तीर्थंकरों के समवसृति में, आर्यिकायें मान्य हैं।
ब्राह्मी प्रभृति से चंदना तक, सर्व में हि प्रधान हैं।।
व्रतशील गुण से मंडिता, इंद्रादि से पूज्या इन्हें।
वंदामि करके मैं नमूं, त्रयरत्न से युक्ता तुम्हें।।१।।
ऋषभदेव के समवसरण में, ‘ब्राह्मी’ गणिनी मानी हैं।
सर्व आर्यिका तीन लाख, पच्चास हजार बखानी हैं।।
रत्नत्रय गुणमणि से भूषित, शुभ्र वस्त्र को धारे हैं।
इनकी स्तुति वंदन भक्ती, भवि को भवदधि तारे हैं।।२।।
अजित नाथ के धर्मतीर्थ में, व्रत समिती गुप्ती धारें।
सर्व आर्यिका तीन लाख, अरु बीस हजार धर्म धारें।।
मात ‘प्रकुब्जा’ गणिनी इनमें, धर्म धुरंधर नारी हैं।
इनकी स्तुति वंदन भक्ति, सब जन को सुखकारी है।।३।।
संभव जिन के समवसरण में, महाव्रतों से भूषित हैं।
तीन लाख अरु तीस हजार, आर्यिकायें गुण पूरित हैं।।
इनमें गणिनी ‘धर्म श्री’ माँ, धर्मवत्सला सुरवंद्या।
इनकी स्तुति वंदन भक्ती, देती सुख परमानंदा।।४।।
अभिनंदन प्रभु धर्म सभा में, सर्व आर्यिकायें पूज्या।
तीन लाख अरु तीस सहस, छह सौ सब शील नियम युक्ता।।
इन सबकी ‘मेरुषेणा’ मां, गणिनी वत्सल गुणधारी।
इन सबकी वंदन भक्ती से, तरें भवोदधि नरनारी।।५।।
सुमति जिनेश्वर समवसरण में, तीन लाख अरु तीस सहस।
इन सब व्रतमंडितआर्या में, मात ‘अनंता’ प्रमुख बसत।।
लज्जा शील गुणों से पूरित, एकशाटिका धारी हैं।
ध्यानाध्ययन तपस्या में रत, इन भक्ती गुणकारी हैं।।६।।
पद्मप्रभू के धर्म तीर्थ में, धर्म मूर्तियों शोभे हैं।
चार लाख अरु बीस सहस, ये व्रती आर्यिकायें सब हैं।।
‘रतिषेणा’ माँ गणिनी इनमें, मानों जिनवर कन्या हैं।
जाती कुल से शुद्ध शील से, शुद्ध आर्यिका धन्या हैं।।७।।
श्री सुपाश्र्व जिन समवसरण में, तीन लाख अरु तीस सहस।
‘मीना ‘ गणिनी सहित आर्यिका, सब सद्धर्म सुता सदृश।।
संयमशील समिति गुणमंडित, समकित रत्न धरें शोभें।
इनकी भक्ती करते सुर नर, पुन: न दुर्गति दुख भोगें।।८।।
चंद्रनाथ के समवसरण में, श्वेत वस्त्रधारी आर्या।
तीन लाख अस्सी हजार ये, इनमें ‘वरुणा’ प्रमुखार्या।।
लेश्या शुक्ल धरें ये श्रमणी, शुक्लगुणों से मंडित हैं।
जो भविजन इन वंदन करते, वे पद लहें अखंडित हैं।।९।।
सुविधिनाथ के समवसरण में, ‘घोषा’ प्रमुख आर्यिका हैं।
तीन लाख अस्सी हजार, सब महाव्रतादि धारिका हैं।।
धर्म वत्सला धर्म मूर्तियाँ, धर्म ध्यान में तत्पर हैं।
धर्म प्राण जन इनको वंदे, सब सुख लहें निरंतर हैं।।१०।।
श्री शीतल जिन समवसरण में, प्रमुख आर्यिका ‘धरणा’ हैं।
ये तीन लाख अस्सी हजार, इनके वच अमृत झरना हैं।।
सब क्षमा मार्दव आर्जवादि, दश धर्मों को धारण करतीं।
इनकी स्तुति वंदन भक्ती, सब तन मन की व्याधी हरती।।११।।
श्रेयांसनाथ के यहाँ एक लख, तीस सहस्र आर्यिका हैं।
इनमें गणिनी ‘धारणीमात’, ये रत्नत्रय त्रितय साधिका हैं।।
इस भव में स्त्रीलिंग छेद, इंद्रों का वैभव पाती हैं।
फिर आकर शिवपद प्राप्त करें, इन स्तुति भव दुख घाती हैं।।१२।।
श्री वासुपूज्य के यहाँ साध्वियां, एक लाख छह सहस कहीं।
इनमें ‘वरसेना’ गणिनी हैं, सब महाव्रतों को पाल रहीं।।
ये ग्यारह अंग पढ़ें रुचि से, शिष्याओें को शिक्षा देतीं।
जिनवर भक्ती में नित तत्पर, इनकी स्तुति दु:ख हर लेती।।१३।।
श्री विमलनाथ के निकट साध्वियां, एक लाख त्रय सहस कहीं।
ये ‘पद्मा’ गणिनी आज्ञा में, निज आत्म तत्त्व में लीन रहीं।।
सोलह कारण भावना भाय, तीर्थंकर पुण्य कमाती हैं।
इनकी स्तुति वंदन भक्ती, भव्यों के कर्म जलाती हैं।।१४।।
जिनवर अनंत के यहाँ आर्यिका, एक लाख अठ सहस कहीं।
गणिनी माँ ‘सर्वश्री’ उनमें, सब शील गुणों की खान कहीं।।
इनको पूजें सुर नर किन्नर, वीणादिक वाद्य बजा करके।
अप्सरियाँ नृत्य करें सुंदर, इनके गुण मणि गा गा करके।।१५।।
श्री धर्मनाथ के निकट ‘सुव्रता’ गणिनी के अनुशासन में।
बासठ हजार चउशतक आर्यिका, नित तत्पर व्रत पालन में।।
तप त्याग अकिंचन ब्रह्मचर्य, धर्मों से शक्ति बढ़ाती हैं।
निज पाणि पात्र में लें आहार, मुनिव्रत चर्या सु निभाती हैं।।१६।।
श्री शांतिनाथ के समवसरण, में साठ हजार तीन सौ हैं।
गणिनी ‘हरिषेणा’ माता भी, निज गुण से सुर नर मन मोहें।।
ये परमशांति पाने हेतु, निज समतारस को चखती हैं।
इनकी आहारदान भक्ती, भक्तों में समरस भरती हैं।।१७।।
श्री कुंथुनाथ के यहाँ साठ हजार तीन सौ पचास हैं।
आर्यिका ‘भाविता’ प्रमुख मान्य, निजगुण से भविजन मन मोहें।।
उपचार महाव्रत हैं इनके, इक साड़ी मात्र परिग्रह से।
गुणस्थान पाँचवाँ देशविरत, होता है वंदूं भक्ती से।।१८।।
अर जिन के यहाँ आर्यिकायें, सब साठ हजार बखानी हैं।
‘कुंथुसेना’ गणिनी इनकी, ये उज्ज्वल गुणरजधानी हैं।।
इनके वचनामृत भविजन को, पुष्टी तुष्टी शांती देते।
जो इनकी संस्तुति करते हैं, उनके सब पातक हर लेते।।१९।।
श्री मल्लिनाथ के तीरथ में, पचपन हजार साध्वी मानीं।
गणिनी ‘बंधूसेना’ उनमें, सबको शिक्षा दें कुशलानी।।
ये सम्यग्दर्शन से विशुद्ध, निज पर भेद ज्ञान धारें।
चारित निर्दोष पालती हैं, इन वंदत रोग शोक टारें।।२०।।
मुनिसुव्रत जिन के सभा बीच, पच्चास हजार आर्यिका हैं।
उनमें सु ‘पुष्पदत्ता’ प्रधान, सब निज शुद्धात्म साधिका हैं।।
रस रूप गंध स्पर्श शून्य, निज आत्मा का चिंतन करतीं।
इनके गुण गाते चक्रवर्ति, ये भक्तों के भवभय हरतीं।।२१।।
नमि जिन के समवसरण में ये, साध्वी पैंतालिस सहस कहीं।
गणिनी ‘मार्गिणी’ मान्य उनमें, ये निजानंद सुख मग्न कहीं।।
भक्तों को शिवपथ दिखलाती, पापों से रक्षा करती हैं।
वात्सल्यमयी माता सच्ची, इन संस्तुति नवनिधि भरती हैं।।२२।।
नेमीप्रभु समवसरण में ये, चालीस हजार बखानी हैं।
उनकी गणिनी ‘राजुलदेवी’, पातिव्रत धर्म निशानी हैं।।
हलधर नारायण चक्रवर्ती, इंद्रादिक इनको नमते हैं।
महिलाओं में ये चूड़ामणि, इनका हम वंदन करते हैं।।२३।।
श्री पाश्र्वनाथ के निकट आर्यिका, अड़तिस सहस मान लीजे।
उनमें ‘सुलोचना’ गणिनी हैं, स्तुति से मन पवित्र कीजे।।
इनके गुण अमलवस्त्र उज्ज्वल, मन धवल शुक्ल लेश्या शोभें।
इनकी संस्तुति भक्ती करके, हम शिवपुर के सब सुख भोगें।।२४।।
श्री वीरप्रभू की सभा बीच, छत्तीस हजार आर्यिका हैं।
मां सती ‘चंदना’ गणिनी हैं, सब संयम रत्न साधिका हैं।।
इनको वंदामी कर करके, मैं शिवपथ प्रशस्त कर लेऊँ।
मेरा संयम निर्दोष पले, गुरुचरण हृदय में रख लेऊँ।।२५।।
लाख पचास छप्पन सहस, दो सौ तथा पचास।
समवसरण की साध्वियां, और अन्य भी खास।।२६।।
अट्ठाइसों मूलगुण, उत्तर गुण बहुतेक।
धारें सबहीं आर्यिका, नमूँ नमूँ शिर टेक।।२७।।
जय जय जिन श्रमणी, गुणमणि धरणी, नारि शिरोमणि सुरवंद्या।
जय रत्नत्रयधनि, परम तपस्विनि, स्वात्मचिंतवनि त्रय संध्या।।
मुनि सामाचारी, सर्व प्रकारी, पालनहारी अहर्निशी।
मैं वंदूं ध्याऊँ, तुम गुण गाऊँ, निजपद पाऊँ ऊध्र्वदिशी।।१।।
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं करूं मात! वंदामि तुमको यहाँ।।
आप सम्यक्त्व से शुद्ध निर्दोष हो।
शास्त्र के ज्ञान से पूर्ण उद्योत हो।।२।।
शुद्ध चारित्र संयम धरा आपने।
श्रेष्ठ बारह विधा तप चरा आपने।।धन्य.।।३।।
एक साड़ी परिग्रह रहा शेष है।
केश लुचन करो आर्यिका वेष है।।धन्य.।।४।।
आतपन आदि बहु योग को धारतीं।
क्रोध कामारि शत्रु सदा मारतीं।।धन्य.।।५।।
अंग ग्यारह सभी ज्ञान को धारतीं।
मात! हो आप ही ज्ञान की भारती।।धन्य.।।६।।
भक्तजनवत्सला धर्म की मूर्ति हो।
जो नमें आपको आश की पूर्ति हो।।धन्य.।।७।।
मात ब्राह्मी प्रभृति चंदना साध्वियाँ।
अन्य भी जो हुई हैं महासाध्वियाँ।।धन्य.।।८।।
मात सीतासती सुलोचना द्रौपदी।
रामचंद्रादि इंद्रादि से वंद्य भी।।धन्य.।।९।।
चंद्र समकीर्ति उज्ज्वल दिशा व्यापती।
सूर्य सम तेज से पाप तम नाशतीं।।धन्य.।।१०।।
सिधुसम आप गांभीर्य गुण से भरीं।
मेरु सम धैर्य भू-सम क्षमा गुण भरीं।।धन्य.।।११।।
बर्प सम स्वच्छ शीतलवचन आपके।
श्रेष्ठ लज्जादि गुण यश कहें आपके।।धन्य.।।१२।।
आर्यिका वेष से मुक्ति होवे नहीं।
संहनन श्रेष्ठ बिन कर्म नशते नहीं।।धन्य.।।१३।।
सोलवें स्वर्ग तक इंद्र पद को लहें।
फेर नर तन धरें साधु हों शिव लहें।।धन्य.।।१४।।
जैन सिद्धांत की मान्यता है यही।
संहनन श्रेष्ठ बिन शुक्ल ध्यानी नहीं।।धन्य.।।१५।।
अंबिके! आपके नाम की भक्ति से।
शील सम्यक्त्व संयम पलें शक्ति से।।धन्य.।।१६।।
आत्मगुण पूर्ति हेतू नमूं मैं सदा।
नित्य वंदामि करके नमूँ मैं मुदा।।धन्य.।।१७।।
‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो याचना एक ही।
अंब! पूरो अबे देर कीजे नहीं।।धन्य.।।१८।।