जिन मुनियों की आयु अधिक अवशेष है, जो निरतिचार मूलगुणों का पालन कर रहे हैं उनकी प्रवृत्ति वैâसी होती है ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री वट्टकेर आचार्यदेव सामाचार नाम के चतुर्थ अधिकार को कहते हैं। उसमें सर्वप्रथम सामाचार शब्द का निरुक्ति अर्थ कहते हैं-
समदा सामाचारो सम्माचारो समो व आचारो।
सव्वेसिं सम्माणं सामाचारो दु आचारो।।१२३।।
समता, सामाचार, सम्यक् आचार, सम आचार या सभी का समान आचार ये चार सामाचार शब्द के अर्थ हैं।
(१) समता सामाचार-रागद्वेष का अभाव होना समता सामाचार है अथवा त्रिकाल देववंदना करना या पंच नमस्कार रूप परिणाम होना समता है अथवा सामायिक व्रत को समता कहते है। ये सब समता सामाचार है।
(२) सम्यक् आचार-शोभन-निरतिचार मूलगुणों का अनुष्ठान करना अथवा निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना यह सम्यक् आचार है।
(३) सम आचार-पाँच आचारों को सम आचार कहा है, जो कि प्रमत्त, अप्रमत्त आदि सभी मुनियों का आचार समानरूप होने से सम आचार है अथवा आहार ग्रहण और देववंदना आदि क्रियाओं में भी साधुओं को सह-साथ ही मिलकर आचरण करना सम आचार है।
(४) समान आचार-मान-परिणाम के साथ जो रहता है वह समान है अथवा सभी का समान रूप से पूज्य या इष्ट जो आचार है, वह सामाचार है।
इस सामाचार के मुख्य दो भेद हैं-
औघिक और पदविभागिक के भेद से सामाचार दो प्रकार का है। औघिक सामाचार दश प्रकार का है और पदविभागी सामाचार अनेक प्रकार का कहा गया है।
इच्छा मिच्छाकारो तधाकारो व आसिआ णिसिही।
आपुच्छा पडिपुच्छा छंदणसणिमंतणा य उवसंपा।।१२५।।
इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदन, सनिमन्त्रणा और उपसंपत् ये दश भेद औघिक सामाचार के हैं।
इच्छाकार-संयम का उपकरण, ज्ञान का उपकरण और भी अन्य उपकरण के लिए तथा किसी वस्तु के मांगने में एवं योगसाधना-ध्यान आदि के करने में इच्छाकार होता है।
मिथ्याकार-जो दुष्कृत-पाप हुआ है वह मिथ्या होवे, पुन: उस दोष को नहीं करना, ऐसा जो भाव प्रतिक्रमण है, वही मिथ्याकार है।
तथाकार-गुरु के मुख से वाचना ग्रहण करने में, उपदेश सुनने में और गुरु द्वारा सूत्र तथा अर्थ के कथन में ‘यह सत्य है’ ‘आपने ठीक कहा है’ ऐसा कहना और पुन: श्रवण की इच्छा रखना यह तथाकार है।
यहाँ पर टीकाकार ने कहा है कि ‘आचार्य परम्परागत अविसंवादरूप मंत्र-तंत्र आदि जिसका गुरु वर्णन करते हैं, वह उपदेश कहलाता है।१
आसिका-निषेधिका-कंदरा, पुलिन, गुफा आदि में प्रवेश करते समय निषेधिका-नि:सही करना चाहिए तथा वहाँ से निकलते समय आसिका-असही करना चाहिए।
वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ स्थित भूत-व्यंतर आदि देवों को ‘निसही’ शब्द से पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है और वहाँ से निकलते समय ‘असही’ शब्द से उन्हीं को पूछकर निकलना ‘आसिका’ है।
आपृच्छा-आतापन आदि योग के ग्रहण करने में, आहार आदि के लिए जाने में अथवा अन्य ग्राम में जाने के लिए विनय से आचार्य आदि को पूछकर कार्य करना आपृच्छा है।
प्रतिपृच्छा-जो कोई भी बड़ा कार्य करना हो तो गुरु आदि से पूछकर फिर पुन: पूछना वह प्रतिपृच्छा है।
छंदन-ग्रहण किये हुए उपकरण के विषय में, विनय के समय, वंदना के काल में, सूत्र का अर्थ पूछने इत्यादि में प्रमुख आदि की इच्छा से अनुकूल प्रवृत्ति करना छंदन है।
निमंत्रणा-गुरु या सहधर्मी साधु से द्रव्य को, पुस्तक को या अन्य वस्तु को ग्रहण करने की इच्छा हो तो उन गुरुओं से विनयपूर्वक पुन: याचना करना निमंत्रणा है।
उपसंपत्-गुरुओं से अपना निवेदन करना अर्थात् अपने को ‘मैं आपका ही हूँ’ ऐसा कहना यह उपसंपत् है। इसके पाँच भेद हैं-विनयोपसंपत्, क्षेत्रोपसंपत्, मार्गोपसंपत्, सुखदु:खोपसंपत् और सूत्रोपसंपत्।
आगंतुक साधु की विनय और उपचार करना, उनके निवास स्थान और मार्ग के विषय में प्रश्न करना, उन्हें उचित वस्तु का दान करना, उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना-आगंतुक साधु को आते देखकर उठकर खड़े होना, आप किन गुरु के शिष्य हैं ? किस मार्ग से आये हैं ? आपका रत्नत्रय कुशल तो है ? इत्यादि पूछकर उन्हें समय के अनुकूल घास, पाटा, पुस्तक आदि देना यह सब विनय उपसंपत् है।
जिस क्षेत्र, स्थान में संयम, गुण, तप, शील, यम, नियम आदि वृद्धि को प्राप्त होते हैं उस क्षेत्र में रहना क्षेत्रोपसंपत् है।
संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से युक्त आगंतुक-अतिथि और स्थानीय संघ के साधुओं के बीच जो परस्पर में मार्ग से आने-जाने के विषय में सुख-दु:ख समाचार पूछना वह मार्गोपसंपत् है।
साधु के सुख-दु:ख में वसतिका, आहार और औषधि आदि से उपचार करना और ‘मैं आपका ही हूँ’ ऐसे वचन बोलना सुखदु:खोपसंपत् है।
सूत्र और अर्थ इन दोनों को समझने के लिए प्रयत्न करना सूत्रार्थोपसंपत् है।
इस प्रकार औघिक सामाचार के भेद बताये हैं। अब पदविभागी को कहते हैं-
उग्गमसूरप्पहुदी समणाहोरत्तमंडले कसिणे।
जं आचरंति सददं एसो भणिदो पदविभागी।।१३०।।
साधुगण सूर्योदय से लेकर सम्पूर्ण अहोरात्र निरंतर जो आचरण करते हैं, ऐसा यह पदविभागी सामाचार है।
कोई सर्व समर्थ साधु अपने गुरु से सम्पूर्ण श्रुत को पढ़कर विनय से पास आकर और प्रयत्नपूर्वक अपने गुरु से पूछता है। ‘भगवन्! आपव्ाâे चरणों की कृपा से अब मैं अन्य आयतन-संघ को प्राप्त करना चाहता हूँ।’ इस तरह वह मुनि इस विषय में तीन बार या पाँच, छह बार प्रश्न करता है। अर्थात् कोई धीर-वीर मुनि अपने संघ में सर्व शास्त्रों को पढ़कर अन्य दूसरे संघ में विशेष अध्ययन के लिए जाना चाहता है तब प्रार्थना करता है और कई बार भी आज्ञा मांगता है। पुन: वह मुनि गुरु से पूछकर और उनसे आज्ञा प्राप्त कर अपने सहित चार या तीन, दो मुनि होकर वहाँ से विहार करता है अर्थात् अपने संघ से अन्य संघ में जाने के लिए भी अकेले मुनि विहार नहीं करें। क्योंकि-
विहार के दो ही भेद हैं-गृहीतार्थ और अगृहीतार्थ। तत्त्वज्ञानी, उत्तम संहननधारी मुनि चारित्र में दृढ़ रहते हुए एकलविहारी होते हैं। उनका विहार प्रथम-गृहीतार्थ है। जो अल्पज्ञानी संघ में विहार करते हैं उनका द्वितीय-अगृहीतार्थ विहार है। इन दो के सिवाय तीसरा विहार जैन आगम में नहीं है। अब श्री कुंदकुंददेव स्वयं कहते हैं कि एकलविहारी कौन होवे ?
तवसुत्तसत्तएगत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य।
पविआआगमबलिओ एयविहारी अणुण्णादो।।१४९।।
तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्वभाव, संहनन और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण, दीक्षा और आगम में बली मुनि एकलविहारी स्वीकार किये गये हैं। इस गाथा में संहनन से उत्तम संहननधारी१ लिए हैं, जो कि इस काल में नहीं हैं। पुन: कहते हैं-
सच्छंदगदागदी सयणणिसयणाहाणभिक्खवोसरणे।
सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तूवि एगागी।।१५०।।
गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना, इन कार्यों में स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला और स्वच्छंद बोलने वाला ऐसा मेरा शत्रु भी एकलविहारी न होवे, फिर मुनि की तो बात ही क्या है ?
यदि संहननहीन मुनि अकेले विहार करते हैं, तो क्या हानि होती है ? सो ही दिखाते हैं-
गुरुपरिवादो सुदवुच्छेदो तित्थस्स मइलणा जडदा।
भिंभलकुसीलपासत्थदा य उस्सारकप्पम्हि।।१५१।।
कंटयखण्णुयपडिणियसाणगोणादिसप्पमेच्छेहिं।
पावइ आदविवत्ती विसेण व विसूइया चेव।।१५२।।
गारविओ गिद्धीओ माइल्लो अलसलुद्धणिद्धम्मो।
गच्छेवि संवसंतो णेच्छइ संघाडयं मंदो।।१५३।।
आणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणासो य।
संजमविराहणाविय एदे दुणिकाइया ठाणा।।१५४।।
एकलविहारी मुनि होने पर गुरु की निंदा, श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढ़ता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थता ये दोष आते हैं। कांटे, ठूंठ, विरोधीजन, कुत्ता, गाय, सर्प आदि पशुओं से और म्लेच्छजनों से अथवा विष से और अजीर्ण आदि रोगों से अपने पर विपत्तियाँ आ जाती हैं।
एकाकी विहार करने वाले मुनि तो स्वच्छंद प्रवृत्ति करने लगते ही हैं किन्तु कोई साधु संघ में रहते हुए अनुशासनहीन होकर अन्य साधुओं को नहीं चाहते हैं, उनमें क्या दोष होते हैं ? सो ही कहते हैं-
जो गारव से सहित हैं, आहार में लंपट हैं, मायाचारी हैं, आलसी हैं, लोभी हैं और धर्म से रहित हैं ऐसे शिथिल मुनि संघ में रहते हुए भी साधु समूह को नहीं चाहते हैं।
एकाकी रहने वाले के सर्वज्ञदेव की आज्ञा का उल्लंघन होगा और अन्य मुनि भी एकाकी बनेंगे सो यह अनवस्था दोष, मिथ्यात्व का सेवन, अपना विनाश और संयम की विराधना ये पाँच पापस्थान-दोष माने गये हैं।
श्रुत का अध्ययन करने वाले मुनि को ‘जिस संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच आधार हैं, उस संघ में ही रहना चाहिए। शिष्यों पर अनुग्रह करने में कुशल को आचार्य कहते हैं। धर्म के उपदेशक को उपाध्याय, संघ की प्रवृत्ति कराने वाले को प्रवर्तक, मर्यादा के उपदेशक को स्थविर और गण के रक्षक को गणधर कहते हैं।
अपने संघ से गुरु की आज्ञा लेकर मुनि दो या तीन मिलकर जब दूसरे संघ में पहुँचते हैं, तब वहाँ के आचार्य और मुनि आदि क्या करते हैं ? सो दिखाते हैं-
आगत मुनि को देखकर संघ के सभी साधु वात्सल्य भाव के लिए, सर्वज्ञदेव की आज्ञा पालन करने के लिए, आगंतुक साधु को अपनाने के लिए और उनको प्रणाम करने के लिए उठकर खड़े हो जाते हैं। पुन: सात कदम आगे बढ़कर परस्पर में नमोऽस्तु-प्रति नमोऽस्तु करके आगंतुक के प्रति करने योग्य कर्त्तव्य के लिए उनसे रत्नत्रय की कुशल पूछें।
पुन: संघ में तीन दिन तक सहाय देना चाहिए। उन दिनों आगंतुक मुनियों की क्रियाओं में, संस्तर आदि में तथा सहवास में परीक्षा करना चाहिए। अतिथि मुनि और संघस्थ मुनि परस्पर की क्रियाओं में, प्रतिलेखन में, एक-दूसरे की क्रिया और चारित्र में परीक्षा करें। आगंतुक मुनि उस दिन विश्रांति लेकर और परीक्षा करके विनयपूर्वक आचार्य के पास बैठकर दूसरे या तीसरे दिन अपने आने का हेतु निवेदित करें, पुन: आचार्य आगंतुक का नाम, कुल, गुरु, दीक्षा के दिन, वर्षावास, आने की दिशा, शिक्षा, प्रतिक्रमण आदि के विषय में प्रश्न करें। अतिथि मुनि समुचित उत्तर देवें।
अनंतर यदि वे मुनि क्रिया और चारित्र में शुद्ध हैं, नित्य उत्साही हैं, बुद्धिमान हैं तो उनकी सामर्थ्य के अनुसार उन्हें विद्याध्ययन करावें और यदि आगंतुक मुनि चारित्र में विशुद्ध नहीं हैं तो उन्हें छेदोपस्थापना करके-प्रायश्चित्त देकर रखना चाहिए। कदाचित् वह मुनि प्रायश्चित्त न लेवे, तो उसे संघ में नहीं रखना चाहिए। यदि वे आचार्य शिष्यों के मोह से उसे न छोड़ें तो वे आचार्य भी प्रायश्चित्त के पात्र हो जाते हैं।
यदि वे आगंतुक मुनि ठीक हैं और आचार्य ने उन्हें स्वीकार करके पढ़ाना शुरू कर दिया है तो वे मुनि प्रयत्नपूर्वक अध्ययन करें। सिद्धांत ग्रंथों के पढ़ने में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि करके पढ़ें। इस संघ में रहते हुए वे मुनि अब संघ के साधुओं को अपने संघ का जैसा समझकर गुरु, बाल, वृद्ध, रोगी आदि साधुओं की यथाशक्ति वैयावृत्य करें। प्रतिक्रमण, देववंदना, गुरुवंदना, आहार, विहार आदि क्रियाएँ सब साधुओं के साथ मिलकर ही करें।
आर्यिकाओं की चर्या-आर्यिकाओं के आने के समय मुनि को अकेले नहीं बैठना चाहिए, बिना प्रयोजन उनके साथ वार्तालाप भी नहीं करना चाहिए। यदि अकेली आर्यिका प्रश्न करे तो अकेला मुनि उत्तर न देवे। यदि गणिनी को आगे करके पूछे तो उत्तर देना चाहिए। तरुण मुनि युवती आर्यिका के साथ यदि वचनालाप करे तो उस मुनि ने आज्ञालोप आदि पाँचों ही दोष किये, ऐसा समझना चाहिए। आर्यिकाओं की वसतिका में मुनियों का रहना, बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, कायोत्सर्ग आदि करना युक्त नहीं है।
आर्यिकाओं को प्रायश्चित्त आदि देने के लिए उनका आचार्यत्व करने के लिए कैसे आचार्य होवें ?
पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो।
संग्गहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो।।१८३।।
गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य।
चिरपव्वइदो गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।।१८४।।
जो धर्म में अनुरागी हैं, धर्म में दृढ़ हैं, संवेग भाव सहित हैं, पाप से भीरू हैं, शुद्ध आचरण वाले हैं, शिष्यों के अनुग्रह और निग्रह में कुशल हैं, हमेशा ही पापक्रिया से निवृत्त हैं, गंभीर हैं, स्थिरचित्त हैं, मित बोलने वाले हैं, कभी किंचित् मात्र कुतूहल करते हैं, चिरदीक्षित हैं, तत्त्वों के ज्ञाता हैं, ऐसे प्रौढ़ मुनि ही आर्यिकाओं के आचार्य होते हैं।
एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करेदि अज्जाणं।
चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज।।१८५।।
उपर्युक्त गुणों से रहित आचार्य आदि आर्यिकाओं का आचार्यत्व करते हैं तो उनके चार काल-गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ काल विराधित होते हैं और गच्छ-संघ आदि की भी विराधना हो जाती है।
इसलिए उस परगण में रहते हुए अतिथि मुनियों को यहाँ के आचार्य की आज्ञानुसार ही प्रवृत्ति करना चाहिए। पूर्व में औघिक और यह पदविभागिक जो भी सामाचार विधि कही गई है, वह सभी सामाचार विधि आर्यिकाओं को भी सर्व अहोरात्र में यथायोग्य करना चाहिए। यहाँ ‘यथायोग्य’ से उन्हें वृक्षमूल, आतापन आदि योग नहीं करना चाहिए।
ये आर्यिकाएँ अकेली न रहकर दो-तीन आदि से लेकर अधिक जितनी भी हों, रहें। एक-दूसरे की रक्षा करते हुए वात्सल्यभाव से रहें, आपस में ईर्ष्या, द्वेष, कलह आदि छोड़कर अपने पितृपक्ष-पतिपक्ष के कुल की मर्यादा के अनुरूप लज्जा आदि गुणों से सहित होकर रहें। गृहस्थों के कुछ निकट ही वसतिका में इन्हें रहना चाहिए।
उपर्युक्त विधानरूप चर्या का जो मुनि और आर्यिकाएँ अचारण करते हैं, वे जगत् से पूजा को, यश को और सुख को प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार यहाँ यह सामाचार अधिकार में साधुओं की अहोरात्र चर्या संक्षेप में ही कही गई है।