गणधर बिना तीर्थेश की, वाणी न खिर सकती कभी।
प्रभु पास में दीक्षा ग्रहें, गणधर भि बन सकते वही।।
तीर्थेश की ध्वनि श्रवणकर, उन बीज पद के अर्थ को।
जो ग्रथें द्वादश अंगमय, मैं नमूं उन गणनाथ को।।१।।
श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र के चौरासि गणधर मान्य हैं।
गुरु ‘ऋषभसेन’ प्रधान इनमें सर्व रिाद्ध निधान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं नमूं नित प्रति भक्ति से गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।२।।
श्री अजितनाथ जिनेन्द्र के नब्बे गणाधिप मान्य हैं।
‘केशरीसेन’ प्रधान इनमें सर्व ऋद्धि निधान हैं।।द्वादश.।।३।।
संभव जिनेश्वरके सु इक सौ पाँच गणधर ख्यात हैं।
गुरु ‘चारुदत्त’ प्रधान इनमें सर्व ऋद्धि सनाथ हैं।।द्वादश.।।४।।
जिन अभिनंदन के गणाधिप एक सौ त्रय ख्यात हैं।
गुरु ‘वङ्काचमर’ प्रधान इसमें सर्व ऋद्धि सनाथ हैं।।द्वादश.।।५।।
श्री सुमति जिनके एक सौ सोलह गणाधिप मान्य हैं।
‘श्रीवङ्का’ गणधर मुख्य इनमें सर्वऋद्धि खान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं भी नमूं नित भक्ति से गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।६।।
श्रीपद्मप्रभ के एक सौ ग्यारह गणाधिप ख्यात हैं।
‘श्रीचमर’ गणधर मुख्य उनमें सर्वरिद्धि सनाथ हैं।।द्वादश.।।७।।
जिनवर सुपारस के गणीश्वर ख्यात पंचानवे हैं।
‘बलदत्त’ गणधर हैं प्रमुख सब ऋद्धियों से भरे हैं।।द्वादश.।।८।।
श्री चन्द्रप्रभ के गणपती तेरानवे गणपूज्य हैं।
‘वैदर्भ’ गणधर प्रमुख उनमें सर्व ऋद्धी सूर्य हैं।।द्वादश.।।९।।
श्री पुष्पदंत जिनेश के गणधर अठासी मान्य हैं।
‘श्रीनाग’ मुनि गणधर प्रमुख सब ऋद्धियों की खान हैं।।द्वादश.।।१०।।
शीतल जिनेश्वर के सत्यासी गणधरा जग वंद्य हैं।
‘श्री कुंथु’ गणधर प्रमुख इनमें सर्वरिद्धी कंद हैं।।द्वादश.।।११।।
श्रेयांस जिनके पास सत्तत्तर गणाधिप श्रेष्ठ हैं।
‘श्रीधर्मगुरु’ गणधर प्रमुख सब ऋद्धि गुण में ज्येष्ठ हैं।।द्वादश.।।१२।।
श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र के छ्यासठ गणाधिप गण धरें।
‘मंदर’ मुनी गणधर प्रमुख ये सर्व रिद्धि गुण भरें।।द्वादश.।।१३।।
विमलनाथ के गणधर पचपन, सब ऋद्धि से पावन।
‘जयमुनि’ प्रमुख उन्हों में गणधर भव सागर से तारन।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती देकर भव से तारें।।१४।।
श्री अनंत जिनवर के गणधर हैं पचास गुण आकर।
‘श्री अरिष्ट’ गणधर प्रमुख्य हैं ऋद्धि सिद्धि रत्नाकर।।ये.।।१५।।
धर्मनाथ के गणधर सब ऋद्धी से पूर्ण तितालिस।
‘श्री अरिष्टसेन’ उनमें गुरु, ज्ञानज्योति से भासित।।ये.।।१६।।
शांतिनाथ के छत्तिस गणधर, चौंसठ ऋद्धि समन्वित।
‘चक्रायुध’ गणधर उनमें गुरु, सर्व गुणों से मंडित।।ये.।।१७।।
कुंथुनाथ के पैंतिस गणधर, शिवपथ विघ्न विनाशें।
प्रमुख ‘स्वयंभू’ गणधर उनमें, भविमन कुमुद विकासें।।ये.।।१८।।
अर जिनवर के तीस गणाधिप सर्वऋद्धि के धारी।
‘कुंभ’ प्रमुख हैं गणधर सबमें परमानंद सुखकारी।।ये.।।१९।।
मल्लिनाथ के अट्ठाइस गणनायक गुणमणि धारें।
‘श्री विशाख’ गणधर गुरु उनमें, भक्त विघन परिहारें।।ये.।।२०।।
मुनिसुव्रत के अठरह गणधर, व्रत गुण शील समन्वित।
‘मल्लि’ प्रमुख हैं गणधर उनमें, सब श्रुत ज्ञान समन्वित।।ये.।।२१।।
नमि जिनवर के सत्रह गणधर, यम नियमों के सागर।
‘सुप्रभ’ प्रमुख गणाधिप उनमें, करते ज्ञान उजागर।।ये.।।२२।।
नेमिनाथ के ग्यारह गणधर, ऋद्धि सिद्धि गुण धारें।
‘श्री वरदत्त’ प्रमुख गणधर हैं, गुणमणि माला धारें।।ये.।।२३।।
पाश्र्वनाथ के दश गणधर गुरु, चौंसठ ऋद्धि धरें हैं।
‘प्रमुख स्वयंभू’ गणधर उनमें, स्वात्मपियूष भरे हैं।।ये.।।२४।।
महावीर प्रभु के गणधर हैं, ग्यारह सब गुण पूरे।
‘इंद्रभूति गौतम’ स्वामी हैं, यम की समरथ चूरें।।ये.।।२५।।
चौबिस जिनके सब गणधर गुरु, चौंसठ ऋद्धी को धारे हैं।
ये चौदह सौ उनसठ१ मानें, भक्तों को भव से तारे हैं।।
सर्वौषधि आदिक ऋद्धी से, सब रोग शोक दु:ख हरण करें।
हम इनको वंदें भक्ती से, ये मुझमें समरस सुधा भरें।।२६।।
नमूं नमूं गणधर गुरु, द्वादशगण के नाथ।
ज्ञानमती सुखसंपदा, हेतु नमाऊं माथ।।२७।।
जय जय श्री गणधर, धर्म धुरंधर, जिनवर दिव्यध्वनी धारें।
द्वादश अंगों में, अंग बाह्य में, गूँथे ग्रन्थ रचें सारे।।
गुरु नग्न दिगंबर, सर्व हितंकर, तीर्थंकर के शिष्य खरे।
मैं नमूँ भक्ति धर, ऋद्धि निधीश्वर, मुझ शिवपथ निर्विघ्न करें।।१।।
मैं नमूँ मैं नमूँ नाथ गणधार को।
शील संयम गुणों के सुभंडार को।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।२।।
ऋद्धियाँ सर्व तेरे पगों के तले।
सर्व ही सिद्धियाँ आप चरणों भले।।नाथ.।।३।।
हलाहल विष कभी पाणि में आवता।
शीघ्र अमृत बने ऋद्धि गुण गावता।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।४।।
दीप्ततम ऋद्धि से नित्य२ उपवास है।
देह की कांति फिर भी द्युतीमन्त है।।नाथ.।।५।।
सर्व चौंसठ ऋद्धी धरें गुण भरें।
भक्तगण की सभी आश पूरी करें।।नाथ.।।६।।
विघ्न बाधा हरो सर्व सम्पत भरो।
स्वात्मपीयूष दे नाथ तृप्ती करो।।नाथ.।।७।।
मोह का नाशकर क्रोध शत्रू हरो।
मृत्यु को मार दूँ ऐसी शक्ती भरो।।नाथ.।।८।।
चार ज्ञानी प्रभो! चारगति भय हरो।
दे चतुष्टय अनंती सदा सुख करो ।।नाथ.।।९।।
इन्द्रभूती महाज्ञान मद से भरे।
पास आते हि सम्यक्त्व निधि को धरें।।नाथ.।।१०।।
शिष्य होके दिगम्बर मुनी बन गये।
चार ज्ञानी हुये गणपती बन गये।।नाथ.।।११।।
वीरकी ध्वनि छियासठ दिनों में खिरी।
इंद्र का हर्ष ना मावता उस घरी।।नाथ.।।१२।।
श्रावणी प्रतिपदा दिन प्रथम वर्ष का।
वीर शासन दिवस आज भी शर्मदा।।नाथ.।।१३।।
बारहों अंग पूर्वों कि रचना करी।
आज तक भी वही सार में है भरी।।नाथ.।।१४।।
गणधरों के बिना दिव्यध्वनि ना खिरे।
पद उन्हें जो प्रभू पास दीक्षा धरें।।नाथ.।।१५।।
गणधरों का सुमाहात्म्य मुनि गावते।
कीर्ति गाके कोई पार ना पावते।।नाथ.।।१६।।
धन्य मैं धन्य मैं धन्य मैं हो गया।
धन्य जीवन सफल आज मुझ हो गया।।नाथ.।।१७।।
आप गणइंद्र की भक्ति शोकापहा४।
आप की भक्ति ही सर्वसौख्यावहा५।।नाथ.।।१८।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना।
‘ज्ञानमती’ पूर्ण हो सुख असाधारणा।।नाथ.।।१९।।
चौबीसों तीर्थेश के, गणधर गुण आधार।
नमूँ नमूँ उनके चरण, मिले स्वात्मनिधिसार।।२०।।