गणिनी ज्ञानमती कृत हिन्दी-भाषा टीका का
मंगलाचरण एवं पीठिकाव्याख्यान
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।१।।
मंगलं भगवानर्हन्, मंगलं वृषभेश्वर:।
मंगलं सर्वतीर्थेशा, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।२।।
अर्थ-लोक में सभी त्रैकालिक अरहंतों को नमस्कार हो। लोक में त्रैकालिक सभी सिद्धों को नमस्कार हो। लोक में त्रैकालिक सभी आचार्यों को नमस्कार हो। लोक में त्रैकालिक सभी उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में त्रैकालिक सभी साधुओं को नमस्कार हो।
भावार्थ-यह महामंत्र णमोकार मंत्र अनादिनिधन है। इसमें अंत में ‘लोए’ और ‘सव्व’ पद अन्त्य दीपक माने गये हैं अत: इनको सभी में घटित करना चाहिए। अत: त्रैकालिक अनंतानंत अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच परमेष्ठी को नमस्कार किया है। यहाँ आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में दिगम्बर मुनि ही लिये जाते हैं।
अर्हंत भगवान् मंगल करें, सिद्ध भगवान् मंगल करें, आचार्य परमेष्ठी मंगल करें, उपाध्याय परमेष्ठी मंगल करें और साधु परमेष्ठी मेरा मंगल करें। इनमें बहुवचन का प्रयोग होने से अनंतानंत पाँचों परमेष्ठी हम सभी का मंगल करें, ऐसी प्रार्थना है।।१।।
अर्हंत भगवान मंगल करें, श्री ऋषभदेव मंगल करें, सभी तीर्थंकर भगवान मंगल करें और जैनधर्म मंगल करे। यहाँ सर्वतीर्थंकर से चौबीस तीर्थंकर अथवा अनंतानंत तीर्थंकर भी आ जाते हैं अर्थात् अनंतों तीर्थंकर भगवान मंगलकारी होवें ऐसी प्रार्थना है।।२।।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदाद्या:, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।३।।
मूलाचारोऽपि ग्रन्थोऽयं, मंगलं कुर्याद् भुवि।
चर्येयं जैनसाधूनां, वंद्या लोकेऽस्तु मंगलम्।।४।।
श्री कुंदकुंददेवाय, नम: परमोपकारिणे।
यस्य ग्रथितग्रन्थेभ्य:, सत्पथोऽद्यापि दृश्यते।।५।।
श्रीमत्परमगंभीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनम्।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य, शासनं जिनशासनम्१।।६।।
सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारकम्।
प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयतु शासनम्।।७।।
चारित्रचक्रिप्रथमा-चार्यं श्री शांतिसागरं।
नौमि पट्टाधिपं वीर-सिंधुं दीक्षागुरुमपि।।८।।
अस्मात्महाव्रतं लब्ध्वा, ज्ञानमत्यार्यिकाभवम्।
किंचिज्ज्ञानं मया लब्धं, सरस्वत्या: प्रसादत:।।९।।
कुंदकुंदकृतं मूला-चारं वसुनंदिकृतां।
टीकां चापि समालंब्याऽनूद्यते मातृभाषया।।१०।।
भगवान महावीर स्वामी मंगलकारी होवें, श्री गौतम गणधर स्वामी मंगलकारी होवें, श्री कुंदकुंदाचार्य एवं परम्परागत सभी आचार्य मंगलकारी होवें एवं जैनधर्म मंगलकारी होवे।।३।।
यह मूलाचार ग्रंथ भी जगत में मंगलकारी होवे और सारे लोक में-संसार में सभी द्वारा वंद्य-पूज्य दिगम्बर जैन साधुओं की यह चर्या मंगलकारी होवे।।४।।
परमोपकारी श्री कुंदकुंददेव को नमस्कार होवे कि जिनके द्वारा लिखित ग्रंथों से आज भी सत्पथ-मोक्षमार्ग दिख रहा है।।५।।
जो ‘स्याद्वादमयी’ अमोघ चिन्ह से पहचाना जाता है, ऐसा श्रीयुत परम गंभीर, तीनलोक के नाथ-जिनेन्द्रदेव का शासन-जिनशासन-जैनशासन सदा जयशील होवे।।६।।
जो सभी मंगलों में प्रथम मंगल स्वरूप है, सभी कल्याण को करने वाला है और सभी धर्मों में प्रधान है, ऐसा यह ‘जैन शासन’ सदा जयशील होवे, सदा जयवंत होवे।।७।।
भावार्थ-इनमें से तृतीय और सप्तम श्लोक प्राय: प्रतिदिन स्वाध्याय के प्रारंभ में सर्वत्र पढ़े जाते हैं। छठा श्लोक श्री पूज्यपाद स्वामी की भक्ति पाठ से उद्धृत है। प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और पंचम श्लोक मेरे द्वारा रचित हैं।
चारित्रचक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर गुरुदेव को एवं उनके प्रथम पट्टाचार्य मेरे दीक्षा गुरु आचार्यश्री वीरसागर गुरुदेव को, इन दोनों गुरुओं को मैं नमस्कार करती हूँ।।८।।
इन श्री वीरसागर आचार्य से महाव्रत स्वरूप आर्यिका दीक्षा को प्राप्त करके मैंने उन्हीं से ज्ञानमती नाम प्राप्त किया है। पुनश्च गुरुदेव के एवं सरस्वती माता के प्रसाद से मैंने कुछ ज्ञान प्राप्त किया है।।९।।
श्री कुंदकुंदाचार्य कृत मूलाचार को एवं श्री वसुनंदि आचार्यकृत टीका को-आचारवृत्ति नाम की संस्कृत टीका को-दोनों को लेकर मेरे द्वारा यह मातृभाषा-हिन्दी भाषा में अनुवाद किया जा रहा है।।१०।।
सकल वाङ्मय द्वादशांगरूप है। उसमें सबसे प्रथम अंग का नाम आचारांग है और यह सम्पूर्ण श्रुतस्कंध का आधारभूत ‘श्रुतस्कंधाधारभूतं’ है। समवसरण में भी बारह कोठों में से सर्वप्रथम सभा में मुनिगण रहते हैं। उनकी प्रमुखता करके भगवान् की दिव्यध्वनि में से प्रथम ही गणधरदेव आचारांग नाम से रचते हैं। इस अंग की १८ हजार प्रमाण पद संख्या मानी गयी है। ग्रंथकर्ता ने चौदह सौ गाथाओं में इस ग्रंथ की रचना की है। टीकाकार श्री वसुनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती ने इस ग्रंथ की बारह हजार श्लोक प्रमाण बृहत् टीका लिखी है।
यह ग्रंथ १२ अधिकारों में विभाजित है।
मूलगुणाधिकार-इस प्रथम अधिकार में मूलगुणों के नाम बतलाकर पुन: प्रत्येक का लक्षण अलग-अलग गाथाओं में बतलाया गया है। अनन्तर इन मूलगुणों को पालन करने से क्या फल प्राप्त होता है, यह निर्दिष्ट है। टीकाकार ने मंगलाचरण की टीका में ही कहा है-‘‘मूलगुणै: शुद्धस्वरूपं साध्यं, साधनमिदं मूलगुणशास्त्रं’’-इन मूलगुणों से आत्मा का शुद्धस्वरूप साध्य है और यह मूलाचार शास्त्र उसके लिए साधन है इत्यादि।
यह मूलाचार ग्रंथ एक है। इसके टीकाकार दो हैं-१. श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य और २. श्री मेघचन्द्राचार्य। श्री वसुनन्दि आचार्य पहले हुए हैं या श्री मेघचन्द्राचार्य यह अभी भी निर्णीत नहीं है। श्री वसुनन्दि आचार्य ने संस्कृत में ‘आचारवृत्ति’ नाम से इस मूलाचार की टीका रची है और श्री मेघचन्द्राचार्य ने ‘मुनिजनचिन्तामणि’ नाम से कन्नड़ भाषा में टीका रची है। श्री वसुनन्दि आचार्य ने ग्रंथकर्ता का नाम प्रारंभ में श्री ‘वट्टकेराचार्य’ दिया है, जबकि मेघचन्द्राचार्य ने श्री ‘कुन्दकुन्दाचार्य’ कहा है।
आद्योपान्त दोनों ग्रंथ पढ़ लेने से यह स्पष्ट है कि यह मूलाचार एक ही है, एक ही आचार्य की कृति है, न कि दो हैं, या दो आचार्यों की रचनाएँ हैं। गाथाएँ सभी ज्यों की त्यों हैं। हाँ इतना अवश्य है कि वसुनन्दि आचार्य की टीका में गाथाओं की संख्या बारह सौ बावन (१२५२) है, जबकि मेघचन्द्राचार्य की टीका में यह संख्या चौदह सौ तीन (१४०३) है।
ग्रंथ समाप्ति में श्री वसुनंदि आचार्य ने लिखा है-‘‘इति श्रीमदाचार्यवर्य-वट्टकेरिप्रणीतमूलाचारे श्रीवसुनन्दि-प्रणीतटीकासहिते द्वादशोऽधिकार:।’’ स्रग्धरा छंद में एक श्लोक भी है। और अंत में दिया है-‘‘इति मूलाचार-विवृत्तो द्वादशोऽध्याय:। इति कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृति:। कृतिरियं वसुनन्दिन: श्रीश्रमणस्य।’’
श्री मेघचन्द्राचार्य अपनी कन्नड़ भाषा टीका के प्रारंभ में लिखते हैं-
वीरं जिनेश्वरं नत्वा मंदप्रज्ञानुरोधत:। मूलाचारस्य सद्वृत्तिं वक्ष्ये कर्णाटभाषया।।
परमसंयमोत्कर्षजातातिशयरुं श्रीमदर्हत्प्रणीतपरमागमाम्भोधिपारगरुं, श्रीवीरवर्द्धमानस्वामितीर्थोद्धारकरुं, आर्यनिषेव्यरुं, समस्ताचार्यवर्यरुं, मप्प श्रीकोण्डकुन्दाचार्यरुं, परानुग्रहबुद्धियिं, कालानुरूपमागि चरणानुयोगनं संक्षेपिसि मंदबुद्धिगळप्प शिष्यसंतानक्के किरिदरोळे प्रतीतमप्पंतागि सकलाचारार्थमं निरूपिसुवाचारग्रंथमं पेळुत्तवा ग्रन्थदमोदलोळु निर्विघ्नत: शास्त्रसमाप्त्यादि-चतुर्विधफलमेक्षिसि नमस्कारगाथेयं पेळूदपरदें तें दोडे।’’
अर्थ-उत्कृष्ट संयम से जिन्हें अतिशय प्राप्त हुआ है अर्थात् जिनको चारण ऋद्धि की प्राप्ति हुई है, जो अर्हत्प्रणीत परमागम समुद्र के पारगामी हुए हैं, जिन्होंने श्री वर्धमान स्वामी के तीर्थ का उद्धार किया है, जिनकी आर्यजन सेवा करते हैं, जिनको समस्त आचार्यों में श्रेष्ठता प्राप्त हुई है, ऐसे श्री कोण्डकुन्दाचार्य ने परानुग्रहबुद्धि धारण कर कालानुरूप चरणानुयोग का संक्षेप करके मन्दबुद्धि शिष्यों को बोध कराने के लिए सकल आचार के अर्थ को मन में धारण कर यह आचार ग्रंथ रचा है।
यह प्रारंभ में भूमिका है। प्रत्येक अध्याय के अंत में ‘‘यह मूलाचारग्रंथ श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित है।’’ ऐसा दिया है।
पण्डित जिनदास फड़कुले द्वारा हिन्दी भाषा में अनुवादित कुन्दकुन्दाचार्य विरचित यह मूलाचार ग्रंथ चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की प्रेरणा से ही स्थापित आचार्य शांतिसागर जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था, फलटण से वीर निर्वाण संवत् २४८४ में प्रकाशित हुआ है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत मूलाचार में गाथाएँ अधिक हैं। कहीं-कहीं गाथाएं आगे पीछे भी हुई हैं और किन्हीं गाथाओं में कुछ अन्तर भी है। दो टीकाकारों से एक ही कृति में ऐसी बातें अन्य ग्रंथों में भी देखने को मिलती हैं।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में भी यही बात है। प्रसंगवश देखिए समयसार में दो
टीकाकारों से गाथाओं में अन्तर-
श्री कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार ग्रंथ की वर्तमान में दो टीकाएँ उपलब्ध हैं। एक श्री अमृतचन्द्रसूरि द्वारा रचित है, दूसरी श्री जयसेनाचार्य ने लिखी है। इन दोनों टीकाकारों ने गाथाओं की संख्या में अन्तर माना है। कहीं-कहीं गाथाओं में पाठभेद भी देखा जाता है तथा किंचित् कोई-कोई गाथाएँ आगे-पीछे भी हैं। संख्या में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने चार सौ पन्द्रह (४१५) गाथाओं की टीका की है। श्री जयसेनाचार्य ने चार सौ उनतालीस (४३९) गाथाएँ मानी हैं। यथा-‘‘इति श्री कुन्दकुन्ददेवाचार्य-विरचित-समयसारप्राभृताभिधानग्रन्थस्य संबंधिनीश्रीजयसेनाचार्यकृता दशाधिकारैरेकोनचत्वारिंशदधिकगाथाशतचतुष्टयेन तात्पर्यवृत्ति: समाप्ता।’’
अब यह प्रश्न होता है कि तब यह ‘वट्टकेर आचार्य’ का नाम क्यों आया है। तब ऐसा कहना शक्य है कि कुन्दकुन्ददेव का ही अपरनाम वट्टकेर माना जा सकता है, क्योंकि श्री वसुनन्दि आचार्य ने प्रारंभ में तो ‘श्रीमद्वट्टकेराचार्य:’ श्री वट्टकेराचार्य नाम लिया है। तथा अन्त में ‘‘इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्याय:। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृति:। कृतिरियं वसुनन्दिन: श्रमणस्य।’’ ऐसा कहा है। इस उद्धरण से तो संदेह को अवकाश ही नहीं मिलता है।
पण्डित जिनदास फड़कुले ने भी श्री कुन्दकुन्द को ही ‘वट्टकेर’ सिद्ध किया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने ‘परिकर्म’ नाम की जो षट्खण्डागम के त्रिखण्डों पर वृत्ति लिखी है, उससे उनका नाम ‘वृत्तिकार’-‘वट्टकेर’ इस रूप में भी प्रसिद्ध हुआ होगा। इसी से वसुनन्दी आचार्य ने आचारवृत्ति टीका के प्रारंभ में वट्टकेर नाम का उपयोग किया होगा, अन्यथा उस ही वृत्ति टीका के अन्त में वे ‘‘इति कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृत्ति:’’ ऐसा उल्लेख कदापि नहीं करते। अत: कुन्दकुन्दाचार्य ‘वट्टकेर’ नाम से भी दिगम्बर जैन जगत में प्रसिद्ध थे, ऐसा प्रतीत होता है।