श्री कुंदकुंद देव द्वारा रचित मूलाचार ग्रंथ की टीका के प्रारंभ में सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री वसुनंदि आचार्य ने भूमिका में कहा है कि यह ग्रंथ आचारांग के आधार से लिखा गया है और आचारांग समस्त श्रुतस्कंध का आधारभूत है। यथा-
जो श्रुतस्कंध का आधारभूत है, अट्ठारह हजार पद परिमाण है, जो मूलगुण, प्रत्याख्यान, संस्तर, स्तवाराधना, समयाचार, पंचाचार, पिंडशुद्धि, छह आवश्यक, बारह अनुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, शीलगुणप्रस्तार और पर्याप्ति आदि अधिकार के निबद्ध होने से महान अर्थों से गंभीर है, लक्षण-व्याकरण शास्त्र से सिद्धपद, वाक्य और वर्णों से सहित है, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए केवलज्ञान के द्वारा जिन्होंने अशेष गुणों और पर्यायों से खचित छह द्रव्य और नव पदार्थों को जान लिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेव के द्वारा जो उपदिष्ट है, बारह प्रकार के तपों के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई अनेक प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित गणधर देव के द्वारा जो रचित है, जो मूलगुणों और उत्तरगुणों के स्वरूप, भेद, उपाय, साधन, सहाय और फल के निरूपण करने में कुशल है, आचार्य परम्परा से चला आ रहा ऐसा यह आचारांग नाम का पहला अंग है। उस आचारांग का अल्प शक्ति, अल्प बुद्धि और अल्प आयु वाले शिष्यों के लिए बारह अधिकारों में उपसंहार करने की इच्छा करते हुए अपने और श्रोताओं के प्रारंभ किए गये कार्यों के विघ्नों को दूर करने में समर्थ शुभ परिणाम को धारण करते हुए श्री कुन्दकुन्द आचार्य अपरनाम श्री वट्टकेराचार्य सर्वप्रथम मूलगुण नामक अधिकार का प्रतिपादन करने के लिए ‘‘मूलगुणेसु’’ इत्यादि रूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं।
मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदे सिरसा।
इहपरलोगहिदत्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि।।१।।
अर्थ-मूलगुणों में विशुद्ध सभी संयतों को सिर झुकाकर नमस्कार करके इस लोक और परलोक के लिए हितकर मूलगुणों का मैं वर्णन करूँगा।।१।।
टीकाकार ने कहा है-
‘‘मूलगुणा प्रधानानुष्ठानि उत्तरगुणाधारभूतानि’’। मूल-प्रधान, गुण-आचारविशेष को मूलगुण कहते हैं। जो उत्तरगुणों के लिए आधारभूत हैं, ऐसे प्रधान अनुष्ठान को मूलगुण कहते हैं। ये उत्तरगुणों के लिए मूलभूत हैं।
यहाँ ‘‘संयता’’ शब्द से छठे गुणस्थानवर्ती मुनि से लेकर अयोगीपर्यंत सर्व साधुओं को लिया है और भूतपूर्व गति से सिद्धों को भी लिया है। यथा-‘‘सप्ताद्यष्टपर्यंत- षण्णव मध्य संख्यया समेतान् सिद्धांश्चानन्तान्’’ तीन कम नव करोड़ संख्या से सहित (८९९९९९९७) सर्व संयतों को और अनंत सिद्धों को नमस्कार किया है।
स्थापना निक्षेप में आकारवान् और बिना आकारवान् दोनों प्रकार की संयमी की प्रतिमाओं में गुणारोपण किया जाता है, ऐसा उल्लेख है। यथा-‘‘संयतस्य गुणान् बुद्ध्या-ध्यारोप्याकृतिवति अनाकृतिवति च वस्तूनि स एवायमिति स्थापिता मूर्ति: स्थापनासंयत:।’’
आकारवान् या अनाकारवान् वस्तु में ‘‘यह वही है’’ मूर्ति में ऐसा संयत के गुणों का अध्यारोप करना, इस प्रकार से स्थापित मूर्ति को स्थापना संयत कहते हैं।
ये मूलगुण अट्ठाईस हैं-
पंचय महव्वयाइं समिदीओ पंच जिणवरुद्दिट्ठा।
पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोओ।।२।।
आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव।
ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु।।३।।
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थिति भोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्रदेव ने यतियों के लिए कहे हैं।
चूँकि महान पुरुषों ने इनका अनुष्ठान किया है अथवा ये स्वत: ही महान व्रत हैं इसलिए ये पाँच व्रत महाव्रत कहलाते हैं। ये न छह हैं न चार, पाँच ही हैं ऐसा समझना। इनके नाम हैं-अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत। पाँचों पापों का पूर्णरूप से त्याग कर देना ही महाव्रत है।
(१) काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि, इनमें सभी जीवों को जानकर ठहरने, बैठने, चलने आदि में जीवों के घात आदि हिंसा का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।
(२) रागादि के द्वारा असत्य बोलने का त्याग करना, पर को ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलना तथा सूत्र और अर्थ कहने में गलत वचन नहीं बोलना सत्य महाव्रत है। सदाचारी आचार्य के वचन स्खलन होने पर दोष ग्रहण नहीं करना भी सत्य महाव्रत है।
(३) ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी-बड़ी वस्तु है और जो पर की पुस्तक, पिच्छी आदि उपकरण या शिष्य आदि हैं ऐसे परद्रव्य-पर वस्तु को ग्रहण नहीं करना अचौर्य महाव्रत है।
(४) तीन प्रकार की स्त्रियों को और उनके चित्र को माता, बहन और पुत्री के समान देखकर जो रागभाव से स्त्रीकथा आदि को छोड़ना है, वह तीन लोक में पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है। इस व्रत के धारक पुरुष या स्त्री कोई भी हों, इंद्रों द्वारा भी पूज्य हो जाते हैं किन्तु इस व्रत को भंग करने वाले जन यदि अनेक व्रत, तप आदि भी करते रहें, तो भी वे लोक में हीन आचरणी, निंद्य और पापी कहलाते हैं। यही कारण है कि इसे-‘‘तिलोयपुज्जं हवे बंभं’’ तीन लोक में पूज्य यह ब्रह्मव्रत है, ऐसा कहा है। इसके नव, सत्ताईस, इक्यासी और एक सौ बासठ भी भेद होते हैं-
देवी, मानुषी और तिर्यंचिनी के बाल, युवती और वृद्धा ये तीन-तीन भेद करने से नव भेद होते हैं। यद्यपि देवांगनाओं में स्वभाव से बाला, वृद्धा भेद नहीं है फिर भी विक्रिया से संभव है।
इन नव भेदों को मन-वचन-काय से गुणा करने पर ९²३·२७ भेद हो जाते हैं। इन २७ को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर (२७ x ३=८१) ८१ भेद हो जाते हैं। इन ८१ को चेतन और अचेतन (पुतली या चित्र आदि) ऐसे दो से गुणा करने पर ८१²२·१६२ भेद हो जाते हैं।
(५) जीव से संबंधित मिथ्यात्व आदि या दास-दासी आदि, जीव से असंबंधित क्षेत्र, मकान, धन आदि और जीव से उत्पन्न शंख, सीप आदि ये तीन प्रकार के परिग्रह हैंं इनका पूर्णतया त्याग करना और संयम, ज्ञान तथा शौच के उपकरण पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु में व इतर-तृण, काठ आदि से संस्तर इत्यादि में ममत्व का त्याग करना ये पाँचवां अपरिग्रह महाव्रत है।
गमन, भाषण, भोजन आदि प्रवृत्तियाँ सम्यक् प्रकार से-आगम के अनुकूल करना ही समिति है। इसके पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग।
(१) प्रयोजन के निमित्त दिन में चार हाथ आगे जमीन देखकर साधुओं द्वारा जो प्रासुक मार्ग से गमन होता है वह ईर्या समिति है। इसमें प्रयोजनवश शास्त्र श्रवण, तीर्थयात्रा, देववंदना, गुरुवंदना आदि के लिए ही गमन करना चाहिए निष्प्रयोजन नहीं, ऐसा कथन है।
(२) चुगली, हंसी, कठोरता, परनिंदा, अपनी प्रशंसा और विकथा आदि को छोड़कर स्व-पर के लिए हितकर जो वचन बोलना है वह भाषा समिति है।
(३) छ्यालीस दोषों से रहित शुद्ध, कारण से सहित, नव कोटि से विशुद्ध और ठंडे-गरम आदि भोजन में समता भाव रखना यह निर्दोष एषणा समिति है। सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष, धूम, अंगार, संयोजना और अप्रमाण ये चार दोष, सब मिलकर ४६ दोष होते हैं और ३२ अंतराय होते हैं। कारण में-असाता के उदय से उत्पन्न हुई भूख बाधा को शमन करने हेतु, अन्य मुनियों की वैयावृत्य हेतु आदि कारणों से साधु आहार करते हैं यह कारण सहित है, नव कोटि विशुद्ध है। ऐसा निर्दोष आहार ग्रहण करना ही एषणा समिति है।
(४) ज्ञानोपकरण-शास्त्र, संयमोपकरण-पिच्छी, शौचोपकरण-कमण्डलु अथवा अन्य भी उपकरण-संस्तर, चौकी, पाटा, तृण आदि को पहले देखकर पुन: पिच्छी से परिमार्जित कर धरना, उठाना सो आदाननिक्षेपण समिति है।
(५) एकांत, जीव जंतु रहित, दूर, मर्यादित, विस्तीर्ण और विरोध रहित स्थान में मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति है, इसे उत्सर्ग समिति भी कहते हैं।
पाँच इन्द्रिय निरोधव्रत-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों को अपने-अपने विषय से रोकना सो पाँच इन्द्रिय निरोध व्रत होते हैं।
छह आवश्यक-समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग, ये छह आवश्यक क्रियाएँ हैं। सातवें अधिकार में इन्हें विस्तार से लिया है।
लोंच-प्रतिक्रमण सहित दिवस में उपवासपूर्वक अपने हाथों से या अन्य के हाथों से जो शिर, मूँछ, दाढ़ी के केशों का उखाड़ना है, वह लोंच है, यह दो माह में करने से उत्तम, तीन माह में मध्यम और चार माह में जघन्य कहलाता है। इसमें प्रतिक्रमण दिवस-अष्टमी या चतुर्दशी हो, न भी हो चलेगा किन्तु उपवास अवश्य होना चाहिए ‘‘उपवासेनैव’’ ऐसा विधान है।
आचेलक्य-वस्त्र, चर्म और वल्कलों से अथवा पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना, भूषण, अलंकार से तथा परिग्रह से रहित निर्ग्रंथ-दिगम्बर वेष धारण करना यह जगत् में पूज्य अचेलकत्व नाम का मूलगुण है।
अस्नान-स्नान आदि के त्याग कर देने से जल्ल, मल और पसीने से जिनका सारा शरीर लिप्त हो जाता है, उन मुनि के प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम के पालन करने रूप, घोरगुण स्वरूप यह अस्नानव्रत होता है। ‘‘नात्राशुचित्वं स्यात् स्नानादिवर्जनेन मुने: व्रतै: शुचित्वं यत:।’’
यहाँ स्नान आदि नहीं करने से मुनि के अशुचिता-अपवित्रता नही होती है क्योंकि उनके व्रतों से पवित्रता मानी गई है।
क्षितिशयन-प्रासुक भूमि प्रदेश में अल्प भी संस्तर से रहित या किंचित् मात्र संस्तर से सहित एकांत स्थान में दंडाकार या धनुषाकार शयन करना अथवा एक पसवाड़े से सोना आदि यह क्षितिशयन व्रत है। मुनि अवस्था के योग्य तृणमय-चावल, कोदों आदि की घास (पुराल), काठ के पाटे, पत्थर की शिला और भूमि ये चार तरह के संस्तर दिगम्बर मुनि के लिए योग्य माने गये हैं। तृणमय से तृण की चटाई भी ग्राह्य हैं।
अदंतधावन-अंगुली, नख, दांतोन और तृण विशेष के द्वारा, पत्थर या छाल आदि के द्वारा दांतों के मल का शोधन नहीं करना, यह संयम की रक्षारूप अदंतधावन व्रत है। यह व्रत वीतरागता को प्रकट करने और सर्वज्ञदेव की आज्ञा के पालन हेतु पाला जाता है।
स्थितिभोजन-दीवाल आदि का सहारा न लेकर जीव जंतु से रहित स्थान में समान पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथ की अंजुली बनाकर भोजन-पान ग्रहण करना स्थितिभोजन व्रत है। इसमें अपने खड़े होने का स्थान, जूठन गिरने का स्थान और परोसने तथा आहार देने वालों का स्थान ये तीनों स्थान जीव-जंतु रहित होने चाहिए।
एकभक्त-सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त से पूर्व तीन-तीन घड़ी काल को छोड़कर दिवस के मध्य, एक, दो अथवा तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना यह एकभक्त मूलगुण है।
चौबीस घंटे के दिन रात में दिन में दो भोजन बेला मानी गई है, उनमें से एक भोजन बेला में आहार ग्रहण करना एकभक्त कहलाता है।
जो मनुष्य उपर्युक्त विधान से मूलगुणों को मन-वचन-काय से पालन करते हैं, वे जगत् में पूज्य होकर अक्षय सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।