प्रत्याख्यान और संस्तर स्तव इन दो विषयों को जानने वाले जो मुनि हैं, उनमें और इन दोनों विषयों में अभेद है, ऐसा दिखलाकर इस दूसरे अधिकार में प्रत्याख्यान संस्तर-स्तव का वर्णन किया है।
अथवा यतियों के छह काल होते हैं-दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल। इनमें से पहले के तीन कालों का इस मूलाचार में वर्णन है और शेष तीन कालों का भगवती आराधना में कथन है। उनमें से पहले के तीन कालों में यदि मरण उपस्थित हो जावे तो वैâसे परिणाम धारण करके मरण करना ? इस अधिकार में इसी का वर्णन है-
संपूर्ण दु:खों से युक्त सिद्धों को और अर्हंतों को मेरा नमस्कार हो। मैं जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित तत्व का श्रद्धान करता हूँ और पापों का त्याग करता हूँ। अपनी आत्मा से पाप क्लेश को धो डालने वाले सिद्धों को और महर्षियों को नमस्कार कर मैं केवली भगवान द्वारा कथित संस्तर को स्वीकार करता हूँं। यह संस्तर सल्लेखना के समय विधिवत् ग्रहण किया जाता है। यह तृणों का, पाटा, शिला या पृथ्वी पर होता है अर्थात् चार प्रकार के संस्तर माने गये हैं-चटाई, लकड़ी का पाटा, पत्थर की शिला या जमीन में आसन शयन आदि करने का संकल्प लेना ही ‘संस्तर’ ग्रहण है।
संस्तर ग्रहण करने वाले साधु कैसे परिणाम करते हैं ?
सब बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह को छोड़कर, शरीर से ममत्व छोड़कर अन्न, खाद्य और लेह्य रूप तीन प्रकार के भोजन का त्यागकर मात्र पेय-दूध, रस, मट्ठा, जल आदि पीने की वस्तुएँ रखते हैं। पुन: ये साधु भावना भाते हैं-
सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झ ण केण वि।
आसा वोसरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए।।४२।।
खमामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्व भूदेसु वेरं मज्झं ण केण वि।।४३।।
रायबंधपदोसं च हरिसं दीणभावयं।
उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं च वोसरे।।४४।।
ममत्तिं परिवज्जामि णिममत्तिमुवट्ठिदो।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे।।४५।।
आदा हु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोए।।४६।।
एओ य मरइ जीवो एओ य उववज्जइ।
एयस्स जाइमरणं एओ सिज्झइ णीरओ।।४७।।
एओ मे सस्सओ अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।।४८।।
संजोयमूलं जीवेण पत्तं दुक्खपरंपरं।
तम्हा संजोयसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरे।।४९।।
मूलगुण उत्तरगुणे जो मे णाराहिओ पमाएण।
तमहं सव्वं णिंदे पडिक्कमे आगमिस्साणं।।५०।।
णिंदामि णिंदणिज्जं गरहामि य जं च मे गरहणीयं।
आलोचेमि य सव्वं सब्भंतरबाहिरं उवहिं।।५५।।
मेरा सभी जीवों में समताभाव है, मेरा किसी के साथ बैर नहीं है, सम्पूर्ण आशा को छोड़कर समाधि को स्वीकार करता हूँ।।४२।।
सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, सभी जीवों के साथ मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी के साथ बैरभाव नहीं है।।४३।।
राग का अनुबंध, प्रकृष्ट, द्वेष, हर्ष, दीनभाव, उत्सुकता, भय, शोक, रति और अरति का त्याग करता हूँ।।४४।।
मैं ममत्व को छोड़ता हूँ और निर्ममत्व भाव को प्राप्त होता हूँ, आत्मा ही मेरा आलम्बन है और मैं अन्य सभी का त्याग करता हूँ।।४५।।
निश्चित रूप से मेरा आत्मा ही ज्ञान में है, मेरा आत्मा ही दर्शन में और चारित्र में है, प्रत्याख्यान में है और मेरा आत्मा ही संवर तथा योग में है।।४६।।
जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्म लेता है। एक जीव के ही यह जन्म और मरण है और अकेला ही कर्मरहित होता हुआ सिद्ध पद प्राप्त करता है। मेरा आत्मा एकाकी है, शाश्वत है और ज्ञानदर्शन लक्षण वाला है। शेष सभी संयोग लक्षण वाले जो भाव हैं वे मेरे से बहिर्भूत हैं।।४७-४८।।
इस जीव ने संयोग के निमित्त से दु:खों के समूह को प्राप्त किया है इसलिए मैं समस्त संयोग संबंध को मन-वचन-कायपूर्वक छोड़ता हूँ।।४९।।
मैंने मूलगुण और उत्तरगुणों में प्रमाद से जिस किसी की आराधना नहीं की है, उस सम्पूर्ण की मैं निंदा करता हूँ और भूत-वर्तमान ही नहीं, भविष्य में आने वाले का भी मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।५०।।
निंदा करने योग्य की मैं निंदा करता हूँ और जो मेरे गर्हा करने योग्य दोष हैं, उनकी गर्हा करता हूँ और मैं बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह सहित सम्पूर्ण उपधि (परिग्रह) की आलोचना करता हूँ।।५५।।
जह बालो जंप्पंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणदि।
तह आलोचेयव्वं माया मोसं च मोत्तूण।।५६।।
जिस प्रकार बालक सरल भाव से कार्य और अकार्य को कह देता है, उसी प्रकार मुनि माया और असत्य को छोड़कर गुरु के पास आलोचना करे। जिनके पास आलोचना करे वे आचार्य दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों में अविचल हों, धीर हों, आगम में निपुण हों और शिष्य के गुप्त दोषों को कभी किसी में प्रगट करने वाले न हों। आलोचना के बाद वह मुनि सबसे क्षमा करावे।
जो मैंने राग या द्वेष से न करने योग्य कार्य किया है अथवा प्रमादवश किसी के प्रति कुछ कहा है। उन सबसे मैं क्षमायाचना करता हूँ।
मरण के मुख्य तीन भेद हैं-बालमरण, बालपंडित मरण और पंडित मरण। प्रथम मरण असंयत सम्यग्दृष्टि के होता है, दूसरा मरण देशव्रती श्रावक के होता है। तीसरा मरण केवली भगवान का है। इसी पंडितमरण को छठे गुणस्थानवर्ती मुनि से लेकर केवली भगवान तक माना है। यद्यपि अन्यत्र-भगवती आराधना में मरण के पाँच भेद करके बालमरण में मिथ्यादृष्टि को ल्िाया है और पंडितपंडित मरण नाम से केवलियों को लिया है किन्तु यहाँ संक्षेप में तीन भेद ही किये हैं।
जो मुनि मरणकाल में सन्यास विधि से पंडितमरण नहीं कर पाते हैं वे मुनि मरण की विराधना कर देने से देवदुर्गति को प्राप्त कर लेते हैं पुन: उन्हें बोधिदुर्लभ हो जाता है और आगामी काल तक उनका संसार अनंत हो जाता है। कंदर्प, आभियोग्य, किल्विषक आदि देवोें में जन्म लेना देवदुर्गति है।
जो साधु सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, निदान भावना से रहित हैं, शुक्ललेश्या को धारण करने वाले हैं, उनका मरण संन्यास विधि से होने से उन्हें बोधि सुलभ है। जो जिनेन्द्रदेव के वचनों में अनुरागी हैं, भाव से गुरु की आज्ञा पालते हैं, शबल परिणाम-मंदकषायी व संक्लेश भाव से रहित हैं, वे संसार का अंत करने वाले होते हैं।
समाधि से मरण करने वाले साधु भावना भाते हैं-
सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसो य।
अणयार भंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणि।।७४।।
उड्ढमधो तिरियम्हि दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि।
दंसणणाणसहगदो पंडितमरणं अणुमरिस्से।।७५।।
शस्त्रों के घात से मरना, विष भक्षण करना, अग्नि में जल जाना, जल में डूबकर मरना, अन्य और भी पाप क्रिया से मरना, ये मरण जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाने वाले हैं। ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में मैंने बहुत बार शस्त्रघात आदि द्वारा बालमरण (बालबालमरण) किये हैं अब मैं दर्शन, ज्ञान से सहित होता हुआ पंडितमरण से मरूँगा। क्योंकि-
एक्कं पंडिदमरणं छिंददि जादीसयाणि बहुगाणि।
तं मरणं मरिदव्वं जेण मदं सुम्मदं होदि।।७७।।
जइ उप्पज्जइ दुक्खं तो दट्ठव्वो सभावदो णिरये।
कदमं मए ण पत्तं संसारे संसरंतेण।।७८।।
संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेवि पुग्गला बहुसो।
आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती।।७९।।
तिणकट्ठेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं।
ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदुं कामभोगेहिं।।८०।।
कंखिदकलुसिदभूदो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो।
अभुंजंतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्झेइ।।८१।।
आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तमिं पुढविं।
सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदुं।।८२।।
एक पण्डितमरण सौ-सौ जन्मों का नाश कर देता है अत: ऐसे ही मरण से मरना चाहिए कि जिससे मरण सुमरण हो जावे।।७७।।
यदि उस समय दु:ख उत्पन्न हो जावे तो नरक के स्वभाव को देखना चाहिए। संसार में संसरण करते हुए मैंने कौन सा दु:ख नहीं प्राप्त किया है।।७८।।
इस संसार रूपी भँवर में मैंने सभी पुद्गलों को अनेक बार ग्रहण किया है और उन्हें आहार आदि रूप परिणमाया भी है किन्तु उनसे मेरी तृप्ति नहीं हुई है।।७९।।
तृण और काठ से अग्नि के समान तथा सहस्र नदियों से लवण समुद्र के समान इस जीव को काम और भोगों से तृप्त करना शक्य नहीं है।।८०।।
आकांक्षा और कलुषता से सहित हुआ यह जीव काम और भोगों में मूर्च्छित होता हुआ, भोगों को नहीं भोगता हुआ भी, परिणाम मात्र से कर्मों द्वारा बंध को प्राप्त होता है।।८१।।
आहार के निमित्त से ही नियम से मत्स्य सातवीं पृथ्वी में चले जाते हैं इसलिए सचित्त आहार को मन से भी चाहना ठीक नहीं है।।८२।।
जह णिज्जावयरहिया णावाओ वररदणसुपुण्णाओ।
पट्टणमासण्णाओ खु पमादमूला णिबुड्डंति।।८८।।
जैसे उत्तम रत्नों से भरी हुई नौकायें नगर के समीप किनारे पर आकर भी कर्णधार-खेवटिया से रहित होने से प्रमाद के कारण डूब जाती हैं ऐसे ही साधु भी जीवन भर रत्नत्रय और तपश्चरण रूप रत्नों को धारण कर भी यदि अंत में निर्यापकाचार्य रूप खेवटिया को नहीं प्राप्त कर पाता है तो संन्यास विधि न सुधार कर संसार समुद्र में डूब जाता है।
इस मरणकाल में बलशाली और समर्थ चित्त वाले साधु भी सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुतस्कंध का चिंतवन नहीं कर सकते हैं। इसलिए-
एदम्हादो एक्कं हि सिलोगं मरणदेसयालम्हि।
आराहणउवजुत्तो चिंतंतो आराधओ होदि।।९४।।
आराधना में लगा हुआ साधु मरण के काल में इस श्रुतसमुद्र से एक भी श्लोक का चिंतवन करता हुआ आराधक हो जाता है।
यदि मरण काल में पीड़ा उत्पन्न हो जावे, तो क्या औषधि है ?
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
जरमरणबाहिवेयणखयकरणं सव्वदुक्खाणं।।९५।।
णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं चरियसरणं च।
तव संजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो।।९६।।
जिनेन्द्र भगवान के वचन ही महौषधि हैं, ये विषय सुखों का विरेचन-त्याग कराने वाले हैं, अमृतमय हैं और ये जिनवचन जरा, मरण, रोग से होने वाली वेदना का तथा सर्वदु:खों का क्षय करने वाले हैं।
इस काल में शरण किन-किनकी लेना ?
मुझे ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है, तपश्चरण और संयम शरण है तथा भगवान महावीर शरण हैं।
इस आराधना का फल क्या है ?
आराहण उवजुत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्मं।
उक्कस्सं तिण्णि भवे गंतूण य लहइ णिव्वाणं।।९७।।
आराधना में तत्पर हुआ साधु आगम में कथित सम्यक् प्रकार से मरण करके उत्कृष्ट रूप से तीन भव को प्राप्त कर पुन: निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
पुनरपि साधु भावना करता है-
लद्धं अलद्धपुव्वं जिणवयणसुभासिदं अमिदभूदं।
गहिदो सुग्गइमग्गो णाहं मरणस्स बीहेमि।।९९।।
जिनको पहले कभी नहीं प्राप्त किया था ऐसे अलब्धपूर्व, अमृतमय, जिनवचनरूपी सुभाषित को अब मैंने प्राप्त कर लिया है। इसके साथ मैंने सुगति के मार्ग को ग्रहण कर लिया है इसलिए अब मैं मरण से नहीं डरता हूँ। क्योंकि-
वीरेण वि मरिदव्वं णिव्वीरेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि वीरत्तणेण मरिदव्वं।।
धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि धीरत्तणेण मरिदव्वं।।१००।।
सीलेण वि मरिदव्वं णिस्सीलेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि सीलत्तणेण मरिदव्वं।।१०१।।
वीर को भी मरण करना पड़ता है और निश्चित ही वीरतारहित-कायर को भी मरना पड़ता है। यदि दोनोें को मरना ही पड़ता है, तब तो वीरता सहित होकर ही मरना अच्छा है।
धीर को भी मरना पड़ता है और निश्चित ही धैर्यरहित को भी मरना पड़ता है। यदि दोनों को मरना ही पड़ता है तब तो धैर्यसहित होकर ही मरना अच्छा है। शील सहित को भी मरना पड़ता है और निश्चित रूप से शील रहित को भी मरना पड़ता है। यदि दोनों को मरना ही पड़ता है तब तो शील सहित होकर ही मरना श्रेष्ठ है। इस प्रकार-
णिम्ममो णिरहंकारो णिक्कसाओ जिदिंदिओ धीरो।
अणिदाणो दिठिसंपण्णो मरंतो आराहओ होइ।।१०३।।
णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसाइणो।
संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे।।१०४।।
जो साधु ममत्वरहित, अहंकाररहित, कषायरहित, जितेन्द्रिय, धीर, निदानरहित और सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है वह मरण करता हुआ आराधक होता है। जो निष्कषायी मुनि इन्द्रियों का दमन करने वाला है, शूर-वीर है, पुरुषार्थी है और संसार से भयभीत है उसके सुखपूर्वक प्रत्याख्यान होता है।
पुन: मैं क्या चाहता हूँ ?
वीरो जरमरणरिऊ वीरो विण्णाणणाणसंपण्णो।
लोगस्सुज्जोययरो जिणवरचंदो दिसदु बोधिं।।१०६।।
वीर भगवान् जरा और मरण के शत्रु हैं, वीर भगवान् विज्ञान रूप ज्ञान से, केवलज्ञान से सम्पन्न हैं और लोक को प्रकाशित करने वाले हैं, ऐसे जिनवरचंद्र-वीर भगवान मुझे बोधि प्रदान करें।
क्या कुछ निदान-भविष्य में कामना भी कर सकते हैं ?
जा गदी अरहंताणं णिट्ठिदट्ठाणं च जा गदी।
जागदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा।।१०७।।
अरहंत देवों को जो गति प्राप्त हुई है और कृतकृत्य-सिद्ध भगवन्तों को जो गति प्राप्त हुई है तथा मोहरहित मुनियों को जो गति प्राप्त हुई है, वही गति सदा के लिए मेरी होवे।
इस प्रकार याचना करते हुए साधु और साध्वी अपनी सल्लेखना की सिद्धि करके उत्तम गति प्राप्त कर लेते हैं।