एवं संक्षेपस्वरूपं प्रत्याख्यानमासन्नतममृत्योर्व्याख्याय यस्य पुन: सत्यायुषि निरतिचारं मूलगुणा निर्वहंति तस्य कथं प्रवृत्तिरिति पृष्टे तदर्थं चतुर्थमधिकारं सामाचाराख्यं नमस्कारपूर्वकमाह–
तेलोक्कपूयणीए अरहंते वंदिऊण तिविहेण।
वोच्छं सामाचारं समासदो आणुपुव्वीयं।।१२२।।
तेलोक्कपूयणीए–त्रयाणां लोकानां भवनवासिमनुष्यदेवानां पूजनीया वन्दनीयास्त्रिलोकपूजनीयास्तान् त्रिकालग्रहणार्थमनीयेन निर्देश:। अरहंते–अर्हत: घातिचतुष्टयजेत¸न्।
वंदिऊण–वन्दित्वा। तिविहेण–त्रिविधेन मनोवचनकायै:। वोच्छं–वक्ष्ये। सामाचारं–मूलगुणानुरूपमाचारं। समासदो–समासत: संक्षेपेण ‘काया:’ तस्। आणुपुव्वीयं–आनुपूर्व्या अनुक्रमेण।
त्रिविधं व्याख्यानं भवति पूर्वानुपूर्व्या, पश्चादानुपूर्व्या यत्र तत्रानुपूर्व्या च। तत्र पूर्वानुपूर्व्या ख्यापनार्थमानुपूर्वीग्रहणं क्षणिकनित्यपक्षनिराकरणार्थं च। क्त्वान्तेन नमस्कारकरणपूर्वकं प्रतिज्ञाकरणं। अर्हतस्त्रिलोकपूजनीयांस्त्रिविधेन वन्दित्वा समासादानुपूर्व्या सामाचारं वक्ष्ये इति।
जिनकी मृत्यु अति निकट है ऐसे साधु के लिए संक्षेपस्वरूप प्रत्याख्यान का व्याख्यान करके अब जिनकी आयु अधिक अवशेष है, जो निरतिचार मूलगुणों का निर्वाह करते हैं, उनकी प्रवृत्ति कैसी होती है ? पुन: ऐसा प्रश्न करने पर उस प्रवृत्ति को बताने के लिए श्री कुन्दकुन्द आचार्य सामाचार नाम के चतुर्थ अधिकार को नमस्कारपूर्वक कहते हैं–
गाथार्थ-तीन लोक में पूज्य अर्हन्त भगवान् को मन-वचन-काय पूर्वक नमस्कार करके अनुक्रम से संक्षेपरूप में सामाचार को कहूँगा।।१२२।।
आचारवृत्ति-अधोलोक सम्बन्धी भवनवासी देव, मध्यलोक सम्बन्धी मनुष्य और ऊर्ध्वलोक सम्बन्धी देव इन तीनों लोक संबंधी जीवों से पूजनीय–वन्दनीय भगवान् त्रिलोकपूजनीय कहे गये हैं। यहाँ पर त्रिकाल को ग्रहण करने के लिए अनीय प्रत्यान्त पद लिया है अर्थात् पूज् धातु में अनीय प्रत्यय लगाकर प्रयोग किया है। घाती चतुष्टय के जीतने वाले अर्हन्त देव हैं ऐसे त्रिलोकपूज्य अर्हन्त देव को मन-वचन-काय से नमस्कार करके मैं मूलगुणों के अनुरूप आचाररूप सामाचार को अनुक्रम से संक्षेप में कहूँगा। आनुपूर्वी अर्थात् अनुक्रम को तीन प्रकार से माना गया है-पूर्वानुपूर्वी, पश्चात् आनुपूर्वी और यत्रतत्रानुपूर्वी।
अर्थात् जैसे चौबीस तीर्थंकरों में वृषभ आदि से नाम ग्रहण करना पूर्वानुपूर्वी है। वर्धमान, पार्र्श्वनाथ से नाम लेना पश्चात् आनुपूर्वी है और अभिनन्दन, चंद्रप्रभु आदि किसी का भी नाम लेकर कहीं से भी कहना यत्रतत्रानुपुर्वी है। यहाँ पर मूलाचार ग्रन्थ में पूर्वानुपूर्वी का प्रयोग है अर्थात् पहले मूलगुणों को बताकर पुन: प्रत्याख्यान संस्तर अधिकार के अनन्तर क्रम से अब सामाचार को बतलाते हैं अथवा पूर्वाचार्य की परम्परा के अनुसार कथन करने को भी पूर्वानुपूर्वी कहते हैं।
तथा क्षणिक पक्ष और नित्य पक्ष का निराकरण करने के लिए ही पूर्वानुपूर्वी का कथन है, क्योंकि सर्वथा क्षणिक में पूर्वाचार्य परम्परा से कथन और सर्वथा नित्य पक्ष में भी पूर्वाचार्य परम्परा का कथन असम्भव है। अत: इन दोनों एकान्तों का निराकरण करके अनेकान्त को स्थापित करने के लिए आचार्य ने आनुपूर्वी शब्द का प्रयोग किया है।
‘वंदित्वा’ इस पद में क्त्वा प्रत्यय होने से यह अर्थ होता है कि मैं नमस्कार करके अपने प्रतिपाद्य विषय की प्रतिज्ञा करता हूँ अर्थात् नमस्कार करके सामाचार को कहूँगा ऐसी प्रतिज्ञा आचार्य ने की है। तात्पर्य यह सामाचारशब्दस्य निरुक्त्यर्थं संग्रहगाथासूत्रमाह–
समदा सामाचारो सम्माचारो समो व आचारो।
सव्वेिंस सम्माणं सामाचारो दु आचारो।।१२३।।
चतुर्भिरर्थै: सामाचारशब्दो व्युत्पाद्यते, तद्यथा–समदा सामाचारो–समस्य भाव: समता रागद्वेषाभाव: स समाचार: अथवा त्रिकालदेववन्दना पंचनमस्कारपरिणामो वा समता, सामायिकव्रतं वा।
सम्माचारो–सम्यव्â शोभनं निरतिचारं, मूलगुणानुष्ठानमाचरणं समाचार: सम्यगाचार: अथवा सम्यगाचरणमवबोधो निर्दोषभिक्षाग्रहणं वा समाचार:, चरेर्भक्षणगत्यर्थत्वात्। समो व आचारो–समो वा आचार: पंचाचार:। सव्वेिंस–सर्वेषां प्रमताप्रमत्तादीनां सर्वेषां यतीनामाचार:। समो प्राणिबधादिभिर्यत्नोऽत: समाचार:।
अथवा सम उपसम: क्रोधाद्यभावस्तेन परिणामेनाचरणं समाचार:। समशब्देन दशलाक्षणिकधर्मो गृह्यते स समाचार:। अथवा भिक्षाग्रहणदेववन्दनादिभि: सह योग: समाचार:। सम्माणं–सह मानेन परिणामेन वर्तते इति समानं सहस्य स:, समानं वा मानं, समानस्य सभाव:। अथवा सर्वेषां समान: पूज्योऽभिप्रेतो वा आचारो य: स समाचार:।
अथवा समदा सम्यक्त्वं, सम्माचारो–चारित्रं, समाणं–ज्ञानं, समो वा कि मैं त्रिभुवन से पूजनीय त्रिकालवर्ती समस्त अर्हन्तों को नमस्कार करके संक्षेप से गुरु परम्परा के अनुसार सामाचार को कहूँगा।
अब सामाचार शब्द के निरुक्ति अर्थ का संग्रह करने वाला गाथासूत्र कहते हैं-
गाथार्थ-समता सामाचार, सम्यक् आचार अथवा सम आचार या सभी का समान आचार ये सामाचार शब्द के अर्थ हैं।।१२३।।
आचारवृत्ति-यहाँ पर चार प्रकार के अर्थों से सामाचार शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं।
(१) समता समाचार-सम का भाव समता है–रागद्वेष का अभाव होना समता समाचार है। अथवा त्रिकाल देववन्दना करना या पंच नमस्कार रूप परिणाम होना समता है अथवा सामायिक व्रत को समता कहते हैं। ये सब समता समाचार हैं।
(२) सम्यक् आचार-सम्यक् शोभन निरतिचार मूलगुणों का अनुष्ठान अर्थात् आचरण, आचार अर्थात् निरतिचार मूलगुणों को पालना यह सम्यक् आचाररूप समाचार है। अथवा सम्यक् आचरण–ज्ञान अथवा निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना यह समाचार है। अर्थात् चर् धातु भक्षण करना और गमन करना इन दो अर्थ में मानी गयी है और गमन अर्थवाली सभी धातुएँ ज्ञान अर्थवाली भी होती हैं इस नियम से चर् धातु का एक बार ज्ञान अर्थ करना तब समीचीन जानना अर्थ विवक्षित हुआ और एक बार भक्षण अर्थ करने पर निर्दोष आहार लेना अर्थ हुआ इसलिए समीचीन ज्ञान और निर्दोष आहार ग्रहण को भी सम्यक् आचाररूप समाचार कहा है।
(३) सम आचार-पाँच (महाव्रत) आचारों को सम आचार कहा है जो कि प्रमत, अप्रमत्त आदि सभी मुनियों का आचार समानरूप होने से सम-आचार है, क्योंकि ये सभी मुनि प्राणिबध आदि के त्याग करने रूप व्रतों से समान हैं इसीलिए उनका आचार सम-आचार है। अथवा सम–उपशम अर्थात् क्रोधादि कषायों के अभावरूप परिणाम से सहित जो आचरण है वह समाचार है। अथवा सम शब्द से दशलक्षण धर्म को भी ग्रहण किया जाता है अत: इन क्षमादि धर्मों सहित जो आचार है वह समाचार है। अथवा आहार ग्रहण और देववन्दना आदि क्रियाओं में सभी साधुओं को सह अर्थात् साथ ही मिलकर आचरण करना समाचार है।
आचारो–तप:। एतेषां सर्वेषां योऽयं समाचार: ऐक्यं स समाचार:, आचारो वा समाचार:। यस्तु समाचार: स आचार एवेत्यविनाभाव:। अथवा पञ्चभिरर्थैर्निर्देश: समदा समरसीभाव: समयाचारो–स्वसमयव्यवस्थायाचार:, सम्माचारो–सम्यगाचार:, समो वा सहाचरणं। स: सव्वेसु–सर्वेसु क्षेत्रेषु समाणं–समाचार:। संक्षेपार्थं १समताचार: सम्यगाचार:, समो य आचारो वा सर्वेषां स समाचारो हानिवृद्धिरहित: कायोत्सर्गादिभि: समानं मानं यस्याचारस्य स वा समाचार इति।।१२३।।
(४) समान आचार-मान (परिणाम) के सह (साथ) जो रहता है वह समान है। यहाँ सह को स आदेश व्याकरण के नियम से सह मान समान बना है। अथवा समान मान को समान कहते हैं यहाँ पर भी समान शब्द को व्याकरण से ‘स’ हो गया है अर्थात् समान आचार समाचार है। अथवा सभी का समानरूप से पूज्य या इष्ट जो आचार है वह समाचार है।
ये चार अर्थ समाचार के अलग-अलग निरुक्ति करके किये गये हैं अर्थात् प्रथम तो समता आचार से समाचार का अर्थ कई प्रकार से किया है, पुन: दूसरी व्युत्पत्ति में सम्यक् आचार से समाचार शब्द बनाकर उसके भी कई अर्थ विवक्षित किये हैं। तीसरी बार सम आचार से समाचार को सिद्ध करके कई अर्थ बताये हैं पुन: समान आचार से समाचार शब्द बनाकर कई अर्थ दिखाये हैं।
अब पुन: सभी का समन्वय कर निरुक्ति पूर्वक अर्थ का स्पष्टीकरण करते हैं-यथा–समता–सम्यक्त्व, सम्यक् आचार–चारित्र, समान–ज्ञान (मान का अर्थ प्रमाण–ज्ञान होता है) और सम-आचार–तप, इन सभी का (चारों का) जो समाचार अर्थात् ऐक्य है वह समाचार है अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों की एकता का नाम समाचार है। अथवा आचार अर्थात् मुनियों के आचार-प्रवृत्ति को समाचार कहते हैं क्योंकि जो भी साधुओं का समाचार है वह आचार ही है अर्थात् आचार और समाचार में अविनाभावी सम्बन्ध है–एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जो भी साधुओं का आचार है वह सब समाचार ही है।
अथवा पाँच अर्थों से समाचार का निर्देश करते हैं–समता समरसी भाव, समयाचार–स्वसमय अर्थात् जैन आगम की व्यवस्था के अनुरूप आचार, सम्यव्â आचार–समीचीन आचार, सम-आचार–सभी साधुओं का साथ-साथ आचरण या क्रियाओं का करना, सभी में–सभी क्षेत्रों में समान–समाचार होना। गाथा से देखिए : समरसी भाव का होना (समदा), स्वसमय की व्यवस्था से आचरण करना (समयाचारो), समीचीन आचार होना (सम्माचारो), साथ आचरण करना (समो वा), सभी क्षेत्रों में समाचार–समान आचरण करना (सव्वेसु समाणं) ये पाँच अर्थ किये गये हैं। इसी को संक्षेप से समझने के लिए कहते हैं कि समताचार–समरसी भाव का होना, सम्यक् आचार-समीचीन आचार का होना, सम-आचार–सभी साधुओं का हानि-वृद्धिरहित समान आचरण होना, समान आचार–कायोत्सर्ग आदि से समान प्रमाणरूप है आचार जिसका, वह भी समाचार है।
भावार्थ-यहाँ पर मूल गाथा में समाचार शब्द के चार अर्थ प्रकट किये हैं। टीकाकार ने इन्हीं चार अर्थों को विशेषरूप से प्रस्फुट किया है। पुन: एक बार चारों अर्थसूचक शब्दों से चार आराधनाओं को लेकर उनकी एकता को समाचार कहा है और अनन्तर गाथा के ‘समाचार’ पद को भी लेकर पूर्वोक्त चार पदों के अस्यैव समाचारस्य लक्षणभेदप्रतिपादनार्थमाह–
दंविहो सामाचारो ओघोविय पदविभागिओ चेव।
दसहा ओघो भणिओ अणेगहा पदविभागीय।।१२४।।
दुविहो–द्विविध: द्विप्रकारा:। सामाचारो–सामाचार: सम्यगाचार एव समाचार: प्राकृतबलाद्वा दीर्घत्वमादे:। ओघोविय–औघिक: सामान्यरूप:। पदविभागीओ–पदानां अर्थप्रतिपादकानां विभागो भेद: य विद्यते यस्यासौ पदविभागिकश्च। एवकारोऽवधारणार्थ:। स समाचार: औघिक-पदविभागिकाभ्यां द्विविधं एव।
तयोर्भेदप्रतिपादनार्थमाह–दसहा–दशधा दशप्रकार:। ओघो–औघिक:। भणिओ–भणित:। अणेयधा–अनेकधाऽनेकप्रकार:। पदविभागो य–पदविभागी च। य औघिक: स दशप्रकारोऽनेकधा च पदविभागी।।१२४।।
आद्यस्य ये दशप्रकारास्ते केऽत: प्राह–
इच्छा-मिच्छाकारो तधाकारो व आसिआ णिसिही।
आपुच्छा पडिपुच्छा छंदणसणिमंतणा य उवसंपा।।१२५।।
इच्छामिच्छाकारो–इच्छामभ्युपगमं करोतीति इच्छाकार आदर:, मिथ्या व्यलीकं करोतीति मिथ्याकारो विपरिणामस्य साथ मिलाकर समाचार के पाँच अर्थ भी किये हैं। इसके भी तात्पर्य को संक्षेप से स्पष्ट करते हुए उन्हीं चार अर्थों को थोड़े शब्दों में कहा है। सबका अभिप्राय यही है कि मुनियों की जो भी प्रवृत्तियाँ हैं वे सम्यक्पूर्वक होती हैं, आगम के अनुसार होती हैं, रागद्वेष के अभावरूप समता परिणाममय होती हैं और वे मुनि हमेशा संघ के गुरुओं के सान्निध्य में देववन्दना, कायोत्सर्ग आदि को साथ-साथ करते हैं।
तथा कायोत्सर्ग आदि में सभी के लिए उच्छ्वास आदि का प्रमाण भी समान ही बतलाया गया है जैसे दैवसिक प्रतिक्रमण में १०८ उच्छ्वास, रात्रिक में ५४ इत्यादि। अहोरात्र सम्बन्धी कायोत्सर्ग भी सभी के लिए २८ कहे गये हैं जिनका वर्णन आगे आवश्यक अधिकार में आयेगा। ये सभी क्रियाएँ जो साथ-साथ और समानरूप से की जाती हैं वह सब समाचार ही हैं।
अब इसी समाचार के लक्षण, भेद बतलाते हुए कहते हैं –
गाथार्थ-औघिक और पदविभागिक के भेद से समाचार दो प्रकार का है। औघिक समाचार दश प्रकार का है और पदविभागी समाचार अनेक प्रकार का कहा गया है।।१२४।।
आचारवृत्ति-सम्यक् आचार ही सामाचार हैं। यहां प्राकृत व्याकरण के निमित्त से दीर्घ हो गया है। अर्थात् समाचार को ही प्राकृत में सामाचार कहा है। सामान्यरूप समाचार औघिक है और अर्थप्रतिपादक पदों का विभाग–भेद, वह जिसमें पाया जाय वह पदविभागी समाचार है। गाथा में एवकार शब्द निश्चय के लिए है। अर्थात् वह समाचार औघिक–संक्षेप और पदविभागिक–विस्तार के भेद से दो प्रकार का ही है।
अब इन दोनों के भेद को बताते हैं-
औघिक समाचार के दश भेद हैं तथा पदविभागी के अनेक भेद हैं-
औघिक समाचार के दश भेद कौन से हैं ? उन्हीं को बताते हैं-
गाथार्थ-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दन, सनिमन्त्रणा और उपसंपत् ये दश भेद औघिक समाचार के हैं।।१२५।।
आचारवृत्ति–इच्छा–इष्ट या स्वीकृत को करना इच्छाकार है अर्थात् आदर करना। मिथ्या-असत्य करना मिथ्याकार है अर्थात् अशुभ-परिणाम का त्याग करना। यहाँ ‘इच्छामिथ्याकारौ’ पद में प्रथम इच्छा शब्द के कार शब्द का व्याकरण के नियम से लोप हो गया है अथवा इच्छा और मिथ्या इन दो पद का त्याग:, एकस्य कारशब्दस्य निवृत्ति:, समासान्तस्य वा१ कृदुत्पत्ति:।
तधाकारो य–तथाकारश्च सदर्थे प्रतिपादिते एवमेव वचनं। आसिया–आसिका आपृच्छ्य गमनं। णिसिही–निषेधिका परिपृच्छ्य प्रवेशनं। आपुच्छा–आपृच्छा स्वकार्यं प्रति गुर्वाद्यभिप्रायग्रहणं। पडिपुच्छा–प्रतिपृच्छा निषिद्धस्य अनिषिद्धस्य वा वस्तुनस्तद्ग्रहणं प्रति पुन: प्रश्न:। छंदण–छन्दनं छन्दानुवर्तित्वं यस्य गृहीतं िंकचिदुपकरणं तदभिप्रायानुवर्तनं। सणिमंतणा य–सनिमंत्रणा च सत्कृत्य याचनं च। उपसंपा–उपसम्पत् आत्मनो निवेदनं। नायं पृच्छाशब्दोऽपशब्द:२।
उत्सर्गापवादसमावेशात्। एतासामिच्छाकारमिथ्याकार-तथाकारासिका-निषेधिकापृच्छा-प्रतिपृच्छा-छन्दन-सनिमंत्रणोपसम्पदां को विषय इत्यत आह–गाथात्रयेण सम्बन्ध:।।१२५।।
इट्ठे इच्छाकारो मिच्छाकारो तहेव अवराहे।
पडिसुणणह्मि तहत्तिय णिग्गमणे आसिया भणिया।।१२६।।
पविसंते य णिसीही आपुच्छणियासकज्ज आरंभे।
३साधम्मिणा य गुरुणा पुव्वणिसिट्ठह्मि पडिपुच्छा।।१२७।।
छंदणगहिदे दव्वे अगहिददव्वे णिमंतणा भणिदा।
तुह्ममहंतिगुरुकुले आदणिसग्गो दु उवसंपा।।१२८।।
समास करके पुन: कृदन्त के प्रत्यय का प्रयोग हुआ है यथा-‘इच्छा च मिथ्या च इच्छामिथ्ये, करोतीति इच्छामिथ्याकारः’ ऐसा व्याकरण से सिद्ध हुआ पद है। सत् अर्थात् प्रशस्त अर्थ के प्रतिपादित किये जाने पर ‘ऐसा ही है’ इस प्रकार वचन बोलना तथाकार है। पूछकर गमन करना आसिका है और पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है।
अपने कार्य के प्रति गुरु आदि का अभिप्राय लेना या पूछना आपृच्छा है। निषिद्ध अथवा अनिषिद्ध जो वस्तु हैं उनको ग्रहण करने के लिए पुन: पूछना प्रतिपृच्छा है। अनुकूल प्रवृत्ति करना छन्दन है अर्थात् जिसका जो कुछ भी उपकरण आदि लिया है उसमें उसके अभिप्राय के अनुकूल प्रवर्तन–उपयोग करना छन्दन है। सत्कार करके याचना करना अर्थात् गुरु को आदरपूर्वक नमस्कार आदि करके उनसे किसी वस्तु या आज्ञा को माँगना सनिमन्त्रणा है और अपना निवेदन करना अर्थात् अपने को ‘आपका ही हूँ’ ऐसा कहना यह उपसंपत् है। यहाँ पर पृच्छा शब्द अपशब्द नहीं है क्योंकि उत्सर्ग और अपवाद में उसका समावेश है।
भावार्थ-इन दशों का अतिसंक्षिप्त अर्थ यहाँ टीकाकार ने लिया है। आगे स्वयं ग्रन्थकार पहले नाम के अनुरूप अर्थ को बतलाते हुए तीन गाथाओं द्वारा इनका विषय बतलायेंगे, पुन: पृथक्-पृथक् गाथाओं द्वारा इन दसों का विवेचन करेंगे।
इन इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दन, संनिमन्त्रणा और उपसंपत् का विषय क्या है अर्थात् ये किस-किस विषय अथवा प्रसंग में किये जाते हैं? इस प्रकार प्रश्न होने पर आगे तीन गाथाओं से कहते हैं-
गाथार्थ-इष्ट विषय में इच्छाकार, उसी प्रकार अपराध में मिथ्याकार, प्रतिपादित के विषय में तथा ‘ऐसा ही है’ ऐसा कथन तथाकार और निकलने में आसिका का कथन किया गया है। प्रवेश करने में निषेधिका तथा अपने कार्य के आरम्भ में आपृच्छा करनी होती है। सहधर्मी साधु और गुरु से पूर्व में ली गई वस्तु को पुन: ग्रहण करने में प्रतिपृच्छा होती है।।१२६-१२७।।
ग्रहण हुई वस्तु में उसकी अनुकूलता रखना छन्दन है। अगृहीत द्रव्य के विषय में याचना करना निमन्त्रणा है और गुरु के संघ में ‘मैं आपका हूँ’। ऐसा आत्मसमर्पण करना उपसंपत् कहा गया है।।१२८।।
इट्ठे–इष्टे सम्यग्दर्शनादिके शुभपरिणामे वा। इच्छाकारो–इच्छाकारोऽभ्युपगमो हर्ष स्वेच्छया प्रवर्तनं। मिच्छाकारो–मिथ्याकार: कायमनसा निवर्तनं। तहेव–तथैव। क्व, अवराहे–अपराधेऽशुभपरिणामे व्रताद्यतिचारे। पडिसुणणंहि–प्रतिश्रवणे सूत्रार्थग्रहणे, तहत्ति य–तथेति च यथैव भवद्भि: प्रतिपादितं तथैव नान्यथेत्येवमनुराग:। णिग्गमणे–निर्गमने गमनकाले। आसिआ–आसिका देवगृहस्थादीन् परिपृच्छ्य यानं१
पापक्रियादिभ्यो मनो निर्वर्तनं वा। भणिया–भणिता: कथिता:। पविसंते य–प्रविशति च प्रवेशकाले। णिसिही–निषेधिका तत्रस्थानभ्युपगम्य२
स्थानकरणं सम्यग्दर्शनादिषु स्थिरभावो वा। आपुच्छणिया य–आपृच्छनीयं च गुर्वादीनां वन्दनापूर्वकं प्रश्नकरणं। सकज्जआरंभे–स्वस्यात्मन: कार्यं प्रयोजनं तस्यारम्भ आदिक्रिया स्वकार्यारम्भस्तस्मिन् पठनगमनयोगादिके। ३
साधम्मिणा य–समानो धर्मोऽनुष्ठानं गुरुर्वा यस्यासौ सधर्मा तेन सधर्मणा च। गुरुणा–दीक्षाशिक्षोपदेशकर्त्रा तपोऽधिकज्ञानाधिकेन वा, पुव्वणिसिट्ठिम्हि–पूर्वस्मिन्निसृष्टं प्रतिदत्तं समर्पितं यद्वस्तूपकरणादिकं तस्मिन् पूर्वनिसृष्टे वस्तुनि पुनर्ग्रहणाभिप्राये। पडिपुच्छा–प्रतिपृच्छा पुन: प्रश्न:। छंदणं–छंदनं छंदो वा तदभिप्रायेण सेवनं, गहिदे–गृहीते द्रव्ये पुस्तकादिके। अगहिददव्वे–अगृहीतद्रव्ये अन्यदीयपुस्तकादिवस्तुनि स्वप्रयोजने जाते। णिमंतणा–निमंत्रणा सत्कारपूर्वकं याचनं गृहीतस्य विनयेन निवेदनं वा। भणिदा–भणिता। तुम्हं–युष्माकं।
अहंति–अहमिति। गुरुकुले–आम्नाये आचारवृत्ति-इष्ट अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय में अथवा शुभ परिणाम में इच्छाकार होता है। अर्थात् इनको स्वीकार करना इनमें हर्षभाव होना, इनमें स्वेच्छा से प्रवृत्ति करना ही इच्छाकार है।
अपराध अर्थात् अशुभ परिणाम अथवा व्रतादि में अतिचार होने पर मिथ्याकार होता है। अर्थात् मन-वचन-काय से इन अपराधों से दूर होना मिथ्याकार है।
प्रतिश्रवण अर्थात् गुरु के द्वारा सूत्र और अर्थ प्रतिपादन होने पर उसे सुनकर ‘आपने जैसा प्रतिपादित किया है वैसा ही है, अन्यथा नहीं’ ऐसा अनुराग व्यक्त करना तथाकार है।
वसतिका आदि से निकलते समय देवता या गृहस्थ आदि से पूछकर निकलना अथवा पाप क्रियाओं से मन को हटाना आसिका है।
वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित देव या गृहस्थ आदि की स्वीकृति लेकर अर्थात् नि:सही शब्द उच्चारण करके पूछकर वहाँ प्रवेश करना और ठहरना अथवा सम्यग्दर्शन आदि में स्थिर भाव रखना निषेधिका है।
अपने कार्य–प्रयोजन के आरम्भ में अर्थात् पठन, गमन या योगग्रहण आदि कार्यों के प्रारम्भ में गुरु आदि की वन्दना करके उनसे पूछना आपृच्छा है।
समान है धर्म अनुष्ठान जिनका वे सधर्मा हैं तथा गुरु शब्द से दीक्षागुरु, शिक्षागुरु, उपदेशदाता गुरु अथवा तपश्चरण में या ज्ञान में अधिक जो गुरु हैं–इन सधर्मा या गुरुओं से कोई उपकरण आदि पहले लिये थे पुन: उन्हें वापस दे दिये, यदि पुनरपि उनको ग्रहण का अभिप्राय हो तो पुन: पूछकर लेना प्रतिपृच्छा है।
जिनकी कोई पुस्तक आदि वस्तुएँ ली हैं उनके अनुकूल ही उनकी वस्तुओं का सेवन उपयोग करना छन्दन है।
अगृहीत–अन्य किसी की पुस्तक आदि वस्तुओं के विषय में आवश्यकता होने पर गुरुओं से सत्कारपूर्वक याचना करना या ग्रहण कर लेने पर विनयपूर्वक उनसे निवेदन करना निमन्त्रणा है।
गुरुकुल अर्थात् गुरुओं के आम्नाय-संघ में, गुरुओं के विशाल पादमूल में ‘मैं आपका हूँ’, इस प्रकार त्वद्वृहत्पादमूले। आदणिसग्गो–आत्मनो निसर्गस्त्याग: तदानुकूल्याचरणं। तु–अत्यर्थवाचक:। उवसम्पा–उपसम्पत्।।१२६-१२८।।
एवं दशप्रकारौघिकसामाचारस्य संक्षेपार्थं पदविभागिनश्च विभागार्थमाह–
ओघियसामाचारो एसो भणिदो हु दसविहो णेओ।
एत्तो य पदविभागी समासदो वण्णइस्सामि।।१२९।।
एष–औघिक: सामाचारो दशप्रकारोऽपि। भणित:–कथित:। समासत:–संक्षेपतो ज्ञातव्यो अनुष्ठेयो वा। एत्तो य–इतश्चोर्ध्वं। पदविभागिनं समाचारं। समासदो–समासत:। वण्णइस्सामि–वर्णयिष्यामि। यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायादिति।।१२९।।
उग्गमसूरप्पहुदी समणाहोरत्तमंडले कसिणे।
जं आचरंति सददं एसो भणिदो पदविभागी।।१३०।।
उग्गमसूरप्पहुदी–उद्गच्छतीत्युद्गम: सूर आदित्यो यस्मिन् काले स उद्गमसूर उदयादित्यकाल:, अथवा सूरस्योद्गम: उद्गमसूर: उद्गमस्य पूर्वनिपात: स प्रभृतिरादिर्यस्यासौ उद्गमसूरप्रभृतिस्तस्मिन्नुदयसूर्यादौ। समणा–श्राम्यंति तपस्यंतीति श्रमणा मुनय:। अहोरत्तमंडले–अहश्च रात्रिश्चाहोरात्रस्तस्य मण्डलं सन्ततिरहोरात्रमंडलं तस्मिन् दिवसरात्रिमध्यक्षणसमुदये।
कसिणे–कृत्स्ने निरवशेषे। जं आचरंति–यदाचरन्ति यन्नियमादिकं निर्वर्तयन्ति। सददं–से आत्म का त्याग करना-आत्म समर्पण कर देना, उनके अनुकूल ही सारी प्रवृत्ति करना यह उपसंपत् है। गाथा में ‘तु’ शब्द अत्यर्थ का वाचक है अर्थात् अतिशयरूप से गुरु को अपना जीवन समर्पित कर देना। इस प्रकार से ये दश औघिक समाचार कहे गए है।
इस प्रकार से दशभेदरूप औघिक समाचार को संक्षेप से बताकर अब पदविभागिक के विभाग अर्थ को कहते हैं-
गाथार्थ-यह कहा गया दश प्रकार का औघिक समाचार जानना चाहिए। अब इसके बाद संक्षेप से पदविभागी समाचार कहूँगा।।१२९।।
आचारवृत्ति-दश प्रकार का संक्षेप से कहा गया यह औघिक समाचार जानना चाहिए अथवा इनका अनुष्ठान करना चाहिए। इसके अनन्तर पदविभागी समाचार को कहूँगा। क्योंकि जैसा उद्देश होता है वैसा ही निर्देश होता है ऐसा न्याय है अर्थात् नाम कथन को उद्देश कहते हैं और उसके लक्षण आदिरूप से वर्णन करने को निर्देश कहते हैं ; सो गाथा में पहले औघिक फिर पदविभागी को कहा है। इसीलिए औघिक को कहकर अब पदविभागी को कहते हैं ।
गाथार्थ-श्रमणगण सूर्योदय से लेकर सम्पूर्ण अहोरात्र निरन्तर जो आचरण करते हैं ऐसा यह पदविभागी समाचार है।।१३०।।
आचारवृत्ति-उदय को प्राप्त होना उद्गम है। जिस काल में सूर्य का उदय होता है उसे उद्गमसूर अर्थात् सूर्योदय काल कहते हैं। अथवा सूर्य का ‘उद्गम होना उद्गमसूर शब्द का अर्थ है। इस पद में उद्गम शब्द का पूर्व में निपात हो गया है। (यह व्याकरण का विषय है)। उस उद्गम सूर्य को आदि में लेकर अर्थात् सूर्योदय से लेकर सम्पूर्ण अहोरात्र के क्षणों में श्रमणगण–मुनिगण निरन्तर जिन नियम आदि का आचरण करते हैं सो यह प्रत्यक्ष में पदविभागी समाचार है ऐसा अर्हंत भट्टारक ने कहा है।
इससे यह समाचार आप्त के द्वारा कथित है ऐसा निश्चय हो जाता है। यहाँ पद के अनुष्ठान का नाम पदविभागी है। श्रमण शब्द की सततं निरंतरं। एसो–एष प्रत्यक्षवचनमेतत्। भणिओ–भणितोऽर्हद्भट्टारवैâ: कथित: आप्तकर्तृत्वप्रतिपादनमेतत्। पदविभागी–पदस्यानुष्ठानं। उद्गमसूरप्रभृतौ कृत्स्नेऽहोरात्रमण्डले यदाचरन्ति श्रमणा: सततं स एष पदविभागीति कथित:। उत्तरपदापेक्षया पुिंल्लगतेति न दोषो िंलगव्यत्यय:।।१३०।।
इष्टे वस्तुनीच्छाकार: कर्तव्य इत्युक्तं पुरस्तात् तत्किमित्याह–
संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे।
जोगग्गहणादीसु य इच्छाकारो दु कादव्वो।।१३१।।
संजमणाणुवकरणे–संयम इन्द्रियनिरोध: प्राणिदया च ज्ञानं ज्ञानावरणक्षयोपशमोत्पन्नवस्तुपरिच्छेदात्मकप्रत्यय: श्रुतज्ञानं वा तयोरुपकरणं पिच्छिकापुस्तकादि तस्मिन् संयमज्ञानोपकरणहेतौ विषये वा। अण्णुवकरणे च–अन्यस्य तप:प्रभृतेरुपकरणं कुंडिकाहारादिकं तिंस्मश्च तद्विषये च। जायणे–याचने भिक्षणे। अण्णे–अन्यस्मिन् परविषये औषधादिके परनिमित्ते वा। अथवा१ च द्रष्टव्य:। एतेषां याचने परनिमित्तमात्मनिमित्तं वा इच्छाकार: कर्तव्य: मन: प्रवर्तयितव्यं, न केवलमत्र किन्तु, जोगग्गहणादिसु य–योगग्रहणादिषु च आतापनवृक्षमूलाभ्रावकाशादिषु च किं बहुना शुभानुष्ठाने सर्वत्र परिणाम: कर्तव्य इति।।१३१।।
अथ कस्यापराधे मिथ्याकार: स इत्याह–व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य ने यहाँ बतलाया है कि जो श्रम करते हैं अर्थात् तपश्चरण करते हैं (श्राम्यन्ति तपस्यन्ति) वे श्रमण हैं अर्थात् मुनिगण ही श्रमण या तपोधन कहलाते है यहाँ पदविभागी शब्द में उत्तरपद की अपेक्षा पुल्लिंग विभक्ति का निर्देश है इसलिए लिंग विपर्यय नाम का दोष व्याकरण में नहीं होता हैं। तात्पर्य यह हुआ कि प्रातःकाल से लेकर वापस सूर्योदय होने तक साधूगण निरन्तर जिन नियम आदि का पालन करते हैं वह सब पदविभागी समाचार कहलाता है।
विशेषार्थ-श्री वीरनन्दि आचार्य ने आचारसार में इन दोनों के नाम संक्षेप समाचार और विस्तार समाचार ऐसे भी कहे हैं।
इष्ट वस्तु में इच्छाकार करना चाहिए ऐसा आपने पहले कहा है। वह इष्ट क्या हैं ? सो बताते हैं-
गाथार्थ-संयम का उपकरण, ज्ञान का उपकरण और भी अन्य उपकरण के लिए तथा किसी वस्तु के मांगने में एवं योग-ध्यान आदि के करने में इच्छाकार करना चाहिए।।१३१।।
आचारवृत्ति-पाँच इन्द्रिय और मन का निरोध तथा प्राणियों पर दयाभाव-इसका नाम संयम है। संयम का उपकरण पिच्छिका है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ जो वस्तु को जानने वाला ज्ञान है अथवा जो श्रुतज्ञान है उसे ज्ञान शब्द से कहा है। इस ज्ञान के उपकरण पुस्तक आदि हैं।
अन्य शब्द से तप आदि को लिया है। इन तप आदि के उपकरण कमण्डलु और आहार आदि हैं। इनके लिए याचना करने में या इनके विषयों में इच्छाकार करना चाहिए। तथा अन्य और जो पर विषय अर्थात् औषधि आदि हैं उनके लिए या अन्य साधु-शिष्य आदि के भी उपर्युक्त वस्तुओं में इच्छाकार करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि इन पिच्छी, पुस्तक आदि को पर के लिए या अपने लिए याचना करने में इच्छाकार करना चाहिए अर्थात् मन को प्रवृत्त करना चाहिए । केवल इनमें ही नहीं, आतापन, वृक्षमूल, अभ्रावकाश आदि योगों के करने में भी इच्छाकार करना चाहिए । अधिक कहने से क्या, सर्वत्र शुभ अनुष्ठान में परिणाम करना चाहिए।
किस अपराध में मिथ्याकार होता है ? सो ही बताते हैं-
जं दुक्कडं तु मिच्छा तं णेच्छदि दुक्कडं पुणो कादुं।
भावेण य पडिकंतो तस्स भवे दुक्कडे मिच्छा।।१३२।।
यद्दुष्कृतं यत्पापं मया कृतं तद्दुष्कृतं मिथ्या मम भवतु, अहं पुनस्तस्य कर्ता न भवामीत्यर्थ:। एवं यन्मिथ्यादुष्कृतं कृतं तु तद्दुष्कृतं पुन: कर्तुं नेच्छेत् न कुर्यात्। भावेन च प्रतिक्रान्तो यो न केवलं वचसा किन्तु मनसा कायेन च वर्तमानातीतभविष्यत्काले तस्यापराधस्य यो न कर्ता तस्य दुष्कृते मिथ्याकार इति।।१३२।।
अथ िंक तत्प्रतिश्रवणं यस्मिन् तथाकार इत्यत आह–
वायणपडिछण्णाए उवदेसे सुत्तअत्थकहणाए।
अवितहमेदत्ति पुणो पडिच्छणाए तधाकारो।।१३३।।
वायणपडिछण्णाए–वाचनस्य जीवादिपदार्थव्याख्यानस्य प्रतीच्छा श्रवणं वाचनाप्रतीच्छा तस्यां, सिद्धान्तश्रवणे। उवदेसे–उपदेशे आचार्यपरम्परागतेऽविसंवादरूपे मंत्रतंत्रादिके। सुत्तअत्थकहणाए–सूचनात्सूक्ष्मार्थस्य सूत्रं वृत्तिवार्तिकभाष्यनिबन्धनं तस्यार्थो जीवादयस्तस्य तयोर्वा कथनं प्रतिपादनं तस्मिन् सूत्रार्थकथने कथनायां वा। अवितहं–अवितथं सत्यं एवमेव। एतदेत्ति–एतदिति यद्भट्टारवैâ: कथितं तदेवमेवेति नान्यथेति कृत्वा। पुणो–पुन:। पडिच्छणाए–पतीच्छायां पुनरपि यच्छ्रवणं क्रियते। तधाकारो–तथाकार:। वाचनाप्रतिश्रवणे उपदेशे सूत्रार्थयोजने गुरुणा क्रियमाणे अवितथमेतदिति कृत्वा पुनरपि यच्छ्रवणं तत्तथाकार इति।।१३३।।
गाथार्थ-जो दुष्कृत अर्थात् पाप हुआ है वह मिथ्या होवे, पुन: उस दोष को करना नहीं चाहता है और भाव से प्रतिक्रमण कर चुका है उसके दुष्कृत के होने पर मिथ्याकार होता है।।१३२।।
आचारवृत्ति-जो पाप मैंने किये हैं वे मिथ्या होवें, पुन: मैं उनका करने वाला नहीं होऊँगा। इस प्रकार से जिस दुष्कृत को मिथ्या किया है, दूर किया है उसको पुन: करने की इच्छा न करे, इस तरह जो केवल वचन या काय से ही नहीं किन्तु मन से–भाव से भी जिसने प्रतिक्रमण किया है, जो साधु भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल में भी उस अपराध को नहीं करता है उस साधु के दुष्कृत में मिथ्याकार नामक समाचार होता है। अर्थात् किसी अपराध के हो जाने पर ‘मेरा यह दुष्कृत मिथ्या होवे’ ऐसा कहना मिथ्याकार है।
वह प्रतिश्रवण क्या है कि जिसमें तथाकार किया जाय ? अर्थात् तथाकार करना चाहिए, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-गुरु के मुख से वाचना के ग्रहण करने में, उपदेश सुनने में और गुरु द्वारा सूत्र तथा अर्थ के कथन में यह सत्य है ऐसा कहना और पुन: श्रवण की इच्छा में तथाकार होता है।।१३३।।
आचारवृत्ति-जीवादि पदार्थों का व्याख्यान करना वाचना है, उसकी प्रतीच्छा करना-श्रवण करना वाचनाप्रतीच्छा है। अर्थात् गुरु के मुख से सिद्धान्त-ग्रंथों को सुनना वाचना है। आचार्य परम्परागत, अविसंवादरूप मन्त्र-तन्त्र आदि जिसका गुरु वर्णन करते हैं, उपदेश कहलाता है। सूक्ष्म अर्थ को सूचित करने वाले वाक्य को सूत्र कहते हैं जो कि वृत्ति, वार्तिक और भाष्य के कारण हैं। अर्थात् सूत्र का विशद अर्थ करने के लिए वृत्ति, वार्तिक और भाष्यरूप रचनाएँ होती हैं उन्हें टीका कहते हैं।
सूत्र के द्वारा जीवादि पदार्थों का प्रतिपादन किया जाता है वह उस सूत्र का अर्थ कहलाता है। इस प्रकार से सूत्र के अर्थ का कथन करना या सूत्र और अर्थ दोनों का कथन करना सूत्रार्थ-कथन है। गुरु ने सिद्धान्त ग्रन्थ पढ़ाया या उपदेश दिया अथवा सूत्रार्थ का कथन किया उस समय ऐसा बोलना कि ‘हे भट्टारक! आपने जो कहा है वह ऐसा ही है वह अन्य प्रकार नहीं हो सकता है’, तथा पुनरपि उसे सुनने की इच्छा रखना या सुनना यह तथाकार कहलाता है।
केषु प्रदेशेषु प्रविशता निषेधिका क्रियते इत्याह–
कंदरपुलिणगुहादिसु पवेसकाले णिसीहियं कुज्जा।
तेिंहतो णिग्गमणे तहासिया होदि कायव्वा।।१३४।।
कंदरं–कंदर: उदकदारितप्रदेश:। पुलिणं–पुलिनं जलमध्ये जलरहितप्रदेश:। गुहा–पर्वतपार्श्वविवरं ता आदिर्येषां ते कन्दरपुलिनगुहादयस्तेषु अन्येषु च निर्जन्तुकप्रदेश्ोषु नद्यादिषु। पवेसकाले–प्रवेशकाले। णिसीहियं–निषेधिकां।
कुज्जा–कुर्यात् कर्तव्या। अत आसिका कुत: ? तेिंहतो–तेभ्य एव कन्दरादिभ्य:। णिग्गमणे–निर्गमने निर्गमनकाले। तहासिया–तथैवासिका। होदि–भवति। कायव्वा–कर्तव्या इति।।१३४।।
किन प्रदेशों में प्रवेश करते समय निषेधिका करना चाहिए ? सो बताते हैं-
गाथार्थ-कंदरा, पुलिन, गुफा आदि में प्रवेश करते समय निषेधिका करना चाहिए तथा वहाँ से निकलते समय आसिका करना चाहिए।।१३४।।
आचारवृत्ति-जलप्रवाह से विदीर्ण हुआ–विभक्त प्रदेश कंदरा कहलाता है। नदी अथवा सरोवर के जल रहित प्रदेश को पुलिन अथवा सैकत कहते हैं। अथवा ‘सिकतानां समूह: सैकतं’ अर्थात् जहाँ बालू का ढेर रहता है वह सैकत है। पर्वत के पार्श्व भाग में जो बिल–बड़े-बड़े छिद्र हैं उन्हें गुफा कहते हैं। इन कंदरा, पुलिन तथा गुफाओं में, ‘आदि’ शब्द से और भी अन्य निर्जंतुक स्थानों में या नदी आदि में प्रवेश करते समय निषेधिका करना चाहिए और इन कंदरा आदि से निकलते समय उसी प्रकार से आसिका करना चाहिए।
विशेषार्थ-वहाँ के रहने वाले स्थानों के व्यंतर आदि देवों के प्रति कहना कि ‘मैं यहाँ प्रवेश करता हूँ, आप अनुमति दीजिए।’ इस विज्ञप्ति का नाम निषेधिका है। अन्यत्र भी कहा है-
वसत्यादौ विशेत्तत्स्थं भूतादिं निसहीगिरा।
आपृच्छ्य तस्मान्निर्गच्छेत्तं चापृच्छ्यासहीगिरा।।१
अर्थात् वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित भूत, व्यंतर आदि को निसही शब्द से पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है और वहाँ से निकलते समय असही शब्द से उन्हीं को पूछकर निकलना आसिका है। ‘आचारसार’ में भी कहा है कि-
स्थिता वयमियत्कालं याम: क्षेमोदयोस्तु ते।
इतीष्टाशंसनं व्यन्तरादेराशीर्निरुच्यते।।
जीवानां व्यन्तरादीनां बाधायै यन्निषेधनम्।
अस्माभि: स्थीयते युष्मद्दिष्ट्यैवेति निषिद्धिका।।११।।२
अर्थात् हम यहाँ पर इतने दिन तक रहे, अब जाते हैं। तुम लोगों का कल्याण हो। इस प्रकार व्यंतरादिक देवों को इष्ट आशीर्वाद देना आशीर्वचन है। मुनिराज जिस गुफा में या जिस वसतिका में ठहरते हैं उसके अधिकारी व्यन्तरादिक देव से पूछकर ठहरते हैं और जाते समय उनको आशीर्वाद दे जाते हैं। मुनियों की ये दोनों ही समाचार नीति हैं।
तुम्हारी कृपा से हम यहाँ ठहरते हैं। तुम किसी प्रकार का उपद्रव मत करना, इस प्रकार जीवों को तथा व्यन्तरादिक देवों को उपद्रव का निषेध करना निषिद्धिका नाम की समाचार नीति कहलाती है।
प्रश्नश्च केषु स्थानेषु इत्युच्यते–
आदावणादिगहणे सण्णा उब्भामगादिगमणे वा।
विणयेणायरियादिसु आपुच्छा होदि कायव्वा।।१३५।।
आदावणादिगहणे–आतपनं व्रतपूर्वकमुष्णसहनं आदिर्येषां ते आतापनादयस्तेषां ग्रहणमनुष्ठानं तस्मिन्नातपनवृक्षमूलाभ्रावकाशकायोत्सर्गादिग्रहणे। सण्णा उब्भामगादिगमणे–वा संज्ञायामाहारकालशोधनादिकेच्छायां उद्भ्रम्यते गम्यते उद्भ्रम एवोद्भ्रमकोऽन्यग्राम: स आदिर्येषां ते उद्भ्रमकादयस्तेषां गमनं प्रापणं तस्मिन्वा, निमित्तवशादन्यग्रामगमने वा।
विणयेण–विनयेन नमस्कारपूर्वकप्रणामेन। आइरियादिसु–आचार्य आदिर्येषां ते आचार्यादयस्तेषु आचार्यप्रवर्तकस्थविरगणधरादिषु। आपुच्छा–आपृच्छा। होदि–भवति। कादव्वा–कर्तव्या। यिंत्कचित्कार्यं करणीयं तत्सर्वमाचार्यादीनापृच्छ्य क्रियते यदि आपृच्छा भवति तत इति।।१३५।।
प्रतिपृच्छास्वरूपनिरूपणार्थमाह–
जं िंकचि महाकज्जं करणीयं पुच्छिऊण गुरुआदी।
पुणरवि पुच्छदि साहू तं जाणसु होदि पडिपुच्छा।।१३६।।
जं िंकचि–यिंत्कचित् सामान्यवचनमेतत्। महाकज्जं–महत्कार्यं वृहत्प्रयोजनं। करणीयं–कर्तव्यमनुष्ठानीयं। पुच्छिऊण–पृष्ट्वा। गुरुआदी–गुरुरादिर्येषां ते गुर्वादयस्तान् गुरुप्रवर्तकस्थविरादीन्। पुणरवि–पुनरपि। पुच्छदि–पृच्छति। साहू–साधून् परिशेषधर्मोद्युक्तान्। अथवा स साधु: पुनरपि पृच्छति येन पूर्वं याचितं। तं जाणसु–तज्जानीहि बुध्यस्व। होदि–भवति। पडिपुच्छा–प्रतिपृच्छा। यिंत्कचित् कार्यं महत्करणीयं गुर्वादीन् पृष्ट्वा पुनरपि साधून् पृच्छति साधुर्वा तत्कार्यं तदेव प्रश्नविधानं प्रतिपृच्छां जानीहीति।।१३६।।
अष्टमं सूत्र प्रपंचयन्नाह–किन-किन स्थानों में पूछना चाहिए ? सो बताते हैं–
गाथार्थ-आतापन आदि के ग्रहण करने में, आहार आदि के लिए जाने में अथवा अन्य ग्राम आदि में जाने के लिए विनय से आचार्य आदि से पूछकर कार्य करना चाहिए।।१३५।।
आचारवृत्ति-व्रतपूर्वक उष्णता को सहन करना आतापन कहलाता है। आदि शब्द से वृक्षमूलयोग, अभ्रावकाशयोग और कायोत्सर्ग को ग्रहण करते समय, आहार के लिए जाते समय, शरीर की शुद्धि–मलमूत्र आदि विसर्जन के लिए जाते समय, उद्भ्रामक अर्थात् किसी निमित्त से अन्य ग्राम आदि के लिए गमन करने में विनय से नमस्कार पूर्वक प्रणाम करके आचार्य, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर आदि से पूछकर करना चाहिए।
तात्पर्य यह हुआ कि जो कुछ भी कार्य करना है वह सब यदि आचार्य आदि से पूछकर किया जाता है उसी का नाम आपृच्छा है। ‘
अब प्रतिपृच्छा के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-जो कोई भी बड़ा कार्य करना हो तो गुरु आदि से पूछकर और फिर साधुओं से जो पूछता है वह प्रतिपृच्छा है ऐसा जानो।।१३६।।
आचारवृत्ति-मुनियों को यदि कोई बड़े कार्य का अनुष्ठान करना है तो गुरु, प्रवर्तक, स्थविर आदि से एक बार पूछकर, पुनरपि गुरुओं से तथा साधुओं से पूछना प्रतिपृच्छा है। अथवा यहाँ साधु को प्रथमान्तपद समझना, जिससे ऐसा अर्थ होता है कि साधु किसी बड़े कार्य में गुरुओं से एक बार पूछकर पुनरपि जो पूछता है उस प्रश्न की विधि का नाम प्रतिपृच्छा है। हे शिष्य! ऐसा तुम जानो।
अब छन्दन का लक्षण कहते हैं-
गहिदुवकरणे विणए वंदणसुत्तत्थपुच्छणादीसु।
गणधरवसहादीणं अणुवुत्त्ािं छंदणिच्छाए।।१३७।।
गहिदुवकरणे–गृहीते स्वीकृते उपकरणे संयमज्ञानादिप्रतिपालनकारणे आचार्यादिप्रदत्तपुस्तकादिके विणए–विनये विनयकाले वंदण–वन्दनायां वंदनाकाले क्रियाग्रहणेन कालस्यापि ग्रहणं तदभेदात्। सुत्तत्थपुच्छणादीसु–सूत्रस्य अर्थस्तस्य प्रश्न: स आदिर्येषां ते सूत्रार्थ प्रश्नादयस्तेषु। गणधरवसहादीणं–गणधरवृषभादीनां आचार्यादीनां।
अणुवुत्ती–अनुवृत्तिरनुकूलाचरणं। छन्दणं–छन्द: छन्दोऽनुवर्तित्वं। इच्छाए–इच्छया। सूत्रार्थप्रश्नादिषु उपकरणद्रव्ये च गृहीते विनये वंदनायां च गणधरवृषभादीनामिच्छयानुवृत्तिश्छन्दनमिति। अथवोपकरणद्रव्यस्वामिन इच्छया गृहीतुरनुवृत्तिश्छंदनमाचार्यादीनां च प्रश्नादिषु वन्दनाकाले चेति।।१३७।।
नवमस्य सूत्रस्य विवरणार्थमाह–
गुरुसाहम्मियदव्वं पुच्छयमण्णं च गेण्हिदुं इच्छे।
तेिंस विणयेण पुणो णिमंतणा होइ कायव्वा।।१३८।।
गुरुसाहंमियदव्वं–गुरुश्च साधर्मिकश्च गुरुसाधर्मिकौ तयोर्द्रव्यं गुरुसाधर्मिकद्रव्यं। पुच्छयं–पुस्तकं ज्ञानोपकारकं। अण्णं च–अन्यच्च कुण्डिकादिकं। गेण्हिदुं–ग्रहीतुं आदातुं। इच्छे–इच्छेद्वाञ्छेत्। तेिंस–तेषां गुरुसाधार्मिकद्रव्याणां गृहीतुमिष्टानां। विणएण–विनयेन नम्रतया। पुणो–पुन:। णिमंतणा–निमंत्रणा याचना। होइ–भवति। कायव्वा–कर्तव्या। यदि गुरुसाधर्मिकादिद्रव्यं पुस्तकादिकं गृहीतुमिच्छेत् तदानीं तेषां विनयेन याचना भवति कर्तव्या इति।।१३८।।
उपसम्पत्सूत्रभेदप्रतिपादनार्थमाह–
गाथार्थ-ग्रहण किये हुए उपकरण के विषय में, विनय के समय, वन्दना के काल में, सूत्र का अर्थ पूछने इत्यादि में गणधर प्रमुख आदि की इच्छा से अनुकूल प्रवृत्ति करना छन्दन है।।१३७।।
आचारवृत्ति-संयम की रक्षा और ज्ञानादि के कारण ऐसे आचार्य आदि के द्वारा दिए गये पिच्छी, पुस्तक आदि को लेने पर विनय के समय, वन्दना के समय, सूत्र के अर्थ का प्रश्न आदि करने में आचार्य आदि की इच्छा के अनुकूल प्रवृत्ति करना छन्दन नामक समाचार है।
अथवा उपकरण की वस्तु के जो स्वामी हैं उनकी इच्छा के अनुकूल ही ग्रहण करने वाले साधु को उन वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए तथा आचार्य आदि से प्रश्न करते समय उनकी विनय करने में या वन्दना के समय उनके अनुकूल कार्य करना चाहिए।
भावार्थ-गुरु आदि से जो भी उपकरण या ग्रन्थ आदि लिये हैं उनके उपयोग में उन गुरुओं के अनुकूल ही प्रवृत्त होना तथा गुरुओं की विनय में, उनकी वन्दना में जो गुरुओं की इच्छा के अनुसार वर्तन करना है सो छन्दन है।
नवमें निमन्त्रणा समाचार को कहते हैं-
गाथार्थ-गुरु या सहधर्मी साधु से द्रव्य को, पुस्तक को या अन्य वस्तु को ग्रहण करने की इच्छा हो तो उन गुरुओं से विनयपूर्वक पुन: याचना करना निमन्त्रणा समाचार है।।१३८।।
आचारवृत्ति-गुरु और अन्य संघस्थ साधुओं से यदि पुस्तक या कमण्डलु आदि लेने की इच्छा हो तो नम्रतापूर्वक पुन: उनकी याचना करना अर्थात् पहले कोई वस्तु उनसे लेकर पुनः कार्य हो जाने पर वापस दे दी है और पुन: आवश्यकता पड़ने पर याचना करना सो निमन्त्रणा है।
अब उपसंपत् सूत्र के भेदों का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं-
उवसंपया य णेया पंचविहा जिणवरेहिं णिद्दिट्ठा।
विणए खेत्ते मग्गे सुहदुक्खे चेव सुत्ते य।।१३९।।
उपसंपया य–उपसम्पच्चोपसेवात्मनो निवेदनमुपसम्पत्। णेया–ज्ञेया ज्ञातव्या। पंचविहा–पंचविधा पंचप्रकारा। जिणवरेहिं–जिनवरै:। णिद्दिट्ठा–निर्दिष्टा कथिता। के ते पंच प्रकारा इत्याह–विणये–विनये। खेत्ते–क्षेत्रे। मग्गे–मार्गे। सुहदुक्खे–सुखदु:खयो:। चशब्द: समुच्चये।
एवकारोऽवधारणे। सुत्ते य–सूत्रे च। विषयनिर्देशोऽयं विनयादिषु विषयेषूपसम्पत् पंचप्रकारा भवति विनयादिभेदैर्वेति।।१३९।।
तत्र विनयोपसम्पत् प्रतिपादनार्थमाह–
पाहुणविणउवचारो तेिंस चावासभूमिसंपुच्छा।
दाणाणुवत्तणादीं विणये उवसंपया णेया।।१४०।।
पाहुणविण उपचारो–विनयश्चोपचारश्च विनयोपचारौ प्राघूर्णिकानां पादोष्णानां विनयोपचारौ, अंगमर्दनप्रियवचनादिको विनय:, आसनादिदानमुपचार:। आवासभूमिसंपुच्छा–आवास: स्थानं गुरुगृहं भूमि: मार्गोऽध्वा तयो: संपृच्छा संप्रश्न: आवासभूमिसंप्रश्न:। दाणं–दानं संस्तरपुस्तकशास्त्रोपकरणादिनिवेदनं।
अणुवत्तणादी–अनुवर्तनादयस्तद-नुकूलाचरणादय:। विणये उवसंपया–विनयोपसम्पत्। णेया–ज्ञेया। पादोष्णानां विनयोपचारकरणं यत्तेषां चावासभूमि-सम्पृच्छयादानानुवर्तनादयश्च ये तेषां क्रियन्ते तत्सर्वं विनयोपसम्पदुच्यते। सर्वत्रात्मन: समर्पण तस्य वा ग्रहणमुपसम्पदिति यत:।।१४०।।
का क्षेत्रोपसम्पदित्यत्रोच्यते–
गाथार्थ-उपसंपत् के पाँच प्रकार हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है इन्हें विनय, क्षेत्र, मार्ग, सुखदु:ख और सूत्र के विषय में जानना चाहिए।।१३९।।
आचारवृत्ति-उपसंपत् का अर्थ है उपसेवा अर्थात् अपना निवेदन करना। गुरुओं को अपना आत्मसमर्पण करना उपसंपत् है जो कि विनय आदि के विषय में किया जाता है। इसलिए इसके पाँच भेद हैं-विनयोपसंपत्, क्षेत्रोपसंपत्, मार्गोपसंपत्, सुख-दुःखोपसंपत् और सूत्रोपसंपत्। उनमें सबसे पहले विनयोपसंपत् को कहते हैं-
गाथार्थ-आगन्तुक अतिथि-साधु की विनय और उपचार करना, उनके निवास स्थान और मार्ग के विषय में प्रश्न करना, उन्हे उचित वस्तु का दान करना, उनके अनुकूल प्रवृति करना आदि-यह विनय-उपसंपत् है।।१४०।।
आचारवृत्ति-आगन्तुक साधु को प्राघूर्णिक या पादोष्ण कहते हैं। उनका अंगमर्दन करना, प्रिय वचन बोलना आदि विनय है। उन्हें आसन आदि देना उपचार है। आप किस गुरुगृह के हैं ?
किस मार्ग से आये हैं ?अर्थात् आप किस संघ में दीक्षित हुए हैं या आपके दीक्षागुरु का नाम क्या है ? और अभी किस मार्ग से विहार करते हुए यहाँ आये हैं ? ऐसा प्रश्न करना तथा उन्हें संस्तर–घास, पाटा, चटाई आदि देना, पुस्तक-शास्त्र आदि देना, उनके अनुकूल आचरण करना आदि सब विनयोपसंपत् है।
तात्पर्य यह है कि आगन्तुक साधु के प्रति उस समय जो भी विनय-व्यवहार किया जाता है वह विनयोपसंपत् है। सब प्रकार से उन्हें आत्मसमर्पण करना या उनको सभी तरह से अपने संघ में ग्रहण करना यह विनयोपसंपत् है।
अब क्षेत्रोपसंपत् को बतलाते हैं-
संजमतवगुणसीला जमणियमादी य जह्मि खेतह्मि।
वड्ढंति तह्मि वासो खेत्ते उवसंपया णेया।।१४१।।
संजमतवगुणसीला–संयमतपोगुणशीलानि। यमणियमादी य–यमनियमादयश्च आमरणात्प्रतिपालनं यम: कालादिपरिमाणेनाचरणं नियम:, व्रतपरिरक्षणं शीलं, कायादिखेदस्तप:, उपशमादिलक्षणो गुण:, प्राणेन्द्रियसंयमनं संयम:, अतो नैषामैक्यं। जह्मि–यस्मिन्। खेत्तंहि–क्षेत्रे। वड्ढंति–वर्द्धंन्ते उत्कृष्टा भवंति। तह्मि–तस्मिन् वासो वसनं।
खेत्ते उपसंपया–क्षेत्रोपसम्पत्। णेया–ज्ञेया। यस्मिन् क्षेत्रे संयमतपोगुणशीलानि यमनियमादयश्च वर्द्धन्ते तस्मिन् वासो य: सा क्षेत्रोपसम्पदिति।।१४१।।
तृतीयाया: स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
पाहुणवत्थव्वाणं अण्णोण्णागमणगमणसुहपुच्छा।
उवसंपदा य मग्गे संजमतवणाणजोगजुत्ताणं।।१४२।।
पाहुणवत्थव्वाणं–पादोष्णवास्तव्यानां आगन्तुकस्वस्थानस्थितानां। अण्णोण्णं–अन्योन्यं परस्परं। आगमणगमण–आगमनं च गमनं चागमनगमने तयोर्विषये सुहपुच्छा–सुखप्रश्न: किं सुखेन तत्र–भवान् गत आगतश्च। उपसंपदा य–उपसंपत्। मग्गे–मार्गे पथिविषये। संजमतवणाणजोगजुत्ताणं–संयमतपोज्ञानयोगयुक्तानां। पादोष्णवास्तव्यानां अन्योऽन्यं योऽयं गमनागमनसुखप्रश्न: सा मार्गविषयोपसम्पदित्यत्रोच्यत इति।।१४२।।
अथ का सुखदु:खोपसम्पदित्यत्रोच्यते–
गाथार्थ-जिस क्षेत्र में संयम, तप, गुण, शील तथा यम और नियम वृद्धि को प्राप्त होते हैं उस क्षेत्र में निवास करना यह क्षेत्रोपसंपत् जानना चाहिए।।१४१।।
आचारवृत्ति-प्राणियों की रक्षा और इन्द्रिय-निग्रह को संयम कहते हैं। शरीर आदि को जिससे खेद उत्पन्न हो वह तप है। उपशम आदि लक्षण वाले गुण कहलाते हैं और व्रतों के रक्षक को शील कहते हैं। जिनका आमरण पालन किया जाय वह यम है तथा काल आदि की अवधि से पाले जाने वाले नियम कहलाते हैं। इस प्रकार से इनके लक्षणों की अपेक्षा भेद हो जाने से इन सभी में ऐक्य सम्भव नहीं है। ये संयम आदि जिस क्षेत्र-देश में वृद्धिंगत होते हैं उस देश में ही रहना यह क्षेत्रोपसंपत् है।
अब मार्गोपसंपत् का लक्षण बताते हैं-
गाथार्थ-संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से युक्त आगन्तुक और स्थानीय अर्थात् उस संघ में रहने वाले साधुओं के बीच जो परस्पर में मार्ग से आने-जाने के विषय में सुख समाचार पूछना है वह मार्गोपसंपत् है।।१४२।।
आचारवृत्ति-जो संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से सहित हैं ऐसे साधु यदि विहार करते हुए आ रहे हैं तो वे आगन्तुक कहलाते हैं। ऐसे साधु यदि कहीं ठहरे हुए हैं तो वे वास्तव्य कहलाते हैं। यदि आगन्तुक साधु किसी संघ में आये हैं तो वे साधु और अपने स्थान-वसतिका आदि में ठहरे हुए साधु आपस में एक-दूसरे से मार्ग के आने-जाने से सम्बन्धित कुशल प्रश्न करते हैं अर्थात् ‘आपका विहार सुख से हुआ है न ? आप वहाँ से सुखपूर्वक तो आ रहे हैं न ?’ इत्यादि मार्ग विषयक सुख-समाचार पूछना मार्गोपसंपत् है।
अब सुखदु:खोपसंपत् क्या है ? ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं-
सुहदुक्खे उवयारो वसहीआहार भेसजादीिंह।
तुह्मं अहंति वयणं सुहदुक्खुवसंपया णेया।।१४३।।
सुहदुक्खे–सुखदु:खयोर्निमित्तभूतयो: अथवा तद्योगात्ताच्छब्द्यं सुखदु:खयुक्तयो: पुरुषयोरिति। उवयारो–उपचार: उपग्रह:। वसहीआहारभेसजादीिंह–वसतिकाहारभैषज्यादिभि: सुखिनो निर्वृत्तस्य शिष्यादिलाभे कुंडिकादिदानं, दु:खिनोव्याध्युपपीडितस्य सुखशय्यासनौषधान्नपानमर्दनादिभिरुपकार उपचार:।
तुम्हं अहंति वयणं–युष्माकमहमिति वचनं युष्माभिर्यदादिश्यते तस्य सर्वस्याहं कर्ता इति। अथवा युष्माकमेतत्सर्वं मदीयमिति वचनं। सुहदुक्खुवसंपया–सुखदु:खोपसंपत्। णेया–ज्ञातव्या। सुखदु:खनिमित्तं पिंछवसतिकादिभिरुपचारो युष्माकमिति वचनं उपसम्पत् सुखदु:खविषयेति।।१४३।।
पंचम्या उपसम्पद: स्वरूपनिरूपणार्थमाह–
उवसंपया य सुत्ते तिविहा सुत्तत्थतदुभया चेव।
एक्केक्का विय तिविहा लोइय वेदे तहा समये।।१४४।।
सूत्रविषयोपसम्पच्च त्रिविधा त्रिप्रकारा। सुत्तत्थतदुभया चेव–सूत्रार्थतदुभया चैव सूत्रार्थो यत्न: सूत्रोपसम्पत्, अर्थनिमित्तो यत्नो ऽर्थोपसम्पत् सूत्रार्थोभयहेतुर्यत्न: तदुभयोपसंपत् तादर्थ्यात्ताच्छब्द्यमिति। एवैâकापि च सूत्रार्थोभयसम्पत् लौकिकवैदिकसामायिकशास्त्रभेदात्त्रिविधा। लौकिकसूत्रार्थतदुभयानामवगम:। तथा वैदिकानां सामायिकानां च।
गाथार्थ-साधु के सुख-दु:ख में वसतिका, आहार और औषधि आदि से उपचार करना और ‘मैं आपका ही हूँ’ ऐसा वचन बोलना सुखदुःखोपसंपत् है।।१४३।।
आचारवृत्ति-यहाँ सुख-दु:ख निमित्तभूत हैं इसलिए साधुओं के सुख-दु:ख के प्रसंग में अथवा सुख-दु:ख से युक्त साधुओं का वसतिका आदि के द्वारा उपचार करना अर्थात् यदि आगन्तुक साधु सुखी हैं और उन्हें यदि मार्ग में शिष्य आदि का लाभ हुआ है तो उन्हें उनके लिए उपयोगी पिच्छी, कमण्डलु आदि देना और यदि आगन्तुक साधु दु:खी हैं, व्याधि आदि से पीड़ित हैं तो उनके लिए सुखप्रद शय्या, संस्तर आदि आसन, औषध, अन्न-पान से तथा उनके हाथ-पैर दबाना आदि वैयावृत्ति से उनका उपकार करना। ‘मैं आपका ही हूँ, आप जो आदेश करेंगे वह सब हम करेंगे’ अथवा जो यह सब मेरा है वह सब आपका ही है ऐसे वचन बोलना यह सब सुख दुःखोपसंपत् है।
विशेष-प्रश्न हो सकता है कि साधु, साधु के लिए वसतिका, आहार, औषधि आदि कैसे देंगे ? समाधान यह है कि किसी वसतिका आदि में ठहरे हुए आचार्य उस वसतिका में ही उचित स्थान देंगे या अन्य वसतिकाओं में उनकी व्यवस्था करा देंगे अथवा श्रावकों द्वारा वसतिका की व्यवस्था करायेंगे, ऐसे ही श्रावकों के द्वारा उनके स्वास्थ्य आदि के अनुकूल आहार या रोग आदि के निमित्त औषधि आदि की व्यवस्था करायेंगे। यही व्यवस्था सर्वत्र विधेय है।
अब पंचम सूत्रोपसंपत् का वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-सूत्र के विषय में उपसंपत् तीन प्रकार की है-सूत्रोपसंपत्, अर्थोपसंपत् और तदुभयोपसंपत्। फिर लौकिक, वेद और समय की अपेक्षा से वह एक-एक भी तीन प्रकार की हो जाती है।।१४४।।
आचारवृत्ति-सूत्रोपसंपत् के तीन भेद हैं-सूत्रोपसंपत्, अर्थोपसंपत् और सूत्रार्थोपसंपत्। सूत्र के लिए प्रयत्न करना सूत्रोपसंपत् है। उसके अर्थ को समझने के लिए प्रयत्न करना अर्थोपसंपत् तथा सूत्र और अर्थ दोनों के लिए प्रयत्न करना सूत्रार्थोपसंपत् है। इन एक -एक के भी लौकिक, वैदिक और सामायिक हुण्डावसर्पिण्यपेक्षया वैदिकशास्त्रस्य ग्रहणं। अथवा सर्वकालं नयाभिप्रायस्य सम्भवाद्वैदिकस्य न दोष:। अथवा वेदे सिद्धान्ते समये तर्कादौ इति। तुम्हं महद्गुरुकुले आत्मनो निसर्ग: उपसम्पदुक्ता१।।१४४।।
पदविभागिकस्य सामाचारस्य निरूपणार्थमाह–
कोई सव्वसमत्थो सगुरुसुदं सव्वमागमित्ताणं।
विणएणुयक्कमित्ता पुच्छइ सगुरुं पयत्तेण।।१४५।।
कोई–कश्चित्। सव्वसमत्थो–सर्वेरपि प्रकारैर्वीर्यधैर्यविद्याबलोत्साहादिभि: समर्थ: कल्प: सर्वसमर्थ:। सगुरुसुदं–स्वगुरुश्रुतं आत्मीयगुरूपाध्यायागतं शास्त्रं। सव्वं–सर्व निरवशेषं। आगमित्ताणं–आगम्य ज्ञात्वा।
शास्त्रों के भेद की अपेक्षा से तीन-तीन भेद हो जाते हैं। लौकिक सूत्र का ज्ञान लौकिक सूत्रोपसंपत् है, लौकिक सूत्र के अर्थ का ज्ञान लौकिक सूत्र के अर्थ का उपसंपत् और लौकिक सूत्र तथा उसका अर्थ इन दोनों का ज्ञान लौकिक सूत्रार्थ उपसंपत् है। ऐसे ही वैदिक और सामायिक के विषय में भी समझना चाहिए अर्थात् वैदिक सूत्रोपसंपत्, वैदिकार्थोपसंपत् और वैदिकसूत्रार्थोपसंपत् ये तीन भेद हैं। ऐसे ही सामायिकसूत्रोपसंपत्, सामायिकसूत्रसम्बन्धी अर्थोपसंपत् और सामायिक सूत्रार्थोपसंपत् ये तीन भेद होते हैं।
यहां पर हुण्डावसर्पिणी की अपेक्षा से वैदिक शास्त्र का ग्रहण किया है। अथवा सभी कालों में नयों का अभिप्राय सम्भव है इसलिए वैदिक को भी सर्वकाल में माना जा सकता है अथवा वेद अर्थात् सिद्धान्त और समय अर्थात् तर्कादि सम्बन्धी ग्रन्थ इनके विषय में उपसंपत् समझना। इस प्रकार से महान् गुरुकुल में अपना आत्म समर्पण करना यह उपसंपत् है इसका कथन पूर्ण हुआ।
विशेषार्थ-व्याकरण, गणित आदि शास्त्रों को लौकिक शास्त्र कहते हैं। द्वादशांग श्रुत, प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग, सिद्धान्त ग्रन्थ–
षट्खण्डागम, कसायपाहुड़, महाबन्ध आदि तथा स्याद्वादन्याय, प्रमेयकमलमार्तण्ड, समयसार आदि अध्यात्मशास्त्र ये सभी समयरूप अर्थात् सामायिक शास्त्र कहलाते हैं। वैदिक–ऋग्वेद आदि वेदों को वैदिक शास्त्र कहते हैं यह कथन वर्तमान के हुंडावसर्पिणी की अपेक्षा है। पुन: टीकाकार ने यह भी कहा है कि नयों के अभिप्राय से सभी कालों में भी ग्रहण कर लिया गया है क्योंकि इन वेदों का ज्ञान भी कुनयों में अन्तर्भूत है।
अथवा अन्य लक्षण भी टीकाकार ने किया है यथा-‘वेद’ से सिद्धान्त शास्त्रों का ग्रहण है और ‘समय’ से तर्कादि शास्त्रों का ग्रहण किया है। चूंकि प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगों को वेदसंज्ञा है और स्वसमय-परसमय से स्वमत-परमत के विषय में परमत का खण्डन करके स्वमत का मण्डन करने वाले न्यायग्रन्थ ही हैं।
यहाँ तक औघिक समाचार नीति का वर्णन हुआ।
अब पदविभागी समाचार का निरूपण करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-कोई सर्वसमर्थ साधु अपने गुरु के सम्पूर्ण श्रुत को पढ़कर, विनय से पास आकर और प्रयत्नपूर्वक अपने गुरु से पूछता है।।१४५।।
आचारवृत्ति-वीरता, धीरता, विद्या, बल और उत्साह आदि सभी प्रकार के गुणों से समर्थ कोई मुनि अपने दीक्षागुरु या अपने संघ के उपाध्याय-विद्यागुरु के उपलब्ध सभी शास्त्रों को पढ़कर पुन: अन्यान्य शास्त्रों को पढ़ने की इच्छा से उनके पास आकर विनयपूर्वक मन-वचन-कायपूर्वक प्रणाम करके प्रयत्न से विणएण–विनयेन मनोवचनकायप्रणामै:।
उवक्कमित्ता–उपक्रम्य प्रारभ्योपढौक्य। पुच्छदि–पृच्छति अनुज्ञां याचते। सगुरुं–स्वगुरु। पयत्तेण–प्रयत्नेन प्रमादं त्यक्त्वा। कश्चित् सर्वशास्त्राधिगमबलोपेत: स्वगुरुशास्त्रमधिगम्य, अन्यदपि शास्त्रमधिगन्तुमिच्छन् विनयेनोपक्रम्य प्रयत्नेन स्वगुरुं पृच्छति गुरुणानुज्ञातेन गन्तव्यमित्युक्तं भवति।।१४५।।
किं तत्पृच्छति इत्यत्रोच्यते–
तुज्भâं पादपसाएण अण्णमिच्छामि गंतुमायदणं।
तिण्णि व पंच व छा वा पुच्छाओ एत्थ सो कुणइ।।१४६।।
तुब्भं पादपसादेण–त्वत्पादप्रसादात् त्वत्पादानुज्ञया। अण्णं–अन्यत्। इच्छामि–अभ्युपैमि। गंतुं–यातुं। आयदणं–सर्वशास्त्रपारंगतं चरणकरणोद्यतमाचार्यं, यद्यपि षडायतनानि लोके सर्वज्ञ:, सर्वज्ञालयं, ज्ञानं, ज्ञानोपयुक्त:, चारित्रं, चारित्रोपयुक्त इति भेदाद्भवन्ति तथापि ज्ञानोपयुक्तस्याचार्यस्य ग्रहणमधिकारात्। किमेकं प्रश्नं करोति नेत्याह तिण्णि व–तिस्र:।
पंच व–पंच वा। छा व–षड् वा। चशब्दाच्चतस्रोधिका वा। पुच्छाओ–पृच्छा: प्रश्नान्। एत्थ–अत्रावसरे। कुणदि–करोति। अनेनात्मोत्साहो विनयो वा प्रदर्शित:। भट्टारकपादप्रसन्नै: अन्यदायतनं गंतुमिच्छामीत्यनेन प्रकारेण तिस्र: पंच षड् वा पृच्छा: सोऽत्र करोतीति।।१४६।।
तत: किंकरोत्यसावित्याह–
एवं आपुच्छित्ता सगवरगुरुणा विसज्जिओ संतो।
अप्पचउत्थो तदिओ बिदिओ वासो तदो णीदी।।१४७।।
उनसे पूछता है अर्थात् अन्य संघ में जाने की आज्ञा माँगता है। अभिप्राय यह है कि गुरु की आज्ञा मिलने पर ही जाना चाहिए अन्यथा नहीं।
वह शिष्य गुरु से क्या पूछता है ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-‘आपके चरणों की कृपा से अब मैं अन्य आयतन को प्राप्त करना चाहता हूँ’ इस तरह वह मुनि इस विषय में तीन बार या पाँच-छह बार प्रश्न करता है।।१४६।।
आचारवृत्ति-मुनि अपने आचार्य से प्रार्थना करता है, ‘हे भगवन्! आप भट्टारक के चरणकमलों की प्रसन्नता से, आपकी आज्ञा से अन्य आयतन को प्राप्त करना चाहता हूँ।’ तेरह प्रकार के चारित्र और तेरह प्रकार की क्रियाओं में उद्यत, सर्वशास्त्रों में पारंगत आचार्य को यहाँ आयतन शब्द से कहा है। यद्यपि लोक में छह आयतन प्रसिद्ध हैं-सर्वज्ञदेव, सर्वज्ञ का मन्दिर, ज्ञान, ज्ञान से संयुक्त ज्ञानी, चारित्र और चारित्र से युक्त साधु ये छह माने हैं फिर भी यहाँ प्रकरणवश ज्ञानोपयुक्त आचार्य को ही ग्रहण करना चाहिए क्योंकि उन्हीं के विषय में यह अधिकार है।
वह मुनि ऐसे ज्ञान में अधिक किन्हीं अन्य आचार्य के पास विशेष अध्ययन के लिए जाने हेतु अपने गुरु से एक बार ही नहीं, तीन, चार या पाँच अथवा छह बार पूछता है। प्रश्न यह हो सकता है कि बार-बार पूछने का क्या हेतु है सो आचार्य बताते हैं कि बार-बार पूछने से अपना उत्साह प्रकट होता है अथवा विशेष विनय प्रकट होती है। अर्थात् पुन: पुन: आज्ञा लेने से आचार्य के प्रति विशेष विनय और अपना अधिक ज्ञान प्राप्त करने में उत्साह मालूम होता है।
पुन: वह मुनि क्या करता है ? सो बताते हैं-
गाथार्थ-इस प्रकार गुरु से पूछकर और अपने पूज्य गुरु से आज्ञा प्राप्त वह मुनि अपने सहित चार या तीन, दो मुनि होकर वहाँ से विहार करता है।।१४७।।
एवं–पूर्वोक्तेन न्यायेन। आपुच्छित्ता–आपृच्छ्याभ्युपगमय्य१। सगवरगुरुणा–स्वकीयवरगुरुभि: दीक्षाश्रुतगुर्वादिभि:। विसज्जिदो–विसृष्टो मुक्त:। संतो–सन्। किमेकाक्यसौ गच्छति नेत्याह। अप्पचउत्थो–चतुर्णां पूरणश्चतुर्थ: आत्मा चतुर्थो यस्यासावात्मचतुर्थ:। त्रयाणां द्वयोर्वा पूरणस्तृतीयो द्वितीय:।
आत्मा तृतीयो द्वितीयो वा यस्यासावात्मतृतीय आत्मद्वितीय:। त्रिभिर्द्वाभ्यामेकेन वा सह गंतव्यं नैकाकिना। सो तदो–स साधुस्तत: तस्मात् स्वगुरुकुलात्। णीदि–निर्गच्छति। एवमापृच्छ्य स्वकीयवरगुरुभिश्च विसृष्ट: सन्नात्मचतुर्थो निर्गच्छति, आत्मतृतीय आत्मद्वितीयो व उत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात्।।१४७।।
किमिति कृत्वान्येन न्यायेन विहारो न युक्तो यत:–
गिहिदत्थे य विहारो विदिओऽगिहिदत्थसंसिदो चेव।
एत्तो तदियविहारो णाणुण्णादो जिणवरेिंह।।१४८।।
गिहिदत्थेय–गृहीतो ज्ञातोऽर्थो जीवादितत्त्वं येनासौ गृहीतार्थश्च एक: प्रथम:। विहारो–विहरणं देशान्तरगमनेन चारित्रानुष्ठानं। अथवा विहरतीति विहार: एकश्च विहारश्चैकविहार:। विदिओ–द्वितीय:। अगिहीदत्थसंसिदो–अगृहीतार्थेन संश्रितो युक्त:। अथ को द्वितीय:, अगृहीतार्थस्तस्यानेन सहाचरणं नैकस्य।
एत्तो–एताभ्यां गृहीतागृहीतार्थ-संश्रिताभ्यामन्य:। तदियविहारो–तृतीयाविहार:। णाणुण्णादो–नानुज्ञातो: नाभ्युपगतो जिनवरैरर्हद्भि:। एको गृहीतार्थस्य विहारोऽपरोगृहीतार्थेन संश्रितस्य तृतीयो नानुज्ञात: परमेष्ठिभिरिति।।१४८।।
किंविशिष्ट एकविहारीत्यत आह–आचारवृत्ति-इस प्रकार से वह मुनि अपने दीक्षागुरु, विद्यागुरु आदि से आज्ञा लेकर पुन: क्या एकाकी जाता है ? नहीं, किंतु वह तीन को साथ लेकर या दो मुनियों या फिर एक मुनि के साथ जाता है। अर्थात् कम से कम दो मुनि मिलकर अपने गुरु के संघ से निकलते हैं। वह एकाकी नहीं जाता है ऐसा समझना।
सारांशरूप से उत्कृष्ट तो यह है कि वह मुनि अपने साथ तीन मुनियों को लेकर जावे। मध्यम मार्ग यह है कि दो मुनियों के साथ जावे और जघन्य मार्ग यह है कि एक मुनि अपने साथ लेकर जावे। अकेले जाना उचित नहीं है।
अन्य रीति से मुनि का विहार क्यों युक्त नहीं ? इसी बात को बताते हैं-
गाथार्थ-गृहीतार्थ विहार नाम का विहार एक है और अगृहीतार्थ से सहित विहार दूसरा है। इनसे अतिरिक्त तीसरा कोई भी विहार जिनेन्द्रदेव ने स्वीकार नहीं किया है।।१४८।।
आचारवृत्ति-गृहीत-जान लिया है अर्थ-जीवादि तत्त्वों को जिन्होंने उनका विहार गृहीतार्थ कहलाता है। यह पहला विहार है अर्थात् जो जीवादि पदार्थों के ज्ञाता महासाधु देशांतर में गमन करते हुए चरित्र का अनुष्ठान करते हैं उनका विहार गृहीतार्थ नाम का विहार है। अथवा गृहीतार्थ साधु एक-एकलविहारी होता है। दूसरा विहार अगृहीत अर्थ से सहित है। इनके अतिरिक्त तीसरा विहार अर्हंतदेव ने स्वीकार नहीं किया है।
भावार्थ-विहार के दो भेद हैं गृहीतार्थ और अगृहीतार्थ। तत्वज्ञानी मुनि चारित्र में दृढ़ रहते हुए जो सर्वत्र विचरण करते हैं उनका विहार प्रथम है और जो अल्पज्ञानी चारित्र का पालन करते हुए विचरण करते हैं उनका विहार द्वितीय है। इनके सिवाय अन्य तरह का विहार जिनशासन में अमान्य है।
एकलविहारी साधु कैसे होते हैं ? सो बताते हैं-
तवसुत्तसत्तएगत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य।
पविआआगमबलिओ एयविहारी अणुण्णादो।।१४९।।
तपो द्वादशविधं सूत्रं द्वादशांगचतुर्दशपूर्वरूपं कालक्षेत्रानुरूपो वाऽऽगम: प्रायश्चित्तादिग्रन्थो वा सत्त्वं–कायगतं अस्थिगतं च बलं देहात्मकं वा भावसत्वं, एकत्वं शरीरादिविविक्ते स्वात्मनि रति: भाव: शुभपरिणाम: सत्त्वकार्यं, संहननं अस्थित्वग्दृढता वङ्कार्षभनाराचादित्रयं, धृति: मनोबलं, क्षुधाद्यबाधनं चैतासां द्वंद्व: एताभिर्युक्तस्तप: सूत्रसत्त्वैकत्वभावसंहननधृतिसमग्र:।
न केवलमेवंविशिष्ट: किन्तु पवियाआगमबलिओ–प्रव्रज्यागमबलवांश्च तपसा वृद्ध:, आचारसिद्धान्तक्षुण्णश्च य: स एकविहारी अनुज्ञातोऽनुमतो जिनवरैरिति सम्बन्ध:।।१४९।।
न पुनरेवंभूत:–
सच्छंदगदागदीसयणणिसयणादाणभिक्खवोसरणे।
सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तूवि एगागी।।१५०।।
सच्छंदगदागदी–स्वैरं स्वेच्छया गत्यागती गमनागमने यस्यासौ स्वैरगतागति:। केषु स्थानेष्वित्याह – सयणं–शयनं। णिसयणं–निषदनं आसनं। आदाणं–आदानं ग्रहणं। भिक्ख–भिक्षा। वोसरणं–मूत्रपुरीषाद्युत्सर्ग:। एतेषु प्रदेशेषु शयनासनादानभिक्षाद्युत्सर्गकालेषु। सच्छंदजंपिरोचि य–स्वेच्छया जल्पनशीलश्च स्वेच्छया जल्पने रुचिर्यस्य वा एवंभूतो य: स:। मे–मम शत्रुरप्येकाकी माभूत् िंक पुनर्मुनिरिति।।१५०।।
गाथार्थ-तप, सूत्र, सत्व, एकत्वभाव, संहनन और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण दीक्षा और आगम में बली मुनि एकलविहारी स्वीकार किया गया है।।१४९।।
आचारवृत्ति-अनशन आदि द्वादश प्रकार का तप है। बारह अंग और चौदह पूर्व को सूत्र कहते हैं अथवा उस काल-क्षेत्र के अनुरूप जो आगम है वह भी सूत्र है तथा प्रायश्चित्त ग्रन्थ आदि भी सूत्र नाम से कहे गए हैं। शरीरगत बल को,अस्थि की शक्ति को अथवा भावों के बल को सत्त्व कहते हैं। शरीर आदि से भिन्न अपनी आत्मा में रति का नाम एकत्व है और शुभ परिणाम को भाव कहते हैं यह सत्त्व का कार्य है।
अस्थियों की और त्वचा की दृढ़ता बङ्कावृषभ आदि तीन संहननों में विशेष रहती है। मनोबल को धैर्य कहते हैं। क्षुधादि से व्याकुल नहीं होना धैर्यगुण है। जो इन तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्वभाव तथा उत्तम संहनन और धैर्य गुणों से परिपूर्ण हैं; इतना ही नहीं, दीक्षा से, आगम से भी बलवान हैं अर्थात् तपश्चर्या से वृद्ध हैं-अधिक तपस्वी हैं, आचार सम्बन्धी सिद्धान्त में भी अक्षुण्ण हैं-निष्णात हैं। अर्थात् आचार ग्रन्थों के अनुकूल चर्या में निपुण हैं ऐसे गुणविशिष्ट मुनि को ही जिनेन्द्रदेव ने एकलविहारी होने की अनुमति दी है।
किन्तु जो ऐसे गुणयुक्त नहीं हैं उनके लिए क्या आज्ञा है ?
गाथार्थ-गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना-इन कार्यों में जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला है और बोलने में भी स्वच्छन्द रुचि वाला है, ऐसा मेरा शत्रु भी एकलविहारी न होवे।।१५०।।
आचारवृत्ति-जिसका स्वैर वृत्ति से गमन-आगमन है। किन -किन स्थानों में ?- सोने में, बैठने में, किसी वस्तु के ग्रहण करने में, आहार ग्रहण करने में और मलमूत्रादि के विसर्जन करने में-इन प्रसंगों में जो स्वेच्छा से प्रवृत्ति करता है और बोलने में जो स्वेच्छाचारी है ऐसा मेरा शत्रु भी एकाकी न होवे फिर मुनि की तो बात ही क्या है। अर्थात् आहार, विहार, नीहार, उठना, बैठना, सोना और किसी वस्तु का उठाना या धरना इन सभी कार्यों में जो आगम के विरुद्ध मनमानी प्रवृत्ति करता है ऐसा कोई यदि
पुनरेवंभूतोऽपि विहरति तत: िंक स्यादत: प्राह–
गुरुपरिवादो सुदवुच्छेदो तित्थस्स मइलणा जडदा।
िंभभलकुसीलपासत्थदा य उस्सारकप्पम्हि।।१५१।।
गुरुपरिवादो–गुरो: परिवाद: परिभव: केनायं नि:शीलो लुञ्चित: इति लोकवचनं। सुदवुच्छेदो–श्रुतस्य व्युच्छेदो विनाश: स तथा भूतस्तं दृष्ट्वा अन्योऽपि कश्चिदपि न गुरुगृहं सेवते तत: श्रुतविनाश:। तित्थस्स–तीर्थस्य शासनस्य। मइलणा–मलिनत्वं नमोस्तूनां१ शासने एवंभूता: सर्वेऽपीति मिथ्यादृष्ट्यो वदन्ति। जडदा–मूर्खत्वं। िंभभल–विह्वल आकुल:। कुसील–कुशील:।
पासत्थ–पार्श्वस्थ एतेषां भाव: विह्वलकुशीलपार्श्वस्थता। उस्सारकप्पम्हि–उत्सारकल्पे त्याज्यकल्पे गणं त्यक्त्वा एकाकिनो विहरणे इत्यर्थ:। मुनिनैकाकिना विहरमाणेन गुरुपरिभवश्रुतव्युच्छेदतीर्थमलिनत्वजडता: कृता भवन्ति तथा विह्वलत्वकुशीलपार्श्वस्थत्वानि कृतानीति।।१५१।।
न केवलमेते दोषा किन्त्वात्मविपत्तिश्चेत्यत आह–
कंटयखण्णुयपडिणियसाणगोणादिसप्पमेच्छेिंह।
पावइ आदविवत्ती विसेण व विसूइया चेव।।१५२।।
कंटय–कण्टका:। खणुय–स्याणु:। पडिणिय–प्रत्यनीका: क्रुद्धा:। साणगोणदि–श्वगवादय:। सप्पमेच्छेिंह–सर्पम्लेच्छा:। एतेषां द्वन्द्वस्तै: कण्टकस्थाणुप्रत्यनीकश्वगवादिसर्पम्लेच्छै:। पावइ–प्राप्नोति। आदविवत्ती-भी, मेरा शत्रु ही क्यों न हो, अकेला न रहे, मुनि की तो बात ही क्या है। उन्हें तो हमेशा गुरुओं के संघ में ही रहना चाहिए और फिर भी यदि ऐसा मुनि अकेला विहार करता है तो क्या होता है ? सो बताते हैं-
गाथार्थ-स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति में गुरु की निन्दा, श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढ़ता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थता ये दोष आते हैं।।१५१।।
आचारवृत्ति-उत्सार कल्प में गण को छोड़कर एकाकी विहार करने पर उस मुनि के गुरु का तिरस्कार होता है अर्थात् इस शीलशून्य मुनि को किसने मूंड दिया है ऐसा लोग कहने लगते हैं। श्रुत की परम्परा का विच्छेद हो जाता है अर्थात् ऐसे एकाकी अनर्गल साधु को देखकर अन्य मुनि भी ऐसे हो जाते हैं, पुन: कुछ अन्य भी मुनि देखादेखी अपने गुरुगृह अर्थात् गुरु के संघ में नहीं रहते हैं तब श्रुत–शास्त्रों के अर्थ को ग्रहण न करने से श्रुत का नाश हो जाता है। तीर्थ का अर्थ शासन है।
जिनेन्द्रदेव के शासन को ‘नमोस्तु शासन’ कहते हैं अर्थात् इसी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में मुनियों को ‘नमोस्तु’ शब्द से नमस्कार किया जाता है। इस नमोस्तु शासन में–जैन शासन में सभी मुनि ऐसे ही (स्वच्छन्द) होते हैं ऐसा मिथ्यादृष्टि लोग कहने लगते हैं। तथा उस मुनि में स्वयं मूर्खता, विह्वलता, कुशीलता और पार्श्वस्थरूप दुर्गुण प्रवेश कर जाते हैं।
भावार्थ-जो मुनि आगम से विरुद्ध होकर अकेले विहार करते हैं उनके निमित्त से उनके दीक्षागुरु का अपमान, श्रुत की परम्परा का विच्छेद, जैन शासन की निन्दा ये दोष होते हैं तथा उस मुनि के अन्दर मूर्खता आदि दोष आ जाते हैं। केवल इतने ही दोष नहीं होते हैं, मुनि के आत्मविपत्तियाँ भी आ जाती हैं, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-काँटे, ठूँठ, विरोधीजन, कुत्ता, गौ आदि तथा सर्प और म्लेच्छ जनों से अथवा विष से और अजीर्ण आदि रोगों से अपने आप में विपत्ति को प्राप्त कर लेता है।।१५२।।
आचारवृत्ति-निश्चय से एकाकी विहार करता हुआ मुनि काँटे से, ठूँठ से, मिथ्यादृष्टि, क्रोधी या विरोधी जनों से, कुत्ते-गौ आदि पशुओं से या साँप आदि हिंसक प्राणि से अथवा म्लेच्छ अर्थात् नीच अज्ञानी आत्मविपत्तिं स्वविनाशं। विसेण व–विषेण च मारणात्मकेन द्रव्येण। विसूइया चेव–विसूचिकया वाजीर्णेन। एवकारो निश्चयार्थ:। निश्चयेनैकाकी विहरन् कण्टकादिभिर्विषेण विसूचिकया वात्मविपत्तिं प्राप्नोति।।१५२।।
विहरंस्तावत्तिष्ठतु तिष्ठन् कश्चित् पुनर्निर्धर्मो गुरुकुलेऽपि द्वितीयं नेच्छतीत्याह–
गारविओ गिद्धीओ माइल्लो अलसलुद्धणिद्धम्मो।
गच्छेवि संवसंतो णेच्छइ संघाडयं मंदो।।१५३।।
गारविओ–गौरवसमन्वित: ऋद्धिरससातप्राप्त्या अन्यानधिक्षिपति। गिद्धीओ–गृद्धिक आकांक्षितभोग: ग्रहिको वा। माइल्लो–मायावी कुटिलभाव:। अलस–आलस्ययुक्त: उद्योगरहित:। लुद्धो–लुब्ध: अत्यागशील:। णिद्धम्मो–निर्धर्म: पापबुद्धि:। गच्छेवि–गुरुकुलेऽपि ऋषिसमुदायमध्येऽपि त्रैपुरुषिको गण:, साप्तपुरुषिको गच्छ:।
संवसंतो–संवसन् तिष्ठन्। णेच्छइ–नेच्छति नाभ्युपगच्छति। संघाडयं–संघाटकं द्वितीयं। मंदो–मंद: शिथिल:। कश्चिन्निर्धर्मोऽलसो लुब्धो मायावी गौरविक: कांक्षावान् गच्छेऽपि संवसन् द्वितीयं नेच्छति शिथिलत्वयोगादिति।।१५३।।
किमेतान्येव पापस्थानानि एकाकिनो विहरतो भवन्तीत्युतान्यान्यपीत्यत आह–
आणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणासो य।
संजमविराहणाविय एदे दुणिकाइया ठाणा।।१५४।।
जनों के द्वारा स्वयं को कष्ट में डाल लेता है। अथवा विषैले आहार आदि से या हैजा आदि रोगों से आत्म विपत्ति को प्राप्त कर लेता है। इसलिए अकेले विहार करना उचित नहीं है। यहाँ ‘एव’ शब्द निश्चय अर्थ का वाची है अतः अकेले विहार करने वाला मुनि निश्चित ही इन कंटक, विष आदि निमित्तों से अपनी हानि कर लेता है।
एकाकी विहार करने वाले की बात तो दूर ही रहने दीजिए, कोई धर्मशून्य मुनि गुरु के संघ में भी दूसरे मुनिजन को नहीं चाहता है-
गाथार्थ-जो गौरव से सहित है, आहार में लम्पट है, मायाचारी है, आलसी है, लोभी है और धर्म से रहित है ऐसा शिथिल मुनि संघ में रहते हुए भी साधु समूह को नहीं चाहता है।।१५३।।
आचारवृत्ति-जो ऋद्धि, रस और साता को प्राप्त करके उनके गौरव से सहित होता हुआ अन्य मुनियों की अवहेलना करता है, जो भोगों की आकांक्षा करने वाला है अथवा हठग्राह है, कुटिल स्वभावी है, आलसी होने से उद्योगपुरुषार्थ रहित है, लोभी है, पापबुद्धि है और मन्द शिथिलाचारी है
ऐसा मुनि गुरुकुल–ऋषियों के समुदाय के मध्य रहता हुआ भी द्वितीय मुनि का संसर्ग नहीं चाहता है अर्थात् अकेला ही उठना, बैठना, बोलना आदि चाहता है अन्य मुनि के निकट बैठना, उठना पसन्द नहीं करता है। यहां पर मूल में ‘गच्छ’ शब्द है। तदनुसार तीन पुरुषों के समूह को गण और सात पुरुषों के समूह को गच्छ कहते हैं।
भावार्थ-शिष्य, पुस्तक, पिच्छिका, कमण्डलु इत्यादि पदार्थ मेरे समान अन्य मुनियों के सुन्दर नहीं हैं ऐसा गर्व करना तथा दूसरों का तिरस्कार करना ऋद्धिगौरव है। भोजनपान के पदार्थ अच्छे स्वादयुक्त मिलते हैं ऐसा गर्व करना यह रसगौरव है। मैं बड़ा सुखी हूँ इत्यादि गर्व करना सातगौरव है। ऐसा गौरव करनेवाला मुनि उपर्युक्त अन्य भी अवगुणों से सहित हो, संघ में रहकर भी यदि एकाकी बैठना, उठना पसंद करता हुआ स्वच्छन्द रहता है तो वह भी दोषी है।
एकाकी विहार करने वाले मुनि के क्या इतने ही पापस्थान होते हैं अथवा अन्य भी होते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-एकाकी रहने वाले के आज्ञा का उल्लंघन, अनवस्था, मिथ्यात्व का सेवन, आत्मनाश और आणा–आज्ञा कोप: सर्वज्ञशासनोल्लंघनं। नन्वाज्ञाग्रहणात्कथमाज्ञाभंगस्य ग्रहणं, एकदेशग्रहणात् यथा भामाग्रहणात् सत्यभामाया ग्रहणं सेनग्रहणाद्वा भीमसेनस्य। अथवोत्तरत्राज्ञाकोपादिग्रहणाद्वा।
यद्यत्राज्ञाया एव ग्रहणं स्यादुत्तरत्र कथमाज्ञाकोपादिका: पंचापि दोषा: कृतास्तेनेत्याचार्यो भणति तस्मात्प्राकृतलक्षणबलात् कोपशब्दस्य निवृत्तिं कृत्वा निर्देश: कृत:।
अणवत्था–अनवस्था अतिप्रसंग:, अन्येऽपि तेनैवप्रकारेण प्रवर्तेरन्। अवि य–अपि च। मिच्छत्ताराहणा–मिथ्यात्वस्याराधना सेवा। आदणासो य–आत्मनो नाशश्चात्मीयानां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां विघात:, आत्मीयस्य कार्यस्य वा। संयमविराहणाविय–संयमस्य विराधनापि च, इन्द्रियप्रसरोऽविरतिश्च।
एदेदु–एतानि तु। णिकाइया–निकाचितानि पापागमनकारणानि निश्चितानि पुष्टानि वा। ठाणाणि–स्थानानि। अपि च शब्दादन्यान्यपि कृतानि भवन्ति इत्यध्याहार:। एकाकिनो विहरत एतानि पंचस्थानानि भवन्त्येवान्यानि पुनर्भाज्यानीति। संयम की विराधना ये पाँच पापस्थान माने गए हैं।।१५४।।
आचारवृत्ति-अकेले विहरण करने वाले मुनि के सर्वज्ञदेव की आज्ञा का उलंघन होना यह एक दोष होता है।
प्रश्न-गाथा में मात्र ‘आज्ञा’ शब्द है। इतने मात्र से ‘आज्ञा का भंग होना’ ऐसा अर्थ आप टीकाकार कैसे करते हैं ?
उत्तर-एक देश ग्रहण से भी पूर्ण पद के अर्थ का ज्ञान होता है जैसे कि ‘भामा’ के कहने से सत्यभामा का ग्रहण हो जाता है और ‘सेन’ शब्द के ग्रहण से भीमसेन का ग्रहण होता है। अथवा आगे १७९ वीं गाथा में ‘आज्ञाकोपादयः पंचापि दोषा: कृतास्तेन’ ऐसा पाठ है। वहाँ पर आज्ञाकोप शब्द लिया है। यदि यहाँ पर आज्ञा का ही ग्रहण किया जावे तो आगे आज्ञाकोप आदि पांचों भी दोष उसने किये हैं, ऐसा कैसे कहते ? इसलिए यहाँ पर प्राकृत व्याकरण के नियम से ‘कोप’ शब्द का लोप करके निर्देश किया है ऐसा जानना।
अनवस्था का अर्थ अतिप्रसंग है अर्थात् अन्य मुनि भी उसे एकाकी देखकर वैसी ही प्रवृत्ति करने लग जावेंगे यह अनवस्था दोष आयेगा तब कहीं कुछ व्यवस्था नहीं बन सकेगी। तथा मिथ्यात्व का सेवन होना यह तृतीय दोष आवेगा। आत्मनाश अर्थात् अपने सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चरित्र का विघात हो जावेगा।
अथवा अपने निजी कार्यों का भी विनाश हो जावेगा। संयम की विराधना भी हो जावेगी अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह न होकर उनकी विषयों में प्रवृत्ति तथा अविरत परिणाम भी हो जावेंगे। ये पाँच निकाचित स्थान अर्थात् पाप के आने के कारणभूत स्थान निश्चितरूप या पुष्ट हो जावेंगे। अपि शब्द से ऐसा समझना कि अन्य भी पापस्थान उस मुनि के द्वारा किये जा सकेंगे अर्थात् जो एकलविहारी बनेंगे उनके ये पाँच दोष तो होंगे ही होंगे, अन्य भी दोष हो सकते हैं वे वैकल्पिक हैं।
भावार्थ-जो मुनि स्वच्छन्द होकर एकाकी विचरण करते हैं सबसे पहले तो वे जिनेन्द्र देव की आज्ञा का उलंघन करना यह एक पाप करते हैं। उनकी देखा-देखी अन्य मुनि भी एकाकी विचरण करने लगते हैं। और तब ऐसी परम्परा चलने लग जाती है–यह दूसरा अनवस्था नामक दोष है। लोगों के संसर्ग से अपना सम्यक्त्व छूट जाता है और मिथ्यात्व के संसर्ग से मिथ्यात्व के संस्कार बन जाते हैं–
यह तीसरा दोष है। उस मुनि के अपने निजी गुण सम्यग्दर्शन आदि हैं जिन्हें बड़ी मुश्किल से प्राप्त किया है, उनकी हानि हो जाती है–यह चौथा पाप होता है और असंयमी निरर्गल जीवन हो जाने से संयम की विराधना भी हो जाती है। ये पाँच निकाचित अर्थात् निश्चितरूप से मजबूत पापस्थान तो होते ही होते हैं, अन्य भी दोष संभव हैं। इसलिए एवंभूतस्य तस्य सश्रुतस्य ससहायस्य विहरत: कथंभूते गुरुकुले वासो न कल्पते इत्याह–
तत्थ ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णत्थि पंच आधारा।
आइरियउवज्भâाया पवत्तथेरा गणधरा य।।१५५।।
तत्थ–तत्र गुरुकुले। ण कप्पइ–न कल्पते न युज्यते। वासो–वसनं वास: स्थानं। जत्थ–यत्र यस्मिन् गुरुकुले। णत्थि–न संति न विद्यन्ते। इमे–एते। पंच आधारा–आधारभूता: अनुग्रहकुशला:। के तेऽत आह–आयरिय–आचार्य:। उवज्झाय–उपाध्याय:, आचर्यतेऽस्मादाचार्य:, उपेत्यास्मादधीयते उपाध्याय:।
पवत्त–प्रवर्तक:, संघं प्रवर्तयतीति प्रवर्तक:। थविर–स्थविर यस्मात् स्थिराणि आचरणानि भवन्तीति स्थविर:। गणधरा य–गणधराश्च गणं धरतीति गणधर:। यत्र इमे पंचाधारा आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणधरा न सन्ति तत्र न कल्पते वास इति।।१५५।।
अथ िंक लक्षणास्तेऽत आह–
सिस्साणुग्गहकुसलो धम्मुवदेसो य संघवट्टवओ।
मज्जादुवदेसोवि य गणपरिरक्खो मुणेयव्वो।।१५६।।
एतेषामाचार्यादीनामेतानि यथासंख्येन लक्षणानि। सिस्साणुग्गहकुसलो–शिष्यस्य शासितुं योग्यस्थानुग्रह उपादानं तस्मिंस्तस्य वा कुशलो दक्ष: शिष्यानुग्रहकुशलो दीक्षादिभिरनुग्राहक: परस्यात्मनश्च। धम्मुवदेसो य–धर्मस्य दशप्रकारस्योपदेशक: कथक: धर्मोपदेशक:। संघवट्टवओ–संघप्रवर्तकश्चार्यादिभिरुपकारक:। मज्जादुवदेसोविय–जिनकल्पी–उत्तम संहनन आदि गुणों से युक्त मुनि के सिवाय सामान्य–अल्पशक्तिवाले मुनियों को एकलविहारी होने के लिए जिनेन्द्रदेव की आज्ञा नहीं है ‘।
इस प्रकार के श्रुत सहित और सहाय सहित जो साधु विहार करता है उसे किस प्रकार के गुरुकुल में निवास करना ठीक नहीं है ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच आधार नहीं हैं वहां पर रहना उचित नहीं है।।१५५।।
आचारवृत्ति-जिनसे आचरण ग्रहण किया जाता है उन्हें आचार्य कहते हैं। पास में आकर जिनसे अध्ययन किया जाता है वे उपाध्याय हैं। जो संघ का प्रवर्तन करते हैं वे प्रवर्तक कहलाते हैं। जिनसे आचरण स्थिर होते हैं वे स्थविर कहलाते हैं और जो गण–संघ को धारण करते हैं ये गणधर कहलाते हैं। जिस गुरुकुल में ये पाँच आधारभूत–अनुग्रह करने में कुशल नहीं हैं उस गुरुकुल–संघ में उपर्युक्त मुनि का रहना उचित नहीं है।
इनके लक्षण क्या क्या हैं ? सो हो बताते हैं-
गाथार्थ-शिष्यों पर अनुग्रह करने में कुशल को आचार्य,धर्म के उपदेशक को उपाध्याय, संघ की प्रवृत्ति करने वाले को प्रवर्तक, मर्यादा के उपदेशक को स्थविर और गण के रक्षक को गणधर जानना चाहिए।।१५६।।
आचारवृत्ति-इन आचार्य आदिकों के ये उपर्युक्त लक्षण क्रम से कहे गये हैं। ‘शासितुं योग्य: शिष्यः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अनुशासन के योग्य हैं, वे शिष्य कहलाते हैं। उनके अनुग्रह में अर्थात् उनको ग्रहण करने में जो कुशल होते हैं, दीक्षा आदि के द्वारा पर के ऊपर और स्वयं पर अनुग्रह करनेवाले हैं वे आचार्य कहलाते हैं। दश प्रकार के धर्म को कहने वाले उपाध्याय कहलाते हैं। चर्या आदि के द्वारा संघ का प्रवर्तन करनेवाले प्रवर्तक होते हैं। मर्यादा का उपदेश देनेवाले अर्थात् व्यवस्था बनाने वाले स्थविर कहलाते हैं
मर्यादाया: स्थितेरुपदेशको मर्यादोपदेशक:। गणपरिरक्खो–गणस्य परिरक्षक: पालकोगणपरिरक्षकश्च। मुणेयव्वो–मन्तव्यो ज्ञातव्य:। मन्तव्यशब्द: सर्वत्र संबंधनीय:। यत्र चैते पंचाधारा: सन्ति तत्र वास: कर्तव्य इति शेष:।।१५६।।
अथ तेन गच्छता यद्यन्तराले िंकचिल्लब्धं पुस्तकादिकं तस्य कोऽर्ह इत्याह–
जंतेणंतरलद्धं सच्चित्ताचित्तमिस्सयं दव्वं।
तस्स य सो आइरिओ अरिहदि एवंगुणो सोवि।।१५७।।
जंतेण–यत्तेन१। अंतरलद्धं–अन्तराले लब्धं प्राप्तं। सचित्ताचित्तमिस्सयं दव्वं–सचित्ताचित्तमिश्रकं द्रव्यं सचित्तं छात्रादिकं, अचित्तं पुस्तकादिकं, मिश्रं पुस्तकादिसमन्वितं जीवद्रव्यं। तस्स य–तस्य च। सो आयरिओ–स आचार्य:। अरिहदि–अर्ह:। अथवा तद्द्रव्यं आचार्योऽर्हति। सचित्ताचित्तमिश्रकं द्रव्यं यत्तेनान्तराले लब्धं तस्य स आचार्योऽर्होऽर्हति वा तद्द्रव्यमिति वा आचार्योऽपि कथं विशिष्ट: एवंगुणो सोवि–एवंगुण: सोऽपि।।१५७।।
कथंगुणोत आह–
संगहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारओ पहियकित्ती।
किरिआचरणसुजुत्तो गाहुय आदेज्जवयणो य।।१५८।।
संगहणुग्गहकुसलो–संग्रहणं संग्रह:, अनुग्रहणमनुग्रह:, कोऽनयोर्भेदो दीक्षादिदानेनात्मीयकरणं संग्रह: दत्तदीक्षस्य शास्त्रादिभि: संस्करणमनुग्रहस्तयो: कर्तव्ये ताभ्यां वा कुशलो निपुण:। सुत्तत्थविसारओ–सूत्रं चार्थश्च सूत्रार्थौ तयोस्ताभ्यां वा विशारदोऽवबोधको विस्तारको वा सूत्रार्थविशारद:। पहिदकित्ती–प्रख्यातकीर्ति:। किरियाचरण-सुजुत्तो–क्रिया त्रयोदशप्रकारा पंचनमस्कारावश्यकासिकानिषेधिकाभेदात्।
आचरणमपि–त्रयोदशविधं पंचमहाव्रतपंच-और गण के पालन करने वाले को गणधर कहते हैं, ऐसा जानना चाहिए। जिस संघ में ये पाँच आधार रहते हैं उसी संघ में निवास करना चाहिए।
विहार करते हुए मार्ग के मध्य जो कुछ भी पुस्तक या शिष्य आदि मिलते हैं उनको ग्रहण करने के लिए कौन योग्य हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर बताते हैं-
गाथार्थ-उस मुनि ने सचित्त, अचित्त अथवा मिश्र ऐसा द्रव्य जो कुछ भी मार्ग के मध्य प्राप्त किया है उसके ग्रहण करने के लिए वह आचार्य योग्य होता है। वह आचार्य भी आगे कहे हुए गुणों से विशिष्ट होना चाहिए।।१५७।।
आचारवृत्ति-उस मुनि के विहार करते हुए मार्ग के गाँवों में जो कुछ भी द्रव्य सचित्त-छात्र आदि, अचित्त-पुस्तक आदि और मिश्र-पुस्तक आदि से सहित शिष्य आदि मिलते हैं उन सब द्रव्य का स्वामी वह आचार्य होता है। आचार्य भी कैसे होना चाहिए ? वह आचार्य भी आगे कहे जाने वाले गुणों से समन्वित होना चाहिए।
वह आचार्य किन गुणों से युक्त होना चाहिए ? सो ही कहते हैं-
गाथार्थ-वह आचार्य संग्रह और अनुग्रह में कुशल, सूत्र के अर्थ में विशारद, कीर्ति से प्रसिद्धि को प्राप्त, क्रिया और चरित्र में तत्पर और ग्रहण करने योग्य तथा उपादेय वचन बोलने वाला होता है।।१५८।।
आचारवृत्ति-संग्रह और अनुग्रह में क्या अन्तर है ? दीक्षा आदि देकर अपना बनाना संग्रह है और जिन्हें दीक्षा आदि दे चुके हैं ऐसे शिष्यों का शास्त्रादि के द्वारा संस्कार करना अनुग्रह है अर्थात् दीक्षा आदि देकर शिष्यों को संघ में एकत्रित करना संग्रह है और पुनः उन्हें पढ़ा लिखाकर योग्य बनाना अनुग्रह है। इन समितित्रिगुप्तिविकल्पात्। तयोस्ताभ्यां वा सुयुक्त: आसक्त: क्रियाचरणसुयुक्त:। गाहुयं–ग्राह्यं। आदेज्जं–आदेयं। ग्राह्यं वचनं यस्यासौ ग्राह्यादेयवचन:। उक्तमात्रस्य ग्रहणं ग्राह्यं एवमेवैतदित्यनेन भावेन ग्रहणं, आदेयं प्रमाणीभूतम्।।१५८।।
पुनरपि–
गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पहावणासीलो।
खिदिससिसायरसरसो कमेण तं सो दु संपत्तो।।१५९।।
गंभीरो–अक्षोभ्यो गुणैरगाध:। दुद्धरिसो–दु:खेन धृष्यत इति दुर्धर्ष: प्रवादिभिरकृतपरिभव:। सूरो–शूर: शौर्योपेत: समर्थ:। धम्मप्पहावणासीलो–धर्मश्च प्रभावना च धर्मस्य वा प्रभावना तयोस्ताभ्यां वा शीलं तात्पर्येण वृत्तिर्यस्यासौ धर्मप्रभावनाशील:। खिदि–क्षिति: पृथिवी, ससि–शशी चन्द्रमा:, सायर–सागर: समुद्र:। क्षमया क्षिति: सौम्येन शशी निर्मलत्वेन सागरोऽतस्तै:। सरिसो–सदृश: सम: क्षितिशशिसागरसदृश:। एवंगुणविशिष्टो य आचार्यस्तमाचार्यम्। कमेण–क्रमेण न्यायेनागमोक्तेन। सो दु–स तु शिष्य:। संपत्तो–संप्राप्त: प्राप्तवानिति।।१५९।।
तस्यागतस्याचार्यादय: िंक कुर्वन्तीत्याह–
आएसं एज्जंतं सहसा दट्ठूण संजदा सव्वे।
वच्छल्लाणासंगहपणमणहेदुं समुट्ठंति।।१६०।।
संग्रह और अनुग्रह के कार्य में जो कुशल हैं, निपुण हैं वे ‘संग्रहानुग्रहकुशल’ कहलाते हैं। जो सूत्र और अर्थ में विशारद हैं, उनको समझाने वाले हैं अथवा उन सूत्र और अर्थ का विस्तार से प्रतिपादन करने वाले हैं वे ‘सूत्रार्थविशारद’ कहलाते हैं। जिनकी कीर्ति सर्वत्र फैल रही है, जो पाँच नमस्कार, छह आवश्यक, आसिका और निषेधिका–इन तेरह प्रकार की क्रियाओं में तथा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र में सम्यक् प्रकार से लगे हुए हैं,
आसक्त हैं तथा जिनके वचन ग्राह्य और आदेय हैं, अर्थात् उक्त-कथित मात्र को ग्रहण करना ग्राह्य है जैसे कि गुरु ने कुछ कहा तो ‘यह ऐसा ही है’ इस प्रकार के भाव से उन वचनों को ग्रहण करना ग्राह्य है और आदेय प्रमाणीभूत वचन को आदेय कहते हैं। जिनके वचन ग्राह्य और आदेय हैं ऐसे उपर्युक्त सभी गुणों से समन्वित ही आचार्य होते हैं।
पुनरपि उनमें क्या क्या गुण होते हैं-
गाथार्थ-जो गंभीर हैं, दुर्धर्ष हैं, शूर हैं और धर्म की प्रभावना करने वाले हैं, भूमि, चन्द्र और समुद्र के गुणों के सदृश है इन गुण विशिष्ट आचार्य को वह मुनि क्रम से प्राप्त करता है।।१५९।।
आचारवृत्ति-जो क्षुभित नहीं होने से अक्षोभ्य हैं और गुणों से अगाध हैं वे गंभीर कहलाते हैं। जिनका प्रवादियों के द्वारा परिभव–तिरस्कार नहीं किया जा सकता है वे दुर्धर्ष कहलाते हैं। शौर्य गुण से सहित अर्थात् समर्थ को शूर कहते हैं।
जो गम्भीर हैं, प्रवादियों से अजेय हैं, समर्थ हैं और धर्म की प्रभावना करने का ही जिनका स्वभाव है, जो क्षमागुण में पृथ्वी के सदृश हैं, सौम्य गुण से चंद्रमा के सदृश और निर्मलता गुण से समुद्र के समान हैं–इन गुण विशिष्ट आचार्य को वह मुनि आगम में कथित प्रकार से प्राप्त करता है। अर्थात् उपर्युक्त गुणसमन्वित के पास वह मुनि पहुँच जाता है। इस आगत मुनि के लिए आचार्य आदि क्या करते हैं ? सो कहते हैं-
गाथार्थ-प्रयास से आते हुए मुनि को देखकर सभी साधु वात्सल्य, जिन आज्ञा, उसका संग्रह और उसे प्रणाम करने के लिए तत्काल ही उठकर खड़े हो जाते हैं।।१६०।।
आएसं–आगतं पादोष्णं प्राघूर्णकं १आयस्यायासं कृत्वा वा। एजंतं–आगच्छन्तं। सहसा–तत्क्षणादेव। दट्ठूण–दृष्ट्वा। संजदा–संयता:। सव्वे–सर्वेऽपि। समुट्ठन्ति–समुत्तिष्ठंते ऊर्ध्वज्ञवो भवन्ति। िंकहेतोरित्याह–वच्छल्ल–वात्सल्यनिमित्तं। आणा–सर्वज्ञाज्ञापालनकारणं। संगह–संग्रह२ आत्मीयकरणार्थं। पणमणहेदुं–प्रणमनहेतोश्च।।१६०।।
पुनरपि–
पच्चुग्गमणं किच्चा सत्तपदं अण्णमण्णपणमं च।
पाहुणकरणीयकदे तिरयणसंपुच्छणं कुज्जा।।१६१।।
पच्चुग्गमणं किच्चा–प्रत्युद्गमनं कृत्वा। सत्तपदं–सप्तपदं यथा भवति। अण्णमण्णपणमं च–अन्योऽन्यप्रणामं च परस्परवन्दनाप्रतिवन्दने च। तत: पाहुणकरणीयकदे–पादोष्णस्य यत्कर्तव्यं तस्मिन् कृते प्रतिपादिते सति पश्चात्। तिरयणसंपुच्छणं–त्रिरत्नसंप्रश्नं सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रसंप्रश्नं। कुज्जा–कुर्यात्करोतु।।१६१।।
पुनरपि तस्यागतस्य िंक क्रियत इत्याह–
आएसस्स तिरत्तं णियमा संघाडओ दु दायव्वो।
किरियासंथारादिसु सहवासपरिक्खणाहेऊं।।१६२।।
आएसस्स–आगतस्य पादोष्णस्य। तिरत्तं–त्रिरात्रं त्रयो दिवसा:। णियमा–नियमान्निश्चयेन। संघाडओ–संघाटक: सहाय:। त्वेवकारार्थे। दायव्वो–दातव्य:। केषु प्रदेशेष्वत आह–किरिया–क्रिया: स्वाध्यायवन्दनाप्रतिक्रमणादिका:। संथार–संस्तारं शयनीयप्रदेशस्तावादिर्येषां ते क्रियासंस्तारादयस्तेषु षडावश्यकक्रियास्वाध्यायसंस्तरभिक्षामूत्रपुरीषोत्सर्गादिषु३। िंकनिमित्तमत आह–सहवास–सहवसनं सहवासस्तेन
आचारवृत्ति-आयासपूर्वक–पर संघ से प्रयास कर आते हुए आगन्तुक मुनि को देखकर संघ के सभी मुनि उठकर खड़े हो जाते हैं। किसलिए ? मुनि के प्रति वात्सल्य के लिए, सर्वज्ञदेव की आज्ञा पालन करने के लिए, आगंतुक साधु को अपनाने के लिए और उनको प्रणाम करने के लिए वे संयत तत्क्षण खड़े हो जाते हैं।
पुनरपि वास्तव्य साधु क्या करें ?-
गाथार्थ-वे मुनि सात कदम आगे जाकर परस्पर में प्रणाम करके आगन्तुक के प्रति करने योग्य कर्तव्य के लिए उनसे रत्नत्रय की कुशलता पूछें।।१६१।।
आचारवृत्ति-उठकर खड़े होकर ये संयत सात कदम आगे बढ़कर आपस में वन्दना-प्रतिवन्दना करें। पुन: आये हुए अतिथि के प्रति जो कर्तव्य है उसको करने के अनन्तर उनसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र- रूप रत्नत्रय का कुशल प्रश्न करें।
पुनरपि उन आगत मुनि के लिए क्या करते हैं ? सो बताते हैं-
गाथार्थ-क्रियाओं में और संस्तर आदि में सहवास तथा परीक्षा के लिए आगन्तुक को तीन रात्रि तक नियम से सहाय देना चाहिए।।१६२।।
आचारवृत्ति-स्वाध्याय, वन्दना, प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ हैं और शयनीय प्रदेश में भूमि, शिला, पाटे या तृण को बिछाना सो संस्तर है तथा आदि शब्द से आहार ग्रहण, मल-मूत्र विसर्जन आदि में, छह आवश्यक क्रियाओं में, स्वाध्याय करने के समय में उनके साथ एक स्थान में रहकर उन सभी में परीक्षा करने के लिए अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि की परीक्षा के लिए आगन्तुक मुनियों को नियम से तीन सार्द्धमेकस्मिन् स्थाने सम्यग्दर्शनादिषु सहाचरणं तस्य परिक्खणाहेऊं–परीक्षणं परीक्षा वा तदेव हेतु: कारणं सहवासपरीक्षणहेतुस्तस्मात्तेन सहाचरणं करिष्याम इति हेतो:। आगतस्य नियमात्त्रिरात्रं संघाटको दातव्य: क्रियासंस्तरादिषु सहवासपरीक्षणनिमित्तमिति।।१६२।।
िंक तैरेव परीक्षा कर्तव्या नेत्याह–
आगंतुयवत्थव्वा पडिलेहािंह तु अण्णमण्णािंह।
अण्णोण्णकरणचरणं जाणणहेदुं परिक्खंति।।१६३।।
आगंतुयवत्थव्वा–आगन्तुकाश्च वास्तव्याश्चागन्तुकवास्तव्या:। पडिलेहाहिं–अन्याभिरन्याभि: क्रियाभि: प्रतिलेखनेन१ भोजनेन स्वाध्यायेन प्रतिक्रमणादिभिश्च। अण्णमण्णािंह–परस्परं। अण्णोण्णं–त्रयोदशक्रियाचारित्रं। अथवान्योऽन्यस्य करणचरणं–तयोर्ज्ञानं तदर्थं अन्योन्यकरणचरणज्ञानहेतो:। परिक्खंति–परीक्षन्ते गवेषयन्ति। परस्परं त्रयोदशविधकरणचरणं आगन्तुकवास्तव्या: परीक्षन्ते काभि: कृत्वा? परस्परं दर्शनप्रतिदर्शनक्रियाभि: िंकहेतोरव-बोधार्थमिति।।१६३।।
केषु प्रदेशेषु परीक्षन्ते तत आह–
आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे।
सज्झाएगविहारे भिक्खग्गहणे परिच्छंति।।१६४।।
आवासयठाणादिसु–आवश्यकस्थानादिषु षडावश्यकक्रियाकायोत्सर्गादिषु आदिशब्दाद्यद्यपि शेषस्य संग्रह: तथापि स्पष्टार्थमुच्यते। पडिलेहणं–प्रतिलेखनं चक्षुिंरद्रियपिच्छिकादिभिस्तात्पर्यं। वयणं–वचनं। गहणं–ग्रहणं। रात्रिपर्यन्त स्थान देना ही चाहिए।
ऐसा क्यों करते हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-आगन्तुक और वास्तव्य मुनि अन्य-अन्य क्रियाओं के द्वारा और प्रतिलेखन के द्वारा परस्पर में एक-दूसरे की क्रिया और चारित्र को जानने के लिए परीक्षा करते हैं।।१६३।।
आचारवृत्ति-अतिथि मुनि और संघ में रहनेवाले मुनि आपस में एक-दूसरे की त्रयोदशविध क्रियाओं को और त्रयोदशविध चारित्र को जानने के लिए पिच्छिका से प्रतिलेखन क्रिया में, आहार में, स्वाध्याय और प्रतिक्रमण आदि में एक-दूसरे की परीक्षा करते हैं। अर्थात् अतिथि मुनि संघस्थ मुनियों की क्रियाओं को देखकर उनके द्वारा उनकी क्रिया और चारित्र का ज्ञान करते हैं और संघस्थ मुनि आगन्तुक की सभी क्रियाओं को देखते हुए उनके चारित्र आदि की जानकारी लेते हैं।
किन-किन स्थानों में परीक्षा करते हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-आवश्यक क्रिया के स्थान आदि में, प्रतिलेखन करने, बोलने और उठाने-धरने में, स्वाध्याय में, एकाकी गमन में और आहारग्रहण में परीक्षा करते हैं।।१६४।।
आचारवृत्ति-छह आवश्यक क्रिया आदि के कायोत्सर्ग आदि प्रसंगों में, किसी वस्तु को चक्षु इन्द्रिय से देखकर पुन: पिच्छिका से परिमार्जन कर ग्रहण करते हैं या नहीं ऐसी प्रतिलेखन क्रिया में, वचन बोलने में और किसी वस्तु के प्रतिलेखनपूर्वक धरने या उठाने में, स्वाध्याय क्रिया में, एकाकी गमन-आगमन करने में और चर्या के मार्ग में, ये साधु आपस में एक-दूसरे की परीक्षा करते हैं। अर्थात् इनकी क्रियाएँ आगमोक्त हैं या नहीं ऐसा देखते हैं।णिक्खेवो–निक्षेप एतेषां द्वन्द्व: प्रतिलेखनवचनग्रहणनिक्षेपेषु। सज्झाये–स्वाध्याये। एगविहारे–एकाकिनो गमनागमने। भिक्खग्गहणे–भिक्षाग्रहणे चर्यामार्गे। परिच्छंति–परीक्षन्तेऽन्वेषयन्ति।।१६४।।
परीक्ष्यागन्तुको यत्करोति तदर्थमाह–
विस्समिदो तद्दिवसं मीमंसित्ता णिवेदयदि गणिणे।
विणएणागमकज्जं बिदिए तदिए व दिवसम्मि।।१६५।।
विस्समिदो–विश्रान्त: सन् विश्रम्य पथश्रमं त्यक्त्वा। तद्दिवसं–तस्मिन्वा दिने तद्दिवसं विश्रम्य गमयित्वा। मीमंसित्ता–मीमांसित्वा परीक्ष्य तच्छुद्धाचरणं ज्ञात्वा। णिवेदयइ–निवेदयति प्रतिबोधयति। गणिणे–गणिने आचार्याय। विणएण–विनयेन। आगमकज्जं–आगमनकार्यं स्वकीयागमनप्रयोजनं। विदिए–द्वितीये। तदिए–तृतीये। दिवसम्मि–दिवसे। तं दिवसं विश्रम्य द्वितीये वा दिवसे विनयेनोपढौक्याचरणं च परीक्ष्याचार्यायागमनकार्यं निवेदयत्यागन्तुक:। अथवाचार्यस्य गृह्यास्तं१ परीक्ष्य निवेदयन्ति गणिने इति।।१६५।।
एवं २निवेदयते यदाचार्य: करोति तदर्थमाह–
आगंतुकणामकुलं गुरुदिक्खामाणवरिसवासं च।
आगमणदिसासिक्खापडिकमणादी य गुरुपुच्छा।।१६६।।
आगन्तुक णामकुलं–आगन्तुकस्य पादोष्णस्य, नाम–संज्ञा, कुलं–गुरुसंतान:, गुरु:–प्रव्रज्यायादाता। दिक्खामाणं–दीक्षाया मानं परिमाणं। वरिसवासं च–वर्षस्य वास: वर्षवासश्च वर्षकालकरणं च, आगमणदिसा–आगमनस्य दिशा कस्या दिश आगत:। सिक्खा–शिक्षा श्रुतपरिज्ञानं। पडिक्कमणादीय–प्रतिक्रमण आदिर्येषां ते प्रतिक्रमणादय:। गुरुपुच्छा–गुरो: पृच्छा गुरुपृच्छा। एवं गुरुणा तस्यागतस्य पृच्छा क्रियते िंक तव नाम ? कुलं च ते परीक्षा करके आगन्तुक मुनि जो कुछ करता है उसे बताते हैं-
गाथार्थ-आगन्तुक मुनि उस दिन विश्रांति लेकर और परीक्षा करके विनयपूर्वक अपने आने के कार्य को दूसरे या तीसरे दिन आचार्य के पास निवेदित करता है।।१६५।।
आचारवृत्ति-जिस दिन आए हैं उस दिन मार्ग के श्रम को दूर करके विश्रांति में बिताकर पुन: आपस में परीक्षा करके आगन्तुक मुनि इस संघ के आचार्यादि के आचरण को शुद्ध जानकर, दूसरे दिन या तीसरे दिन आचार्य के निकट आकर विनयपूर्वक अपने विद्याअध्ययन हेतु आगमन के कार्य को आचार्य के पास निवेदन करते हैं। अथवा संघस्थ आचार्य के शिष्य मुनिवर्ग उस आगन्तुक की परीक्षा करके ‘यह ग्रहण करने योग्य हैं’
ऐसा आचार्य के समीप निवेदन करते हैं।
ऐसा निवेदन करने पर आचार्य जो कुछ करते हैं उसे कहते हैं-
गाथार्थ-आगन्तुक का नाम, कुल, गुरु, दीक्षा के दिन, वर्षावास, आने की दिशा, शिक्षा, प्रतिक्रमण आदि के विषय में गुरु प्रश्न करते हैं।।१६६।।
आचारवृत्ति-गुरु आगन्तुक मुनि से प्रश्न करते हैं। क्या-क्या प्रश्न करते हैं सो बताते हैं। तुम्हारा नाम क्या है ? तुम्हारा कुल–गुरुपरम्परा क्या है ? तुम्हारे गुरु कौन हैं ? तुम्हें दीक्षा लिये कितने दिन हुए हैं ? तुमने वर्षायोग कितने और कहाँ-कहाँ किये हैं ? तुम किस दिशा से आये हो ? तुमने क्या-क्या पढ़ा है ? अर्थात् तुम्हारा श्रुतज्ञान कितना है और तुमने क्या-क्या सुना है ? तुम्हारे कितने प्रतिक्रमण हुए हैं और किं ?
गुरुश्च युष्माकं क: ? दीक्षापरिमाणं च भवत: कियत् ? वर्षकालश्च भवद्भि: क्व कृत: ? कस्या दिशो भवानागत: ? िंक पठित: ? िंक च१ श्रुतं त्वया, कियन्त्य: प्रतिक्रमणास्तव संजाता:, न च२ भूता: कियन्त्य:। प्रतिक्रमणाशब्दो युजन्तोऽयं द्रष्टव्य:। िंकच त्वया श्रवणीयं ? कियतोऽध्वन आगतो भवानित्यादि।।१६६।।
एवं तस्य स्वरूपं ज्ञात्वा–
जदि चरणकरणसुद्धो णिच्चुज्जुत्तो विणीदमेधावी।
तस्सिट्ठं कधिदव्वं सगसुदसत्तीए भणिऊण।।१६७।।
जइ–यदि। चरणकरणसुद्धो–चरणकरणशुद्ध: चरणकरणयोर्लक्षणं व्याख्यातं ताभ्यां शुद्ध:। णिच्चुज्जुत्तो–नित्योद्युक्तो विगतातीचार:। विणीद–विनीत:। मेधावी–बुद्धिमान्। तस्सिट्ठं–तस्येष्टं यथावाञ्छितं। कधिदव्वं–कथयितव्यं निवेदयितव्यं।
सगसुदसत्तीए–स्वकीयश्रुतशक्त्या यथास्वपरिज्ञानं। भणिऊण–भणित्वा प्रतिपाद्य। यद्यसौ चरणकरणशुद्धो विनीतो बुद्धिमान् नित्योद्युक्तश्च तदानीं तेनाचार्येण तस्येष्टं कथयितव्यं स्वकीयश्रुतशक्त्या भणित्वा भणतीति।।१६७।।
अथैवमसौ न भवतीति तदानीं किं कर्तव्यं ? इत्युत्तरमाह–
जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवट्ठावणं च कादव्वं।
जदि णेच्छदि छंडेज्जो अध गिण्हदि सोवि छेदरिहो।।१६८।।
जदि–यदि। इदरो–इतरो व्रतचरणैरशुद्ध:। सो–स: आगन्तुक:। अजोगो–अयोग्यो देववन्दनादिभि:, अथवा योग्य: प्रायश्चित्तशास्त्रदृष्ट:। छेदो–छेद: तपोयुक्तस्य कालस्य पादत्रिभागार्धादे:३ परिहार:।
उवट्ठापणं च–उपस्थापनं च। यदि सर्वथा व्रताद् भ्रष्ट: पुनर्व्रतारोपणं। कादव्वो–कर्तव्य: करणीय: कर्तव्यं वा। जदि णेच्छदि–कितने नहीं हुए है ? और तुम्हें अभी क्या सुनना है ? तुम किस मार्ग से आए हो ? इत्यादि प्रश्न करते हैं। तब शिष्य उनको समुचित उत्तर देता है।
प्रश्नों के उत्तर सुनकर और उसके स्वरूप को जानकर आचार्य क्या कहते हैं ? सो बताते हैं-
गाथार्थ-यदि वह क्रिया और चारित्र में शुद्ध है, नित्य उत्साही, विनीत है और बुद्धिमान है तो श्रुतज्ञान के सामर्थ्य के अनुसार उसे अपना इष्ट कहना चाहिए।।१६७।।
आचारवृत्ति-यदि आगन्तुक मुनि चारित्र और क्रियाओं में शुद्ध है, नित्य ही उद्यमशील है अर्थात् अतिचार रहित आचरण वाला है, विनयी और बुद्धिमान है, तो वह जो पढ़ना चाहता है उसे अपने ज्ञान की सामर्थ्य के अनुसार पढ़ाना चाहिए। अथवा उसे संघ में स्वीकार करके उसे उसकी बुद्धि के अनुरूप अध्ययन कराना चाहिए।
यदि वह मुनि उपर्युक्त गुण विशिष्ट नहीं है तो क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-यदि वह अन्य रूप है, अयोग्य है, तो उसका छेद करके उपस्थापन करना चाहिए। यदि वह छेदोपस्थापना नहीं चाहता है और ये आचार्य उसे रख लेते हैं तो वे आचार्य भी छेद के योग्य हो जाते हैं।।१६८।।
आचारवृत्ति-यदि वह आगन्तुक मुनि व्रत और चारित्र से अशुद्ध है और देववन्दना आदि क्रियाओं से अयोग्य है तो उसकी दीक्षा का एक हिस्सा या आधी दीक्षा या उसका तीन भाग छेद करके पुन: उपस्थापना करना चाहिए। यदि सर्वथा वह व्रतों से भ्रष्ट है तो उसे पुन: व्रत अर्थात् पुन: दीक्षा देना चाहिए। यहाँ गाथा में यदि नेच्छेत् अथ नाभ्युगच्छति अथवा लडन्तोयं प्रयोग:।
छंडेज्जो–त्यजेत् परिहरेत्। अध गिण्हदि–अथ तादृग्भूतमपि छेदार्हं तं गृþाति अदत्तप्रायश्चित्तं तदानीं। सोवि–सोप्याचार्य:। छेदरिहो–छेदार्ह: प्रायश्चित्तयोग्य: संजात:। यदि स शिष्य: प्रायश्चित्तयोग्यो भवति तदानीं तस्यच्छेद: कर्तव्य: उपस्थापनं वा कर्तव्यं अथ नेच्छति छेदमुपस्थानं वा तं त्यजेत्। यदि पुनर्मोहात्तं गृþाति सोऽप्याचार्यश्छेदार्हो भवतीति।।१६८।।
तत ऊर्ध्वं िंक कर्त्तव्यं ? इत्याह–
एवं विधिणुववण्णो एवं विधिणेव सोवि संगहिदो।
सुत्तत्थं सिक्खंतो एवं कुज्जा पयत्तेण।।१६९।।
एवं–कथितविधानेनैवंविधिना। उववण्णो–उत्पन्न उपस्थित: पादोष्ण: तेनाप्याचार्येण एवंविधिना कथितविधानेन कृताचरणशोधनेन। सोवि–सोऽपि शिक्षक:। संगहिदो–संगृहीत: आत्मीकृत: सन्। एवं कुज्जा–एवं कुर्यात् एवं कर्तव्यं तेन। पयत्तेण–प्रयत्नेनादरेण। कथमेवं कुर्यात् ? सुत्तत्थं–सूत्रार्थं। सिक्खंतो–शिक्षमाण:। सूत्रार्थं शिक्षमाणं कुर्यात्। सूत्रार्थं शिक्षमाणेनैतत्कर्तव्यमिति वा।
िंक तत्तेन कर्तव्यमित्याह–
पडिलेहिऊण सम्मं दव्वं खेत्तं च कालभावे य।
विणयउवयारजुत्तेणज्भकेदव्वं पयत्तेण।।१७०।।
पडिलेहिऊण–प्रतिलेख्य निरूप्य। सम्मं–सम्यव्â। दव्वं–द्रव्यं शरीरगतं पिंड१ कादिव्रणगतं भूमिगतं चर्मास्थिमूत्रपुरीषादिकं। खेत्तं च–क्षेत्रं च हस्तशतमात्रभूमिभागं। कालभावेय–कालभावौ च संध्यागर्जनविद्यु दुत्पादादिसमयविवर्जनं कालशुद्धि:। क्रोधमानमायालोभादिविवर्जनं भावशुद्धि: परिणामशुद्धि:, क्षेत्रगताशुद्धयपनयनं
जो ‘अजोग्गो’ पद है उसको ‘जोग्गो’ पाठ मानकर ऐसा भी अर्थ किया है कि उसे यथायोग्य प्रायश्चित्त शास्त्र के अनुसार छेद आदि प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वह मुनि छेद या उपस्थापना प्रायश्चित्त नहीं स्वीकार करे फिर भी यदि संघस्थ आचार्य उसे ग्रहण कर लेवें तो वे आचार्य भी प्रायश्चित्त के योग्य हो जाते हैं। अर्थात् यदि आचार्य शिष्यादि के मोह से उसे यों ही रख लेते हैं तो वे भी प्रायश्चित्त के पात्र हो जाते हैं। पुनः इसके बाद क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-उपर्युक्त विधि से वह मुनि ठीक है और उपर्युक्त विधि से ही यदि आचार्य ने ग्रहण किया है तब वह प्रयत्नपूर्वक सूत्र के अर्थ को ग्रहण करता हुआ ऐसा करे।।१६९।।
आचारवृत्ति-उपर्युक्त विधि से वह आगन्तुक मुनि यदि प्रायश्चित्त ग्रहण कर लेता है और आचार्य भी आगमकथित प्रकार से जब उसे प्रायश्चित्त देकर उसके आचरण को शुद्ध कर लेते हैं, उसको अपना लेते हैं तब वह मुनि भी आदरपूर्वक गुरु से सूत्र के अर्थ को पढ़ता हुआ आगे कही विधि के अनुसार ही अध्ययन करे। पुन: उस मुनि को क्या करना चाहिए ? सो कहते हैं-
गाथार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सम्यक् प्रकार से शुद्धि करके विनय और उपचार से सहित होकर प्रयत्नपूर्वक अध्ययन करना चाहिए।।१७०।।
आचारवृत्ति-शरीरगत शुद्धि द्रव्यशुद्धि है। जैसे शरीर में घाव, पीड़ा-कष्ट आदि का नहीं होना। भूमिगत शुद्धि क्षेत्रशुद्धि है। जैसे-चर्म, हड्डी, मूत्र , मल आदि का सौ हाथ प्रमाण भूमिभाग में नहीं होना। संध्याकाल, मेघगर्जन काल, विद्युत्पात और उत्पात आदि काल से रहित समय का होना कालशुद्धि है।
क्रोध, क्षेत्रशुद्धि:, शरीरादिशोधनं द्रव्यशुद्धि:। विणयउवयारजुत्तेण–विनयश्चोपचारश्च विनय एवोपचारस्ताभ्यां तेन वा युक्त: समन्वितो विनयोपचारयुक्तस्तेन। अज्झेयव्वं–अध्येतव्यं पठितव्यं। पयत्तेण–प्रयत्नेन। द्रव्यक्षेत्रकालभावान् सम्यव्â प्रतिलेख्य तेन शिष्येण विनयोपचारयुक्तेन प्रयत्नेनाध्येतव्यं नोपेक्षणीयमिति।।१७०।।
यदि पुन:–
दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण।
असमाहिमसज्भâायं कलहं वािंह वियोगं च।।१७१।।
दव्वादिवदिक्कमणं–द्रव्यमादिर्येषां ते द्रव्यादयस्तेषां व्यतिक्रमणमतिक्रमोऽविनयो द्रव्यादिव्यतिक्रमणं द्रव्यक्षेत्रकालभावै: शास्त्रस्य परिभवं। करेदि–करोति कुर्यात्। सुत्तत्थसिक्खलोहेण–सूत्रं चार्थश्च सूत्रार्थौ तयो: शिक्षात्मसंस्कारोऽवबोध आगमनं तस्या लोभ आसक्तिस्तेन सूत्रार्थशिक्षालोभेन।
असमाहिं–असमाधि: मनसोऽसमाधानं सम्यक्त्वादिविराधनं। असज्झायं–अस्वाध्याय: शास्त्रादीनामलाभ: शरीरादेर्विघातो वा। कलहं–कलह आचार्यशिष्ययो: परस्परं द्वन्द्व:, अन्यैर्वा। वाहिं–व्याधि: ज्वरश्वासकासभगंदरादि:। विओगं च–वियोगश्च। च समुच्चयार्थ:। आचार्यशिष्ययोरेकस्मिन्ननवस्थानं। यदि पुनर्द्रव्यादिव्यतिक्रमणं करोति सूत्रार्थशिक्षालोभेन शिष्यस्तदानीं िंक स्यात् ? असमाध्यस्वाध्यायकलहव्याधिवियोगा: स्यु:।।१७१।।
न केवलं शास्त्रपठननिमित्तं शुद्धिं क्रियते तेन िंकतु जीवदयानिमित्तं चेति–मान, माया, लोभ आदि भावों का त्याग करना भावशुद्धि है। अर्थात् इस प्रकार से क्षेत्र में होनेवाली अशुद्धि को दूर करना उस क्षेत्र से अतिरिक्त क्षेत्र का होना क्षेत्रशुद्धि है। शरीर आदि का शोधन करना अर्थात् शरीर में ज्वर आदि या शरीर से पीव,खून आदि के बहते समय के अतिरिक्त स्वस्थ शरीर का होना द्रव्यशुद्धि है,
संधिकाल आदि के अतिरिक्त काल का होना कालशुद्धि है और कषायादि रहित परिणाम होना ही भावशुद्धि है। प्रयत्नपूर्वक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को सम्यक् प्रकार से शोधन करके विनय और औपचारिक क्रियाओं से युक्त होकर उस मुनि को गुरु के मुख से सूत्रों का अध्ययन करना चाहिए।
यदि पुन: ऐसा नहीं हो तो क्या होगा ?
गाथार्थ-यदि सूत्र के अर्थ की शिक्षा के लोभ से द्रव्य, क्षेत्र आदि का उल्लंघन करता है तो वह असमाधि, अस्वाध्याय, कलह, रोग और वियोग को प्राप्त करता है।।१७१।।
आचारवृत्ति-यदि मुनि सूत्र और उसके निमित्त से होने वाला आत्मसंस्काररूप ज्ञान, उसके लोभ से–आसक्ति से पूर्वोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि को उल्लंघन करके पढ़ता है तो मन में असमाधानीरूप असमाधि को अथवा सम्यक्त्व आदि की विराधनारूप असमाधि को प्राप्त करता है, शास्त्रादि का अलाभ अथवा शरीर आदि के विघातरूप से अस्वाध्याय को प्राप्त करता है।
या आचार्य और शिष्य में परस्पर में कलह हो जाती है अथवा अन्य के साथ कलह हो जाती है। अथवा ज्वर, श्वास, खाँसी, भगंदर आदि रोगों का आक्रमण हो जाता है या आचार्य और शिष्य के एक जगह नहीं रह सकने रूप वियोग हो जाता है।
अर्थात् जो मुनि द्रव्यादि शुद्धि की अवहेलना करके यदि सूत्रार्थ के लोभ से अध्ययन करते हैं तो उनके उस समय असमाधि आदि हानियाँ हो जाया करती हैं।
केवल शास्त्रों के पढ़ने के लिए ही शुद्धि की जाती है ऐसी बात नहीं है, उस मुनि को जीवदया के निमित्त भी शुद्धि करना चाहिए-
संथारवासयाणं पाणीलेहािंह दंसणुज्जोवे।
जत्तेणुभये काले पडिलेहा होदि कायव्वा।।१७२।।
संथारवासयाणं–संस्तारश्चतुर्धा भूमिशिलाफलकतृणभेदात् आवासोऽवकाश: आकाशप्रदेशसमूह: संस्तरादिप्रदेश इत्यर्थ:। संस्तरश्चावकाशश्च संस्तरावकाशो तावादिर्येषां ते संस्तरावकाशादय: बहुवचननिर्देशादादिशब्दोपादानं तेषां संस्तरावकाशादीनां।
पाणीलेहाहिं–पाणिलेखाभिर्हस्ततलगतलेखाभि:। दंसणुज्जोवे–दर्शनस्य चक्षुष उद्योत: प्रकाशो दर्शनोद्योतस्तस्मिन् दर्शनोद्योते पाणिरेखादर्शनहेतुभूते चक्षुप्रकाशे यावता चक्षुरुद्योतेन हस्तरेखा दृश्यन्ते तावति चक्षुष: प्रकाशेऽथवा पाणिरेखानामभिदर्शनं परिच्छेदस्तस्य निमित्तभूतोद्योते पाणिरेखाभिर्दर्शनोद्योते।
अथवा प्राणिनो लिहंत्यास्वादयन्ति यस्मिन् स प्राणिलेह: स चासौ अभिदर्शनोद्योतश्च तस्मिन् प्राणिभोजननिमित्तनयनप्रसरे इत्यर्थ:। जत्तेण–यत्नेन तात्पर्येण। उभये काले–उभयो: कालयो: पूर्वाþेऽपराþे च संस्तरादानदानकाल इत्यर्थ:। पडिलेहा–प्रतिलेखा शोधनं सन्मार्जनं। होइ–भवति। कादव्वा–कर्तव्या। उभयो: कालयो: हस्तलेखादर्शनोद्योते संजाते यत्नेन संस्तरावकाशादीनां प्रतिलेखा भवति कर्त्तव्येति।।१७२।।
परगण वसता तेन किं स्वेच्छया प्रवर्तितव्यं ? नेत्याह–
उब्भामगादिगमणे उत्तरजोगे सकज्जआरंभे।
इच्छाकारणिजुत्तो आपुच्छा होइ कायव्वा।।१७३।।
उब्भामगादिगमणे–उद्भ्रामको ग्राम: चर्या वा स आदिर्येषां ते उद्भ्रामकादयस्तेषामुद्भ्रामकादीनां गमनमनुष्ठानं तस्मिन् ग्रामभिक्षाव्युत्सर्गादिके।
उत्तरजोगे–उत्तर: प्रकृष्ट: योग: वृक्षमूलादिस्तस्मिन्नुत्तरयोगे। सकज्जआरम्भे–
गाथार्थ-हाथ की रेखा दिखने योग्य प्रकाश में दोनों काल में यत्नपूर्वक संस्तर और स्थान आदि का प्रतिलेखन करना होता है।।१७२।।
आचारवृत्ति-संस्तर चार प्रकार का है-भूमिसंस्तर, शिलासंस्तर, फलकसंस्तर और तृणसंस्तर। उस संस्तर के स्थान को आवास कहते हैं अर्थात् जो आकाश प्रदेशों का समूह है वही आवास है। शुद्ध, निर्जन्तुक भूमि पर सोना भूमिसंस्तर है। सोने योग्य पाषाण की शिला शिलासंस्तर है। काष्ठ के पाटे को फलकसंस्तर कहते हैं और तृणों के समूह को तृणसंस्तर कहते हैं।
इन चार प्रकार के संस्तर के स्थान को, कमण्डलु, पुस्तक आदि को, चक्षु से हाथ की रेखाओं के दिखने योग्य प्रकाश हो जाने पर अथवा जितने प्रकाश में हाथ की रेखाएँ दिखती हैं उतने प्रकाश के होने पर पूर्वाण्हकाल में और अपराण्हकाल में इनका पिच्छिका से शोधन करना चाहिए। अथवा प्राणियों के भोजन के निमित्त चक्षु का प्रकाश होने पर प्रयत्नपूर्वक दोनों समय संस्तर आदि का शोधन करना चाहिए।
अर्थात् सायंकाल हाथ की रेखा दिखने योग्य प्रकाश रहने पर संस्तर आदि के स्थान को पिच्छिका से परिमार्जित करके पाटे आदि बिछा लेना चाहिए और प्रातःकाल भी इतना प्रकाश हो जाने पर संस्तर और स्थान आदि को देख -शोध कर उसे हटा देना चाहिए।
आगन्तुक मुनि परगण में रहते हुए क्या स्वेच्छा प्रवृत्ति करता है ? नहीं, इसी बात को कहते हैं-
गाथार्थ-चर्या आदि के लिए गमन करने में, वृक्षमूल आदि योग करने में और अपने कार्य के प्रारम्भ में इच्छाकार पूर्वक प्रश्न करना होता है।।१७३।।
आचारवृत्ति-उद्भ्रामक–ग्राम अथवा चर्या, उसके लिए गमन उद्भ्रामक-गमन है। आदि शब्द से मलमूत्र विसर्जन आदि को लिया है। अर्थात् किसी ग्राम में जाते समय या आहार के लिए गमन करने में, मलमूत्रादि त्याग के लिए जाते समय, उत्तर–प्रकृष्ट योग अर्थात् वृक्षमूल, आतापन आदि योगों को धारण स्वस्यात्मन: कार्यं प्रयोजनं तस्यारम्भ आदिक्रिया तस्मिन् स्वकार्र्यारम्भे।
इच्छाकारणिजुत्तो–इच्छाकारेण कर्त्तुमभिप्रायेण नियुक्त उद्युक्त: स्थितस्तेन इच्छाकारनियुक्तेन अथवा आपृच्छाया विशेषणं इच्छाकारनियुक्ता प्रणामादिविनयनियुक्ता। आपुच्छा–आपृच्छा सर्वेषां प्रश्न:। होदि–भवति। कादव्वा–कर्तव्या कार्या। तेन स्वगणे वसता यथा उद्भ्रामकादिगमने उत्तरयोगे स्वकार्यारम्भे इच्छाकारनियुक्तेनापृच्छा भवति कर्तव्या तथा परगणे वसतापीत्यर्थ:।।१७३।।
तथा वैयावृत्यमपीत्याह–
गच्छे वेज्जावच्चं गिलाणगुरु बालबुड्ढसेहाणं।
जहजोगं कादव्वं सगसत्तीए पयत्तेण।।१७४।।
गच्छे–ऋषिसमुदाये चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघे वा सप्तपुरुषकस्त्रिपुरुषको वा तस्मिन्। वेज्जावच्चं–वैयावृत्त्यं कायिकव्यापाराहारादिभिरुपग्रहणं। गिलाण–ग्लान: व्याध्याद्युपपीडित:, क्षीणशक्तिक:। गुरु–शिक्षादीक्षाद्युपदेशक: ज्ञानतपोऽधिको वा। बालो–नवक: पूर्वापरविवेकरहितो वा। बुड्ढ–वृद्धो जीर्णो जराग्रस्तो दीक्षादिभिरधिको वा।
सेह–शैक्ष: शास्त्रपठनोद्युक्त: स्वार्थपर: निर्गुणो दुराराध्यो वा एतेषां द्वन्द्वस्तेषां ग्लानगुरुबालवृद्धशैक्षाणां लक्षणनियोगात् पूर्वापरनिपातो द्रष्टव्य:। जहजोगं–यथायोग्यं क्रममनतिलंघ्य तदभिप्रायेण वा। कादव्वं–कर्तव्यं करणीयं। सगसत्तीए–स्वशक्त्या स्वशक्तिमनवगूह्य। पयत्तेण–प्रयत्नेनादरेण गच्छे ग्लानगुरुबालवृद्धशैक्षाणां प्रयत्नेन स्वशक्त्या, वैयावृत्यं कर्तव्यमिति।।१७४।।
अथ तेन परगणे वन्दनादिक्रिया: किमेकाकिना क्रियंते नेत्याह–करते समय, अपने किसी भी कार्य के प्रारम्भ में और भी किन्हीं क्रियाओं के आदि में आचार्यों की इच्छा के अनुसार पूछकर कार्य करना। अथवा प्रणाम आदि विनयपूर्वक सभी विषय में गुरु से पूछकर कार्य करना होता है।
तात्पर्य यह है आगन्तुक मुनि पहले जैसे अपने संघ में चर्या आदि कार्यों में विनयपूर्वक अपने आचार्य से पूछकर कार्य करते थे उसी प्रकार से उसे पर-संघ में यहाँ पर स्थित आचार्य के अभिप्रायानुसार उनसे आज्ञा लेकर ही इन सब क्रियाओं को करना चाहिए।
उसी प्रकार पर-गण में वैयावृत्ति भी करना चाहिए-
गाथार्थ-पर गण में क्षीणशक्तिक, गुरु, बाल, वृद्ध और शैक्ष मुनियों की अपनी शक्ति के अनुसार प्रयत्नपूर्वक यथायोग्य वैयावृत्ति करना चाहिए।।१७४।।
आचारवृत्ति-ऋषियों के समूह को अथवा चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ को गच्छ कहते हैं अथवा सात या तीन पुरुषों की परम्परा को अर्थात् सात या तीन पीढ़ियों के मुनियों को गच्छ कहते हैं। ऐसे संघ में ग्लानादि मुनि रहते हैं। व्याधि से पीड़ित अथवा क्षीण शक्तिवाले मुनि ग्लान हैं। शिक्षा-दीक्षा तथा उपदेश आदि के दाता गुरु हैं अथवा जो तप में या ज्ञान में अधिक हैं वे भी गुरु कहे जाते हैं।
नवदीक्षित या पूर्वापर विवेकरहित मुनि बालमुनि कहे जाते हैं। पुराने मुनि या जरा से जर्जरित मुनि अथवा दीक्षा आदि से अधिक वृद्ध हैं, ऐसे ही अपने प्रयोजन को सिद्ध करने में तत्पर हुए स्वार्थतत्पर मुनि या निर्गुण मुनि अथवा दुराराध्य आदि मुनि शैक्ष संज्ञक हैं। इन सभी प्रकार के मुनियों की यथायोग्य–क्रम का उल्लंघन न करके अथवा उनके अभिप्राय के अनुसार और अपनी शक्ति को न छिपाकर आदरपूर्वक वैयावृत्ति करना चाहिए। अर्थात् आगन्तुक मुनि पर-संघ में भी सभी प्रकार के मुनियों की वैयावृत्ति करता है।
पर-गण में रहते हुए वह आगन्तुक मुनि वन्दना आदि क्रियाएँ क्या एकाकी करता है ? नहीं, सो ही बताते हैं-
दिवसियरादियपक्खिय-चाउम्मासियवरिस्सकिरियासु।
रिसिदेववंदणादिसु सहजोगो होदि कायव्वो।।१७५।।
दिवसिय–दिवसे भवा दैवसिकी अपराþनिर्वर्त्या। रादिय–रात्रौ भवा रात्रिकी पश्चिमरात्रावनुष्ठेया। पक्खिय–पक्षान्ते चतुर्दश्यामावस्यायां पौर्णमास्यां वा पक्षशब्द: प्रवर्तते तस्मिन् भवा पाक्षिकी। चाउम्मासिय–चतुर्थमासेषु भवा चातुर्मासिकी। वारिसिय–वर्षेषु भवा वार्षिकी। एताश्च ता: क्रियाश्च। दैवसिकीरात्रिकीपाक्षिकीचातुर्मासिकी-वार्षिकीक्रियास्तासु।
रिसिदेववंदणादिसु–ऋषयश्च ते देवाश्च ऋषिदेवास्तेषां वन्दनादिर्यासां ता ऋषिदेववन्दनादयस्तासु ऋषिदेववन्दनादिषु क्रियासु। सह–सार्धं एकत्र। जोगो–योग उपयुञ्जतं। अथवाऽखण्डोऽयं शब्द: सहयोग:। दैवसिकादिक्रियासहचरिता वेला: परिगृह्यन्ते दैवसिकादिवेलासु सहयोग: दैवसिकादिक्रिया: सर्वै रेकत्र कर्तव्या भवंति। दैवसिकादिषु ऋषिदेववन्दनादिषु च क्रियासु सहयोगो भवति कर्तव्य इति।।१७५।।
अथ यद्यपराधस्तत्रोत्पद्यते िंक तत्रैव शोध्यते उतान्यत्र तत्रैवेत्याह–
मणवयणकायजोगेणुप्पण्णवराध जस्स गच्छम्मि।
मिच्छाकारं किच्चा णियत्तणं होदि कायव्वं।।१७६।।
मणवयणकायजोगेण–मनोवचनकाययोगै:। उप्पण्ण–उत्पन्न: संजात:। अवराध–अपराधो व्रताद्यतिचार:। जस्स–यस्य। गच्छम्मि–गच्छे गणे चतु: प्रकारे संघे।
अथवा जस्स–यस्मिन् गच्छे। मिच्छाकारं किच्चा–
गाथार्थ-दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक प्रतिक्रमण क्रियाओं में गुरुवन्दना और देववन्दना आदि में साथ ही मिलकर करना चाहिए।।१७५।।
आचारवृति-दिवस में होने वाली–दिवस के अन्त में अपराण्ह काल में की जाने वाली क्रिया दैवसिक क्रिया है अर्थात् सायंकाल में किया जानेवाला प्रतिक्रमण दैवसिक क्रिया है। रात्रि में होने वाली अर्थात् पिछली रात्रि में जिसका अनुष्ठान किया जाता है ऐसा रात्रिकप्रतिक्रमण रात्रिक क्रिया है। चतुर्दशी, अमावस्या या पौर्णमासी को पक्ष कहते हैं। इस पक्ष के अन्त में होने वाली प्रतिक्रमण क्रिया पाक्षिक कहलाती है।
चार मास में होने वाली प्रतिक्रमण किया चातुर्मासिक है और वर्ष में हुई क्रिया वार्षिक अर्थात् वर्ष के अन्त में होने वाला प्रतिक्रमण वार्षिक क्रिया है। इन प्रतिक्रमण क्रियाओं में ऋषि अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और मुनियों की वन्दना करने में और देववन्दना–सामायिक करने में तथा आदि शब्द से स्वाध्याय आदि क्रियाओं में सह अर्थात् मिलकर एक जगह योग करना चाहिए।
अथवा सहयोग शब्द एक अखण्ड पद है। उससे दैवसिक आदि क्रियाओं से सहचरित समय लिया जाता है अर्थात् दैवसिक प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं के समय सहयोगी होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि दैवसिक प्रतिक्रमण, वंदना आदि जितनी भी क्रियाएँ हैं, सभी मुनियों को एक साथ एक स्थान में ही करनी होती हैं। दैवसिक आदि प्रतिक्रमणों में और गुरुवन्दना, देववन्दना आदि क्रियाओं में आगन्तुक मुनि सबके साथ ही रहता है।
यदि कोई अपराध इस संघ में हो जाता है तो वहीं पर उसका शोधन करना चाहिए अथवा अन्यत्र संघ में ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हुए कहते हैं कि वहीं पर ही शोधन करना चाहिए-
गाथार्थ-मन, वचन और काय के योगों से जिस संघ में अपराध उत्पन्न हुआ है मिथ्याकार करके वहीं उसको दूर करना होता है।।१७६।।
आचारवृत्ति-जिस गच्छ-गण या चतुर्विध संघ में व्रतादिकों में अतिचाररूप अपराध हुआ है उस संघ में उस मुनि को मिथ्याकार–पश्चात्ताप करके अपने अन्तरंग से वह दोष निकाल देना चाहिए। अथवा मिथ्याकारं कृत्वा पश्चात्तापं कृत्वा।
णियत्तणं–निवर्तनमप्रवर्तनमात्मन:। होदि-भवति। कादव्वं–कर्तव्यं करणीयं। यस्मिन् गच्छे यस्य मनोवचनकाययोगैरपराध उत्पन्नस्तेन तस्मिन् गच्छे मिथ्याकार कृत्वा निवर्तनं भवति कर्तव्यमिति। अथवा जस्स गच्छे–यस्य पार्श्वेऽपराध उत्पन्नस्तेन सह मर्षणं कृत्वा तस्मादपराधान्निवर्तनं भवति कार्यमिति।।१७६।।
तत्र गच्छे वसता तेन िंक सर्वै: सहालापोऽवस्थानं च क्रियते नेत्याह–
अज्जागमणे काले ण अत्थिदव्वं तधेव एक्केण।
ताहिं पुण सल्लावो ण य कायव्वो अकज्जेण।।१७७।।
अज्जागमणे काले–आर्याणां संयतीनामुपलक्षणमात्रमेतत् सर्वस्त्रीणां, आगमनं यस्मिन् काले स आर्यागमनस्तस्मिन्नार्यागमने काले। ण अत्थिदव्वं–नासितव्यं न स्थातव्यं। तधेव–तथैव। एक्केण–एकेन एकाकिना विजनेन। ताहिं–ताभिरार्यिकाभि:। पुण–पुन: बाहुल्येन। सल्लावो–सल्लापो वचनप्रवृत्ति:। ण य कायव्वो–नैव कर्तव्यो न कार्य:। अकज्जेण–अकार्येण प्रयोजनमन्तरेण धर्मकार्योत्पत्तो कदाचिद्वद्यं१। आर्यागमनकाले एकाकिना विजनेन न स्थातव्यं, धर्मकार्यमन्तरेण ताभि: सहालापोऽपि न कर्तव्य इति।।१७७।।
यद्येवं कथं तासां प्रायश्चित्तादिकथनं प्रवर्तत इति प्रश्नेऽत: प्राह–
तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु।
गणिणी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्व।।१७८।।
तासिं–तासामार्याणां। पुण–पुन: पुनरपि। पुच्छाओ–पृच्छा: प्रश्नान् कार्याणि। इक्किस्से–एकस्या एकाकिन्या। ण य कहिज्ज–नैव कथयेत् नैव कथनीयं। एक्को दु–एकस्तु एकाकी सन् अपवादभयात्। यद्येवं कथं क्रियते। गणिणी–गणिनीं तासां महत्तरिकां प्रधानां। पुरओ–पुरोऽग्रत:। किच्चा–कृत्वा। यदि पुच्छदि–जिस किसी के साथ अपराध हो गया हो उन्हीं से क्षमा कराके उस अपराध से अपने को दूर करना होता है।
उस संघ में रहते हुए मुनि को सभी के साथ बोलना या बैठना करना होता है या नहीं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-आर्यिकाओं के आने के समय मुनि को अकेले नहीं बैठना चाहिए, उसी प्रकार उनके साथ बिना प्रयोजन वार्तालाप भी नहीं करना चाहिए।।१७७।।
आचारवृत्ति-यहाँ ‘आर्यिकाणां’ शब्द से संयतियों का ग्रहण करना उपलक्षण मात्र है उसमें सम्पूर्ण स्त्रियों को ग्रहण कर लिया गया है। उन आर्यिका और स्त्रियों के आने के काल में उस मुनि को एकान्त में अकेले नहीं बैठना चाहिए और उसी प्रकार से उन आर्यिकाओं और स्त्रियों के साथ अकारण बहुलता से वचनालाप भी नहीं करना चाहिए। कदाचित् धर्मकार्य के प्रसंग में बोलना ठीक भी है। तात्पर्य यह हुआ कि स्त्रियों के आने के समय मुनि एकान्त में अकेले न बैठे और धर्मकार्य के बिना उनके साथ वार्तालाप भी न करे।
यदि ऐसी बात है तो उनको प्रायश्चित्त आदि देने की बात कैसे बनेगी ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-पुनः उनमें से यदि अकेली आर्यिका प्रश्न करे तो अकेला मुनि उत्तर न देवे। यदि गणिनी को आगे करके वह पूछती है तो फिर कहना चाहिए।।१७८।।
आचारवृत्ति-उन आर्यिकाओं के प्रश्न कार्यों में यदि एकाकिनी आर्यिका है तो एकाकी मुनि अपवाद के भय से उन्हें उत्तर न देवें। यदि वह आर्यिका अपने संघ की प्रधान आर्यिका गणिनी को आगे करके कुछ पूछे तो इस विधान से उन्हें मार्गप्रभावना की इच्छा रखते हुए प्रतिपादन करना चाहिए अन्यथा नहीं।
यदि पृच्छति प्रश्नं कुर्यात्। तो–ततोऽनेन विधानेन। कहेदव्वं–कथयितव्यं प्रतिपादयितव्यं नान्यथा। तासां मध्ये एकस्या: कार्यं नैव कथयेदेकाकी सन्, गणिनीं पुर:कृत्वा यदि पुन: पृच्छति तत: कथनीयं मार्गप्रभावनामिच्छतेति।।१७८।।
व्यतिरेकद्वारेण प्रतिपाद्यान्वयद्वारेण प्रतिपादयन्नाह–
तरुणो तरुणीय सह कहा व सल्लावणं च जदि कुज्जा।
आणाकोवादीया पंचवि दोसा कदा तेण।।१७९।।
यदि कथितन्यायेन न प्रवर्तते चेत्। तरुणो–यौवनपिशाचगृहीत:। तरुणीए–तरुण्या उन्मत्तयौवनया। सह–सार्धं। कहाव–कथां वा प्राक्प्रबन्धचरितं। सल्लावणं च–सललापं च अथवा (असब्भावणं१ च ) प्रहासप्रवंचनं च। जदि कुज्जा–यदि कुर्यात् विधेयाच्चेत्। आणाकोधा (वा) दीया–आज्ञाकोपादय: आज्ञाकोपानवस्थामिथ्या-त्वाराधनात्मनाशसंयमविराधनानि। पंचवि–पंचापि।
दोसा–दोषा: पापहेतव:। कदा–कृता अनुष्ठिता:। तेण–तेनैवं कुर्वता। यदि तरुणस्तरुण्या सह कथामवसल्लापं च कुर्यात्तत् किं स्यात् ? आज्ञाकोपादिका: पंचापि दोषा: कृतास्तेन स्युरिति।।१७९।।
यत्र वह्वयस्तिष्ठन्ति तत्र किमावासादिक्रिया युक्ता: ? नेत्याह–
णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयह्मि चिट्ठेदुं।
तत्थ णिसेज्जउवट्ठणसज्भâायाहारभिक्खवोसरणं।।१८०।।
णो कप्पदि–न कल्पते न युज्यते। विरदाणं–विरतानां संयतानां पापक्रियाक्षयकरणोद्यतानां। विरदीणं–विरतीनां आर्यिकाणां। उवासयम्हि–आवासे वसतिकादौ। चिट्ठेदुं–चेष्टियितुं स्थातुं वसितुं न केवलं। तत्थ–तत्र व्यतिरेक के द्वारा प्रतिपादन करके अब अन्वय के द्वारा प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-तरुण मुनि तरुणी के साथ यदि कथा या वचनालाप करे तो उस मुनि ने आज्ञाकोप आदि पाँचों ही दोष किये ऐसा समझना चाहिए।।१७९।।
आचारवृत्ति-यदि कथित न्याय से मुनि प्रवृत्ति नहीं करे अर्थात् यौवनपिशाच से गृहीत हुआ तरुण मुनि यौवन से उन्मत्त हुई तरुणी के साथ पहले से सम्बन्धित चरित्ररूप कथा को अथवा संलाप या हँसी वंचना आदि बातों को करता है तो पूर्व में कथित आज्ञाकोप, अनवस्था, मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयमविराधना इन पाप के हेतुभूत पाँच दोषों को करता है ऐसा समझना चाहिए।
जहाँ पर बहुत-सी आर्यिकाएँ रहती हैं वहाँ पर क्या आवास आदि क्रिया करना युक्त है ? नहीं, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-आर्यिकाओं की वसतिका में मुनियों का रहना और वहाँ पर बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा व कायोत्सर्ग करना युक्त नहीं है।।१८०।।
आचारवृत्ति-पापक्रिया के क्षय करने में उद्यत हुए विरत मुनियों का आर्यिकाओं की वसतिका आदि में रहना उचित नहीं है। केवल ऐसी ही बात नहीं है कि वहाँ पर बहुत काल तक होने वाली क्रियाएँ न करें, किंतु वहाँ अल्पकालिक क्रियाएँ भी करना युक्त नहीं है।
जैसे कि वहां पर बैठना, सोना या लेटना, शास्त्र का व्याख्यान या परिवर्तन–पुन: पुन: पढ़ना, रटना आदि करना, आहार और भिक्षा का ग्रहण करना, वहाँ पर प्रतिक्रमण आदि करना या मलमूत्र विसर्जन आदि दीर्घकाला: क्रिया न युक्ता: किन्तु क्षणमात्राया: क्रियास्ता अपि। णिसेज्ज–निषद्योपवेशनं। उवट्ठणं–उद्वर्तनं शयनं लोटनं।
सज्झाय–स्वाध्याय: शास्त्रव्याख्यानं परिवर्तनादयो वा। आहारभिक्खा–आहारभिक्षाग्रहणं। वोसरणं–प्रतिक्रमणादिकं अथवा व्युत्सर्जनं मूत्रपुरीषाद्युत्सर्ग: १प्रदेशसाहचर्यात् एतेषां द्वन्द्व: स:। अन्याश्चैवमादयश्च क्रिया न युक्ता:। विरतानां चेष्टितुं आर्यिकाणामावासे न कल्पते, निषद्योद्वर्तनस्वाध्यायाहारभिक्षाव्युत्सर्जनानि च तत्र न कल्पंते।
आहारभिक्षयो: को विशेष इति चेत् तत्कृतान्यकृतभेदात् ताभिर्निष्पादितं भोजनं आहार:, श्रावकादिभि: कृतं यत्तत्र दीयते सा भिक्षा। अथवा मध्यान्हकाले भिक्षार्थं पर्यटनं भिक्षा ओदनादिग्रहणमाहार: इति।।१८०।।
किमर्थमेताभि: सह स्थविरत्वादिगुणसमन्वितस्यापि संसर्गो वार्यते यत:–
थेरं चिरपव्वइयं आयरियं बहुसुदं च तवसिं वा।
ण गणेदि काममलिणो कुलमवि समणो विणासेइ।।१८१।।
थेरं–स्थविरं आत्मानं सर्वत्र सम्बंधनीयं सामर्थ्यात् सोपस्कारत्वात् सूत्राणां। चिरपव्वइयं–चिरप्रव्रजितं प्ररूढव्रतं। आयरियं–आचार्यं। बहुसुदं–बहुश्रुतं सर्वशास्त्रपारगं। तविंस वा–तपस्विनं वा षष्ठाष्टमादिकयुक्तं चकाराद्वात्मन: समुच्चय:, अथवा स्थविरत्वादयो गुणा गृह्यंते, अथवात्मनोऽन्ये स्थविर२त्वादयस्तान्। ण गणेदि–न करना और भी इसी प्रकार की अन्य क्रियाएँ करना युक्त नहीं है।
आहार और भिक्षा में क्या अंतर है ?
उन आर्यिकाओं के द्वारा निष्पादित भोजन आहार कहा गया है और श्रावक आदिकों द्वारा बनाया गया भोजन जो वहाँ पर दिया जाता है सो भिक्षा कहलाती है। (अथवा ‘ताभि’ का अर्थ ‘आर्यिकाओं द्वारा ऐसा न लेकर पूरे वाक्यार्थ को इस प्रकार लिया जाना उपयुक्त होगा–वह भोजन, जो उन्हीं श्राविकाओं द्वारा निष्पादित अर्थात् तैयार किया गया है जो दे भी रही होती हैं, आहार है।
तथा वह भोजन, जिसे पड़ोसी आदि अन्य श्रावकजन तैयार किया हुआ लाकर देते हैं, वह भिक्षा है।) अथवा मध्यान्हकाल में चर्या के लिए पर्यटन करना सो भिक्षा और भात आदि भोजन ग्रहण करना आहार है ऐसा समझना।
विशेषार्थ-यहाँ पर जो आर्यिकाओं द्वारा निष्पादित भोजन को आहार संज्ञा दी है सो समझ में नहीं आया है। क्योंकि आर्यिकायें भी आरम्भ, परिग्रह का त्याग कर चुकी हैं। मूलाचार प्रदीप अ. ७ श्लोक १६० में कहा है कि-‘आर्यिकाएँ स्नान, रोदन, अन्नादि पकाना, सीवना, सूत कातना, गीत गाना, बाजे बजाना आदि क्रियाएं न करें।’ इससे आर्यिकाओं द्वारा भोजन बनाना सम्भव नहीं है। अत: टीका में अथवा कहकर जो दूसरा अर्थ किया गया है उसे ही यहाँ संगत समझना चाहिए।
इन आर्यिकाओं के साथ स्थविरत्व आदि गुणों से समन्वित का भी संसर्ग किसलिए मना किया गया
है ? सो ही कहते हैं-
गाथार्थ-काम से मलिनचित्त श्रमण स्थविर, चिरदीक्षित, आचार्य, बहुश्रुत तथा तपस्वी को भी नहीं गिनता है, कुल का भी विनाश कर देता है।।१८१।।
आचारवृत्ति-स्थविर, चिरप्रव्रजित आदि सभी के साथ ‘आत्मा’ शब्द का सम्बन्ध कर लेना चाहिए क्योंकि सूत्र उपस्कार–अध्याहार सहित होते हैं। जो स्थविर है, चिरकाल से दीक्षा लेने से व्रतों में दृढ़ है, आचार्य है, सर्व शास्त्र का पारंगत है अथवा वेला, तेला आदि उपवासों का करने वाला होने से तपस्वी है ऐसी गणयति नोऽपेक्षते१ नो पश्यति न गणयेद्वा।
काममलिणो–कामेन मलिन: कश्मल: काममलिनो मैथुनेच्छोपद्रुत:। कुलमवि–कुलमपि कुलं मातृपितृकुलं सम्यक्त्वादिकं वा। समणो–श्रमण:। विणासेदि–विनाशयति विराधयति। स्थविरं चिरप्रव्रजिताचार्यं बहुश्रुतं तपस्विनमात्मानं केवलं न गणयति काममलिन: सन् श्रमण: कुलमपि विनाशयति।
अथवा न केवलमात्मन: स्थविरत्वादीन् गुणान् न गणयति सम्यक्त्वादिगुणानपि विनाशयति। अथवा न केवलं कुलं विनाशयति िंकतु स्थविरत्वादीनपि२ न गणयति परिभवतीत्यर्थ:।।१८१।।
एता: पुनराश्रयन् यद्यपि कुलं न विनाशयत्यात्मानं वा तथाप्यपवादं प्राप्नोतीत्याह–
कण्णं विधवं अंतेउरियं तह सइरिणी सलिंगं वा।
अचिरेणल्लियमाणो अववादं तत्थ पप्पोदि।।१८२।।
कण्णं–कन्यां विवाहयोग्यां। विहवं–विगतो मृतो गतो धवो भर्ता यस्या: सा विधवा तां। अंतेउरियं–अन्त:पुरे भवा आन्त:पुरिका तामान्त:पुरिकां स्वार्थे क:–राज्ञीं राज्ञीसमानां विलासिनीं वा। तह–तथा। सइरिणीं–स्वेच्छया परकुलानीयर्तीति स्वैरिणी तां स्वेच्छाचारिणीं। सलिंगं वा–समानं लिंगं सलिंगं व्रतादिकं कुलं वा तद्विद्यते यस्या: सा सलिंगिनी तां। अथवा सह लिंगेन वर्तते इति सलिंगा तां स्वदर्शनेऽन्यदर्शने वा प्रव्रजितां।
अचिरेण– योग्यता विशिष्ट होने पर भी काम से मलिन हुआ मुनि इन सब को कुछ नहीं गिनता है। अथवा स्थविर आदि शब्दों से यहाँ स्थविरत्व आदि गुणों को ग्रहण किया गया समझना चाहिए अर्थात् काम से पीड़ित हुआ मुनि अपने इन गुणों को कुछ नहीं समझता है–तिरस्कृत कर देता है।
अथवा अपने से अन्य जो स्थविरत्व आदि हैं उनको लेना चाहिए अर्थात् यह कामेच्छा से पीड़ित हुआ मुनि उस संघ में रहनेवाले स्थविर–मुनि, चिरदीक्षित या आचार्र्य, उपाध्याय अथवा तपस्वियों को भी कुछ नहीं समझता है उनको नहीं देखता है, उनकी उपेक्षा कर देता है। और तो और, अपने माता-पिता के कुल को अथवा अपने सम्यक्त्व आदि को भी नष्ट कर देता है, इन गुणों की विराधना कर देता है।
तात्पर्य यह है कि काम से पीड़ित हुआ मुनि स्थविर आदिरूप अपने को ही केवल नहीं गिनता है ऐसी बात नहीं, वह कुल को भी नष्ट कर देता है। अथवा वह केवल अपने स्थविरत्व आदि गुणों को ही नहीं गिनता है ऐसी बात नहीं, वह सम्यक्त्व आदि गुणों को भी नष्ट कर देता है। अथवा केवल वह कुल का ही नाश करता है ऐसा नहीं, वह तो स्थविरत्व आदि को भी कुछ नहीं गिनता है, उनका तिरस्कार कर देता है।
पुन: कोई आर्यिकाओं का आश्रय करता हुआ भले ही अपने कुल का अथवा अपना विनाश नहीं करता हो, लेकिन अपवाद को तो प्राप्त हो ही जाता है, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-वह मुनि कन्या, विधवा, रानी, स्वेच्छाचारिणी तथा तपस्विनी महिला का आश्रय लेता हुआ तत्काल ही उसमें अपवाद को प्राप्त हो जाता है।।१८२।।
आचारवृत्ति-विवाह के योग्य लड़की अर्थात् जिसका अब तक विवाह नहीं हुआ है कन्या है। वि–विगत–मर गया है धव–पति जिसका वह विधवा है। अन्तःपुर–रणवास में रहनेवाली आन्तःपुरिका है अर्थात् रानी अथवा रानी के समान विलासिनी स्त्रियों को अन्त:पुर में रहनेवाली शब्द से ग्रहण किया है। जो स्वेच्छा से पर-गृहों में जाती है वह स्वेच्छाचारिणी अर्थात् व्यभिचारिणी है। समान लिंग व्रतादि अथवा कुल जिसके है वह सलिंगिनी है। अथवा
लिंग–वेषसहित स्त्री सलिंगिनी है वे चाहे अपने सम्प्रदाय की आर्यिका क्षणमात्रेण मनागपि। अल्लियमाणो–आलीयमान: आश्रयमाण: सहवासालापादिक्रियां कुर्वाण:। अववादं–अपवादं अकीर्तिं। तत्थ–तत्राश्रयणे। पप्पोदि–प्राप्नोति अर्जयतीति। कन्यां विधवां आन्त:पुरिकां स्वैरिणीं सलिंगिनीं वालीयमानोऽचिरेण तत्र अपवादं प्राप्नोतीति।।१८२।।
नन्वार्यादिभि: सह संसर्ग: सर्वथा यदि परित्यजनीय: कथं तासां प्रतिक्रमणादिकं क एवमाह सर्वथा त्यागो यावतैवं विशिष्टेन कर्तव्य इत्याह–
पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो।।१८३।।
गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य।
चिरपव्वइदो गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।।१८४।।
पियधम्मो–प्रिय इष्टो धर्म: क्षमादिकश्चारित्रं वा यस्यासौ प्रियधर्मा उपशमादिसमन्वित:। दढधम्मो–दृढ: स्थिरो धर्मो धर्माभिप्रायो यस्यासौ दृढधर्मा। संविग्गो–संविग्नो धर्मतत्फलविषये हर्षसम्पन्न:। अवज्जभीरु–अवद्यभीरुरवद्यं पापं कुत्स्यं तस्माद्भयनशीलोऽवद्यभीरु:। परिसुद्धो–परिसमन्ताच्छुद्ध: परिशुद्धोऽखण्डिताचरण:।
संगह–संग्रहो दीक्षाशिक्षाव्याख्यानादिभिरुपग्रह:, अणुग्गह–अनुग्रह: प्रतिपालनं आचार्यत्वादिदानं याभ्यां तयोर्वा आदि हों या अन्य सम्प्रदाय की साध्वियाँ हों। इन उपर्युक्त प्रकार की महिलाओं का क्षणमात्र भी आश्रय लेता हुआ, उनके साथ सहवास, वार्तालाप आदि क्रियाओं को करता हुआ मुनि उनके आश्रय से अपवाद को–अकीर्ति को प्राप्त कर लेता है ऐसा समझना।
यदि आर्यिकाओं के साथ संसर्ग करना सर्वथा छोड़ने योग्य है तो उनके प्रतिक्रमण आदि कैसे होंगे ? कौन ऐसा कहता है कि सर्वथा उनका संसर्ग त्याग करना, किन्तु जो आगे कहे गये गुणों से विशिष्ट हैं उन्हें उनका प्रतिक्रमण आदि कराना होता है, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-जो धर्म के प्रेमी हैं, धर्म में दृढ़ हैं, संवेग भाव सहित हैं, पाप से भीरू हैं, शुद्ध आचरण वाले हैं, शिष्यों के संग्रह और अनुग्रह में कुशल हैं और हमेशा ही पापक्रिया की निवृत्ति से युक्त हैं।।१८३।।
गम्भीर हैं, स्थिरचित्त हैं, मित बोलनेवाले हैं, किंचित् कुतूहल करते हैं, चिरदीक्षित हैं, तत्वों के ज्ञाता हैं-ऐसे मुनि आयिकाओं के आचार्य होते हैं।।१८४।।
आचारवृत्ति-प्रिय–इष्ट है उत्तमक्षमादि धर्म अथवा चारित्र जिनको वे प्रियधर्मा हैं अर्थात् उपशम आदि से समन्वित हैं। दृढ़ है धर्म का अभिप्राय जिनका वे दृढ़धर्मा हैं। जो धर्म और उनके फल में हर्ष से सहित हैं वे संविग्न हैं। जो पाप से डरनेवाले हैं वे पापभीरु हैं। जो सब तरफ से शुद्ध आचरणवाले अर्थात् अखण्डित आचरणवाले हैं वे परिशुद्ध हैं।
दीक्षा, शिक्षा, व्याख्यान आदि के द्वारा उपकार करना संग्रह है और उनका प्रतिपालन करना आचार्यपद आदि प्रदान करना अनुग्रह है। जो इन संग्रह और अनुग्रह में निपुण हैं, पात्र–योग्य को ग्रहण करते हैं और ग्रहण किए गये को शास्त्रज्ञान आदि से संयुक्त करते हैं और हमेशा सारक्षण क्रिया अर्थात् पाप क्रिया की निवृत्ति से युक्त रहते हैं अर्थात् संघ के मुनियों की रक्षा में युक्त होते हुए उन्हें हित का उपदेश देते हैं।
जो गुणों से अगाध हैं अर्थात् जिनके गुणों का कोई माप नहीं है, जो किसी से कदर्थित–तिरस्कृत नहीं हैं अर्थात् स्थिरचित्त हैं, जो थोड़ा बोलने वाले हैं, जो अल्प कौतुक करनेवाले हैं–विस्मयकारी नहीं हैं अथवा (कुसलो) कुशलो निपुण: संग्रहानुग्रहकुशल: पात्रभूतं गृþाति गृहीतस्य च शास्त्रादिभि: संयोजनं। सददं–सततं सर्वकालं। सारक्खणाजुत्तो–सहारक्षणेन वर्तत इति सारक्षणा क्रिया पापक्रियानिवृत्तिस्तया युक्त रक्षायां युक्त: हितोपदेशदातेति।।१८३।।
गंभीरो–गुणैरगाधोऽलब्धपरिमाण:। दुद्धरिसो–दुर्धर्षोऽकदर्थ्य: स्थिरचित्त:। मिदवादी–मितं परिमितं वदतीत्येव शीलो मितवादी अल्पवदनशील:। अप्पकोदुहल्लो य–अल्पं स्तोकं कुतूहलं कौतुकं यस्यासावल्पकुतूह-लोऽविस्मयनीयो ऽथवा अल्पगुह्य१ दीर्घस्तब्ध: प्रश्रवादिरहित: चशब्द: समुच्चयार्थ:। चिरपव्वइदो–चिरप्रव्रजित: निर्व्यूढव्रतभारो गुणज्येष्ठ:।
गिहिदत्थो–गृहितो ज्ञातोऽर्थ: पदार्थं स्वरूपं येनासौ गृहीतार्थ: आचारप्रायश्चित्तादिकुशल:। अज्जाणं–आर्याणां संयतीनां। गणधरो–मर्यादोपदेशक: प्रतिक्रमणाद्याचार्य:। होदि–भवति। प्रियधर्मा दृढधर्मा संविग्नोऽवद्यभीरु: परिशुद्ध: संग्रहानुग्रहकुशल: सततं सारक्षणयुक्तो गम्भीरदुर्धर्षमितवाद्यल्पकौतुकचिरप्रव्रजितगृहीतार्थश्च य: स आर्याणां गणधरो भवतीति।।१८४।।
अथान्यथाभूतो यदि स्यात् तदानीं किं स्यादित्यत आह–
एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करेदि अज्जाणं।
चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज।।१८५।।
एवं–अनेन प्रकारेण। एतैर्गुणै:। वदिरित्तो–व्यतिरिक्तो मुक्त:। जदि–यदि। गणधारित्तं–गणधारित्वं प्रतिक्रमणादिकं। करेदि–करोति। अज्जाणं–आर्याणां तपस्विनीनां। चत्तारि–चत्वार:। कालगा–कालका: गणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थकाला आद्या वा विराधिता भवन्तीति वाक्यशेष:। अथवा कलिकाग्रहणेन-प्रायश्चित्तानिपरिगृह्यन्ते चत्वारि प्रायश्चित्तानिच्छेदमूलपरिहारपारंचिकानि। अथवा चत्वारो मासा: कांजिकभक्ताहारेण।
अल्प गुह्य विषय को छिपानेवाले अर्थात् शिष्यों के दोषों को सुनकर उनको अन्य किसी से न बतानेवाले हैं, चिरकाल से दीक्षित हैं अर्थात् व्रतों के भार को धारण करनेवाले हैं, गुणों में ज्येष्ठ हैं, गृहीतार्थ-पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले हैं-आचारशास्त्र और प्रायश्चित्त आदि शास्त्रों में कुशल हैं ऐसे आचार्य आर्यिकाओं की प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को करानेवाले, उनको मर्यादा का उपदेश देनेवाले उनके गणधर होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि उपर्युक्त गुणविशिष्ट आचार्य ही अपने संघ में आर्यिकाओं को रखते हुए उनको प्रायश्चित्त आदि देते हैं।
यदि आचार्य इन गुणों से रहित है और आर्यिकाओं का गणधर बनता है तो क्या होगा ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-इन गुणों से रहित आचार्य यदि आर्यिकाओं का आचार्यत्व करता है तो उसके चार काल विराधित होते हैं और गच्छ की विराधना हो जाती है।।१८५।।
आचारवृत्ति-उपर्युक्त गुणों से रहित मुनि यदि आर्यिकाओं का प्रतिक्रमण आदि सुनकर उन्हें प्रायश्चित्त आदि देनेरूप गणधरत्व करता है तो उसके गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ इन चार कालों की अथवा आदि के चार काल-दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण और आत्मसंस्कार इन चारों कालों की विराधना हो जाती है। अथवा ‘कलिका’ शब्द से प्रायश्चित्तादि का ग्रहण हो जाता है। अर्थात् उस आचार्य को छेद, मूल, परिहार और पारंचिक ऐसे चार प्रायश्चित्त लेने पड़ते हैं।
अथवा उसे चार महीने तक कांजिक भोजन का आहार लेना पड़ता है। तथा ऋषि कुलरूप जो गच्छ–संघ है वह अपना संघ, आदि शब्द से कुल, श्रावक और मिथ्यादृष्टि आदि, इनकी भी विराधना हो जाती है।
अर्थात् गुणशून्य आचार्य यदि से–तस्य आर्यागणधरस्य भवन्तीत्यर्थ:। गच्छादि–गच्छ ऋषिकुलं आदिर्येषां ते गच्छादयस्तेषां, विराहणा–विराधना विनाशो विपरिणामो वा गच्छादिविराधना गच्छात्मगणकुलश्रावकमिथ्यादृष्ट्यादयो विराधिता भवन्तीत्यर्थ: अथवा गच्छात्मविनाश:। होज्ज–भवेत्। पूर्वोक्तगुण व्यतिरिक्तो यद्यार्याणां गणधरत्वं करोति तदानीं तस्य चत्वार: काला विनाशमुपयान्ति, अथवा चत्वारि प्रायश्चितानि लभते गच्छादेर्विराधना च भवेदिति।।१८५।।
ितस्मात्तेन परगणस्थेन यत्तस्याचार्यस्यानुमतं तत्कर्तव्यं सर्वथा प्रकारेणेत्यत: आह–
किंबहुणा भणिदेण दु जा इच्छा गणधरस्स सा सव्वा।
कादव्वा तेण भवे एसेव विधी दु सेसाणं।।१८६।।
किंबहुणा–किं बहुना। भणिदेण दु–भणितेन तु किं बहुनोक्तेन। जा इच्छा–येच्छा योभिप्राय:। गणधरस्स–गणधरस्याचार्यस्य। सा सव्वा–सर्वैव सा कादव्या–कर्तव्या। तेण–पादोष्णेन। भवे–भवेत्। िंक परगणस्थेनैव कर्तव्या नेत्याह। एसेव विधीदु सेसाणं–एष एव इत्थंभूत एव विधिरनुष्ठानं शेषाणां स्वगणस्थानामेकाकिनां समुदायव्यवस्थितानां च। किं बहुनोक्तेन येच्छा गणधरस्य सा सर्वा कर्तव्या भवेत् न केवलमस्य शेषाणामप्येष एव विधिरिति।।१८६।।
यदि यतीनामयं न्याय आर्यिकाणां क इत्यत आह–आर्यिकाओं का पोषण करते हैं तो व्यवस्था बिगड़ जाने से संघ के साधु उनकी आज्ञा पालन नहीं करेंगे। इससे संघ का विनाश हो जायेगा।
तात्पर्य यह हुआ कि पूर्वोक्त गुणों से रहित आचार्य यदि आर्यिकाओं का आचार्य बनता है तो उसके गणपोषण आदि चार काल नष्ट हो जाते हैं अथवा चार प्रकार के प्रायश्चित्त उसे लेने पड़ते हैं और उसके संघ आदि की विराधना-अव्यवस्था हो जाती है।
इसलिए उस परगण में स्थित मुनि को, उन आचार्य को जो इष्ट है सभी प्रकार से वही करना चाहिए, इसी बात को कहते हैं-
गाथार्थ-अधिक कहने से क्या, गणधर की जो भी इच्छा हो वह सभी उसे करनी होती है। यही विधि शेष मुनियों के लिए भी है।।१८६।।
आचारवृत्ति-बहुत कहने से क्या, उस संघ के आचार्य का जो भी अभिप्राय है उसी के अनुसार आगन्तुक मुनि को उनकी सभी प्रकार की आज्ञा पालन करना चाहिए।
क्या परगण में स्थित वह आगन्तुक मुनि ही सभी आज्ञा पाले ? नहीं, ऐसी बात नहीं हैं, किन्तु अपने संघ में एक मुनि अथवा समूहरूप सभी मुनियों के लिए भी यही विधि है अर्थात् संघस्थ सभी मुनि आचार्य की सम्पूर्णतया अनुकूलता रखें ऐसा आदेश है।
यदि मुनियों के लिए ऐसा न्याय है तो आर्यिकाओं के लिए क्या आदेश है ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं- िछेद प्रायश्चित्त की निम्नलिखित गाथा फलटण से प्रकाशित प्रति में अधिक है-
दीक्षादि कालों में यदि कोई एक नष्ट हो जावे, तो उसका प्रायश्चित्त बताते हैं-
आयंबिल णिव्वियडी एयट्ठाणं तहेव खमणं च।
एक्केक्क एकमासं करेदि जदि कालगं एक्कं।।६५।।
अर्थ-दीक्षाकाल आदि छह कालों में से यदि किसी एक-एक काल का विनाश हुआ है तो वह मुनि आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान और उपवास इन चारों में से एक-एक को एक-एक महीना तक करें। एसो अज्जाणंपि अ सामाचारो जहक्खिओ पुव्वं। सव्वह्मि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्गं।।१८७।।
एसो–एष:। अज्जाणंपिय–आर्याणामपि च। सामाचारो–सामाचार:। जहक्खिओ–यथाख्यातो यथा प्रतिपादित:। पुव्वं–पूर्वस्मिन्। सव्वम्मि–सर्वस्मिन्। अहोरत्ते–रात्रौ दिवसे च। विभासिदव्वो–विभाषयितव्य: प्रकटयितव्यो विभावयितव्यो वा। जहाजोग्गं–यथायोग्यं आत्मानुरूपो वृक्षमूलादिरहित:। सर्वस्मिन्नहोरात्रे एषोपि सामाचारो यथायोग्यमार्यिकाणां आर्यिकाभिर्वा प्रकटयितव्यो विभावयितव्यो वा यथाख्यात: पूर्वस्मिन्निति।।१८७।।
वसतिकायां ता: कथं गमयन्ति कालमिति पृष्टेऽत आह–
अण्णोण्णणुकूलाओ अण्णोण्णहिरक्खणाभिजुत्ताओ।
गयरोसवेरमाया-सलज्जमज्जादकिरियाओ ।।१८८।।
अण्णोण्णणुकूलाओ–अन्योन्यस्यानुकूलास्त्यक्तमत्सरा अन्योन्यानुकूला: परस्परत्यक्तमात्सर्या:। अण्णोण्णहिरक्खणाभिजुत्ताओ–अन्योन्यासां परस्पराणामभिरक्षणं प्रतिपालनं तस्मिन्नभियुक्ता उद्युक्ता अन्यो–न्याभिरक्षणाभियुक्ता:। गयरोसवेरमाया–रोषश्च वैरं च माया च रोषवैरमाया: गता विनष्टा रोषवैरमाया यासां ता गतरोषवैरमायास्त्यक्तमोहनीयविशेषक्रोधमारणपरिणामकौटिल्या:।
सलज्जमज्जादकिरियाओ–लज्जा च मर्यादा च क्रिया च लज्जामर्यादक्रिया: सह ताभिर्वर्तन्त इति सलज्जमर्यादक्रिया: लोकापवादादात्मनो भयपरिणामो लज्जा, गाथार्थ-पूर्व में जैसा कहा गया है वैसा ही यह समाचार आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण अहोरात्र में यथायोग्य करना चाहिए।।१८७।।
आचारवृत्ति-पूर्व में जैसा समाचार प्रतिपादित किया है, आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण कालरूप दिन और रात्रि में यथायोग्य-अपने अनुरूप अर्थात् वृक्षमूल, आतापन आदि योगों से रहित वही सम्पूर्ण समाचार विधि आचरित करनी चाहिए।
भावार्थ-इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, संस्तर ग्रहण आदि तथा वे ही औघिक, पदविभागिक समाचार माने गये हैं जो कि यहाँ तक चार अध्यायों में मुनियों के लिए वर्णित हैं। मात्र ‘यथायोग्य’ पद से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तर योगों के करने का अधिकार नहीं है और यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिए पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् विधि-विधान का ग्रन्थ नहीं हैं।
वे आर्यिकाएँ वसतिका में अपना काल किस प्रकार से व्यतीत करती हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-परस्पर में एक दूसरे के अनुकूल और परस्पर में एक दूसरे की रक्षा में तत्पर, क्रोध, वैर और मायाचार से रहित तथा लज्जा, मर्यादा और क्रियाओं से सहित रहती हैं।।१८८।।
आचारवृत्ति-ये आर्यिकाएँ परस्पर में मात्सर्य भाव को छोड़कर एक दूसरे के अनुकूल रहती हैं, परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने में पूर्ण तत्पर रहती हैं, मोहनीय कर्मविशेष के क्रोधभाव, वैरभाव–मारने या बदला लेने के भाव और कौटिल्यभावों से रहित होती हैं।
लज्जा से सहित मर्यादा में रहने वाली और उभयकुल के अनुरूप आचरण क्रिया से सहित होती हैं। लोकापवाद से डरते रहना लज्जागुण है। राग-द्वेष परिणाम से न्याय का उलंघन न करके प्रवृत्ति करना मर्यादा है अर्थात् अनुशासन में बद्ध रहना मर्यादा है। इन रागद्वेषाभ्यां न्यायादनन्यथा वर्तनं मर्यादा, उभयकुलानुरूपाचरणं क्रियते।।१८८।।
पुनरपि ता: कथं विशिष्टा इत्यत आह–
अज्भâयणे परियट्ठे सवणे कहणे तहाणुपेहाए।
तवविणयसंजमेसु य अविरहिदुपओगजोगजुत्ताओ।।१८९।।
अज्झयणे–अध्ययनेऽनधीतशास्त्रपठने। परियट्ठे–परिवर्तने पठितशास्त्रपरिपाट्यां। सवणे–श्रवणे श्रुतस्याश्रुतस्य च शास्त्रस्यावधारणे। कहणे–कथने आत्मज्ञातशास्त्रान्यनिवेदने। अणुपेहाए–अनुप्रेक्षासु श्रुतसर्ववस्तुध्रुवान्यत्वादिचिन्तासु श्रुतस्य शास्त्रस्यानुचिन्तने वा। तवविणयसंजमेसु य–तपश्च विनयश्च संयमश्च तपोविनयसंयमास्तेषु चानशन-प्रायश्चित्तादिक्रियामनोवचनकाया (य) स्तब्धत्वेन्द्रियनिरोधजीववधपरित्यागेषु।
अविरहिद–अविरहिता: स्थिता नित्योद्युक्ता:। उवओग–उपयोग: तात्पर्यं ज्ञानाभ्यास:। १जोग–योगो मनोवचनकायशुभानुष्ठानमेताभ्यां। जुत्ताओ–युक्ता: उपयोग-योगयुक्ता:।।१८९।।
पुनरपि ता: विशेष्यन्ते–
अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ।
धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूपविसुद्धचरियाओ।।१९०।।
अविकारवत्थवेसा–न विद्यते विकारो विकृति: स्वभावादन्यथाभावो वा येषां तेऽविकारा: वस्त्राणि च वेषश्च शरीरादिसंस्थानं च वस्त्रवेषा, अविकारा वस्त्रवेषा यासां ता अविकारवस्त्रवेषा रक्तांकितादिवस्त्रगतिभंगादिभ्रू- लज्जा और मर्यादा से सहित होती हुई अपने पितृकुल और पतिकुल अथवा गुरुकुल के अनुरूप आचरण में तत्पर रहती हैं।
पुनरपि वे किन गुणों से विशिष्ट रहती हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-पढ़ने में, पाठ करने में, सुनने में, कहने में और अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन में तथा तप में, विनय में और संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुई ज्ञानाभ्यास में तत्पर रहती हैं।।१८९।।
आचारवृत्ति-बिना पढ़े हुए शास्त्रों का पढ़ना अध्ययन है। पढ़े हुए शास्त्रों का पुन: पुन: पढ़ना (फेरना) परिवर्तन है। सुने हुए अथवा नहीं सुने हुए शास्त्रों का अवधारण करना श्रवण है। अपने जाने हुए शास्त्रों को अन्य को सुनाना कथन है। सुनी हुई सभी वस्तुओं के ध्रुवान्यत्व–अनित्य आदि का चिन्तवन करना अथवा सुने हुए शास्त्रों का चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा है।
अनशन आदि और प्रायश्चित्त आदि बाह्याभ्यन्तर तप हैं। मन-वचन-काय की स्तब्धता का न होना अर्थात् नम्रता का होना विनय है और इन्द्रिय निरोध तथा जीव-वध का परित्याग करना संयम है। इन अध्ययन आदि कार्यों में जो हमेशा लगी रहती हैं, उपयोग अर्थात् ज्ञानाभ्यास तथा योग अर्थात् मन-वचन-काय का शुभ अनुष्ठान, इन उपयोग और योग से सतत युक्त रहती हैं।
पुन: वे किन विशेषताओं से युक्त होती हैं ?-
गाथार्थ-विकार रहित वस्त्र और वेष को धारण करने वाली, पसीनायुक्त मैल और धूलि से लिप्त रहती हुई वे शरीर संस्कार से शून्य रहती हैं। धर्म, कुल, कीर्ति और दीक्षा के अनुकूल निर्दोष चर्या को करती हैं।।१९०।।
आचारवृत्ति-जिनके वस्त्र, वेष और शरीर आदि के आकार विकृति से रहित, स्वाभाविक-सात्विक हैं, अर्थात् जो रंग-विरंगे वस्त्र, विलासयुक्त गमन और भ्रूविकार, कटाक्ष आदि से रहित वेष को धारण करने वाली हैं। सर्वांग में लगा हुआ पसीना से युक्त जो रज है वह जल्ल है। अंग के एक देश में होने वाला मैल मल विकारादिवेषरहिता:। जल्लं–सर्वांगीनं प्रस्वेदयुक्तं रज:। अंगैकदेशभवं मलं–ताभ्यां विलित्ता–विलिप्ता युक्ता जल्लमलविलिप्ता:।
चत्तदेहाओ–त्यक्तोऽसंस्कृतो देह: शरीरं यासां तास्त्यक्तदेहा:, जल्लमलविलिप्ताश्च तास्त्यक्तदेहाश्च तास्तथाभूता:। धम्म–धर्म:। कुलं–कुलं। कित्ति–कीर्ति:। दिक्खा–दीक्षा। तासां, पडिरूव–प्रतिरूपा सदृशा:। विसुद्धं–विशुद्धा। चरियाओ–चर्यानुष्ठानं यासां ता धर्मकुलकीर्तिदीक्षाप्रतिरूपविशुद्धचर्या: क्षमामार्दवादिमातृपितृकुलात्मय-शोव्रतसदृशाभग्नाचरणा इति।।१९०।।
कथं च तास्तिष्ठन्त्यत आह–
अगिहत्थमिस्सणिलए असण्णिवाए विसुद्धसंचारे।
दो तिण्णि व अज्जाओ बहुगीओ वा १सहत्थंति।।१९१।।
अगिहत्थमिस्सणिलए–गृहे तिष्ठन्तीति गृहस्था: स्वदारपरिग्रहासक्तास्तै:, मिस्स–मिश्रो युक्तो न गृहस्थमिश्रोऽगृहस्थमिश्र: स चासौ निलयश्च वसतिका तस्मिन्नगृहस्थमिश्रनिलये यत्रासंयतजनै: सह सम्पर्को नास्ति तत्र असण्णिवाए–असतां पारदारिकचौरपिशुनदुष्टतिर्यव्âप्रभृतीनां निपातो विनाशोऽभावो यत्र तस्मिन्नसन्निपाते। अथवा सतां यतीनां निपात: प्रसर: सन्निकृष्टता सन्निपात: स न विद्यते यत्र सोऽसन्निपातस्तस्मिन्। अथवा असंज्ञिनां पातो२ऽसंज्ञिपातो बाधारहिते प्रदेशे इत्यर्थ:।
विसुद्धसंचारे–विशुद्ध: संक्लेशरहितो गुप्तो वा संचरणं संचार: मलोत्सर्गप्रदेशयोग्य: गमनागमनार्हो वा यत्र स विशुद्धसंचारस्तस्मिन् बालवृद्धरोगिशास्त्राध्ययनयोग्ये। दो–द्वे। तिण्णि–तिस्र:। अज्जाओ–आर्या: संयतिका:। बहुगीओ वा–वह् व्यो वा त्रिंशच्चत्वारिंशद्वा। सह–एकत्र। अत्थंति–तिष्ठन्ति वसन्तीति।
अगृहस्थमिश्रनिलयेऽसन्निपाते विशुद्धसंचारे द्वे तिस्रो वह्व्यो वार्या अन्योन्यानुकूला: परस्पराभिरक्षणाभियुक्ता गतरोषवैरमाया: कहलाता है। जिनका गात्र इन जल्ल और मल से लिप्त रहता है, जो शरीर के संस्कार को नहीं करती हैं ऐसी ये आर्यिकाएँ क्षमा-मार्दव आदि धर्म, माता-पिता के कुल, अपना यश और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या करती हैं अर्थात् अपने धर्म, कुल आदि के विरुद्ध आचरण नहीं करती हैं।
वे अपने आवास में कैसे रहती हैं ?
गाथार्थ-जो गृहस्थों से मिश्रित न हो, जिसमें चोर आदि का आना-जाना न हो और जो विशुद्ध संचरण के योग्य हो ऐसी वसतिका में दो या तीन या बहुत सी आर्यिकाएँ साथ रहती हैं।।।१९१।।
आचारवृत्ति-जो गृह में रहते हैं वे गृहस्थ कहलाते हैं। जो अपनी पत्नी और परिग्रह में आसक्त हैं उन गृहस्थों से मिश्र वसतिका नहीं होनी चाहिए। जहाँ पर असंयत जनों का संपर्क नहीं रहता है, जहाँ पर असज्जन–परदारालंपट, चोर, चुगलखोर, दुष्टजन और तिर्यंचों आदि का रहना नहीं है अथवा जहाँ पर सत्पुरुष–यतियों की सन्निकटता नहीं है अथवा जहां असंज्ञियों-अज्ञानियों का, पात–आना-जाना नहीं है अर्थात् जो बाधा रहित प्रदेश है, विशुद्धसंचार-जहां पर विशुद्ध–संक्लेशरहित अथवा गुप्त संचार है अर्थात् मल विसर्जन के योग्य गुप्त प्रदेश जहाँ पर विद्यमान है
अथवा जो गमन, आगमन के योग्य अर्थात् जो बाल, वृद्ध और रुग्ण आर्यिकाओं के रहने योग्य है और जो शास्त्रों के स्वाध्याय के लिए योग्य है ऐसा स्थान विशुद्ध संचार कहलाता है। इस प्रकार से गृहस्थों के संपर्क से रहित, दुराचारी जनों के संपर्क से रहित, मुनियों की वसतिका की निकटता से रहित और विशुद्ध संचरण युक्त वसतिका में ये आर्यिकाएँ दो या तीन अथवा तीस या चालीस पर्यन्त भी एक साथ रहती हैं।
तात्पर्य यह हुआ कि ये आर्यिकाएँ उपर्युक्त बाधारहित और सुविधायुक्त वसतिका में कम से कम दो या सलज्जमर्यादक्रिया-
अध्ययनपरिवर्तनश्रवणकथनतपोविनयसंयमेषु अनुप्रेक्षासु च तथास्थिता उपयोगयोगयुक्ताश्चाविकार- वस्त्रवेषा जल्लमलविलिप्तास्त्यक्तदेहा धर्मकूलकीर्तिदीक्षाप्रतिरूपविशुद्धचर्या: सन्त्यस्तिष्ठन्तीति समुदायार्थ:।।१११।।
िंक ताभि: परगृहं न कदाचिदपि गन्तव्यमित्यत: आह–
ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्सगमणिज्जे।
गणिणीमापुच्छित्ता संघाडेणेव गच्छेज्ज।।१९२।।
णय–न च। परगेहं–परगृहं गृहस्थनिलयं यतिनिलयं वा। अकज्जे–अकार्येऽप्रयोजने कारणमन्तरेण। गच्छे–गच्छेयु: यान्ति। कज्जे–कार्ये उत्पन्ने प्रयोजने। अवस्सगमणिज्जे–अवश्यं गमनीयेऽवश्यं गन्तव्ये भिक्षाप्रतिक्रमणादिकाले। गणिणीं–गणिनीं महत्तरिकां। आपुच्छित्ता–आपृच्छ्यानुज्ञां लब्ध्वा। संघाडेणेव–संघाटकेनैवान्याभि: सह। गच्छेज्ज–गच्छेयु: गच्छन्तीति। परगृहं च ताभिर्न मन्तव्यं, िंक सर्वथा नेत्याह अवश्यंगमनीये कार्ये गणिनीमापृछ्य संघाटकेनैव गन्तव्यमिति।।१९२।।
स्ववासे परगृहे वा एता: क्रियास्ताभिर्न कर्तव्या इत्यत आह–
रोदणण्हावणभोयणपयणं सुत्तं च छव्विहारं भे।
विरदाण पादमक्खणधोवणगेयं च ण य कुज्जा।।१९३।।
रोदण–रोदनमश्रुविमोचनं दु:खार्तस्य। ण्हावण–स्नपनं बालादीनां मार्जनं। भोयण–भोजनं तेषामेव बल्भनपानादिक्रिया:। पयणं–पचनं ओदनादीनां पाकनिर्वर्तनं। सुत्तं च–सूत्रं सूत्रकरणं च। छव्विहारम्भे–षट् तीन अथवा अधिकरूप से तीस या चालीस पर्यन्त एकसाथ मिलकर रहती हैं।
ये परस्पर में एक-दूसरे की अनुकूलता रखती हुईं एक-दूसरे की रक्षा के अभिप्राय को धारण करती हुईं; रोष-वैर-माया से रहित लज्जा, मर्यादा और क्रियाओं से संयुक्त; अध्ययन, मनन, श्रवण, उपदेश, कथन, तपश्चरण, विनय, संयम और अनुप्रेक्षाओं में तत्पर रहती हुईं ज्ञानाभ्यास–उपयोग तथा शुभयोग से संयुक्त, निर्विकार वस्त्र और वेष को धारण करती हुई, पसीना और मैल से लिप्त काय को धारण करती हुई, संस्कार–शृंगार से रहित; धर्म, कुल, यश और दीक्षा के योग्य निर्दोष आचरण करती हुई अपनी वसतिकाओं में निवास करती हैं।
क्या इन्हें परगृह में कदाचित् भी नहीं जाना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-बिना कार्य के पर-गृह में नहीं जाना चाहिए और अवश्य जाने योग्य कार्य में गणिनी से पूछकर साथ में मिलकर ही जाना चाहिए।।१९२।।
आचारवृत्ति-आर्यिकाओं के लिए गृहस्थ के घर और यतियों की वसतिकाएँ परगृह हैं। बिना प्रयोजन के आर्यिकाएँ परगृह न जायें। यदि गृहस्थ के यहाँ भिक्षा आदि लेना और मुनियों के यहां प्रतिक्रमण, वन्दना आदि प्रयोजन से जाना है तो गणिनी से पूछकर पुन: कुछ आर्यिकाओं को साथ लेकर ही जाना चाहिए, अकेली नहीं जाना चाहिए।
अपने निवास स्थान में अथवा पर-गृह में आर्यिकाओं को निम्नलिखित क्रियाएँ नहीं करना चाहिए। उन्हें हीं बताते हैं-
गाथार्थ-रोना, नहलाना, खिलाना, भोजन पकाना, सूत कातना, छह प्रकार का आरम्भ करना, यतियों के पैर में मालिश करना, धोना और गीत गाना, आर्यिकाएँ इन कार्यों को नहीं करें।।१९३।।
आचारवृत्ति-दु:ख से पीड़ित को देखकर अश्रु गिराना, बच्चों को नहलाना-धुलाना, उन्हें भोजन-पान आदि कराना, भात आदि पकाना, सूत कातना; असि, मसि, कृषि, व्यापार, शिल्पकला और लेखन क्रिया प्रकारा येषां ते षड्विधास्ते च ते आरम्भाश्चेति षड्विधारम्भा:। असिमषिकृषिवाणिज्यशिल्प-लेखक्रियाप्रारम्भास्तान् जीवघातहेतून्।
विरदाण–विरतानां संयतानां। पादमक्खणधोवण–म्रक्षणं अभ्यङ्गनं धावनं प्रक्षालनं पादयोश्चरणयोर्म्र क्षणधावनं पादम्रक्षणधावनं। गेयं–गीतं च रागपूर्वकं गन्धर्व। णय–न च। कुज्जा–कुर्यु: न कुर्वन्ति। परगृहं गता आर्यिका रोदनस्नपनभोजनपचनसूत्राणि षड्विधारम्भाश्च न कुर्वन्ति, विरतानां पादम्रक्षणधावनं वा न कुर्यु: स्वावासे परवासे वान्याश्च या अयोग्य क्रियास्ता न कुर्वन्त्यपवादहेतुत्वादिति।।१९३।।
अथ भिक्षाचर्यायां कथमवतरन्ति ता इत्यत आह–
तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्णमण्ण रक्खाओ।
थेरीिंह सहंतरिदा भिक्खाय समोदरंति सदा।।१९४।।
तिण्णि व–तिस्रो वा। पंच व–पंच वा। सत्त व–सप्त वा। अज्जाओ–आर्यिका:। अण्णमण्णरक्खाओ–अन्योन्यरक्षायासां ता अन्योन्यरक्षा: परस्परकृतयत्ना:। थेरीिंह–स्थविराभि: वृद्धाभि:। सह–सार्धं। अंतरिदा–अन्तरिता व्यवहिता: काभिर्वृद्धाभिरेवान्यासामश्रुतत्वात्। भिक्खाय–भिक्षायै भिक्षार्थं भिक्षाभ्रमणकाले वोपलक्षणमात्रमेतद् भिक्षाग्रहणं यथा काकेभ्यो दधि रक्षतामिति। समोदरंति–समवतरन्ति सम्यक्पर्यटन्ति। सदा–सर्वकालं। यत्र तासां गमनं भवति तत्रानेन विधानेन नान्येनेति। तिस्र: पंच सप्त वा अन्योन्यरक्षा: स्थविराभि: सहान्तरिताश्च भिक्षार्थं समवतरन्ति सदेति।।१९४।।
आचार्यादीनां च वन्दनां कुर्वन्ति ता: िंक यथा मुनयो नेत्याह–
पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्भâावगो य साधू य।
परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति।।१९५।।
पंचछसत्तहत्थे–पंचषट्सप्तहस्तान्। सूरीअज्झावगोय–सूर्यध्यापकौ चाचार्योपाध्यायौ च। साधूय–साधूश्च। जीवघात के कारणभूत इन छह प्रकार के आरम्भों का करना, संयतों के पैर में तेल वगैरह का मालिश करना, उनके चरणों का प्रक्षालन करना तथा रागपूर्वक गंधर्व गीत गाना इन क्रियाओं को आर्यिकाएँ अपनी वसतिका में या अन्य के गृह में नहीं करें क्योंकि इससे ये क्रियाएँ उनके अपवाद के लिए कारण हैं।
आहार के लिए वे कैसे निकलती हैं? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-तीन या पाँच या सात आर्यिकाएँ आपस में रक्षा में तत्पर होती हुईं, वृद्धा आर्यिकाओं के साथ मिलकर हमेशा आहार के लिए निकलती हैं।।१९४।।
आचारवृत्ति-तीन, पाँच अथवा सात आर्यिकाएँ परस्पर में एक दूसरे की सँभाल रखती हुईं और वृद्धा आर्यिकाओं से अंतरित होती हुई आहार के लिए सम्यक् प्रकार से सर्व काल पर्यटन करती हैं। यहाँ भिक्षा शब्द उपलक्षण मात्र है। जैसे किसी ने कहा-‘कौवे से दही की रक्षा करना’ तो उसका अभिप्राय यह हुआ कि बिल्ली आदि सभी से उसकी रक्षा करना है। उसी प्रकार से यहाँ ऐसा अर्थ लेना कि आर्यिकाओं का जब भी वसतिका से बाहर गमन होता है तब इसी विधान से होता है अन्य प्रकार से नहीं।
तात्पर्य यह है कि आर्यिकाएँ देववंदना, गुरुवंदना, आहार, विहार, नीहार आदि किसी भी प्रयोजन के लिए बाहर जावें तो दो-चार आदि मिलकर तथा वृद्धा आर्यिकायों के साथ होकर ही जावें।
जैसे मुनि आचार्य आदि की वंदना करते हैं, क्या आर्यिकाएँ भी वैसे ही करती हैं ?
नहीं, सो बताते हैं-
गाथार्थ–आर्यिकाएं आचार्य को पाँच हाथ से, उपाध्याय को छह हाथ से और साधु को सात हाथ से दूर रहकर गवासन से ही वंदना करती हैं।।१९५।।
परिहरिऊण–परिहृत्य एतावदन्तरे स्थित्वा। अज्जाओ–आर्या:। गवासणेण–गवासनेन यथा गौरुपविशति तथोपविश्य एवकारोऽवधारणार्थ:। वंदंति–वन्दन्ते प्रणमन्ति। पंचषट्सप्तहस्तैर्व्यवधानं कृत्वा आचार्योपाध्यायौ च साधूंश्च गवासनेनैव वन्दन्ते आर्या नान्येन प्रकारेणेत्यर्थ:। आलोचनाध्ययनस्तुतिभेदात् क्रमभेद इति।।१९५।।
उपंसहारार्थमाह–
एवंविधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ।
ते जगपुज्जं कििंत्त सुहं च लद्धूण सिज्भâंति।।१९६।।
एवंविधाणचरियं–एवंविधां चर्यां एवप्रकारानुष्ठानं। चरंति–आचरन्ति। जे–ये। साधवो य–साधवश्च मुनयश्च। अज्जाओ–आर्या: ते साधव आर्याश्च। जगपुज्जं–जगत: पूजा जगत्पूजा तां जगत्पूजां। कििंत्त–कीर्तिं यश:। सुहं च–सुखं च। लद्धूण–लब्ध्वा। सिज्झंति–सिद्ध्यन्ति। एवंविधानचर्या ये चरन्ति साधव आर्याश्च ते ताश्च जगत्पूजां कीर्तिं सुखं च लब्ध्वा सिद्ध्यन्तीति।।१९६।।
ग्रन्थकर्तात्मगर्वनिरासार्थसमर्पणार्थमाह–
एवं सामाचारो बहुभेदो वण्णिदो समासेण।
वित्थारसमावण्णो वित्थरिदव्वो बुहजणेहिं।।१९७।।
एवं–अनेन प्रकारेण। सामाचारो–समाचार:–आगमप्रसिद्धानुष्ठानं। बहुभेदो–बहवो भेदा यस्यासौ बहुभेदो बहुप्रकारा:। वण्णिदो–वर्णित: कथित:। समासेन–संक्षेपेण। वित्थारसमावण्णो–विस्तारं प्रपंचं समापन्न: प्राप्तो विस्तारयोग्य:। वित्थरियव्वो–विस्तारयितव्य: प्रपंचनीय:। बुहजणेिंह–बुधजनैरागमव्याकरणादिकुशलै:। एवं पूर्वस्मिन् यो बहुभेद: सामाचारोऽभूत् स मया संक्षेपेण वर्णितो यतोऽतो विस्तारयोग्यतत्वाद्विस्तारयितव्यो बुधजनैरिति।
इत्याचारवृत्तौ वसुनन्दिविरचितायां चतुर्थ: परिच्छेद:। आचारवृति-आर्यिकाएँ आचार्य के पास आलोचना करती हैं अत: उनकी वंदना के लिए पाँच हाथ के अंतराल से गवासन से बैठकर नमस्कार करती हैं। ऐसे ही उपाध्याय के पास अध्ययन करना है अत: उन्हें छह हाथ के अंतराल से नमस्कार करतीं हैं तथा साधु की स्तुति करनी होती है अत: वे सात हाथ के अंतराल से उन्हें नमस्कार करती हैं, अन्य प्रकार से नहीं। यह क्रमभेद आलोचना, अध्ययन और स्तुति करने की अपेक्षा से हो जाता है।
अब उपसंहार करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-उपर्युक्त विधानरूप चर्या का जो साधु और आर्यिकाएँ आचरण करते हैं वे जगत् से पूजा को, यश को और सुख को प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं।
टीका का अर्थ सरल है।।१९६।।
अब ग्रंथकर्ता आचार्य अपने गर्व को दूर करने के हेतु और समर्पण हेतु निवेदन करते हैं-
गाथार्थ-इस प्रकार से अनेक भेदरूप समाचार को मैंने संक्षेप से कहा है। बुद्धिमानों को इसका विस्तार स्वरूप जानकर इसे विस्तृत करना चाहिए।।१९७।।
आचारवृत्ति-आगम में प्रसिद्ध अनुष्ठानरूप यह समाचार विविध प्रकार का है, इसे मैंने कहा है। चूँकि यह विस्तार के योग्य है इसलिए आगम और व्याकरण आदि में कुशल बुद्धिमान जनों को इसका विस्तार से विवेचन करना चाहिए।
इस प्रकार से श्री कुन्दकुन्द आचार्य विरचित मूलाचार में वसुनंदि आचार्य द्वारा
विरचित आचारवृत्ति नाम की टीका में चौथा परिच्छेद पूर्ण हुआ।