भारत धर्म प्रधान देश है। संस्कृति और कला का उन्नायक स्थान है। साहित्य और इतिहास का खान है। साहित्य समाज का दर्पण है। इतिहास समाज का जीवन है। प्राचीनता साहित्य का देन है। जैन साहित्य जैनधर्म की प्राचीनता का द्योतक है। इस तथ्य का प्रामाणिक आधार विविध भाषाओं में विरचित जैन साहित्य, अभिलेख ग्रंथ, प्रशस्तियाँ आदि हैं। इनमें यत्र तत्र सर्वत्र यतिधर्म का विशेष उल्लेख उपलब्ध है। जैनधर्म के उन्नायक व पुनरुद्धारक तीर्थंकरों का गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और मोक्ष आदि पाँचों परम पावन कल्याणक उत्तर भारत में ही हुए हैं। परन्तु उन तीर्थंकरों की दिव्य वाणी को लिपिबद्ध करके प्रचार प्रसार करनेवाले आचार्यगण दक्षिण भारत में हुए। यह संयोग अत्यनत अनूठा एवं आश्चर्यजनक है। उनमें भी जैन सिद्धान्त, साहित्य, न्याय, व्याकरण आदि विषयों के प्रतिपादक आचार्यों का जन्मस्थान कर्णाटक और तमिलनाडू में है। इतिहास साक्षी है कि जब अन्तिम श्रुतकेवली भद्राबाहु स्वामी उत्तर भारत से दक्षिण भारत आये तब उनके संघ में बारह हजार नग्न दिगम्बर मुद्राधारी मुनिगण थे। इनका संघ कर्णाटक प्रदेश स्थित श्रवणबेलिगोला में आ ठहर गया। चन्द समयान्तर आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी का आदेश पाकर संघ में स्थित प्रमुख आचार्यवर्य श्री विशाखाचार्य ने अपने साथ आठ हजार मुनिगण सहित तमिल प्रदेश में विहार कर धर्म का प्रचार किया। तमिलनाडू में स्थित पर्वतों में ‘‘अष्टसहस्र’’ (एण्णायिरम्) नामक एक छोटी पहाड़ी वर्तमान में प्रख्यात है। अनुश्रुति है कि आठ हजार मुनि पुङ्गवों में कुछ संतगण इस लघुकाय पर्वत पर आकर ठहर गये थे इसलिए इस पहाड़ी का नाम अष्टसहस्र (एण्णारियम्) पड़ा। इससे यह पता चलता है कि भद्रबाहु के आगमन के पूर्व ही तमिलनाडू में जैन जनता व श्रावकों का निवास था। हमें यह विचार करना है कि नग्न दिगम्बर जैन साधु स्वच्छन्द विहार करने वाले हैं। वे किसी के आधिपत्य में रहने वाले नहीं। वे यत्रतत्र प्राप्त प्रासुक आहार को ही ग्रहण करने वाले हैं। उनमें संघ की व्यवस्था है। संघ में झुण्ड के झुण्ड मुनिगण रहते हैं। सदाचारी श्रावक के अपने लिऐ प्रासुक रूप से बनाये गये आहार को ही वे ग्रहण करते हैं। जहाँ पर उनके लिए आहार देने योग्य श्रावक समाज रहेगी वहाँ पर ही इनका विहार होना अनिवार्य है अत: इनके लिए आहार देने योग्य श्रावक समाज जहाँ विद्यमान होगा वहाँ पर इनका विहार होगा। इतिहास ग्रंथ से पता चलता है कि तमिलनाडू में ईस्वी पूर्व तीसरी व चौथी शताब्दी में जैन धर्म का अस्तित्व था। जैन धर्म का प्राचीन इतिहास द्वितीय भाग में निम्न उल्लेख प्राप्त है। ‘‘भद्रबाहु श्रुतकेवली होने के साथ—साथ अष्टांग महानिमित्त के भी पारगामी थे। उन्हें दक्षिण देश में जैन धर्म के प्रचार की बात ज्ञान थी तभी उन्होंने बारह हजार साधुओं के विशाल संघ को दक्षिण की ओर जाने की अनुमति दी। भद्रबाहु ने सब संघ को दक्षिण के पाण्ड्यादि देशों की ओर भेजा, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वहाँ जैन साधुओं के आचार का पूर्ण निर्वाह हो जाएगा। उस समय दक्षिण भारत में जैनधर्म पहले से प्रचलित था। यदि जैनधर्म का प्रचार वहाँ न होता तो इतने बड़े संघ का निर्वाह वहाँ किसी तरह भी नहीं हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि वहाँ जैनधर्म प्रचलित था। लंका में भी ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में जैनधर्म का प्रचार था और संघस्थ साधुओं ने भी वहाँ जैनधर्म का प्रचार किया। तमिल प्रदेश के प्राचीनतम शिलालेख मदुरा और रामनाड जिले से प्राप्त हुए हैं जो अशोक के स्तम्भों में उत्कीर्ण लिपि में हैं। उनका काल ई. पूर्व तीसरी शताब्दी का अन्त और दूसरी शताब्दी का प्रारम्भ माना गया है। उनका सावधानी से अवलोकन करने पर ‘‘पल्ली’’ ‘‘मदुराई’’ जैसे कुछ तमिल शब्द पहचानने में आते हैं। उस पर विद्वानों के दो मत हैं। प्रथम के अनुसार उन शिलालेखों की भाषा तमिल है। जो अपने प्राचीनतम अविकसित रूपों में पाई जाती है और दूसरे मत के अनुसार उनकी भाषा पैशाची प्राकृत है जो पाण्ड्य देश में प्रचलित थी। जिन स्थानों से उक्त शिलालेख प्राप्त हुए हैं उनके निकट जैन मन्दिरों के भग्नावशेष और जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ पाई जाती हैं, जिन पर सर्प का फण या तीन छत्र अंकित हैं।’’ इसके अलावा ‘‘जैन कला और स्थापत्य’’ के आधार पर भी उक्त बातों का प्रमाण अधिक मात्रा में उपलब्ध है। अत: ईस्वी पूर्व तीसरी या चौथी शताब्दी में तमिलनाडु में जैनधर्मानुयायी रहते थे। उस समय का समाज समृद्धिशाली और धर्मनिष्ठ था। इसीलिए तो आठ हजार दिगम्बर मुनियों का इस प्रांत में विहार हो सका। उस समय के श्रावक—श्राविकायें सहस्रों संख्या में उनकी परिचर्या में संलग्न थे। उस संघ में आर्यिकाओं की संख्या की भी बहुलता थी। तभी से तमिलनाडू में आर्यिकाओं की परम्परा चली आ रही है।
तमिल साहित्य में मुनि एवं आर्यिकाओं का अभिधान
तमिलनाडू का जैन इतिहास जैसे प्राचीनता का स्थान पाता है उसी प्रकार तमिल भाषा का जैन साहित्य भी प्राचीनता को प्राप्त करता है। जैन साधु महात्माओं ने जैन साहित्य के लिए जितना योगदान दिया है उतना योगदान अन्य सम्प्रदाय वालों ने नहीं दिया। यह कथन जैनेतर विद्वानों का है। काव्य, व्याकरण, न्याय, गणित, ज्योतिष, वैद्यक, संगीत, कोष, नीतिशास्त्र, प्रबन्ध आदि विषयों के ग्रंथ रचना करके जैन आचार्यों ने तमिल भारती को अलंकृत किया है। तमिल साहित्य में जैन मुनियों के लिए ‘कुरवर’, आर्यिकाओं के लिए ‘‘कुरत्तियर’’ शब्द का प्रयोग पाया जाता है। तमिल भाषाशास्त्र की दृष्टि से कुरवर और कुरत्तियर शब्द अति पवित्र माना जाता है। जैन संत जिस स्थान में विराजमान रहते थे वह स्थान ‘‘पल्लि’’ नाम से प्रख्यात था। वर्तमान में वह पल्लि शब्द ‘‘पाठशाला’’ के लिए प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में तिरुचिरापल्लि नामक जो नगर है वह प्राचीन काल में ‘‘तिरुजिन पल्लि’’ नाम से अभिहित था। तिरु शब्द ‘‘श्री’’ के लिए प्रयुक्त है। वर्तमान में जिन—जिन स्थानों के आगे तिरु शब्द प्रयोग किया गया है वे स्थान प्राचीन काल में जैनियों का ही वास था। जैसे तिरुचिरापल्लि, तिरुवैयारु, तिरुनेलवेलि, तिरुसमुद्र, तिरुप्पापुलियूर आदि।
तमिलनाडू की आर्यिकायें
निम्नलिखित स्थानों के अभिलेख एवं प्रशस्तियों में आर्यिकाओं के नाम उपलब्ध हैं। जो तमिल साहित्य की सेवा करने में और धर्म प्रचार में विपुल मात्रा में योगदान दिया है। कन्याकुमारी जिले के निकटस्थ तिरुचारण मलै (मलै पर्वत) में स्थित वरगुण नरेश के अभिलेख में और तिरुनेलवेलि जिले के अन्तर्गत कलुगुमलै में स्थित अभिलेख में अरिट्टनेमि भट्टारक की शिष्या का नाम कुणन्दागी कुरत्ति का जिक्र है। इसके अलावा इसी पर्वत में स्थित भगवान् की मूर्ति के पीठ पर अच्चनन्दि, काट्टांपल्लि के अच्चनन्दि अडिगल, तिरुचारणत्तु पट्टाणि भट्टारक के शिष्य वरगुण भट्टारक तिरुनरूंकोण्डे मेलिर पल्लि के वीरनन्दि आदि के नाम अज्र्ति हैं। इसी अच्चनन्दि का नाम एरवाडो नामक गाँव में स्थित अभिलेख में भी उपलब्ध है। इसमें कई आर्यिकाओं (कुरत्तियर) के नाम भी हैं। कलुगुमलै में स्थित अभिलेख में अनेक मुनि (कुरवर) आर्यिका (कुरत्तियर) के नाम पाये जाते हैं। उनमें पुष्पनन्दि उत्तरनन्दि, विमलचन्द्र आदि मुनि पुंगवों के नाम के साथ तिरुच्चारणत्तु कुरत्तियर (तिरुच्चारण के आर्यिकाओं) के नाम भी हैं। कलुगुमलै का अभिलेख ईस्वी आठवीं शताब्दी का है अत: ये साधु और आर्यिकायें आठवीं शताब्दी या उसके पूर्व काल के होना चाहिये। यहाँ पर बृहदाकार अखण्ड शिला पर दो या तीन कतारों में पद्मासन और खड्गासन की मुद्रा में करीब ढ़ाई सौ मूत्र्तियाँ उत्कीर्ण हैं और वृहदाकार की अति विशाल गुफा भी है। गुफा के अन्दर भी कई मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। ब्राह्मी और वट्टलेत्तु के अभिलेख भी विद्यमान हैं। यह स्थान तिरुनेलवेलि जिला के अन्तर्गत कोविल पट्टी तहसील के निकट है। परन्तु यह पर्वत और तहलटी का मन्दिर जैनेतरों के अन्तर्गत है। मन्दिर तो सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित होकर शिव मन्दिर का रूप बन गया है। वर्तमान में यहाँ पर जैन का घर एक भी नहीं है। कन्याकुमारी जिले में स्थित नागरकोइल नगर में नागराजा टेंपल के नाम से एक मन्दिर है जो पहले पार्श्वनाथ भगवान् का मन्दिर था अब उसमें पाश्र्वनाथ की मूर्ति नहीं है। नागराजा मन्दिर के नाम से अभिहित है। मन्दिर के अन्दर स्थित खंभे पर तीर्थंकरों और पद्मावती देवी की मूर्ति उत्कीर्ण है जो वर्तमान में भी स्थित है। इस मन्दिर के अभिलेख में कमलवाहन पण्डित, गुणवीर पंडित आदि दो श्रमण पंडितों के नाम और अनेक आर्यिकाओं के नाम उपलब्ध हैं। यहाँ पर आठवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के श्रमण इतिहास के अभिलेख अवस्थित हैं।
आर्यिका जैन महिला महाविद्यालय
उत्तर आर्काड जिले के अन्तर्गत विडाल नामक एक गाँव में एक पहाड़ी है । उसमें कंदरा और मंडप भी है। यहाँ एक अभिलेख है जिसमें इस मंडप के निर्माता के नाम एवं उसका जीवनवृत्त लिखा हुआ है। यहाँ एक जैन महिला महाविद्यालय होने का संकेत है। इसमें आर्यिकाओं के नाम भी अज्र्ति हैं। पल्लव नरेशों के शासन काल में नन्दिवर्ग पल्लव के समय एवं चोल साम्राज्य के आदित्य चोल के समय में यह विद्यालय अत्यन्त उज्जवल दशा में होने का जिक्र है। नन्दिवर्म का अभिलेख इस स्थान को ‘‘विडाल पल्लि’’ के नाम से व्यक्त करता है। आदित्यचोल का अभिलेख इस विद्यालय को ‘‘मादेवी आरान्दि मंगलम्’’ के नाम से अभिव्यक्त करता है । साथ—साथ उस समय स्थित आर्यिकाओं के संबंध में अनेक बातों का संकेत है। उस विद्यालय की संचालिका ‘‘कनकवीरकुरत्ति’’ थी जो आर्यिकाओं की नेत्री और महावीर भट्टारक नाम के मुनि की शिष्या थी। आदित्यचोल नरेश ने अपने शासन काल के चौदहवें वर्ष (ईसवी ८८५—६) में इस संस्था के लिए जमीन दान में दिया था। कनकवीर कुरत्ति (आर्यिका) के नेतृत्व में ५०० छात्राएँ व बालकन्यायें अध्ययन करती थीं । तिरुप्पानगिरि के निकटस्थ विलापाक्कम् नामक स्थान पर आर्यिकाओं का महाविद्यालय था । प्रथम परानदकचोल शासन काल में यहाँ पर अरिष्टनेमि भट्टारक की शिष्या ‘‘पट्टणिकुरत्ति’’ ने इस विद्यालय का संचालन किया। चौबीस सदस्यों की एक समिति के द्वारा यहाँ के मन्दिर और महाविद्यालय का संरक्षण किया गया। और भी एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि ‘‘तिरूप्पणगिरि’’ पर स्थित मूर्तियाँ इस पर्वत प्रदेश के निकटस्थ जैनियों के संरक्षण में थीं । पल्लव शासन काल से लेकर प्रथम राजराज चोल के शासन काल तक इस प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार अति उन्नत दशा में था । ‘‘सिलिप्पदिकारम्’’नाम एक प्रसिद्धि तमिल साहित्य ग्रंथ है । जो जैन आचार्य ‘‘इलंगोवडिगल’’ की कृति है । यह तमिल साहित्याकाश में प्रकाशमान इन्दु विम्बवत् उत्कृष्ट शब्द भंडार से अलंकृत करने के साथ—साथ जैन सिद्धान्त की बातों का आत्मसाय किया हुआ अनुपम ग्रंथ है । इसके ग्रन्थकर्ता ने ‘‘कौन्दिअडिगल’’ नामक आर्यिका का उल्लेख किया है । ये आर्यिका माता ने इस ग्रंथ के मुख्य पात्र ‘‘कोवलन और कण्णगी’’ को अिंहसामय सिद्धान्त का प्रतिबोध देकर उनको दयामय मार्ग में चलाने की चेष्टा की है । इस प्रकार के तमिल जैन साहित्यों ऐतिहासिक ब्राह्मी और वट्टेलुत्तू के अभिलेखों से प्रामाणिक बातों का प्रबोध प्राप्त होता है कि तमिलनाडू में धर्मनिष्ठ नर— नाारियों और आर्यिकायें केवल धर्मकार्य में अधिष्ठात्री न होकर त्यागमय साध्वी जीवन व्यतीत कर धार्मिक क्षेत्र में अग्रसर होकर गुरु और आचार्य के तुल्य प्रशंसनीय कार्य किया है ।