वृषभदेव के समवसरण में, चैत्य महल भू प्रथमा।
पाँच पाँच महलों के अंतर, इक इक जिनगृह सुषमा।।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा वंदूं, मिटे सर्व दुख आपत्।
पाँच परावर्तन से छूटूँ, मिले स्वात्मसुख संपत्।।१।।
अजितनाथ के समवसरण में, प्रथम भूमि में शोभें।
चतुष्कोण वापी उपवन से, जिनगृह जन मन लोभें।।जिन.।।२।।
संभव जिनके समवसरण में, प्रथम भूमि सुर मनहर।
विविध बावड़ी वन पर्वत से, जिनगृह में भव दुखहर।।जिन.।।३।।
अभिनंदन जिन समवसरण की, शोभा अतिशय न्यारी।
विविध पुष्प से सुरभित दशदिश, फूल रही हैं क्यारी।।जिन.।।४।।
सुमतिनाथ के समवसरण में, चैत्यमहल भूमी में।
देव देवियाँ क्रीड़ा करते, जिनगुण गाते लय में।।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा वंदूं, मिटे सर्व दुख आपत्।
पाँच परावर्तन से छूटूँ, मिले स्वात्मसुख संपत्।।५।।
पद्मप्रभू के समवसरण में, विद्याधर ललनायें।
प्रथम भूमि के जिनमंदिर में, पूजा भक्ति रचायें।।जिन.।।६।।
श्री सुपाश्र्व जिन समवसरण में, सुर किन्नर किन्नरियां।
प्रथम भूमि में जिनप्रतिमा के, गुण गावें रुचि धरिया।।जिन.।।७।।
चंदा प्रभु के समवसरण में, भव्य जीवगण आते।
प्रथम भूमि के जिनमंदिर को, झुक-झुक शीश नवाते।।जन.।।८।।
पुष्पदंत जिन समवसरण में, मानस्तंभ के आगे।
सम्यग्दृृष्टि भक्ति भाव से, नृत्य करें गुण गाके।।जिन.।।९।।
शीतल जिनके समवसरण में, प्रथम भूमि जिनमंदिर।
भक्तों का मन शीतल करते, सर्व तापहर सुदंर।।जिन.।।१०।।
श्री श्रेयांस के समवसरण में, नृत्य करें सुर ललना।
जिनवर सुयश उचरतीं हर पल, वच मानों सुख करना।।जिन.।।११।।
वासुपूज्य जिन वासव पूजित, समवसरण सुखकारी।
प्रथम भूमि के जिनआलय की, महिमा अतिशय न्यारी।।जिन.।।१२।।
विमलनाथ का समवसृति, प्रथम भूमि मनहार।
जिनमंदिर जिनबिंब को, नमूं मिले सुखसार।।१३।।
श्री अनंत जिनराज का, समवसरण सुखधाम।
प्रथम भूमि जिनगेह को, नमूं मिले निजधाम।।१४।।
धर्मनाथ धर्मैक धुर, समवसरण निष्पाप।
प्रथम भूमि जिनगेह को, नमूं मिटे जग ताप।।१५।।
शांतिनाथ जिनराज का, समवसरण अतिशायी।
प्रथम भूमि जिनगेह को, नमूं सर्व सुखदायी।।१६।।
कुंथुनाथ त्रिभुवनपती, समवसरण के ईश।
प्रथम भूमि जिनगेह को, नमूं नमाकर शीश।।१७।।
अरहनाथ सब भव्य हित, समवसरण के नाथ।
धर्मामृत वर्षा करें, नमूं नमाकर माथ।।१८।।
मल्लिनाथ यम मोह अरु, काम मल्ल के जिष्णु।
समवसरण के जिनभवन, नमूं त्रिजग हित विष्णु।।१९।।
मुनिसुव्रत मुनिनाथ पति, सबको दें उपदेश।
समवसरण के जिनभवन, नमूं मिटे भवक्लेश।।२०।।
नमिजिन सब दुख शोकहर, मंगल करण जिनेश।
समवसरण के जिनभवन, नमूं न हो दुख लेश।।२१।।
नेमिनाथ करुणा करें, त्रिभुवन के आधार।
समवसरण के जिनभवन, नमूं कर्म हों क्षार।।२२।।
पाश्र्वनाथ संकट हरण, क्षमा निधान महान।
समवसरण के जिनभवन, नमतें स्वात्म निधान।।२३।।
महावीर सिद्धार्थ सुत, त्रिभुवन पिता जिनेश।
समवसरण के जिनभवन, नमूं सु भक्ति हमेश।।२४।।
चौबीस जिन के समवसरण में, प्रथम भूमि में जिनगृह।
उनको उनमें जिन प्रतिमा को, नमतें नशें अशुभ ग्रह।।
रोग शोक दारिद्र कलह सब, बैर विरोध मिटेंगे।
भक्ति भाव से नित प्रति वंदूं, वंदत कर्म कटेंगे।।२५।।
मैं नमूँ मैं नमूँ सर्व तीर्थेश को।
सर्व जिनबिंब युत सर्व जिनगेह को।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फैर होवे न संसार में आवना।।२६।।
जिन समोसर्ण में सर्व मन मोहती।
चैत्य प्रासाद भू चौतरफ शोभती।।नाथ.।।२७।।
चउदिशी वीथि में नाट्यशाला बनी।
दो तरफ दोय दो नृत्य से सोहनी।।नाथ.।।२८।।
एक इक में बतीसों हि रंगभूमियाँ।
एक इक में बतीसों भवन देवियाँ।।नाथ.।।२९।।
नृत्य करती हुई नाथ गुण गावतीं।
पुष्प अंजलि बिखेरंत मन भावतीं।।नाथ.।।३०।।
एक इक जिनभवन शिखर से तुंग हैं।
उन सभी बीच सुरमहल पण पंच हैं।।नाथ.।।३१।।
देवघर बावड़ी उपवनों युक्त हैं।
देव क्रीड़ा करें नाथ पद भक्त हैं।।नाथ.।।३२।।
दोय दो धूप घट दो तरफ शोभते।
धूप खेवें सभी पाप मल धोवते।।नाथ.।।३३।।
धन्य यह शुभ घड़ी धन्य है धन्य है।
धन्य मेरा जनम आप पद वंद्य हैं।।नाथ.।।३४।।
आप पद वंदतें सर्व विपदा टलें।
सर्व इच्छित फलें ज्ञानमति श्री मिले।।नाथ.।।३५।।
शांति कुंथु अरहनाथ प्रभू ने, जन्म लिया इस धरती पर।
यह हस्तिनागपुरि इंद्रवंद्य, रत्नों की वृष्टि हुई यहाँ पर।।
यहाँ जम्बूद्वीप बना सुंदर, जिनमंदिर हैं अनेक सुखप्रद।
मेरा यहाँ वर्षायोग काल, स्वाध्याय ध्यान से है सार्थक।।१।।
इस युग के चारित्र चक्री श्री, आचार्य शांतिसागर गुरुवर।
बीसवीं सदी के प्रथमसूरि, इन पट्टाचार्य वीरसागर।।
ये दीक्षा गुरुवर मेरे हैं, मुझ नाम रखा था ‘ज्ञानमती’।
इनके प्रसाद से ग्रंथों की, रचना कर हुई अन्वर्थमती।।२।।
यह चैत्यवृक्ष स्तोत्र मान्य, जिनप्रतिमा वंदन भक्तीवश।
यह रोग शोक दारिद्र्य दु:ख, संकट हरने वाला संतत।।
जब तक चौबीसों तीर्थंकर, जग में उनका गुणगान रहे।
तब तक यह गणिनी ज्ञानमती, विरचित स्तोत्र जयशील रहे।।३।।