”Ratna Karanda Śrāvakāchāra” is a work of great authority on Jainism. It is possessed of exceptional merit, and contains, within its 150 verses, the gist of the entire Canon on the householder’s dharma (conduct). The sacred text was composed by, Acharya Samantabhadra, a famous Jaina Saint, said to have lived about the latter part of the 2nd century A.D.
Sixth part of the Ratna Karanda Sravakachara is descriptive of the vow of sallekhanā .
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः।।
(१२२)
अर्थ: जिसको किसी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता ऐसा उपसर्ग आने पर, ऐसा अकाल पड़ने पर, जर्जरित बुढ़ापा आने या कठिन असाध्य रोग हो जाने पर धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है उसका नाम सल्लेखना है।।१२२।।
Meaning: The most excellent of men describe the giving up of the body on the arrival of unavoidable calamity, distress, senescence and disease, with a view of increase of spiritual merit, as sallekhanā.
Explanation – Sallekhanā-death must be distinguished from suicide. It is undertaken only when the body (ghost) is no longer capable of serving its owner as an instrument of dharma and when the inevitability of death is a matter of undisputed certainty.
In such cases, when life may be said to confess judgment to the claim of death, the adoption of the sallekhanā attitude is calculated to directly strengthen the soul and to prevent its future re-birth in any but the very best surroundings.
Those who adopt the sallekhanā vow immediately become self-reliant, self-composed and self-centred; they cease to be agitated by personal consideration and suffering and rise above the cravings and longings of the world.
The effect of the terribly resolute attitude of mind implied in this vow on the departing soul is simply wonderful, and immediately raises its rhythm, lifting it out of the slough of despond and negativity.
The man who wanders or tosses about hither and thither, weeping and crying, in the closing moments of life and spends the little time at his disposal in making vain endeavors to avoid the unavoidable, is nowhere compared with him who, realizing the hopelessness of the endeavor to save his life, earnestly applies himself to control his destiny.
The result is that, while the latter attains to deva-birth in the highest heavens, the former only finds himself in painful and unenviable circumstances and surroundings.
अन्तक्रियाघिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते।
तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यं।।
(१२३)
सर्वज्ञ देव तप का फल अंत समय समाधिमरण की प्राप्ति को ही कहते हैं। क्योंकि समाधिमरण से ही सब धार्मिक कार्य फलित होते हैं। इसलिए सर्वशक्तिपूर्वक समाधिमरण के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए।।१२३।।
To be able to control one’s conduct at the moment of death is the fruit (culmination) of asceticism; all systems are at one as to this; therefore, one should apply oneself to attain sallekhanā death to the extent of one’s power.
Explanation – As the mental attitude prevailing at the last moment of life considerably affects the future destiny of the soul, there can be no doubting the fact that those who give up the ghost according to the method of sallekhanā attain to the very best conditions of life in the hereafter.
स्नेहं वैरं सङगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः।
स्वजनं परिजनमपि च, क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः।।
(१२४)
स्नेह, वैर, मोह और परिग्रह को छोड़ करके शुद्ध चित होते हुए समाधिमरण की इच्छा से प्रिय वचनों द्वारा अपने परिवार व अन्य लोगों से क्षमा याचना करे तथा स्वयं भी सभी के अपराधों को क्षमा करे ।।१२४।।
Giving up love, hatred, attachment and possession, with a pure mind, one should obtain, with sweet speech, forgiveness from one’s kinsmen and attendants, and should also forgive them oneself.
आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजं ।
आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निश्शेषं ।।
(१२५)
जो पाप किये हैं, कराये हैं, और उनकी अनुमोदना की है उन सभी पापों की मायाचाररहित सरल भावों से आलोचना करके जीवन भर के लिए पाँचों पापों का पूर्णतया त्याग करके सल्लेखना के समय पाँच महाव्रत धारण कर मुनि बन जाना चाहिए।।१२५।।
Renouncing duplicity and reflecting on the sins committed in any of the three ways, one should take all the great vows of asceticism for the rest of one’s days.
Explanation –
शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्य-मरतिमपि हित्वा।
सत्वोत्साह-मुदीर्य च, मनः प्रसाधं श्रुतैरमृतैः।।
(126)
शोक, भय, स्नेह, अरति और मन की कलुषता को छोड करके तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके अमृत के समान शास्त्रों से अपने मन को प्रसन्न करना चाहिए। क्योंकि जिन वचन रूपी अमृत अतिशय, तृप्ति, पुष्टि और तुष्टि देकर पुन: मृत्यु को भी नष्ट कर देता है।।१२६।।
Banishing grief, fear, anguish, attachment, wickedness and hatred and bringing into manifestation energy and enthusiasm, one should extinguish the fire of passions with the nectar of the Word of God [i.e. Scripture].
आहारं परिहाप्य, क्रमशः स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानं ।
स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः।।
(127)
अन्नादि भोजन को छोड़कर दूध आदि स्निग्ध पेय पदार्थ को लेवे। पुन: स्निग्ध दूध आदि छोड़कर छांछ या गर्म जल पीना चाहिए। इस तरह क्रम से त्याग करने से आकुलता नहीं होती है तथा शरीर में पीड़ा और व्याधि की विषमता भी नहीं होती है।।१२७।।
Giving up solid food by degrees, one should take to milk and whey, then giving them up, to hot or spiced water.
खरपानहापानामपि, कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या।
पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन।।
(128)
पुन: कांजी, तक्र या गरम जल को भी छोड़कर यथाशक्ति उपवास करना चाहिए और सम्पूर्ण प्रयत्न से पञ्च नमस्कार मंत्र का जाप करते हुए अंतिम क्षण में शरीर का त्याग कर देना चाहिये।।१२८।।
Subsequently giving up hot water also, and observing fasting with full determination, he should give up his body, trying in every possible way to keep in mind the five-fold obeisance mantra (holy formula).
Explanation– The pancha-mamaskara (five-fold obeisance) mantra is as follows:-
Arhanta means a Perfect Being while still living in the world of men.
जीवितमरणाशंसे भयमित्रस्मृतिनिदाननामानः।
सल्लेखनातिचाराः पन्च जिनेन्द्रैः समादिष्टाः।।
(129)
सल्लेखना लेने के बाद जीने की इच्छा करना, कष्ट आदि से घबड़ाकर जल्दी मरने की इच्छा करना, भूख आदि कष्टों से डरना, मित्रों का स्मरण करना, और भविष्यकाल में भोगों की वांछा करना इस तरह से जीविताशंसा, मरणाशंसा, भय, मित्रस्मृति और निदान ये सल्लेखना के पांच अतिचार होते हैं।।१२९।।
Entertaining a desire to live, wishing for [speedy] death, displaying fear, desiring to see or to be remembered to friends, looking forward to future sense- enjoyment [in the life to come]– these have been described as the transgressions of sallekhanā by the Jinendra (Lord of Conquerors).
निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् ।
निःपिबति पीतधर्मा सवैर्दुःखैरनालीढः ।।
(130)
जो धर्मरूपी अमृत को पीता हुआ सल्लेखना विधि से शरीर को छोड़ता है वह सब दु:खों से छूटकर नि:श्रेयस—मोक्ष को प्राप्त कर लेता हैं वहाँ पर सर्वश्रेष्ठ, अपार, उत्कर्षशाली परमानन्दमय सुख के समुद्र में अवगाहन करते हुए अक्षय अनन्त गुणों को प्राप्त कर चिच्चैतन्यस्वरूप हो जाता है।।३०।।
He who has qualified the nectar of dharma [such an observer of the sallekhanā vow] becomes freed from all kinds of pain and drinks from the endless, unsurpassed and exalted ‘ocean’ of blissfulness of moksha.
Explanation – The soul who successfully observes the sallekhanā vow escapes from the pain and misery of samsara and speedily attains to moksha than which no status is more exalted in the three worlds.
He then enjoys, for all time to come, unabating unending and unsurpassed happiness which is the very nature of his soul.
जन्मजरामयमरणैः शौंकै-र्दुःखर्भयैश्च परिमुक्तम् ।
निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।।
(131)
जहाँ पर जन्म, जरा, मरण, व्याधि, शोक, दु:ख भय और त्रास नहीं है, जहाँ पर शाश्वत शुद्ध सुख है उसी का नाम नि:श्रेयस है। और वही निर्वाण है।।१३१।।
That which is free from birth, old age, disease, death, grief, pain and fear which is eternal, blissful [and of the nature of pure delight is called nirvana.
विद्याादर्शन शक्तिस्वास्थ्य प्रहलादतृप्तिशुद्धियुजः।
निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम्।।
(132)
जो भव्य जीव सम्यक्त्व से लेकर सल्लेखना तक व्रतों को धारण करते हैं, वे अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य और अनंत सुख इन अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर परिपूर्ण स्वस्थता, आल्हाद, तृप्ति और परिपूर्ण शुद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। वे निरतिशय, निरावधिक नि:श्रेयस पद में वास करते हैं। वहां अव्याबाध सुख प्राप्त करके हमेशा आत्मसुख में निमग्न रहते हैं।।१३२।।
Those who perform sallekhanā dwell unexcelled for all eternity, in the joy of final beatitude, endowed with infinite wisdom, faith, energy renunciation, bliss, satisfaction and purity.
काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या।
उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसभ्रान्तिकरणपटुः ।।
(133)
यदि तीनों लोकों को उथल—पुथल करने वाला उत्पात भी हो जावे, तो भी उनमें किंचित मात्र भी विकृति या परिवर्तन कभी भी नहीं हो सकता है। जिन्होंने मोक्ष पद प्राप्त कर लिया सैकडों कल्पकाल के बीत जाने पर भी उनमें किंचित भी अंतर नहीं पड़ता है और वह पुन: इस संसार में नहीं आते हैं।।१३३।।
And even if there be a cosmic disturbance, violent enough to destroy the three worlds, still no change is observable in the condition of the Perfect Souls even after the lapse of hundreds of kalas (cycles of Time).
Explanation – One can think of a cosmic disturbance capable of destroying the three worlds, but it is absolutely inconceivable that there can be any change in the divine attributes of the Perfect Ones.
निःश्रेयसमधि पन्नास् त्रैलोक्य शिखामणिश्रियं दधते ।
निष्किट्टिकालिकाच्छविचामीकरभासुरात्मानः ।।
(134)
जैसे किट्ट कालिमा से रहित हुआ सोना शुद्ध होकर चमकता है वैसे ही कर्म मल से रहित मुक्त आत्मा शुद्ध होकर शोभते हैं और लोक के अग्रभाग पर जाकर स्वात्मजन्य पीयूषरूप सुख को भोगते हैं।।१३४।।
They who attain nirvana possess the lustre of pure unalloyed gold; they shine with effulgence [which is] the crest jewel of the three worlds.
Explanation – The glory of the siddhatman is unsurpassed in the three worlds.
पूर्जार्थाज्ञैशवर्यैर्बल परिजन कामभोग भूयिष्टैः ।
अतिशयितभुवनमद्भूतमम्युदयं फलति सद्धर्मः ।।
(135)
यह जिन कथित सच्चा धर्म ही इस जीव को प्रतिष्ठा धन, आज्ञा, ऐश्वर्य तथा शक्ति परिजन और काम भोगों की अधिकता को प्रदान करता है। लोकातिशायि आश्चर्यजनक इन्द्रादिक पदों को देता है और तो क्या लोकों के सभी सुख को प्रदान कर देता है।।१३५।।
The merit acquired by the practicing of dharma (religion or virtue) enables one to obtain high status, wealth, dominion, authority, power, attendants and the objects of enjoyment in abundance, [also] unsurpassed and prodigious good fortune.
Explanation – This verse describes the effects of adopting the vows, sallekhanā and others, from the point of view of material prosperity, and shows that those who practise self-control, in the true sense of the word, rise to the most enviable positions in the world and become heir to unexcelled good fortune.
Thus ends the sixth part, descriptive of sallekhanā, of the RatnaKaranda Śrāvakāchāra, composed by Sri Samantabhadra swami.