्रत में अपने को या अन्य किसी को अतीचार होवें, मध्यम जिनवरों के काल में उसका ही प्रतिक्रमण करना होता है।।६३१।।
आचारवृत्ति-जिस व्रत में अपने को या अन्य किसी साधु को अतीचार लगता है उसी विषय में प्रतिक्रमण होता है ऐसा मध्यम के बाईस तीर्थंकरों के शासन का नियम था किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासनकाल में पुनः एक अपराध के होने पर प्रतिक्रमण के सभी दण्डकों को बोलना होता है।
इत्याह–इरियागोयरसुमिणादिसव्वमाचरदु मा व आचरदु।
पुरिम चरिमादु सव्वे सव्वं णियमा पडिक्कमदि।।६३२।।
ईर्यागोचरस्वप्नादिभवं सर्वमतीचारमाचरतु मा वाऽऽचरतु पूर्वे ऋषभनाथशिष्याश्चरमा वर्द्धमानशिष्या: सर्वे सर्वान्नियमान् प्रतिक्रमणदण्डकान् प्रतिक्रमन्त उच्चारयन्ति।।६३२।।
किमित्याद्या: पश्चिमाश्च सर्वान्नियमादुच्चारयंति किमित्यजितादिपार्श्वनाथपर्यन्तशिष्यानोच्चारयन्ति इत्याशंकायामाह–
मज्भिâमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य। तह्मा हु जमाचरंति तं गरहंता वि सुज्भâंति।।६३३।।
यस्मान्मध्यमतीर्थंकरशिष्या दृढबुद्धयोऽविस्मरणशीला एकाग्रमनस: स्थिरचित्ता अमोहलक्षा अमूढमनस: प्रेक्षापूर्वकारिण: तस्मात्स्फुटं यं दोषं आचरंति तस्माद्दोषाद् गर्हन्तोऽप्यात्मानं जुगुप्समाना: शुद्ध्यन्ते शुद्धचारित्रा भवन्तीति।।६३३।।
पुरिमचरिमादु जह्मा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य।
तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिट्ठंतो।।६३४।।
पूर्वचरमतीर्थंकरशिष्यास्तु यस्माच्चलचित्ताश्चैव दृढमनसो नैव, मोहलक्षाश्च मूढमनसो बहून् वारान् प्रतिपादितमपि शास्त्रं न जानंति ऋजुजडा वक्रजडाश्च यस्मात्तस्मात्सर्वप्रतिक्रमणं दण्डकोच्चारणं। तेषामन्धलकघोटकदृष्टान्त:। कस्यचिद्राज्ञोऽश्वोऽन्धस्तेन च वैद्यपुत्रं प्रति अश्वायौषधं पृष्टं स च वैद्यकं न जानाति, वैद्यश्च ग्रामं गतस्तेन च इसी बात को कहते हैं-
गाथार्थ-ईर्यापथ सम्बन्धी, आहार सम्बन्धी, स्वप्न आदि सम्बन्धी सभी दोष करें या न करें किन्तु पूर्व और चरम अर्थात् आद्यन्त तीर्थंकरों के काल में सभी साधु सभी दोषों का नियम से प्रतिक्रमण करते हैं।।६३२।।
आचारवृत्ति-ईर्यापथ, गोचरी, स्वप्न इत्यादि में अतीचार होवे या न होवें, किन्तु ऋषभनाथ के शिष्य और वर्धमान भगवान् के सभी शिष्य सभी प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करते हैं।
आदि और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य किसलिए सर्व प्रतिक्रमण दण्डकों का उच्चारण करते हैं ? और अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथपर्यंत के शिष्य क्यों नहीं सभी का उच्चारण करते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-मध्य तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़बुद्धिवाले, एकाग्रमन सहित और मूढ़मन रहित होते हैं। इसलिए जिस दोष का आचरण करते हैं उसकी गर्हा करके ही शुद्ध हो जाते हैं।।६३३।।
आचारवृत्ति-मध्यम २२ तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़ बुद्धि वाले होते थे अर्थात् वे विस्मरण स्वभाव वाले नहीं थे-उनकी स्मरण शक्ति विशेष थी, उनका चित्त स्थिर रहता था और वे विवेकपूर्वक कार्य करते थे। इसलिए जो दोष उनसे होता था उस दोष से अपनी आत्मा की गर्हा करते हुए शुद्ध चारित्र वाले हो जाते थे।
गाथार्थ-पूर्व और चरम के अर्थात् आद्यन्त तीर्थंकर के शिष्य तो जिस हेतु से चलचित्त और मूढ़मनवाले होते हैं इसलिए उनके सर्वप्रतिक्रमण है, इसमें अंधलक घोटक उदाहरण समझना।।६३४।।
आचारवृत्ति-प्रथम और चरम तीर्थंकर के शिष्य जिस कारण से चंचल चित्त होते हैं अर्थात् उनका मन स्थिर नहीं रहता है तथा मूढ़चित्त वाले हैं-उनको बहुत बार शास्त्रों को प्रतिपादन करने पर भी वे नहीं समझते हैं वे ऋजुजड़ और वक्रजड़ स्वभावी होते हैं।
अर्थात् प्रथम तीर्थंकर के शासन के शिष्यों में वैद्यपुत्रेणाश्वाक्षिनिमित्तानि सर्वाण्यौषधानि प्रयुक्तानि तै: सोऽश्व: स्वस्थीभूत: एवं साधुरपि यदि एकस्मिन्प्रतिक्रमणदण्डके स्थिरमना न भवति अन्यस्मिन् भविष्यति अन्यस्मिन् वा न भवत्यन्यस्मिन् भविष्यतीति सर्वदण्डकोच्चारणं न्याययमिति, न चात्र विरोध:, सर्वेपि कर्मक्षयकरणसमर्था यत: इति।।६३४।।
प्रतिक्रमणनिर्युक्तिमुपसंहरन् प्रत्याख्याननिर्युक्तिं प्रपंचयन्नाह–
पडिकमणणिजुत्ती पुण एसा कहिया मए समासेण।
पच्चक्खाणणिजुत्ती एतो उड्ढं पवक्खामि।।६३५।।
प्रतिक्रमणनिर्युक्तिरेषा कथिता मया समासेन पुन: प्रत्याख्याननिर्युक्तिमित ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामिति।।६३५।।
तामेव प्रतिज्ञां निर्वहन्नाह–
णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य।
एसो पच्चक्खाणे णिक्खेवो छव्विहो णेओ।।६३६।।
अतिसरलता और अतिजड़ता रहती थी और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्यों में कुटिलता और जड़ता रहती है अतः ये ऋजुजड़ और वक्रजड़ कहलाते हैं। इसी कारण से इन्हें सर्वदण्डकों के उच्चारण का विधान है।
इनके लिए अन्धलक घोटक दृष्टान्त दिया गया है। यथा-
किसी राजा का घोड़ा अन्धा हो गया, उसने उस घोड़े के लिए वैद्य के पुत्र से औषधि पूछी। वह वैद्यक शास्त्र जानता नहीं था और उसका पिता वैद्य अन्य ग्राम को चला गया था तब उस वैद्यपुत्र ने घोड़े की आँख के निमित्त सभी औषधियों का प्रयोग कर दिया अर्थात् सभी औषधि उस घोड़े की आंख में लगाता गया। उन औषधियों के प्रयोग से वह घोड़ा स्वस्थ हो गया अर्थात् जो आंख खुलने की औषधि थी उसी में वह भी आ गई।
उसके लगते ही घोड़े की आँख खुल गई। वैसे ही साधु भी यदि एक प्रतिक्रमण दण्डक में स्थिरचित्त नहीं होता तो अन्य दण्डक में हो जावेगा अथवा यदि अन्य दण्डक में भी स्थिरमना नहीं होगा तो अन्य किसी दण्डक में स्थिरचित्त हो जावेगा, इसलिए सर्वदण्डकों का उच्चारण करना न्याय ही है और इसमें विरोध भी नहीं है क्योंकि प्रतिक्रमण के सभी दण्डक सूत्र कर्मक्षय करने में समर्थ हैं।
भावार्थ-ऋषभदेव और वीरप्रभु के शासन के मुनि दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि समयों में आगम विहित पूरे प्रतिक्रमण को पढ़ते हैं। उस प्रतिक्रमण में सभी प्रकार के दोषों के निराकरण करने वाले सूत्र आते हैं।
इन साधुओं को चाहे एक व्रत्ा में अतीचार लगे, चाहे दो, चार आदि में लगे, चाहे कदाचित् किसी व्रत में अतीचार न भी लगे अर्थात् किंचित दोष न भी हो तो भी जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसार यथोक्तकाल में वे प्रतिक्रमण विधि करें ही करें ऐसा आदेश है चूंकि वे विस्मरणशील, चंचलचित्त और सरल जड़ या जड़ कुटिल तथा अज्ञानबहुल होते हैं।
यही बात ऊपर बताई गई है। अतः प्रमाद छोड़कर विधिवत् सर्व प्रतिक्रमणों को करते रहना चाहिए। तथा उनके अर्थ को समझते हुए अपनी निन्दा, गर्हा आदि के द्वारा उन दोषों से उपरत होना चाहिए।
प्रतिक्रमण निर्युक्ति का उपसंहार करते हुए प्रत्याख्यान निर्युक्ति को कहते हैं-
गाथार्थ-मैंने संक्षेप से यह प्रतिक्रमण निर्युक्ति कही है। इसके आगे प्रत्याख्यान निर्युक्ति को कहूँगा।।६३५।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है।
उसी प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप प्रत्याख्यान में छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए।।६३६।।
अयोग्यानि नामानि पापहेतूनि विरोधकारणानि न कर्तव्यानि न कारयितव्यानि नानुमंतव्यानीति नामप्रत्याख्यानं प्रत्याख्याननाममात्रं वा, अयोग्या: स्थापना: पापबंधहेतुभूता: मिथ्यात्वादिप्रवर्त्तका अपरमार्थरूपदेवतादिप्रतिबिंबानि पापकारणद्रव्यरूपाणि च न कर्त्तव्यानि न कारयितव्यानि नानुमन्तव्यानि इति स्थापनाप्रत्याख्यानं।
प्रत्यख्यानपरिणतप्रतििंबबं च सद्भावासद्भावरूपं स्थापनाप्रत्याख्यानमिति, पापबन्धकारणद्रव्यं सावद्यं निरवद्यमपि तपोनिमित्तं त्यक्तं न भोक्तव्यं न भोजयितव्यं नानुमंतव्यमिति द्रव्यप्रत्याख्यानं। प्राभृतज्ञायकोऽनुपयुक्तस्तच्छरीरं भावी जीवस्तद्व्यतिरिक्तं च द्रव्यप्रत्याख्यानं।
असंयमादिहेतुभूतस्य क्षेत्रस्य परिहार: क्षेत्रप्रत्याख्यानं, प्रत्याख्यानपरिणतेन सेवितप्रदेशे१ प्रवेशो वा क्षेत्रप्रत्याख्यानं, असंयमादिनिमित्तभूतस्य२ कालस्य त्रिधा परिहार: कालप्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानपरिणतेन सेवितकालो वा, मिथ्यात्वासंयम-कषायादीनां त्रिविधेन परिहारो भावप्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्यानप्राभृतज्ञायकस्तद्विज्ञानं प्रदेशादित्येवमेष नामस्थापनाद्रव्य-क्षेत्रकालभावविषय: प्रत्याख्याने निक्षेप: षड्विधो ज्ञातव्य इति।
प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानयो: को विशेष इति चेन्नैष दोषोऽतीतकालविषयातीचारशोधनं प्रतिक्रमणमतीतभविष्यद्वर्त्तमानकालविषयातिचारनिर्हरणं प्रत्याख्यानमथवा
व्रताद्यतीचारशोधनं प्रतिक्रमणमतीचारकारणसचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यविनिवृत्तिस्तपोनिमित्तं प्रासुकद्रव्यस्य च निवृत्ति: प्रत्याख्यानं यस्मादिति।।६३६।।
आचारवृत्ति-अयोग्य नाम पाप के हेतु हैं और विरोध के कारण हैं ऐसे नाम न रखना चाहिए, न रखवाना चाहिए और न रखते हुए को अनुमोदना ही देनी चाहिए-यह नाम प्रत्याख्यान है।
अथवा प्रत्याख्यान नाम मात्र किसी का रख देना नाम प्रत्याख्यान है। अयोग्य स्थापना-मूर्तियाँ पापबन्ध के लिए कारण हैं, मिथ्यात्व आदि की प्रवर्तक हैं और अवास्तविक रूप देवता आदि के जो प्रतिबिम्ब हैं वे भी पाप के कारण रूप द्रव्य हैं ऐसी अयोग्य स्थापना को न करना चाहिए, न कराना चाहिए और न करते हुए को अनुमोदना देना चाहिए यह स्थापना प्रत्याख्यान है।
अथवा प्रत्याख्यान से परिणत हुए मुनि आदि का प्रतिबिम्ब जो कि तदाकार हो या अतदाकार, वह भी स्थापना प्रत्याख्यान है।
पापबन्ध के कारणभूत सावद्य-सदोष द्रव्य तथा तप के निमित्त त्याग किए गये जो निरवद्य-निर्दोष द्रव्य भी हैं ऐसे सदोष और त्यक्त रूप निर्दोष द्रव्य को भी न ग्रहण करना चाहिए, न कराना चाहिए और न अनुमोदना देनी चाहिए।
यहाँ आहार सम्बन्धी तो खाने में अर्थात् भोग में आयेगा और उसके अतिरिक्त भी द्रव्य, उपकरण आदि उपभोग में आयेंगे किन्तु ‘भोक्तव्यं’ क्रिया से यहाँ पर मुख्यतया भोजन सम्बन्धी द्रव्य की विवक्षा है, इस तरह यह द्रव्य प्रत्याख्यान है अथवा प्रत्याख्यान शास्त्र का ज्ञाता और उसके उपयोग से रहित जीव, उसका शरीर, भावी जीव और उससे व्यतिरिक्त ये सब द्रव्य प्रत्याख्यान हैं।
असंयम आदि के लिए कारणभूत क्षेत्र का परिहार करना क्षेत्र-प्रत्याख्यान है अथवा प्रत्याख्यान से परिणत हुए मुनि के द्वारा सेवित प्रदेश में प्रवेश करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है।
असंयम आदि के कारणभूत काल का मन-वचन-काय से परिहार करना काल-प्रत्याख्यान है। अथवा प्रत्याख्यान से परिणत हुए मुनि के द्वारा सेवित काल काल-प्रत्याख्यान है।
मिथ्यात्व, असंयम, कषाय आदि का मनवचनकाय से परिहार-त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है। अथवा भाव प्रत्याख्यान के शास्त्र के ज्ञाता जीव को या उसके ज्ञान को या उसके आत्म प्रदेशों को भी भाव प्रत्याख्यान कहते हैं। इस प्रकार से नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विषयक छह प्रकार का निक्षेप प्रत्याख्यान में घटित किया गया है।
प्रत्याख्यायकप्रत्याख्यानप्रत्याख्यातव्यस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
पच्चक्खाओ पच्चक्खाणं पच्चक्खियव्वमेवं तु।
तीदे पच्चुप्पण्णे अणागदे चेव कालह्मि।।६३७।।
प्रत्याख्यायको जीव: संयमोपेत: प्रत्याख्यानं परित्यागपरिणाम: प्रत्याख्यातव्यं द्रव्यं सचित्ताचित्तमिश्रकं सावद्यं निरवद्यं वा। एवं त्रिप्रकारं१ प्रत्याख्यानस्वरूपोऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति। तत्त्रिविधमप्यतीते काले प्रत्युत्पन्ने कालेऽनागते च काले भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालेष्वपि ज्ञातव्यमिति।।६३७।।
प्रत्याख्यायकस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
आणाय जाणणा विय उवजुत्तो मूलमज्भâणिद्देसे।
सागारमणागारं अणुपालेंतो दढधिदीओ।।६३८।।
प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में क्या अन्तर हैं ?
भूतकाल विषयक अतीचारों का शोधन करना प्रतिक्रमण है और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान इन तीनों कालविषयक अतीचारों का निरसन करना प्रत्याख्यान है। अथवा व्रत आदि के अतीचारों का शोधन प्रतिक्रमण है तथा अतीचार के लिए कारणभूत ऐसे सचित्त, अचित्त एवं मिश्र द्रव्यों का त्याग करना तथा तप के लिए प्रासुकद्रव्य का भी त्याग करना प्रत्याख्यान है।
भावार्थ-समता, स्तव, वन्दना और प्रतिक्रमण इनमें जो निक्षेप घटित किए हैं वहाँ पर पहले चरणानुयोग की पद्धति से द्रव्य आदि निक्षेपों को कहकर पुन: ‘अथवा’ कहकर सैद्धांतिक विधि से छहों निक्षेप बताये हैं। किन्तु यहाँ पर टीकाकार ने दोनों प्रकार के निक्षेपों को साथ–साथ ही घटित कर दिया है ऐसा समझना। एवं छहों निक्षेपों का चरणानुयोग की विधि से जो कथन है उसमें प्रत्येक में कृत, कारित, अनुमोदना को लगा लेना चाहिए।
प्रत्याख्यायक, प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यातव्य इन तीनों का स्वरूप प्रतिपादित करने के लिए कहते हैं-
गाथार्थ-प्रत्याख्यायक, प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यातव्य ये तीनों ही भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल में होते हैं।।६३७।।
आचारवृत्ति-संयम से युक्त जीव-मुनि प्रत्याख्यायक हैं अर्थात् प्रत्याख्यान करने वाले हैं। त्यागरूप परिणाम प्रत्याख्यान है। सावद्य हों या निरवद्य, सचित्त, अचित्त तथा मिश्र ये तीन प्रकार के द्रव्य प्रत्याख्यातव्य हैं अर्थात् प्रत्याख्यान के योग्य हैं।
इन तीन प्रकार से प्रत्याख्यान के स्वरूप की अन्यथानुपपत्ति है अर्थात् इन प्रत्याख्यायक आदि तीन प्रकार के सिवाय प्रत्याख्यान का कोई स्वरूप नहीं है। ये तीनों ही भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यत् की अपेक्षा से तीन–तीन भेदरूप हो जाते हैं। अर्थात् भूतप्रत्याख्यायक, वर्तमान प्रत्याख्यायक और भविष्यत् प्रत्याख्यायक।
भूत प्रत्याख्यान, वर्तमान प्रत्याख्यान और भविष्यत्–प्रत्याख्यान। भूतप्रत्याख्यातव्य, वर्तमान प्रत्याख्यातव्य और भविष्यत्–प्रत्याख्यातव्य।
भावार्थ-प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। सो त्याग करने वाला जीव, त्याग और त्यागने योग्य वस्तु–मूल में इन तीनों को कहा हैं। पुन: प्रत्याख्यान त्रैकालिक होने से तीनों को भी त्रैकालिक सिद्ध किया है।
प्रत्याख्यायक का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-आज्ञा से और गुरु के निवेदन से उपयुक्त हुआ क्रिया के आदि और अन्त में सविकल्प और निर्विकल्प संयम को पालन करता हुआ दृढ़, धैर्यवान् साधु प्रत्याख्यायक होता है।।६३८।।
आणाविय आज्ञया गुरूपदेशेनार्हदाद्याज्ञया चारित्रश्रद्धया, जाणणाविय ज्ञापकेन गुरुनिवेदनेनाथवा परमार्थतो ज्ञात्वा दोषस्वरूपं तमोहेतुं बाह्याभ्यतरं प्रविश्य ज्ञात्वाऽपि चोपयुक्त: षट्प्रकारसमन्वित: मूले आदौ ग्रहणकाले मध्ये मध्यकाले निर्देशे समाप्तौ सागारं गार्हस्थ्यं संयतासंयतयोग्यमथवा साकारं सविकल्पं भेदसहितं अनागारं संयमसमेतोद्भवं यतिप्रतिबद्धमथवाऽनाकारं निर्विकल्पं सर्वथा परित्यागमनुपालयन् रक्षयन् दृढधृतिक: सदृढधैर्य:, मूलमध्यनिर्देशे साकारमनाकारं च प्रत्याख्यानमुपयुक्त: सन् आज्ञया सम्यग्विवेकेन वाऽनुपालयन् दृढधृतिको यो भवति स एष प्रत्याख्यायको नामेति सम्बन्ध:। उत्तरेणाथवा मूलमध्यनिर्देश आज्ञयोपयुक्त: साकारमनाकारं च प्रत्याख्यानं च गुरुं ज्ञापयन् प्रतिपादयन् अनुपालयंश्च दृढधृतिक: प्रत्याख्यायको भवेदिति।।६३८।।
शेषं प्रतिपादयन्नाह–
एसो पच्चक्खाओ पच्चक्खाणेत्ति वुच्चदे चाओ।
पच्चक्खिदव्वमुविंह आहारो चेव बोधव्वो।।६३९।।
एष प्रत्याख्यायक: पूर्वेण सम्बन्ध: प्रत्याख्यानमित्युच्यते। त्याग: सावद्यस्य द्रव्यस्य निरवद्यस्य वा तपोनिमित्तं परित्याग: प्रत्याख्यानं प्रत्याख्यातव्य: परित्यजनीय उपधि: परिग्रह: सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्न: क्रोधादिभेदभिन्नश्चाहारश्चा-भक्ष्यभोज्यादिभेदभिन्नो बोद्धव्य इति।।६३९।।
प्रस्तुतं प्रत्याख्यानं प्रपंचयन्नाह–
आचारवृत्ति-आज्ञा–गुरु का उपदेश, अर्हंत आदि की आज्ञा और चारित्र की श्रद्धा, ये आज्ञा शब्द से ग्राह्य हैं। ज्ञापक-बतलाने वाले गुरु।
इस तरह गुरु के उपदेश आदि रूप आज्ञा से और गुरु के कथन से पाप रूप अन्धकार के हेतुक दोष के स्वरूप को परमार्थ से जानकर और उसके बाह्य–अभ्यन्तर कारणों में प्रवेश करके जो मुनि नाम, स्थापना आदि छह भेद रूप प्रत्याख्यानों से समन्वित हैं वह साधु प्रत्याख्यान के मूल-ग्रहण के समय, उसके मध्यकाल में और निर्देश-उसकी समाप्ति में सागार-संयतासंयत गृहस्थ के योग्य और अनगार-संयमयुक्त यति से सम्बन्धित अथवा साकार-सविकल्प–भेद सहित और अनाकार-निर्विकल्प अर्थात् सर्वथा परित्याग रूप प्रत्याख्यान की रक्षा करता हुआ दृढ़, धैर्यसहित होने से प्रत्याख्यायक है।
अर्थात् जो साधु त्याग के आदि, मध्य और अन्त में साकार व अनाकार प्रत्याख्यान में उद्यमशील होता हुआ गुरुओं की आज्ञा य सम्यव्â विवेक से उसका पालन करता हुआ दृढ़ धैर्यवान है वह प्रत्याख्यायक कहलाता है ऐसा अगली गाथा से सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
अथवा मूल, मध्य और अन्त में प्रत्याख्यान का पालन करने वाला, गुरु की आज्ञा को धारण करने वाला साधु भेदसहित और भेदरहित प्रत्याख्यान को गुरु को बतलाकर उसको पालता हुआ धैर्यगुणयुक्त है वह प्रत्याख्यायक है।
शेष को बतलाते हैं-
गाथार्थ-यह पूर्वोक्त गाथा कथित साधु प्रत्याख्यायक है। त्याग को प्रत्याख्यान कहते हैं और उपधि तथा आहार यह प्रत्याख्यान करने योग्य पदार्थ हैं ऐसा जानना।।६३९।।
आचारवृत्ति-पूर्वगाथा में कहा गया साधु प्रत्याख्यायक है। सावद्यद्रव्य का त्याग करना या तपोनिमित्त निर्दोष द्रव्य का त्याग करना प्रत्याख्यान है। सचित्त, अचित्त तथा मिश्र रूप बाह्य परिग्रह एवं क्रोध आदि रूप अभ्यन्तर परिग्रह से उपधि हैं। अभक्ष्य भोज्य आदि पदार्थ आहार कहलाते हैं। ये उपधि और आहार प्रत्याख्यातव्य हैं।
प्रस्तुत प्रत्याख्यान का विस्तार से वर्णन करते हैं-
पच्चक्खाणं उत्तरगुणेसु खमणादि होदि णेयविहं।
तेणवि अ एत्थ पयदं तं पि य इणमो दसविहं तु।।६४०।।
प्रत्याख्यानं मूलगुणविषयमुत्तरगुणविषयं वक्ष्यमाणादिभेदेनाशनपरित्यागादिभेदेनानेकविधमनेकप्रकारं। तेनापि चात्र प्रकृतं प्रस्तुतं अथवा तेन प्रत्याख्यायकेनात्र यत्न: कर्त्तव्यस्तदेतदपि च दशविधं तदपि चैतत् क्षमणादि दशप्रकारं भवतीति वेदितव्यम।।६४०।।
तान् दशभेदान् प्रतिपादयन्नाह–
अणागदमदिकंतं कोडीसहिदं णिखंडिदं चेव।
सागारमणागारं परिमाणगदं अपरिसेसं।।६४१।।
अद्धाणगदं णवमं दसमं तु सहेदुगं वियाणाहि।
पच्चक्खाणवियप्पा णिरुत्तिजुत्ता जिणमदह्मि।।६४२।।
अणागदं अनागतं भविष्यत्कालविषयोपवासादिकरणं चतुर्दश्यादिषु यत्कर्त्तव्यं तत्त्रयोदश्यादिषु यत् क्रियते तदनागतं प्रत्याख्यानं, अदिकंतं अतिक्रान्तं अतीतकालविषयोपवासादिकरणं चतुर्दश्यादिषु यत्कर्त्तव्यमुपवासादिकं तत्प्रतिपदादिषु क्रियतेऽतिक्रान्तं प्रत्याख्यानं।
कोडीसहिदं कोटिसहितं संकल्पसमन्वितं शक्त्यपेक्षयोपवासादिकं श्वस्तने दिने स्वाध्यायवेलायामतिक्रान्तायां यदि शक्तिर्भविष्यत्युपवासादिकं करिष्यामि नो चेन्न करिष्यामीत्येवं यत् क्रियते प्रत्याख्यानं तत्कोटिसहितमिति, णिक्खंडितं निखंडितं अवश्यकर्त्तव्यं पाक्षिकादिषूपवासकरणं निखंडितं प्रत्याख्यानं साकारं सभेदं सर्वतोभद्रकनकावल्याद्युपवासविधिर्नक्षत्रादिभेदेन करणं तत्साकारप्रत्याख्यानं, अनाकारं स्वेच्छयोपवा-सविधिर्नक्षत्रादिक-
गाथार्थ-उत्तर गुणों में जो अनेक प्रकार के उपवास आदि हैं वे प्रत्याख्यान हैं। उसमें प्रत्याख्यायक प्रयत्न करे, सो यह प्रत्याख्यान दश प्रकार का भी है।।६४०।।
आचारवृत्ति-मूलगुण विषयक प्रत्याख्यान और उत्तरगुण विषयक प्रत्याख्यान होता है जो कि आगे कहे जाने वाले भोजन के परित्याग आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। उन भेदों से भी यहाँ पर प्रकृत है-कहा गया है अथवा उस प्रत्याख्यायक साधु के इन त्याग रूप उपवास आदिकों में प्रयत्न करना चाहिए।
सो यह भी उपवास आदि रूप प्रत्याख्यान दश प्रकार का है ऐसा जानना।
उन दश भेदों का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, निखंडित, साकार, अनाकार, परिणाम गत,अपरिशेष, अध्वानगत और दशम सहेतुक ये दश भेद जानों। ये प्रत्याख्यान के भेद जिनमत में निरुक्ति सहित हैं।।६४१–६४२।।
आचारवृत्ति-दश प्रकार के प्रत्याख्यान को पृथव्â–पृथव्â कहते हैं-
१़ भविष्यत्काल में किए जाने वाले उपवास आदि पहले कर लेना, जैसे चतुर्दशी आदि में जो उपवास करना था उसको त्रयोदशी आदि में कर लेना अनागत प्रत्याख्यान है।
२़ अतीतकाल में किए जाने वाले उपवास आदि को आगे करना अतिक्रान्त प्रत्याख्यान है। जैसे- चतुर्दशी आदि में जो उपवास आदि करना है उसे प्रतिपदा आदि में करना।
३़ शक्ति आदि की अपेक्षा से संकल्प सहित उपवास करना कोटिसहित प्रत्याख्यान है। जैसे कल प्रात: स्वाध्याय बेला के अनन्तर यदि शक्ति रहेगी तो उपवास आदि करूँगा, यदि शक्ति नहीं रही तो नहीं करूँगा, इस प्रकार से जो संकल्प करके प्रत्याख्यान होता है वह कोटिसहित है।
मंतरेणोपवासादिकरणमनाकारं प्रत्याख्यानं, परिमाणगतं प्रमाणसहितं षष्ठाष्टमदशमद्वादशपक्षार्द्धपक्षमासादि-कालादिपरिमाणेनोप-वासादिकरणं परिमाणगतं प्रत्याख्यानं, अपरिशेषं यावज्जीवं चतुर्विधाऽऽहारादित्यागोऽपरिशेषं प्रत्याख्यानम्।।६४१।।
तथा–अद्धाणगदं अध्वानं गतमध्वगतं मार्गविषयाटवीनद्यादिनिष्क्रमणद्वारेणोपवासादिकरणं। अध्वगतं नाम प्रत्याख्यानं नवमं, सहहेतुना वर्त्तत इति सहेतुकमुपसर्गादिनिमित्तापेक्षमुपवासादिकरणं सहेतुकं नाम प्रत्याख्यानं दशमं विजानीहि, एवमेतान्प्रत्याख्यानकरणविकल्पान्विभक्तियुक्तान्तथानुगतान् परमार्थरूपाञ्जिनमते विजानीहीति।।६४२।।
पुनरपि प्रत्याख्यानकरणविधिमाह–
विणएण तहणुभासा हवदि य अणुपालणाय परिणामे।
एदं पच्चक्खाणं चदुव्विधं होदि णादव्वं।।६४३।।
विनयेन शुद्धं तथाऽनुभाषयाऽनुपालनेन परिणामेन य यच्छुद्धं भवति तदेतत्प्रत्याख्यानं चतुर्विधं भवति ज्ञातव्यं। यस्मिन् प्रत्याख्याने विनयेन सार्द्धमनुभाषाप्रतिपालनेन सह परिणामशुद्धिस्तत्प्रत्याख्यानं चतुर्विधं भवति ज्ञातव्यमिति।।६४३।।
४़ पाक्षिक आदि में अवश्य किए जाने वाले उपवास का करना निखण्डित प्रत्याख्यान है।
५़ भेद सहित उपवास करने को साकार प्रत्याख्यान कहते हैं। जैसे सर्वतोभद्र, कनकावली आदि व्रतों की विधि से उपवास करना, रोहिणी आदि नक्षत्रों के भेद से उपवास करना।
६़ स्वेच्छा से उपवास करना, जैसे नक्षत्र या तिथि आदि की अपेक्षा के बिना ही स्वरुचि से कभी भी कर लेना अनाकार प्रत्याख्यान है।
७़ प्रमाण सहित उपवास को परिमाणगत कहते हैं। जैसे-बेला, तेला, चार उपवास, पांच उपवास, सात दिन, पन्द्रह दिन, एक मास आदि काल के प्रमाण उपवास आदि करना परिमाणगत प्रत्याख्यान है।
८़ जीवन पर्यंत के लिए चार प्रकार के आहार आदि का त्याग करना अपरिशेष प्रत्याख्यान है।
९़ मार्ग विषयक प्रत्याख्यान अध्वानगत है। जैसे–जंगल या नदी आदि से निकलने के प्रसंग में उपवास आदि करना अर्थात् इस वन से बाहर पहुँचने तक मेरे चतुर्विध आहार का त्याग है या इस नदी से पार होने तक चतुर्विध आहार का त्याग है ऐसा उपवास करना सो अध्वानगत प्रत्याख्यान है।
१०़ हेतु सहित उपवास सहेतुक है यथा-उपसर्ग आदि के निमित्त से उपवास आदि करना सहेतुक नाम का प्रत्याख्यान है।
विभक्ति से युक्त अन्वर्थ, नाम से सहित तथा परमार्थ रूप प्रत्याख्यान करने के ये दश भेद जिनमत में कहे गए हैं ऐसा जानो।
पुनरपि प्रत्याख्यान करने की विधि बताते हैं-
गाथार्थ-विनय से, अनुभाषा से, अनुपालन से और परिणाम से प्रत्याख्यान होता है। यह प्रत्याख्यान चार प्रकार का जानना चाहिए।।६४३।।
आचारवृत्ति-विनय से शुद्ध तथैव अनुभाषा, अनुपालन और परिणाम से शुद्ध प्रत्याख्यान चार भेद रूप हो जाता है। अर्थात् जिस प्रत्याख्यान में विनय के साथ, अनुभाषा के साथ, प्रतिपालना के साथ और परिणाम शुद्धि के साथ आहार आदि का त्याग होता है वह प्रत्याख्यान उन विनय आदि की अपेक्षा से चार प्रकार का हो जाता है।
विनयप्रत्याख्यानं तावदाह–
किदियम्मं उवचारिय विणओ तह णाणदंसणचरित्ते।
पंचविधविणयजुत्तं विणयसुद्धं हवदि तं तु।।६४४।।
कृतिकर्म सिद्धभक्तियोगभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गकरणं, पूर्वोक्त: औपचारिकविनय: कृतकर-मुकुलललाट-पट्टविनतोत्तमांग: प्रशांततनु: पिच्छिकया विभूषितवक्ष इत्याद्युपचारविनय;, तथा ज्ञानदर्शनचारित्रविषयो विनय: एवं क्रियाकर्मादिपंचप्रकारेण विनयेन युक्तं विनयशुद्धं तत्प्रत्याख्यानं भवत्येवेति।।६४४।।
अनुभाषायुक्तं प्रत्याख्यानमाह–
अणुभासदि गुरुवयणं अक्खरपदवंजणं कमविसुद्धं।
घोसविसुद्धी सुद्धं एवं अणुभासणासुद्धं।।६४५।।
अणुभासदि अनुभाषते अनुवदति गुरुवचनं गुरुणा यथोच्चारिता प्रत्याख्यानाक्षरपद्धतिस्तथैव तामुच्चरतीति, अक्षरमेकस्वरयुक्तं व्यंजनं, इच्छामीत्यादिकं पदं सुबन्तं मिंङतं चाक्षरसमुदायरूपं, व्यंजनमनक्षरवर्णरूपं खंडाक्षरानुस्वार-विसर्जनीयादिकं क्रमविशुद्धं येनैव क्रमेण स्थितानि वर्णपदव्यंजनवाक्यादीनि ग्रंथार्थोभयशुद्धानि तेनैव पाठ; घोषविशुद्ध्या च शुद्धं गुर्वादिकवर्णविषयोच्चारणसहितं मुख्यमध्योच्चारणरहितं महाकलकलेन विहीनं स्वरविशुद्धमिति, एवमेतत्प्रत्याख्यानमनुभाषणशुद्धं वेदितव्यमिति।।६४५।।
इनमें से पहले विनय प्रत्याख्यान को कहते हैं-
गाथार्थ-कृतिकर्म, औपचारिक विनय तथा दर्शन, ज्ञान और चारित्र में विनय जो इन पांच विध विनय से युक्त है वह विनय शुद्ध प्रत्याख्यान है।।६४४।।
आचारवृत्ति-सिद्धभक्ति, योगभक्ति और गुरुभक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग करना कृतिकर्म विनय है। औपचारिक विनय का लक्षण पहले कह चुके हैं अर्थात् हाथों को मुुकुलित कर ललाट पट्ट पर रख मस्तक को झुकाना, प्रशांत शरीर होना, पिच्छिका से वक्षस्थल भूषित करना-पिच्छिका सहित अंजुली जोड़कर हृदय के पास रखना, प्रार्थना करना आदि उपचार विनय है एवं दर्शन, ज्ञान और चारित्र विषयक विनय करना-इस तरह कृतिकर्म आदि पाँच प्रकार के विनय से युक्त प्रत्याख्यान विनयशुद्ध प्रत्याख्यान कहलाता है।
अनुभाषा युक्त प्रत्याख्यान को कहते हैं-
गाथार्थ-गुरु के वचन के अनुरूप बोलना, अक्षर, पद, व्यंजन क्रम से विशुद्ध और घोष की विशुद्धि से शुद्ध बोलना अनुभाषणाशुद्धि है।।६४५।।
आचारवृत्ति-प्रत्याख्यान के अक्षरों को गुरु ने जैसा उच्चारण किया है वैसा ही उन अक्षरों का उच्चारण करता है। एक स्वरयुक्त व्यंजन को अक्षर कहते हैं, सुबंत और मिङत को पद कहते हैं अर्थात् ‘इच्छामि’ इत्यादि प्रकार से जो अक्षर समुदायरूप है वह पद कहलाता है। अक्षर रहित वर्ण को व्यंजन कहते हैं जोकि खण्डाक्षर, अनुस्वार और विसर्ग आदि रूप हैं।
जिस क्रम से वर्ण, पद, व्यंजन और वाक्य आदि, ग्रन्थशुद्ध, अर्थशुद्ध और उभयशुद्ध हैं उनका उसी पद्धति से पाठ करना सो क्रमविशुद्ध कहलाता है। तथा ह्रस्व, दीर्घ आदि वर्णों का यथायोग्य उच्चारण करना घोष विशुद्धि है। मुख में ही शब्द का उच्चारण नहीं होना चाहिए और न महाकलकल शब्द करना चाहिए। स्वरशुद्ध रहना चाहिए सो यह सब घोषशुद्धि है, इस प्रकार का जो प्रत्याख्यान है वह अनुभाषण शुद्ध प्रत्याख्यान कहलाता है।अनुपालनसहित प्रत्याख्यानस्य स्वरूपमाह–
आदंके उवसग्गे समे य दुब्भिक्खवुत्ति कंतारे।
जं पालिदं ण भग्गं एदं अणुपालणासुद्धं।।६४६।।
आतंक: सहसोत्थितो व्याधि:, उपसर्गो देवमनुष्यतिर्यक्कृतपीडा, श्रम उपवासालाभमार्गादिकृत: परिश्रम: ज्वररोगादिकृतश्च, दुर्भिक्षवृत्तिर्वर्षाकालराज्यभंगविड्वरचौराद्युपद्रवभयेन शस्याद्यभावेन भिक्षाया: प्राप्त्यभाव:, कान्तारे महाटवीिंवध्यारण्यादिकभयानकप्रदेश: एतेषूपस्थितेष्वातंकोपसर्गदुर्भिक्षवृत्तिकान्तारेषु यत्प्रतिपालितं रक्षितं न भग्नं न मनागपि विपरिणामरूपं जातं तदेतत्प्रत्याख्यानमनुपालनविशुद्धं नाम।।६४६।।
परिणामविशुद्धप्रत्याख्यानस्य स्वरूपमाह–
रागेण व दोसेण व मणपरिणामेण दूसिदं जं तु।
तं पुण पच्चक्खाणं भावविसुद्धं तु णादव्वं।।६४७।।
रागपरिणामेन द्वेषपरिणामेन च न दूषितं न प्रतिहतं विपरिणामेन यत्प्रत्याख्यानं तत्पुन: प्रत्याख्यानं भावविशुद्धं तु ज्ञातव्यमिति। सम्यग्दर्शनादियुक्तस्य नि:कांक्षस्य वीतरागस्य समभावयुक्तस्यािंहसादिव्रतसहितशुद्धभावस्य प्रत्याख्यानं परिणामशुद्धं भवेदिति।।६४७।।
चतुर्विधाहारस्वरूपमाह–
असणं खुहप्पसमणं पाणाणमणुग्गहं तहा पाणं।
खादंति खादियं पुण सादंति सादियं भणियं।।६४८।।
अनुपालन सहितप्रत्याख्यान का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-आकस्मिक व्याधि, उपसर्ग, श्रम, भिक्षा का अलाभ और गहन वन इनमें जो ग्रहण किया गया प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है वह अनुपालना शुद्ध है।।६४६।।
आचारवृत्ति-सहसा उत्पन्न हुई व्याधि आतंक है। देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत पीड़ा को उपसर्ग कहते हैं। उपवास, अलाभ या मार्ग में चलने आदि से हुआ परिश्रम या ज्वर आदि रोगों के निमित्त से हुआ खेद श्रम कहलाता है।
दुर्भिक्षवृत्ति-वर्षा का अभाव, राज्यभंग, बदमाश-लुटेरे, चोर इत्यादि के उपद्रव के भय से या धान्य आदि की उत्पत्ति के अभाव से भिक्षा का लाभ न होना, महावन, विंध्याचल, अरण्य आदि भयानक प्रदेशों में पहुँच जाना अर्थात् आतंक के आ जाने पर, उपसर्ग के आ जाने पर, श्रम से थकान हो जाने पर, भिक्षा न मिलने पर या महान् भयानक वन आदि में पहुँच जाने पर जो प्रत्याख्यान ग्रहण किया हुआ है उसकी रक्षा करना, उससे तिलमात्र भी विचलित नहीं होना सो यह अनुपालन विशुद्ध प्रत्याख्यान है।
परिणाम विशुद्ध प्रत्याख्यान का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-राग से अथवा द्वेष रूप मन के परिणामों से जो दूषित नहीं होता है वह भाव विशुद्ध प्रत्याख्यान है ऐसा जानना।।६४७।।
आचारवृत्ति-राग परिणाम से या द्वेष परिणाम से जो प्रत्याख्यान दूषित नहीं होता है, अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि से युक्त, कांक्षा रहित, वीतराग, समभावयुक्त और अहिंसादि व्रतों से सहित शुद्ध भाववाले मुनि का प्रत्याख्यान परिणाम शुद्ध प्रत्याख्यान कहलाता है।
चार प्रकार के आहार का स्वरूप बताते हैं-
गाथार्थ-क्षुधा को शांत करने वाला अशन, प्राणों पर अनुग्रह करने वाला पान है। जो खाया जाय वह खाद्य एवं जिसका स्वाद लिया जाय वह स्वाद्य कहलाता है।।६४८।।
अशनं क्षुदुपशमनं बुभुक्षोपरति: प्राणानां दशप्रकाराणामनुग्रहो येन तत्तथा खाद्यत इति खाद्यं रसविशुद्धं लडुकादि पुनरास्वाद्यत इति आस्वाद्यमेलाकक्कोलादिकमिति भणितमेवंविधस्य चतुर्विधाहारस्य प्रत्याख्यानमुत्तमार्थ-प्रत्याख्यानमिति।।६४८।।
चतुर्विधस्याहारस्य भेदं प्रतिपाद्याभेदार्थमाह–
सव्वोवि य आहारो असणं सव्वोवि वुच्चदे पाणं।
सव्वोवि खादियं पुण सव्वोवि य सादियं भणियं।।६४९।।
सर्वोऽप्याहारोऽशनं तथा सर्वोऽप्याहार: पानमित्युच्यते तथा सर्वोऽप्याहार: खाद्यं तथा सर्वोऽप्याहार: स्वाद्यमिति भणितं एवं चतुर्विधस्याप्याहारस्य द्रव्यार्थिकनयापेक्षयैक्यं आहारत्वेनाभेदादिति।।६४९।।
पर्यायार्थिकनयापेक्षया पुनश्चतुर्विधस्तथैव प्राह–
असणं पाणं तह खादियं चउत्थं च सादियं भणियं।
एवं परूविदं दु सद्दहिदुं जे सुही होदि।।६५०।।
एवमशनपानखाद्यस्वाद्यभेदेनाहारं चतुर्विधं प्ररूपितं श्रद्धाय सुखी भवतीति फलं व्याख्यातं भवतीति।।६५०।।
प्रत्याख्याननिर्युिंक्त व्याख्याय कायोत्सर्गनिर्युक्तिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
पच्चक्खाणणिजुत्ती एसा कहिया मए समासेण।
काओसग्गणिजुत्ती एतो उड्ढं पवक्खामि।।६५१।।
प्रत्याख्याननिर्युक्तरेषा कथिता मया समासेन कायोत्सर्गनिर्युक्तिमित ऊर्ध्वं प्रवक्ष्य इति।१ स्पष्टोर्थ:।।६५१।।
आचारवृत्ति-जिससे भूख की उपरति–शान्ति हो जाती है वह अशन है। जिसके द्वारा दश प्रकार के प्राणों का उपकार होता है वह पान है। जो खाये जाते हैं वे खाद्य हैं। रस सहित लड्डू आदि पदार्थ खाद्य हैं। जिनका आस्वाद लिया जाता है वे इलायची, कक्लोल आदि स्वाद्य हैं। इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उत्तमार्थ प्रत्याख्यान कहलाता है।
चार प्रकार के आहारों के भेद बताकर अब उनका अभेद दिखाते हैं-
गाथार्थ-सभी आहार अशन कहलाता है। सभी आहार पान कहलाता है। सभी आहार खाद्य और सभी ही आहार स्वाद्य कहा जाता है।।६४९।।
आचारवृत्ति-सभी आहार अशन हैं, सभी आहार पान हैं, सभी आहार खाद्य हैं एवं सभी आहार स्वाद्य हैं। इस तरह चारों प्रकार का आहार द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से एकरूप है क्योंकि आहारपने की अपेक्षा से सभी में अभेद है।
पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से पुन: आहार चार भेदरूप हैं-
गाथार्थ-अशन, पान, खाद्य तथा चौथा स्वाद्य कहा गया है। इन कहे हुए उपदेश का श्रद्धान करके जीव सुखी हो जाता है।।६५०।।
आचारवृत्ति-इन अशन आदि चार भेद रूप कहे गए आहार का श्रद्धान करके जीव सुखी हो जाता है यह इसका फल बताया गया है। अर्थात् उत्तमार्थी इन सब का त्यागकर सुखी होता है यह फल है ।
प्रत्याख्यान निर्युक्ति का व्याख्य्ाान करके अब कायोत्सर्ग निर्युक्ति का स्वरूप बताते हैं-
गाथार्थ-मैंने संक्षेप से यह प्रत्याख्यान निर्युक्ति कही है। इसके बाद कायोत्सर्ग निर्युक्ति कहूँगा।।६५१।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है।
णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य।
एसो काउस्सग्गे णिक्खेवो छव्विहो णेओ।।६५२।।
खरपरुषादिसावद्यनामकरणद्वारेणागतातीचारशोधनाय कायोत्सर्गो नाममात्र: कायोत्सर्गो वा नामकायोत्सर्ग:, पापस्थापनाद्वारेणा१गतातीचारशोधननिमित्तकायोत्सर्गपरिणतप्रतििंबबता२ स्थापनाकायोत्सर्ग: सावद्यद्रव्यसेवाद्वारेणागतातीचार-निर्हरणाय कायोत्सर्ग:, कायोत्सर्गव्यावर्णनीयप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्तस्तच्छरीरं वा द्रव्यकायोत्सर्ग:, सावद्यक्षेत्रसेवनादागतदोष-ध्वंसनाय कायोत्सर्ग:, कायोत्सर्गपरिणतसेवितक्षेत्रं वा क्षेत्रकायोत्सर्ग:, सावद्यकालाचरणद्वारागतदोषपरिहाराय कायोत्सर्ग: कायोत्सर्गपरिणतसहितकालो वा कालकायोत्सर्ग:, मिथ्यात्वाद्यतीचारशोधनाय भावकायोत्सर्ग:, कायोत्सर्गव्यावर्णनीयप्राभृतज्ञ उपयुक्तसंज्ञानजीवप्रदेशो वा भाव-कायोत्सर्ग:, एवं नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावविषय एष कायोत्सर्गनिक्षेप: षड्विधो ज्ञातव्य इति।।६५२।।
कायोत्सर्गकारणमन्तरेण कायोत्सर्ग: प्रतिपादयितुं न शक्यत इति तत्स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
काउस्सग्गो काउस्सग्गी काउस्सग्गस्स कारणं चेव।
एदेसिं पत्तेयं परूवणा होदि तिण्हं पि।।६५३।।
कायस्य शरीरस्योत्सर्गा: परित्याग: कायोत्सर्ग: स्थितस्यासीनस्य सर्वांगचलनरहितस्य शुभध्यानस्य वृत्ति:
गाथार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये छह निक्षेप हैं। कायोत्सर्ग में यह छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए।।६५२।।
आचारवृत्ति-तीक्ष्ण, कठोर आदि पापयुक्त नामकरण के द्वारा उत्पन्न हुए अतीचारों का शोधन करने के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह नाम कायोत्सर्ग है अथवा कायोत्सर्ग यह नामकरण करना नाम कायोत्सर्ग है। पापस्थापना-अशुभ या सरागमूर्ति की स्थापना द्वारा हुए अतीचारों के शोधननिमित्त कायोत्सर्ग करना स्थापना कायोत्सर्ग है अथवा कायोत्सर्ग से परिणत मुनि की प्रतिमा आदि स्थापना कायोत्सर्ग है।
सदोष द्रव्य के सेवन से उत्पन्न हुए अतीचारों को दूर करने के लिए जो कायोत्सर्ग होता है वह द्रव्य कायोत्सर्ग है अथवा कायोत्सर्ग के वर्णन करनेवाले प्राभृत का ज्ञानी किन्तु उसके उपयोग से रहित जीव और उसका शरीर ये द्रव्य कायोत्सर्ग हैं। सदोष क्षेत्र के सेवन से होने वाले अतीचारों को नष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग क्षेत्र कायोत्सर्ग है अथवा कायोत्सर्ग से परिणत हुए मुनि से सेवित स्थान क्षेत्र कायोत्सर्ग है।
सावद्य काल के आचरण द्वारा उत्पन्न हुए दोषों का परिहार करने के लिए कायोत्सर्ग काल–कायोत्सर्ग है अथवा कायोत्सर्ग से परिणत हुए मुनि से सहित काल काल-कायोत्सर्ग है। मिथ्यात्व आदि अतीचारों के शोधन करने के लिए किया गया कायोत्सर्ग भाव कायोत्सर्ग है अथवा कायोत्सर्ग के वर्णन करने वाले प्राभृत का ज्ञाता तथा उसमें उपयोग सहित और उसके ज्ञान सहित जीवों के प्रदेश भी भाव कायोत्सर्ग हैं। इस तरह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विषयक यह कायोत्सर्ग का निक्षेप छह रूप जानना चाहिए।
कायोत्सर्ग के कारण बिना बताए कायोत्सर्ग का प्रतिपादन करना शक्य नहीं हैं इसलिए उनके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-कायोत्सर्ग, कायोत्सर्गी और कायोत्सर्ग के कारण इन तीनों की भी पृथव्â–पृथव्â प्ररूपणा करते हैं।।६५३।।
आचारवृत्ति-काय-शरीर का उत्सर्ग-त्याग कायोत्सर्ग है अर्थात् खड़े होकर या बैठकर कायोत्सर्गोऽस्यास्तीति कायोत्सर्गी
असंयतसम्यग्दृष्ट्यादिभव्य: कायोत्सर्गस्य कारणं हेतुरेव तेषां त्रयाणामपि प्रत्येकं प्ररूपणा भवति ज्ञातव्येति।।६५३।।
तावत्कायोत्सर्गस्वरूपमाह–
वोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो।
सव्वंगचलणरहिओ काउस्सग्गो विसुद्धो दु।।६५४।।
व्युत्सृष्टं त्यक्तं बाहुयुगलं यस्मिन्नवस्थाविशेषे सो व्युत्सृष्टबाहुयुगल: प्रलंबितभुजश्चतुरंगुलमन्तरं ययो: पादयोस्तौ चतुरंगुलान्तरौ। चतुरंगुलान्तरौ समौ पादौ यस्मिन्स चतुरंगुलान्तरसमपाद:। सर्वेषामंगानां करचरणशिरोग्रीवाक्षिभू्रविकारादीनां चलनं तेन रहित: सर्वांगचलनरहित: सर्वाक्षेपविमुक्त:, एवंविधस्तु विशुद्ध: कायोत्सर्गो भवतीति।।६५४।।
कायोत्सर्गिकस्वरूपनिरूपणायाह–
मुक्खट्ठी जिदणिद्दो सुत्तत्थविसारदो करणसुद्धो।
आदबलविरियजुत्तो काउस्सग्गी विसुद्धप्पा।।६५५।।
मोक्षमर्थयत इति मोक्षार्थी कर्मक्षयप्रयोजन:, जिता निद्रा येनासौ जितनिद्र: जागरणशील: सूत्रञ्चार्थश्च सूत्रार्थौ तयोर्विशारदो निपुण: सूत्रार्थविशारद:, करणेन क्रियाया परिणामेन शुद्ध: करणशुद्ध: आत्माहारशक्तिक्षयोपशमशक्तिसहित: कायोत्सर्गी विशुद्धात्मा भवति ज्ञातव्य इति।।६५५।।
कायोत्सर्गमधिष्ठातुकाम: प्राह–
सर्वांग के हलन–चलन रहित शुभध्यान की जो वृत्ति है वह कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग जिसके है वह कायोत्सर्गी है अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत मुनि आदि भव्य जीव कायोत्सर्ग करने वाले हैं। तथा कायोत्सर्ग के हेतु-निमित्त को कारण कहते हैं। इन तीनों की प्ररूपणा आचार्य स्वयं करते हैं।
पहले कायोत्सर्ग का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-जो चार अंगुल के अन्तर से समपाद रूप है, जिसमें दोनों बाहु लटका दी गई हैं, जो सर्वांग के चलन से रहित, विशुद्ध है वह कायोत्सर्ग कहलाता है।।६५४।।
आचारवृत्ति-जिस अवस्था विशेष में दोनों भुजाओं को लम्बित कर दिया है, पैरों में चार अंगुल अन्तर रखकर दोनों पैर समान व्िाâये हैं ; जिसमें हाथ, पैर, मस्तक, ग्रीवा, नेत्र और भौंह आदि का विकार-हलन–चलन नहीं है एवं जो सर्व आक्षेप से रहित है, इस प्रकार से जो विशुद्ध है वह कायोत्सर्ग होता है।
कायोत्सर्ग का स्वरूप निरूपित करते हैं-
गाथार्थ-मोक्ष का इच्छुक, निद्राविजयी, सूत्र और उसके अर्थ में प्रवीण, क्रिया से शुद्ध, आत्मा के बल और वीर्य से युक्त, विशुद्ध आत्मा कायोत्सर्ग को करने वाला होता है।।६५५।।
आचारवृत्ति-जो मोक्ष को चाहता है वह मोक्षार्थी है अर्थात् कर्म क्षय के प्रयोजन वाला है। जिसने निद्रा जीत ली है वह जागरणशील है। जो सूत्र और उनके अर्थ इन दोनों में निपुण हैं, जो तेरह प्रकार की क्रिया और परिणाम से शुद्ध-निर्मल है, जो आत्मा की आहार से होने वाली शक्ति और कर्मों के क्षयोपशम की शक्ति से सहित है ऐसा विशुद्ध आत्मा कायोत्सर्गी होता है।
कायोत्सर्ग के अनुष्ठान की इच्छा करते हुए आचार्य कहते हैं-काउस्सग्गं मोक्खपहदेसयं घादिकम्म अदिचारं।
इच्छामि अहिट्ठादुं जिणसेविद देसिदत्तादो।।६५६।।
कायोत्सर्गं मोक्षपथदेशकं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रोपकारकं घातिकर्मणां ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायकर्मणामतीचारं विनाशनं घातिकर्मविध्वंसकमिच्छाम्यहमधिष्ठातुं यत: कायोत्सर्गो १जिनैर्देशित: सेवितश्च तस्मात्तमधिष्ठातुमिच्छामीति।।६५६।।
कायोत्सर्गस्य कारणमाह–
एगपदमस्सिदस्सवि जो अदिचारो दु रागदोसेिंह।
गुुत्तीहिं२ वदिकमो वा चदुिंह कसाएिंह व ३वदेिंह।।६५७।।
छज्जीवणिकाएिंह भयमयठाणेिंह बंभधम्मेिंह४।
काउस्सग्गं ठामिय तं कम्मणिघादणट्ठाए।।६५८।।
एकपदमाश्रितस्यैकपदेन स्थितस्य योऽतीचारो भवति रागद्वेषाभ्यां तथा गुप्तीनां यो व्यतिक्रम: कषायैश्चतुर्भि: स्यात् व्रतविषये वा यो व्यतिक्रम: स्यात्।।६५७।।
तथा– षटजीवनिकायै: पृथिव्यादिकायविराधनद्वारेण यो व्यतिक्रमस्तथा भयमदस्थानै: सप्तभयाष्टमदद्वारेण यो व्यतिक्रमस्तथा ब्रह्मचर्यविषये यो व्यतिक्रमस्तेनाऽऽगतं यत्कर्मैकपदाद्याश्रितस्य गुप्त्यादिव्यतिक्रमेण च यत्कर्म तस्य कर्मणो निघातनाय कायोत्सर्गमधितिष्ठामि कायोत्सर्गेण तिष्ठामीति सम्बन्ध:, अथवैकपदस्थितस्यापि रागद्वेषाभ्यामतीचारो भवति यत: िंक पुनर्भ्रमति ततो घातनार्थं कर्मणां तिष्ठामीति।।६५८।।
गाथार्थ-जो मोक्ष मार्ग का उपदेशक है, घाति कर्म का नाशक है, जिनेन्द्रदेव द्वारा सेवित है और उपदिष्ट है ऐसे कायोत्सर्ग को मैं धारण करना चाहता हूँ।।६५६।।
आचारवृत्ति-कायोत्सर्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का उपकारक है; ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों का विध्वंसक है, ऐसे कायोत्सर्ग का मैं अधिष्ठान करना चाहता हूँ क्योंकि वह जिनवरों द्वारा सेवन किया गया है और उन्हीं के द्वारा कहा गया है।
कायोत्सर्ग के कारण को कहते हैं-
गाथार्थ-एक पद५ का आश्रय लेनेवाले के जो अतीचार हुआ है, राग–द्वेष इन दो से, तीन गुप्तियों में अथवा चार कषायों द्वारा वा पाँच व्रतों में जो व्यतिक्रम हुआ है, छह जीव निकायों से, सात भयों से, आठ मद स्थानों से, नव ब्र्रह्मचर्य गुप्ति में और दशधर्मों में जो व्यतिक्रम हुआ है उन कर्मों का घात करने के लिए मैं कायोत्सर्ग का अनुष्ठान करता हूँ।।६५७–६५८।।
आचारवृत्ति-एक पद से स्थित हुए-एक पैर से खड़े हुए जीव के-(?) जो अतिचार होता है, राग और द्वेष से जो व्यतिक्रम हुआ है; तीन गुप्तियों का जो व्यतिक्रम हुआ है, चार कषायों से और पांच व्रतों के विषय में जो व्यतिक्रम हुआ है ; पृथिवी, जल आदि षट्कायों की विराधना के द्वारा जो व्यतिक्रम हुआ है तथा सात भय और आठ मद के द्वारा जो व्यतिक्रम हुआ है, ब्रह्मचर्य के विषय में जो व्यतिक्रम अर्थात् अतिचार हुआ है, अर्थात् इनसे जो कर्मों का आना हुआ है उन कर्मों का नाश करने के लिए मैं कायोत्सर्ग को स्वीकार करता हूँ।
अथवा एक पैर से खड़े होने पर भी राग–द्वेष के द्वारा अतीचार होते हैं तो पुन: तुम क्यों भ्रमण करते पुनरपि कायोत्सर्गकारणमाह–
जे केई उवसग्गा देवमाणुसतिरिक्खचेदणिया।
ते सव्वे अधिआसे काओसग्गे ठिदो संतो।।६५९।।
ये केचनोपसर्गा देवमनुष्यतिर्यक्कृता अचेतना विद्युदशन्यादयस्तान् सर्वानध्यासे सम्यग्विधानेन सहेऽहं कायोत्सर्गे स्थित: सन्, उपसर्गेष्वागतेषु कायोत्सर्ग: कर्त्तव्य: कायोत्सर्गेण वा स्थितस्य यद्युपसर्गा: समुपस्थिता: भवन्ति तेऽपि सहनीया इति।।६५९।।
कायोत्यसर्गप्रमाणमाह–
संवच्छरमुक्कस्सं भिण्णमुहुत्तं जहण्णयं होदि।
सेसा काओसग्गा होंति अणेगेसु ठाणेसु।।६६०।।
संवत्सरं द्वादशमासमात्रं उत्कृष्टं प्रमाणं कायोत्सर्गस्य। जघन्येन प्रमाणं कायोत्सर्गस्यान्तर्मुहूर्तमात्रं। संवत्सरान्तर्मुहूर्त-मध्येऽनेकविकल्पा दिवसरात्र्यहोरात्र्यादिभेदभिन्ना: शेषा: कायोत्सर्गा अनेकेषु स्थानेषु बहुस्थानविशेषेषु शक्त्यपेक्षया कार्या:, कालद्रव्यक्षेत्रभावकायोत्सर्गविकल्पा भवन्तीति।।६६०।।
दैवसिकादिप्रतिक्रमणे कायोत्सर्गस्य प्रमाणमाह–
अट्ठसदं देवसियं कल्लद्धं पक्खियं च तिण्णिसया।
उस्सासा कायव्वा णियमंते अप्पमत्तेण।।६६१।।
हो? ऐसा समझकर ही मैं उन राग–द्वेष आदि के द्वारा हुए अतीचारों को दूर करने के लिए कायोत्सर्ग में स्थित होता हूँ।
पुनरपि कायोत्सर्ग के कारणों को कहते हैं-
गाथार्थ-देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन कृत जो कोई भी उपसर्ग हैं, कायोत्सर्ग में स्थित हुआ मैं उन सबको सहन करता हूँ।।६५९।।
आचारवृत्ति-देव, मनुष्य या तिर्यंच के द्वारा किए गये अथवा बिजली-वङ्कापात आदि अचेतन कृत हुए जो कोई भी उपसर्ग हैं, कायोत्सर्ग में स्थित हुआ, उन सबको मैं सम्यव्â प्रकार से सहन करता हूँ। उपसर्गों के आ जाने पर कायोत्सर्ग करना चाहिए अथवा कायोत्सर्ग से स्थित हुए हैं और यदि उपसर्ग आ जाते हैं तो भी उन्हें सहन करना चाहिए। ऐसा अभिप्राय है।
कायोत्सर्ग के प्रमाण को कहते हैं-
गाथार्थ-एक वर्ष तक कायोत्सर्ग उत्कृष्ट है और अन्तर्मुहूर्त का जघन्य होता है। शेष कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में होते हैं ।।६६०।।
आचारवृत्ति-कायोत्सर्ग का द्वादशमासपर्यंत उत्कृष्ट प्रमाण है, अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्य प्रमाण है। तथा वर्ष के और अन्तर्मुहूर्त के मध्य में दिवस, रात्रि, अहोरात्र आदि भेदरूप अनेकों विकल्प होते हैं। ये सब मध्यमकाल के कहलाते हैं। अपनी शक्ति की अपेक्षा से बहुत से स्थान विशेषों में ये कायोत्सर्ग करना चाहिए। काल, द्रव्य, क्षेत्र और भाव से भी कायोत्सर्ग के भेद हो जाते हैं।
दैवसिक आदि प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का प्रमाण कहते हैं-
गाथार्थ-अप्रमत्त साधु को वीरभक्ति में दैवसिक के एक सौ आठ, रात्रिक के इससे आधे–चौवन और पाक्षिक के तीन सौ उच्छ्वास करना चाहिए।।६६१।।
अष्टfिभरधिकं शतमष्टोत्तरशतं१ दैवसिके प्रतिक्रमणे दैवसिकप्रतिक्रमणविषये कायोत्सर्गे उच्छ्वासानामष्टोत्तरशतं कर्त्तव्यं। कल्लद्धं रात्रिकप्रतिक्रमणविषयकायोत्सर्गे चतु:पंचाशदुच्छ्वासा: कर्त्तव्या:। पाक्षिके च प्रतिक्रमणविषये कायोत्सर्गे त्रीणि शतानि उच्छ्वासानां चिन्तनीयानि स्थातव्यानि विधेयानि। नियमान्ते वीरभक्तिकायोत्सर्गकाले अप्रमत्तेन प्रमादरहितेन यत्नवता विशेषे२ सिद्धभक्तिप्रतिक्रमणभक्तिचतुर्विंशतितीर्थंकरभक्तिकरणकायोत्सर्गे सप्तविंशतिरुच्छवासा: कर्त्तव्या इति।।६६१।।
चातुर्मासिकसांवत्सरिककायोत्सर्गप्रमाणमाह–
चादुम्मासे चउरो सदाइं संवत्थरे३ य पंचसदा।
काओसग्गुस्सासा पंचसु ठाणेसु णादव्वा।।६६२।।
चातुर्मासिके प्रतिक्रमणे चत्वारि शतान्युच्छ्वासानां चिन्तनीयानि। सांवत्सरिके च प्रतिक्रमणे पंचशतान्युच्छ्वासानां चिन्तनीयानि स्थातव्यानि नियमान्ते कायोत्सर्गप्रमाणमेतच्छेषेषु पूर्ववत् द्रष्टव्य:। एवं कायोत्सर्गोच्छ्वासा: पंचसु स्थानेषु ज्ञातव्या:।।६६२।।
आचारवृत्ति-दैवसिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में एक सौ आठ उच्छ्वास करना चाहिए अर्थात् छत्तीस बार णमोकार मंत्र का जप करना चाहिए। रात्रिक प्रतिक्रमण विषयक कायोत्सर्ग में चौवन उच्छ्वास अर्थात् अठारह बार णमोकार मन्त्र करना चाहिए।
पाक्षिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में तीन सौ उच्छ्वास करना चाहिए। ये उच्छ्वासों का प्रमाण नियमांत अर्थात् वीरभक्ति के कायोत्सर्ग के समय प्रयत्नशील मुनि को प्रमाद रहित होकर करना चाहिए। तथा विशेष में अर्थात् सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति और चतुर्विंशति- तीर्थंकर भक्ति के कायोत्सर्ग में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए अर्थात् नौ बार णमोकार मन्त्र जपना चाहिए।
भावार्थ-दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में चार भक्तियाँ की जाती हैं–सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति। इनमें से तीन भक्तियों के कायोत्सर्ग में तो २७ -२७ उच्छ्वास करने होते हैं और वीरभक्ति में उपर्युक्त प्रमाण से उच्छ्वास होते हैं। पाक्षिक प्रतिक्रमण में ग्यारह भक्तियाँ होती हैं।
यथा–सिद्ध, चारित्र, सिद्ध, योगि, आचार्य, प्रतिक्रमण, वीर, चतुर्विंशतितीर्थंकर, बृहदालोचनाचार्य, मध्यमालोचनाचार्य और क्षुल्लकालोचनाचार्य। इनमें से नव भक्ति में सत्ताईस उच्छ्वास ही होते हैं तथा वीरभक्ति में तीन सौ उच्छ्वास होते हैं।
एक बार णमोकार मन्त्र के जप में तीन उच्छ्वास होते हैं, यथा–णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, इन दो पदों के उच्चारण में एक उच्छ्वास ; णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं इन दो पदों के उच्चारण में एक उच्छ्वास, णमो लोए सव्वसाहूणं इस एक पद के उच्चारण में एक उच्छ्वास, ऐसे तीन उच्छ्वास होते हैं।
चातुर्मासिक और सांवत्सरिक कायोत्सर्ग का प्रमाण कहते हैं-
गाथार्थ-चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ और सांवत्सारिक में पाँच सौ, इस तरह इन पाँच स्थानों में कायोत्सर्ग के उच्छ्वास जानना चाहिए।।६६२।।
आचारवृत्ति-चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ उच्छ्वासों का चिंतवन करना और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में पाँच सौ उच्छ्वासों का चिन्तवन करना। ये उच्छ्वासों का प्रमाण नियमान्त–वीरभक्ति के कायोत्सर्ग में होता है। शेष भक्तियों में पूर्ववत् सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए। इस तरह कायोत्सर्ग के उच्छ्वासों का वर्णन पाँच स्थानों में किया गया है।
शेषेषु स्थानेषूच्छ्वासप्रमाणमाह–
१पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चेय।
अट्ठसदं उस्सासा काओसग्गह्मि कादव्वा।।६६३।।
२प्राणिवधातीचारे मृषावादातीचारे अदत्तग्रहणातीचारे मैथुनातिचारे परिग्रहातीचारे च कायोत्सर्गे चोच्छ्वासानामष्टोत्तरशतं कर्त्तव्यं नियमान्ते३ सर्वत्र द्रष्टव्यं शेषेषु पूर्ववदिति।।६६३।।
पुनरपि कायोत्सर्गप्रमाणमाह–
भत्ते पाणे गामंतरे य अरहंतसमणसेज्जासु।
उच्चारे पस्सवणे पणवीसं होंति उस्सासा।।६६४।।
भक्ते पाने च गोचरे प्रतिक्रमणविषये गोचरादागतस्य कायोत्सर्गे पंचिंवशतिरुच्छ्वासा: कर्त्तव्या भवन्ति, प्रस्तुतात् ग्रामादन्यग्रामो ग्रामान्तरं ग्रामान्तरगमनविषये च कायोत्सर्गे च पंचिंवशतिरुच्छ्वासा: कर्त्तव्या: तथार्हच्छय्यायां जिनेन्द्रनिर्वाण-समवसृतिकेवलज्ञानोत्पत्तिनिष्क्रमणजन्मभूमिस्थानेषु
वन्दनाभक्तिहेतोर्गतेन पंचिंवशतिरुच्छ्वासा: कायोत्सर्गे कर्त्तव्या:। तथा श्रमणशय्यायां निषद्यिकास्थानं गत्वाऽऽगतेन पंचिंवशतिरुच्छ्वासा: कायोत्सर्गे कर्त्तव्यास्तथोच्चारे बहिर्भूमिगमनं कृत्वा४ प्रस्रवणे प्रस्रवणं च कृत्वा य: कायोत्सर्ग: क्रियते तत्र नियमेनेति।।६६४।।
भावार्थ-पाक्षिक के समान चातुर्मासिक और वार्षिक में भी ग्यारह भक्तियाँ होती हैं जिनके नाम ऊपर भावार्थ में बताए गए हैं। उनमें से वीरभक्ति के कायोत्सर्ग में उपर्युक्त प्रमाण है। बाकी भक्तियों में नव बार णमोकार मन्त्र का जाप्य होता है। इस तरह दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक ऐसे पाँच स्थानों के कायोत्सर्ग सम्बन्धी उच्छ्वासों का प्रमाण बताया है।
अब शेष स्थानों में उच्छ्वासों का प्रमाण कहते हैं-
गाथार्थ-हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन दोषों के हो जाने पर कायोत्सर्ग में एक सौ आठ उच्छ्वास करना चाहिए।।६६३।।
आचारवृत्ति-प्राणिवध के अतीचार में, असत्यभाषण के अतीचार में, अदत्तग्रहण के अतीचार में, मैथुन के अतीचार में और परिग्रह के अतीचार में कायोत्सर्ग करने में एक सौ आठ उच्छ्वास करना चािहए। यहाँ भी वीरभक्ति के कायोत्सर्ग के उच्छ्वासों का यह प्रमाण है, शेष भक्तियों में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए।
पुनरपि कायोत्सर्ग का प्रमाण बताते हैं-
गाथार्थ-भोजन-पान में, ग्रामान्तर गमन में, अर्हंत के कल्याणक स्थान व मुनियों की निषद्या वन्दना में और मल–मूत्र विसर्जन में पच्चीस उच्छ्वास होते हैं।।६६४।।
आचारवृत्ति-गोचर प्रतिक्रमण अर्थात् आहार से आकर कायोत्सर्ग करने में पच्चीस उच्छ्वास करने होते हैं। प्रस्तुत ग्राम से अन्य ग्राम को ग्रामान्तर कहते हैं अर्थात् एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाने पर कायोत्सर्ग में पच्चीस उच्छ्वास करना चाहिए।
जिनेन्द्रदेव की निर्वाण भूमि, समवसरण भूमि, केवलज्ञान की उत्पत्ति का स्थान, निष्क्रमणभूमि और जन्मभूमि इन स्थानों की वन्दना भक्ति के लिए जाने पर कायोत्सर्ग में पच्चीस उच्छ्वास करना चाहिए। श्रमण शय्या–मुनियों के निषद्या स्थान में जाकर आने से कायोत्सर्ग में पच्चीस उच्छ्वास करना चाहिए। तथा बहिर्भूमि गमन–मलविसर्जन के बाद और मूत्र विसर्जन के बाद नियम से पच्चीस उच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए।
तथा–
उद्देसे णिद्देसे सज्भâाए वंदणे य पणिधाणे।
सत्तावीसुस्सासा काओसग्गह्मि कादव्वा।।६६५।।
उद्देशे ग्रन्थादिप्रारम्भकाले निर्देशे प्रारब्धग्रन्थादिसमाप्तौ च कायोत्सर्गे सप्तिंवशतिरुच्छ्वासा: कर्त्तव्या:। तथा स्वाध्याये स्वाध्यायविषये कायोत्सर्गास्तेषु च सप्तिंवशतिरुच्छ्वासा: कर्त्तव्या:। तथा वन्दनायां ये कायोत्सर्गास्तेषु च प्रणिधाने च मनोविकारे चाशुभपरिणामे तत्क्षणोत्पन्ने सप्तिंवशतिरुच्छ्वासा: कायोत्सर्गे कर्त्तव्या इति।।६६५।।
एवं प्रतिपादितक्रमं कायोत्सर्गं किमर्थमधितिष्ठन्तीत्याह–
काओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि।
वोसट्ठचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।।६६६।।
ईर्यापथातीचारनिमित्तं कायोत्सर्गं मोक्षमार्गे स्थित्वा व्युत्सृष्टत्यक्तदेहा: सन्त: शुद्धा: कुर्वन्ति दु:ख–क्षयार्थमिति।।६६६।।
तथा–
भत्ते पाणे गामंतरे य चदुमासियवरिसचरिमेसु।
१णाऊण ठंति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए।।६६७।।
िभक्तपानग्रामान्तरचातुर्मासिकसांवत्सरिकचरमोत्तमार्थविषयं ज्ञात्वा कायोत्सर्गे तिष्ठति दैवसिकादिषु च धीरा अत्यर्थं उसी प्रकार और भी बताते हैं-
गाथार्थ-ग्रन्थ के प्रारम्भ में, समाप्ति में, स्वाध्याय में, वन्दना में और अशुभ परिणाम के होने पर कायोत्सर्ग करने में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए।।६६५।।
आचारवृत्ति-उद्देश–ग्रन्थादि के प्रारम्भ करते समय, निर्देश–प्रारम्भ किए ग्रन्थादि की समाप्ति के समय कायोत्सर्ग में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए। स्वाध्याय के कायोत्सर्गों में तथा वन्दना के कायोत्सर्गों में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए। इसी तरह प्रणिधान–मन के विकार के होने पर और अशुभ परिणाम के तत्क्षण उत्पन्न होने पर सत्ताईस उच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए।
इस प्रतिपादित क्रम से कायोत्सर्ग किसलिए करते हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-मोक्षमार्ग में स्थित होकर ईर्यापथ के अतीचार शोधन हेतु शरीर से ममत्व छोड़कर साधु दु:खों के क्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं।।६६६।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है। तथा और भी हेतु बताते हैं-
गाथार्थ-भोजन, पान, ग्रामान्तर गमन, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इनको जानकर धीर मुनि अत्यर्थ रूप से दु:खक्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं।।६६७।।
आचारवृत्ति-आहार , विहार, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इन विषयों को जानकर धैर्यवान् दु:खक्षयार्थं नान्येन कार्येणेति।।६६७।।
यदर्थं कायोत्सर्गं करोति तमेवार्थं चिन्तयतीत्याह–
काओसग्गह्मि ठिदो चिंतिदु इरियावधस्स अदिचारं।
तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च िंचतेज्जो।।६६८।।
कायोत्सर्गे स्थित: सन् ईर्यापथस्यातीचारं विनाशं चिन्तयन् तं नियमं सर्वं निरवशेषं समाप्य समाप्तिं नीत्वा पश्चाद्धर्मध्यानं शुक्लध्यानं च चिन्तयत्विति।।६६८।।
तथा–
तह दिवसियरादियपक्खियचादुमासियवरिसचरिमेसु।
तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च भâायेज्जो।।६६९।।
एवं यथा ईर्यापथातीचारार्थं दैवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकोत्तमार्थान् नियमान् तान् समाप्य धर्मध्यानं शुक्लध्यानं ध्यायेत्, न तावन्मात्रेण तिष्ठेदित्यनेनालस्याद्यभाव: कथितो भवतीति।।६६९।।
साधु अतिशय रूप से दु:खक्षय के लिए दैवसिक आदि प्रतिक्रमण क्रियाओं के कायोत्सर्ग में स्थित होते हैं, अन्य प्रयोजन के लिए नहीं।
भावार्थ-साधु अपने आहार, विहार आदि चर्याओं के दोष शोधन में तथा पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण सम्बन्धी क्रियाओं में कायोत्सर्ग धारण करते हैं, सो केवल संसार के दु:खों से छूटने के लिए ही करते हैं, न कि अन्य किसी लौकिक प्रयोजन आदि के लिए, ऐसा अभिप्राय समझना।
साधु जिसलिए कायोत्सर्ग करते हैं उसी अर्थ का चिन्तवन करते हैं, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-कायोत्सर्ग में स्थित हुआ साधु ईर्यापथ के अतिचार के विनाश का चिन्तवन करता हुआ उन सबको समाप्त करके धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तवन करे।।६६८।।
आचारवृत्ति-कायोत्सर्ग में स्थित होकर साधु ईर्यापथ के अतीचार के विनाश का चिन्तवन करते हुए उन सब नियमों को समाप्त करके पुन: धर्मध्यान और शुक्लध्यान का अवलम्बन लेवे।
उसी को और बताते हैं-
गाथार्थ-उसी प्रकार से दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इन सब नियमों को समाप्त करके धर्म और शुक्ल ध्यान का चिंतवन करे।।६६९।।
आचारवृत्ति-जैसे पूर्व की गाथा में ईर्यापथ के अतीचार के लिए बताया है वैसे ही दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और औत्तमार्थ इन नियम–प्रतिक्रमणों को समाप्त करके–पूर्ण करके पुन: वह साधु धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्यावे, उतने मात्र से ही संतोष नहीं कर लेवे, इस कथन से आलस्य आदि का अभाव कहा गया है।
भावार्थ-ईर्यापथ, दैवसिक, रात्रिक आदि भेदों से प्रतिक्रमण के सात भेद कहे गए हैं, सो ये अपने–अपने नामों के अनुसार उन–उन सम्बन्धी दोषों के दूर करने हेतु ही हैं।
इन प्रतिक्रमणों के मध्य कायोत्सर्ग करना होता है, उसके उच्छ्वासों का प्रमाण बता चुके हैं। यहाँ यह कहना है कि इन प्रतिक्रमणों को पूर्ण करके साधु उतने मात्र से ही संतुष्ट न हो जावे, किन्तु आगे आलस्य को छोड़कर धर्मध्यान करे या शक्तिवान् है तो शुक्लध्यान करे, प्रतिक्रमण मात्र से ही अपने को कृतकृत्य न मान बैठे।कायोत्सर्गस्य दृष्टं फलमाह–
काओसग्गह्मि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ।
तह भिज्जदि कम्मरयं काउस्सग्गस्स करणेण।।६७०।।
कायोत्सर्गे हि स्फुटं कृते यथा भिद्यन्तेंऽगोपांगसंधय: शरीरावयवास्तथा भिद्यते कर्मरज: कायोत्सर्गकरणेनेति।।६७०।।
द्रव्यादिचतुष्टयापेक्षमाह–
बलवीरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं।
काओसग्गं कुज्जा इमे दु दोसे परिहरंतो।।६७१।।
बलवीर्यं चौषधाद्याहारशक्तिं वीर्यान्तरायक्षयोपशमं वाऽऽश्रित्य क्षेत्रबलं कालबलं चाश्रित्य शरीरं व्याध्यनुपहतसंहनन-वङ्कार्षभनाराचादिकमपेक्ष्य कायोत्सर्गं कुर्यात्, इमांस्तु कथ्यमानान् दोषान्परिहरन्निति।।६७१।।
तान् दोषानाह–
घोडय लदाय खंभे कुड्डे माले सवरबधू णिगले।
लंबुत्तरथणदिट्ठी वायस खलिणे जुग कविट्ठे।।६७२।।
सीसपकंपिय मुइयं अंगुलि भूविकार वारुणीपेयी।
काओसग्गेण ठिदो एदे दोसे परिहरेज्जो।।६७३।।
कायोत्सर्ग का प्रत्यक्ष फल दिखाते हैं-
गाथार्थ-कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंग–उपांगों की संधियाँ भिद जाती है। वैसे ही कायोत्सर्ग के करने से कर्मरज अलग हो जाती है।।६७०।।
आचारवृत्ति-कायोत्सर्ग में हलन–चलन रहित शरीर के स्थिर होने से जैसे शरीर के अवयव भिद जाते हैं वैसे ही कायोत्सर्ग के द्वारा कर्मधूलि भी आत्मा से पृथव्â हो जाती है।
द्रव्य आदि चतुष्टय की अपेक्षा को कहते हैं-
गाथार्थ-बल–वीर्य, क्षेत्र, काल और शरीर के संहनन का आश्रय लेकर इन दोषों का परिहार करते हुए साधु कायोत्सर्ग करे।।६७१।।
आचारवृत्ति-औषधि और आहार आदि से हुई शक्ति को बल कहते हैं तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की शक्ति को वीर्य कहते हैं। इन बल और वीर्य को देखकर तथा क्षेत्रबल और कालबल का भी आश्रय लेकर व्याधि से रहित शरीर एवं वङ्कावृषभनाराच आदि संहनन की भी अपेक्षा करके साधु कायोत्सर्ग करे।
तथा आगे कहे जाने वाले दोषों का परिहार करते हुए कायोत्सर्ग धारण करे। अर्थात् अपनी शरीर शक्ति, क्षेत्र, काल आदि को देखकर उनके अनुरूप कायोत्सर्ग करे। अधिक शक्ति होने से अधिक समय तक कायोत्सर्ग में स्थिति रह सकती है अत: अपनी शक्ति को न छिपाकर कायोत्सर्ग करे।
कायोत्सर्ग के दोषों को कहते हैं-
गाथार्थ-घोटक, लता, स्तम्भ, कुड्य, माला, शबरबधू, निगड, लम्बोत्तर, स्तनदृष्टि, वायस, खलिन, युग और कपित्थ–ये तेरह दोष हुए।।६७२।।
शीश–प्रकम्पित, मूकत्व, अंगुलि, भ्रूविकार और वारुणीपायी ये पाँच हुए, इस प्रकार इन अठारह दोषों का परिहार करे।।६७३।।
आलोगणं दिसाणं गीवाउण्णामणं पणमणं च।
णिट्ठीवणंगमरिसो काउसग्गह्मि वज्जिज्जो।।६७४।।
घोडय घोटकस्तुरग: स यथा एकं पादमुत्क्षिप्य विनम्य वा तिष्ठfित तथा य: कायोत्सर्गेण तिष्ठfित तस्य घोटकसदृशो घोटकदोष:, तथा लता इवांगानि चालयन्य: तिष्ठfित कायोत्सर्गेण तस्य लतादोष:। स्तंभमाश्रित्य यस्तिष्ठfित कायोत्सर्गेण तस्य स्तंभदोष:। स्तंभवत् शून्यहृदयो वा तत्साहचर्येण स एवोच्यते। तथा कुड्यमाश्रित्य कायोत्सर्गेण यस्तिष्ठfित तस्य कुड्यदोष:।
साहचर्यादुपलक्षणमात्रमेतदन्यदप्याश्रित्य न स्थातव्यमिति ज्ञापयति, तथा मालापीठाद्युपरि स्थानं अथवा मस्तकादूर्ध्वं यत्तदाश्रित्य मस्तकस्योपरि यदि िंकचिदत्र गतिस्तथापि यदि कायोत्सर्ग: क्रियते स मालदोष:।
तथा शवरवधूरिव जंघाभ्यां जघनं निपीड्य कायोत्सर्गेण तिष्ठति तस्य शवरबधूदोष: तथा निगडपीडित इव पादयोर्महदन्तरालं कृत्वा यस्तिष्ठति कायोत्सर्गेण तस्य निगडदोष:, तथा लंबमानो नाभेरूर्ध्वभागो भवति वा कायोत्सर्गस्थस्योन्नमनमधोनमनं वा च भवति तस्य लंबोत्तरदोषो भवति।
तथा यस्य कायोत्सर्गस्थस्य स्तनयोर्दृष्टिरात्मीयौ स्तनौ य: पश्यति तस्य स्तनदृष्टिनामा दोष:। तथा य: कायोत्सर्गस्थो वायस इव काक इव पार्श्वं पश्यति तस्य वायसदोष:। तथा य: खलीनपीडितोऽश्व इव दन्तकटकटं मस्तकं कृत्वा कायोत्सर्गं करोति तस्य खलीनदोष:। तथा यो युगनिपीडितवलीवर्दवत् ग्रीवां प्रसार्य तिष्ठति कायोत्सर्गेण तस्य युगदोष:। तथा य: कपित्थफलवन्मुष्टिं कृत्वा कायोत्सर्गेण तिष्ठति तस्य कपित्थदोष:।।६७०।।
दश दिशाओं का अवलोकन, ग्रीवोन्नमन, प्रणमन, निष्ठीवन और अंगामर्श कायोत्सर्ग में इन बत्तीस दोषों का परिहार करे।।६७४।।
आचारवृत्ति-वन्दना के सदृश कायोत्सर्ग के भी बत्तीस दोष होते हैं, उनको पृथव्â-पृथव्â दिखाते हैं।
१़ घोटक-घोड़ा जैसे एक पैर को उठाकर अथवा झुकाकर खड़ा होता है उसी प्रकार से जो कायोत्सर्ग में खड़े होते हैं उनके घोटक सदृश यह घोटक नाम का दोष होता है।
२़ लता-लता के समान अंगों को हिलाते हुए जो कायोत्सर्ग में स्थित होते हैं उनके यह लता दोष होता है।
३़ स्तम्भ-जो खम्भे का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करते हैं अथवा स्तम्भ के समान शून्य हृदय होकर करते हैं उसके साहचर्य से यह वही दोष हो जाता है अर्थात् उनके यह स्तम्भ दोष होता है।
४़ कुड्य-भित्ती–दीवाल का आश्रय लेकर जो कायोत्सर्ग से स्थित होते हैं उनके यह कुड्य दोष होता है। अथवा साहचार्य से यह उपलक्षण मात्र है। इससे अन्य का भी आश्रय लेकर नहीं खड़े होना चाहिए ऐसा सूचित होता है।
५़ माला-माला–पीठ–आसन आदि के ऊपर खड़े होना अथवा सिर के ऊपर कोई रज्जु वगैरह का आश्रय लेकर अथवा सिर के ऊपर जो कुछ वहाँ हो, फिर भी कायोत्सर्ग करना वह मालदोष है।
६़ शबरबधू-भिल्लनी के समान दोनों जंघाओं से जंंघाओं को पीड़ित करके जो कायोत्सर्ग से खड़े होते हैं उनके यह शबरबधू नाम का दोष है।
७़ निगड-बेड़ी से पीड़ित हुए के समान पैरों में बहुत सा अन्तराल करके जो कायोत्सर्ग में खड़े होते हैं उनके निगडदोष होता है।
८़ लम्बोत्तर-नाभि से ऊपर का भाग लम्बा करके कायोत्सर्ग करना अथवा कायोत्सर्ग में स्थित होकर शरीर को अधिक ऊँचा करना या अधिक झुकाना सो लम्बोत्तर दोष है।
तथा–
शिर:प्रकंपितं कायोत्सर्गेण स्थितो य: शिर:प्रकंपयति चालयति तस्य शिर:प्रकंपितदोष:, मूक इव कायोत्सर्गेण स्थितो मुखविकारं नासिकाविकारं च करोति तस्य मूूकितदोष:, तथा य: कायोत्सर्गेण स्थितोंऽगुलिगणनां करोति तस्यांगुलिदोष:, तथा भू्रविकार: कायोत्सर्गेण स्थितो यो भ्रूविक्षेपं करोति
तस्य भ्रूविकारदोष: पादांगुलिनर्त्तनं वा,तथा यो वारुणीपायीव-सुरापायीवेति घूर्णमान: कायोत्सर्गं करोति तस्य वारुणीपायीदोष:, तस्मादेतान् दोषान् कायोत्सर्गेण स्थित: सन् परिहरेद्वर्जयेदिति।।६७३।।
तथेमांश्च दोषान् परिहरेदित्याह–
कायोत्सर्गेण स्थितो दिशामालोकनं वर्जयेत्, तथा कायोत्सर्गेण स्थितो ग्रीवोन्नमनं वर्जयेत् तथा कायोत्सर्गेण स्थित: सन् प्रणमनं च वर्जयेत् , तथा कायोत्सर्गेण स्थितो निष्ठीrवनं षाट्करणं च वर्जयेत् तथा कायोत्सर्गेण स्थितोंऽगामर्शं शरीरपरामर्शं वर्जयेदेतेऽपि दोषा: सन्त्यतो वर्जनीया:। दशानां दिशामवलोकनानि दश दोषा:, शेषा एवैâका इति।।६७४।।
९़ स्तनदृष्टि-कायोत्सर्ग में स्थित होकर जिसकी दृष्टि अपने स्तनभाग पर रहती है उसके स्तनदृष्टि नाम का दोष होता है।
१०़ वायस-कायोत्सर्ग में स्थित होकर कौवे के समान जो पार्श्वभाग को देखते हैं उनके वायस दोष होता है।
११़ खलीन-लगाम से पीड़ित हुए घोड़े के समान दाँत कटकटाते हुए मस्तक को करके जो कायोत्सर्ग करते हैं उनके खलीन दोष होता है।
१२़ युग-जूआ से पीड़ित हुए बैल के समान गर्दन पसार कर जो कायोत्सर्ग से स्थित होते हैं उनके यह युग नाम का दोष होता है।
१३़ कपित्थ-जो कपित्थ–वैâथे के फल के समान मुट्ठी को करके कायोत्सर्ग में स्थित होते हैं उनके यह कपित्थ दोष होता है।
१४़ शिर:प्रकंपित-कायोत्सर्ग में स्थित हुए जो शिर को कंपाते हैं उनके शिर:प्रकंपित दोष होता है।
१५़ मूकत्व-कायोत्सर्ग में स्थित होकर जो मूक के समान मुखविकार व नाक सिकोड़ना करते हैं उनके मूकित नाम का दोष होता है।
१६़ अंगुलि-जो कायोत्सर्ग से स्थित होकर अंगुलियों से गणना करते हैं उनके अंगुलि दोष होता है।
१७़ भ्रूविकार-जो कायोत्सर्ग से खड़े हुए भौंहों को चलाते हैं या पैरों की अंगुलियाँ नचाते हैं उनके भ्रूविकार दोष होता है।
१८़ वारुणीपायी-मदिरापायी के समान झूमते हुए जो कायोत्सर्ग करते हैं उनके वारुणीपायी दोष होता है।
१९ से २८़ दिशा अवलोकन-कायोत्सर्ग से स्थित हुए दिशाओं का अवलोकन करना। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान, ऊर्ध्व और अध:। इन दश दिशाओं के निमित्त से दश दोष हो जाते हैं। ये दिशावलोकन दोष हैं।
२९़ ग्रीवोन्नमन-कायोत्सर्ग में स्थित होकर गरदन को अधिक ऊँची करना यह ग्रीवा उन्नमन दोष है।
३०़ प्रणमन-कायोत्सर्ग में स्थित हुए गरदन को अधिक झुकाना या प्रणाम करना यह प्रणमन दोष हैं।
३१़ निष्ठीवन-कायोत्सर्ग में स्थित होकर खखारना, थूकना यह निष्ठीवन दोष है।
३२़ अंगामर्श-कायोत्सर्ग में स्थित हुए शरीर का स्पर्श करना यह अंगामर्श दोष है।
यथा यथोक्तं कायोत्सर्गं१ कुर्वन्ति तथाह–
णिक्कूडं सविसेसं बलाणरूवं वयाणुरूवं च।
काओसग्गं धीरा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।।६७५।।
नि:कूटं मायाप्रपंचान्निर्गतं, सह विशेषेण वर्त्तत इति सविशेषस्तं सविशेषं विशेषतासमन्वितं बलानुरूपं स्वशक्त्यनुरूपं वयोऽनुरूपं, बालयौवनवार्द्धक्यानुरूपं तथा वीर्यानुरूपं कालानुरूपं च कायोत्सर्गं धीरा दु:खक्षयार्थं कुर्वन्ति तिष्ठन्तीति।।६७५।।
मायां प्रदर्शयन्नाह–
जो पुण तीसदिवरिसो सत्तरिवरिसेण पारणाय समो।
विसमो य कूडवादी णिव्विण्णाणी य सोय जडो।।६७६।।
य: पुनिंस्त्रशद्वर्षप्रमाणो यौवनस्थ: शक्त: सप्ततिसंवत्सरेण सप्ततिसंवत्सरायु:प्रमाणेन वृद्धेन नि:शक्तिकेन पारणेनानुष्ठानेन कायोत्सर्गादिसमाप्त्या सम: सदृशशक्तिको नि:शक्तिकेन सह य: स्पर्द्धां करोति स: साधुर्विषमश्च शान्तरूपो न भवति कूटवादी मायाप्रपंचतत्परो निर्विज्ञानी विज्ञानरहितश्चारित्रमुक्तश्च जडश्च मूर्खो, न तस्येहलोको नाऽपि परलोक इति।।६७६।।
कायोत्सर्गस्य भेदानाह–
उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठउट्ठिदो चेव।
उवविट्ठणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो।।६७७।।
कायोत्सर्ग करते समय इन बत्तीस दोषों का परिहार करना चाहिए।
जिन–जिन विशेषताओं से यथोक्त कायोत्सर्ग को करते हैं उन्हें ही बताते हैं-
गाथार्थ-धीर मुनि मायाचार रहित, विशेष सहित, बल के अनुरूप और उम्र के अनुरूप कायोत्सर्ग को दु:खों के क्षयहेतु करते हैं।।६७५।।
आचारवृत्ति-धीर मुनि दु:खों का क्षय करने के लिए माया प्रपंच से रहित, विशेषताओं से सहित, अपनी शक्ति के अनुरूप और अपनी बाल, युवा या वृद्धावस्था के अनुरूप तथा अपने वीर्य के अनुरूप एवं काल के अनुरूप कायोत्सर्ग को करते हैं।
माया को दिखलाते हैं-
गाथार्थ-जो साधु तीस वर्ष की वय वाला है पुन: सत्तर वर्ष वाले के कायोत्सर्ग से समानता करता है वह विषम है, कूटवादी, अज्ञानी और मूढ़ है।।६७६।।
आचारवृत्ति-जो मुनि तीस वर्ष की उम्रवाला है–युवावस्था में स्थित है, शक्तिमान है फिर भी यदि वह सत्तर वर्ष की आयु वाले वृद्ध ऐसे अशक्त मुनि के कायोत्सर्ग आदि की समाप्ति रूप अनुष्ठान के साथ बराबरी करता है अर्थात् आप शक्तिमान होकर भी अशक्त मुनि के साथ स्पर्द्धा करता है वह साधु विषम–शान्तरूप नहीं है, माया प्रपंच में तत्पर है, निर्विज्ञानी–विज्ञान रहित और चारित्ररहित है तथा मूर्ख है।
न उसका इहलोक ही सुधरता है और न परलोक ही सुधरता है। अर्थात् अपनी–अपनी शक्ति के अनुसार कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं का अनुष्ठान करना चाहिए। वृद्धावस्था में शक्ति के ह्रास हो जाने से स्थिरता कम हो जाती है किन्तु युवावस्था में प्रत्येक अनुष्ठान विशेष और अधिक हो सकते हैं।
कायोत्सर्ग के भेदों को कहते हैं-
गाथार्थ-उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्टनिविष्ट ऐसे चार भेदरूप कायोत्सर्ग होता है।।६७७।।उत्थितश्चासावुत्थितश्चोत्थितो महतोऽपि महान् तथोत्थितनिविष्ट: पूर्वमुत्थित: पश्चान्निविष्ट उत्थितनिविष्ट:, कायोत्सर्गेण स्थितोप्यसावासीनो द्रष्टव्य:। उत्थित:, उपविष्टो भूत्वा स्थितो आसीनोऽप्यसौ कायोत्सर्गस्थश्चैव। तथोपविष्टो१ऽपि चासावासीन:। एवं कायोत्सर्ग: चत्वारि स्थानानि यस्यासौ चतु:स्थानश्चतुर्विकल्प इति।।६७७।।
उक्तं च–
त्यागो देहममत्वस्य तनूत्सृतिरुदाहृता।
उपविष्टोपविष्टादिविभेदेन चतुर्विधा।।१।।
आर्त्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते।
उपविष्टोपविष्टाख्या कथ्यते सा तनूत्सृति:।।२।।
२धर्मशुक्लद्वयं यत्रोपविष्टेन विधीयते।
तामुपविष्टोत्थितांकां निगदंति महाधिय:।।३।।
आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते।
तामुपविष्टोत्थितांकां निगदंति महाधिय:।।४।।
धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते।
उत्थितोत्थितनाम्ना तामाभाषन्ते विपश्चित:३।।५।।
आचारवृत्ति-उत्थितोत्थित–दोनों प्रकार से खड़े होकर जो कायोत्सर्ग होता है अर्थात् जिसमें शरीर से भी खड़े हुए हैं और परिणाम भी धर्म या शुक्लध्यान रूप हैं यह कायोत्सर्ग महान् से भी महान् है। पूर्व में उत्थित और पश्चात् निविष्ट अर्थात् कायोत्सर्ग में शरीर से तो खड़े हैं फिर भी भावों से बैठे हुए हैं अर्थात् आर्त या रौद्रध्यान रूप भाव कर रहे हैं, इनका कायोत्सर्ग उत्थित–निविष्ट कहलाता है। जो बैठे हुए भी खड़े हुए हैं
अर्थात् बैठकर पद्मासन से कायोत्सर्ग करते हुए भी जिनके परिणाम उज्जवल हैं उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्टोत्थित है। तथा जो शरीर से भी बैठे हुए हैं और भावों से भी, उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्टनिविष्ट कहलाता है। इस तरह कायोत्सर्ग के चार विकल्प हो जाते हैं।।६७७।।
अन्यत्र कहा भी है-
श्लोकार्थ-देह से ममत्व का त्याग कायोत्सर्ग कहलाता है। उपविष्टोपविष्ट आदि के भेद से वह चार प्रकार का हो जाता है।।१।।
जिस कायोत्सर्ग में बैठे हुए मुनि आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों का चिन्तवन करते हैं वह उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्ग कहलाता है।।२।।
जिस कायोत्सर्ग में बैठे हुए मुनि धर्म और शुक्ल ध्यान का चिन्तवन करते हैं बुद्धिमान् लोग उसको उपविष्टोत्थित कहते हैं।।३।।
जिस कायोत्सर्ग में खड़े हुए साधु आर्तरौद्र का चिन्तवन करते हैं उसको उत्थितोपविष्ट कहते हैं।।४।।
जिस कायोत्सर्ग में खड़े होकर मुनि धर्मध्यान या शुक्लध्यान का चिन्तवन करते हैं विद्वान लोग उसको उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग कहते हैं।।५।।
उत्थितोत्थितकायोत्सर्गस्य लक्षणमाह–
धम्मं सुक्कं च दुवे भâायदि भâाणाणि जो ठिदो संतो।
एसो काओसग्गो इह उट्ठिदउट्ठिदो णाम।।६७८।।
धर्म्यध्यानं शुक्लध्यानं द्वे ध्याने य: कायोत्सर्गस्थित: सन् ध्यायति तस्यैष इह कायोत्सर्ग उत्थितोत्थितो
नामेति।।६७८।।
तथोत्थितनिविष्टकायोत्सर्गस्य लक्षणमाह–
अट्टं रुद्दं च दुवे भâायदि भâाणाणि जो ठिदो संतो।
एसो काओसग्गो उट्ठिदणिविट्ठदो णाम।।६७९।।
आर्तध्यानं रौद्रध्यानं च द्वे ध्याने य: पर्यंककायोत्सर्गेण स्थितो ध्यायति तस्यैष कायोत्सर्गे उत्थितनिविष्टनामेति।।६७९।।
धम्मं सुक्कं च दवे भâायदि भâाणाणि जो णिसण्णो दु।
एसो काओसग्गो उवविट्ठउट्ठिदो णाम।।६८०।।
धर्म्य शौक्ल्यं च द्वे ध्याने यो निविष्टो ध्यायति तस्यैष कायोत्सर्ग इहागमे उपविष्टोत्थितो नामेति।।६८०।।
उपविष्टोपविष्टकायोत्सर्गस्य लक्षणमाह–
अट्ठं रुद्दं च दुवे भâायदि भâाणाणि जो णिसण्णो दु।
एसो काओसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम।।६८१।।
आर्तध्यानं रौद्रध्यानं च द्वे ध्याने य: पर्यंककायोत्सर्गेण स्थितो ध्यायति तस्यैष कायोत्सर्ग उपविष्टोपविष्टो नाम।।६८१।।
कायोत्सर्गेण स्थित: शुभं मन:संकल्पं कुर्यात् परन्तु क: शुभो मन:संकल्प इत्याह–
उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग का लक्षण कहते हैं-
गाथार्थ-जो ध्यान में खड़े हुए धर्म और शुक्ल इन दो ध्यान को करते हैं उनका यह कायोत्सर्ग उत्थितोत्थित नाम वाला है।।६७८।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है।
उत्थितनिविष्ट कायोत्सर्ग कहते हैं-
गाथार्थ-जो कायोत्सर्ग में स्थित हुए आर्त और रौद्र इन दो ध्यान को ध्याते हैं उनका यह कायोत्सर्ग उत्थितनिविष्ट नाम वाला है।।६७९।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है।
उपविष्टोत्थित का लक्षण कहते हैं-
गाथार्थ-जो बैठे हुए धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानों को ध्याते हैं उनका यह कायोत्सर्ग उपविष्टोत्थित नाम वाला है।।६८०।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है।
उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्ग का लक्षण करते हैं-
गाथार्थ-जो बैठे हुए ध्यान में आर्त और रौद्र का ध्यान करते हैं उनका यह कायोत्सर्ग उपविष्टोपविष्ट नामवाला है।।६८१।।
आचारवृत्ति-गाथा सरल है।
कायोत्सर्ग से स्थित हुए मुनि शुभ मन:संकल्प करें, तो पुन: शुभ मन:संकल्प क्या है ? सो ही बताते हैं-
दंसणणाणचरित्ते उवओगे संजमे विउस्सग्गे।
पच्चक्खाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु।।६८२।।
विज्जाचरणमहव्वदसमाधिगुणबंभचेरछक्काए।
खमणिग्गह अज्जवमद्दवमुत्तीविणए च सद्दहणे।।६८३।।
एवंगुणो महत्थो मणसंकप्पो पसत्थ वीसत्थो।
संकप्पोत्ति वियाणह जिणसासणसम्मदं सव्वं।।६८४।।
दर्शनज्ञानचारित्रेषु यो मन:संकल्प उपयोगे ज्ञानदर्शनोपयोगे यश्चित्तव्यापार: संयमविषये य: परिणाम: कायोत्सर्गस्य हेतोर्यत् ध्यानं प्रत्याख्यानग्रहणे य: परिणाम: करणेषु पंचनमस्कारषडावश्यकासिकानिषद्यकाविषये शुभयोगस्तथा प्रणिधानेषु धर्मध्यानादिविषयपरिणाम: समितिषु समितिविषय: परिणाम:।।६८२।।
तथा–
विद्यायां द्वादशांगचतुर्दशपूर्वविषय: संकल्प:, आचारणे भिक्षाशुद्ध्यादिपरिणाम:, महाव्रतेषु अहिंसादिविषयपरिणाम:, समाधौ विषयसन्यसनेन पंचनमस्कारस्तवनपरिणाम:, ग्ाुणेषु गुणविषयपरिणाम:, ब्रह्मचर्ये मैथुनपरिहारविषयपरिणाम:, षट्कायेषु पृथिवीकायादिरक्षणपरिणाम:, क्षमायां क्रोधोपशमनविषयपरिणाम:, निग्रह इन्द्रियनिग्रहविषयोऽभिलाष:, आर्जवमार्दवविषय: परिणाम:, मुक्तौ सर्वसंगपरित्यागविषयपरिणाम:, विनयविषय: परिणाम:, श्रद्धानविषय: परिणाम:।।६८३।।
उपसंहरन्नाह–
एवंगुण: पूर्वोक्तमन:संकल्पो मन:परिणाम: महार्थ: कर्मक्षयहेतु: प्रशस्त: शोभनो विश्वस्त: सर्वेषां विश्वासयोग्य: गाथार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, में, उपयोग में, संयम में, व्युत्सर्ग में, प्रत्याख्यान में, क्रियाओं में, धर्मध्यान आदि परिणाम में तथा समितियों में।।६८२।।
विद्या, आचारण, महाव्रत, समाधि, गुण और ब्रह्मचर्य में, छह जीवकायों में, क्षमा, निग्रह, आर्जव, मार्दव, मुक्ति, विनय तथा श्रद्धान में।।६८३।।
मन का संकल्प होना, सो इन गुणों से विशिष्ट महार्थ, प्रशस्त और विश्वस्त संकल्प है। यह सब जिनशासन में सम्मत है ऐसा जानो।।६८४।।
आचारवृत्ति-दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो मन का संकल्प है वह शुभ संकल्प है, ऐसे ही उपयोग–ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग में जो चित्त का व्यापार, संयम के विषय में परिणाम, कायोत्सर्ग के लिए ध्यान, प्रत्याख्यान के ग्रहण में परिणाम तथा करण में अर्थात् पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक क्रिया, आसिका और निषद्यिका इन तेरह क्रियाओं के विषय में शुभयोग तथा प्रणिधान–धर्मध्यान आदि विषयक परिणाम और समिति विषयक जो परिणाम है वह सब शुभ हैं।
विद्या–द्वादशांग और चौदह पूर्व विषयक संकल्प अर्थात् उस विषयक परिणाम, आचरण–भिक्षा शुद्धि आदि रूप परिणाम, महाव्रत–अहिंसा आदि पाँच महाव्रत विषयक परिणाम, समाधि–विषयों के संन्यसन अर्थात् त्यागपूर्वक पंचनमस्कार स्तवनरूप परिणाम, गुणविषयक परिणाम, ब्रह्मचर्य–मैथुन के त्यागरूप परिणाम, षट्काय–छह जीवनिकायों की रक्षा का परिणाम, क्षमा–क्रोध के उपशमनविषयक परिणाम, निग्रह–इन्द्रियों के निग्रह की अभिलाषा, आर्जव और मार्दव रूप भाव, मुक्ति–सर्वसंग के त्याग का परिणाम, विनय–विनय का भाव और श्रद्धान–तत्त्वों में श्रद्धा रूप परिणाम, ये सब शुभ हैं।
इन गुणों से विशिष्ट जो मन का संकल्प अर्थात् मन का परिणाम है वह महार्थ–कर्म के क्षय में हेतु संकल्प इति सम्यग्ध्यानमिति विजानीहि जिनशासने सम्मतं सर्वं समस्तमिति, एवंविशिष्टं ध्यानं कायोत्सर्गेण स्थितस्य योग्यमिति।।६८४।।
अप्रशस्तमाह–
परिवारइड्ढिसक्कारपूयणं असणपाणहेऊ वा।
लयणसयणासणं भत्तपाणकामट्ठहेऊ वा।।६८५।।
आज्ञाणिद्देसपमाणकित्तीवण्णणपहावणगुणट्ठं।
भâाणमिणमप्पसत्थं मणसंकप्पो दु वीसत्थो।।६८६।।
परिवार: पुत्रकलत्रादिक: शिष्यसामान्यसाधुश्रावकादिक: ऋद्धिर्विभूतिर्हस्त्यश्वद्रव्यादिका, सत्कार: कार्यादिष्वग्रत: करणं पूजनमर्चनं अशनं भक्तादिकं पानं सुगन्धजलादिकं हेतु: कारणं वा विकल्पार्थ:, लयनं उत्कीर्णपर्वतप्रदेश:, शयनं पल्यंकतूलिकादिकं, आसनं वेत्रासनादिकं, भक्तो भक्तियुक्तो जन आत्मभक्तिर्वा, प्राण: सामर्थ्यं दशप्रकारा: प्राणा वा, कामो मैथुनेच्छा, अर्थो द्रव्यादिप्रयोजनं, इत्येवंकारणेन कायोत्सर्गं य: करोति
परिवारनिमित्तं विभूतिनिमित्तं सत्कारपूजानिमित्तं है, प्रशस्त–शोभन है और विश्वस्त–सभी के विश्वास योग्य है। यह संकल्प सम्यव्â–समीचीन ध्यान है। पूर्वोक्त ये सभी परिणाम जिनशासन को मान्य हैं। अर्थात् इस प्रकार का ध्यान कायोत्सर्ग से स्थित हुए मुनि के लिए योग्य है–उचित है ऐसा तुम जानो।
भावार्थ-कायोत्सर्ग को करते हुए मुनि यदि दर्शन, ज्ञान आदि में (उपर्युक्त दो गाथा कथित विषयों में) अपना उपयोग लगाते हैं तो उनका वह शुभ संकल्प कहलाता है जो कि उनके योग्य है, क्योंकि शुक्लध्यान के पहले–पहले तो सविकल्प ध्यान ही होता है जो कि नाना विकल्पों रूप ही है।
अप्रशस्त मन:परिणाम को कहते हैं-
गाथार्थ-परिवार, ऋद्धि, सत्कार, पूजा अथवा भोजन–पान इनके लिए अथवा लयन, शयन, आसन, भक्त, प्राण, काम और अर्थ के हेतु।।६८५।।
तथा आज्ञा, निर्देश, प्रमाणता, कीर्ति, प्रशंसा, प्रभावना, गुण और प्रयोजन यह सब ध्यान अप्रशस्त हैं, ऐसा मन का परिणाम अविश्वस्त–अप्रशस्त है।।६८६।।
आचारवृत्ति-पुत्र, कलत्र आदि अथवा शिष्य, सामान्य साधु व श्रावक आदि परिवार कहलाते हैं। हाथी, घोड़े, द्रव्य आदि का वैभव ऋद्धि है। किसी कार्य आदि में आगे करना सत्कार है, अर्चा करना पूजन है, भोजन आदि अशन है और सुगन्ध जल आदि पान हैं। इनके लिए कायोत्सर्ग करना अप्रशस्त है।
उकेरे हुए पर्वत आदि के प्रदेश को लयन–लेनी कहते हैं, पलंग या गद्दे आदि शयन हैं, वेत्रासन–मोढ़ा, सिंहासन, कुर्सी आदि आसन हैं। भक्ति से सहित लोग भक्त हैं अथवा अपनी भक्ति होना भक्त है। सामर्थ्य को प्राण कहते हैं अथवा दश प्रकार के प्राण होते हैं, मैथुन की इच्छा काम है, द्रव्य आदि का प्रयोजन अर्थ कहलाता है। तात्पर्य यह है कि-
जो मुनि इन उपर्युक्त कारणों से कायोत्सर्ग करते हैं अर्थात् परिवार के निमित्त, विभूति के निमित्त, सत्कार व पूजा के लिए तथा भोजन, पान के हेतु अथवा लयन–शयन–आसन के लिए तथा लोग मेरे भक्त हो जावें या मेरी भक्ति खूब होवे, मेरी ख्याति पैâले, मेरे प्राण सामर्थ्य को लोग जानें, देव या मनुष्य मेरे प्राणों के रक्षक होवें, इन हेतुओं से जो कायोत्सर्ग करते हैं तथा कामहेतु और
अर्थहेतु जो कायोत्सर्ग है वह सब कायोत्सर्ग अप्रशस्त मन का परिणाम है ऐसा स्ामझना।चाशनपाननिमित्तं वा लयनशयनासननिमित्तं मम भक्तो जनो भवत्विति मदीया भक्तिर्वा ख्यातिं गच्छत्विति, मदीयं प्राणसामर्थ्यं लोको जानातु मम प्राणरक्षको देवो वा मनुष्यो वा भवत्विति हेतो य: कायोत्सर्गं करोति, कामहेतुरर्थहेतुश्च य: कायोत्सर्ग: स सर्वोऽप्यप्रशस्तो मन:संकल्प इति।।६८५।।
आज्ञा आदेशमन्तरेण नीत्वा वर्त्तनं। निर्देश: आदेशो वचनस्यानन्यथा करणं। प्रमाणं सर्वत्र प्रमाणीकरणं। कीर्त्ति: ख्यातिस्तस्या वर्णनं प्रशंसनं। प्रभावनं प्रकाशनं।
गुणा: शास्त्रज्ञातृत्वादयोऽर्थ: प्रयोजनं, आज्ञां मम सर्वोऽपि करोतु निदेशं मम सर्वोऽपि करोतु प्रमाणीभूतं मां सर्वोऽपि करोतु मम कीर्त्तिवर्णनं सर्वोऽपि करोतु, मां प्रभावयन्तु सर्वेऽपि मदीयान् गुणान् सर्वेऽपि विस्तारयन्त्वित्यर्थं कायोत्सर्गेण ध्यानमिदमप्रशस्तमेवंविधो मन:संकल्पोऽविश्वस्तोऽविश्वसनीयो न चिन्तनीयोऽप्रशस्तो यत इति।।६८६।।
कायोत्सर्गनिर्युक्तिमुपसंहरन्नाह–
काउस्सग्गणिजुत्ती एसा कहिया मए समासेण।
संजमतवड्ढियाणं णिग्गंथाणं महरिसीणं।।६८७।।
कायोत्सर्गनिर्युक्तिरेषा कथिता मया समासेन, संयमतपोवृद्धिमिच्छतां निर्ग्रन्थानां महर्षीणामिति, नात्र पौनरुक्त्यमाशंकनीयं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकशिष्यसंग्रहणात्सूत्रवार्त्तिकस्वरूपेण कथनाच्चेति।।६८७।।
षडावश्यकचूलिकामाह–
उसी प्रकार से और भी बताते हैं-
आदेश के बिना आज्ञा लेकर वर्तन करें वह आज्ञा है। वचन को अन्यथा न करें अर्थात् कहे हुए वचन के अनुसार ही लोग प्रवृत्ति करें सो आदेश है। सभी स्थानों में प्रमाणभूत स्वीकार करें सो प्रमाणता हैं। कीर्ति–ख्याति से प्रशंसा होवे, प्रभावना होवे, शास्त्र के जानने आदि रूप गुण प्रगट होवें। प्रयोजन को अर्थ कहते हैं–
सो हमारा प्रयोजन सिद्ध होवे। तात्पर्य यह है कि सभी लोग मेरी आज्ञा पालन करें, सभी लोग मेरे आदेश के अनुसार प्रवृत्ति करें, सभी मुझे प्रमाणीभूत स्वीकार करें, सभी लोग मेरी प्रशंसा करें, सभी लोग मेरी प्रभावना करें, सभी लोग मेरे गुणों का विस्तार करें, इन प्रयोजनों से जो कायोत्सर्ग करते हैं उनका यह सब ध्यान अप्रशस्त कहलाता है। इस प्रकार का मन:संकल्प अविश्वस्त है अर्थात् ये सब चिन्तवन अप्रशस्त हैं ऐसा समझना चाहिए।
कायोत्सर्ग निर्युक्ति का उपसंहार करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-संयम, तप और ऋद्धि के इच्छुक, निर्ग्रंथ महर्षियों के लिए मैनें संक्षेप से यह कायोत्सर्ग निर्युक्ति कही है।।६८७।।
आचारवृत्ति-संयम और तप की वृद्धि की इच्छा रखनेवाले निर्ग्रंथ महर्षियों की कायोत्सर्ग निर्युक्ति मैंने संक्षेप से कही है। यहाँ पर पुनरुक्त दोष नहीं है क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक शिष्यों का संग्रह किया गया है तथा सूत्र और वार्तिक के स्वरूप से कथन किया गया है।
अर्थात् जैसे सूत्र को पुन: वार्तिक के द्वारा स्पष्ट किया जाता है उसमें पुनरुक्त दोष नहीं माना जाता है उसी प्रकार से यहाँ द्रव्यार्थिक शिष्यों के लिए संक्षिप्त वर्णन किया गया है पुन: पर्यायार्थिक शिष्यों के लिए उसी के भेद–प्रभेदों से विशेष वर्णन भी किया गया है। ऐसा समझना।
अब छह आवश्यकों की चूलिका का वर्णन करते हैं-
सव्वावासणिजुत्तो णियमा सिद्धोत्ति होइ णायव्वो।
अह णिण्सेसं कुणदि ण णियमा आवासया होंति।।६८८।।
आवश्यकानां फलमाह-अनया गाथया सर्वैरावश्यवैâर्निर्युक्त: सम्पूर्णैरस्खलितै: समताद्यावश्यवैâरुद्युक्त: परिणतो नियमात् निश्चयेन सिद्ध इति भवति ज्ञातव्यो १
भाविनि वर्त्तमानबहुप्रचारोऽन्तर्मुहूर्त्तादूर्ध्वं सिद्धो भवति, अथवा सिद्ध एवं सर्वावश्यवैâर्युक्त: सम्पूर्णो नान्य इति, अथ पुन: शेषात् स्तोकात् निर्गतानि नि:शेषाणि२
न स्तोकरहितानि सावशेषाणि न सम्पूर्णानि करोत्यावश्यकानि तदा तस्य नियमान्निश्चयात् आवासका:३
स्वर्गाद्यावासा भवन्ति तेनैव भवेन न मोक्ष: स्यादिति यदि सविशेषान्नियमात्करोति तदा तु सिद्ध: कर्मक्षयसमर्थ: स्यात्, अथ निर्विशेषान्नियमाच्छैथिल्यभावेन करोति तदा तस्य यतेर्नियमा: समतादिक्रिया आवासयन्ति प्रच्छादयन्तीति आवासका: प्रच्छादका: नियमाद्भवन्तीत्यर्थ:। अथवा संसारे आवासयन्ति स्थापयन्तीत्यर्थ:।।६८८।।
अथवाऽऽवासकानामयमर्थ इत्याह–
आवासयं तु आवसएसु सव्वेसु अपरिहीणेसु।
मणवयणकायगुिंत्तदियस्स आवासया होंति।।६८९।।
मनोवचनकायैर्गुप्तानींद्रियाणि यस्यासौ मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्तस्य मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्य सर्वेष्वावश्यकेष्व-गाथार्थ-सर्व आवश्यकों से परिपूर्ण हुए मुनि नियम से सिद्ध हो जाते हैं ऐसा जानना। जो परिपूर्ण रूप नहीं करते हैं वे नियम से स्वर्गादि में आवास करते हैं।।६८८।।
आचारवृत्ति-इस गाथा के द्वारा आवश्यक क्रियाओं का फल कह रहे हैं–जो सम्पूर्ण–अस्खलित रूप से समता आदि छहों आवश्यकों से परिणत हो चुके हैं वे निश्चय से सिद्ध हैं। अर्थात् यहाँ भावी में वर्तमान का बहुप्रचार–उपचार है क्योंकि वे मुनि अंतर्मुहूर्त के ऊपर सिद्ध हो जाते हैं।
अथवा सिद्ध ही सर्व आवश्यकों से युक्त हैं–सम्पूर्ण हैं, अन्य कोई नहीं । पुन: जो नि:शेष आवश्यकों को नहीं करते हैं वे निश्चय से स्वर्ग आदि में ही आवास करने वाले हो जाते हैं, उसी भव से उन्हें मोक्ष नहीं हो पाता है ऐसा अभिप्राय है। तात्पर्य यह है कि-
यदि सविशेषरूप से आवश्यक करते हैं तब तो ये सिद्ध अर्थात् कर्मों के क्षय में समर्थ हो जाते हैं और यदि निर्विशेष–शिथिलभाव से करते हैं तो उस यति के वे नियम–सामायिक आदि आवश्यक क्रियाएँ उसे आवासित–प्रच्छादित कर देते हैं अर्थात् वे कर्मों से आत्मा को ढक लेते हैं, सर्वथा कर्म निर्जीर्ण नहीं हो पाते हैं। अथवा वे शिथिलभाव–अतीचार आदि सहित आवश्यक उनका संसार में आवास कराते हैं अर्थात् कुछ दिन संसार में रोके रखते हैं।
भावार्थ-जो मुनि इन आवश्यक क्रियाओं को निरतिचार करते हुए पुन: उन रूप परिणत हो जाते हैं–निश्चय आवश्यक क्रिया रूप हो जाते हैं वे निश्चय आवश्यक क्रियामय कहलाते हैं। वे अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। तथा जो मुनि इनको करते हुए भी अतीचारों से नहीं बच पाते हैं वे इनके प्रभाव से कुछ काल तक स्वर्गों व मनुष्यलोक के सुखों को प्राप्त करके पुन: परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं, ऐसा समझना।
अथवा आवासकों का यह अर्थ है, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-हीनता रहित सभी आवश्यकों में जो आवास करना हैं वह ही मन–वचन–काय से इन्द्रियों को वश करने वाले के आवश्यक होते हैं।।६८९।।
आचारवृत्ति-मन–वचन–काय से जिसकी इन्द्रियाँ गुप्त हैं–वशीभूत हैं वह मनवचनकाय परिहीणेष्वावसनमवस्थानं यत्तेन आवश्यका: साधोर्भवंति परमार्थतोऽन्ये पुनरावासका: कर्मागमहेतव एवेति, अथवा आवासयन्तु इति प्रश्नवचनं, आवश्यकानि सम्पूर्णानि कथंभूतस्य पुरुषस्य भवन्तीति प्रश्ने तत आह-सर्वेषु चापरिहीणेषु मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियावश्यकानि भवन्तीति निर्देश: कृत इति।।६८९।।
आवश्यककरणविधानमाह–
तियरण सव्व विसुद्धो दव्वे खेत्ते यथुत्तकालह्मि।
मोणेणव्वाखित्तो कुज्जा आवासया णिच्चं।।६९०।।
त्रिकरणैर्मनोवचनकायै: सर्वथा शुद्धो द्रव्यविषये क्षेत्रविषये यथोक्तकाले आवश्यकानि नित्यं मौनेनाव्याक्षिप्त: सन् कुर्याद्यतिरिति।।६९०।।
अथासिकानिषिद्यकयो: िंकलक्षणमित्याशंकायामाह–
जो होदि णिसीदप्पा णिसीहिया तस्स भावदो होदि।
अणिसिद्धस्स णिसीहियसद्दो हवदि केवलं तस्स।।६९१।।
यो भवति निसितो बद्ध आत्मपरिणामो येनासौ निसितात्मा निगृहीतेन्द्रियकषायचित्तादिपरिणामोऽसो निसितात्माऽथ वा निषिद्धात्मा सर्वथा नियमितमतिस्तस्य भावतो निषिद्यका भवति। १अनिषिद्धस्य स्वेच्छाप्रवृत्तस्यानिषिद्धात्मनश्चलचित्तस्य कषायादिवशवर्त्तिनो निषिद्यकाशब्दो भवति केवलं शब्दमात्रकरणं तस्येति।।६९१।।
गुप्तेंद्रिय अर्थात् त्रिकरण जितेन्द्रिय कहलाता है। उसका जो न्यूनतारहित सम्पूर्ण आवश्यकों में अवस्थान है–रहना है उसी हेतु से साधु के परमार्थ से आवश्यक होते हैं, किन्तु अन्य जो हैं वे आवासक अर्थात् कर्मागमन के हेतु ही हैं। अर्थात् न्यून आवश्यकों से कर्मों का आश्रव होता है–
पूर्ण निर्जरा नहीं हो पाती है। अथवा ‘आवासयंतु’ यह प्रश्नवचन है। वह इस तरह है कि-
ये आवश्यक सम्पूर्ण वैâसे पुरुष के होते हैं ?
जो सम्पूर्ण रूप से न्यूनता रहित हैं, जो मनवचनकाय से इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं उनके ही ये आवश्यक परिपूर्ण होते हैं ऐसा निर्देश है। अथवा जिसने परिपूर्ण आवश्यकों का पालन किया है उस साधु के ही मन–वचन–कायपूर्वक इन्द्रियाँ वशीभूत हो पाती हैं।
आवश्यक करने की विधि बताते हैं-
गाथार्थ-मन–वचन–काय से सर्वविशुद्ध हो। द्रव्य, क्षेत्र में और आगमकथित काल में मौनपूर्वक निराकुलचित्त होकर नित्य ही आवश्यकों को करें।।६९०।।
आचारवृत्ति-मन–वचन–काय से सर्वथा शुद्ध हुए मुनि द्रव्य के विषय में, क्षेत्र के विषय में तथा आगम में कहे गए काल में निराकुलचित्त होकर नित्य ही मौनपूर्वक आवश्यक क्रियाओं का अनुष्ठान करें।
अब आसिका और निषिद्यका का क्या लक्षण है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-जो नियमित आत्मा है उसके भाव से निषिद्यका होती है। जो अनियंत्रित है उसके निषिद्यका शब्द मात्र होता है।।६९१।।
आचारवृत्ति-जिसने अपनी आत्मा के परिणाम को बांधा हुआ है वह निसितात्मा है अर्थात् इन्द्रिय, कषाय और चित्त आदि परिणाम का निग्रह किया हुआ है। अथवा निषिद्धात्मा–सर्वथा जिनकी नियमित–नियंत्रित मति है ऐसे मुनि निषिद्धात्मा हैं। ऐसे मुनि के भाव से निषिद्यका होती है। किन्तु जो अनिषिद्ध हैं–आसिकार्थमाह–
आसाए विप्पमुक्कस्स आसिया होदि भावदो।
आसाए अविप्पमुक्कस्स सद्दो हवदि केवलं।।६९२।।
आशया काक्षंया विविधप्रकारेण मुक्तस्य आसिका भवति भावत: परमार्थत: आशया पुनरविप्रमुक्तस्यासिकाकरणं शब्दो भवति केवलं, किमर्थमासिकानिषिद्यकयोरत्र निरूपणमिति चेन्न त्रयोदशकरणमध्ये पठितत्वात्, यथाऽत्र पंचनमस्कारनिरूपणंं षडावश्यकानां च निरूपणं कृतमेवमनयोरप्यधिकारात् भवतीति नामस्थाने निरूपणमनयोरिति।।६९२।।
स्वेच्छा से प्रवृत्ति करने वाले हैं, जिनका चित्त चंचल है अर्थात् जो कषाय के वशीभूत हो रहे हैं उनके निषिद्यका शब्द केवल शब्दमात्र ही है।
आसिका का अर्थ कहते हैं-
गाथार्थ-आशा से रहित मुनि के भाव से आसिका होती है किन्तु आशा से सहित के शब्दमात्र होती है।।६९२।।
आचारवृत्ति-कांक्षा से जो विविध प्रकार से मुक्त हैं–छूट चुके हैं उनके परमार्थ से आसिका होती है। किन्तु जो आशा से मुक्त नहीं हुए हैं उनके आसिका करना केवल शब्द-मात्र ही है।
यहाँ पर आसिका और निषिद्यका का निरूपण किसलिए किया है ?
तेरह प्रकार के करण में इनको लिया गया है, इसलिए यहाँ पर इनका निरूपण करना जरूरी था। जिस प्रकार से यहाँ पर पंचनमस्कार का निरूपण किया गया है और छह आवश्यक क्रियाओं का निरूपण किया गया है उसी प्रकार से यहाँ पर इन दोनों का भाr अधिकार है इसलिए नाम के स्थान में इनका निरूपण किया है।
विशेषार्थ-करण शब्द से तेरह प्रकार की क्रियाएँ ली जाती हैं। पाँच परमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक क्रिया तथा असही और निसही ये तेरह प्रकार हैं। इस अध्याय में पाँचों परमेष्ठी का वर्णन किया है। छह आवश्यक क्रियाओं की तो प्रमुखता हैं ही अत: इसी अधिकार में आसिका और निषिद्यका का वर्णन भी आवश्यक ही था। यहाँ पर दो गाथाओं में भाव निषिद्य का और भावआसिका की सार्थकता बतलायी है।
और शब्द बोलना केवल शब्दमात्र है ऐसा कहा है किन्तु शब्दोच्चारण की विधि नहीं बतलाई है जोकि अन्यत्र ग्रन्थों में कही गई है। अनगार धर्मामृत में असही और निसही का विवेचन इस प्रकार से है-
वसत्यादौ विशेत्तत्स्थं भूतादिं निसहीगिरा।
आपृच्छ्य तस्मान्निर्गच्छेत्तं चापृच्छ्यासहीगिरा।।१३२।। अनगार ़ अ़ ८, पृ़ ६२५-२६
अर्थ-वसतिका, जिनमंदिर आदि में प्रवेश करते समय वहाँ रहने वाले भूत, यक्ष आदि को ‘निसही’ शब्द द्वारा पूछकर प्रवेश करना चाहिए अर्थात् वसतिका आदि में प्रवेश करते समय ‘निसही ’ शब्द बोलकर प्रवेश करना चाहिए। तथा वहाँ से बाहर निकलते समय ‘असही’ शब्द द्वारा पूछकर निकलना चाहिए अर्थात् निकलते समय ‘असही’ का उच्चारण करके निकलना चाहिए। पुन: कहते हैं–
आचारसार में भी ऐसा ही कथन है। यथा-
आत्मन्यात्मासितो येन त्यक्त्वा वाऽऽशास्य भावत:।
निसह्यसह्यौ स्तोऽन्यस्य तदुच्चारणमात्रकं।।१३३।।
अर्थ-जिसने अपनी आत्मा को आत्मा में स्थापित किया है और जिसने लोक आदि की आशा–चूलिकामुपसंहरन्नाह–
णिज्जुत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण।
अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदि णादव्वो।।६९३।।
निर्युक्तेर्निर्युक्तिरावश्यकचूलिकावश्यकनिर्युक्तिरेषा१ कथिता मया समासेन संक्षेपेणार्थविस्तारप्रसंगोऽनियोगादाचारांगाद् भवति ज्ञातव्य इति।।६९३।।
आवश्यकनिर्युिंक्त सचूलिकामुपसंहरन्नाह–
आवासयणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा।
जो उवजुंजदि णिच्चं सो सििंद्ध जादि विसुद्धप्पा।।६९४।।
आवश्यकनिर्युक्तिरेवंप्रकारेण कथिता समासत: संक्षेपतो विधिना, तां य उपयुंक्ते समाचरति नित्यं सर्वकालं स सििंद्ध याति विशुद्धात्मा सर्वकर्मनिर्मुक्त इति।।६९४।।
अभिलाषा को छोड़ दिया है उसके भाव से अर्थात् निश्चयनय से निसही होते हैं। अन्य जीव के शब्दोच्चारण मात्र ही हैं।
निष्कर्ष यह निकलता है कि ये शब्द तो बोलने ही चाहिए।
उनके साथ–साथ भाव आसिका, भाव निषिद्यका के अर्थों का भी ध्यान रखना चाहिए। शब्दोच्चारण तो आवश्यक है ही। यदि वह भावसहित है तो सम्पूर्ण फल को देने वाला है, भावशून्य मात्र शब्द किच्ािंत् ही फलदायक है ऐसा समझना। शब्द रूप निसही- असही व्यवहार धर्म है और भावरूप निसही-असही निश्चय धर्म है।
चूलिका का उपसंहार करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-मैंने संक्षेप से यह निर्युक्ति की निर्युक्ति कही है और विस्तार रूप से अनियोग ग्रन्थों से जानना चाहिए।।६९३।।
आचारवृत्ति-मैंने संक्षेप से यह निर्युक्ति की निर्युक्ति अर्थात् आवश्यक चूलिका की आवश्यक निर्युक्ति कही है। यदि आपको विस्तार से अर्थ जानना है तो अनियोग–आचारांग से जानना चाहिए।
अब चूलिका सहित आवश्यक निर्युक्ति का उपसंहार करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-इस तरह संक्षेप से मैंने विधिवत् आवश्यक निर्युक्ति कही है। जो नित्य ही इनका प्रयोग करता है वह विशुद्ध आत्मा सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।।६९४।।
आचारवृत्ति-इस प्रकार संक्षेप से मैंने विधिपूर्वक आवश्यक निर्युक्ति कही है जो मुनि सर्वकाल इस रूप आचरण करते हैं वे विशुद्ध आत्मा–सर्वकर्म से मुक्त होकर सिद्धपद को प्राप्त कर लेते हैं।
विशेषार्थ-अनगारधर्मामृत के आठवें अध्याय में छह आवश्यक क्रियाओं का वर्णन करके नवम अध्याय में नित्य–नैमित्तिक क्रियाओं का अथवा इन आवश्यक क्रियाओं के प्रयोग का वर्णन बहुत ही सरल ढंग से किया है। यथा–
अर्धरात्रि के दो घड़ी अनन्तर से अपररात्रिक स्वाध्याय का काल हो जाता है। उस समय पहले ‘अपररात्रिक’ स्वाध्याय करके पुन: सूर्योदय के दो घड़ी शेष रह जाने पर स्वाध्याय समाप्त कर ‘रात्रिक प्रतिक्रमण’ करके रात्रियोग समाप्त कर देवे। फिर सूर्योदय के समय से दो घड़ी तक ‘देववन्दना’ अर्थात् सामायिक करके ‘गुरुवन्दना’ करे। पुन: ‘पौर्वाण्हिक ’ स्वाध्याय प्रारम्भ करके मध्याह्न के दो घड़ी शेष रहने पर स्वाध्याय समाप्त कर ‘देववन्दना’ करे।
मध्याह्न समय देववन्दना समाप्त कर ‘गुरुवन्दना’ करके ‘आहार हेतु’ जावे। यदि उपवास हो तो उस समय जाप्य या आराधना का चिन्तवन करे। गोचरी से आकर गोचार प्रतिक्रमण करके व प्रत्याख्याान ग्रहण करके पुन: ‘अपराþिक’ स्वाध्याय प्रारम्भ कर सूर्यास्त के दो घड़ी पहले समाप्त कर ‘दैवसिक’ प्रतिक्रमण करे।
पुन: गुरुवन्दना करके रात्रियोग ग्रहण करे तथा सूर्यास्त के अनन्तर ‘देववन्दना’ सामायिक करे। रात्रि के दो घड़ी व्यतीत हो जाने पर ‘पूर्व रात्रिक’ स्वाध्याय प्रारम्भ करके अर्धरात्रि के दो घड़ी पहले ही स्वाध्याय समाप्त करके शयन करे। यह अहोरात्र सम्बन्धी क्रियायें हुईं।
इसी तरह नैमित्तिक क्रियाओं में अष्टमी, चतुर्दशी की क्रिया, चौदश, अमावस या पूर्णिमा को पाक्षिक प्रतिक्रमण, श्रुतपंचमी को श्रुतपंचमी क्रिया, वीर निर्वाण समय वीरनिर्वाण क्रिया इत्यादि क्रियायें करें।
किन–किन क्रियाओं में किन–किन भक्तियों का प्रयोग होता है, सो देखिए-
स्वाध्याय के प्रारम्भ में लघु श्रुतभक्ति, लघु आचार्य भक्ति तथा समाप्ति के समय लघु श्रुतभक्ति होती है। देववन्दना में चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति होती है। आचार्यवन्दना में लघु सिद्ध, आचार्यभक्ति। यदि आचार्य सिद्धांतविद् हैं तो इनके मध्य लघु श्रुतभक्ति होती है। दैवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण में सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर और चतुर्विंशतितीर्थंकर ऐसी चार भक्ति हैं तथा रात्रियोग ग्रहण, मोचन में योगभक्ति होती है।
आहार-ग्रहण के समय प्रत्याख्यान निष्ठापन में लघु सिद्धभक्ति तथा आहार के अनन्तर प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन में लघु सिद्धभक्ति होती है। पुन: आचार्य के समीप आकर लघु सिद्ध व योगभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण करके लघु आचार्य भक्ति द्वारा आचार्यवन्दना का विधान है।
नैमित्तिक क्रिया में चतुर्दशी के दिन त्रिकालदेववन्दना में चैत्यभक्ति के अनन्तर श्रुतभक्ति करके पंचगुरुभक्ति की जाती है अथवा सिद्ध, चैत्य, श्रुत, पंचगुरु और शान्ति ये पाँच भक्तियाँ हैं। अष्टमी को सिद्ध, श्रुत, सालोचना चारित्र व शान्तिभक्ति हैं। सिद्धप्रतिमा की वन्दना में सिद्धभक्ति व जिन–प्रतिमा की वन्दना में सिद्ध, चारित्र, चैत्य, पंचगुरु व शान्तिभक्ति करें।
पाक्षिक प्रतिक्रमण क्रियाकलाप व धर्मध्यानदीपक में प्रकाशित है तदनुसार पूर्ण विधि करे। वही प्रतिक्रमण चातुर्मासिक व सांवत्सरिक में भी पढ़ा जाता है। श्रुतपंचमी में बृहत् सिद्ध, श्रुतभक्ति से श्रुतस्कंध की स्थापना करके, बृहत् वाचना करके श्रुत, आचार्य- भक्तिपूर्वक स्वाध्याय ग्रहण करके पश्चात् श्रुतभक्ति और शान्तिभक्ति करके स्वाध्याय समाप्त करे। नन्दीश्वरपर्व क्रिया में सिद्ध, नन्दीश्वर, पंचगुरु और शान्तिभक्ति करे तथा अभिषेक वन्दना में सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु और शान्तिभक्ति पढ़े।
आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी के मध्याह्न में मंगलगोचर मध्याह्न देववन्दना करते समय, सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु व शान्तिभक्ति करे। मंगलगोचर के प्रत्याख्यान ग्रहण में बृहत् सिद्धभक्ति, योगभक्ति करके प्रत्याख्यान लेकर बृहत् आचार्य भक्ति से आचार्यवन्दना कर शान्तिभक्ति प्रारम्भ और अन्त में कही गई है।
पुन: आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी के पूर्व रात्रि में वर्षायोग प्रतिष्ठापन क्रिया में–सिद्धभक्ति, योगभक्ति करके लघु चैत्यभक्ति के द्वारा चारों दिशाओं में प्रदक्षिणा विधि करके, पंचगुरुभक्ति, शान्तिभक्ति करे। यही क्रिया कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में वर्षायोग निष्ठापना में होती है। पुन: वर्षायोग निष्ठापना के अनन्तर वीर निर्वाण वेला में सिद्ध, निर्वाण, पंचगुरु और शान्तिभक्ति करे।
जिनवर के पाँचों कल्याणकों में क्रमश: गर्भ–जन्मकल्याणक में सिद्ध, चारित्र, शान्तिभक्ति हैं। तप कल्याण में सिद्ध, चारित्र, योग, शान्तिभक्ति तथा ज्ञानकल्याण में सिद्ध, चारित्र, योग, श्रुत और शान्तिभक्ति हैं। निर्वाणकल्याणक में शान्तिभक्ति के पूर्व निर्वाणभक्ति और पढ़ना चाहिए।
यदि प्रतिमायोगधारी योगी दीक्षा में छोटे भी हों तो भी उनकी वन्दना करनी चाहिए। उसमें सिद्ध, योग और शान्तिभक्ति करना चाहिए। केशलोंच के प्रारम्भ में लघु सिद्ध और योगि भक्ति करें। अनन्तर केशलोंच समाप्ति पर लघु सिद्धभक्ति करनी होती है।
सामान्य मुनि की समाधि होने पर उनके शरीर की क्रिया और निषद्या क्रिया में सिद्ध, योगि, शान्ति भक्ति करना चाहिए। आचार्य समाधि पर सिद्ध, योगि, आचार्य और शांतिभक्ति करनी होती है। इस तरह संक्षेप से कहा है।
इनका और भी विशेष विवरण आचारसार, मूलाचार प्रदीप, अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिए।
इन भक्तियों को यथास्थान करते समय कृतिकर्म विधि की जाती है। इसमें ‘‘अड्ढाइज्जदीव दोसमुद्देसु’’ आदि पाठ सामायिक दण्डक कहलाता हैं। ‘थोस्सामि’ पाठ चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तव है। मध्य में कायोत्सर्ग होता ही है तथा ‘जयति भगवान् हेमांभोज’ पाठ इत्यादि चैत्यभक्ति आदि के पाठ वन्दना कहलाते हैं।
अत: देववन्दना व गुरुवन्दना में सामायिक, स्तव, वन्दना और कायोत्सर्ग ये चार आवश्यक सम्मिलित हो जाते हैं। तथा कायोत्सर्ग अन्य-अन्य स्थानों में पृथव्â से भी किये जाते हैं। प्रतिक्रमण में भी कृतिकर्म में सामायिक दण्डक, कायोत्सर्ग और चतुर्विंशति स्तव हैं। वीरभक्ति आदि के पाठ वन्दना रूप हैं।
अत: इसमें भी ये सब गर्भित हो जाते हैं। आहार के अनन्तर प्रत्याख्यान ग्रहण किया ही जाता है तथा अन्य भी वस्तुओं के त्याग करने में व उपवास आदि करने में प्रत्याख्यान आवश्यक हो जाता है। इस तरह ये छहों आवश्यक प्रतिदिन किए जाते हैं।
कृतिकर्म प्रयोग में चार प्रकार की मुद्रायें मानी गयी हैं-यथा-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्रा (अनगार धर्मामृत, अध्याय ८, पृष्ठ ६०३)
दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर दोनों भुजाओं को लटकाकर कायोत्सर्ग से खड़े होना जिनमुद्रा है। बैठकर पद्मासन, अर्ध पर्यंकासन या पर्यंकासन से बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखना योगमुद्रा है। मुकुलित कमल के समान अंजुली जोड़ना वन्दना–मुद्रा है और दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर जोड़ना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है।
सामायिक दण्डक और थोस्सामि इनके पाठ में ‘मुक्ताशुक्ति’ मुद्रा का प्रयोग होता है। ‘जयति’ इत्यादि भक्ति बोलते हुए वन्दना करते समय ‘वन्दना मुद्रा’ होती है। खड़े होकर कायोत्सर्ग करने में ‘जिनमुद्रा’ एवं बैठकर कायोत्सर्ग करने में ‘योगमुद्रा’ होती है।
मुनि और आर्यिका देव या गुरु को नमस्कार करते समय पंचांग प्रणाम गवासन से बैठकर करते हैं।
कृतिकर्म प्रयोग विधि–‘अथ देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण समलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तव–समेतं चैत्यभक्ति–कायोत्सर्गं करोम्यहं।’
(इस प्रतिज्ञा को करके खड़े होकर पंचांग नमस्कार करे। पुन: खड़े होकर तीन आवर्त, एक शिरोनति करके मुक्ताशुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़कर सामायिक दण्डक पढ़े। )-सामायिक दण्डक स्तव-
णमो अरहंताणं णमो सिद्धाण्ां णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं।।
चत्तारिमंगलं–अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहूमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मोमंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा–अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहूलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि–अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहूसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु, जाव अरहंताणं भयवंताणं आदियराणं तित्थयराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं केवलियाणं, सिद्धाणं बुद्धाणं परिणिव्वुदाणं अंतयडाणं पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसियाणं, धम्मणायगाणं, धम्मवर-चाउरंग-चक्कवट्टीणं देवाहिदेवाणं, णाणाणं, दंसणाणं, चरिताणं सदा करेमि किरियम्मं।
करेमि भन्ते! सामाइयं सव्वसावज्जजोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा कायेण ण करेमि ण कारेमि कीरंतं पि ण समणुमणामि। तस्स भंत्ते! अइचारं पच्चक्खामि, णिंदामि गरहामि अप्पाणं, जाव अरहंताणं भयवंताणं पज्जुवासं करेमि ताव कालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करके जिनमुद्रा या योगमुद्रा से सत्ताईस उच्छ्वास में नव बार णमोकार मन्त्र जपकर पुन: पंचांग नमस्कार करे। अनन्तर खड़े होकर तीन आवर्त एक शिरोनति करके मुक्ताशुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़कर ‘थोस्मामि’ पढ़े। )
थोस्सामिस्तव-
थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे।
णरपवरलोयमहिए, विहुयरयमले महप्पण्णे।।१।।
लोयस्सुज्जोययरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।
अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो।।२।।
उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे।।३।।
सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च।
विमलमणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि।।४।।
कुंथुं च जिणवरिंंदं, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं।
वंदामि रिट्ठणेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च।।५।।
एवं मए अभित्थुआ, विहुयरयमला पहीणजरमरणा।
चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु।।६।।
कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा।
आरोग्गणाणलाहं, दिंतु समाहिं च मे बोहिं।।७।।
चंदेहिं णिम्मलयरा, आइच्चेहिं अहिय-पयासत्ता।
सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।८।।
इति श्रीवट्टकेराचार्यवर्यप्रणीतमूलाचारस्य वसुनंद्याचार्यविरचितायाम् आचारवृत्तावावश्यकनिर्युक्तिनामक: सप्तम: परिच्छेद:।।७।।
(पुन: तीन आवर्त एक शिरोनति करके वन्दना मुद्रा से हाथ जोड़कर ‘‘जयति भगवान् हेमांभोज’’ इत्यादि चैत्यभक्ति पढ़े। )
इस तरह इस कृतिकर्म में प्रतिज्ञा के अनन्तर तथा कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार पंचांग नमस्कार करने से दो अवनति–प्रणाम हो जाते हैं। सामायिक स्तव के आदि–अन्त में तथा ‘थोस्सामिस्तव’ के आदि–अन्त में तीन–तीन आवर्त और एक–एक शिरोनति करने से बारह आवर्त और चार शिरोनति होती है।
लघु भक्तियों के पाठ में कृतिकर्म में लघु सामायिकस्तव और थोस्सामिस्तव भी होता है। यथा–
अथ पौर्वाþिकस्वाध्याय–प्रतिष्ठापन क्रियायां श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् पंचांग नमस्कार करके, तीन आवर्त और एक शिरोनति करे। पुन: सामायिक दण्डक पढ़े। )
सामायिकस्तव–णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं।।
चत्तारिमंगलं–अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहूमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा–अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहूलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि–अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहूसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
जाव अरहंताणं भयवंताणं पज्जुवासं करेमि, ताव कालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करके २७ उच्छ्वास में ९ बार णमोकार मन्त्र जपकर पुन: पंचांग नमस्कार करे। अनन्तर तीन आवर्त एक शिरोनति करके ‘थोस्सामि’ पढ़े। )
पुन: तीन आवर्त एक शिरोनति करके ‘श्रुतमपि जिनवरविहितं’ इत्यादि लघु श्रुतभक्ति पढ़े। ऐसे ही सर्वत्र समझना चाहिए।
यदि पुन: पुन: खड़े होकर क्रिया करने की शक्ति नहीं है तो बैठकर भी ये क्रियाएँ की जा सकती हैं।
इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य अपरनाम श्री वट्टकेर आचार्यवर्य प्रणीत मूलाचार की
श्री वसुनन्दि आचार्य विरचित आचारवृत्ति नामक टीका में आवश्यक-
निर्युक्ति–नामक सातवाँ परिच्छेद पूर्ण हुआ।
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विशेष ज्ञातव्य-श्री वसुनन्दि आचार्य ने टीका के प्रारंभ में वट्टकेर आचार्य का नाम लिखा है एवं मूलाचार उत्तरार्ध के अंत में कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत मूलाचार लिखा है-
‘इति मूलाचार विवृत्तौ द्वादशोऽध्याय:। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृत्ति:। कृतिरियं वसुनन्दिन: श्रमणस्य।’ अत: यह स्पष्ट है कि श्रीकुन्दकुन्द आचार्य का ही दूसरा नाम वट्टकेर आचार्य है, किन्ही अन्य आचार्य का नहीं।