—पं. जवाहरलाल नेहरू
जैन—धर्म की सबसे बड़ी देन है ‘अहिंसा ’।
अहिंसा धर्म महज ऋषियों और महात्माओं के लिए ही नहीं है, वह तो आम लोगों के लिए भी है। जैसे पशुओं के लिए हिंसा प्रकृति का नियम है, वैसे ही अहिंसा हम मनुष्यों की प्रकृति का विधान है। पशुओं की आत्मा सोती पड़ी रहती है और वह शारीरिक बल के अलावा और किसी कानून को जानती ही नहीं हैं मनुष्य के गौरव के लिए आवश्यक है कि वह अधिक ऊँचे विधान की शक्ति, आत्मा की शक्ति के सामने सिर झुकाये।
जिन ऋषियों में हिंसा में से अहिंसा का नियम ढूँढ़ निकाला है, वे न्यूटन से ज्यादा योद्धा थे। वे हथियार चलाना जानते थे, लेकिन अपने अनुभव से उन्होंने उन्हें बेकार पाया और भयभीत दुनिया को यह सिखाया कि उसका छुटकारा हिंसा के जरिए नहीं होगा, बल्कि अहिंसा के जरिये होगा। अहिंसा के मायने है जान—बूझकर कष्ट सहन करना। उसके माने यह नहीं है कि बुरा करने वाले की इच्छा के सामने चुपचाप अपना सिर झुका दें।
मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान पहचान ले कि उसके एक आत्मा है, जिनका नाश नहीं हो सकता है जो सारी शारीरिक कमजोरियों पर विजय पा सकती है। सारी दुनिया के शारीरिक बलों का मुकाबला कर सकती है। मेरा पूरा विश्वास है कि अहिंसा, हिंसा से कहीं ज्यादा ऊँची है। सजा के बनिस्बत माफी देना कहीं ज्यादा बहादुरी का काम है।
‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ — क्षमा से वीर की शोभा बढ़ती है। लेकिन, सजा नहीं देना उसी हालत में क्षमा होती है, जब सजा देने की ताकत हो। किसी असहाय जीव का यह कहना कि मैंने अपने से बलवान को क्षमा कर दिया, कोई माने नहीं रखता। जब एक चूहा, बिल्ली को अपने शरीर के टुकड़े—टुकड़े करने देता है तब वह बिल्ली को क्षमा नहीं करता। लेकिन मुझे समझने की गलती नहीं करें।
ताकत शारीरिक बल से नहीं करें। ताकत शारीरिक बल से नहीं आती, वह तो अदम्य इच्छाशक्ति से आती है। कोई यह नहीं समझे कि मैं हवाई और खयाली आदमी हूँ। मैं तो व्यवहारिक आदर्शवादी होने का दावा करता हूँ।