सुरेन्द्रपतियों से संस्तुत और मोह से रहित सुपार्श्व जिनेन्द्र को नमस्कार करके क्रमानुसार उस मन्दर पर्वतस्थ जिनभवन का निरूपण करते हैं।।१।। त्रिभुवनतिलक नामक वह जिनेन्द्रभवन शंख, चन्द्र और कुंद पुष्प के समान धवल तथा मणिगणों के किरणसमूह से अन्धकार समूह को नष्ट करने वाला है।।२।। उस दिव्य प्रासाद में पचहत्तर (योजन) ऊंची एवं पचास (योजन) आयाम व विष्कम्भ से सहित पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान गन्धकुटी है।।३।। इसके द्वार सोलह योजन ऊंचे, आठ योजन विस्तृत और विस्तार के समान प्रवेश से सहित हैं, यह उसके द्वारों का प्रमाण है।।४।। मन्दर पर्वत के प्रथम वन में चारों ही दिशाओं में अनादिनिधन चार जिनेन्द्र भवन कहे गये हैं।।५।। रजतमय भित्तियों से संयुक्त ये जिनगृह सौ योजन आयत, उससे आधे अर्थात् पचास योजन विस्तृत, आयाम व विस्तार के सम्मिलित प्रमाण से आधे (१०० + ५०) ´ २ · ७५ यो.) ऊंचे, तथा अर्ध योजन प्रमाण अवगाह से सहित हैं।।६।। जिनभवन के अवगाह को डेढ़ सौ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उतना (२ ² १५०)´ २ · ७५) प्रथम वन में स्थित जिनगृहों का उत्सेध कहा गया है।।७।। उक्त गुणकार का उत्सेध में भाग देने पर जो लब्ध हो उतना जिनगृहों का अवगाह जानना चाहिये, ऐसा संक्षेप से निर्दिष्ट किया गया है।।८।। अथवा, आयाम में विष्कम्भ को मिलाकर आधा करने पर जो प्राप्त हो वह सब भवनों का उत्सेध जानना चाहिये (देखिये ऊपर गा. ६)।।९।। उत्सेध को दूना करके पचास कम कर देने से भवनों का आयाम और आयाम से आधा विष्कम्भ होता है।।१०।। आयाम में विष्कम्भ के मिलाने पर उत्पन्न हुई उस राशि से उत्सेध के भाजित करने पर जो लब्ध हो उतना अवगाह का प्रमाण होता है।।११।। उन जिनभवनों के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में सुवर्ण, मणि एवं रत्नों के समूह से संयुक्त तीन ही द्वार कहे गये हैं।।१२।। मुक्ता एवं मणियों की मालाओं के समूह से संयुक्त ये द्वार आठ योजन ऊंचे और इससे आधे विस्तार वाले हैं ।।१३।। भवनों में (द्वार के) पश्चिम-पूर्व में प्रकाशमान किरणों से सहित और विचित्र वर्णवाली आठ हजार मणि मालायें लटकती रहती हैं ।।१४।। उनके अन्तराल में निर्मल उत्तम सुवर्ण की चौबीस हजार दिव्य मालायें लटकती हुई विराजमान होती हैं।।१५।। कर्पूर, अगरु, चन्दन और तुरूष्क के सुगन्धित उत्तम धूम के गन्ध से व्याप्त चौबीस हजार संख्या प्रमाण धूपघट जानना चाहिये।।१६।। सुगन्धित मालाओं के अभिमुख तरूण सूर्य के समान तेज पुंज से संयुक्त दिव्य बत्तीस हजार रत्नमय कलश कहे गये हैं।।१७।। बाह्य भाग में चार हजार मणिमालायें और बारह हजार सुवर्ण मालायें कही गई हैं।।१८।। बाह्य भाग मे बारह धूपघट और सोलह हजार सुवर्ण कलश कहे गये हैं।।१९।। सोलह योजन से अधिक आयत, आठ योजन विस्तीर्ण और दो योजन ऊंची, यह पीठों के आयामादि का प्रमाण है।।२०।। भवनों के ये पीठ वङ्का, इन्द्रनील, मरकत, कर्वेâतन और पद्मराग मणियों के समूह से निर्मित तथा उत्तम वेदी से वेष्टित होते हैं।।२१।। सोलह योजन दीर्घ, इससे आधी विस्तीर्ण, छह योजन ऊँची, और दो गव्यूति प्रमाण अवगाह से सहित मणिमय सोपान पंक्तियां होती हैं।।२२।। उन भवनों में एक सौ आठ सोपान होते हैं। इनमें से एक एक सोपान साधिक पचपन कम पांच सौ धनुष अर्थात् चार सौ चवालीस धनुष से कुछ अधिक ऊंचा होता है।।२३।। पीठों की वेदियाँ दो गव्यूति ऊँची और पाँच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण होती हैं, ऐसा निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये।।२४।। स्फटिक मणिमय भित्तिसमूह से सहित, नाना मणि एवं रत्नों के समूह से व्याप्त, वैडूर्य मणिमय खम्भों से प्रचुर, तीन सोपानों से संयुक्त, दिव्य आमोद से सुगन्धित, और बिखरे हुए पूजाकुसुमों से सनाथ देवच्छन्द नामक श्रेष्ठ गर्भगृह कहे गये हैं।।२५-२६।। उन पीठों पर अनादि-निधन, स्वभाव से निष्पन्न, पांच सौ धनुष ऊंची, उत्तम व्यञ्जन एवं लक्षणों से संयुक्त ऐसी नाना मणियों, सुवर्ण एवं रत्नों के परिणाम रूप स्वयमेव एक सौ आठ जिनेन्द्रप्रतिमायें होती हैं।।२७-२८।। उक्त प्रतिमायें धवल छत्र, चामर, हरिपीठ (सिंहासन) और महान् तेज (भामण्डल) से संयुक्त तथा दुंदुभि, उत्तम अशोकवृक्ष और सुरों द्वारा की गई कुसुमवृष्टि से व्याप्त होती हैं।।२९।। एक एक (प्रतिमा के) समीप नाना प्रकार के उपकरणों (मंगलद्रव्यों) में से प्रत्येक प्रत्येक एक सौ आठ संख्या प्रमाण निर्दिष्ट किये गये हैं।।३०।। रत्नमय पृथिवी पर स्थित रजतमय पीठ के ऊपर ऊंचे शिखरों वाले मणिमय खम्भों के ऊपर ध्वजासमूह निर्दिष्ट किये गये हैं।।३१।। सिंह, गज, हंस, गोपति (वृषभ), कमल, मयूर, मकर, चक्र, आतपत्र और गरूड़, इन दश प्रकार की ध्वजाओं के समूह जानना चाहिये।।३२।। इनमें से एक एक ध्वजा के मोतियों व मणियों की मालाओं से शोभायमान उत्तम पांच वर्ण वाली एक सौ आठ एक सौ आठ दिव्य परिवार ध्वजायें होती हैं।।३३।। वहां रजत व सुवर्णमय मुखमण्डपों के बाह्य भाग में गोपुरों से कुछ अधिक ऊंचे व चारों ओर स्थित पताकाओं से सहित सुवर्ण, मणि एवं रत्नमय तीन प्राकार व उनमें एक योजन ऊंचे सोलह योजन के रमणीय तोरणद्वार होते हैं।।३४-३५।। मुखमण्डप भी सौ योजन आयत, इससे आधे विस्तृत, सोलह योजन ऊँचे और दो कोश अवगाह से युक्त कहे गए हैं।।३६।। उनके आगे सौ योजन विष्कम्भ व आयाम से सहित, सोलह योजन से कुछ अधिक ऊंचे, और अर्ध योजन अवगाह से संयुक्त प्रेक्षागृह होते हैं।।३७।। उनके आगे सोलह योजन ऊंचे औंर चौंसठ योजन प्रमाण आयाम व विस्तार से सहित रत्नों से व्याप्त सभागृह होते हैं ।।३८।। उन सभागृहों के सुवर्णमय पीठ अस्सी योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित होते हैं ।।३९।। उक्त पीठ दो योजन ऊंचे, पद्म जैसी प्रभावाली वेदिकाओं से युक्त और रत्नमय तोरणों से रम्य होते हैं ।। ४० ।। उन सभागृहों के आगे जिनेन्द्रप्रतिमाओं से युक्त नाना मणि एवं रत्नों के परिणाम रूप रमणीय स्तूप होते हैं।।४१।। स्तूप का रत्नमय विशाल पीठ चौबीस सुवर्णमय वेदियों से संयुक्त तथा चालीस योजन ऊंचा होता है।।४२।। पीठ के ऊपर तीन मेखलाओं से वेष्टित महा स्तूप होता है। इसका आयाम, विष्कम्भ और उत्सेध चौंसठ योजन प्रमाण होता है।।४३।। स्तूप से आगे पूर्व दिशा में जाकर एक हजार [[योजन]] प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित सुवर्णमय पीठ जानना चाहिये।।४४।। यह दिव्य पीठ बारह वेदियों से परिपूर्ण, उत्तम तोरणों से मण्डित, अतिशय रमणीय, देदीप्यमान मणिगणों के समूहों से युक्त और बहुत से तरूगणों से व्याप्त होता है।।४५।। उस पीठ के ऊपर स्थित सोलह योजन ऊंचे नाना मणियों एवं रत्नों के परिणाम रूप चैत्यवृक्ष जानना चाहिये।।४६।। सिद्धार्थ वृक्षों की संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस है।।४७।। पृथिवी से चार योजन ऊपर जाकर चारों ही दिशा विभागों में उनकी शाखायें निर्दिष्ट की गई हैं।।४८।। सर्वदर्शियों द्वारा सिद्धार्थ नामक वृक्षों की शाखाएँ बारह योजन दीर्घ और एक योजन विष्टकम्भ से युक्त निर्दिष्ट की गई हैं।।४९।। आठ योजन रूंद वाले उन महाद्रुमों पर अकृत्रिम और शाश्वतिक स्वभाव वाली जिनेन्द्रों की प्रतिमायें निर्दिष्ट की गई हैं।।५०।। पल्यंकासन से विराजमान और प्रातिहार्यों से संयुक्त वे रत्नमय जिनप्रतिमायें सब वृक्षों के चारों ही भागों में होती हैं।।५१।। उस वृक्ष समूह से पुनः पूर्व दिशा भाग में जाकर बारह वेदियों से संयुक्त ध्वजासमूहों का पीठ होता है।।५२।। उस उत्तम पीठ के शिखर पर सोलह योजन ऊंचे और एक कोश विस्तार वाले वैडूर्यमणिमय विशाल खम्भ होते हैं।।५३।। खम्भों पर विविध वर्णों से संयुक्त, शिखर पर उत्तम तीन छत्रों से सुशोभित और अनुपम रूप से सम्पन्न दिव्य महाध्वजायें होती हैं।।५४।। ध्वजा समूहों के आगे सौ योजन दीर्घ, पचास योजन विस्तृत, दश योजन गहरी, सुवर्ण एवं मणिमय वेदिकाओं से युक्त, मणिमय तोरण समूह से संयुक्त, कमल व उत्पल कुसुमों से व्याप्त और जल से परिपूर्ण वापियां होती हैं ।। ५५-५६ ।। इस प्रकार मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में स्थित जिनभवन का स्वरूप निर्दिष्ट किया है । शेष दिशाओं के जिनभवनों का भी यही क्रम जानना चाहिये।।५७।। उस द्रह के आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागों में देवों के क्रीडा प्रासाद हैं।।५८।। ये सुवर्णमय प्रासाद पचास योजन ऊंचे और पच्चीस योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित निर्दिष्ट किये गये हैं।।५९।।उक्त प्रासाद सुवर्ण, वैडूर्यमणि, मरकतमणि, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्वेâतन एवं पुखराज मणियों से निर्मित, उत्तम वेदिकाओं से युक्त, सुवर्ण, मणि एवं रत्नों के समूह से व्याप्त, अक्षयी व अनादि-निधन हैं। उनका सम्पूर्ण वर्णन करने के लिये कौन समर्थ है?।।६०-६१।। उनसे आगे फिर भी पूर्व दिशा मे जाकर मणि, सुवर्ण एवं रत्नों से व्याप्त विचित्र उत्तम तोरण जानना चाहिये ।। ६२ ।। यह तोरण पचास योजन ऊंचा, इससे आधे (२५ यो.) विस्तार से सहित, भासुर, दिव्य, मुक्तामाला से संयुक्त और उत्तम घंटा समूह से रमणीय है।।६३।। इसके आगे गोपुरों के पार्श्व भागों में सौ योजन ऊंचे दो दो विचित्र प्रासाद जानना चाहिये।।६४।। इसके आगे विविध वर्ण व जाति के एक हजार अस्सी ( १८० ² १० ) संख्या प्रमाण विचित्र ध्वजाओं के समूह निर्दिष्ट किये गये हैं।।६५।। सौ तोरणों से संयुक्त व उत्तम वेदी से वेष्टित वे ऊंची रमणीय महाध्वजायें समुद्र की तरंगों के भंग के समान शोभायमान होती हैं।।६६।। इसके आगे विविध पादपों से व्याप्त, वनवेदिकाओं से युक्त, नाना मणियों व रत्नों के परिणाम रूप, रत्नमय पीठ से सुशोभित, मणिमय तोरणों से मण्डित, मनोहर, सुवर्णमय कुसुमों से सुशोभित, मरकत मणिमय उत्तम पत्तों से व्याप्त, चंपक व अशोक वृक्षों से गहन, सप्तच्छद व आम्र कल्पवृक्ष के समूह से परिपूर्ण, वैडूर्यमय फलों से समृद्ध, और मूंगामय शाखाओं की शोभा से संयुक्त वनखण्ड जानना चाहिये।।६७-६९।। उन कल् कल्पवृक्ष के मूल भागों में चारों ही दिशाओं में प्रतिहार्य सहित जिनेन्द्रों की प्रतिमायें विराजमान हैं।।७०।। ये प्रतिमायें सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चामरादि से संयुक्त, पल्यंकासन से स्थित और अनुपम रूप व संस्थान से युक्त है।।७१।। इस प्रकार संक्षेप से जम्बूद्वीप सम्बन्धी मंदर पर्वत के भद्रशाल वन में स्थित जिनभवनों का प्रमाण जानना चाहिये ।। ७२ ।। ये जिनभवन वैडूर्य, स्फटिक, मरकत, मसारगल्ल और इन्द्र (इन्द्रनील) रत्नों से विचित्र, अंजन, प्रवाल, मरकत और सुवर्ण से भूषित तलवाले, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, उत्तम वङ्का एवं लोहितांक से सहित, उत्तम व विपुल मणियों से अतिशय निर्मल तथा अनुपम गुणों से युक्त होते हुए शोभायमान हैं।।७३-७४।। अतिशय निर्मल, विस्तृत, शुद्ध, प्रसाधित (सजे हुए), दर्शनीय, अत्यन्त मनोहर, नाना प्रकार के आकार अथवा मूर्तियों से सम्पन्न उत्तम कमल, कुमुद, कुवलय , नीलोत्पल, वकुल और तिलक वृक्षोें से शोभायमान, कर्पूर, अगरू, चन्दन और कालागरू के धुएं के गन्ध से व्याप्त, विजया व वैजयन्ती ध्वजा-पताकाओं से सहित, बहुत से कुसुमों की मालाओं से शोभायमान, विलास युक्त, मन को अभिराम, बहुत से कौतुक एवं मंगल से सनाथ, जगमगाती हुई कान्ति से सहित, आश्चर्यजनक रूप व श्रेष्ठ आकृति से युक्त, विविध प्रकार की रची गई मंगल स्वरूप, वन्दनमालाओं से उज्ज्वल शोभावाले, नित्य मनोहर, प्रकाशमान मणिकिरण समूह से संयुक्त सुवर्ण, रत्न एवं महामणियों से प्रकाशमान प्रासाद समूह से युक्त तथा अगरू, तुरुष्क व चन्दन की नाना प्रकार की गन्धऋद्धि से सम्पन्न, ऐसे वे महाप्रासाद दूर से देखने में मनोहर दिखते हैं।।७५-८०।। घंटा, किंकिणी, बुद्बुद और चामरसमूहों से शोभायमान उन रमणीय मेरु के जिनभवनों का संक्षेप से स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है।।८१।। श्रेष्ठदेव सर्वदा बलि (नैवेद्य) पुष्प, गन्ध, अक्षत, प्रदीप, उत्तम धूप व सुगन्धित जल से पूजा करते हैं और वन्दना करते हैं।।८२।। इन जिनभवनों में समस्त अंगों से सुन्दर, सब अलंकारों से भूषित शरीर वाली, कल एवं मनोहर सुन्दर स्वर से संयुक्त, इन्द्रियों को आल्हादित करने वाली, सुकुमार, कोमल, यौवनगुणों से शोभायमान तथा अप्रतिम (अनुपम) रूपों से प्रीति को उत्पन्न करने वाली वे अप्सरायें नित्य जिनेन्द्र, गणधर देव आैर बलदेवों के चरित्र का अभिनय करती हैं।।८३-८५।। देवगण झालर एवं बहुतसे शंखों के शब्दों के साथ उत्तम पटह, भेरी, मर्दल, मृदंग, कांस्याल और काहलादिक बाजों को बजाते हैं।।८६।। किन्नरगण मधुर एवं मनोहर दुंदुभिघोषों के साथ दिव्य वचनों द्वारा जिनेन्द्रों के प्रचुर गुणों को गाते हैं।।८७।। गन्धर्वों के गीत, वादित्र, नाटक एवं संगीत के शब्द से गम्भीर उस उत्तम भद्रशाल वन के जिनभवन का स्वरूप संक्षेप से निर्दिष्ट किया गया है।।८८।। जिस प्रकार जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरू के उत्तम जिनेन्द्र भवनों का स्वरूप कहा है उसी प्रकार शेष मेरू पर्वतों के जिनेन्द्र भवनों का स्वरूप समझना चाहिये।।८९।। इसी प्रकार कुलपर्वतों पर, इसी प्रकार ही वक्षार पर्वतों पर और इसी प्रकार नन्दन वनों में भी जिनभवन होते हैं, ऐसा जानना चाहिये।।९०।। परन्तु विशेष इतना जानना चाहिये कि वक्षार पर्वतादिकों के ऊपर स्थित जिनभवनों का विष्कम्भ, आयाम और उत्सेध भिन्न भिन्न होता है।।९१।। चार निकाय के देव महा विभूति के साथ यहाँ आकर नन्दीश्वर (अष्टाह्निक पर्व) के आठ दिनों में महती पूजन करते हैं।।९२।। बहुत प्रकार की मणियों द्वारा प्रकाशमान मणिमुकुट से संयुक्त व हाथ में उज्ज्वल एवं श्रेष्ठ वज्र को लिए हुए सौधर्म इन्द्र उत्तम गजराज के कन्धे पर चढ़कर आता है।।९३।। कण्ठा व कटिसूत्र से भूषित शरीर वाला ईशान इन्द्र उत्तम वृषभ पर चढ़कर हाथ में निर्मल त्रिशूल को लिए हुए यहां आता है।।९४।। उदयकालीन सूर्य के समान कुण्डल रूप आभरणों से भूषित सनत्कुमार इन्द्र हाथ में तलवार आयुध को लिए हुए श्रेष्ठ सिंह पर चढकर यहां आता है।।९५।। नाना मणियों एवं रत्नों से भूषित शरीरवाला माहेद्र इन्द्र हाथ में श्रेष्ठ परशु को लिए हुए उत्तम अश्व पर चढकर आता है।।९६।। चन्द्रमा के समान धवल हंस पर आरूढ़ और धवल आतपत्र से चिह्नित ब्रह्मेन्द्र हाथ में निर्मल मणिदण्ड आयुध को लिए हुए आता है।।९७।। धवल चामरों से वीज्यमान, बहुत आदर से संयुक्त और वानर की पीठ पर स्थित ब्रह्मोत्तर इन्द्र भी हाथ मे पाश को लिए हुए आता है।।९८।। त्रुटित (हाथ का आभरण विशेष), अंगद एवं सुवर्णमय कुण्डल रूप आभरणों से भूषित लान्तव इन्द्र हाथ में धनुर्दण्ड को लिये हुए सारस विमान पर चढ़कर आता है।।९९।। मकर विमान पर स्थित, धीर और महा बलवान् वह कापिष्ठ इन्द्र भी हाथ में उत्तम कमल कुसुम को लिए हुए आता है।।१००।। उत्तम चक्रवाक पर आरूढ़ और स्फटिकमणिमय निर्मल रत्नकुण्डल रूप आभरणों से विभूषित वह शुक्रइन्द्र हाथ में सुपाड़ी के गुच्छे को लिये हुए आता है।।१०१।। श्रेष्ठदेवों से वेष्टित, महा बलवान् वह महाशुक्र इन्द्र हाथ में गदा को लिए पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर आता है।।१०२।। परभृत (कोयल) विमान पर आरूढ़ शतार विमान का अधिपति मंगलमय वादित्रशब्दों के साथ हाथ में तोमर (बाण विशेष) लेकर आता है।।१०३।। गरूड़ विमान पर आरूढ़ और नाना भूषणों से भूषित शरीर वाला सहस्रार इन्द्र हाथ मे हल और मूसल को लेकर आता है।।१०४।। शंख, चन्द्र एवं कुंद पुष्प के समान वर्णवाला, धवल चामरों से वीज्यमान और अतिशय आदर से युक्त आनत इन्द्र हाथ में धवल कुसुमों की माला को लेकर आता है।।१०५।। हर्ष से परिपूर्ण प्राणत इन्द्र भी हाथ में उत्तम कमलों की माला को लिए हुए कमल विमान पर आरूढ़ होकर आता है।।१०६।। नलिन विमान पर आरूढ़ और देदीप्यमान महामुकुट से संयुक्त आरण इन्द्र हाथ में नवचम्पक की निर्मल माला को लेकर आता है।।१०७।। कुमुद विमान पर आरूढ़ और कटक, अंगद, मुकुट एवं कुण्डल रूप आभरणों से भूषित अच्युत इन्द्र हाथ में मुक्ताओं की माला को लेकर आता है।।१०८।। अपने अपने जम्पान वाहनों पर आरूढ़ शेष देव भी नाना आयुधों को हाथ में लेकर अपनी अपनी शोभाओं के साथ आते हैं।।१०९।। कुण्डलो से अलंकृत कपोलों वाले भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिषी असुरेन्द्र आदि नाना वाहनों पर आरूढ़ होकर आते हैं।।११०।। ढुरते हुए सुन्दर चामरों से और बजते हुए महा वादित्रों के निर्घोष से सहित तथा धवल आतपत्र रूप चिह्न से संयुक्त असुरेन्द्र आते हैं।।१११।। इस प्रकार आकर वे देव अष्टाह्निक दिनों में मन्दर पर्वत के जिनभवनों में जिनेन्द्रप्रतिमाओं की पूजा करते हैं।।११२।। तथा वे मन में हर्षित होकर क्षीरसमुद्र के जल से परिपूर्ण एक हजार आठ कलशों द्वारा उत्कृष्ट भक्ति राग से अभिषेक करते हैं।।११३।। वे देवेन्द्र पटु पटह, शंख, काहल, मर्दल, कास्ंयाल और ताल समूहों के साथ उत्तम वादित्रों को बजाते हुए उत्सव को करतें हैं।।११४।। उक्त देव उन्हें गोशीर्ष, मलयचन्दन और वुंâकुम-पंक से लिप्त करके उत्तम पांच वर्ण की निर्मल व सुगन्धित मालाओं से पूजा करते हैं।।११५।। सुरों व असुरों के साथ सब देवगण चन्द्रवत् धवल, सुगन्धित एवं कोमल नाना प्रकार के भक्ष्य नैवेद्यों के द्वारा जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं ।।११६।। सब देव मन में हर्षित होकर दीप, धूप, चरु, अक्षत, फल एवं विचित्र कुसुमों से जिनभगवान् की अर्चा व पूजा करते हैं।।११७।। इस प्रकार से पूजा करके वे ह्वदय में निर्मल भावों को धारण कर चार मंगलों (चत्तारि मंगलं, अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगल, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं), चतुः शरणों (चत्तारि सरणं पवज्जामि – अरिहंत सरणं पवज्जामि, सिद्ध सरणं पवज्जामि, साहु सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पवज्जामि) और विशुद्ध सम्यक्त्व से संयुक्त होते हुए वन्दना करते हैं ।। ११८ ।। इस प्रकार जिन भगवान् की स्तुति करके निर्मल पुण्य से संयुक्त वे देवेन्द्र जिस रूप से आये थे उसी रूप से धर्मरूपी उत्तम रत्न को ग्रहण करके वापिस चले जाते हैं।।११९।। इसी प्रकार ही नन्दीश्वर द्वीप में, कुण्डलवर द्वीप में, और मानुषोत्तर पर्वत व रूचक पर्वत पर भी जिनभवन हैं।।१२०।। जिस प्रकार भद्रशाल वन में जिनभवनों का सम्पूर्ण वर्णन किया गया है उसी प्रकार नन्दीश्वर द्वीप में स्थित जिनभवनों का भी वर्णन समझना चाहिये।।१२१।। जिनभवन सम्बन्धी स्तूप, मण्डप, प्रेक्षागृह, कल्पवृक्षव ध्वजा समूह, वनखण्ड, वापी, गोपुर, प्राकार और दिव्य वेदिका इन सबका उत्सेध , आयाम, विष्कम्भ व अवगाह नन्दीश्वर द्वीप में प्रथम (भद्रशाल) वन के सदृश है।।१२२-१२३।। नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनों के जिनभवन भी इसी प्रकार के हैं । विशेष केवल इतना जानना चाहिये कि वे प्रमाण में क्रमशः आधे आधे निर्दिष्ट किये गये हैं।।१२४।। मैं चार प्रकार के देवगणों द्वारा नमस्कृत, चौंतीस अतिशयोें से संयुक्त और उत्तम पद्मनन्दि से नमस्कृत श्रेष्ठ चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र की वन्दना करता हू्ँ ।।१२५।।