प्रत्याख्यान संस्तरस्तवप्रतिपत्तृभ्यां२ सहाभेदं कृत्वात्मन: ग्रंथकर्ता प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवनामधेयद्बितीयाधिकारार्थमाह। अथवा षट्काला यतीनां भवन्ति तत्रात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थकालास्त्रय: आराधनायां कथ्यते। शेषा दीक्षाशिक्षागणपोषण-काला आचारे, तत्राद्येषु त्रिषुकालेषु यद्युपस्थितं मरणं तत्रैवंभूतं परिणामं विदधेऽहमित्यत आह-
सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहदो णमो।
सद्दहे जिणपण्णत्तं पच्चक्खामि य पावयं।।३७।।
सव्वदुक्खप्पहीणाणं-सर्वाणि च तानि दु:खानि च सर्वदु:खानि समस्तद्वन्द्वानि तै: प्रहीणा रहिता:। अथवा सर्वाणि दु:खानि प्रहीणानि येषां ते सर्वदु:खप्रहीणास्तेभ्य:। सिद्धाणं-सिद्धेभ्य: सम्यक्त्वाद्यष्टगुणैश्वर्येभ्य:। अरहदो-अर्हद्भ्यश्च नवकेवल-लब्धिप्राप्तेभ्यश्च चशब्दोऽनुक्तोऽपि द्रष्टव्य:। णमो-नमो नमोऽस्वित्यर्थ: तेभ्य:। सद्दहे-श्रद्दधे रुिंच कुर्वे। जिणपण्णत्तं-कर्मा-रातीन् जयन्तीति जिना: तै: प्रज्ञप्तं कथितं जिनप्रज्ञप्तं जिनकथितं। पच्चक्खामि-प्रत्याख्यामि परिहरे। पावयं-पापकं दु:ख-निमित्तम्। सर्वद्वंद्वरहितेभ्य: सिद्धेभ्योऽर्हद्भ्यो नमोस्तु। सर्वज्ञपूर्वक आगमो यतोऽतस्तन्नमस्कारा-नन्तरमागमश्रद्धानं श्रद्दधे जिनप्रज्ञप्तमित्युक्तं सम्यक्त्वपूर्वकं च, यत: आचरणमत: प्रत्याख्यामि सर्वपापकमित्युक्तं। अथवा क्त्वान्तोऽयं नम:-शब्द: प्राकृते लोपबलेन सिद्ध:। सिद्धानर्हतश्च नमस्कृत्वा जिनोक्तं श्रद्दधे पापं च प्रत्याख्यामीत्यर्थ:। अथवा मिङन्तोऽयं नम:-शब्द: तेनैवं सम्बन्ध: कर्तव्य:-सर्वदु:खप्रहीणान् सिद्धान अर्हतश्च नमस्यामि जिनागमं च श्रद्दधे। पापं च प्रत्याख्यामीत्ये-कक्षणेऽनेकक्रिया एकस्य कर्तु: संभवंति इत्यनेकान्तद्योतनार्थमनेन न्यायेन सूत्रकारस्य कथनमिति।।
भक्तिप्रकर्षार्थं पुनरपि नमस्कारमाह-
णमोत्थु धुदपावाणं सिद्धाणं च महेसिणं।
संथरं पडिवज्जामि जहा केवलिदेसियं।।३८।।
प्रत्याख्यान और संस्तरस्तव इन दो विषयों का, उनको जानने वाले मुनियों के साथ अभेद सम्बन्ध दिखाकर ग्रन्थकार प्रत्याख्यान, संस्तर–स्तव नामक द्वितीय अधिकार का वर्णन करते हैं। अथवा यतियों के छह काल होते हैं उसमें आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल इन तीनों कालों का वर्णन ‘भगवती आराधना’ में कहा गया है। शेष अर्थात् दीक्षाकाल, शिक्षाकाल और गणपोषणकाल इन तीनों का इस आचार-ग्रन्थ–मूलाचार में वर्णन करेंगे। उनमें से पहले के तीन कालों में यदि मरण उपस्थित हो जावे तो मैं इस प्रकार के (निम्न कथित) परिणाम को धारण करता हूँ । इस प्रकार से आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–सम्पूर्ण दु:खों से मुक्त हुए सिद्धों को और अर्हंतों को मेरा नमस्कार होवे। मैं जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित (तत्त्व) का श्रद्धान करता हूँ और पाप का त्याग करता हूँ।।३७।।
आचारवृत्ति–सम्पूर्ण दु:खों से अर्थात् समस्त द्वन्द्वों से जो रहित हैं अथवा जिन्होंने सम्पूर्ण दु:खों को नष्ट कर दिया है ऐसे सम्यक्त्व आदि आठ गुणरूप ऐश्वर्य से विशिष्ट सिद्धों को और नव केवललब्धि को प्राप्त हुए अर्हंतों को मेरा नमस्कार होवे। यहाँ गाथा में ‘च’ शब्द न होते हुए भी उसको समझना चाहिए। सर्वज्ञदेवपूर्वक ही आगम होता है इसलिए मैं नमस्कार के अनन्तर जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित आगम का श्रद्धान करता हूँ अर्थात् सम्यक्त्वपूर्वक जो आचरण है उसका श्रद्धान करता हूँ और इसी हेतु से दु:खनिमित्तक सम्पूर्ण पापों का त्याग करता हॅूं। अथवा क्त्वा प्रत्ययान्त यह नम: शब्द प्राकृत में लोप के बल से सिद्ध है, इस कथन से सिद्धों और अर्हंतों को नमस्कार करके जिनेन्द्र कथित का श्रद्धान करता हूँ और पाप का त्याग करता हूँ। अथवा यह नम: शब्द मिङन्त है। इसका ऐसा सम्बन्ध करना कि सर्व दु:खों से रहित सिद्धों का और अर्हंतों को नमस्कार करता हूँ, जिनागम का श्रद्धान करता हूँ तथा पाप का त्याग करता हूँ। इस प्रकार से एकक्षण में कर्ता के अनेक क्रियाएँ सम्भव हैं, अत: अनेकान्त को प्रकट करने हेतु इस न्याय से सूत्रकार का कथन है ऐसा समझना।
भक्ति की प्रकर्षता के लिए पुन: नमस्कार करते हैं–
गाथार्थ–पापों से रहित सिद्धों को और महर्षियों को मेरा नमस्कार होवे, जैसा केवली भगवान ने कहा है वैसे ही संस्तर को मैं स्वीकार करता हूँ।।३८।।
अथवा प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवौ द्वावधिकारौ, द्वे शास्त्रे वा गृहीत्वा एकोऽयं अधिकार: कृत:, कुतो ज्ञायते नमस्कारद्वितय-करणादिति। णमोत्थु-नमोऽस्तु। धुदपावाणं-धुतं विहतं पापं कर्म यैस्ते धुतपापस्तेभ्य:। सिद्धाणं च-सिद्धेभ्यश्च। महेसिणं-महर्षिभ्यश्च केवलर्द्धिप्राप्तेभ्य:। संथरं-संस्तरं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोमयं भूमिपाषाणफलकतृणमयं वा। पडिवज्जामि-प्रपद्ये अभ्युपगच्छामि। जहा-यथा। केवलिदेसियं-केवलिभिर्दृष्ट: केवलिदृष्टस्तं केवलज्ञानिभि: प्रतिपादितमित्यर्थ:। धुतपापेभ्य: सिद्धेभ्यो महर्षिभ्यश्च नमोऽस्तु। केवलिदृष्टं संस्तरं प्रतिपद्येऽहं इति पूर्ववत्सम्बन्ध: कर्तव्य:। सिद्धानां नमस्कारो मंगलादिनिमित्तं महर्षीणां च तदनुष्ठितात्वच्चेति।
प्रतिज्ञानिर्वहणार्थमाह-
जं किंचि मे दुच्चरियं सव्वं तिविहेण वोसरे।
सामाइयं च तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं।।३९।।
जं किंचि-यत्किंचित्। मे-मम। दुच्चरियं-दुश्चरितं पापक्रिया:। सव्वं-सर्व निरवशेषं। तिविहेण-त्रिविधेन मनोवचनकायै:। वोसरे-व्युत्सृजामि परिहरामि। सामाइयं च-सामायिकं १समन्वीभावं च। तिविहं- त्रिप्रकारं मनोवचनकायगतं कृतकारितानुमतं वा। करेमि-कुर्वेऽहम्। सव्वं-सर्वं सकलम्। णिरायारं-आकारान्निर्गतं निराकारं निर्विकल्पम्। समस्ताचरणं निर्दोषं यत्स्तोक-मपि दुश्चरितं तत्सर्वं व्युत्सृजामि त्रिविधेन, सामायिकं च सर्वं निरतिचारं निर्विकल्पं च यथा भवति तथा करोमीत्यर्थ:, दुश्चरित्रकारणं यत् तत्सर्वं त्रिप्रकारै: मनोवाक्कायै: परिहरामीति।
उत्तरसूत्रमाह-
बज्झब्भंतरमुवहिं सरीराइं च सभोयणं।
मणसा वचि कायेण सव्वं तिविहेण वोसरे।।४०।।
बज्झं-बाह्यं क्षेत्रादिकम्। अब्भंतरं-अभ्यन्तरमन्तरंगं मिथ्यात्वादि। उवहिं-उपधिं परिग्रहम्। सरीराइं च-शरीरमादिर्यस्य तच्छरीरादिकम्। सभोयणं-सह भोजनेन वर्तत इति सभोजनं आहारेण सह। मणसा वचि काएण-मनोवाक्कायै:। सव्वं-सर्वम्। तिविहेण-त्रिप्रकारै: कृतकारितानुमतै:। वोसरे-व्युत्सृजामि। बाह्यं शरीरादिं सभोजनं परिग्रहं, अन्तरंगं च मिथ्यात्वादिकं सर्वं त्रिप्रकारैर्मनोवाक्कायै: परिहरामीत्यर्थ:।
सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च।
सव्वमदत्तादाणं मेहूण परिग्गहं चेव।।४१।।
आचारवृत्ति–अथवा यहाँ पर प्रत्याख्यान और संस्तरस्तव ये दो अधिकार हैं या इन दो शास्त्रों को ग्रहण करके यह एक अधिकार किया गया है। ऐसा वैâसे जाना जाता है ?
नमस्कार को दो बार करने से जाना जाता है। जिन्होंने पापों को धो डाला है ऐसे सिद्धों को और केवल ऋद्धि को प्राप्त ऐसे महर्षियों को नमस्कार होवे। केवली भगवान् ने जैसा प्रतिपादित किया है वैसा ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान–चारित्र और तपोमय अथवा भूमि, पाषाण, पाटे और तृणमय संस्तर को स्वीकार करता हूँ। यहाँ पर सिद्धों का नमस्कार मंगल आदि के लिए है और महर्षियों का नमस्कार इसलिए है कि इन्होंने उपर्युक्त संस्तर को प्राप्त करने का अनुष्ठान किया है।
अब प्रतिज्ञा के निर्वाह हेतु कहते हैं–
गाथार्थ–जो किंचित् भी मेरा दुश्चरित है उस सभी का मैं मन–वचन–काय से त्याग करता हूँ और सभी तीन प्रकार के सामायिक को निर्विकल्प करता हूँ।।३९।।
आचारवृत्ति–जो कुछ भी मेरी पाप क्रियाएँ हैं उन सभी का मन–वचन–काय से मैं परिहार करता हूँ और मन-वचन-कायगत अथवा कृत–कारित–अनुमोदनारूप सम्पूर्ण समन्वय भाव सामायिक को आकार विरहित निराकार अर्थात् निर्विकल्प करता हूँ। समस्त आचरण निर्दोष हैं उसमें जो अल्प भी दुश्चरितरूप दोष हुए हों, उन सभी को मैं त्रि प्रकार से त्याग करता हूँ और सम्पूर्ण सामायिक को निरतिचार या निर्विकल्प जैसे हो सके वैसा करता हूँ अर्थात् जो भी दुश्चरित के कारण हैं उन सभी का मैं मन–वचन–काय से परिहार करता हूँ।
अब आगे का सूत्र कहते हैं–
गाथार्थ–बाह्य–अभ्यन्तर परिग्रह को, शरीर आदि को और भोजन को-सभी को मन–वचन–काय पूर्वक तीन प्रकार से त्याग करता हूँ।।४०।।
आचारवृत्ति–क्षेत्र आदि बाह्य और मिथ्यात्व आदि अभ्यन्तर परिग्रह को, आहार के साथ शरीर आदि को-सभी को मन–वचन–काय से और कृत–कारित–अनुमोदना से मैं त्याग करता हूँ। तात्पर्य यह है कि भोजन सहित शरीर आदि बाह्य परिग्रह को और अन्तरंग मिथ्यात्व आदि को, इन सभी को कृत–कारित–अनुमोदना सहित मन–वचन–काय से त्याग करता हूँ।
गाथार्थ–सम्पूर्ण प्राणिवध को, असत्यवचन को और सम्पूर्ण अदत्त ग्रहण को, मैथुन को तथा परिग्रह को भी मैं छोड़ता हूँ।। ४१।।
सव्वं पाणारंभं-सर्व प्राणारम्भं जीववधपरिणामम्। पच्चक्खामि-प्रत्याख्यामि दयां कुर्वेऽहम्। अलीयवयणं च-व्यलीकवचनं च। सव्वं-सर्वम्। अदत्तादाणं-अदत्तस्यादानं ग्रहणमदत्तादानम्। मेहूण-मैथुनं स्त्रीपुरुषाभिलाषम्। परिग्गहं चैव-परिग्रहं चैव बाह्याभ्यन्तरलक्षणं। सर्वं हिंसाऽसत्यस्तेयाब्रह्ममूर्च्छास्वरूपं परित्यजामीत्यर्थ:।
सामायिकं करोमीत्युक्त तत्किं स्वरूपमित्यत: प्राह-
सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि।
आसा वोसरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए।।४२।।
आचारवृत्ति–सम्पूर्ण जीववध परिणाम का मैं त्याग करता हूँ अर्थात् दया करता हूँ। असत्य वचन का, सम्पूर्ण बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण का, स्त्री–पुरुष के अभिलाषारूप मैथुन का और बाह्य-अभ्यन्तर लक्षण परिग्रह का मैं त्याग करता हूँ। अर्थात् सम्पूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और मूर्च्छास्वरूप परिग्रह का मैं परिहार करता हूँ।
मैं सामायिक स्वीकार करता हूँ ऐसा जो कहा है उसका स्वरूप है–ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–मेरा सभी जीवों में समता भाव है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है, सम्पूर्ण आशा को छोड़कर इस समाधि को स्वीकार करता हूँ।।४२।।
सम्मं-समता सदृशत्वम्। मे-मम। सव्वभूदेसु-सर्वाणि च तानि भूतानि च सर्वभूतानि तेषु शत्रुमित्रादिषु प्राणिषु। वेरं-वैरं शत्रुभाव:। मज्झं-मम। ण केण वि-न केनापि। आसा-आशा: तृष्णा:। वोसरित्ता-व्युत्सृज्य परित्यज्य। अणं-इमम्। समाहिं-समाधिं समाधानं। पडिवज्जामि (पडिवज्जए )-प्रतिपद्येऽहम्। वैरं मम न केनापि सह यत: समता मे सर्वभूतेषु अत: आशा व्युत्सृज्य समाधिं प्रतिपद्येऽहमिति।
कथं वैरं भवतो नास्तीत्यत आह-
खमामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केण वि।।४३।।
खमामि-क्षमेऽहं क्रोधादिकं ६त्यक्त्वा मैत्रीभावं करोमि। सव्वजीवाणं-सर्वे च ते जीवाश्च सर्वजीवास्तान् शुभाशुभपरिणामहेतून्। सव्वे जीवा-सर्वे जीवा: समस्तप्राणिन:। खमंतु-क्षमन्तां सुष्ठूपशमभावं कुर्वन्तु। मे-मम। मित्ती-मैत्री मित्रत्वं। सव्वभूदेसु-सर्वभूतेषु। वेरं-वैरं। मज्झं-मम। ण केण वि-न केनापि। सर्वजीवान् क्षमेऽहं, सर्वे जीवा मे क्षमन्तां, एवं परिणामं यत: करोमि ततो वैरं मे न केनाऽपि, मैत्री सर्वभूतेष्विति।
न केवलं वैरं त्यजामि, वैरनिमित्तं च यत् तत्सर्वं त्यजामीत्यत: प्राह-
रायबंधं पदोसं च हरिसं दीण भावयं।
उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं१ च वोसरे।।४४।।
रायबंधं-रागस्य रागेण वा बन्धो रागबन्ध: स्नेहानुबन्धस्तम्। पदोसं च-प्रद्वेषमप्रीतिं च। हरिसं-हर्ष लाभादिना आनन्दम्। दीणभावयं-दीनभावं याञ्चादिना करुणाभिलाषदैन्यं च। उस्सुगत्तं-उत्सुकत्वं सरागमनसा न्यचिंतनं। भयं-भीतिम्। सोयं-शोकं इष्टवियोगवशादनुशोचनम्। रइं-रतिमभिप्रेतप्राप्तिम्। अरइं-अरतिं अभिप्रेताऽप्राप्ति। वोसरे-व्युत्सृजामि।
रागानुबन्धद्वेषहर्षदीनभावमुत्सुकत्वभयशोकरत्यरतिं च त्यजामीत्यर्थ:।
ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे।।४५।।
आचारवृत्ति–शत्रु, मित्र आदि सभी प्राणियों में मेरा समता भाव है, किसी के साथ मेरा शत्रु भाव नहीं है इसलिए मैं सम्पूर्ण तृष्णा को छोड़कर समाधि को स्वीकार करता हूँ।
आपका किसी के साथ वैर क्यों नहीं है इस बात को कहते हैं–
गाथार्थ–सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, सभी जीवों के साथ मेरा मैत्रीभाव है, मेरा किसी के साथ वैर भाव नहीं है।।४३।।
आचारवृत्ति–शुभ–अशुभ परिणाम में कारणभूत सभी जीवों के प्रति क्रोधादि का त्याग करके मैं क्षमा भाव-मैत्रीभाव धारण करता हूँ। सभी प्राणी मेरे प्रति क्षमाभाव अर्थात् अच्छी तरह शान्तिभाव धारण करें, इस प्रकार के परिणाम जो मैं करता हूँ इसी हेतु से मेरा किसी के साथ वैर नहीं है प्रत्युत सभी जीवों में मैत्रीभाव ही है।
मैं केवल वैर का ही त्याग नहीं करता हूँ किन्तु वैर के निमित्त जो भी हैं उन सबका त्याग करता हूँ इसी बात को कहते हैं–
गाथार्थ–राग का अनुबन्ध, प्रकृष्ट द्वेष, हर्ष, दीनभाव, उत्सुकता, भय, शोक, रति और अरति का त्याग करता हूँ।।४४।।
आचारवृत्ति–स्नेह का अनुबन्ध, अप्रीति, लाभ आदि से होने वाला आनन्दरूप हर्ष, याचना आदि से करुणामय अभिलाषारूप दीनता, सराग मन से अन्य के चिन्तनरूप उत्सुकता, भीति, इष्ट वियोग के निमित्त से होने वाला शोचरूप शोक, इच्छित की प्राप्तिरूप रति, इच्छित की अप्राप्तिरूप अरति-इन सबका मैं त्याग करता हूँ।
गाथार्थ–मैं ममत्व को छोड़ता और निर्ममत्व भाव को प्राप्त होता हूँ, आत्मा ही मेरा आलम्बन है और अन्य सभी का त्याग करता हूँ।। ४५।।
ममत्तिं-ममत्वं। परिवज्जामि-परिवर्जामि परिहरेऽहं। णिम्ममत्तिं-निर्ममत्वमसंगत्वं। उवट्ठिदो-उपस्थित:। यदि सर्वं भवता त्यज्यते किमालम्बनं भविष्यतीत्यत आह-आलंबणं च-आलम्बनं चाश्रय:। मे-मम। आदा-आत्मा। अवसेसाइं-अवशेषाणि अधिकानि। वोसरे-व्युत्सृजामि। किं बहुनोक्तेनानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यरत्नत्रयादिकं मुक्त्वान्यत्सर्वं त्यजामीत्यर्थ:।
आत्मा च भवता किमिति कृत्वा न परित्यज्यते इत्यत आह-
आदा हु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोए।।४६।।
आचारवृत्ति–मैं ममत्व को छोड़ता हूँ और नि:संगपने को प्राप्त होता हूँ।
प्रश्न–आप यदि सभी कुछ छोड़ देंगे तो आपको अवलम्बन किसका है ?
उत्तर–मेरी आत्मा का ही मुझे अवलम्बन है इसके अतिरिक्त सभी का मैं त्याग करता हूँ। अर्थात् अधिक कहने से क्या, अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप अनन्तचतुष्टय को और रत्नत्रय निधि को छोड़कर अन्य सभी का मैं त्याग करता हूँ।
आप आत्मा का त्याग क्यों नहीं करते हैं ? इस बात को कहते हैं–
गाथार्थ–निश्चितरूप से मेरा आत्मा ही ज्ञान में है, मेरा आत्मा ही दर्शन में और चारित्र में है, प्रत्याख्यान में है और मेरा आत्मा ही संवर तथा योग में है।।४६।।
आदा-आत्मा। हु-स्फुटं। मज्झ-मम। णाणे-ज्ञाने। आदा-आत्मा। मे-मम। दंसणे-दर्शन तत्त्वार्थश्रद्धाने आलोके वा। चरित्ते य-चारित्रे च पापक्रियानिवृत्तौ। आदा-आत्मा। पच्चक्खाणे-प्रत्याख्याने। आदा-आत्मा। मे-मम। संवरे-आस्रवनिरोधे। जोए-जोगे शुभव्यापारे।।
एओ य मरइ जीवो एओ य उववज्जइ।
एयस्स जाइमरणं एओ सिज्भâइ णीरओ।।४७।।
एओ य-एकश्चासहायश्च। मरइ-म्रियते शरीरत्यागं करोति। जीवो-जीव: चेतनालक्षण:। एओ य-एकश्च। उववज्जइ-उत्पद्यते। एयस्स-एकस्य। जाइ-जाति:। मरणं-मृत्यु:। एओ-एक:। सिज्झइ-सिद्ध्यति मुक्तो भवति। णीरओ-नीरजा: कर्मरहित:।
एओ मे सस्सओ अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।।४८।।
आचारवृत्ति–मेरा आत्मा ही स्पष्टरूप से ज्ञान में, तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप दर्शन में अथवा सामान्य सत्तामात्र के अवलोकनरूप दर्शन में है। पाप क्रिया के अभावरूप चारित्र में, त्याग में, आस्रवनिरोधरूप संवर में और शुभ व्यापाररूप योग में भी मेरा आत्मा ही है।
गाथार्थ–जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्म लेता है। एक जीव के ही ये जन्म और मरण हैं और यह जीव अकेला ही कर्म रहित होता हुआ सिद्ध पद प्राप्त करता है। मेरा आत्मा एकाकी है, शाश्वत है और ज्ञानदर्शन लक्षणवाला है। शेष सभी संयोग लक्षण वाले जो भाव हैं वे मेरे से बहिर्भूत हैं।।४७-४८।।
एओ-एक:। मे-मम। सस्सओ-शाश्वतो नित्य:। अप्पा-आत्मा। णाणदंसणलक्खणो-ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शने ते एव लक्षणं यस्यासौ ज्ञानदर्शनलक्षण:। सेसा मे-शेषा: शरीरादिका मम। बाहिरा-बाह्या अनात्मीया:। भावा-पदार्था:। सव्वे-सर्वे समस्ता:। संजोगलक्खणा-संयोगलक्षणा:। अनात्मनीनस्यात्मभाव: संयोग:, संयोग एव लक्षणं येषां ते संयोगलक्षणा विनश्वरा इत्यर्थ:। ज्ञानदर्शनचारित्रप्रत्याख्यानसंवरयोगेषु ममात्मैव, यतो म्रियते उत्पद्यते च एक एव, यत: एकस्य जातिमरणे, यत: एकश्च नीरजा: सन् सिद्ध याति, यत: शेषाश्च सर्वे भावा: संयोगलक्षणा बाह्या यत:, अत एक एवात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण: नित्यो ममेति।
अथ किमिति कृत्वा संयोगलक्षणोभाव: परिह्रियते इति चेदत आह-
संजोयमूलं जीवेण पत्तं दुक्खपरंपरं।
तम्हा संजोयसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरे।।४९।।
संजोयमूलं-संयोगनिमित्तं। जीवेण-जीवेन। पत्तं-प्राप्तं, लब्धं। दुक्खपरंपरं-दु:खानां परम्परा दु:खपरम्परा क्लेशनैरन्तर्यम्। तम्हा-तस्मात्। संजोयसंबंध-संयोगसम्बन्धम्। सव्वं-सर्वम्। तिविहेण-त्रिविधेन मनोवचनकायै:। वोसरे-व्युत्सृजामि। संयोगहेतोर्जीवेन यतो दु:खपरम्परा प्राप्ता, तस्मात् संयोगसम्बन्धं सर्वे त्रिविधेन व्युत्सृजामीत्यर्थ:।
पुनरपि दुश्चरित्रस्य परिहारार्थमाह-
मूलगुणउत्तरगुणे जो मे णाराहिओ पमाएण।
तमहं सव्वं णदे पडिक्कमे १आगममिस्साणं।।५०।।
आचारवृत्ति–यह चेतना लक्षण वाला जीव एक असहाय ही शरीर के त्यागरूप मरण को करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है। अभिप्राय यह है कि इस एक जीव के जो जन्म और मरण होते हैं और यह अकेला ही कर्मरज से रहित होता हुआ मुक्त होता है। मेरा आत्मा नित्य है, ज्ञानदर्शन स्वभाव वाला है। शेष जो शरीर आदि अनात्मीय पदार्थ हैं वे सभी संयोगरूप हैं अर्थात् जो अपने नहीं हैं उनमें आत्मभाव होना संयोग है। इस संयोग स्वभाव वाले होने से सभी बाह्य पदार्थ विनश्वर हैं। ज्ञान–दर्शन–चारित्र, त्याग, संवर और शुभ क्रियारूप योग इन सभी में मेरा आत्मा ही है।
अभिप्राय यह है कि जिस हेतु से यह जीव अकेला ही जन्म–मरण करता है, इस अकेले जीव के ही जन्म–मरण-रूप संसार है और जिस हेतु से यह अकेला ही कर्मरज रहित होता हुआ मुक्ति को प्राप्त करता है तथा जिस हेतु से अन्य सभी पदार्थ संयोग स्वभावी होने से बाह्य हैं, इसी हेतु से ज्ञानदर्शन स्वभाव वाला अकेला आत्मा ही नित्य है और मेरा है।
अब किस प्रकार से संयोग लक्षण वाले भाव का परिहार किया जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं–
गाथार्थ–इस जीव ने संयोग के निमित्त से दु:खों के समूह को प्राप्त किया है इसलिए मैं समस्त संयोग सम्बन्ध को मन–वचन–काय पूर्वक छोड़ता हूँ।। ४९।।
आचारवृत्ति–यह जीव संयोग के कारण ही निरन्तर दु:खों को प्राप्त करता रहा है इसलिए मैं सम्पूर्ण संयोग जन्य भावों का त्रिविध से त्याग करता हूँ।
पुन: आचार्य दुश्चरित के त्याग हेतु कहते हैं–
गाथार्थ–मैंने मूलगुण और उत्तरगुणों में प्रमाद से जिस किसी की आराधना नहीं की है उस सम्पूर्ण की मैं निन्दा करता हूँ और भूत–वर्तमान ही नहीं, भविष्य में आने वाले का भी मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।। ५०।।
मूलगुण उत्तरगुणे-मूलगुणा: प्रधानगुणा:, उत्तरगुणा अभ्रावकाशादयो मूलगुणदीपकास्तेषु मध्ये। जो मे-य: कश्चिन्मया। णाराहिओ-नाराधितो नानुष्ठित:। पमाएण-प्रमादेन केनचित्कारणान्तरेण सालसभावात्। तमहं-तच्छब्द: पूर्वप्रकान्तपरामर्शी, तदहं मूलगुणाद्यनाराधनम्। सव्वं-सर्वम्। णिदे-निन्दामि आत्मानं जुगुप्से। पडिक्कमं-प्रतिक्रमामि निर्हरे न केवलमतीत-वर्तमानकाले आगमिस्साणं-आगमिष्यति च काले। ये गुणास्तेषां मध्ये यो नाराधितो गुणस्तमहं सर्वं निन्दयामि प्रतिक्रमामि चेति।
तथा-
अस्संजममण्णाणं मिच्छत्तं सव्वमेव य ममिंत्त।
जीवेसु अजीवेसु य तं िंणदे तं च गरिहामि।।५१।।
आचारवृत्ति–प्रधानगुण मूलगुण हैं और मूलगुणों के उद्योतन करने वाले अभ्रावकाश आदि उत्तरगुण हैं। इनमें से जिस किसी का भी मैंने यदि प्रमाद से या अन्य किसी कारण से अथवा आलस्य भाव से अनुष्ठान नहीं किया हो तो उस अनुष्ठान नहीं किए रूप दोष की मैं निन्दा करता हूँ, आत्मा में उस विषय की ग्लानि करता हूँ तथा उस अनाराधनरूप दोष का परिहार करता हूँ। उसमें भी केवल भूतकाल और वर्तमान काल के विषय में ही नहीं, बल्कि भविष्यकाल में होने वाले अनुष्ठानाभावरूप दोष का भी प्रतिक्रमण करता हूँ। अर्थात् जो गुण हैं उनमें से जिस किसी गुण की आराधना नहीं की है वह दोष हो गया, उस सम्पूर्ण दोष की मैं निन्दा करता हूँ और प्रतिक्रमण करके उस दोष को दूर करता हूँ यह अभिप्राय हुआ।
उसी प्रकार से–
गाथार्थ–असंयम, अज्ञान और मिथ्यात्व तथा जीव और अजीव विषयक सम्पूर्ण ममत्व–उन सबकी मैं निन्दा करता हूँ और उन सबकी मैं गर्हा करता हूँ।।५१।।
अस्संजमं-असंयमं पापकारणम्। अण्णाणं-अज्ञानं अश्रद्धानपूर्वकवस्तुपरिच्छेदम्। मिच्छत्तं-मिथ्यात्वमतत्त्वार्थश्रद्धानम्। सव्वमेव य-सर्वमेव च। ममिंत्त-ममत्त्वमनात्मीये आत्मीयभावम्। जीवेसु अजीवेसु य-जीवाजीवविषयं च। तं णिदे–तं निन्दामि। तं च-तच्च। गरिहामि-गर्हेऽहं परस्य प्रकटयामि। मूलोत्तरगुणेषु मध्ये यन्नाराधितं प्रमादतोऽतीतानागतकाले तत्सर्वं निन्दामि प्रतिक्रमामि च। असंयमाज्ञानमिथ्यात्वादि जीवाजीवविषयं ममत्वं च सर्वं गर्हे निन्दामि चेति प्रमाददोषेण दोषास्त्यज्यन्ते।
प्रमादा: पुन: किं न परिह्नियन्त इति चेन्न तानपि परिहरामीत्यत आह-
सत्त भए अट्ठ मए सण्णा चत्तारि गारवे तिण्णि।
तेत्तीसाच्चासणाओ रायद्दोसं च गरिहामि।।५२।।
आचारवृत्ति–पाप का कारण असंयम है, अश्रद्धानपूर्वक वस्तु का जानने वाला ज्ञान अज्ञान है और अतत्त्व श्रद्धान का नाम मिथ्यात्व है। अनात्मीय अर्थात् अपने से भिन्न जो वस्तु हैं, चाहे जीवरूप हों, चाहे अजीवरूप हों उनमें अपनेपन का भाव ममत्व कहलाता है। इन सम्पूर्ण असंयम आदि भावों को जो मैंने किया हो मैं उसकी निन्दा करता हूँ तथा पर अर्थात् गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करते हुए मैं उनकी गर्हा करता हूँ।
अभिप्राय यह है कि अपने मूलगुणों और उत्तरगुणों में से मैंने प्रमाद से भूत, भविष्यत् काल में जिनकी आराधना नहीं की हो उन सभी के लिए निन्दा करता हूँ और प्रतिक्रमण करता हूँ। असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व तथा जीव और अजीव विषयक जो ममत्व परिणाम हैं उन सबकी भी मैं निन्दा करता हूँ। इस प्रकार प्रमाद के दोष से जो अपराध हुए हैं उन सभी का त्याग हो जाता है, ऐसा समझना।
आप प्रमाद का पुन: क्यों नहीं परिहार करते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर ‘सम्पूर्ण प्रमादों को भी छोड़ता हूँ’, ऐसा उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–सात भय, आठ मद, चार संज्ञा, तीन गारव, तेतीस आसादना तथा राग और द्वेष इन सबकी मैं गर्हा करता हूँ।। ५२।।
सत्तभए-सप्तभयानि। अट्ठमए-अष्टौ मदानि। सण्णा चत्तारि-संज्ञाश्चतस्र: आहारभयमैथुनपरिग्रहाभिलाषान्। गारवे-गौरवाणि ऋद्धिरससातविषयगर्वान्। तिण्णि-त्रीणि। तेत्तीसाच्चासणाओ-त्रिभिरधिका त्रिशत् त्रयस्त्रिंशत् पदार्थै: सह सम्बन्ध:। त्रयस्त्रिंशतां पदार्थानां, अच्चासणा-आसादना: परिभवास्तास्त्रयिंस्त्रशदासादना: अथवा तन्निमित्तत्वात् ताच्छब्द्यन्ते। रायद्दोसं च-रागद्वेषौ च, आत्मनीनानात्मनीनवस्तुप्रीत्यप्रीती। गरिहरामि-गर्हे नाचरामीत्यर्थ:। सप्तभयाष्ट-मदसंज्ञागाार-वाणि त्रयस्त्रिंशत्पदार्थासादनं च रागद्वेषौ च त्यजामीत्यर्थ:।
अथ कानि सप्तभयानि के चाष्टौ मदा इति पृष्टे तत आह-
इहपरलोयत्ताणं अगुत्तिमरणं च वेयणाकम्हिभया।
विण्णाणिस्सरियाणा कुलबलतवरूवजाइ मया।।५३।।
आचारवृत्ति–सात भय और आठ मदों के नाम आचार्य स्वयं आगे बतायेंगे। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये अभिलाषारूप चार संज्ञाएँ हैं। ऋद्धि, रस और साता–इनके विषय में गर्व के निमित्त से गौरव के ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातगौरव नामक तीन भेद हो जाते हैं। अर्थात् मैं ऋद्धिशाली हूँ, मुझे नाना रसों से युक्त आहार सुलभ हैं या मेरे साता का उदय होने से सर्वत्र सुख–सुविधाएँ हैं इत्यादिरूप से जो बड़प्पन का भाव या अहंभाव है वह यहाँ पर गारव शब्द से विवक्षित है। उसी को गौरव भी कहा गया है। तेतीस पदार्थों के परिभव या अनादर को आसादना कहते हैं। अथवा उन तेतीस पदार्थों के निमित्त से जो आसादनाएँ होती हैं वे ही यहाँ तेतीस कही गयी हैं। अपने से सम्बद्ध वस्तु में प्रीति का नाम राग है और अपने से भिन्न वस्तु में अप्रीति का नाम द्वेष है। इस प्रकार से मैं सात भय,आठ मद, चार संज्ञा, तीन गौरव और तेतीस पदार्थों की आसादना और रागद्वेष का त्याग करता हूँ। दूसरे शब्दों में, मैं इन्हें आचरण में नहीं लाऊँगा।
अब वे सात भय और आठ मद कौन–कौन हैं ? इसका उत्तर देते हैं–
गाथार्थ–इहलोक, परलोक, अत्राण, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक ये सात भय हैं। विज्ञान, ऐश्वर्य, आज्ञा, कुल, बल, तप, रूप और जाति इनके निमित्तक आठ मद हैं।। ५३।।
इहपरलोयं-इह च परश्च इहपरौ तौ च तौ लोकौ चेहपरलोकौ। अत्ताणं-अत्राणमपालनं, इहलोकभयं, परलोकभयं, अत्राणभयं। अगुत्ति-अगुप्ति: प्राकाराद्यभाव:। मरणं च-मृत्युश्च। वेयणा-वेदना पीडा। अकम्हिभया-आकस्मिकं घनादिगर्जोद्भवम्। भयशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। इहलोकभयं, परलोकभयं, अत्राणभयं, अगुप्तिभयं, मरणभयं, वेदनाभयं, आकस्मिकभयं चेति। विण्णाण-विज्ञानं अक्षरगन्धर्वादिविषयम्। इस्सरिय-ऐश्वर्यं द्रव्यादिसम्पत्। आणा-आज्ञा वचनानुल्लंघनम्। कुलं-शुद्धपैतृकाम्नाय: इक्ष्वाक्वाद्युपत्तिर्वा। बलं-शरीराहारादिप्रभवा शक्ति:। तव-तप: कायसन्ताप:। रूवं-रूपं समचतुरस्त्रसंस्थान-गौरादिवर्णकान्तियौवनोद्भवरमणीयता। जाइ-जाति: मातृकसन्तानशुद्धि:। एतैरेतेषां वा, मया-मदा गर्वा:। मदशब्द: प्रत्येकम-भिसम्बध्यते। विज्ञानमद:, ऐश्वर्यमद:, आज्ञामद:, कुलमद:, बलमद:, जातिमद:, तपोमद:, रूपमद इति संज्ञा१ भेदै: सुगमत्वान्न विस्तर:।
अथ के त्रयस्त्रिंशत्पदार्था येषां त्रयस्त्रिंशदासादनानीत्यत आह-
पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाय महव्वया पंच।
पवयणमाउपयत्था तेतीसच्चासणा भणिया।।५४।।
आचारवृत्ति–इहलोक आदि सभी के साथ भय शब्द का प्रयोग करना चाहिए। यथा-इहलोकभय अर्थात् इस लोक में शत्रु, विष, कंटक आदि से भयभीत होना। परलोकभय अर्थात् अगले भव में कौन–सी गति मिलेगी ? क्या होगा ? इत्यादि सोचकर भयभीत होना। अत्राणभय अर्थात् मेरा कोई रक्षक नहीं है ऐसा सोचकर डरना। अगुप्तिभय अर्थात् इस ग्राम में परकोटे आदि नहीं हैं अत: शत्रु आदि से वैâसे मेरी रक्षा होगी ? मरणभय अर्थात् मरने से डरना।
वेदनाभय–रोग आदि से उत्पन्न हुई पीड़ा से डरना। आकस्मिकभय-अकस्मात् मेघगर्जना, विद्युतपात आदि होने से डरना। ये सात भय सम्यग्दृष्टि को नहीं होते हैं क्योंकि वह आत्मा का विघात नहीं मानता है।
विज्ञान–अक्षरज्ञान और संगीत आदि का ज्ञान; ऐश्वर्य–द्रव्यादि सम्पत्ति का वैभव होना; आज्ञा–अपने द्वारा दिये गये आदेश का उल्लंघन न होना; कुल–पिता के वंश परंपरा की शुद्धि का होना अथवा इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश आदि में जन्म लेना; बल, शरीर, आहार आदि से उत्पन्न हुई शक्ति का होना; तप–शरीर को संतापित करना, रूप–समचतुरस्र संस्थान, गौर आदि वर्ण, सुन्दर कान्ति और यौवन से उत्पन्न हुई रमणीयता का होना; जाति–माता के वंश परंपरा की शुद्धि का होना, ये आठ मुख्य हैं। इनके द्वारा अथवा इनका गर्व करना ये ही आठ मद कहलाते हैं। मद शब्द का प्रयोग आठों में करना चाहिए। यथा–विज्ञानमद, ऐश्वर्यमद, आज्ञामद, कुलमद, बलमद, जातिमद, तपोमद और रूपमद। इस प्रकार इनके निमित्त से होने वाले गर्व का त्याग करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि के लिए ये पच्चीस मलदोष में दोषरूप हैं।
विशेष–साधुओं में भयकर्म के उदय से इन सात भयों में से कदाचित् कोई भय उत्पन्न हो भी जावे तो भी वह मिथ्यात्व का सहचारी नहीं है। ऐसे ही कदाचित् संज्वलन मान के उदय से साधुओं के आठ मदों में से कोई मद उत्पन्न हो जाये तो भी साधु उसे छोड़ देते हैं।
अब तेतीस पदार्थ कौन से हैं जिनकी तेतीस आसादनाएँ होती हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–अस्तिकाय पाँच ही हैं, जीव निकाय छह हैं, महाव्रत पाँच हैं, प्रवचनमाता आठ और नवपदार्थ-ये तेतीस ही यहाँ तेतीस आसादना नाम के कहे गए हैं। अर्थात् इनकी विराधना ही आसादना कहलाती है।। ५४।।
पंचेव-पंचैव। अत्थिकाया-अस्तिकाया: कायो निचय: परस्परप्रदेशसम्बन्धो येषां तेऽस्तिकाया: अस्तिमन्तो द्रष्टव्या जीवपुद्गगलधर्माधर्माकाशा:। कालस्य प्रदेशप्रचयो नास्तीत्यतोऽस्तिकायत्वं नास्ति। छज्जीवणिकाय-षट् च ते जीवनिकायाश्च षड्जीवनिकाया: पृथिवीकायिकादय:। महव्वया पंच-महाव्रतानि पंच। पवयणमाउ-प्रवचनमातृका: पंचसमितय: त्रिगुप्तयश्च। पयत्था-पदार्था: जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापाणि। तेतीसच्चासणा- त्रयिंस्त्रशदासादना:। भणिया-भणिता: पंचास्तिकायादिविषयत्वात् पंचास्तिकायादय एवासादना उक्ता:, तेषां वा ये परिभवास्ता आसादना इति सम्बन्ध: कर्तव्य:।
आचारवृत्ति–अस्ति-विद्यमान है काय निचय अर्थात् प्रदेशों का समूह जिसमें वह अस्तिकाय है। अर्थात् परस्पर में प्रदेशों का सम्बन्ध जिन द्रव्यों में पाया जाता है वे द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। वे पाँच हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश। काल में प्रदेशों का प्रचय न होने से वह अस्तिमात्र है, अस्तिकाय नहीं है। पृथ्वीकायिक आदि छह जीव निकाय हैं। महाव्रत पाँच हैं, पाँच समिति और तीन गुप्तियाँ ये प्रवचन–मातृका नाम से आठ हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नवपदार्थ हैं। इस प्रकार ये तेतीस आसादनाएँ हैं। अर्थात् पाँच अस्तिकाय आदि ये इनके विषयभूत हैं इसलिए इन अस्तिकाय आदि को ही आसादना शब्द से कहा है। अथवा इनका जो परिभव आदि अनादर है वही आसादना है ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए।
विशेष–महाव्रतों में समिति, गुप्तियों के अतिचार आदि का होना आसादना है और अस्तिकाय तथा पदार्थों में श्रद्धान का अभाव या विपरीत श्रद्धान आदि का होना आसादना है तथा षट्काय जीवों की हिंसादि का हो जाना ही आसादना है ऐसा समझना।
निम्नलिखित गाथाएँ फलटण से प्रकाशित प्रति में अधिक हैं।
आहारादिसण्णा चत्तारि वि होंति जाण जिणवयणे।
सादादिगारवा ते तिण्णि वि णियमा पवज्जेजो।।१९।।
अर्थ-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रहसंज्ञा इन चारों संज्ञाओं का स्वरूप जिनागम में कहा गया है। साता आदि तीन गौरव हैं। इनको नियम से छोड़ देना चाहिए। इन्हें गारव भी कहते हैं। यथा सातागारव-मैं यति होकर भी इन्द्रत्वसुख, चक्रवर्तीसुख अथवा तीर्थंकर जैसे सुख का उपभोग ले रहा हूँ, ये दीनयति सुखों से रहित हैं इत्यादि रूप से अभिमान करना। रसगारव-मुझे आहार में रसयुक्त पदार्थ सहज ही उपलब्ध हैं ऐसा अभिमान होना। ऋद्धिगारव-मेरे शिष्य आदि बहुत हैं, दूसरे यतियों के पास नहीं है, ऐसा अभिमान होना। ये तीन प्रकार के गर्व ‘गारव’ शब्द से भी कथित हैं। चूँकि ये संज्वलन कषाय के निमित्त से होने से अत्यल्परूप हो सकते हैं। इन बातों का विशेषरूप से घमण्ड रहे जो कि अन्य को तिरस्कृत करने वाला हो वह गर्व नाम से सूचित किया जाता है, ऐसा समझना। ये गौरव भी त्याग करने योग्य हैं।
संज्ञा का लक्षण-
इह जाहि वाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं।
सेवंता वि य उभये ताओ चत्तारि सण्णाओ।।२०।।
अर्थ-जिनसे संक्लेशित होकर जीव इस लोक में और जिनके विषयों का सेवन से दोनों ही भवों में दारुणदु:ख को प्राप्त होते हैं, उन्हें संज्ञा कहते हैं। उनके चार भेद हैं।
आहार संज्ञा का स्वरूप-
आहारदंसणेण य तस्सुवजोगेण ओम कोठाए।
सादिदरुदीरणाए हवदि हु आहारसण्णा हु।।२१।।
अर्थ-आहार को देखने से अथवा उसकी तरफ उपयोग लगाने से और उदर के खाली रहने से तथा असातावेदनीय की उदय और उदीरणा के होने पर जीव के नियम से आहार संज्ञा होती है।
भावार्थ-किसी उत्तम सरस भोज्य पदार्थ के देखने से अथवा पूर्व में लिये गये भोजन का स्मरण आने से, यद्वा पेट के खाली हो जाने से और असातावेदनीय के उदय और उदीरणा से या और भी अनेक कारणों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है।
भय संज्ञा का स्वरूप-
अइभीमदंसणेण य तस्सुवजोएण ओमसत्तीए।
भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे चदुहिं।।२२।।
अर्थ-अत्यन्त भयंकर पदार्थ के देखने से, पहले देखे हुए भयंकर पदार्थ के स्मरण से, यद्वा अधिक निर्बल होने पर अन्तरंग में भयकर्म की उदय, उदीरणा होने पर इन चार कारणों से भयसंज्ञा होती है।
मैथुनसंज्ञा का स्वरूप-
पणिदरसभोयणेण य तस्सुवजोगे कुसीलसेवाए।
वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हु जायदे चदुहिं।।२३।।
अर्थ-स्वादिष्ट और गरिष्ठ रस युक्त भोजन करने से, उधर उपयोग लगाने से तथा कुशील आदि सेवन करने से और वेदकर्म की उदय उदीरणा के होने से-इन चार कारणों से मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है।
आत्मसंस्कारकालं नीत्वा संन्यासालोचनार्थमाचार्य: प्राह-
णिदामि णिदणिज्जं गरहामि य जं च मे गरहणीयं।
आलोचेमि य सव्वं सब्भंतरबाहिरं उवहिं।।५५।।
णिदामि-निन्दामि आत्मन्याविष्करोमि। णिदणिज्जं-निन्दनीयं आत्माविष्करणयोग्यम्। गरहामि य-गर्हे च आचार्यादीनामाविष्करोमि प्रकटयामि। जं च-यच्च। मे-मम। गरहणीयं-गर्हणीयं परप्रकाशयोग्यं। आलोचेमि य-आलोचयामि चापनयामि चारित्राचारालोचनापूर्वकं गर्हणं वा करोमि। सव्वं-सर्वं निरवशेषं। सब्भंतरवाहिरं-साभ्यन्तरबाह्यं। उविंह-उपिंध च परिग्रहं च। यिंन्नदनीयं तिंन्नदामि, यद्गर्हणीयं तद्गर्हामि, सर्वं बाह्याभ्यन्तरं चोपिंध आलोचयामीति।
कथमालोचयितव्यमिति चेदत आह–
जह बालो जंप्पंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणदि।
तह आलोचेयव्वं माया मोसं च मोत्तूण।।५६।।
आत्मसंस्कार काल से संन्यासकाल तक की आलोचना के लिए आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–निन्दा करने योग्य की मैं निन्दा करता हूँ और मेरे जो गर्हा करने योग्य दोष हैं उनकी गर्हा करता हूँ और मैं बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह सहित सम्पूर्ण उपधि की आलोचना करता हँूं।।५५।।
आचारवृत्ति–जो अपने में–स्वयं ही प्रकट करने योग्य दोष हैं उनकी मैं स्वयं निन्दा करता हूँ, जो पर के समक्ष कहने योग्य दोष हैं उनको मैं आचार्य आदि के सामने प्रकट करते हुए अपनी गर्हा करता हूँ और मैं चारित्राचार की आलोचनापूर्वक सम्पूर्ण बाह्य अभ्यन्तर उपधि की आलोचना करता हूँ अर्थात् सम्पूर्ण उपधि को अपने से दूर करता हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि जो उपधि और परिग्रह निन्दा करने योग्य हैं उनकी मैं निन्दा करता हूँ, जो गर्हा करने योग्य हैं उनकी गर्हा करता हूँ और समस्त बाह्य, अभ्यन्तर उपधि की आलोचना करके अपने से दूर करता हूँ।
आलोचना वैâसे करना चाहिए ? सो कहते हैं–
गाथार्थ–जैसे बालक सरल भाव से बोलता हुआ कार्य और अकार्य सभी को कह देता है उसी प्रकार से मायाभाव और असत्य को छोड़कर आलोचना करना चाहिए।।५६।।
जह-यथा। बालो–बाल: पूर्वापरविवेकरहित:। जंप्पंतो-जल्पन्। कज्जं-कार्यं स्वप्रयोजनं। अकज्जं च-अकार्यं अप्रयोजनं अकर्तव्यं च। उज्जुयं-ऋजु अकुटिलं। भणइ-भणति। तह-तथा। आलोचेयव्वं-आलोचयितव्यं। मायामोसं च-मायां मृषां च अपह्नवासत्यं च। मोत्तूण-मुक्त्वा। यथा कश्चिद्बालो जल्पन् कुत्सितानुष्ठानमकुत्सितानुष्ठानं च ऋजु भणति तथा मायां मृषां च मुक्त्वा लोचयितव्यमिति।
यस्यालोचना क्रियते स किंगुणविशिष्ट आचार्य इति चेदत आह-
णाणम्हि दंसणम्हि य तवे चरित्ते य चउसुवि अ्रकंपो।
धीरो आगमकुसलो अ्रपरस्साई रहस्साणं।।५७।।
णाणम्हि-ज्ञाने। दंसणम्हि य-दर्शने च। तवे-तपसि। चरित्ते य-चरित्रे च। चउसुवि-चतुर्ष्वपि। अकंपो-अकंपोऽधृष्य:। धीरो-धीरो धैर्योपेत:। आगमकुसलो-आगमकुशल: स्वसमयपरसमयविचारदक्ष:। अपरिस्साई-अपरिश्रावी आलोचितं न कस्यचिदपि कथयति। रहस्साणं-रहसि एकान्ते भवानि रहस्यानि गुह्यानुष्ठितानि। ज्ञानदर्शनत/पश्चारित्रेषु चतुर्ष्वपि सम्यकस्थितो यो रहस्यानामपरिश्रावी धीरश्चागमकुशलश्च यस्तस्य आलोचना कर्तव्या नान्यस्येति।
आलोचनानन्तरं क्षमणं कर्तुंकाम: प्राह-
रागेण य दोसेण य जं मे अकदण्हुयं पमादेण।
जो मे किंचिवि भणिओ तमहं सव्वं खमावेमि।।५८।।
आचारवृत्ति–जैसे बालक पूर्वापर विवेक से रहित हो बोलता हुआ अपने प्रयोजनीभूत अर्थात् उचित कार्य को तथा अप्रयोजनीभूत अर्थात् अनुचित कार्य को सरल भाव से कह देता है, उसी प्रकार से अपने कुछ दोषों को छिपाने रूप माया और असत्य वचन को छोड़कर आलोचना करना चाहिए। अर्थात् जैसे बालक अपने गलत भी किये गये या अच्छे कार्य को बिना छिपाये कह देता है, वैसे ही साधु सरल भाव से सभी दोषों की आलोचना करे।
जिनके पास आलोचना की जाती है वे आचार्य किन गुणों से विशिष्ट होने चाहिए ? ऐसा पूछने पर कहते हैं–
गाथार्थ–जो ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र इन चारों में भी अविचल हैं, धीर हैं, आगम में निपुण हैं और रहस्य अर्थात् गुप्तदोषों को प्रकट नहीं करने वाले हैं वे आचार्य आलोचना सुनने के योग्य हैं।।५७।।
आचारवृत्ति–ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों में भी जो अकंप अर्थात् अचल वृत्ति धारण करने वाले हैं, धैर्य गुण से सहित हैं, स्वसमय और परसमय के विचार करने में दक्ष होने से आगमकुशल हैं और शिष्यों द्वारा एकान्त में कहे गये गुह्य अर्थात् गुप्त दोषों को किसी के सामने भी कहने वाले नहीं हैं ऐसा यह जो अपरिश्रावी गुण उससे सहित हैं, उनके समक्ष ही आलोचना करना चाहिए, अन्य के समक्ष नहीं–यह अर्थ हुआ।
आलोचना के अनन्तर श्रमण को करने की इच्छा करते हुए आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–जो मैंने राग से अथवा द्वेष से न करने योग्य कार्य किया है, प्रमाद से जिसके प्रति कुछ भी कहा है उन सबसे मैं क्षमायाचना करता हूँ।। ५८।।
रागेण य-रागेण च मायालोभाभ्यां स्नेहेन वा। दोसेण य-द्वेषेण च क्रोधमानाभ्यां अप्रीत्या वा। जं मे-यन्मया अकदण्हुअं-अकृतज्ञत्वं युष्माकमयोग्यमनुष्ठितं। पमादेण-प्रमादेन। जो मे-यो मया। किंचिवि-किंचिदपि। भणिओ-भणित:। तमहं-तं जनं अहं। सव्वं-सर्वं। खमावेमि-क्षमयामि संतोषयामि। रागद्वेषाभ्यां मनागपि यन्मया कृतमकृतज्ञत्वं योऽपि मया किंचिदपि भणितस्तमहं सर्वं मर्षयामीति।
क्षमणं कृत्वा क्षपक: संन्यासं कर्तुकामो मरणभेदान् पृच्छति कति मरणानि ? आचार्य: प्राह-
तिविहं भणंति मरणं बालाणं बालपंडियाणं च।
तइयं पंडियमरणं जं केवलिणो अणुमरंति।।५९।।
आचारवृत्ति–राग से अर्थात् माया, लोभ या स्नेह से; द्वेष से अर्थात् क्रोध से, मान से या अप्रीति से मैंने आपके प्रति जो अयोग्य कार्य किया है। अथवा जो मैंने प्रमाद से जिसके प्रति कुछ भी वचन कहे हैं। उन सभी साधु जनों से मैं क्षमा माँगता हूँ अर्थात् उनको संतुष्ट करता हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि मैंने राग या द्वेषवश जो किंचित् भी अयोग्य अनुष्ठान किया है उसके लिए और जिस किसी साधु को भी कहा है उन सभी से मैं क्षमा चाहता हूँ।
अब क्षमापना करके संन्यास करने की इच्छा करता हुआ क्षपक, मरण कितने प्रकार के हैं ? ऐसा प्रश्न करता है और आचार्य उसका उत्तर देते हैं–
गाथार्थ–मरण को तीन प्रकार का कहते हैं–बालजीवों का मरण, बालपण्डितों का मरण और तीसरा पण्डितमरण है। इस पण्डितमरण को केवलीमरण भी कहते हैं।। ५९।।
तिविहं-त्रिविधं त्रिप्रकारम्। भणंति-कथयन्ति। मरणं-मृत्युं। बालाणं-बालानां असंयतसम्यग्दृष्टीनां। बालपंडियाणं च-बालाश्च ते पंडिताश्च बालपंडिता:। संयतासंयता एकेन्द्रियाविरतेर्बाला: द्वीन्द्रियादिबधविरता: पंडिता:। तइयं-तृतीयं। पंडियमरणं-पंडितमरणं पंडितानां मरणं देहपरित्याग: देहस्यान्यथाभावो वा पंडितमरणं। जं-यत् येन वा। केवलिणो-केवलं शुद्धं ज्ञानं विद्यते येषां केवलिन:। अणुमरंति-अनुम्रियन्ते अर्हद्भट्टारका गणधरदेवाश्च त्रिप्रकारं मरणं भणंति। प्रथमं बालमरणं बालजीवस्वामित्वात् , द्वितीयं बालपंडितमरणं बालपंडितस्वामित्वात्, तृतीयं पंडितमरणं येन केवलिनोऽनुम्रियन्ते। संयताश्च पंडितपंडितमरणस्यात्रैव पंडितेन्तर्भाव: सामान्यसंयमस्वामित्वाभेदादिति। अन्यत्र बालबालमरणमुक्तं तदत्र किमिति कृत्वा नोक्तं तेन प्रयोजनाभावात्। ये अकुटिला ज्ञानदर्शनयुक्तास्ते एतैर्मरणैर्म्रियन्ते।
अन्यथाभूताश्च कथमित्युत्तरमूत्रमाह-
जे पुण पणट्ठमदिया पचलियसण्णा य वक्कभावा य।
असमाहिणा मरंते ण हु ते आराहया भणिया।।६०।।
आचारवृत्ति–अर्हन्त भट्टारक और गणधरदेव मरण के तीन भेद कहते हैं–बालमरण, बालपण्डितमरण और पण्डितमरण। असंयतसम्यग्दृष्टि जीव बाल कहलाते हैं, इनका मरण बालमरण है। संयतासंयत जीव बालपण्डित कहलाते हैं क्योंकि एकन्द्रिय जीवों के वध से विरत न होने से ये बाल हैं और द्वीन्द्रिय आदि जीवों के वध से विरत होने से पण्डित हैं इसलिए इनका मरण भी बालपण्डितमरण है। पण्डितों का मरण अर्थात् देह परित्याग अथवा शरीर का अन्यथारूप होना पण्डितमरण है जिसके द्वारा केवल शुद्ध ज्ञान के
धारी केवली भगवान् मरण करते हैं तथा संयत मरण करते हैं। यहाँ संयत शब्द से छठे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक संयत विवक्षित है। यद्यपि केवली भगवान के मरण को पण्डितपण्डितमरण कहते हैं
किन्तु यहाँ पर पण्डित मरण में ही उसका अन्तर्भाव कर लिया गया है क्योंकि संयम के स्वामी में सामान्यत: भेद नहीं है।
प्रश्न–अन्यत्र ग्रन्थों में बाल–बालमरण भी कहा है उसको यहाँ क्यों नहीं कहा ?
उत्तर–उसका यहाँ प्रयोजन नहीं है, क्योंकि जो अकुटिल-सरल परिणामी हैं, ज्ञान और दर्शन से युक्त हैं वे इन उपर्युक्त तीन मरणों से मरते हैं। अर्थात् पहला बालमरण है उसके स्वामी असंयतसम्यग्दृष्टि ऐसे बालजीव हैं। दूसरा बालपण्डितमरण है जिसके स्वामी देशसंयत ऐसे बालपण्डित जीव हैं। तीसरा पण्डित मरण है जिसके स्वामी संयत जीव हैें।
विशेषार्थ–अन्यत्र ग्रन्थों में मरण के पाँच भेद किये गये हैं–बालबाल, बाल, बालपण्डित, पण्डित और पण्डितपण्डित। इनमें से प्रथम बालबाल मरण मिथ्यादृष्टि करते हैं और पण्डितपण्डितमरण केवली भगवान् करते हैं। यहाँ पर मध्य के तीन मरणों को ही माना है और केवली भगवान् के मरण को पण्डितमरण में ही गर्भित कर दिया है।
इन तीन के अतिरिक्त और अन्य प्रकार के मरण कैसे होते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं–
गाथार्थ–जो पुन: नष्टबुद्धि वाले हैं, जिनकी आहार आदि संज्ञाएं उत्कट हैं और जो कुटिल परिणामी हैं वे असमाधि से मरण करते हैं। निश्चितरूप से वे आराधक नहीं कहे गये हैं।।६०।।
जे पुण-ये पुन:। पणट्ठमदिया-प्रणष्टा विनष्टा मतिर्येषां ते प्रणष्टमतिका: अज्ञानिन:। पचलियसण्णा य-प्रचलिता उद्गता संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाभिलाषा येषां ते प्रचलितसंज्ञका:। वक्कभावा य-कुटिलपरिणामाश्च। असमाहिणा-असमाधिना आर्तरौद्रध्यानेन। मरंते-म्रियन्ते भवान्तरं गच्छन्ति। ण हु-न खलु। आराहया-आराधका: कर्मक्षयकारिण:। भणिया-भणिता: कथिता:। ये प्रणष्टमतिका: प्रचलितसंज्ञा वक्रभावाश्च ते असमाधिना म्रियन्ते स्फुटं न ते आराधका भणिता इति।
यदि मरणकाले विपरिणाम: स्यात्तत: किं स्यादिति पृष्टे आचार्य: प्राह-
मरणे विराहिए देवदुग्गई दुल्लहा य किर बोही।
संसारो य अणंतो होइ पुणो आगमे काले।।६१।।
आचारवृत्ति–जिनकी मति नष्ट हो गई है वे नष्टबुद्धि अज्ञानी जीव हैं। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की अभिलाषारूप संज्ञाएँ जिनके उत्पन्न हुई हैं अर्थात् उत्कृष्टरूप से प्रकट हैं और जो मायाचार परिणाम से युक्त हैं, वे जीव आर्त-रौद्र ध्यानरूप असमाधि से भवान्तर को प्राप्त करते हैं। वे कर्मक्षय के करने वाले ऐसे आराधक नहीं हो सकते हैं ऐसा समझना।
यदि मरण काल में परिणाम बिगड़ जाते हैं तो क्या होगा ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–मरण की विराधना हो जाने पर देवदुर्गति होती है तथा निश्चितरूप से बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है और फिर आगामी काल में उस जीव का संसार अनन्त हो जाता है।। ६१।।
मरणे-मृत्युकाले। विराहिए-विराधिते विनाशिते मरणकाले सम्यक्त्वे विराधित इत्यर्थ: मरणकाले सम्यक्- त्वस्य यद्विराधनं तन्मरणस्यैव साहचर्यादिति। अथवार्तरौद्रध्यानसहितं यन्मरणं तत्तस्य विराधनमित्युक्तम्। देवदुग्गई- देवदुर्गति: भवनवासिवानव्यन्तरज्योतिष्कादिषूत्पत्ति:। दुल्लहा य-दुर्लभा दु:खेन लभ्यते इति दुर्लभा च। किर-किल। अयं किलशब्दोऽनेकेष्वर्थेषु विद्यते, तत्र परोक्षे द्रष्टव्य: आगमे एवमुक्तमित्यर्थ:। बोही-बोधि: सम्यक्त्वं रत्नत्रयं वा। संसारो य-संसारश्च चतुर्गतिलक्षण:। अणंतो-अनन्त: अर्द्धपुद्गलप्रमाण: कुतोऽस्यानन्तत्वं ? केवलज्ञानविषयत्वात्। होइ-भवति। पुणो-पुन:। आगमे काले-आगमिष्यति समये। मरणकाले सम्यक्त्वविराधने सति, दुर्गतिर्भवति, बोधिश्च दुर्लभा, आगमिष्यति काले संसारश्चानन्तो भवतीति।
अत्रैवाभिसम्बन्धे प्रश्नपूर्वकं सूत्रमाह-
का देवदुग्गईओ का बोही केण ण बुज्भए मरणं।
केण व अणंतपारे संसारे हिंडए जीओ।।६२।।
का देवदुग्गईओ-का देवदुर्गतय: किंविशिष्टा देवदुर्गतय:। का बोही-का बोधि:। केण व-केन च। ण बुज्झए-न बुध्यते। मरणं-मृत्यु:। केण व-केन च कारणेन। अणंतपारे-अनन्तोऽपरिमाण: पार: समाप्तिर्यस्यासौ अनन्तपारस्तस्मिन्। संसारे-संसरणे। हिंडए-हिंडते गच्छति। जीवो-जीव:। हे भट्टारक! का देवदुर्गतय: का च बोधि:, केन च परिणामेन न बुध्यते मरणं, संसारे च केन कारणेन परिभ्रमति जीव: ?
क्षपकेण पृष्ट: आचार्य: प्राह-
कंदप्पमाभिजोग्गं किव्विस सम्मोहमासुरत्तं च।
ता देवदुग्गईओ मरणम्मि विराहिए होंति।।६३।।
द्रव्यभावयोरभेदं कृत्वा चेदमुच्यते। कंदप्पं-कंदर्पस्य भाव: कान्दर्पमुपप्लवशीलगुण:। आभिजोग्गं-अभियोगस्य भाव: आभियोग्यं तन्त्रमन्त्रादिभीरसादिगार्द्ध्यं। किव्विस-किल्विषस्य भाव: वैâल्विष्यं प्रतिकूलाचरणं। सम्मोहं-स्वस्य मोह: स्वमोहस्तस्य भाव: स्वमोहत्वं, शुनो मोह इव मोहो वेदोदयो यस्य स श्वमोहस्तस्य भाव: श्वमोहत्वं सह मोहेन वा वर्तते इति तस्य भाव: समोहत्वं१ मिथ्यात्वभावनातात्पर्यम्। आसुरत्तं च –असुरत्वं च-असुरस्य भाव: असुरत्वं रुौद्रपरिणामसहिताचरणं। ता-एता:। देवदुग्गईओ-देवदुर्गतयस्तैर्गुणैस्ता: प्राप्यन्ते इति कृत्वा तदव्यपदेश:, कारणे कार्योपचारात्। मरणम्मि-मरणे मृत्युकाले सम्यक्त्वे, विराहिए-विराधिते परिभूते। होंति-भवन्ति। सम्यक्त्वे विनाशिते मरणकाले एता: कन्दर्पाभियोग्यकिल्विषस्वमोहासुरदेवदुर्गतयो भवन्तीति।
किं तत्कान्दर्पं इत्यत आह-
असत्तमुल्लावेंतो पण्णावेंतो य बहुजणं कुणइं।
कंदप्प रइसमावण्णो कंदप्पेसु उववज्जइ।।६४।।
आचारवृत्ति–मरणकाल में सम्यक्त्व की विराधना हो जाने पर देवदुर्गति होती है। यहाँ पर गाथा में जो मरण की विराधना कही गयी है उसका मतलब मरणकाल में जो सम्यक्त्व की विराधना है वह मरण के ही साहचर्य से है अत: मरण की विराधना से मरण समय सम्यक्त्व की विराधना ऐसा अर्थ लेना चाहिए। अथवा आर्त-रौद्र ध्यान सहित जो मरण है, सो ही मरण की विराधना शब्द से विवक्षित है ऐसा समझना। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क आदि देवों में उत्पत्ति होना देवदुर्गति है। ऐसी दुर्गतियों में उसका जन्म होता है यह अभिप्राय हुआ। ‘किल’ शब्द अनेक अर्थों में पाया जाता है किन्तु यहाँ उसको परोक्ष अर्थ में लेना चाहिए।
इससे यह अर्थ निकला कि आगम में ऐसा कहा है कि उस जीव के सम्यक्त्व या रत्नत्रयरूप बोधि, बहुत ही कठिनाई से प्राप्त होने से अतीव दुर्लभ है। वह जीव अगामी काल में इस चतुर्गतिरूप संसार में अनन्त काल तक भटकता रहता है।
प्रश्न–एक बार सम्यक्त्व होने पर संसार अनन्त कैसे रहेगा ? क्योंकि वह अर्द्धपुद्गल प्रमाण ही तो है अत: अर्द्धपुद्गल को अनन्त संज्ञा कैसे दी ?
उत्तर–यह अर्द्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण काल भी अनन्त नाम से कहा गया है क्योंकि यह केवलज्ञान का ही विषय है।
तात्पर्य यह हुआ कि यदि मरण समय में सम्यक्त्व छूट जावे तो यह जीव देवदुर्गति में जन्म ले लेता है। पुन: इसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अथवा रत्नत्रय की प्राप्ति बड़ी मुश्किल से ही हो सकती है अत: यह जीव अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता है।
विशेषार्थ–यहाँ ऐसा समझना है कि सम्यक्त्व रहित यह जीव भवनत्रिक में जन्म लेता है तथा आदि शब्द से वैमानिक देवों में भी आभियोग्य और किल्विषक जाति के देवों में जन्म ले लेता है, क्योंकि वहाँ पर भी अनेक जाति के देवों में या वाहन जाति के तथा किल्विषक जाति के देवों में सम्यग्दृष्टि का जन्म नहीं होता।
पुन: इसी सम्बन्ध में प्रश्नपूर्वक सूत्र कहते हैं–
गाथार्थ–देवदुर्गति क्या है ? बोधि क्या है ? किससे मरण नहीं जाना जाता है ? और किस कारण से यह जीव अनन्तरूप संसार में परिभ्रमण करता है।।६२।।
आचारवृत्ति–हे भट्टारक! देव दुर्गति का क्या लक्षण है ? बोधि का क्या स्वरूप है ? किस परिणाम से मरण नहीं जाना जाता है ? तथा किन कारणों से यह जीव, जिसका पार पाना कठिन है ऐसे अपार संसार में भ्रमण करता है ?
क्षपक के द्वारा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–मरण काल में विराधना के हो जाने पर कान्दर्प, आभियोग्य, किल्विषक, स्वमोह और आसुरी ये देवदुर्गतियाँ होती हैं।।६३।।
आचारवृत्ति–यहाँ पर द्रव्य और भाव में अभेद करके कहा गया है अर्थात् ये कन्दर्प आदि भावनाएँ भाव हैं और इनसे होने वाली उन–उन जाति के देवों की जो पर्यायें हैं वे यहाँ द्रव्यरूप हैं। इन दोनों में अभेद करके ही यहाँ पर इन भावनाओं को देवदुर्गति कह दिया है। कन्दर्प का भाव कान्दर्प है अर्थात् उपप्लव स्वभाव वाला गुण (शील और गुणों का नाश करने वाला भाव) कान्दर्प है।
अभियोग का भाव आभियोग्य है अर्थात् तन्त्र–मन्त्र आदि के द्वारा रस आदि में गृद्धता का होना। किल्विष का भाव वैâल्विष्य है अर्थात् प्रतिकूल आचरण का होना। अपने में मोह का होना स्वमोह है उसका भाव स्वमोहत्व है अथवा श्व अर्थात् कुत्ते के मोह के समान मोह वेद का उदय है जिसके-वह श्वमोह है उसका भाव श्वमोहत्व है। अथवा मोह के साथ जो रहता है उसका भाव समोहत्व है अर्थात् मिथ्यात्व का होना। असुर के भाव को असुरत्व कहते हैं अर्थात् रौद्र परिणाम सहित आचरण का होना। ये देवदुर्गतियाँ हैं। अर्थात् इन पाँच गुणों से इन्हीं पाँच प्रकार के देवों में जन्म लेना पड़ता है। इसलिए यहाँ पर इन परिणामों को ही देवदुर्गति कह दिया है। यहाँ पर कारण में कार्य का उपचार समझना चाहिए।
तात्पर्य यह हुआ कि मरण के समय सम्यक्त्वगुण की विराधना हो जाने पर ये कन्दर्प, अभियोग्य, किल्विष, स्वमोह और असुर इन देवों की पर्यायों में उत्पत्ति हो जाती है।
विशेषार्थ–इन कन्दर्प आदि भावनाओं को करने से साधु को सम्यक्त्व रहित असमाधि होने से इन्हीं जाति के देवों में जन्म लेने का प्रसंग हो जाता है। आगे इन्हीं कन्दर्प आदि भावनाओं का लक्षण स्वयं बताते हैं।
वह कान्दर्प क्या है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं–
गाथार्थ–जो साधु असत्य बोलता हुआ और उसी को बहुत जनों में प्रतिपादित करता हुआ राग भाव को प्राप्त होता है, कन्दर्प भाव करता है और वह कन्दर्प जाति के देवों में उत्पन्न होता है ।। ६४।।
असत्तं-असत्यं मिथ्या। उल्लावेंतो३-उल्लपन् जल्पन् उल्लापयित्वा, पण्णावेंतो-प्रज्ञापयन् प्रतिपादयन्, बहुजणं-बहुजनं बहून् प्राणिन:, कुणइं-करोति। कंदप्पं-कान्दर्पं, रइसमावण्णो-रतिं समापन्न: प्राप्तो रतिसमापन्नो रागोद्रेकसहित:। कंदप्पेसु-कन्दर्पकर्मयोगाद्देवा अपि कन्दर्पा नग्नाचार्यदेवास्तेषु, उववज्जेइ-उत्पद्यते। यो रतिसमापन्न: असत्यमुल्लपन् तदेव च बहुजनं प्रतिपादयन् कन्दर्पभावनां करोति स कन्दर्पेषूत्पद्यते इत्यर्थ:। अथवा असत्यं जल्पन् तदेव च भावयन्४ आत्मनो बहुजनं करोति योजयति असत्येन य: स कन्दर्परतिसमापन्न: कन्दर्पेषूत्पद्यत इत्यर्थ:।
अथ किमभियोगकर्मेति तेनोत्पत्तिश्च का चेदत: प्राह-
अभिजुंजइ१ बहुभावे साहू हस्साइयं च बहुवयणं।
अभिजोगेिंह कम्मेिंह जुत्तो वाहणेसु२ उववज्जइ।।६५।।
अभिजुंजइ-अभियुंक्ते करोति, बहुभावे-बहुभावान् तंत्रमंत्रादिकान्। साहू-साधु:। हस्साइयं च-हास्यादिकं च हास्यकौत्कुच्यपरविस्मयनादिकं। बहुवयणं-बहुवचनं वाग्जालं। अहिजोगेिंह-अभियोगै: तादर्थ्यात्ताच्छब्द्यं आभिचारकै:, कम्मेिंह-कर्मभि: क्रियाभि:। जुत्तो-युक्तस्तन्निष्ठ:। वाहणेसु-वाहनेषु गजाश्वमेषमहिषस्वरूपेषु। उववज्जइ-उत्पद्यते जायते। य: साधू रसादिषु गृद्ध: मंत्रतंत्रभूतिकर्मादिकमुपयुंक्ते हास्यादिकं बहुवचनं करोति स तैरभियोगै: कर्मभिर्वाहनेषु उत्पद्यत इति।
किल्विषभावनास्वरूपं तथोत्पिंत्त च प्रतिपादयन्नाह-
तित्थयराणं पडिणीओ संघस्स य चेइयस्स सुत्तस्स।
अविणीदो णियडिल्लो किव्विसियेसूववज्जेइ३।।६६।।
आचारवृत्ति–जो राग के उद्रेक से सहित होता हुआ स्वयं असत्य बोलता है और बहुत जनों में उसी का प्रतिपादन करते हुए कन्दर्प-भावना को करता है वह कन्दर्प कर्म के निमित्त से कन्दर्प जाति के जो नग्नाचार्य देव हैं उनमें जन्म लेता है। अथवा जो साधु स्वयं असत्य बोलता हुआ और उसी की भावना करता हुआ बहुत जनों को भी अपने समान करता है अर्थात् उन्हें भी असत्य में लगा देता है वह कन्दर्प भावनारूप राग से युक्त होता हुआ कन्दर्प जाति के देवों में उत्पन्न होता है।
विशेषार्थ–अन्यत्र देव जातियों में ‘नग्नाचार्य’ ऐसा नाम देखने में नहीं आता है। ‘मूलाचारप्रदीप’ अध्याय १० श्लोक ६१–६२ में ‘कन्दर्प जाति के देवों को नग्नाचार्य कहते हैं’ ऐसा लिखा है। तथा च पं० जिनदास फड़कुले सोलापुर ने ‘मूलाचार’ की हिन्दी टीका में कन्दर्प देवों का अर्थ ‘स्तुतिपाठक देव’ किया है। यह अर्थ कुछ संगत प्रतीत होता है।
अभियोग कर्म क्या है और उससे कहाँ उत्पत्ति होती है ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–जो साधु अनेक प्रकार के भावों का और हास्य आदि अनेक प्रकार के वचनों का प्रयोग करता है वह अभियोग कर्मांे से युक्त होता हुआ वाहन जाति के देवों में उत्पन्न होता है।। ६५।।
आचारवृत्ति–जो साधु तन्त्र–मन्त्र आदि नाना प्रकार के उपयोग करता है और हँसी, काय की कुचेष्टा सहित हँसी-कौत्कुच्य और पर में आश्चर्य उत्पन्न कराना आदिरूप बहुत से वाग्जाल को करता है वह इन अभियोग क्रियाओं से युक्त होता हुआ हाथी, घोड़े, मेष, महिष आदिरूप वाहन जाति के देवों में उत्पन्न होता है।
तात्पर्य यह है कि जो साधु रस आदि में आसक्त होता हुआ तन्त्र–मन्त्र और भूकर्म आदि का प्रयोग करता है, हँसी–मजाक आदिरूप बहुत बोलता है वह इन कार्यों के निमित्त से वाहन जाति के देवों में जन्म लेता है। वहाँ उसे विक्रिया से अन्य देवों के लिए वाहन हेतु हाथी, घोड़े आदि के रूप बनाने पड़ते हैं।
किल्विष भावना का स्वरूप और उससे होने वाली उत्पत्ति को कहते हैं–
गाथार्थ–जो तीर्थंकरों के प्रतिकूल है; संघ, जिन प्रतिमा और सूत्र के प्रति अविनयी है और मायाचारी है वह किल्विष जाति के देवों में जन्म लेता है।।६६।।
तित्थयराणं-तीर्थं संसारतरणोपायं कुर्वन्तीति तीर्थकरा: अर्हद् भट्टारकास्तेषां। पडिणीओ-प्रत्यनीक: प्रतिकूल:। संघस्स य-संघस्य च ऋषियतिमुन्यनगाराणां ऋषिश्रावकश्राविकार्यिकाणां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसां वा। चेइयस्स-चैत्यस्य सर्वज्ञप्रतिमाया:। सुत्तस्य-सूत्रस्य द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरूपस्य। अविणीओ-अविनीत: स्तब्ध:। णियडिल्लो-निकृतिवान् वंचनाबहुल: प्रतारणकुशल:। किव्विसियेसूववज्जेइ-किल्विषेषूत्पद्यते। पाटहिकादिषु जायते। तीर्थकराणां प्रत्यनीक: संघस्य चैत्यस्य सूत्रस्य वा अविनीत: मायावी च य: स किल्विषकर्मभि: किल्विषिकेषु जायते इति।
सम्मोहभावनास्वरूपं तदुत्पत्या सह निरूपयन्नाह-
उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ मग्गविपडिवण्णो य।
मोहेण य मोहंतो१ संमोहेसूववज्जेदि२।।६७।।
उम्मग्गदेसओ-उन्मार्गस्य मिथ्यात्वादिकस्य देशक: उपदेशकर्ता उन्मार्गदेशक:। मग्गणासओ-मार्गस्य सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्रात्मकस्य। णासओ-नाशको विराधको मार्गनाशक:। मग्गविपडिवण्णो य-मार्गस्य विप्रतिपन्नो विपरीत: स्वतीर्थप्रवर्तक: मार्गविप्रतिपन्न:। मोहेण य-मोहेन च मिथ्यात्वेन मायाप्रपंचेन वा। मोहंतो-मोहयन् विपरीतान् कुर्वन्, संमोहेसूववज्जेदि-स्वंमोहेषु स्वच्छन्ददेवेषूत्पद्यते। य उन्मार्गदेशक: मार्गनाशक: मार्गविप्रतिकूलश्च मोहेन मोहयन् स सम्मोहकर्मभि: स्वंमोहेषु जायते इति।
आसुरीं भावनां तथोत्पिंत्त च प्रपंचयन्नाह-
खुद्दी कोही माणी मायी तह संकिलिट्ठो तवे चरिते य।
अणुबद्धवेररोई असुरेसूववज्जदे जीवो।।६८।।
आचारवृत्ति–संसार समुद्र से पार होने के उपायरूप तीर्थ को करने वाले तीर्थंकर हैं, उन्हें अर्हन्त भट्टारक कहते हैं उनके जो प्रतिकूल हैं तथा ऋषि, यति, मुनि और अनगार को संघ कहते हैं अथवा मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इनको भी चतुर्विध संघ कहते हैं। अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को भी संघ शब्द से कहा है। सर्वज्ञदेव की प्रतिमा को चैत्य कहते हैं। बारह अंग और चौदह पूर्व को सूत्र कहते हैं। जो ऐसे संघ, चैत्य और सूत्र के प्रति विनय नहीं करते हैं और दूसरों को ठगने में कुशल हैं, वे इस किल्विष कार्यों के द्वारा पटह आदि वाद्य बजाने वाले किल्विष जाति के देवों में उत्पन्न हो जाते हैं।
विशेषार्थ–इन किल्विषक जाति के देवों को इन्द्र की सभा में प्रवेश करने का निषेध है। ये देव चाण्डाल के समान माने गये हैं। जो साधु सम्यक्त्व से च्युत होकर तीर्थंकर देव आदि की आज्ञा नहीं पालते हैं, उपर्युक्त दोषों को अपने जीवन में स्थान देते हैं वे पूर्व में यदि देवायु बाँध भी ली हो तो मरकर ऐसी दुर्गति में जन्म ले लेते हैं।
सम्मोह भावना का स्वरूप और उससें होने वाली देव दुर्गति को बताते हैं–
गाथार्थ–जो उन्मार्ग का उपदेशक है, सन्मार्ग का विघातक तथा विरोधी है वह मोह से अन्य को भी मोहित करता हुआ सम्मोह जाति के देवों में उत्पन्न होता है।।६७।।
आचारवृत्ति–जो उन्मार्ग अर्थात् मिथ्यात्व आदि का उपदेशकर्ता है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र- रूप मोक्षमार्ग की विराधना करने वाला है तथा इसी सन्मार्ग के विपरीत है अर्थात् स्वतीर्थ का प्रवर्तक है। वह साधु मिथ्यात्व अथवा माया के प्रपंच से अन्य लोगों को विपरीत बुद्धिवाला करता हुआ संमोह कर्म के द्वारा स्वच्छन्द प्रवृति वाले सम्मोह जाति के देवों में उत्पन्न होता है।
अब आसुरी भावना को और उससे होने वाली गति को बताते हैं–
गाथार्थ–जो क्षुद्र, क्रोधी, मानी, मायावी है तथा तप और चारित्र में संक्लेश रखने वाला है, जो बैर को बाँधने में रुचि रखता है वह जीव असुर जाति के देवों में उत्पन्न होता है।।६८।।
खुद्दी-क्षुद्र: पिशुन:। कोही-क्रोधी। माणी-मानी गर्वयुक्त:। माई-मायावी। तह य-तथा च। संकलिट्ठो-संक्लिष्ट: संक्लेशपरायण:। तवे-तपसि। चरित्ते य-चरित्रे च। अणुबद्धवेररोई-अनुबद्धं वैरं रोचते अनुबद्धवैररोची कषायबहुलेषु रुचिपर:। असुरेसूववज्जदे-असुरेषूत्पद्यते अंबावरीषसंज्ञकभवनेषु। जीवो-जीव:। य: क्षुद्र: क्रोधी, मानी, मायावी अनुबद्धवैररोची तथा तपसि, चरित्रे च य: संक्लिष्ट: सोऽसुरभावतयासुरेषूत्पद्यते इति।
व्यतिरेकद्वारेण बोिंध प्रतिपादयन्नाह-
मिच्छादंसणरत्ता सणिदाणा किण्हलेसमोगाढा।
इह जे मरंति जीवा तेिंस पुण दुल्लहा बोही।।६९।।
आचारवृत्ति–जो क्षुद्र अर्थात् चुगलखोर है अथवा हीन परिणाम वाला, क्रोध स्वभाव वाला है, मान–कषायी है, मायाचार प्रवृत्ति रखता है; तथा तपश्चरण करते हुए और चारित्र को पालते हुए भी जिसके परिणामों में संक्लेष भाव बना रहता है अर्थात् परिणामों में निर्मलता नही रहती, जो अनन्तानुबन्धीरूप बैर को बाँधने में रुचि रखता है अर्थात् किसी के साथ कलह हो जाने पर उसके साथ अन्तरंग में ग्रन्थि के समान बैर भाव बाँध कर रखता है ऐसा जीव इन असुर भावनाओं के द्वारा असुर जाति में, अन्तर्भेदरूप एक अंबावरीष जाति है उसमें, जन्मता है।
ये अंबावरीष जाति के देव ही नरकों में जाकर नारकियों को परस्पर में पूर्वभव के बैर का स्मरण दिला–दिलाकर लड़ाया करते हैं और उन्हें लड़ते–भिड़ते, दु:खी होते देखकर प्रसन्न होते रहते हैं।
अब व्यतिरेक कथन द्वारा बोधि का प्रतिपादन करते हैं–
गाथार्थ–यहाँ पर जो जीव मिथ्यादर्शन से अनुरक्त, निदान–सहित और कृष्णलेश्या से मरण करते हैं उनके लिए पुन: बोधि की प्राप्ति होना दुर्लभ है।।६९।।
मिच्छादंसणरत्ता-मिथ्यात्वदर्शनरक्ता: अतत्त्वार्थरुचय:। सणिदाणा-सह निदानेनाकांक्षया वर्तत इति सनिदाना:। किण्हलेसं-कृष्णलेश्यां अनन्तानुबन्धिकषायानुरञ्जितयोगप्रवृत्तिम्। ओगाढा-आगाढा प्रविष्टा रौद्रपरिणामा:। इह-अस्मिन्। जे-ये। मरंति-म्रियन्ते प्राणांस्त्यजन्ति। जीवा-जीवा: प्राणिन:। तेिंस-तेषां। पुण-पुन:। दुल्लहा-दुर्लभा:। बोही-बोधी: सम्यक्त्वसहितशुभपरिणाम:। इह ये जीवा: मिथ्यात्वदर्शनरक्ता:, सनिदाना:, कृष्णलेश्यां प्रविष्टाश्च म्रियन्ते तेषां पुनरपि, दुर्लभा बोधि:। उत्कृष्टतोऽर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्रात्सम्यक्त्वाविनाभावित्वाद्बोधेरतस्तादात्म्यं ततो बोधेरेव लक्षणं व्याख्यातमिति।
अन्वयेनापि बोधेर्लक्षणमाह-
सिम्मद्दंसणरत्ता अणियाणा सुक्कलेसमोगाढा।
इह जे मरंति जीवा तेसिं सुलहा हवे बोही।।७०।।
आचारवृत्ति–जो अतत्त्व के श्रद्धान सहित हैं, भविष्य में संसार-सुख की आकांक्षारूप निदान से सहित हैं और अनन्तानुबन्धी कषाय से अनुरंजित योग की प्रवृत्तिरूप कृष्णलेश्या से संयुक्त रौद्र परिणामी हैं ऐसे जीव यदि यहाँ मरण करते हैं तो पुन: सम्यक्त्व सहित शुभ परिणामरूप बोधि उनके लिए बहुत ही दुर्लभ है।
तात्पर्य यह हुआ कि यदि एक बार सम्यक्त्व होकर छूट जाये तो पुन: अधिक से अधिक यह जीव किंचित् कम अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र काल तक संसार में भटक सकता है। इसलिए यहाँ ऐसा कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि का अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र काल ही शेष रहता है और बोधि सम्यक्त्व के बिना नहीं हो सकती है अत: बोधि का सम्यक्त्व के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है इसलिए यहाँ पर बोधि का लक्षण ही कहा गया है। अर्थात् प्रश्नकर्ता ने बोधि का लक्षण पूछा था सो बोधि की दुर्लभता और सुलभता को बतलाते हुए सम्यक्त्व के माहात्म्य को बताकर आचार्य ने प्रकारान्तर से बोधि का लक्षण ही बताया है ऐसा समझना।
अब अन्वय द्वारा भी बोधि का लक्षण कहते हैं–
गाथार्थ–जो सम्यग्दर्शन में तत्पर हैं, निदान भावना से रहित हैं और शुक्ललेश्या से परिणत हैं ऐसे जो जीव मरण करते हैं उनके लिए बोधि सुलभ है।।७०।।
सम्मद्दंसणरत्ता-सम्यग्दर्शनरक्ता: तत्त्वरुचय:। अणियाणा-अनिदाना इहपरलोकानाकांक्षा:। सुक्कलेस्सं-शुक्ललेश्यां। ओगाढा-ओगाढा प्रविष्टा:। इह-अस्मिन्। जे-ये। मरंति-म्रियंते। जीवा-जीवा:। तेसिं-तेषां। सुलहा-सुलभा सुखेन लभ्या। हवे-भवेत्। बोही-बोधि:। इह ये जीवा: सम्यक्त्वदर्शनरक्ता:, अनिदाना:, शुक्ललेश्यां प्रविष्टा: सन्तो म्रियन्ते तेषां सुलभा बोधिरिति। यद्यपि पूर्वसूत्रेणास्यार्थस्य प्रतीतिस्तथापि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकशिष्य-संग्रहार्थ: पुनरारम्भ: एकान्तमत-निराकरणार्थं च।
संसारकारणस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-
जे पुण गुरुपडिणीया बहुमोहा ससबला कुसीला य।
असमाहिणा मरंते ते होंति अणंतसंसारा।।७१।।
आचारवृत्ति–जो तत्वों में रुचिरूप सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, इहलोक और परलोक की आकांक्षा से रहित हैं, शुक्ल लेश्यामय निर्मल परिणामवाले हैं ऐसे जीव संन्यास विधि से मरते हैं अत: उन्हें बोधि की प्राप्ति सुलभ ही है। यद्यपि पूर्व की गाथा से ही बोधि के महत्त्व का अर्थबोध हो जाता है फिर भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय से समझने वाले शिष्यों का संग्रह करने के लिए, दोनों प्रकार के शिष्यों को समझाने के लिए यहाँ पहले व्यतिरेक मुख से, पुन: अन्वय मुख से, ऐसी दो गाथाओं से बोधि का व्याख्यान किया है। तथा एकान्त मत का निराकरण करने के लिए भी यह दोनों प्रकार का कथन है ऐसा समझना चाहिए।
भावार्थ–कुछेक का कहना है कि केवल अन्वय मुख से अर्थात् अपने विषय को बतलाते हुए ही कथन करना चाहिए तथा कुछेक का कथन है कि व्यतिरेक मुख से अर्थात् पर के निषेध रूप से अथवा वस्तु के दोष प्रतिपादनरूप से ही वस्तु का कथन करना चाहिए। किन्तु जैनाचार्य इन दोनों बातों को महत्व देते हुए अनेकान्त की पुष्टि करते हैं। इसलिए पहले बोधि की दुर्लभता के कारणों को बताकर पुन: अगली गाथा से बोधि की सुलभता के कारणों को बताया है, ऐसा समझना।
अब आचार्य संसार के कारण का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–जो पुन: गुरु के प्रतिकूल हैं, मोह की बहुलता से सहित हैं, शबल–अतिचार सहित चारित्र पालते हैं, कुत्सित आचरण वाले हैं वे असमाधि से मरण करते हैं और अनन्त संंसारी हो जाते हैं।।७१।।
जे पुण-ये पुन:। गुरुपडिणीया-गुरूणां प्रत्यनीका: प्रतिकूला: गुरुप्रत्यनीका:। बहुमोहा-मोहप्रचुरा: रागद्वेषाभिहता:। ससबला-सह शबलेन लेपेन वर्तन्ते इति सशबला: कुत्सिताचरणा:। कुसीला य-कुशीला: कुत्सितं शीलं व्रतपरिरक्षणं येषां ते कुशीलाश्च। असमाहिणा-असमाधिना मिथ्यात्वसमन्वितार्त्तरौद्रपरिणामेन। मरंते-म्रियन्ते। ते-ते। होंति-भवन्ति ते एवं विशिष्टा:। अणंतसंसारा-अनन्तसंसारा अर्धपुद्गलप्रमाणसंसृतय:। ये पुन: गुरुप्रतिकूला:, बहुमोहा: कुशीलास्तेऽसमाधिना म्रियन्ते ततश्चानन्तसंसारा भवन्तीति।
अथ परीतसंसारा: कथं भवन्तीति चेदत: प्राह-
जिणवयणे अणुरत्ता गुरुवयणं जे करंति भावेण।
असबल असंकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारा।।७२।।
आचारवृत्ति–जो साधु गुरुओं की आज्ञा नहीं पालते हैं, मोह की प्रचुरता से सहित राग–द्वेष से पीड़ित हो रहें हैं, शबल–लेप सहित अर्थात् कुत्सित आचरण वाले हैं तथा व्रतों की रक्षा करने वाले जो शील है उन्हें भी कुत्सितरूप से जो पालते हैं, वे मिथ्यात्व से सहित हो आर्त एवं रौद्रध्यानरूप असमाधि से मरण करके अनन्त नाम वाले अर्धपुद्गल प्रमाण काल तक संसार में ही भटकते रहते हैं।
अब परीत संसारी वैâसे होते हैं, ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–जो जिनेन्द्र देव के वचनों में अनुरागी हैं, भाव से गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं, शबल–मिथ्यात्व परिणाम रहित हैं तथा संक्लेश भाव रहित हैं वे संसार का अंत करने वाले होते हैं।।७२।।
जिणवयणे-जिनस्य वचनमागम: तस्मिन्नर्हत्प्रवचने। अणुरत्ता-अनुरक्ता: सुष्ठु भक्ता:। गुरुवयणं-गुरुवचनमादेशं, जे करंति-ये कुर्वंति, भावेण-भावेन भक्त्या मंत्रतंत्रशास्त्रानाकांक्षया। असबल-अशवला मिथ्यात्वरहिता:। असंकिलिट्ठा-असंक्लिष्टा: शुद्धपरिणामा:। ते होंति-ते भवंति। परित्तसंसारा-परीत: परित्यक्त: परिमितो वा संसार: चतुर्गतिगमनं येषां यैर्वा ते परीतसंसारा: परित्यक्तसंसृतयो वा। जिनप्रवचने येऽनुरक्ता: गुरुवचनं च भावेन कुर्वन्ति, अशबला:, असंक्लिष्टा: सन्तस्ते परित्यक्तसंसारा भवन्तीति।
यदि जिनवचनेऽनुरागो न स्यादत: किं स्यादत: प्राह-
बालमरणाणि बहुसो बहुयाणि अकामयाणि मरणाणि।
मरिहंति ते वराया जे जिणवयणं ण जाणंति।।७३।।
आचारवृत्ति–जो अर्हन्त देव के प्रवचनरूप आगम के अच्छी तरह भक्त हैं, मन्त्र–तन्त्र की या शास्त्रों की आकांक्षा से रहित होकर भक्तिपूर्वक गुरुओं के आदेश का पालन करते हैं, मिथ्यात्व भाव रहित हैं और शुद्ध–परिणामी हैं वे चतुर्गति में गमनरूप संसार को परिमित करने वाले अथवा संसार को समाप्त करने वाले हो जाते हैं।
यदि जिनवचन में अनुराग नहीं होगा तो क्या होगा ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–जो जिनवचन को नहीं जानते हैं वे बेचारे अनेक बार बालमरण करते हुए अनेक प्रकार के अनिच्छित मरणों से मरण करते रहेंगे।।७३।।
बालमरणाणि-बालानामतत्त्वरुचीनां मरणानि शरीरत्यागा बालमरणानि। बहुसो-बहुश: बहूनि बहुप्रकाराणि वा। बहुआणि-बहुकानि प्रचुराणि। अकामयाणि-अकामकृतानि अनभिप्रेतानि। मरणाणि-मृत्यून्। मरिहंति-मरिष्यन्ति मृत्युं प्राप्स्यन्तीत्यर्थ:। ते वराया-त एवंभूता वराका अनाथा:। जे जिणवयणं-ये जिनवचनं सर्वज्ञागमं। ण जाणंति-न जानन्ति नावबुध्यंते। ये जिनवचनं न जानन्ति ते वराका बालमरणानि बहुप्रकाराणि अकामकृतानि च बहूनि मरणानि प्राप्स्यन्तीति।
अथ कानि तानि बालमरणानीत्यत आह-
सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसो य।
अणयारभंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणि।।७४।।
आचारवृत्ति–जो सर्वज्ञ देव के आगम को नहीं जानते हैं वे बेचारे अनाथ प्राणी, जो अपने लिए अभिप्रेत अर्थात् इष्ट नहीं हैं ऐसे, अनेक प्रकार के मरण से बार–बार मरते रहते हैं।
भावार्थ–यहाँ बालमरण से विवक्षा बालबालमरण की है जो कि मिथ्यादृष्टि जीवों के होता है क्योंकि ऊपर गाथा ५९ में बालमरण का लक्षण करते हुए टीकाकार ने असंयतसम्यग्दृष्टि के मरण को कहा है। तथा अन्य ग्रन्थों में भी बालबालमरण करने वाले मिथ्यादृष्टि माने गयें हैं। उन्हीं का यहाँ कथन समझना चाहिए।
वे बालमरण कितने तरह के हैं ? उत्तर में कहते हैं–
गाथार्थ–शस्त्रों के घात से मरना, विष भक्षण करना, अग्नि में जल जाना, जल में प्रवेश कर मरना और पापक्रियामय द्रव्य का सेवन करके मरना, ये मरण–जन्म और मृत्यु की परम्परा को करने वाला है।।७४।।
सत्थग्गहणं-शस्त्रेणात्मनो ग्रहणं मारणं शस्त्रग्रहणं। शस्त्रग्रहणादुत्पन्नं मरणमपि शस्त्रग्रहणं कार्ये कारणोपचारात्। विसभक्खणं-विषस्य मारणात्मकद्रव्यस्य भक्षणमुपयुंजनं विषभक्षणं तथैव सम्बन्ध: कर्तव्य:। च-समुच्चयार्थ:। जलणं-ज्वलनादग्नेरुत्पन्नं ज्वलनं। जलप्पवेसो य-जले पानीये प्रवेशो निमज्जनं निरुच्छ्वासं जलप्रवेशश्च तस्माज्जातं स एव वा मरणं। अणयारभण्डसेवी-अनाचारभांडसेवी न आचारोऽनाचार: पापक्रिया स एव भांडं द्रव्यं तत्सेवत इत्यनाचारभांडसेवी मरणेन सम्बन्ध:। अथवा पुरुषेण सम्बन्ध: अनाचारभांडसेवी तस्य। जम्मणमरणाणुबंधीणि-जन्म उत्पत्ति:, मरणं मृत्युस्तयोरनु-बन्ध: सन्तान: स येषां विद्यते तानि जन्ममरणानुबन्धीनि संसारकारणानीत्यर्थ:। एतानि मरणानि जन्ममरणानुबन्धीनि अनाचारभांडसेवीनि यतोऽतो बालमरणानिति। अथवा अनाचारसेवीनि एतानि मरणानि संसारकारणानीति न सदाचारस्य।
एवं श्रुत्वा क्षपक: संवेगनिर्वेदपरायण एवं चिन्तयति-
उड्ढमधो तिरियह्मि दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि।
दंसणणाणसहगदो पंडियमरणं अणुमरिस्से।।७५।।
आचारवृत्ति–जो शस्त्र से अपना मरण स्वयं करते हैं या किसी के द्वारा तलवार आदि से जिनका मरण हो जाता है, यहाँ ‘शस्त्र ग्रहण’ शब्द से स्वयं शस्त्र से आत्मघात करना या शस्त्र के द्वारा मारा जाना दोनों विवक्षित हैं अत: यहाँ पर कार्य में कारण का उपचार किया गया है। विष अर्थात् मरण कराने वाली वस्तु का भक्षण कर लेना, अग्नि में जल कर मरना, जल में प्रवेश कर उच्छ्वास के रुक जाने से प्राणों का त्याग करना, अनाचार–पापक्रिया वही हुआ, भांड-द्रव्य उसका सेवन करके मरना अर्थात् पाप–प्रवृत्ति करके मरना। अथवा पापी जीवों का जो मरण है वह अनाचार भांडसेवी मरण है। ये मरण जन्म–मरण की परम्परा को करने वाले हैं अर्थात् संसार के लिए कारणभूत हैं। तात्पर्य यह हुआ कि ये सभी मरण संसार के कारण हैं और पाप क्रियारूप हैं अत: ये बालमरण कहलाते हैं। अथवा अनाचार सेवन करनेरूप ये मरण संसार के ही हेतु हैं। ये सदाचारी जीव के नहीं होते हैं। यहाँ पर भी बालमरण शब्द से बालबालमरण को ही ग्रहण करना चाहिए जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है।
यह सुनकर क्षपक संवेग और निर्वेद में तत्पर होता हुआ ऐसा चिंतवन करता है–
गाथार्थ–ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में मैंने बहुत बार बालमरण किये हैं। अब मैं दर्शन और ज्ञान से सहित होता हुआ पण्डितमरण से मरूँगा।।७५।।
उड्ढं-ऊर्ध्वं ऊर्ध्वलोके। अधो-अधसि अधोलोके नरकभवनव्यन्तरज्योतिष्ककल्पे। तिरियंहि दु-तिर्यक्षु च एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्तजातिषु। कदाणि-कृतानि प्राप्तानि बालमरणानि। बहुगाणि-बहूनि। दंसणणाणसहं-दर्शनज्ञानाभ्यां सार्धं, गदो-गत: प्राप्त:। पंडियमरणं-पण्डितमरणं शुद्धपरिणामचारित्रपूर्वकप्राणत्यागं। अणुमरिस्से-अनुमरिष्यामि संन्यासं करिष्यामि। ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्षु च बहूनि बालमरणानि यतो मया प्राप्तानि, अतो दर्शनज्ञानाभ्यां सार्धं पण्डितमरणं गतोऽहं मरिष्यामीति।
एतानि चाकामकृतानि मरणानि स्मरन् पण्डितमरणमनुमरिष्यामीत्यत आह-
उव्वेयमरणं जादीमरणं णिरएसु वेदणाओ य।
एदाणि संभरंतो पंडियमरणं अणुमरिस्से।।७६।।
आचारवृत्ति–ऊर्ध्वलोक में–स्वर्गलोक में तथा अधोलोक में–नरकों में, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में तथा तिर्यग्लोक में–एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जातियों में मैंने बहुत से बालमरण (बालबालमरण) किये हैं, अब मैं दर्शन और ज्ञान के साथ एकता को प्राप्त होता हुआ पण्डितमरण से मरूँगा। अर्थात् संन्यास विधि से शुद्ध परिणामरूप चारित्रपूर्वक प्राणों का त्याग करूँगा।
तात्पर्य यह है कि मैंने तीनों लोकों में अनन्त बार बालबालमरण किये हैं उनसे जन्म परम्परा बढ़ती ही गई है अत: अब मैं बालमरण से होने वाली हानि को सुनकर धर्म में प्रीति तथा शरीरादि से विरक्ति धारण करता हुआ पण्डितमरण को प्राप्त करूँगा।
पुनरपि इन अनभितप्रेत, जो अपने को इष्ट नहीं, ऐसे मरणों का स्मरण करता हुआ क्षपक ‘ मैं पण्डितमरण से मरूँगा’ ऐसा विचार करता है–
गाथार्थ–उद्वेगपूर्वक मरण, जन्मते ही मरण और जो नरकों की वेदनाएँ हैं इन सबका स्मरण करते हुए अब मैं पण्डितमरण से प्राण त्याग करूँगा।।७६।।
उव्वेयमरणं-उद्वेगमरणं इष्टवियोगानिष्टसंयोगाभ्यां त्रासेन वा मरणं। जादीमरणं-जातिमरणं उत्पन्नमात्रस्य मृत्युर्गर्भस्थस्य वा। णिरएसु-नरकेषु। वेदणाओ य-वेदनाश्च पीडाश्च। एदाणि-एतानि। संभरंतो-संस्मरन्। पंडिदमरणं-पण्डितमरणं। अणुमरिस्से-अनुमरिष्यामि प्राणत्यागं करिष्यामि। एतानि उद्वेगजातिमरणानि नरकेषु वेदनाश्च संस्मरन् पण्डितमरणं प्राप्त: सन् प्राणत्यागं करिष्यामि।
किमर्थं पंडितमरणं मरणेषु शुभतमं यत:-
एिक्कं पंडिदमरणं िंछददि जादीसयाणि बहुगाणि।
तं मरणं मरिदव्वं जेण मदं सुम्मदं होदि।।७७।।
आचारवृत्ति–इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग के दु:ख से जो मरण होता है अथवा अन्य किसी त्रास से जो मरण होता है उसको उद्वेगमरण कहते हैं। जन्म लेते ही मर जाना या गर्भ में ही मर जाना ये जातिमरण है। तथा नरकों में नारकियों को अनेक वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं। इन मरणों से होने वाले दु:खों का स्मरण करते हुए अब मैं पण्डितमरणपूर्वक ही शरीर को छोड़ूँगा।
भावार्थ–पुत्र, मित्र आदि के मर जाने पर अथवा अनिष्टकर शत्रु या दु:खदायी बन्धु आदि के मिलने पर लोग संक्लेश परिणाम से प्राण छोड़ देते हैं। या अपघात भी कर डालते हैं। इन सभी कुमरणों से दुर्गति में जाकर अथवा नरक गति में जाकर नाना दु:खों को चिरकाल तक भोगते हैं। इन सभी तरह के क्लेश को मैंने भी स्वयं अनन्त बार भोगा है इसलिए अब इन दु:खों का स्मरण कर, उनसे डरकर मैं सल्लेखनापूर्वक ही मरण करना चाहता हूँ ऐसा क्षपक विचार करता है।
मरणों में पण्डितमरण ही किसलिए अधिक शुभ है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–एक पण्डितमरण सौ–सौ जन्मों का नाश कर देता है अत: ऐसे ही मरण से मरना चाहिए कि जिससे मरण सुमरण हो जावे।।७७।।
एक्कं-एकं। पंडिदमरणं-पंडितमरणं। छिंददि-छिनत्ति। जादीसयाणि-जातिशतानि। बहुगाणि-बहूनि। तं-तत् तेन वा। मरणं-शरीरेन्द्रिययोर्वियोग:। मरिदव्वं-मर्तव्यं मरणं प्राप्तव्यं। जेण-येन। मदं-मृतं। सुम्मदं-सुष्ठुमृतं। होदि-भवति। एकं पण्डितमरणं जातिशतानि बहूनि छिनत्ति यतोऽतस्तेन मरणेन मर्तव्यं येन पुनरुत्पत्तिर्न भवति तद्वानुष्ठातव्यं येन न पुनर्जन्म। किमुक्तं भवति–पंडितमरणमनुष्ठेयमिति।।७७।।
यदि संन्यासे पीडा-क्षुधादिकोत्पद्यते तत: किं कर्तव्यमित्याह-
जइ उप्पज्जइ दु:खं तो दट्ठव्वो सभावदो णिरये।
कदमं मए ण पत्तं संसारे संसरंतेण।।७८।।
आचारवृत्ति–एक बार किया गया पण्डितमरण बहुत बार के सैंकड़ों जन्मों को नष्ट कर देता है। शरीर और इन्द्रियों का वियोग हो जाना जीव का मरण है इसलिए ऐसे मरण से मरना चाहिए कि जिससे यह मरण अच्छा मरण हो जावे अर्थात् ऐसी सल्लेखना विधि से मरण करे कि जिससे पुन: जन्म ही ना लेना पड़े। अथवा ऐसे मरण का अनुष्ठान करना चाहिए जिसके बाद पुन: मरण ही न करना पड़े।
इससे क्या तात्पर्य निकला ? मैं अब पण्डितमरण नामक सल्लेखना विधि से मरण करूँगा, क्षपक ऐसा दृढ़ निश्चय करता है।
यदि संन्यास के समय भूख, प्यास आदि पीड़ाएँ उत्पन्न हो जावें तो क्या करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–यदि उस समय दु:ख उत्पन्न हो जावे तो नरक के स्वभाव को देखना चाहिए। संसार में संसरण करते हुए मैंने कौन–सा दु:ख नहीं प्राप्त किया है।।७८।।
जइ-यदि। उप्पज्जइ-उत्पद्यते। दुक्खं-दु:खमसातं। तो-तत:। दट्ठव्वो-द्रष्टव्यो मनसा-लोकनीय:। सभावदो-स्वभावत: स्वरूपं ‘‘दृश्यतेऽन्यत्रापि’’ इति तस्, प्राकृतबलादक्षराधिक्यं वा। णिरए-नरकस्य नरके वा। कदमं-कियदिदं कतमत्। मए-मया। ण पत्तं-न प्राप्तं। अथवा अणं ऋणं कृतं मया यत्तन्मयैव२ प्राप्त। संसारे-जातिजरामरणलक्षणे। संसरंतेण-संसरता परिभ्रमता। संन्यासकाले यदुत्पद्यते क्षुधादि दु:खं ततो नरकस्य स्वभावो द्रष्टव्यो यत: संसारे संसरता मया किमिदं न प्राप्तं यावता हि प्राप्तमेवेति चिन्तनीयमिति।।७९।।
यथा प्राप्तं तथैव प्रतिपादयति-
संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेवि पुग्गला बहुसो।
आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती।।७९।।
आचारवृत्ति–यदि असातावेदनीय के निमित्त से दु:ख उत्पन्न होता है तो स्वभाव से नरक में देखना चाहिए अर्थात् नरक के स्वरूप का मन से अवलोकन करना चाहिए । यहाँ ‘स्वभावत:’ में तस् प्रत्यय है सो ‘दृश्यतेऽन्यापि’ इस नियम से पंचमी अर्थ में नहीं, किन्तु वहाँ द्वितीया विभक्तिरूप अर्थ निकल आता है अथवा प्राकृत व्याकरण के नियम से यहाँ अक्षर की अधिकता होते हुए भी ‘स्वभाव ’ ऐसा अर्थ निकलता है। अर्थात् ऐसा सोचना चाहिए कि मैंने नरक आदि गतियों में कौन–सा दु:ख नहीं प्राप्त किया है। अथवा गाथा के ‘मए ण’ पद को मए अण संधि निकालकर अण का ऋण करके ऐसा समझना चाहिए कि मैंने जो ऋण अर्थात् कर्जा किया था वही तो मैं प्राप्त कर रहा हूँ अर्थात् इस जन्म–मरण और वृद्धावस्थामय संसार में परिभ्रमण करते हुए जो मैंने ऋण रूप में कर्म संचित किये हैं उनका फल मुझे ही भोगना पड़ेगा, उस कर्जे को तो पूरा करना, चुकाना ही पड़ेगा।
तात्पर्य यह है कि सल्लेखना के समय यदि भूख, प्यास आदि वेदनाएँ उत्पन्न होती हैं तो उस समय नरकों के दु:खों के विषय में विचार करना चाहिए जिससे उन वेदनाओं में धैर्यच्युत नहीं होता है। ऐसा सोचना चाहिए कि अनादि संसार में भ्रमण करते हुए मैंने क्या यह दु:ख नहीं पाया है ? अर्थात् इन बहुत प्रकार के अनेक–अनेक दु:खों को मैंने कई-कई बार प्राप्त किया ही है। अब इस समय धैर्य से सहन कर लेना ही उचित है।
जिस प्रकार से प्राप्त किया है उसी का प्रतिपादन करते हैं–
गाथार्थ–इस संसाररूपी भंवर में मैंने सभी पुद्गलों को अनेक बार ग्रहण किया है और उन्हें आहार आदिरूप परिणमाया भी है किन्तु उनसे मेरी तृप्ति नहीं हुई है।। ७९।।
संसारचक्कवालम्मि-संसारचक्रवाले चतुर्गतिजन्मजरामरणावर्ते। मए-मया। सव्वेवि-सर्वेऽपि। पुग्गला-पुद्गला दधिखंडगुडौदननीरादिका। बहुसो-बहुश: बहुवारान् अनंतवारान्। आहारिदा य-आहृता गृहीता भक्षिताश्च। परिणामिदा य-परिणामिताश्च जीर्णाश्च खलरसस्वरूपेण गमिता इत्यर्थ:। ण य मे-न च मम। गदातित्ती-गता तृप्ति: सन्तोषो न जात:, प्रत्युत आकांक्षा जाता। संसारचक्रवाले सर्वेऽपि पुद्गला बहुश: आहृता: परिणामिताश्च मया न च मम गता तृप्तिरिति चिन्तनीयम्।
कथं न गता तृप्तिर्यथा-
तिणकट्ठेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेिंह।
ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदुं कामभोगेिंह।।८०।।
आचारवृत्ति–चतुर्गति के जन्म–मरणरूप आवर्त अर्थात् भँवर में मैंने दही, खाण्ड, गुड़, भात, जल आदिरूप सभी पुद्गल वर्गणाओं को अनन्त बार ग्रहण किया है, उनका आहाररूप से भक्षण किया है और खलभाग रसभागरूप से परिणमाया भी है अर्थात् उन्हें जीर्ण भी किया है, किन्तु आज तक उनसे मुझे तृप्ति नहीं हुई, प्रत्युत आकांक्षाएँ बढ़ती ही गयी हैं, ऐसा विचार करना चाहिए।
क्यों नहीं तृप्ति हुई ? उसी को दिखाते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–तृण और काठ से अग्नि के समान तथा सहस्रों नदियों से लवण–समुद्र के समान इस जीव को काम और भोगों से तृप्त करना शक्य नहीं है।। ८०।।
तिणकट्ठेण व-तृणकाष्ठैरिव। अग्गी-अग्नि:। लवणसमुद्दो-लवणसमुद्र:। णदीसहस्सेिंह-नदीसहस्रै श्चतुर्दशभि: सहस्रैर्द्विगुणद्विगुणैर्नदीनां समन्विताभिर्गंगािंसध्वादिचतुर्दशनदीभि: सागरो न पूर्ण:। ण इमो जीवो-नायं जीव:। सक्को-शक्य:। तिप्पेउं-तृप्तुं प्रीणयितुं। कामभोगेिंह-कामभोगै:, ईप्सितसुखाङ्गैराहारस्त्रीवस्त्रादिभि:। यथा अग्नि: तृणकाष्ठै:, लवणसमुद्रश्च नदीसहस्रै: प्रीणयितुं न शक्य: तथा जीवोऽपि कामभोगैरिति।।८०।।
किं परिणाममात्राद्बन्धो भवति ? भवतीत्याह-
कंखिदकलुसिदभूदो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो।
अभुंजंतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्भइ।।८१।।
आचारवृत्ति–जैसे अग्नि तृण और लकड़ियों के समूह से तृप्त नहीं होती है अर्थात् बुझ नहीं सकती है प्रत्युत बढ़ती जाती है। जैसे हजारों नदियों से लवण समुद्र तृप्त नहीं होता अर्थात् गंगा-सिंधु की तो परिवार नदियाँ चौदह-चौदह हजार हैं, आगे-आगे रोहित-रोहितास्या आदि चौदह नदियों में दूनी-दूनी (तथा आधी- आधी ) परिवार नदियों के समुदाय से सभी की सभी नदियाँ लवण समुद्र में हमेशा प्रवेश करती ही रहती हैं, फिर भी आज तक वह तृप्त नहीं हुआ। उसी प्रकार से इच्छित सुख के साधनभूत आहार, स्त्री, वस्त्र आदि काम-भोगों से इस जीव को तृप्त करना, संतुष्ट करना शक्य नहीं है।
विशेषार्थ–पंचेन्द्रिय विषयों के उपभोग से तृप्ति की बात तो बहुत दूर है, प्रत्युत इच्छाएँ उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती हैं, ऐसा समझें।
क्या परिणाममात्र से भी बन्ध हो सकता है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–आकांक्षा और कलुषता से सहित हुआ यह जीव काम और भोगों में मूचर््िछत होता हुआ, भोगों को नहीं भोगता हुआ भी, परिणाममात्र से कर्मों द्वारा बन्ध को प्रप्त होता है।।८१।।
णिबंधदि इति वा पाठान्तरम्। कंखिद-कांक्षित: कांक्षास्य संजाता तां करोतीति वा कांक्षित:। कलुसिद-कलुषित: रागद्वेषाद्युपहत:। भूदो-भूत: सन् । कामभोगेसु-कामभोगेषु। मुच्छिदो-मूर्च्छित:। संतो-सन् । अभुंजंतो वि य-अभुञ्जानोऽपि च असेवमानोऽपि च। भोगे-भोगान् सांसारिकसुखहेतून्। परिणामेण-परिणामेन चित्तव्यापारेण। णिवज्झेइ-निबध्यते कर्मणा परवश: क्रियते, कर्म वा बध्नाति। कामभोगेषु मूर्च्छित: सन् कांक्षित: कलुषीभूतश्च भोगानुभुंजानोऽपि जीव: परिणामेन कर्म बध्नाति बध्यते वा कर्मणेति।।८१।।
किमिच्छामात्रेणाभुंजानस्यापि पापं भवतीत्याह-
आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तिंम पुढिंव।
सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदुं।।८२।।
आचारवृत्ति–कहीं पर ‘णिवज्झेइ’ की जगह ‘णिवन्धदि’ ऐसा भी पाठान्तर है। कांक्षा जिसको होती है अथवा जो कांक्षा करता है, वह कांक्षित है। रागद्वेष आदि भावों से सहित जीव कलुषित है तथा नाना विषयों की इच्छा करता हुआ रागद्वेष युक्त यह जीव काम और भोगों से मुर्छित होता हुआ, अत्यधिक आसक्त होता हुआ, सांसारिक सुख के कारणभूत भोगों का सेवन नहीं करते हुए भी मन के व्यापार से, भावमात्र से, कर्मों से बन्ध जाता है अर्थात् कर्मों के द्वारा परवश कर दिया जाता है अथवा यह जीव कर्मों को बाँध लेता है अर्थात् नाना प्रकार की इच्छाओं को करता हुआ जीव भोगों को बिना भोगे भी कर्मों का बन्ध करता रहता है।
क्या इच्छामात्र से बिना भोगते हुए भी पाप होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–आहार के निमित्त से ही नियम से मत्स्य सातवीं पृथ्वी में चले जाते है इसलिए सचित्र आहार को मन से भी चाहना ठीक नहीं है।।८२।।
आहारणिमित्तं-आहारकारणात्। किर-किल आगमे कथितं नारुचिवचनमेतत् निश्चयवचनमेव। मच्छा-मत्स्या:। गच्छंति-यान्ति प्रविशन्ति। सत्तिंम-सप्तमीं। पुढिंव-पृथिवीं अवधिस्थानं। सच्चित्तो-सह चित्तेन वर्तत इति सचित्त: सावद्योऽयोग्य: प्राणिघातादुत्पन्न:। आहारो-भोजनं। ण कप्पदि-न कल्पते न योग्यो भवति। मणसावि-मनसापि चित्तव्यापारेणापि। पत्थेदुं-प्रार्थयितुं याचयितुं। आहारनिमित्तं मत्स्या: शालिसिक्थादयो निश्चयेन सप्तमीं पृथिवीं गच्छंति यतोऽतो मनसापि प्रार्थयितुं सावद्याहारो न कल्पते इति।।८२।।
यतो मनसापि सावद्याहारो न योग्योऽतो भवान् शुद्ध-परिणामं कुर्यादित्याचार्य: प्राह-
पुव्वं कदपरियम्मो अणिदाणो ईहिदूण मदिबुद्धी।
पच्छा मलिदकसाओ सज्जो मरणं पडिच्छाहि।।८३।।
आचारवृत्ति–यहाँ किल शब्द से ऐसा अर्थ समझना कि आगम में कहा गया यह अरुचि–अश्रद्धा-रूप कथन नहीं हैं अर्थात् किल का अर्थ यहाँ निश्चय को ही कहने वाला है। आहार के कारण से अर्थात् आहार की इच्छामात्र से मत्स्य निश्चय से ही सातवें नरक चले जाते हैं। जो चित्त अर्थात् जीव सहित है वह सचित्त है। अर्थात् सावद्य-सदोष-अयोग्य आहार, जो कि प्राणियों की हिंसा से उत्पन्न हुआ है, अधःकर्म से उत्पन्न हुआ आहार है। हे साधो ! ऐसा आहार तुम्हें मन से भी चाहना योग्य नहीं है।
तात्पर्य यह है कि स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कर्ण में तन्दुलमत्स्य होते हैं जो कि तन्दुल के समान ही लघु शरीरवाले हैं किन्तु उनमें भी वङ्कावृषभनाराच संहनन होता है। वे मत्स्य आदि जन्तु महामत्स्य के मुख में प्रवेश करते हुए और निकलते हुए तमाम जीवों को देखते हैं तो सोचते रहते हैं कि यदि मेरा बड़ा शरीर होता तो मैं इन सबको खा लेता, एक को भी नहीं छोड़ता, किन्तु वे खा नहीं पाते हैं। तथापि इस भावना मात्र से पापबन्ध करते हुए वे जीव भी सातवें नरक में चले जाते हैं। इसलिए साधुओं को मन से भी, आगम में कहे गये दोषों सहित अर्थात् सदोष आहार ग्रहण करना युक्त नहीं हैं।
जिस कारण मन से भी सावद्य आहार ग्रहण करना योग्य नहीं है, इसलिए हे क्षपक! शुद्ध परिणाम करो। ऐसा आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के द्वारा चेष्टा करके निदान रहित होते हुए हे साधो ! पहले तप का अनुष्ठान करके, अनन्तर कषायों का मथन करके इस समय मरण की प्रतीक्षा करो।।८३।।
पुव्वं कदपरियम्मो-पूर्वं प्रथमतरं कृतमनुष्ठितं परिकर्म तपोऽनुष्ठानं येनासौ पूर्वकृतपरिकर्मा आदावनुष्ठिततपश्चरण:। अणिदाणो-अनिदान इहलोकपरलोकसुखानाकांक्ष:। ईहिदूण-ईहित्वा चेष्टित्वा उद्योगं कृत्वा। मदिबुद्धी-मतिबुद्धिभ्यां प्रत्यक्षानुमानाभ्यां परोक्षप्रत्यक्षसम्पन्न:। पच्छा-पश्चात्। मलियकसाओ-मथितकषाय: क्षमासम्पन्न:। सज्जो- सद्य: तत्पर: कृतकृत्यो वा। मरणं-समाधिमृत्युं स्वाध्यायमरणं वा। पडिच्छाहि-प्रतीच्छानुतिष्ठ। विपरिणामान्नरकं गम्यते यतोऽत: प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाणाभ्यामागमे निश्चयं कृत्वा पूर्वकृतपरिकर्मानिदानश्च सन् मथितकषायश्च सन् सद्य: मरणं प्रतीच्छेति।।८३।।
पुनरपि शिक्षां ददाति-
हंदि चिरभाविदावि य जे पुरुसा मरणदेसयालम्मि।
पुव्वकदकम्मगरुयत्तणेण पच्छा परिबडंति।।८४।।
आचारवृत्ति–मति और बुद्धि अर्थात् प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण के ज्ञान से सम्पन्न हुआ साधु चेष्टा करके, उद्योग–पुरुषार्थ करके सबसे पहले परिकर्म–तप का अनुष्ठान कर लेता है, वह इहलोक और परलोक के सुखों की अभिलाषारूप निदान को नहीं करता है। पश्चात् वही साधु कषायों का मथन करके क्षमा गुण से सम्पन्न हो जाता है। वह सद्यः समाधि में तत्पर हो जाता है अथवा कृतकृत्य हो जाता है। ऐसे साधु को आचार्य कहते हैं कि हे क्षपक! अब तुम समाधिमरण अथवा स्वाध्यायमरण का अनुष्ठान करो। यहाँ स्वाध्याय मरण से अपने अध्ययन, चिन्तन-स्मरण करते हुए मरण करना ऐसा अर्थ है। तात्पर्य यह हुआ कि पूर्व में कहे हुए कन्दर्प आदि भावनारूप या सदोष आहार की इच्छारूप विपरीत परिणाम से जीव नरक में चला जाता है इसलिए प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण द्वारा आगम में जो कहा गया है उसका निश्चय करके पहले तपश्चरण का अनुष्ठान करो। पुनः निदान भाव रहित होते हुए तथा कषायों का त्याग करते हुए तुम इस समय कृतकृत्य होकर समाधिमरण का अनुष्ठान करो।
आचार्य पुनरपि शिक्षा देते हैं–
गाथार्थ–जिन्होंने चिरकाल तक अभ्यास किया है ऐसे पुरुष भी मरण के देश-काल में पूर्व में किये गये कर्मों के भार से पुनः च्युत हो जाते हैं, ऐसा तुम जानो।।८४।।
हंदि-जानीहि–सामान्यमरणं वा। चिरभाविदावि य-चिरभाविता अपि देशोनपूर्वकोटि कृताचरणा अपि। जे-यस्त्वं वा पुरुषै: सह सम्बन्धाभावात्। पुरिसा-पुरुषा मनुष्या:। मरणदेशयालम्मि-मरणकाले मरणदेशे वा अथवा मरणकाल एवानेनाभिधीयते। पुव्वकदकम्मगरुयत्तणेण-पूर्वस्मिन् कृतं कर्मं पूर्वकृतकर्म तेन गुरुकं तस्य भाव: पूर्वकृतकर्मगुरुकत्वं तेनान्यस्मिन्नर्जित-पापकर्मणा। पच्छा-पश्चात्। परिवडंति–प्रतिपतन्ति रत्नत्रयात् पृथग्भवन्ति यत:।।८४।।
तह्मा चंदयवेज्भस्स कारणेण उज्जदेण पुरिसेण।
जीवो अविरहिदगुणो कादव्वो मोक्खमग्गम्मि।।८५।।
आचारवृत्ति–जिन्होेंंने चिरकाल तक तपश्चरण आदि का अभ्यास किया है अर्थात् कुछ कम एक कोटि वर्ष पूर्व तक जिन्होंने रत्नत्रय का पालन किया है ऐसे पुरुष भी मरण के समय अथवा मरण के देश में अथवा यहाँ इस ‘मरणदेश काले’ पद का मरणकाल ही अर्थ लेना चाहिए। अर्थात् ऐसे पुरुष भी सल्लेखना के समय पूर्वकृत पापकर्म के तीव्र उदय से रत्नत्रय से पृथक् हो जाते हैं, च्युत हो जाते हैं। हे क्षपक! ऐसा तुम समझो।
गाथार्थ–इसलिए चन्द्रकवेध्य के कारण उद्यत पुरुष के समान आत्मा को मोक्षमार्ग में गुण–सहित करना चाहिए।।८५।।
तम्हा-तस्मात्। चंदयवेज्झस्स-चंद्रकवेध्यस्य। कारणेन-निमित्तेन। उज्जदेण-उद्यतेन उपर्युक्तेन। पुरिसेण-पुरुषेण। जीवो-जीव: आत्मा। अविरहिदगुणो-अविरहितगुणोऽविराधितपरिणाम:। कादव्वो-कर्तव्य:। मोक्खमग्गम्मि-मोक्षमार्गे सम्यक्त्व-ज्ञानचारित्रेषु। यतश्चिरभाविता अपि पुरुषा मरणदेशकाले पूर्वकृतकर्मगुरुकत्वेन पश्चात् प्रतिपतन्ति तस्मात् यथा चन्द्रक-वेध्यनिमित्तं जीवोऽविरहितगुण: क्रियते तथोद्यतेन पुरुषेणात्मा मोक्षमार्गे कर्तव्य इत्येवं जानीहि निश्चयं कुर्विति।।८५।।
चन्द्रकवेध्यनिमित्तं जीवेऽविरहितगुणे कृते किंकृतं तेन चन्द्रकवेध्यस्य कर्ताहं-
कणयलदा णागलदा विज्जुलदा तहेव कुदंलदा।
एदा विय तेण हदा मिथिलाणयरिए महिंदयत्तेण।।८६।।
सायरगो बल्लहगो कुलदत्तो वड्डमाणगो चेव।
दिवसेणिक्केण हदा मिहिलाए मिंहददत्तेण।।८७।।
मिथिलानगर्यां महेन्द्रदत्तेन एता: कनकलतानागलताविद्युल्लतास्तथा कुन्दलता चैकहेलया हता:। तथा तस्यां नगर्यां तेनैव महेन्द्रदत्तेन सागरक-वल्लभक-कुलदत्तक-वर्धमानका हतास्तस्मात् यतिना समाधिमरणे यत्न: कर्तव्य:। कथानिका चात्र व्याख्येया आगमोपदेशात् यत्नाभावे पुनर्यथा एतल्लोकानां भवति तथा यतीनामपि।।८६-८७।।
किं तत् ! इत्याह-
जहणिज्जावयरहिया णावाओ वररदण २सुपुण्णाओ।
पट्टणमासण्णाओ खु पमादमला णिबुड्डंति।।८८।।
आचारवृत्ति–इसलिए चन्द्रकवेध्य का वेध करने में उद्यत पुरुष के समान तुम्हें अपनी आत्मा के परिणामों की विराधना न करके उसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मोक्षमार्ग में स्थिर करना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि जिस कारण से चिरकाल से अभ्यास करने वाले भी पुरुष मरणकाल में पूर्व संचितकर्म के तीव्र उदय से रत्नत्रय से च्युत हो जाते हैं इसलिए जैसे चन्द्रकवेध्य के लिए जीव उस गुण में प्रवीण किया जाता है अथवा वह चन्द्रकवेध्य का निशाना बनाने के लिए गुण अर्थात् डोरी पर वाण को चढ़ाता है, पुनः निशाना लगाकर वेधन करता है उसी प्रकार उद्यमशील पुरुष को अपनी आत्मा मोक्षमार्ग में स्थिर करना चाहिए, ऐसा तुम जानो अर्थात् निश्चय करो।
चन्द्रकवेध्य के निमित्त जीव डोरी रहित न होने पर ‘मैं चन्द्रकवेध्य का करने वाला हूँ ऐसा समझकर उसने क्या किया ?
सो बताते हैं–
गाथार्थ–कनकलता, नागलता, विद्युल्लता और कुन्दलता–इन चारों को भी उस महेन्द्रदत्त ने मिथिलानगरी में मार दिया। सागरक , बल्लभक, कुलदत्त और वर्धमानक को भी एक ही दिन मिथिलानगरी में महेन्द्रदत्त ने मार डाला।।८६-८७।।
आचारवृत्ति–मिथिलानगरी में महेन्द्रदत्त ने कनकलता, नागलता, विद्युल्लता और कुन्दलता इनको एक लीलामात्र में मार डाला। तथा उसी नगरी में उसी महेन्द्रदत्त ने सागरक, बल्लभक, कुलदत्तक और वर्धमानक इनको भी मार डाला। इसलिए यतियों को समाधिमरण में प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ पर आगम के आधार से इन कथाओं का व्याख्यान करना चाहिए।
अभिप्राय यह हुआ कि जैसे सावधानी के बिना इन लोगों का मरण हो गया वैसे ही सावधानी के बिना यतियों का भी कुमरण हो जाता है।
विशेष–ये कथाएं आराधना कथाकोष आदि में उपलब्ध नहीं हो सकीं इसलिए इस विषय का स्पष्टीकरण समझ नहीं आया है। फिर भी इतना अभिप्राय अवश्य प्रतीत होता है कि ये सब मरण कुमरण हैं क्योंकि इनमें सावधानी नहीं है। ऐसे दृष्टान्तों के द्वारा आचार्य क्षपक को सावधान रहने का ही पुनः पुनः उपदेश दे रहे हैं।
वह सावधानी क्या है ? सो कहते हैं–
गाथार्थ–जैसे उत्तम रत्नों से भरी हुई नौकाएं नगर के समीप किनारे पर आकर भी , कर्णधार से रहित होने से प्रमाद के कारण डूब जाती हैं–ऐसे ही साधु के विषय में समझो।।८८।।
जह-यथा। णिज्जावयरहिया-निर्यापकरहिता: कर्णधारविरहिता:। णावाओ-नाव: पोतादिका:। वररदणसुपुण्णाओ-श्रेष्ठरत्नसुपूर्णा:। पट्टणमासण्णाओ-पत्तनमासन्ना वेलाकूलसमीपं प्राप्ता:। खु-स्फुटं। पमादमूला-प्रमाद: शैथिल्यं मूलं कारणं यासां ता: प्रमादमूला:। णिवुड्डंति-निमज्जन्ति विनाशमुपयांति। यथा नाव: पत्तनमासन्ना: कर्णधाररहिता: वररत्नसम्पूर्णा:, प्रमादकारणात् सागरे निमज्जन्ति तथा क्षपकनाव: सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नसम्पूर्णा: सिद्धिसमीपीभूतसंन्यासपत्तन-मासन्ना निर्यापकाचार्यरहिता प्रमादनिमित्तात् संसारसागरे निमज्जन्ति तस्माद्यत्न: कर्तव्य इति।।८८।।
कथं यत्न: क्रियते यावता हि तस्मिन् कालेऽभ्रावकाशादिकं न कर्तुं शक्यते इत्याह-
बाहिरजोगविरहिओ अब्भंतरजोगभकणमालीणो१।
जह तम्हि देसयाले अमूढसण्णो जहसु देहं।।८९।।
आचारवृत्ति–जैसे उत्तम–उत्तम रत्नों से भरे हुए जहाज आदि पत्तन अर्थात् समुद्रतट के समीप पहुंच भी रहे हैं, फिर भी यदि वे जहाज खेवटिया से रहित हैं अर्थात् उनका कोई कर्णधार नहीं है तो प्रमाद के कारण निश्चित ही वे समुद्र में डूब जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। वैसे ही क्षपकरूपी नौकाएं भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी रत्नों से परिपूर्ण हैं और सिद्धी के समीप में ही रहने वाला जो संन्यासरूपी पत्तन है उसके पास तक अर्थात् किनारे तक आ चुकी हैं, फिर भी निर्यापकाचार्य के बिना प्रमाद के निमित्त से वे क्षपकरूपी नौकाएं संसारसमुद्र में डूब जाती हैं, इसलिए सावधानी रखना चाहिए।
भावार्थ–जो सल्लेखना करने वाले साधु हैं वे क्षपक हैं और कराने वाले निर्यापकाचार्य हैं। एक साधु की सल्लेखना में अड़तालीस मुनियों की आवश्यकता मानी गयी है।
यहाँ पर इसी बात को स्पष्ट किया है कि निर्यापकाचार्य के बिना क्षपक को मरण काल में वेदना आदि के निमित्त से यदि किंचित् भी प्रमाद आ गया तो वह पुनः रत्नत्रय से च्युत होकर संसार में डूब जायेगा किन्तु यदि निर्यापकाचार्य कुशल हैं तो वे उसे सावधान करते रहेंगे।
अतः समाधि करने के इच्छुक साधु को प्रयत्नपूर्वक निर्यापकाचार्य की खोज करके उनका आश्रय लेना चाहिए तथा अंतिम समय तक पूर्ण सावधानी रखना चाहिए।
कैसे प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि उस काल में तो अभ्रावकाश आदि को करना शक्य नहीं है? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
गाथार्थ–बाह्य योगों से रहित भी अभ्यन्तर योगरूप ध्यान का आश्रय लेकर उस सल्लेखना के काल में जैसे–बने–वैसे संज्ञाओं में मोहित न होते हुए शरीर का त्याग करो।।८९।।
बाहिरजोगविरहिदो-बाह्याश्च ते योगाश्च बाह्ययोगा अभ्रावकाशादयस्तै विरहितो हीनो बाह्ययोगविरहित:। अब्भंतरजोगझाणमालीणो-अभ्यंतरयोगं अन्तरंगपरिणामं ध्यानं एकाग्रचिन्तानिरोधनं आलीन: प्रविष्ट:। जह-यथा। तम्हि-तस्मिन्। देसयाले-देशकाले संन्यासकाले। अमूढसण्णो-अमूढसंज्ञ: आहारादिसंज्ञारहित:। जहसु-जहीहि त्यज। देहं-शरीरं। बाह्ययोगविरहितोऽपि, अभ्यन्तरध्यानयोगप्रविष्ट: सन् तस्मिन् देशकाले अमूढसंज्ञो यथा भवति तथा शरीरं जहीहि।।८९।।
अमूढसंज्ञके शरीरत्यागे सति किं स्यात्! इत्यत: प्राह-
हंतूण रागदोसे छेत्तूण य अट्ठकम्मसंखलियं।
जम्मणमरणरहट्टं भेत्तूण भवाहि मुच्चिहसि।।९०।।
आचारवृत्ति–अभ्रावकाश आदि योग बाह्य योग हैं, इनसे रहित होते हुए भी अभ्यन्तर योगध्यान अर्थात् अन्तरंग में एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान में प्रविष्ट होकर जैसे हो सके वैसे संन्यास के समय आहार आदि संज्ञाओं से रहित होते हुए तुम शरीर को छोड़ो।
भावार्थ–शीतऋतु में अभ्र–खुले मैदान में जो अवकाश अर्थात् ठहरना, स्थित होकर ध्यान करना है वह अभ्रावकाश है। ग्रीष्मऋतु में आ–सब तरफ से, तापन–सूर्य के संताप को सहना सो आतापन योग है और वर्षाऋतु में वृक्षों के नीचे ध्यान करना यह वृक्षमूल योग है। सल्लेखना के समय क्षपक इन बाह्य योगों को नहीं कर सकता है फिर भी अन्तर में अपनी आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करते हुए जो ध्यान करता है वह अभ्यन्तर योग है। इस योग का आश्रय लेकर क्षपक आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाओं में मूर्छित न होता हुआ शरीर को छोड़े ऐसा आचार्य का उपदेश है।
संज्ञाओं में मूर्छित न होते हुए शरीर का त्याग करने पर क्या होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–राग–द्वेष को नष्ट करके, आठ कर्मों की जंजीर को काट कर और जन्म-मरण के घटीयंत्र का भेदन कर तुम सम्पूर्ण भवों से छूट जाओगे।।९०।।
हंतूण-हत्वा। रागदोसे-रागद्वेषौ अनुरागाप्रीति। छेत्तूण य-छित्त्वा च। अट्ठकम्मसंखलियं-अष्टकर्मशृंखला:। जम्मणमरण-रहट्टं-जन्ममरणारहट्टं जातिमृत्युघटीयंत्रं। भेत्तूण-भित्त्वा। भवाहि-भवेभ्यो भवैर्वा। मुच्चिहिसि-मोक्ष्यसे मुञ्चसि वा। रागद्वेषौ हत्वा, अष्टकर्म शृंखलाश्च छित्वा जन्ममरणारहट्टं च भित्त्वा, भवेभ्यो मोक्ष्यसे इत्येतत्स्यादिति।।९०।।
यद्येवं-
सव्वमिदं उवदेसं जिणदिट्ठं सद्दहामि तिविहेण।
तसथावरखेमकरं सारं णिव्वाणमग्गस्स।।९१।।
सव्वमिदं-सर्वमिमं। उवदेसं-उपदेशमागमं। जिणदिट्ठं-जिनदृष्टं कथितं वा। सद्दहामि-श्रद्दधे, तस्मिन् रुिंच करोमीति। तिविहेण-त्रिविधेन। तसथावरखेमकरं-त्रसन्ति उद्विजन्तीति त्रसा द्वीन्द्रियादि १पंचेन्द्रियपर्यन्ता:। स्थानशीला: स्थावरा: पृथिवीकायिकादिवनस्पतिपर्यन्ता:। अथवा त्रसनामकर्मोदयात् त्रसा: स्थावरनामकर्मोदयात्स्थावरा: तेषां क्षेमं दयां सुखं करोतीति त्रसस्थावरक्षेमकरस्तं सर्वजीवदयाप्रतिपादकं। सारं-प्रधानभूतं सारस्य कारणात्सार:। णिव्वाणमग्गस्स-निर्वाण-मार्गस्य मोक्षवर्त्मन:। सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणां तस्मिन् सति तेषां सद्भावान्निर्वाणमार्गस्य सारं त्रसस्थावरक्षेमकरं च सर्वमिममुपदेशं जिनदृष्टं त्रिविधेन श्रद्दधेऽहमिति।।९१।।
तस्मिन् काले यथा द्वादशांगचतुर्दशपूर्वविषया श्रद्धा क्रियते तथा समस्तश्रुतविषया चिंता पाठश्च कर्तुं किं
शक्यते ? इत्याह-
ण हि तम्हि देसयाले सक्को बारसविहो सुदक्खंधो।
सव्वो अणुिंचतेदुं बलिणावि समत्थचित्तेण।।९२।।
न-प्रतिषेधवचनं। हि-यस्मादर्थे। तम्हि-तस्मिन्। देसयाले-देशकाले। ‘दिश् अतिसर्जने’ दिश्यते अतिसृज्यते इति देश: शरीरं तस्य कालस्तस्मिन् शरीरपरित्यागकाले। सक्को-शक्य:। बारसविहो-द्वादशविध: द्वादशप्रकार:। सुदक्खंधो-श्रुतस्कंध: श्रुतवृक्ष इत्यर्थ:। सव्वो-सर्वं समस्तं। अणुिंचतेदुं-अनुचिन्तयितुं अर्थेन भावयितुं पठितुं च। बलिणावि-बलिनापि शरीरगतबलेनापि। समत्थचित्तेण-समर्थचित्तेन एकचित्तेन यतिना। तस्मिन् देशकाले बलयुक्तेन समर्थचित्तेनापि द्वादशविधं श्रुतस्कन्धं न शक्यमनुचिन्तयितुम्।।९२।।
आचारवृत्ति–राग द्वेष को नष्ट कर, आठ कर्मों की बेड़ी काटकर तथा जन्म मरणरूप जो अरहट– घटिकायंत्र है उसको रोक करके हे क्षपक! तुम अनेक भवों से मुक्त हो जाओगे अर्थात् पुनः तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा।
अब क्षपक कहता है कि हे गुरुदेव! यदि ऐसी बात है तो मैं–
गाथार्थ–जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित सम्पूर्ण इस उपदेश का मन–वचन–काय से श्रद्धान करता हूँ। यह निर्वाण मार्ग का सार है और त्रस तथा स्थावर जीवों का क्षेम करने वाला है।।९१।।
आचारवृत्ति–जो यह सम्पूर्ण उपदेशरूप आगम है वह जिनेन्द्रदेव द्वारा देखा गया है अथवा कथित है, मैं मन–वचन–कायपूर्वक उसी का श्रद्धान करता हूँ, उसी में रुचि करता हूँ। जो त्रास को प्राप्त होते हैं–उद्विग्न होते हैं वे त्रस हैं। अर्थात् दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव त्रस कहलाते हैं। जो ‘स्थानशीलाः’ अर्थात् ठहरने के स्वभाव वाले हैं वे स्थावर हैं। पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पति पर्यन्त स्थावर जीव हैं। अथवा त्रसनाम कर्म के उदय से त्रस होते हैं एवं स्थावर नाम कर्म के उदय से स्थावर हैं। अर्थात् ऊपर जो त्रस–स्थावर शब्द की व्युत्पत्ति की है वह सर्वथा लागू नहीं होती है क्योंकि इस लक्षण से तो उद्वेग से रहित गर्भस्थ, मूर्छित या अण्डे में स्थित आदि जीव त्रस नहीं रहेंगे तथा वायुकायिक, अग्निकायिक त्रस हो जावेंगे। इसलिए यह मात्र व्याकरण का व्युत्पत्ति अर्थ है। वास्तविक अर्थ तो यही है कि जो त्रस या स्थावर नाम कर्म उदय से जन्म लेवें वे ही त्रस या स्थावर हैं। इन त्रस और स्थावर जीवों का क्षेम–उनकी दया का, उनके सुख का करने वाला यह उपदेश है और यह सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारित्रमय निर्वाण मार्ग का सार है अर्थात् इस उपदेश के होने पर ही मोक्षमार्ग का सद्भाव होता है इसलिए यह प्रधानरूप है–सारभूत मोक्षमार्ग का कारण होने से यह उपदेश स्वयं सारभूत ही है ऐसा समझना।
उस संन्यास के काल में जैसे द्वादशांग और चतुर्दशपूर्व के विषय में श्रद्धा की जाती है वैसे ही समस्त श्रुतविषयक चिन्तन और पाठ करना शक्य है क्या ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–उस संन्यास के देशकाल में बलशाली और समर्थ मन वाले साधु के द्वारा भी सम्पूर्ण द्वादशांगरूप श्रुतस्कन्ध का चिन्तवन करना शक्य नहीं है।।९२।।
आचारवृत्ति–‘देशकाले’ पद का अर्थ कहते हैं। दिश् धातु अतिसर्जन–त्याग अर्थ में है अतः ‘दिश्यते अतिसृज्यते इति देशःशरीरं’ अर्थात् जिसका त्याग किया है वह देशशरीर है। उस शरीर का जो काल है वह देशकाल है अर्थात् वह शरीर के परित्याग का काल कहलाता है। उस शरीर परित्याग के समय जो साधु शारीरिक बल से सहित भी है तथा समर्थ मनवाला–एकाग्र चित्तवाला भी है तो भी वह बारह प्रकार के सम्पूर्ण श्रुतरूपी वृक्ष का अनुचिन्तन नहीं कर सकता है अर्थात् सम्पूर्ण श्रुत को अर्थरूप से अनुभव करने को और उसके पाठ करने को समर्थ नहीं हो सकता है।
तात्पर्य यह है कि कितना भी शरीरबली या मनोबली साधु क्यों न हो तो भी अन्तसमय में वह संपूर्ण श्रुतमय शास्त्रों के अर्थों का चिन्तवन नहीं कर सकता है।
यतस्तत: किंक कर्तव्यं!
एक्कह्मि बिदियह्मि पदे संवेगो वीयरायमग्गम्मि।
वच्चदि णरो अभिक्खं तं मरणंते ण मोत्तव्वं।।९३।।
एक्कह्मि-एकस्मिन् नमोऽर्हद्भ्य इत्येतस्मिन्। विदियह्मि-द्वयो: पूरणं द्वितीयं नम: सिद्धेभ्य इत्येतस्मिन्। संवेओ-संवेग: धर्मे हर्ष:। पदे-अर्थपदे ग्रन्थपदे प्रमाणपदे वा पंचनमस्कारपदे च। अथवा एकम्हि वीजम्हि पदे-एकस्मिन्नपि बीजपदे यस्मिन्निति पाठान्तरम्। वीयरागमग्गम्मि-वीतरागमार्गे सर्वज्ञप्रवचने। वच्चदि-ब्रजति गच्छति प्रवर्तते। णरो-नरेण सर्वसंगपरित्यागिना। अभिक्खं-अभीक्ष्णं नैरन्तर्येण। तं-तत्। मरणंते-मरणान्ते कण्ठगतप्राणेंऽत्यसमये वा। ण मोत्तव्वं-न मोक्तव्यं न परित्यजनीयं। एकपदे द्वितीयपदे वा पंचनमस्कारपदे वा वीतरागमार्गे यस्मिन् संवेगोऽभीक्ष्णं गच्छति तत्पदं मरणान्तेऽपि न मोक्तव्यं नरेण; नरो वा संवेगं यथा भवति तथा यस्मिन्पदे प्रवर्तते तत्पदं तेन न मोक्तव्यमिति सम्बन्ध:।
यदि ऐसी बात है तो उसे क्या करना चाहिए ?
गाथार्थ–मनुष्य वीतराग मार्ग स्वरूप अर्हत्प्रवचन के एकपद में या द्वितीय पद में निरन्तर संवेग प्राप्त करता है। इसलिए मरणकाल में इन पदों को नहीं छोड़ना चाहिए।।९३।।
आचारवृत्ति–जो सर्वसंग का त्यागी मुनि वीतराग मार्ग–सर्वज्ञदेव के प्रवचन के किसी एक पद में या ‘अर्हद्भ्यो नमः’ इस प्रथम पद में या द्वितीय पद अर्थात् ‘सिद्धेभ्यो नमः’ इस पद में निरन्तर संवेग को प्राप्त होता है, धर्म में हर्षभाव को प्राप्त होता है। यहाँ पद शब्द से अर्थपद, ग्रन्थपद या प्रमाणपद या नमस्कारपद को लिया गया है। अथवा ‘एकम्हि वीजम्हि पदे’ ऐसा पाठान्तर भी है जिसका ऐसा अर्थ करना कि किसी एक वीजपद में अर्थात् ‘ॐ ह्रीं ’ या ‘अ-सि-आ-उ-सा’ आदि बीजाक्षर पदों का आश्रय लेता है। इसलिए मरण के अन्त में अर्थात् कण्ठगत प्राण के होने पर या अंतिम समय में इन पदों का अवलम्बन नहीं छोड़ना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि जिस वीतरागदेव के प्रवचनरूप एक–प्रथम पद में या द्वितीयपद में अथवा नमस्कार मन्त्र पद में साधु निरन्तर संवेग को प्राप्त हो जाते हैं। इस हेतु से इन पदों को मरण के अन्त में भी नहीं छोड़ना चाहिए।
अथवा जो भी कोई साधु जैसे भी बने वैसे जिस पद में प्रीति को प्राप्त कर सकते हैं , उस पद को उन्हें नहीं छोड़ना चाहिए अर्थात् उन्हें उस पद का आश्रय लेना चाहिए।
किमिति कृत्वा तन्न मोक्तव्यं यत:-
एदह्मादो एक्कं हि सिलोगं मरणदेसयालह्मि।
आराहणउवजुत्तो चिंतंतो आराधओ होदि।।९४।।
एदह्मादो-एतस्मात् श्रुतस्कन्धात् पंचनमस्काराद्वा। एक्कं हि-एकं ह्यपि एकमपि तथ्यं। सिलोगं-श्लोकं। मरणदेसयालम्मि-मरणदेशकाले। आराहण उवजुत्तो-आराधनया उपयुक्त: सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोनुष्ठानपर:। चिंतंतो-चिंतयन्। आराधओ-आराधक: रत्नत्रयस्वामी। होइ-भवति सम्पद्यते। एतस्मात् श्रुतात् पंचनमस्काराद्वा मरणदेशकाले एकमपि श्लोकं चिंतयन् आराधनोपयुक्त: सन् आराधको भवति यतस्ततस्त्वयेदं न मोक्तव्यमिति सम्बन्ध:।।९४।।
क्यों नहीं छोड़ना चाहिए उसे ? सो ही बताते हैं–
गाथार्थ–आराधना में लगा हुआ साधु मरण के काल में इस श्रुत समुद्र से एक भी श्लोक का चिन्तवन करता हुआ आराधक हो जाता है।।९४।।
आचारवृत्ति–आराधना से उपयुक्त अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओं के अनुष्ठान में तत्पर हुआ साधु द्वादशांगरूप श्रुतस्कन्ध से या पंचनमस्कार पद से एक भी तथ्य–सत्यभूत श्लोक को ग्रहण कर यदि संन्यास काल में उसका चिन्तवन करता है तो वह आराधक–रत्नत्रय का स्वामी–अधिकारी हो जाता है। इसलिए तुम्हें भी किसी एक पद का अवलम्बन लेकर उसे नहीं छोड़ना चाहिए।
यदि पीडोत्पद्यते मरणकाले। किमौषधं ? इत्याह-
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
जरमरणवाहिवेयणखयकरणं सव्वदुक्खाणं।।९५।।
जिणवयणं–जिनवचनं। ओसहं–औषधं रोगापहरं द्रव्यं। इणं–एतत्। विसयसुहविरेयणं–विषयेभ्य: सुखं विषयसुखं तस्य विरेचनं द्रावकं द्रव्यं विषयसुखविरेचनं। अमिदभूदं–अमृतभूतं। जरमरणवाहिवेयण–जरामरणव्याधिवेदनानां। बहुकालीना व्याधि:, आकस्मिका वेदना तयोर्भेद:। अथवा व्याधिभ्यो वेदना। खयकरणं–विनाशनिमित्तं। सव्वदुक्खाणं–सर्वदु:खानां। विषयसुखविरेचनं, अमृतभूतं चौषधमेतज्जिनवचनमिति सम्बन्ध:।।९५।।
यदि मरण काल में पीड़ा उत्पन्न हो जावे तो क्या औषधि है? सो बताते हैं–
गाथार्थ–विषय सुख का विरेचन कराने वाले और अमृतमय ये जिनवचन ही औषध हैं। ये जरा – मरण और व्याधि से होने वाली वेदना को तथा सर्व दुःखों को नष्ट करने वाले हैं।।९५।।
आचारवृत्ति–दीर्घकालीन रोग व्याधि है। आकस्मिक होने वाला कष्ट वेदना है। इस प्रकार इन दोनों में अन्तर भी है अथवा व्याधियों से उत्पन्न हुई वेदना व्याधि वेदना है। अर्थात् जिनेन्द्रदेव की वाणी महान औषधि है यह विषय सुख का विरेचन करा देती है। वृद्धावस्था और मरणरूप जो महाव्याधियां हैं उनको तथा सम्पूर्ण दुःखों को दूर करा देती है। इसीलिए यह जिनवाणी अमृतमय है।
किं तस्मिन् काले शरणं चेत्याह !
णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं चरियसरणं च।
तव संजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो।।९६।।
णाणं–ज्ञानं यथावस्थितवस्तुपरिच्छेद:। सरणं–शरणं आश्रय:। मे–मम। दंसणं–दर्शनं प्रशमसंवेगानुकंपास्तिक्याभिव्यक्त-लक्षणपरिणाम:। सरणं–शरणं संसाराद्रक्षणं। चरियं–चरित्रं ज्ञानवत: संसारकारणनिवृिंत प्रत्यागूर्णवतोऽनुष्ठानं। सरणं च–सहायं च। सुखावबोधार्थं पुन: पुन: शरणग्रहणं। तवं–तपति दहति शरीरेन्द्रियाणि तपो द्वादशप्रकारं। संजमं–संयम: प्राणेन्द्रियसंयमनं। (सरणं)–शरणं। भगवं–भगवान् ज्ञानसुखवान्। सरणो–शरण:। महावीरो–वर्धमानस्वामी। ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि मम शरणानि तेषामुपदेष्टा च महावीरो भगवान् शरणमिति।।९६।।
उस समय शरण कौन है ? सो बताते हैं–
गाथार्थ–मुझे ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है, तपश्चरण और संयम शरण है तथा भगवान् महावीर शरण हैं।।९६।।
आचारवृत्ति–जो वस्तु जैसी है उसका उसीरूप से जानना सो ज्ञान है, वह ज्ञान ही मेरा शरण अर्थात् आश्रय है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इनकी अभिव्यक्तिलक्षण जो परिणाम हैं वह दर्शन है वही मेरा शरण है अर्थात् संसार से मेरी रक्षा करने वाला है। संसार के कारणों का अभाव करने के लिए उद्यत हुए ज्ञानवान पुरुष का जो अनुष्ठान है वह चारित्र है, वही मेरा सहाय है। जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है, जलाता है, वह तप है। वह द्वादश भेदरूप है। प्राणियों की रक्षा तथा इन्द्रियों का संयमन यह संयम है। ये तप और संयम मेरे शरण हैं तथा ज्ञान और सुखपूर्ण भगवान् वर्धमान स्वामी ही मेरी लिए शरण हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये ही मेरे रक्षक हैं और इनके उपदेष्टा भगवान् महावीर ही मेरे रक्षक हैं। यहां पर जो पुनः पुनः ‘शरणं’ शब्द आया है सो सुख से–सरलता से समझने के लिए ही आया है। अथवा इन दर्शन, ज्ञान आदि के प्रति अपनी दृढ़ श्रद्धा को सूचित करने के लिए भी समझना चाहिए।
आराधनाया: किं फलं ? इत्यत आह–
आराहण उवजुत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्मं।
उक्कस्सं तिण्णि भवे गंतूण य लहइ निव्वाणं।।९७।।
आराहणउवजुत्तो–आराधनोपयुक्त: सम्यग्दर्शनज्ञानादिषु तात्पर्यवृत्ति:। कालं काऊण–कालं कृत्वा। सुविहिओ–सुविहित: शोभनानुष्ठान:। सम्मं–सम्यव्â। उक्कस्सं–उत्कृष्टेन। तिण्णि–त्रीन्। भवे–भवान्। गन्तूण य–गत्वा च। लहइ–लभते। णिव्वाणं–निर्वाणं। सुविहित: सम्यगाराधनोपयुक्त: कालं कृत्वा उत्कर्षेण त्रीन् भवान् प्राप्य ततो निर्वाणं लभते इति।।९७।।
आचार्यानुशास्तिं श्रुत्वा शास्त्रं ज्ञात्वा क्षपक: कारणपूर्वकं परिणामं कर्तुकाम: प्राह–
समणो मेत्ति य पढमं बिदियं सव्वत्थ संजदो मेत्ति।
सव्वं च वोस्सरामि य एदं भणिदं समासेण।।९८।।
समणो मेत्ति य–श्रमण: समरसीभावयुक्त:, इति च। पढमं–प्रथम:। विदियं–द्वितीय:। सव्वत्थ-संजदो–सर्वत्र संयत:। मेत्ति–मम इति। अथवा श्रमणे मम प्रथमं मैत्र्यं। द्वितीयं च सर्वसंयतेषु। सव्वं च–सर्व च। वोस्सरामि य–व्युत्सृजामि च। एदं–ऐतत्। भणिदं–भणितं। समासेण–समासेन संक्षेपत:। प्रथमस्तावत् समानभावोऽहं द्वितीयश्च सर्वत्र संयतोऽत:। सर्वमयोग्यं व्युत्सृजामि एतद्भणितं संक्षेपतो मयेति सम्बन्ध: संक्षेपालोचनमेतत्।।९८।।
आराधना का फल क्या है ? सो बताते हैं–
गाथार्थ–आराधना में तत्पर हुआ साधु आगम में कथित सम्यक्प्रकार से मरण करके उत्कृष्टरूप से तीन भव को प्राप्त कर पुनः निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।।९७।।
आचारवृत्ति–शुभ अनुष्ठान से सहित साधु सम्यक् प्रकार से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं में तत्परता से प्रवृत्त होता हुआ साधु, मरण करके उत्कृष्ट से तीन भवों को प्राप्त करके पश्चात् निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार से आचार्य की अनुशास्ति अर्थात् वाणी को सुनकर और शास्त्र को समझकर क्षपक कारणपूर्वक परिणाम को करने की इच्छा रखता हुआ कहता है–
गाथार्थ–पहला तो मेरा श्रमण यह रूप है और दूसरा सभी जगह मेरा संयत–संयमित होना यह रूप है। इसलिए संक्षेप से कहे गये इन सभी अयोग्य का मैं त्याग करता हूँ।।९८।।
आचारवृत्ति–श्रमण–‘समरसी भावयुक्त होना’ यह मेरी प्रथम स्थिति है। ‘सर्वत्र संयत होना ’ यह मेरी दूसरी अवस्था है। अथवा श्रमण–समता भाव से मेरा मैत्री भाव है यह प्रथम है और सभी संयतों– मुनियों में मेरा मैत्री भाव है यह दूसरी अवस्था है। अभिप्राय यह है कि प्रथम तो मैं सुख–दुःख आदि में समान भाव को धारण करने वाला हूँ और दूसरी बात यह है कि मैं सभी जगह संयत–संयमपूर्ण प्रवृत्ति करने वाला हूँ इसलिए सभी अयोग्य कार्य या वस्तु का मैं त्याग करता हूँ यह मेरा संक्षिप्त कथन है। इस प्रकार से वचनों द्वारा क्षपक संक्षेप से आलोचना करता है।
पुनरपि दृढपरिणामं दर्शयति-
लद्धं अलद्धपुव्वं जिणवयणसुभासिदं१ अमिदभूदं।
गहिदो सुग्गइमग्गो णाहं मरणस्स बीहेमि।।९९।।
लद्धं–लब्धं प्राप्तं। अलद्धपुव्वं–अलब्धपूर्वं। जिणवयणं–जिनवचनं। सुभासिदं–सुभाषितं प्रमाणनयाविरुद्धं। अमिदभूदं–अमृतभूतं सुखहेतुत्वात्। गहिदो–गृहीत:। सुग्गदिमग्गो–सुगतिमार्ग:। णाहं मरणस्स बीहेमि–नाहं मरणाद्बिभेमि। अलब्धपूर्वं जिनवचनं सुभाषितं अमृतभूतं लब्धं मया सुगतिमार्गश्च गृहीतोऽत: नाहं मरणाद्बिभेमीति।।९९।।
अतिश्च–
धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोिंह वि मरिदव्वं वरं३ हि धीरत्तणेण मरिदव्वं।।१००।।
धीरेण वि–धीरेणापि सत्त्वाधिकेनापि। मरियव्यं–मर्तव्यं प्राणत्याग: कर्तव्य:। णिद्धीरेण वि–निर्धैर्येणापि धैर्यरहितेनापि कातरेणापि भीतेनापि। अवस्स–अवश्यं निश्चयेन। मरिदव्वं–मर्तव्यं। जदि दोिंह वि–यदि द्वाभ्यामपि। मरिदव्वं–मर्तव्यं भवान्तरं गन्तव्यं विशेषाभावात्। वरं–श्रेष्ठं। हि–स्फुटं। धीरत्तणेण–धीरत्वेन संक्लेशरहितत्वेन। मरिदव्वं–मर्तव्यं। यदि द्वाभ्यामपि धैर्याधैर्योपेताभ्यां प्राणत्याग: कर्तव्यो निश्चयेन ततो विशेषाभावात् धीरत्वेन मरणं श्रेष्ठमिति।।१००।।
पुनरपि क्षपक अपने परिणामों की दृढ़ता को दिखलाता है–
गाथार्थ–जिनको पहले कभी नहीं प्राप्त किया था ऐसे अलब्धपूर्व, अमृतमय, जिनवचन सुभाषित को मैंने अब प्राप्त किया है। अब मैंने सुगति के मार्ग को ग्रहण कर लिया है। इसलिए अब मैं मरण से नहीं डरता हूँ।।९९।।
आचारवृत्ति–जिनेन्द्रदेव के वचन प्रमाण और नयों से अविरुद्ध होने से सुभाषित हैं और सुख के हेतु होने से अमृतभूत हैं। ऐसे इन वचनों को मैंने पहले कभी नहीं प्राप्त किया था। अब इनको प्राप्त करके मैंने सुगति के मार्ग को ग्रहण कर लिया है। अर्थात् जिनदेव की आज्ञानुसार मैंने संयम को धारण करके मोक्ष के मार्ग में चलना शुरू कर दिया है। अब मैं मरण से नहीं डरूँगा।
क्योंकि–
गाथार्थ–धीर को भी मरना पड़ता है और निश्चितरूप से धैर्य रहित जीव को भी मरना पड़ता है। यदि दोनों को मरना ही पड़ता है तब तो धीरता सहित होकर ही मरना अच्छा है।।१००।।
आचारवृत्ति–सत्त्व अधिक जिसमें है ऐसे धीर वीर को भी प्राणत्याग करना पड़ता है और जो धैर्य से रहित कायर हैं–डरपोक हैं , निश्चितरूप से उन्हें भी मरना पड़ता है। यदि दोनों को मरना ही पड़ता है, उसमें कोई अन्तर नहीं है तब तो धीरतापूर्वक–संक्लेश रहित होकर ही प्राण त्याग करना श्रेष्ठ है।
क्षुधादिपीडितस्य यदि शीलविनाशे कश्चिद्विशेषो विद्यतेऽजरामरणत्वं यावता हि–
सीलेणवि मरिदव्वं णिस्सीलेणवि अवस्स मरिदव्वं।
जइ दोिंह वि मरियव्वं वरं हु सीलत्तणेण मरियव्वं।।१०१।।
यदि द्वाभ्यामपि शीलनि:शीलाभ्यां मर्तव्यं अवश्यं वरं शीलत्वेन शीलयुक्तेन मर्तव्यमिति। व्रतपरिरक्षणं शीलं यदि सुशीलनि:शीलाभ्यां निश्चयेन मर्तव्यं शीलेनैव मर्तव्यम्।।१०१।।
अत्र किं कृतो नियम ? इत्याह–
चिरउसिदबंभयारी पप्फोडेदूण सेसयं कम्मं।
अणुपुव्वीय विसुद्धो सुद्धो सििंद्ध गिंद जादि।।१०२।।
चिरउसिद–चिरं बहुकालं उषित: स्थित:। बंभयारी–ब्रह्म मैथुनानभिलाषं चरति सेवत इति ब्रह्मचारी चिरोषितश्च स ब्रह्मचारी च चिरोषितब्रह्मचारी। अथवा चिरोषितं ब्रह्म चरतीति। पप्फोडेदूण–प्रस्फोट्य निराकृत्य। सेसयं कम्मं–शेषं च कर्म ज्ञानावरणादि। अणुपुव्वीय–आनुपूर्व्या च क्रमपरिपाट्या अथवायु:क्षयाद् गुणस्थानक्रमेण वा। विसुद्धो–विशुद्ध: कर्मकलंकरहित:। सुद्धो–शुद्ध: केवलज्ञानादियुक्त:। सिद्ध गिंद जादि–सिद्ध गिंत याति मोक्षं प्राप्नोतीत्यर्थ:। अभग्नब्रह्मचारी शेषकं कर्म प्रस्फोट्य, असंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरया च विशुद्ध: संजातस्तत: शुद्धो भूत्वा सिद्ध गिंत याति। अथवा अपूर्वापूर्वपरिणामसन्तत्या च विशुद्ध: शुद्ध: केवलोपेत: केवलज्ञानं प्राप्य परमस्थानं गच्छतीति।।१०२।।
क्षुधादि से पीड़ित हुए क्षपक के यदि शील के विनाश में कोई अन्तर हो तो अजर–अमरपने का विचार करना चाहिए–
गाथार्थ–शीलयुक्त को भी मरना पड़ता है और शील रहित को भी मरना पड़ता है यदि दोनों को ही मरना पड़ता है तब तो शील सहित होकर मरना ही श्रेष्ठ है।।१०१।।
आचारवृत्ति–व्रतों का सब तरफ से रक्षण करने वाले को शील कहते हैं। यदि शील सहित और शील रहित इन दोनों को भी निश्चितरूप से मरना पड़ता है तब तो शील सहित रहते हुए ही मरना अच्छा है।
यहाँ यह नियम क्यों किया है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं–
गाथार्थ–चिरकाल तक ब्रह्मचर्य का उपासक साधु शेष कर्म को दूर करके क्रम-क्रम से विशुद्ध होता हुआ शुद्ध होकर सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है।।१०२।।
आचारवृत्ति–जो बहुत काल तक मैथुन की अभिलाषा के त्यागरूप ब्रह्मचर्य में स्थित रहे हैं। अथवा जिन्होंने चिरकाल तक ब्रह्म–आत्मा का आचरण–सेवन किया है। वे चिरकालीन ब्रह्मचारी साधु ज्ञानावरण आदि शेष कर्मों का प्रस्फोटन करके क्रम की परिपाटी अथवा आयु के क्षय से या गुणस्थानों के क्रम से विशुद्धि को वृद्धिंगत करते हुए–कर्मकलंक रहित होते हुए केवलज्ञान आदि गुणों से युक्त होकर पूर्ण शुद्ध हो जाते हैं। पुनः मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। अथवा जिनका ब्रह्मचर्य कभी भंग नहीं हुआ है ऐसे अखण्ड ब्रह्मचारी महासाधु उसके अनन्तर बचे हुए शेष कर्मों को दूर करके पुनः असंख्यातगुणश्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा होने से विशुद्ध हो जाते हैं। पुनः पूर्ण शुद्ध होकर सिद्धगति को प्राप्त कर लेते हैं।
अथवा अपूर्व-अपूर्व परिणामों की सन्तति–परम्परा से विशुद्धि को प्राप्त होते हुए पूर्ण शुद्ध होकर केवलज्ञान को प्राप्त करके परमस्थान प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ–वह क्षपक दीर्घकाल तक अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालन करने से स्वयं बहुत से कर्मों की निर्जरा कर चुका है। अनन्तर इस समय बचे हुए ज्ञानावरण आदि कर्मों का नाश करते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है अर्थात् यदि वह क्षपक चरम शरीरी है तो वह उसी भव में श्रेणी पर आरोहण कर अपूर्वकरण गुणस्थान में अपूर्व-अपूर्व परिणामों को प्राप्त करके आगे असंख्यात गुणितरूप से कर्मों की निर्जरा करता हुआ केवली होकर फिर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
यहाँ ऐसा अभिप्राय है कि आयु के क्षय के साथ–साथ शेष अघाति को भी समाप्त कर देता है।
अथ आराधनोपाय: कथित:, आराधकश्च किं विशिष्टो भवतीत्याह–
णिम्ममो णिरहंकारो णिक्कसाओ जििंददिओ धीरो।
अणिदाणो दिट्ठिसंपण्णो मरंतो आराहओ होइ।।१०३।।
णिम्मो–निर्मम: निर्मोह:। णिरहंकारो–अहंकारान्निर्गत: गर्वरहित:। णिक्कसाओ–निष्कषाय: क्रोधादिरहित:। जिंददिओ–जितेन्द्रिय: नियमितपंचेन्द्रिय:। धीरो–धीर: सत्त्ववीर्यसम्पन्न:। अणिदाणो–अनिदान: अनाकांक्ष:। दिट्ठिसंपण्णो–दृष्टिसंपन्न: सम्यग्दर्शनसंप्राप्त:। मरंतो–म्रियमाण:। आराहओ–आराधक:। होइ–भवति। निर्मोहो निर्गर्व: निक्रोधादिर्जितेन्द्रियो धीरोऽनिदानो दृष्टिसंपन्नो म्रियमाण आराधको भवतीति।।१०३।।
कुत एतदित्याह–
णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसाइणो।
संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे।।१०४।।
णिक्कसायस्स–निष्कषायस्य कषायरहितस्य। दंतस्स–दान्तस्य दान्तेन्द्रियस्य। सूरस्स–शूरस्याकातरस्य। ववसाइणो–व्यवसायो विद्यतेऽस्येति व्यवसायी तस्य चारित्रानुष्ठानपरस्य। संसारभयभीदस्स–संसारभयभीतस्य संसाराद्भयं तस्माद्भीतस्त्रस्त: संसारभयभीत: त्रस्य ज्ञातचतुर्गतिदु:खस्वरूपस्य। पच्चक्खाणं–प्रत्याख्यानं आराधना। सुहं–सुखं सुखनिमित्तं। हवे–भवेत्। यतो निष्कषायस्य, दान्तस्य, शूरस्य, व्यवसायिन: संसारभयभीतस्य, प्रत्याख्यानं सुखनिमित्तं भवेत्तत: तथाभूतो म्रियमाण आराधको भवतीति सम्बन्ध:।।१०४।।
यहाँ तक आराधना के उपाय कहे गये हैं, अब आराधक वैâसा होता है, सो बताते हैं–
गाथार्थ–जो ममत्वरहित, अहंकाररहित, कषायरहित, जितेन्द्रिय, धीर, निदानरहित और सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है वह मरण करता हुआ आराधक होता है।।१०३।।
आचारवृत्ति–जो निर्मोह हैं, गर्व रहित हैं, क्रोधादि कषायों से रहित हैं, पंचेन्द्रिय को नियंत्रित कर चुके हैं, सत्त्व और वीर्य से सम्पन्न होने से धीर हैं, सांसारिक सुखों की आकांक्षा से रहित हैं और सम्यग्दर्शन से सहित हैं वे मरण करते हुए आराधक माने गये हैं।
ऐसा क्यों ? उसका उत्तर देते हैं–
गाथार्थ–जो कषाय रहित है, इन्द्रियों को दमन करने वाला है, शूर है, पुरुषार्थी है और संसार से भयभीत है उसके सुखपूर्वक प्रत्याख्यान होता है।।१०४।।
आचारवृत्ति–जो कषाय रहित हैं अर्थात् जिनकी संज्वलन कषायें भी मन्द हैं, जो इन्द्रियों के निग्रह में कुशल हैं, शूर हैं अर्थात् कायर नहीं हैं, व्यवसाय जिनके हैं वे व्यवसायी हैं अर्थात् चारित्र के अनुष्ठान में तत्पर हैं, चतुर्गतिरूप संसार के दुःखों का स्वरूप जानकर जो उससे त्रस्त हो चुके हैं ऐसे साधु के प्रत्याख्यान–मरण के समय शरीर–आहार आदि का त्याग सुखपूर्वक अथवा सुखनिमित्तक होता है। इसी हेतु से वे साधु सल्लेखना–मरण करते हुए आराधक हो जाते हैं।
एदं पच्चक्खाणं जो काहदि मरणदेसयालम्मि।
धीरो अमूढसण्णो सो गच्छइ उत्तमं ठाणं।।१०५।।
एदं–एतत्। पच्चक्खाणं–प्रत्याख्यानं। जो काहदि–य: कुर्यात्। मरणदेसयालम्मि–मरणदेशकाले। धीरो–धैर्योपेत:। अमूढसण्णो–अमूढसंज्ञ: आहारादिसंज्ञास्वलुब्ध:। सो–स:। गच्छदि–गच्छति। उत्तमं ठाणं–उत्तमं स्थानं निर्वाणमित्यर्थ:। मरणदेशकाले एतत्प्रत्याख्यानं य: कुर्यात् धीरोऽमूढसंज्ञश्च स गच्छत्युत्तमं स्थानमिति।।१०५।।
अवसानमंगलार्थं क्षपकसमाध्यर्थं चाह–
वीरो जरमरणरिऊ वीरो विण्णाणणाणसंपण्णो।
लोगस्सुज्जोययरो जिणवरचंदो दिसदु बोिंध।।१०६।।
वीरो–वर्धमानभट्टारक:। जरमरणरिऊ–जरामरणरिपु:। विण्णाणणाणसंपण्णो–विज्ञानं चारित्रं, ज्ञानमवबोधस्ताभ्यां सम्पन्नो युक्त:। वीरो–वीर:। लोगस्स–लोकस्य भव्यजनस्य पदार्थानां वा। उज्जोययरो–उद्योतकर: प्रकाशकर:। जिणवरचंदो–जिनवरचन्द्र:। दिसदु–दिशतु ददातु। बोधिं–समािंध सम्यक्त्वपूर्वकाचरणं वा। जिनवरचन्द्रो जरामरणशत्रु: चारित्रज्ञानादिसंयुक्तो लोकस्य चोद्योतकरो वीरो मह्यं दिशतु बोधिमिति सम्बन्ध:।।१०६।।
किंचिदपि निदानं न कर्तव्यं, कर्तव्यं चेत्याह–
जा गदी अरहंताणं णिट्ठिदट्ठाणं च जा गदी।
जा गदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा।।१०७।।
जा गदी–या गति:। अरहंताणं–अर्हतां। णिट्ठिदट्ठाणं च–निष्ठितार्थानां च या गति: सिद्धानामित्यर्थ:। जा गदी–या गति:। वीदमोहाणं–वीतमोहानां क्षीणकषायाणां। सा मे भवदु–सा मे भवतु। सस्सदा–शश्वत् सर्वदा। अर्हतां या गति:, या च निष्ठितार्थानां वीतमोहनां च या, सा मे भवतु सर्वदा नान्यत् किंचिद्याचेऽहमिति। नात्र पुनरुक्तादयो दोषा: पर्यायार्थिक-शिष्यप्रतिपादनात् तत्कालयोग्यकथनाच्च। नापि विभक्त्यादीनां व्यत्यय: प्राकृतलक्षणेन सिद्धत्वात्। छन्दोभंगोऽपि न चात्र गाथाविगाथाश्लोकादिसंग्रहात्, तेषां चात्र प्रपंचो न कृत: ग्रन्थबाहुल्यभयात् संक्षेपेणार्थकथनाच्चेति।।१०७।।
इत्याचारवृत्तौ वसुनन्दिविरचितायां द्वितीय: परिच्छेद:।
गाथार्थ–जो धीर और संज्ञाओं में मूढ़ न होता हुआ साधु मरण के समय इस उपर्युक्त प्रत्याख्यान को करता है वह उत्तम स्थान को प्राप्त कर लेता है।।१०५।।
आचारवृत्ति–धैर्यवान्, आहार, भय आदि संज्ञाओं में लम्पटता रहित जो साधु मरण के समय उपर्युक्त प्रत्याख्यान को करते हैं वे उत्तम अर्थात् निर्वाण स्थान को प्राप्त कर लेते हैं।
अब अन्तिम मंगल और क्षपक की समाधि के लिए कहते हैं–
गाथार्थ–वीर भगवान् जरा और मरण के रिपु हैं , वीर भगवान् विज्ञान और ज्ञान से सम्पन्न हैं , लोक के उद्योत करने वाले हैं। ऐसे जिनवर चन्द्र–वीर भगवान् मुझे बोधि प्रदान करें।।१०६।।
आचारवृत्ति–विज्ञान को चारित्र और ज्ञान को बोध कहा है। अर्थात् विशेष ज्ञान भेद विज्ञान है। वह सराग और वीतराग चारित्रपूर्वक होता है अतः जो यथाख्यात चारित्र और केवलज्ञान आदि से परिपूर्ण हैं, जरा और मरण को नष्ट करने वाले हैं, लोक अर्थात् भव्य जीव के लिए प्रकाश करने वाले हैं अथवा पदार्थों के प्रकाशक हैं ऐसे वर्धमान भगवान् मुझे बोधि–समाधि एवं सम्यक् सहित आचरण को प्रदान करें।
क्या किंचित् भी निदान नहीं करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि कुछ निदान कर भी सकते हैं–
गाथार्थ–अर्हन्त देव की जो गति हुई है और कृतकृत्य–सिद्धों की जो गति हुई है तथा मोहरहित जीवों की जो गति हुई है वही गति सदा के लिए मेरी होवे।।१०७।।
आचारवृत्ति–हे भगवन्! जो गति अर्हन्तों की, सिद्धों की और क्षीणकषायी जीवों की होती है वह गति मेरी हमेशा होवे और मैं कुछ भी आपसे नहीं माँगता हूँ।
इस अधिकार में पुनरुक्ति आदि दोष नहीं ग्रहण करना चाहिए क्योंकि पर्यायार्थिक नय से समझने वाले शिष्यों को समझाने के लिए और तत्काल-उसकाल के योग्य कथन को कहने के लिए ही पुनः पुनः एक बात कही गयी है। विभक्ति आदि का विपर्यय भी इसमें नहीं लेना क्योंकि प्राकृत व्याकरण से ये पद सिद्ध हो जाते हैं। छंदभंग दोष भी यहाँ नहीं समझना क्योंकि गाथा, विगाथा और श्लोक आदि का संग्रह किया गया है। ग्रन्थ के विस्तृत हो जाने के भय से और संक्षेप से ही अर्थ को कहने की भावना होने से यहाँ इन गाथाओं के अर्थ का अधिक विस्तार से विवेचन नहीं किया गया है।
अर्थात् मैंने (टीकाकार वसुनन्दि ने) टीका में मात्र उन्हीं शब्दों का ही अर्थ खोला है किन्तु विशेष अर्थ का विवेचन नहीं किया है अन्यथा ग्रन्थ बहुत बड़ा हो जाता और दूसरी बात यह भी है कि हमें संक्षेप से ही अर्थ कहना था।
इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य विरचित मूलाचार की श्री वसुनन्दि आचार्य द्वारा विरचित
‘आचारवृत्ति ’ नामक टीका में द्वितीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।