पिंडशुद्ध्याख्यं षष्ठमाचारं विधातुकामस्तावन्नमस्कारमाह-
तिरदणपुरुगुणसहिदे अरहंते विदिदसयलसब्भावे।
पणमिय सिरिसा वोच्छं समासदो पिण्डसुद्धी दु।।४२०।।
त्रिरत्नानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तानि च तानि पुरुगुणाश्च ते महागुणाश्च ते त्रिरत्नपुरुगुणा:। अथवा त्रिरत्नानि सम्यक्त्वादीनि पुरुगुणा अनन्तसुखादयस्तै: सहितास्तान्। अरहंते अर्हत: सर्वज्ञान् विदितसकलसद्भावान् विदितो विज्ञात: सकल: समस्त: सद्भाव: स्वरूप यैस्तान् परिज्ञातसर्वपदार्थस्वरूपान् प्रणम्य शिरसा, वक्ष्ये समासत: पिण्डशुद्धिमाहारशुद्धिमिति।।४२०।।
यथाप्रतिज्ञं निर्वहन्नाह-
उग्गम उप्पादण एसणं च संजोजणं पमाणं च।
इंगाल धूम कारण अट्ठविहा पिण्डसुद्धी दु।।४२१।।
उद्गच्छत्युत्पद्यते यैरभिप्रायैर्दातृपात्रगतराहारादिस्ते उद्गमोत्पादनदोषा: आहारार्थानुष्ठानविशेषा:। अश्यते भुज्यते येभ्य: पारिवेषकेभ्यस्तेषामशुद्धयोऽशनदोषा:। संयोज्यते संयोजनमात्रं वा संयोजनदोष:। प्रमाणातिरेक: प्रमाणदोष:। अङ्गारमिवाङ्गारदोष:। धूम इव धूमदोष:। कारणनिमित्तं कारणदोष:। एवं एतैरष्टभिर्दोषै रहिताष्टप्रकारा पिण्डशुद्धिरिति संग्रहसूत्रमेतत्।।४२१।।
पिंडशुद्धि नामक छठे आचार को कहने के इच्छुक आचार्य सबसे प्रथम नमस्कार करते हैं-
गाथार्थ-तीन रत्नरूपी श्रेष्ठ गुणों से सहित सकल पदार्थों के सद्भाव को जानने वाले अर्हन्त परमेष्ठी को शिर झुकाकर नमस्कार करके संक्षेप से पिंडशुद्धि को कहूँगा।।४२०।।
आचारवृत्ति-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन रत्न हैं और ये ही पुरुगुण अर्थात् महागुण कहलाते हैं। अथवा सम्यक्त्व आदि तीन रत्न हैं और अनन्त सुख आदि पुरु-महान् गुण हैं।
जो इन तीन रत्न और पुरुगुण से सहित हैं, जिन्होंने समस्त पदार्थों के सद्भाव-स्वरूप को जान लिया है, ऐसे अर्हन्त परमेष्ठी को शिर झुकाकर प्रणाम करके मैं संक्षेप से पिंडशुद्धि-आहार शुद्धि अधिकार को कहूँगा।
अपनी की हुई प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण इस तरह पिंडशुद्धि आठ प्रकार की है।।४२१।।
आचारवृत्ति-दाता में होने वाले जिन अभिप्रायों से आहार आदि उद्गच्छति-उत्पन्न होता है-वह उद्गम दोष है और पात्र में होने वाले जिन अभिप्रायों से आहार आदि उत्पन्न होता है या कराया जाता है वह उत्पादन दोष है।
जिन पारिवेशक-परोसने वालों से भोजन किया जाता है उनकी अशुद्धियाँ अशनदोष कहलाती हैं। जो मिलाया जाता है अथवा किसी वस्तु का मिलाना मात्र ही संयोजना दोष है। प्रमाण का उल्लंघन करना प्रमाणदोष है। जो अंगारों के समान है वह अंगार दोष है, जो धूम के समान है वह धूमदोष है और जो कारण-निमित्त से होता है वह कारणदोष है। इस प्रकार इन आठ दोषों से रहित आठ प्रकार की पिंडशुद्धि होती है। इस तरह यह संग्रहसूत्र है। अर्थात् इस गाथा में संपूर्ण शुद्धियों का संग्रह हो जाता है।
उद्गमदोषाणां नामनिर्देशायाह-
आधाकम्मुद्देसिय अज्झोवज्झे य पूदिमिस्से य।
ठविदे बलि पाहुडिदे पादुक्कारे य कीदे य।।४२२।।
पामिच्छे परियट्टे अभिहडमुभिण्ण१ मालआरोहे।
अच्छिज्जे अणिसट्ठे उग्गमदोसा दु सोलसिमे।।४२३।।
गृहस्थाश्रितं पंचसूनासमेतं तावत्सामान्यभूतमष्टविधपिण्डशुद्धिं बाह्यं महादोषरूपमध:कर्म कथ्यते। आधाकम्म-अध:कर्म निकृष्टव्यापार: षड्जीवनिकायवधकर:। उद्दिश्यते इत्युद्देश: उद्देशे भव औद्देशिक:। अज्झोवज्झे य-अध्यधिसंयतं दृष्ट्वा पाकारम्भ:। पूदि-पूतिरप्रासुकप्रासुकमिश्रणं सहेतुकं।
मिस्सेय-मिश्रश्चासंयतमिश्रणं। ठविदे-स्थापितं स्वगृहेऽन्यगृहे वा। वलिर्निवेद्यं देवार्चना वा। पाहुडियं-प्रावर्तितं कालस्य हानिवृद्धिरूपं। पादुक्कारे य-प्राविष्करणं मण्डपादे: प्रकाशनं। कीदे य-क्रीतं वाणिज्यरूपमिति।।४२२।। तथा-
पामिच्छे-प्रामृष्यं सूक्ष्मर्णमुद्धारकं। परियट्टे-परिवर्तकं दत्वा ग्रहणं। अभिहड-अभिघटो देशान्तरादागत:। उब्भिण्णं-उद्भिन्नं बन्धनापनयनं। मालारोहे-मालारोहणं गृहोर्ध्वमाक्रमणं। अच्छिज्जे-अच्छेद्यं त्रासहेतु:। अणिसट्ठे-अनीशार्थेऽप्रधानदाता। उद्गमदोषा: षोडशेमे ज्ञातव्या:।।४२३।।
उद्गम दोषों के नाम निर्देश हेतु कहते हैं-
गाथार्थ-अध:कर्म महादोष है। औद्देशिक, अध्यधि, पूति, मिश्र, स्थापित, बलि, प्रावर्तित, प्रादुष्कार, क्रीत, प्रामृष्य, परिवर्तक, अभिघट, उद्भिन्न, मालारोह, अच्छेद्य और अनिसृष्ट ये सोलह उद्गम दोष हैं।।४२२-२३।।
आचारवृत्ति-अध:कर्म नाम का एक दोष इन सभी दोषों से पृथक् ही है। जो यह सामान्य रूप आठ प्रकार की पिंडशुद्धि कही गई है, इनसे बाह्य महादोषरूप अध:कर्म कहा गया है, जो कि पाँच सूना से सहित है और गृहस्थ के आश्रित है अर्थात् गृहस्थों के द्वारा ही करने योग्य है। यह अध:कर्म छह जीवनिकायों का वध करने वाला होने से निकृष्ट व्यापार रूप है।
जो उद्देश करके-निमित्त करके किया जाता है अथवा जो उद्देश से हुआ है वह औद्देशिक दोष है। संयत को आते देखकर भोजन पकाना प्रारम्भ करना अर्थात् संयत को देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला देना अध्यधि दोष है। अप्रासुक और प्रासुक वस्तु का सहेतुक मिश्रण करना यह पूतिदोष है। असंयतों से मिश्रण करके-साथ में भोजन कराना मिश्रदोष है। भोजन पकाने वाले पात्र से निकालकर अपने घर में अथवा अन्य के घर में रख देना स्थापित दोष है।
नैवेद्य या देवार्चना के भोजन को आहार में देना बलिदोष है। काल की हानि या वृद्धि करके आहार देना प्रावर्तित दोष है। मंडप आदि का प्रकाशन करना प्रादुष्करण दोष है। खरीदकर लाकर देना क्रीत दोष है।
सूक्ष्म ऋण-कर्जा लेकर अथवा उधार लाकर आहार देना प्रामृष्य दोष है। कोई वस्तु बदले में लाकर आहार में देना परिवर्तक दोष है। अन्य देश से लाया हुआ भोजन देना अभिघट दोष है।
सीढ़ी से-निसैनी से गृह के ऊपरी भाग में चढ़कर लाकर कुछ देना मालारोहण दोष है। त्रासहेतु-डर से आहार देना अच्छेद्य दोष है। अनीशार्थ-अप्रधान दाता के द्वारा दिये हुए भोजन को लेना अनीशार्थ दोष है। ये सोलह उद्गम दोष जानने चाहिए।
गृहस्थाश्रितस्याध:कर्मण: स्वरूपं विवृण्वन्नाह-
छज्जीवणिकायाणं विराहणोद्दावणादिणिप्पण्णं।
आधाकम्मं णेयं सयपरकदमादसंपण्णं।।४२४।।
षड्जीवनिकायानां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिकानां विराधनं दु:खोत्पादनं। उद्दावणं-उद्दवनं मारणं। विराधनोद्दवनाभ्यां निष्पन्नं संजातं विराधनोद्दवननिष्पन्नं यदाहारादिकं वस्तु तदध:कर्म ज्ञातव्यं। स्वकृतं परकृतानुमतं कारितमात्मन: संप्राप्त:। आत्मन: समुपस्थितं। विराधनोद्दवने अध ?:कर्मणी पापक्रिये ताभ्यां यन्निष्पन्नं तदप्यध:कर्मेत्युच्यते।
कार्ये कारणोपचारात्। स्वेनात्मना कृतं परेण कारितं वा परेण वा कृतं, आत्मनानुमतं। विराधनोद्दवननिष्पन्नमात्मने संप्राप्तं यद्वैयावृत्यादिविरहितं तदध:कर्म दूरत: संयतेन परिहरणीयं गार्हस्थ्यमेतत्। वैयावृत्यादिविमुक्तमात्मभोजननिमित्तं पचनं षड्जीवनिकायबधकरं न कर्तव्यं न कारयितव्यमिति। एतत् षट्चत्वारिंशद्दोषबहिर्भूतं सर्वप्राणिसामान्यजातं गृहस्थानुष्ठेयं भावार्थ-ये उद्गम आदि सोलह दोष श्रावक के निमित्त से साधु को लगते हैं।
जैसे श्रावक ने उनके उद्देश्य से आहार बनाया या उनको आते देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला दिया इत्यादि यह सब कार्य यदि श्रावक करता है और मुनि वह आहार जानने के बाद भी ले लेते हैं तो उनके ये औद्देशिक, अध्यधि आदि दोष हो जाते हैं। इसमें प्रारम्भ में जो अध:कर्म दोष बतलाया है वह इन सभी-छ्यालीस दोषों से अलग एक महादोष माना गया है। इन सभी दोषों के लक्षण स्वयं ग्रन्थकार आगे गाथाओं द्वारा कहते हैं।
गृहस्थ के आश्रित होनेवाले अध:कर्म का स्वरूप बतलाते हैं-
गाथार्थ-छह जीव-निकायों की विराधना और मारण आदि से बनाया हुआ अपने निमित्त स्व या पर से किया गया जो आहार है वह अध:कर्म दोष से दूषित है ऐसा जानना चाहिए।।४२४।।
आचारवृत्ति-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन षट्कायिक जीवों की विराधना से- उनको दु:ख उत्पन्न करके या उनका उद्दावन-मारण करके, घात करके जो आहार आदि उत्पन्न हुआ है; जो स्वयं अपने द्वारा बनाया गया है या पर से कराया गया है अथवा पर के द्वारा करने में अनुमोदना दी गयी है, ऐसा जो अपने लिए भोजन बना हुआ है वह अध:कर्म कहलाता है। विराधना और उद्दावन ये अध:कर्म हैं, क्योंकि ये पापक्रिया रूप हैं।
इनसे निष्पन्न हुआ भोजन भी अध:कर्म कहा जाता है। यहाँ पर कार्य में कारण का उपचार किया गया है। जीवों को दु:ख देकर या घात करके जो भोजन अपने लिए बनता है जिसमें अन्य साधुओं की वैयावृत्य आदि कारण नहीं हैं ऐसा अध:कर्म संयतों को दूर से ही छोड़ देना चाहिए, क्योंकि यह गृहस्थों का कार्य है।
अर्थात् वैयावृत्य आदि से रहित, अपने भोजन के निमित्त षट्जीवनिकाय का वध करने वाला ऐसा पकाने का कार्य न स्वयं करना चाहिए और न अन्य से ही कराना चाहिए। यह छ्यालीस दोषों से बहिर्भूत दोष सभी प्राणियों में सामान्यरूप से पाया जाता है और गृहस्थों के द्वारा किया जाता है इसलिए इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। यदि कोई श्रमण इस दोष को करेगा तो वह गृहस्थ ही जैसा हो जावेगा।
प्रश्न-तो पुन: यह दोष किसलिए कहा गया है ?
उत्तर-ऐसा कहना कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्य पाखंडी साधुओं में ये आरम्भकार्य देखे जाते हैं। जैसे उन लोगों के वह आरम्भ अनुष्ठेय-करने योग्य है, इसके विपरीत जैन साधुओं में उसका करना अयोग्य है। इसीलिए इसके करने वाले गृहस्थ होते हैं और फिर साधु तो अनगार हैं और नि:संग हैं, इसलिए उन्हें अध:कर्म का अनुष्ठान नहीं करना चाहिए। इस बात को बतलाने के लिए ही यह अध:कर्म दोष कहा गया है।
सर्वथा मुनिना वर्जनीयं। यद्येतत् कुर्यात्१ श्रवणो गृहस्थ: स्यात्। किमर्थमेतदुच्यत इति चेन्नैष दोष:, अन्येषु पाखण्डि-
ष्वध्यासकर्मणो दर्शनाद्यथा२ तेषां तदनुष्ठेयं तथा साधूनां तदनुष्ठानमयोग्यं तेन गृहस्था:। साधव: पुनरनागार निसंगा यतो अतो नानुष्ठेयमध:कर्मेति ज्ञापनार्थमेतदिति।।४२४।।
उद्गमदोषाणां स्वरूपं प्रतिपादयन् विस्तरसूत्राण्याह-
देवदपासंडट्ठं किविणट्ठं चावि जंतु उद्दिसियं।
कदमण्णसमुद्देसं चदुव्विहं वा समासेण।।४२५।।
अध:कर्मण: (पश्चात्) औद्देशिक सूक्ष्मदोषमपि परिहर्तुकाम: प्राह-देवता नागयक्षादय:, पाषण्डा जनदर्शनबहिर्भूतानुष्ठाना लिंगिन: कृपणका दीनजना:। देवतार्थं पाखण्डार्थं कृपणार्थं चोद्दिश्य यत्कृतमन्नं तन्निमित्तं निष्पन्नं भोजनं तदौद्देशिकं अथवा चतुर्विधं सम्यगौद्देशिकं समासेन जानीहि वक्ष्यमाणेन न्यायेन।।४२५।।
भावार्थ-प्रश्न यह होता है कि जब यह षट्जीवनिकायों को बाधा देकर या घात करके आरम्भ द्वारा भोजन स्वत: बनाया जाता है अथवा अन्य किसी से कराया जाता है उसे आपने अध:कर्म कहा तो कोई भी दिगम्बर मुनि या आर्यिकाएँ यह दोष करेंगे ही नहीं और यदि करेंगे तो वे गृहस्थ ही हो जायेंगे।
पुन: साधु के लिए यह दोष कहा ही क्यों है ? उसका उत्तर आचार्य ने दिया है कि अन्य पाखण्डी साधु नाना तरह के आरम्भ करते हैं। उनकी देखादेखी अगर कोई दिगम्बर साधु भी ऐसा करने लग जावें तो वे इस दोष के भागी हो जावेंगे और ऐसा निषेध करने से ही तो नहीं करते हैं ऐसा समझना।
दूसरी बात यह है कि यदि साधु अन्य साधुओं की वैयावृत्ति आदि के निमित्त औषधि या आहार बनाने के लिए कदाचित् श्रावक से कह भी देता है अर्थात् आहार बनवाता भी है तो भी वह अध:कर्म दोष का भागी नहीं होता है। क्योंकि यहाँ पर वैयावृत्ति से अतिरिक्त यदि मुनि स्वयं के आहार हेतु आरम्भ करता या कराता तो अध:कर्म है ऐसा स्पष्ट किया है।
‘भगवती आराधना’ में समाधि में स्थित साधुओं की परिचर्या में अड़तालीस साधुओं की व्यवस्था बतलाई गयी है। इनमें चार मुनि क्षपक के लिए उद्गमादि दोष रहित भोजन के लिए तथा चार मुनि उद्गमादि दोष रहित पान के लिए नियुक्त होते हैं।
इससे यह प्रतीत होता है कि जब तक क्षपक का शरीर आहार-ग्रहण के योग्य है, पान-ग्रहण के योग्य है किन्तु अतीव कृश हो चुका है, तब तक उनके भोजन-पान की व्यवस्था भिक्षा में सहायक ये चार-चार मुनि करते हैं। वह उनकी वैयावृत्य है और वैयावृत्य में श्रावक के यहाँ ऐसी व्यवस्था कराने में भाग लेने वाले साधु वैयावृत्य-कारक होने से दोष के भागी नहीं है।
हाँ, यदि वे अपने लिए कृत-कारित-अनुमोदना से कोई व्यवस्था श्रावक के माध्यम से बनावें तो वह अध:कर्म दोष का भागी है जो कि सर्वथा त्याज्य है। विशेष जिज्ञासु ‘भगवती आराधना’ (गाथा ६५ से ९२) का अवलोकन करें।
अब उद्गम दोषों के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए विस्तार से कहते हैं-
गाथार्र्थ-देवता के और पाखण्डी के लिए या दोनों के लिए जो अन्न तैयार किया जाता है वह औद्देशिक है अथवा संक्षेप से चार प्रकार का समुद्देश होता है।।४२५।।
आचारवृत्ति-अब अध:कर्म के पश्चात् औद्देशिक दोष को कहते हैं। यद्यपि यह सूक्ष्मदोष है तो भी इसके परिहार करने की इच्छा से आचार्य कहते हैं-नागयक्ष आदि को देवता कहते हैं। जैन दर्शन से बहिर्भूत अनुष्ठान करने वाले जो अन्य भेषधारी लिंगी हैं वे पाखण्डी कहलाते हैं। दीनजनों को-दु:खी, अंधे-लंगड़े आदि को कृपण कहते हैं। इन देवताओं के लिए, पाखण्डियों के लिए और कृपणों को उद्देश्य करके तमेव चतुर्विधं प्रतिपादयन्नाह-
जावदियं उद्देसो पासंडोत्ति य हवे समुद्देसो।
समणोत्ति य आदेसो णिग्गंथोत्ति य हवे समादेसो।।४२६।।
यावान् कश्चिदागच्छति तस्मै सर्वस्मै दास्यामीत्युद्दिश्य यत्कृतमन्नं स यावानुद्देश इत्युच्यते। ये केचन पाखण्डिन आगच्छन्ति भोजनाय तेभ्य: सर्वेभ्यो दास्यामीत्युद्दिश्य कृतमन्नं स पाखण्डिन इति च भवेत्समुद्देश:। ये केचन श्रवणा आजीवकतापसरक्तपटपरिव्राजकाश्छात्रा वागच्छन्ति भोजनाय तेभ्य: सर्वेभ्योऽहमाहारं दास्यामीत्युद्दिश्य कृतमन्नं स श्रवण इति कृत्वादेशो भवेत्। ये केचन निर्ग्रन्था: साधव आगच्छन्ति तेभ्य: सर्वेभ्यो दास्यामीत्युद्दिश्य कृतमन्नं निर्ग्रन्था इति च भवेत्समावेश:। सामान्यमुद्दिश्य पाषण्डानुद्दिश्य श्रवणानुद्दिश्य निर्ग्रन्थानुद्दिश्य यत्कृतमन्नं तच्चतुर्विधमौद्देशिकं भवेदन्नमिति। उद्देशेन निर्वर्तितमौद्देशिकमिति।।४२६।।
अध्यधिदोषस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-
जलतंदुलपक्खेवो दाणट्ठं संजदाण १सयपयणे।
अज्झोवज्झं अहवा पागं तु जाव रोहो वा।।४२७।।
अर्थात् इनके निमित्त से बनाया गया जो भोजन है वह औद्देशिक है। अथवा आगे कहे गये न्याय से संक्षेप से समीचीन औद्देशिक चार प्रकार का होता है।
उन्हीं चार भेदों को प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-हर किसी को उद्देश्य करके बनाया गया अन्न उद्देश है, पाखण्डियों को निमित्त करके समुद्देश है, श्रमण को निमित्त करके आदेश और निर्ग्रन्थ को निमित्त कर समादेश होता है।।४२६।।
आचारवृत्ति-जो कोई भी आयेगा उन सभी को मैं दे दूंगा ऐसा उद्देश्य करके बनाया गया जो अन्न है वह उद्देश कहलाता है। जो भी पाखण्डी लोग आयेंगे उन सभी को मैं भोजन कराऊंगा ऐसा उद्देश्य करके बनाया गया भोजन समुद्देश कहलाता है। जो कोई श्रवण अर्थात् आजीवक, तापसी, रक्तपट-बौद्ध साधु परिव्राजक या छात्र जन आयेंगे उन सभी को मैं आहार देऊँगा, इस प्रकार से श्रमण के निमित्त बनाया हुआ अन्न आदेश कहलाता है।
जो कोई भी निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु आयेंगे उन सभी को मैं देऊँगा ऐसा मुनियों को उद्देश्य कर बनाया गया आहार समादेश कहलाता है। तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य को उद्देश्य करके, पाखण्डियों को उद्देश्य करके, श्रवणों को निमित्त करके और निर्ग्रन्थों को निमित्त करके बनाया गया जो भोजन है वह चार प्रकार का औद्देशिक अन्न है। चूंकि उद्देश से बनाया गया है इसलिए यह ओद्देशिक कहलाता है।
भावार्थ-ऐसे औद्देशिक अन्न को जानकर भी जो मुनि ले लेते हैं, वे इस दोष से दूषित होते हैं। यदि वे मुनि कृत-कारित-अनुमोदना और मन-वचन-काय इन तीनों से गुणित (३²३·९) नव कोटि से रहित रहते हैं तो उन्हें यह दोष नहीं लगता है। श्रावक अतिथिसंविभाग व्रत का पालन करते हुए सामान्यतया शुद्ध भोजन बनाता है और मुनियों को पड़गाहन करके आहार देता है। तथा साधु भी अपने आहार हेतु कृत-कारित आदि नवभेदों को न करते हुए आहार लेते हैं वही निर्दोष आहार है।
अध्यधि दोष का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ- मुनियों के दान के लिए अपने पकते हुए भोजन में जल या चावल का और मिला देना यह अध्यधि दोष है। अथवा भोजन बनने तक रोक लेना यह भी अध्यधि दोष है।।४२७।।
जलतंदुलानां प्रक्षेप: दानार्थं, संयतं१ दृष्ट्वा स्वकीयपचने संयतानां दानार्थं स्वस्य निमित्तं यज्जलं पिठरे निक्षिप्तं तंदुलाश्च स्वस्य निमित्तं ये स्थापितास्तस्मिन् जलेऽन्यस्य जलस्य प्रक्षेप: तेषु च तंदुलेष्यन्येषा तंदुलानां प्रक्षेपणं यदेवंविधं तदध्यधि दोषरूपं ज्ञेयं। अथवा पाको यावता कालेन निष्पद्यते तस्य कालस्य रोधस्तावन्तं कालमासीन उदीक्षत एतदध्यधि दोषजातमिति।।४२७।।
पूतिदोषस्वरूपं निगदन्नाह-
अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्वं तु पूविकम्मं तं।
चुल्ली उक्खलि दव्वी भायणगंधत्ति पंचविहं।।४२८।।
प्रासुकमप्यप्रासुकेन सचित्तादिना मिश्रं यदाहारादिकं स पूतिदोष:। प्रासुकद्रव्यं तु पूतिकर्म यत्तदपि पूतिकर्म, पंचप्रकारं चुल्ली रन्धनी। उक्खलि उदूखल:। दव्वी-दर्वी। भायण-भाजनं। गन्धत्ति-गंध-इति। अनेन प्रकारेण रन्धन्युदूखलदर्वीभाजनगन्धभेदेन पंचविधं। रन्धनीं कृत्वैव महानस्यां रन्धन्यामोदनादिक निष्पाद्य साधुभ्यस्तावद्दास्यामि पश्चादन्येभ्य इति प्रासुकमपि द्रव्यं पूतिकर्मणा निष्पन्नमिति पूतीत्युच्यते।
तथोदूखलं कृत्वैवमस्मिन्नुदूखले चूर्णयित्वा यावदृषिभ्यो न दास्यामि तावदात्मनोऽन्येभ्यश्च न ददामीति निष्पन्नं प्रासुकमपि तत् तथाऽनया दर्व्या यावद्यतिभ्यो न दास्यामि तावदात्मनोऽन्येषां न तत्द्योग्यमेतदपि पूति। तथा भाजनमप्येतद्यावदृषिभ्यो न ददामि तावदात्मनोऽयेषां च न तद्योग्यमिति पूति। तथायं गन्धो यावदृषिभ्यो न दीयते भोजनपूर्वकस्तावदात्मनोऽन्येषां च न कल्पते इत्येवं हेतुना निष्पन्नमोदनादिकं पूतिकर्म। तत्पंचप्रकारं दोषजातं प्रथममारम्भकरणादिनि।।४२८।।
आचारवृत्ति-अपने निमित्त बटलोई आदि पात्र में जो जल चढ़ाया है या अपने निमित्त जो चावल चूल्हे पर चढ़ाये हैं, संयतों को आते हुए देखकर उनके दान के लिए उस जल में और अधिक जल डाल देना या चावल में और अधिक चावल मिला देना यह अध्यधि नाम का दोष है। अथवा जब तक भोजन तैयार होता है तब तक उन्हें रोक लेना, तब तक वे मुनि बैठे हुए प्रतीक्षा करते रहें अर्थात् किसी हेतु से उन्हें रोके रखना यह भी अध्यधि दोष है।
पूतिदोष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-अप्रासुक द्रव्य से मिश्र हुआ प्रासुकद्रव्य भी पूतिकर्म दोष से दूषित हो जाता है। यह चूल्हा, ओखली, कलछी या चम्मच, बर्तन और गन्ध के निमित्त ये पाँच प्रकार का है।।४२८।।
आचारवृत्ति-प्रासुक भी आहार आदि यदि अप्रासुक-सचित्त आदि से मिश्रित हैं तो वे पूतिदोष से दूषित हो जाते हैं। इस पूतिकर्म के पाँच प्रकार हैं। चूल्हा, ओखली, कलछी, बर्तन और गन्ध। इस नये चूल्हे या सिगड़ी आदि में भात आदि बनाकर पहले मुनियों को दूँगा पश्चात् अन्य किसी को दूँगा इस प्रकार प्रासुक भी भात आदि द्रव्य पूतिकर्म अप्रासुक रूप भाव से बनाया हुआ होने से पूति कहलाता है।
ऐसे ही, इस नयी ओखली में कोई चीज चूर्ण करके जब तक मुनियों को नहीं दूँगा तब तक अन्य किसी को नहीं दूँगा और न मैं ही अपने प्रयोग में लूँगा, इस प्रकार से बनाई हुई वह प्रासुक भी वस्तु अप्रासुक हो जाती है। इसी तरह इस कलछी या चम्मच से जब तक यतिओं को नहीं दे दूँगा तब तक अपने या अन्य के प्रयोग में नहीं लूँगा, यह भी पूति दोष है तथा बर्तनों में भी इस नये बर्तन से जब तक ऋषियों को न दे दूँगा तब तक अपने या अन्यों के लिए नहीं लूँगा।
इसी तरह कोई सुगन्धित वस्तु है उस विषय में भी ऐसा सोचना कि जब तक यह सुगन्ध वस्तु मुनियों को आहार में नहीं दे दूँगा तब तक अपने या अन्य के प्रयोग में नहीं लूँगा। इन पाँच हेतुओं से बने हुए भात आदि भोज्य पदार्थ पूतिकर्म कहलाते हैं। यदि मुनि ऐसे भोजन को ग्रहण कर लेते हैं तो उन्हें पूतिदोष लगता है, क्योंकि इन पांचों प्रकारों में प्रथम आरम्भ दोष किया जाता है अत: दोष है। मिश्रदोषस्वरूपं निरूपयन्नाह-
पासंडेहि य सद्धं सागारेहिं य जदण्णमुद्दिसियं।
दादुमिदि संजदाणं सिद्धं मिस्सं वियाणाहि।।४२९।।
प्रासुकं सिद्धं निष्पन्नमपि यदन्नमोदनादिकं पाषण्डै: सार्धं सागारै: सह गृहस्थैश्च सह संयतेभ्यो दातुमुद्दिष्टं तं मिश्रदोषं विजानीहि। स्पर्शनादिनानादरादिदोषदर्शनादिति।।४२६।।
स्थापितदोषस्वरूपमाह-
पागादु भायणाओ अण्णाह्मि य भायणह्मि पक्खविय।
सघरे व परघरे वा णिहिदं ठविदं वियाणाहि।।४३०।।
पाकाद्भाजनात् पाकनिमित्तं यद्भाजनं यस्मिन् भाजने पाको व्यवस्थितस्तस्माद्भाजनात् पिठरादोदनादिकमन्यस्मिन् भाजने पात्र्यादौ प्रक्षिप्य व्यवस्थाप्य स्वगृहे परगृहे वा नीत्वा निहितं स्थापितं यत् स्थापितमितिदोषं जानीहि। सभयेन दात्रा दीयमानत्वाद्विरोधादिदोषदर्शनाद्वेति।।४३०।।
बलिदोषस्वरूपं निरूपयन्नाह-
जक्खयणागादीणं बलिसेसं१ स बलित्ति पण्णत्तं।
संजदआगमणट्ठं बलियकम्मं वा बलिं जाणे।।४३१।।
यक्षनागादीनां निमित्तं यो बलि२स्तस्य बलि (ले:) शेष: स बलिशेषो बलिरिति प्रज्ञप्त:। सर्वत्र कारणे कार्योपचारात्। मिश्र दोष का स्वरूप बतलाते हैं-
गाथार्थ- पाखण्डियों और गृहस्थों के साथ संयत मुनियों को जो सिद्ध हुआ अन्न दिया जाता है उसे मिश्र जानो।।४२९।।
आचारवृत्ति-जो ओदन आदि अन्न प्रासुक भी बना हुआ है किन्तु यदि दाता पाखण्डी साधुओं के साथ या गृहस्थों के साथ मुनियों को देता है तो उसे मिश्र दोष जानो। ऐसा इसलिए कि उनके साथ आहार देने से उनका स्पर्श आदि हो जाने से आहार अशुद्ध हो जावेगा तथा संयमी मुनियों को और उनको साथ देने से उनका अनादर भी होगा, इत्यादि दोष होने से ही यह दोष माना गया है।
स्थापित दोष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ- पकाने वाले बर्तन से अन्य बर्तन में निकालकर, अपने घर में या अन्य के घर में रखना यह स्थापित दोष है ऐसा जानो।।४३०।।
आचारवृत्ति-जिस बर्तन में भात आदि आहार बनाया है उस बर्तन से अन्य बर्तन में रखकर अपने घर में (रसोईघर से अन्यत्र) अथवा पर के घर में ले जाकर रख देना यह स्थापित दोष है। अर्थात् जो दाता उसे उठाकर देगा वह उस रखने वाले से डरते हुए देगा अथवा कदाचित् जिसने अन्यत्र रखा था वह विरोध भी कर सकता है इत्यादि दोष होने से ही यह दोष माना गया है।
बलि दोष का स्वरूप निरूपित करते हैं-
गाथार्थ-यक्ष, नाग आदि के लिए नैवद्य में जो शेष बचा वह बलि कहा गया है। अथवा संयतों के आने के लिए बलिकर्म करना बलिदोष जानो।।४३१।।
आचारवृत्ति-यक्ष, मणिभद्र आदि अथवा नाग आदि देवों के निमित्त जो नैवेद्य बनाया है उसे बलि संयतानामागमनार्थं वा बलिकर्म तं बलिं विजानीहि। संयतान् धृत्वार्चनादिकमुदकक्षेपणं पत्रिकादिखण्डनं यत् यक्षादिबलिशेषश्च यस्तं बलिदोषं विजानीहि सावद्य दोषदर्शनादिति।।४३१।।
प्राभृतदोषस्वरूपं विवृण्वन्नाह-
पाहुडिहं पुण दुविहं बादर सुहुमं च दुविहमेक्केक्कं।
ओकस्सणमुक्कस्सण महकालोवट्टणावड्ढी।।४३२।।
पाहुडियं-प्रावर्तितं। पुण-पुन:। दुविहं-द्विविधं। बादरं-स्थूलं। सुहुमं-सूक्ष्मं। पुनरप्येवैâकं द्विविधं। ओक्कस्सणं-अपकर्षणं। उक्कस्सणं-उत्कर्षणं। अथवा कालस्य हानिर्वृद्धिर्वा। अपकर्षणं कालहानि:। उत्कर्षणं कालवृद्धिरिति। स्थूलं प्राभृतं कालहानिवृद्धिभ्यां द्विप्रकारं तथा सूक्ष्मप्राभृतं तदपि द्विप्रकारं कालवृद्धिहानिभ्यामिति।।४३२।।
बादरं च द्विविधं सूक्ष्मं च द्विविधं निरूपयन्नाह-
दिवसे पक्खे मासे वास परत्तीय बादरं दुविहं।
पुव्वपरमज्झबेलं परियत्तं दुविहसुहुमं च।।४३३।।
संज्ञा है। उसमें से कुछ शेष बचे हुए को भी बलि कहते हैं। यहाँ सर्वत्र कारण में कार्य का उपचार किया गया है। ऐसा शेष बचा नैवेद्य यदि मुनि को आहार में दे देवें तो वह बलिदोष है। अथवा संयतों के आने के लिए बलिकर्म करना अर्थात् ‘यदि आज मेरे घर में मुनि आहार को आ जावेंगे तो मैं यक्ष को अमुक नैवेद्य चढ़ाऊँगा’ इत्यादि रूप से संकल्प करना बलिकर्म है। ऐसा करके आहार देने से भी बलि नाम का दोष होता है।
संयतों का पड़गाहन करके अर्चन आदि करना, जल-क्षेपण करना, पत्रिकादि का खण्डन करना आदि, तथा यक्षादि की पूजा से बचा हुआ नैवेद्य आहार में देना यह सब बलिदोष है क्योंकि इसमें सावद्य दोष देखा जाता है।
भावार्थ-यहाँ पर संयतों को पड़गाहन करके अर्चन आदि करना, जल-क्षेपण करना आदि दोष बतलाया है तथा संयत का पड़गाहन कर नवधा-भक्ति में उच्चासन देना, तत्पश्चात् पाद प्रक्षालन करना; जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्घ्य से पूजन करना आदि भी आवश्यक है।
सो यहाँ ऐसा अर्थ करना चाहिए कि संयतों के आने के बाद तत्काल सावद्य कार्य जैसे फूल तोड़ना, दीप जलाना आदि नहीं करना चाहिए। पहले से ही सब अष्टद्रव्य सामग्री तैयार रखनी चाहिए, क्योंकि पड़गाहन के बाद, उच्चासन पर बिठाकर, पाद-प्रक्षालन करके पुन: अष्टद्रव्य से अर्चना करना नवधाभक्ति है। वर्तमान में भी यही विधि अपनायी जाती है।
प्राभृत दोष का स्वरूप बतलाते हैं-
गाथार्थ-प्राभृत के दो भेद हैं-बादर और सूक्ष्म। एक-एक के भी दो-दो भेद हैं-अपकर्षण और उत्कर्षण अथवा काल की हानि और वृद्धि करना।।४३२।।
आचारवृत्ति-प्राभृत दोष के बादर और सूक्ष्म दो भेद हैं। उनमें भी बादर प्राभृत के काल की हानि और वृद्धि की अपेक्षा दो प्रकार हैं और सूक्ष्म के भी काल की हानि और वृद्धि से भी दो प्रकार हो जाते हैं।
दो प्रकार के बादर और दो प्रकार के सूक्ष्म दोषों का निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-दिवस, पक्ष, महिना और वर्ष का परावर्तन करके आहार देने से बादर दोष दो प्रकार है। इसी प्रकार पूर्व, अपर तथा मध्य की बेला का परावर्तन करके देने से सूक्ष्म दोष दो प्रकार का होता है।।४३३।।
परावृत्यशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते, दिवसं परावृत्य, पक्षं परावृत्य, मासं परावृत्य, वर्षं परावृत्य यद्दानं दीयते तद्बादरं प्राभृतं द्विविधं भवति। शुक्लाष्टम्यां वा दास्यामीति स्थितं१ उत्कृष्टा-(उत्कर्ष्या) ष्टभ्यां ददात्येतद्दिवसं परावृत्य जातं प्राभृतं तथा चैत्रशुक्लपक्षे देयं यत्तच्चैत्रांधकारपक्षे ददाति। अन्धकारपक्षे वा देयं शुक्लपक्षे ददाति पक्षपरावृत्तिजातं प्राभृतं। तथा चैत्रमासे देयं फाल्गुने ददाति फाल्गुने देयं वा चैत्रे ददाति तन्मासपरिवृत्तिजातं प्राभृतं।
तथा परुत्तने वर्षे देयं यत्तदधुनातने वर्षे ददाति। अधुनातने वर्षे यदिष्टं परुत्तने ददाति तद्वर्षपरावृत्तिजातं प्राभृतं। तथा सूक्ष्मं च प्रावर्तितं द्विविधं पूर्वाण्हवेलायामपराण्हवेलायां मध्याह्नवेलायामिति। अपराण्हवेलायां दातव्यमिति स्थितं प्रकरणं मंगलं संयतागमनादि-कारणेनापकृष्य पूर्वाण्हवेलायां ददाति पूर्वाण्हवेलायां दातव्यमित्युत्कृष्यापराण्हवेलायां ददाति तथा मध्याह्ने दातव्यमिति स्थित पूर्वाण्हे अपराण्हे वा ददाति एनं प्रावर्तितदोषं कालहानिवृद्धिपरिवृत्त्या बादरसूक्ष्मभेदभिन्नं जानीहि क्लेशबहुवि२घातारंभदोषदर्शनादिति ।।४३३।।
प्रादुष्कारदोषमाह-
पादुक्कारो दुविहो संकमण पयासणा य बोधब्वो।
भायणभोयणदीणं३ मंडवविरलादियं कमसो।।४३४।।
प्रादुष्कारो द्विविधो बोधव्यो ज्ञातव्य:। भाजनभोजनादीनां संक्रमणमेक:। तथा भाजनभोजनादीनां प्रकाशनं द्वितीय:। आचारवृत्ति-‘परावर्तन करके’ यह शब्द प्रत्येक के साथ सम्बन्धित करना चाहिए। अर्थात् दिवस का परावर्तन करके, पक्ष का परावर्तन करके, मास का परावर्तन करके और वर्ष का परावर्तन करके जो आहार दान दिया जाता है वह बादर प्राभृत हानि और वृद्धि की अपेक्षा दो प्रकार का हो जाता है।
जैसे शुक्ला अष्टमी में देना था किन्तु उसको अपकर्षण करके-घटा करके शुक्ला पंचमी के दिन जो दान दिया जाता है अथवा शुक्ला पंचमी को दूँगा ऐसा संकल्प किया था पुन: उसका उत्कर्षण करके-बढ़ा करके शुक्ला अष्टमी को देना आदि सो यह दिवस का परिवर्तन हुआ। वैसे ही चैत्र के शुक्ल पक्ष में देना था किन्तु चैत्र के कृष्णपक्ष में जो देता है अथवा कृष्ण पक्ष में देने योग्य को शुक्ल पक्ष में देता है सो यह पक्ष परिवर्तन दोष है।
तथा चैत्र मास में देना था सो फाल्गुन में दे देता है अथवा जो फाल्गुन में देना था उसे चैत्र में देता है सो यह मास परिवर्तन नाम का दोष है। तथा गतवर्ष में देना था सो वर्तमान वर्ष में देता है और वर्तमान वर्ष में जो देना इष्ट था सो पूर्व के वर्ष में दे दिया जाना सो यह वर्ष परिवर्तन नाम का दोष है।
उसी प्रकार से सूक्ष्मप्राभृत भी दो प्रकार का है। अपराह्न वेला में देने योग्य ऐसा कोई मंगल प्रकरण था किन्तु संयत के आगमन आदि के कारण से उस काल का अपकर्षण करके पूर्वाह्न वेला में आहार दे देना, वैसे ही मध्याह्न में देना था किन्तु पूर्वाह्न अथवा अपराह्न में दे देना सो यह सूक्ष्मप्राभृत दोष काल की हानि-वृद्धि की अपेक्षा दो प्रकार का हो जाता है इसे प्रावर्तित दोष भी कहते हैं। चूंकि इसमें काल की हानि और वृद्धि से परिवर्तन किया जाता है। इस तरह आहार देने में दातार को क्लेश, बहुविघात और बहुत आरम्भ आदि दोष देखे जाते हैं अत: यह दोष है।
प्रादुष्कार दोष को कहते हैं-
गाथार्थ- संक्रमण और प्रकाशन ऐसे प्रादुष्कार दो प्रकार का जानना चाहिए, जो कि भाजन, भोजन आदि का और मण्डप का उद्योतन करना आदि है।।४३४।।
आचारवृत्ति-प्रादुष्कार के दो भेद जानना चाहिए। बर्तन और भोजन आदि का संक्रमण करना यह संक्रमणमन्यस्मात्प्रदेशादन्यत्र नयनं, प्रकाशनं भाजनादीनां भस्मादिनोदकादिना वा निर्मार्जनं, भाजनादेर्वा विस्तरणमिति। अथवा मण्डपस्य विरलनमुद्योतनं मण्डपादिविरलनं। आदिशब्देन कुड्यादिकस्य ज्वलनं प्रदीपद्योतनमिति संक्रम: सर्व: प्रादुष्कारो दोषोऽयं। ईर्यापथदोषदर्शनादिति।।४३४।।
क्रीततरदोषमाह१-
कीदयडं पुण दुविहं दव्वं भावं च सगपरंदुविहं।
सच्चित्तादी दव्वं विज्जामंतादि भावं च।।४३५।।
क्रीततरं पुनर्द्विविधं द्रव्यं भावश्च। द्रव्यमपि द्विविधं स्वपरभेदेन स्वद्रव्यं परद्रव्यं स्वभाव: परभावश्च। सचित्तादिकं गोमहिष्यादिकं द्रव्यं। विद्यामंत्रादिकं च भाव:। संयते भिक्षायां प्रविष्टे स्वकीयं परकीयं वा सचित्तादिद्रव्यं दत्त्वाहारं२ प्रगृह्य ददाति तथा स्वमंत्रं वा स्वविद्यां परविद्यां वा दत्त्वाहारं प्रगृह्य ददाति यत् स क्रीतदोष: कारुण्यदोषदर्शनादिति। प्रज्ञप्त्यादिर्विद्या। चेटकादिर्मंत्र इति।।४३५।।
ऋणदोषस्वरूपमाह-
डहरियरिणं तु भणियं पामिच्छं ओदणाविअण्णदरं।
तं पुण दुविहं भणिदं सवड्ढियमवड्ढियं चावि।।४३६।।
एक भेद है तथा बर्तन व भोजन आदि का प्रकाशन करना यह दूसरा भेद है। किसी भी बर्तन या भोजन आदि को एक स्थान से अन्य स्थान पर ले जाना यह तो संक्रमण कहलाता है तथा बर्तनों को भस्म आदि से मांजना या जल आदि से धोना अथवा बर्तन आदि का विस्तरण करना-उन्हें फैलाकर रख देना यह प्रकाशन कहलाता है।
अथवा मण्डप का उद्योतन करना अर्थात् मण्डप वगैरह खोल देना आदि शब्द से दीवाल वगैरह को उज्ज्वल करना अर्थात् लीप-पोत कर साफ करना, दीपक जलाना, यह सब प्रादुष्कार नाम का दोष है क्योंकि इन सभी कार्यों में ईर्यापथ दोष देखा जाता है अर्थात् इन सब कार्य हेतु उस समय चलने-फिरने से ईर्यापथ शुद्धि नहीं रह सकती है।
क्रीततर दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-क्रीततर दोष दो प्रकार का है-द्रव्य और भाव। वह द्रव्य भाव भी स्व और पर की अपेक्षा से दो-दो प्रकार का है। उसमें सचित्त आदि वस्तु द्रव्य हैं और विद्या-मन्त्र आदि भाव हैं।।४३५।।
आचारवृत्ति- द्रव्य और भाव की अपेक्षा क्रीततर दोष दो प्रकार का है। स्वद्रव्य-परद्रव्य और स्वभाव तथा परभाव इस तरह द्रव्य और भाव के भी दो-दो भेद हो जाते हैं। गाय, भैंस आदि सचित्त वस्तुएँ द्रव्य हैं। विद्या, मन्त्र आदि भाव हैं। अर्थात् संयत मुनि आहार के लिए प्रवेश कर चुके हैं, उस समय अपने अथवा पराये सचित्त-गाय, भैंस आदि किसी को देकर और उससे आहार लाकर साधु को दे देना।
उसी प्रकार से स्वमन्त्र या परमन्त्र को अथवा स्व-विद्या या पर-विद्या को किसी को देकर उसके बदले आहार लाकर दे देना यह क्रीत दोष है; क्योंकि इस कार्य में करुणाभाव आदि दोष देखे जाते हैं। विद्या और मन्त्र में क्या अन्तर है ? प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ हैं तथा चेटक आदि मन्त्र हैं।
ऋण दोष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-भात आदि कोई वस्तु कर्ज रूप में दूसरे के यहाँ से लाकर देना लघुऋण कहलाता है। इसके दो भेद हैं-ब्याज सहित और ब्याज रहित।।४३६।।
डहरियरिणं तु-लघुऋणं स्तोकर्णं भणितं। पामिच्छं-प्रामृष्यं ओदनादिकं भक्तं मण्डकादिमन्यतरत्। तत्पुनर्द्विविधं सवृद्धिकमवृद्धिकं चापि। भिक्षौ चर्यायां प्रविष्टे दातान्यदीयं गृहं गत्वा भक्त्या भक्तादिकं याचते वृद्धिं समिष्य वृद्ध्याविना वा साधुहेतो:। तवौदनादिकं वृद्धिसहितमन्यथा दास्यामि मम भक्तं पानं खाद्यं मण्डकाश्च प्रयच्छ। एवं भणित्वा मण्डकादीन् गृहीत्वा संयतेभ्यो ददाति तदृणसहितं प्रामृष्यं दोष जानीहि। दातु: क्लेशायासकरणादिदर्शनादिति।।४३६।।
परावर्तदोषमाह-
बीहीकूरादीहिं य सालीकूरावियं तु जं गहिदं।
दातुमिति संजदाणं परियट्टं होदि णायव्वं।।४३७।।
संयतेभ्यो दातुं व्रीहिक्रूरादिभिर्यच्छालिक्रूरादिकं संगृहीतं तत्परिवर्तं भवति ज्ञातव्यं। मदीयं व्रीहिभक्तं गृहीत्वा मम शाल्योदनं प्रयच्छ साधुभ्योऽहं दास्यामीति मण्डकान्वा दत्वा व्रीहिभक्तादिकं गृण्हाति साधुनिमित्तं यत्तत्परिवर्तनं नाम दोषं जानीहि। दातु: क्लेशकारणादिति।।४३७।।
अभिघटदोषस्वरूपं विवृण्वन्नाह-
देसत्ति य सव्वत्ति य दुविहं पुण अभिहडं वियाणाहि।
आचिण्णमणाचिण्णं देसाविहडं हवे दुविहं।।४३८।।
आचारवृत्ति-लघु ऋण अर्थात् स्तोक ऋण। ओदन आदि भोजन तथा मण्डक-रोटी आदि अन्य वस्तुओं को प्रामृष्य कहते हैं। इस ऋण दोष के वृद्धिसहित और वृद्धिरहित की अपेक्षा दो भेद हो जाते हैं। जब मुनि आहार के लिए आते हैं उस समय दाता श्रावक अन्य किसी के घर जाकर भक्ति से उससे भात आदि मांगता है और कहता है कि मैं आपको इससे अधिक भोजन दे दूँगा या इतना ही भोजन वापस दे दूँगा।
अर्थात् इस समय मेरे घर पर साधु आये हुए हैं तुम मुझे भात, रोटी, पानक आदि चीजें दे दो, पुन: मैं तुम्हें इससे अधिक दे दूंगा या इतना ही लाकर दे दूँगा, ऐसा कहकर पुन: उसके यहाँ से लाकर यदि श्रावक मुनि को आहार देता है तो वह ऋण सहित प्रामृष्य दोष कहलाता है। इसमें दाता को क्लेश और परिश्रम आदि करना पड़ता है अत: यह दोष है।
भावार्थ-यदि दाता किसी से कुछ खाद्य पदार्थ उधार लाकर मुनियों को आहार देता है तो यह ऋण दोष है। उसमें भी उधार लाये हुए को पीछे ब्याज समेत देना या बिना ब्याज के उतना ही देना, ऐसे दो भेद हो जाते हैं।
परावर्त दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-संयतों को देने के लिए ब्रीहि के भात आदि से शालि के भात आदि को ग्रहण करना इसे परिवर्त दोष जानना चाहिए।।४३७।।
आचारवृत्ति-संयत मुनियों को देने के लिए जो ब्रीहि जाति के धान के भात को देकर उससे शालिजाति के धान के भात आदि को लाना यह परिवर्त दोष है। जैसे-मेरे ब्रीहि धान के भात को आप ले लो और मुझे शालि धान का भात दे दो, मैं साधुओं को दूँगा। अथवा इसी प्रकार से मण्डक-रोटी को देकर साधु के हेतु जो शालि का भात आदि लाता है, यह परिवर्त दोष है। इसमें दाता को क्लेश होता है।
अभिघट दोष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-देश और सर्व की अपेक्षा से अभिघट के दो भेद होते हैं ऐसा जानो। उसमें देशाभिघट आचिन्न और अनाचिन्न दो प्रकार का होता है।।४३८।।
देश इति सर्व इति द्विविधं पुनरभिघटं विजानीहि। एकदेशादागतमोदनादिकं देशाभिघटं। सर्वस्मादागतमोदनादिकं सर्वाभिघटं। देशाभिघटं पुनर्द्विविधं। आचिन्नानाचिन्नभेदात्। आचिन्नं योग्यं। अनाचिन्नमयोग्यमिति।।४३८।।
आचिन्नानाचिन्नस्वरूपमाह-
उज्जु तिहिं सत्तहिं वा घरेहिं जदि आगदं दु आचिण्णं।।
परदो वा तेहिं भवे तव्विवरीदं अणाचिण्णं।।४३९।।
ऋजुवृत्या पंक्तिस्वरूपेण यानि त्रीणि सप्त गृहाणि वा व्यवस्थितानि। तेभ्यस्त्रिभ्य: सप्तभ्यो वा गृहेभ्यो यद्यागतमोदनादिकं वाचिन्नं ग्रहणयोग्यं दोषाभावात्। परतस्त्रिभ्य: सप्तगृहेभ्य ऊर्ध्वं यद्यागतमोदनादिकमनाचिन्नं ग्रहणायोग्यं तद्विपरीतं वा ऋजुवृत्या विपरीतेभ्य: सप्तभ्यो यद्यागतं तदप्यनाचिन्नमादातुमयोग्यं। यत्र तत्र स्थितेभ्यो सप्तभ्यो गृहेभ्योप्यागतं न ग्राह्यं दोषदर्शनादिति।।४३६।।
सर्वाभिघटभेदं प्रतिपादयन्नाह-
सव्वाभिहडं चदुधा सयपरगामे सदेसपरदेसे।
पुव्वपरपाडणयडं पढमं सेसंपि णादव्वं।।४४०।।
सर्वाभिघटं चतुर्विधं जानीहि। स्वग्रामपरग्रामस्वदेशपरदेशभेदात्। स्वग्रामादागतं परग्रामादागतं स्वदेशादागतं आचारवृत्ति-देशाभिघट और सर्वाभिघट ऐसे अभिघट के दो भेद होते हैं। एक देश से आये हुए भात आदि देशाभिघट हैं और सब तरफ से आये हुए भात आदि सर्वाभिघट हैं।
देशाभिघट के भी दो भेद हैं-आचिन्न और अनाचिन्न। योग्य वस्तु आचिन्न है और अयोग्य को अनाचिन्न कहते हैं।
आचिन्न और अनाचिन्न का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-सरल पंक्ति से तीन या सात घर से यदि आयी हुई वस्तु है तो वह आचिन्न है। उन घरों से अतिरिक्त या सरल पंक्ति से विपरीत जो आयी हुई वस्तु है वह अनाचिन्न है।।४३९।।
आचारवृत्ति-सरल वृत्ति से-पंक्तिरूप से जो तीन घर हैं अथवा सात घर हैं, उनसे आया हुआ भात आदि आचिन्न है-ग्रहण करने योग्य है उसमें दोष नहीं है, किन्तु इन से भिन्न तीन या सात घरों से अतिरिक्त घरों से आया हुआ भात आदि भोजन अनाचिन्न है-ग्रहण के अयोग्य है।
उससे विपरीत-सरल पंक्ति से अतिरिक्त, सात घरों से आया हुआ भोजन भी अनाचिन्न है-ग्रहण करने के लिए अयोग्य है अर्थात् यत्र-तत्र स्थित घरों से आया हुआ भोजन ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि उनमें दोष देखा जाता है।
भावार्थ-बिना पंक्ति के घरों से लाया गया भोजन मुनि के लिए अभिघट दोषयुक्त है क्योंकि जहाँ कहीं से आने में ईर्यापथ शुद्धि नहीं रहती है।
सर्वाभिघट दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-स्वग्राम और परग्राम, स्वदेश और परदेश को अपेक्षा से सर्वाभिघट चार प्रकार का है। पूर्व और अपर मोहल्ले से वस्तु का लाना प्रथम अभिघट है ऐसे ही शेष भी जानना चाहिए।।४४०।।
आचारवृत्ति-स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश और परदेश की अपेक्षा से सर्वाभिघट के चार भेद हो जाते परदेशादागतमोदनादिकं यत् तच्चतुर्विधं सर्वाभिघटं। यस्मिन् ग्रामे आस्यते स स्वग्राम इत्युच्यते। तस्माद्येभ्य: स परग्राम इत्युच्यते। एवं स्वदेश: परदेशोऽपि ज्ञातव्य:। ननु स्वग्रामात्कथमागच्छतीत्येतस्यामाशंकायामाह-पूर्वपाटकात् परस्मिन् पाटके नयनं परपाटकाद्वाऽ१परस्मिन् नयनमोदनादिकस्य यत्तत्स्वग्रामाभिघटं प्रथमं जानीहि। तथाशेषमपि जानीहि परग्रामात्स्वग्राम आनयनं स्वदेशात् स्वग्राम आनयनं परदेशात्स्वग्रामे स्वदेशे वानयनमिति सर्वाभिघटदोषं चतुर्विधं जानीहि। प्रचुरेर्यापथदर्शनात्।।४४०।।
उद्भिन्नदोषमाह-
पिहिदं लंछिदयं वा ओसहघिदसक्करादि जं दव्वं।
अब्भिण्णिऊण देयं उब्भिण्णं होदि णादव्वं।।४४१।।
पिहितं पिधानादिकेनावृतं कर्दमजंतुना वा संवृतं। लांछितं मुद्रितं नामबिम्बादिना च यदौषधं घृतशर्करादिकं गुडखंडलडुकादिकं द्रव्यमुद्भिद्योघाट्य देयं स उद्भिन्नदोषो भवति ज्ञातव्य: पिपीलिकादिप्रवेशदर्शनादिति।।४४१।।
मालारोहणं दोषं निरूपयन्नाह-
णिस्सेणीकट्ठादिहि णिहिदं पूयादियं तु घेत्तू णं।
मालारोहं किच्चा देयं मालारोहणं णाम।।४४२।।
हैं। अर्थात् स्वग्राम से लाया गया भात आदि ऐसे ही परग्राम से लाया गया, स्व-देश से लाया गया या परदेश से लाया गया अन्न आदि अभिघट दोष से सहित है। जिस ग्राम में मुनि ठहरे हुए हैं वह स्वग्राम है, उससे भिन्न को परग्राम समझना। ऐसे ही स्वदेश और परदेश को भी समझ लेना चाहिए।
स्वग्राम से कैसे आता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
पूर्वपाटक अर्थात् एक गली से या मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में भात आदि को ले जाकर मुनि को देना या दूसरे से अन्य किसी मोहल्ले में ले जाकर देना यह स्वग्राम से आगत अभिघट दोष है। ऐसे ही परग्राम से लाकर स्वग्राम में देना, स्वदेश से स्वग्राम में लाकर देना, परदेश से लाकर स्वग्राम में देना अथवा स्वदेश में देना। इस प्रकार से सर्वाभिघट दोष को चार प्रकार का जानो। इसमें प्रचुर मात्रा में ईर्यापथ दोष देखा जाता है। अर्थात् दूर से लेकर आने वाले श्रावक ईर्यापथ शुद्धि का पालन नहीं कर पायेंगे।उद्भिन्न दोष को कहते हैं-
गाथार्थ- ढके हुए या मुद्रा से बन्द हुए जो औषधि, घी, शक्कर आदि हैं उन्हें खोल कर देना सो उद्भिन्न दोष होता है ऐसा जानना।।४४१।।
आचारवृत्ति- जो ढक्कन आदि से ढकी हुई है अथवा जिस पर लाख या चपड़ी लगी हुई है, जो नाम या बिंब आदि से मुद्रित है अर्थात् जिस पर शील-मुहर लगी हुई है ऐसी जो कोई भी वस्तु, औषधि, घी, शक्कर या गुड़, खांड, लड्डुक आदि चीजें हैं उन्हें उसी समय खोलकर देना सो उद्भिन्न दोष है; क्योंकि उनमें चींटी आदि का प्रवेश हो सकता है। अर्थात् कदाचित् ऐसी वस्तुओं में चिंवटी वगैरह प्रवेश कर गई हों, तो उस समय उन्हें बाधा पहुँचेगी।
मालारोहण दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-नसैनी, काठ आदि के द्वारा चढ़कर रखी हुई पुआ आदि वस्तु को लाकर देना सो मालारोहण दोष है।।४४२।।आचारवृत्ति-नसैनी (काठ आदि की सीढ़ी ) से माल अर्थात् घर के दूसरे भाग पर-ऊपरी भाग पर चढ़कर वहाँ पर रखे हुए पुआ, मंडक, लड्डू, शक्कर आदि लाकर जो उस समय देना है, सो वह मालारोहण दोष है। इसमें दाता के गिरने का भय देखा जाता है।
अच्छेद्य दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-संयत को भिक्षा के लिए देखकर और राजा या चोर आदि से डरकर जो उन्हें आहार देना है वह आछेद्य दोष है।।४४३।।
आचारवृत्ति-संयतों को भिक्षा के लिए आते देखकर राजा या चोर आदि कुटुम्बियों को ऐसा कहे कि यदि आप आए हुए संयतों को आहार दान नहीं दोगे तो मैं तुम्हारा द्रव्य अपहरण कर लूँगा या तुम्हें ग्राम से बाहर निकाल दूंगा। इस प्रकार से राजा या चोर आदि के द्वारा कुटुम्ब को डराकर जो आहार देने में लगाया जाता है, उस समय उन दातारों के द्वारा दिया गया दान आछेद्य दोष वाला होता है; क्योंकि वह कुटुम्बियों को भय का करने वाला है।
अनीशार्थ दोष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-अनीशार्थ दोष दो प्रकार का है-ईश्वर और अनीश्वर। ईश्वर भी सारक्ष, व्यक्त, अव्यक्त और संघाटक इन चार भेदरूप है।।४४४।।
आचारवृत्ति-जो अप्रधान हेतु है वह अनीशार्थ कहलाता है। उसके दो भेद हैं-ईश्वर और अनीश्वर। अथवा धनेश्वर ऐसा भी पाठ है। अनीश-अप्रधान, अर्थ-कारण है जिस ओदनादिक भोज्य पदार्थ का वह भोजन अनीशार्थ है। उस भोजन के ग्रहण में जो दोष है वह भी अनीशार्थ है। यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया है और वह अनीशार्थ दोष ईश्वर और अनीश्वर के भेद से दो प्रकार का है।
इन दोनों भेद के भी चार भेद हैं-आचारवृत्ति-नसैनी (काठ आदि की सीढ़ी ) से माल अर्थात् घर के दूसरे भाग पर-ऊपरी भाग पर चढ़कर वहाँ पर रखे हुए पुआ, मंडक, लड्डू, शक्कर आदि लाकर जो उस समय देना है, सो वह मालारोहण दोष है। इसमें दाता के गिरने का भय देखा जाता है।
अच्छेद्य दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-संयत को भिक्षा के लिए देखकर और राजा या चोर आदि से डरकर जो उन्हें आहार देना है वह आछेद्य दोष है।।४४३।।
आचारवृत्ति-संयतों को भिक्षा के लिए आते देखकर राजा या चोर आदि कुटुम्बियों को ऐसा कहे कि यदि आप आए हुए संयतों को आहार दान नहीं दोगे तो मैं तुम्हारा द्रव्य अपहरण कर लूँगा या तुम्हें ग्राम से बाहर निकाल दूंगा। इस प्रकार से राजा या चोर आदि के द्वारा कुटुम्ब को डराकर जो आहार देने में लगाया जाता है, उस समय उन दातारों के द्वारा दिया गया दान आछेद्य दोष वाला होता है; क्योंकि वह कुटुम्बियों को भय का करने वाला है।
अनीशार्थ दोष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-अनीशार्थ दोष दो प्रकार का है-ईश्वर और अनीश्वर। ईश्वर भी सारक्ष, व्यक्त, अव्यक्त और संघाटक इन चार भेदरूप है।।४४४।।
आचारवृत्ति-जो अप्रधान हेतु है वह अनीशार्थ कहलाता है। उसके दो भेद हैं-ईश्वर और अनीश्वर। अथवा धनेश्वर ऐसा भी पाठ है। अनीश-अप्रधान, अर्थ-कारण है जिस ओदनादिक भोज्य पदार्थ का वह भोजन अनीशार्थ है। उस भोजन के ग्रहण में जो दोष है वह भी अनीशार्थ है।
यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया है और वह अनीशार्थ दोष ईश्वर और अनीश्वर के भेद से दो प्रकार का है। इन दोनों भेद के भी चार भेद हैं-आचारवृत्ति-नसैनी (काठ आदि की सीढ़ी ) से माल अर्थात् घर के दूसरे भाग पर-ऊपरी भाग पर चढ़कर वहाँ पर रखे हुए पुआ, मंडक, लड्डू, शक्कर आदि लाकर जो उस समय देना है, सो वह मालारोहण दोष है। इसमें दाता के गिरने का भय देखा जाता है।
अच्छेद्य दोष को कहते हैं-
गाथार्थ- संयत को भिक्षा के लिए देखकर और राजा या चोर आदि से डरकर जो उन्हें आहार देना है वह आछेद्य दोष है।।४४३।।
आचारवृत्ति- संयतों को भिक्षा के लिए आते देखकर राजा या चोर आदि कुटुम्बियों को ऐसा कहे कि यदि आप आए हुए संयतों को आहार दान नहीं दोगे तो मैं तुम्हारा द्रव्य अपहरण कर लूँगा या तुम्हें ग्राम से बाहर निकाल दूंगा। इस प्रकार से राजा या चोर आदि के द्वारा कुटुम्ब को डराकर जो आहार देने में लगाया जाता है, उस समय उन दातारों के द्वारा दिया गया दान आछेद्य दोष वाला होता है; क्योंकि वह कुटुम्बियों को भय का करने वाला है।
अनीशार्थ दोष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-अनीशार्थ दोष दो प्रकार का है-ईश्वर और अनीश्वर। ईश्वर भी सारक्ष, व्यक्त, अव्यक्त और संघाटक इन चार भेदरूप है।।४४४।।
आचारवृत्ति-जो अप्रधान हेतु है वह अनीशार्थ कहलाता है। उसके दो भेद हैं-ईश्वर और अनीश्वर। अथवा धनेश्वर ऐसा भी पाठ है। अनीश-अप्रधान, अर्थ-कारण है जिस ओदनादिक भोज्य पदार्थ का वह भोजन अनीशार्थ है। उस भोजन के ग्रहण में जो दोष है वह भी अनीशार्थ है।
यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया है और वह अनीशार्थ दोष ईश्वर और अनीश्वर के भेद से दो प्रकार का है। इन दोनों भेद के भी चार भेद हैं-आचारवृत्ति-नसैनी (काठ आदि की सीढ़ी ) से माल अर्थात् घर के दूसरे भाग पर-ऊपरी भाग पर चढ़कर वहाँ पर रखे हुए पुआ, मंडक, लड्डू, शक्कर आदि लाकर जो उस समय देना है, सो वह मालारोहण दोष है। इसमें दाता के गिरने का भय देखा जाता है।
अच्छेद्य दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-संयत को भिक्षा के लिए देखकर और राजा या चोर आदि से डरकर जो उन्हें आहार देना है वह आछेद्य दोष है।।४४३।।
आचारवृत्ति-संयतों को भिक्षा के लिए आते देखकर राजा या चोर आदि कुटुम्बियों को ऐसा कहे कि यदि आप आए हुए संयतों को आहार दान नहीं दोगे तो मैं तुम्हारा द्रव्य अपहरण कर लूँगा या तुम्हें ग्राम से बाहर निकाल दूंगा। इस प्रकार से राजा या चोर आदि के द्वारा कुटुम्ब को डराकर जो आहार देने में लगाया जाता है, उस समय उन दातारों के द्वारा दिया गया दान आछेद्य दोष वाला होता है; क्योंकि वह कुटुम्बियों को भय का करने वाला है।
अनीशार्थ दोष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-अनीशार्थ दोष दो प्रकार का है-ईश्वर और अनीश्वर। ईश्वर भी सारक्ष, व्यक्त, अव्यक्त और संघाटक इन चार भेदरूप है।।४४४।।
आचारवृत्ति-जो अप्रधान हेतु है वह अनीशार्थ कहलाता है। उसके दो भेद हैं-ईश्वर और अनीश्वर। अथवा धनेश्वर ऐसा भी पाठ है। अनीश-अप्रधान, अर्थ-कारण है जिस ओदनादिक भोज्य पदार्थ का वह भोजन अनीशार्थ है। उस भोजन के ग्रहण में जो दोष है वह भी अनीशार्थ है। यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया है और वह अनीशार्थ दोष ईश्वर और अनीश्वर के भेद से दो प्रकार का है।
इन दोनों भेद के भी चार भेद हैं-यदि तदान्नं गृह्यते प्रथम ईश्वरो नामैकभेदोऽनीशार्थो दोष इति। तथानीश्वरोऽप्रधानहेतुर्यस्य दानस्य तद्दानमनीशार्थ दोषोप्यनीशार्थ: इत्युच्यते कार्ये कारणोपचारात्। स चानीशार्थस्त्रिप्रकारो व्यक्तोऽव्यक्त: संघाटक:। दानादिकस्यानीश्वर: स्वामी न भवति किन्तु व्यक्त: प्रेक्षापूर्वकारी तेन दीयमानं यदि गृण्हाति तदा व्यक्तोऽनीश्वरो नामानीशार्र्थो दोष इति। तथा दानस्यानीश्वरस्तथा (स) व्यक्तोऽप्रेक्षापूर्वकारी भवति तेन दीयमानं यदि गृण्हाति तदाव्यक्तानीश्वरो नामानीशार्थ इति।
तथा संघाटकेन व्यक्ताव्यक्तानीश्वरेण दीयमानं यदि गृण्हाति तदाव्यक्ताव्यक्तसंघाटानीश्वरो नामानीशार्थो दोषाऽपायदर्शनादिति। अथवैवं ग्राह्यं, ईश्वरेण प्रभुणा व्यक्तेनाव्यक्तेन वा यत्सारक्षं यत्प्रतिषिद्धं तद्दानं यदि साधु गृण्हाति तदा व्यक्ताव्यक्तेश्वरो नामानीशार्थो दोष:। तथानीश्वरेण प्रभुणां व्यक्तेनाव्यक्तेन वा यत्प्रतिषिद्धं सारक्ष्यं दानं तद्यदि गृण्हाति साधुस्तदा व्यक्ताव्यक्तानीश्वरो नामानीशार्थो दोष:।
तथा संघाटक: समवाय एको ददात्यपरो निषेधयति दानं तत्तथाभूतं यदि गृण्हाति साधुस्तदा संघाटको नामानीशार्थो दोष इति। ईश्वरो व्यक्ताव्यक्तसंघाटभेदेन द्विविध:। अनीश्वरो व्यक्ताव्यक्तसंघाटभेदेन द्विविध इति। अत्र च शब्द: समुच्चार्थो द्रष्टव्य:। ईश्वरो द्विविध:। अनीश्वरो द्विविध:। प्रथम ईश्वरेण व्यक्ताव्यक्तसंघाटकेन वा सारक्षोऽनीशार्थ:।
द्वितीयोऽनीश्वरेण व्यक्ताव्यक्तसंघाटकेन वा संरक्ष्योऽनीशार्थ इति अथवा व्यक्तेनाव्यक्तेन चेश्वरेण सारक्ष्यं प्रथम प्रथम अनीशार्थ ईश्वर दोष को कहते हैं-इसका नाम सारक्ष ईश्वर दोष भी है। जो आरक्षों के साथ रहे वह सारक्ष है, वह यद्यपि दान देना चाहता है फिर भी नहीं दे पाता है, अन्य लोग विघात कर देते हैं। वह ईश्वर-स्वामी देता है और अन्य अमात्य पुरोहित आदि विघ्न करते हैं। यदि ऐसा दान मुनि ग्रहण करते हैं तो उनके यह अनीशार्थ ईश्वर का प्रथम भेद रूप दोष होता है।
तथा जिस दान का अजधान पुरुष हेतु होता है वह दान अनीशार्थ है और दोष भी अनीशार्थ है। यहाँ पर कार्य में कारण का उपचार किया जाता है। यह अनीशार्थ तीन प्रकार का है-व्यक्त, अव्यक्त और संघटक। अनीश्वर दानादि का स्वामी नहीं होता है, किन्तु व्यक्त-प्रेक्षापूर्वकारी अर्थात् बुद्धि से-विवेक से कार्य करने वाले को व्यक्त अनीश्वर कहते हैं। उसके द्वारा दिया गया आहार यदि मुनि लेते हैं तो उनके व्यक्त अनीश्वर नाम का अनीशार्थ दोष होता है।
अनीश्वर दान का स्वामी नहीं होता है, किन्तु वही यदि अव्यक्त अर्थात् अबुद्धिपूर्वक कार्य करने वाला होने से अप्रेक्षापूर्वकारी है, उसके द्वारा दिया गया दान यदि मुनि लेते हैं तो उन्हें अव्यक्त अनीश्वर अनीशार्थ नाम का दोष होता है।
तथा संघाटक अर्थात् व्यक्ताव्यक्त अनीश्वर द्वारा दिया गया आहार यदि मुनि लेते हैं तो उनके ‘व्यक्ताव्यक्त संघाटक अनीश्वर’ नाम का अनीशार्थ दोष होता है; क्योंकि इसमें अपाय देखा जाता है। अथवा इस दोष का इस तरह भी ग्रहण करना चाहिए कि ईश्वर अर्थात् स्वामी जो दान देने वाला है, व्यक्त हो या अव्यक्त, उसके द्वारा जिसका निषेध कर दिया गया है वह दान यदि साधु ग्रहण करेंगे तो उन्हें ‘व्यक्त-अव्यक्त ईश्वर’ नामक अनीशार्थ दोष होता है।
तथा जो अनीश्वर-अप्रधान स्वामी दानपति है वह व्यक्त-बुद्धिमान हो या अव्यक्त-अबुद्धिमान, उसके द्वारा दिये गये सारक्ष्य दान को यदि मुनि ग्रहण करते हैं तो उन्हें व्यक्ताव्यक्त अनीश्वर नाम का अनीशार्थ दोष होता है। तथा कोई एक पुरुष दान देता है और अन्य निषेध करता है यदि ऐसे दान को मुनि ग्रहण कर लेते हैं तो उन्हें संघाटक नाम का अनीशार्थ दोष होता है।
ईश्वर व्यक्ताव्यक्त और संघाटक के भेद से दो प्रकार का है और अनीश्वर भी व्यक्ता-व्यक्त तथा संघाटक के भेद से दो प्रकार का है। यहाँ पर गाथा में ‘च’ शब्द समुच्चयार्थक है जिसका अर्थ यह है कि ईश्वर दो प्रकार का है और अनीश्वर भी दो प्रकार का है
प्रथम-ईश्वर दान देता है और व्यक्त, अव्यक्त या संघाटक उसका निषेध करते हैं। वह ईश्वर सारक्ष ईश्वरानीशार्थो द्विविध:। तथा व्यक्तेनाव्यक्तेन चानीश्वरेण सारक्ष्यं, द्वितीयोऽनीश्वरोऽनीशार्थो द्विविध इति। तथा संघाटकेन च सारक्ष्यं पृथग्भूतोऽयं दोषोऽनीशार्थो द्रष्टव्य: सर्वत्र विरोधदर्शनादिति।
अथवा निसृष्टो मुक्तो न निसृष्टोनिसृष्टो निवारित: स च द्विविध: ईश्वरोऽनीश्वरश्च ईश्वरेण निसृष्टोऽनीश्वरेणऽनिसृष्ट: ईश्वरश्चतुर्भेदोऽनीश्वर इति। प्रथम: ईश्वर: सारक्षो व्यक्तोऽव्यक्त: संघाटक:। तथानीश्वरोऽपि सारक्षो व्यक्तोऽव्यक्त: संघाटक:। मन्त्रादियुक्त: सारक्ष: बालो व्यक्त: द्वयो: स्वामित्वं संघाटक:। एवमनीश्वरोऽपि द्रष्टव्य: इति। एतैरनिसृष्टं निषिद्धं दत्तं वा दानं यदि गृह्यते तदा निसृष्टो नाम दोषो भवति विरोधदर्शनादिति ।।४४४।।
उत्पादनदोषान् प्रतिपादयन्नाह-
धादीदूदणिमित्ते आजीवं वणिवग्गे य तेगिंछे।
कोधी माणी मायी लोही य हवंति दस एदे।।४४५।।
धादी-धात्री माता। दूद-दूतो लेखधारक:। णिमित्ते-निमित्तं ज्योतिषं। आजीवे-आजीवनमाजीविका। वणिवग्गेय-वनीपकवचनं दातुरनुकूलवचनं। तेगिंछे-चिकित्सा वैद्यशास्त्रं। कोधी-क्रोधी। माणी-मानी। माई-मायी। लोही-लोभी। हवंति दस एदे-भवन्ति दशैत उत्पादनदोषा:।।४४५।। तथा-
अनीशार्थ है। दूसरा-अनीश्वर अर्थात् अप्रधान दाता दान देता है और व्यक्त या संघाटक उसका निषेध करते हैं तो वह दान अनीश्वर सारक्ष अनीशार्थ है।
अथवा व्यक्त और अव्यक्त ईश्वर के द्वारा निषिद्ध प्रथम ईश्वर अनीशार्थ दो प्रकार का है। तथा व्यक्त और अव्यक्त अनीश्वर के द्वारा निषिद्ध दूसरा अनीश्वर अनीशार्थ दोष दो प्रकार का है।
तथा संघाटक के द्वारा निषिद्ध अनीशार्थ एक पृथक् दोष है ऐसा जानना, क्योंकि सर्वत्र विरोध देखा जाता है।
अथवा निसृष्ट-मुक्त अर्थात् जो त्याग किया गया है वह निसृष्ट है, जो निसृष्ट नहीं है वह अनिसृष्ट-निवारित किया गया है। यह भी ईश्वर और अनीश्वर के भेद से दो प्रकार का है। ईश्वर के द्वारा निसृष्ट, अनिसृष्ट तथा अनीश्वर के द्वारा निसृष्ट, अनिसृष्ट ऐसे चार भेद हो जाते हैं।
प्रथम ईश्वर इन सारक्ष, व्यक्त, अव्यक्त और संघाटक से चार प्रकार का है। तथा अनीश्वर भी सारक्ष, व्यक्त, अव्यक्त और संघाटक से चार प्रकार का है। मंत्रादियुक्त स्वामी को सारक्ष कहते है, बालक-अज्ञानी स्वामी को अव्यक्त कहते हैं, प्रेक्षापूर्वकारी-बुद्धिमान स्वामी व्यक्त है और अव्यक्त रूप पुरुष संघाटक है। ऐसे ही अनीश्वर में भी समझना चाहिए।
इनके द्वारा अनिसृष्ट निषिद्ध दान यदि साधु लेते हैं तो उन्हें निसृष्ट दोष होता है, क्योंकि विरोध देखा जाता है।
अब उत्पादन दोषों को कहते हैं-
गाथार्थ-धात्री, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सा, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी ये दस दोष हैं।।४४५।।
आचारवृत्ति-धात्री अर्थात् माता के समान बालक का लालन आदि करके आहार ग्रहण करना, दूत-लेखधारक अर्थात् समाचार को पहुंचाने वाला, निमित्त-ज्योतिष, आजीवन-आजीविका, वनीपक-दाता के अनुकूल वचन, चिकित्सा-वैद्यशास्त्र, क्रोधी-क्रोध युक्त, मानी, मायी और लोभी अर्थात् इन-इन कार्यों को करके दाता से आहार ग्रहण करना ये दस उत्पादन दोष हुए।
तथा-पुव्वी पच्छा संथुदि विज्जामंते य चुण्णजोगे य।
उप्पादणा य दोसो सोलसमो मूलकम्मे य।।४४६।।
स स्तुतिशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। पूर्व संस्तुति: पश्चात् संस्तुति:। पूर्वसंस्तुति: दानग्रहणात्प्राग्दातु: संस्तव:, दानं गृहीत्वा पश्चाद् दातु: संस्तवनं। विज्जा-विद्याकाशगामिनीरूपपरिवर्तिनी शस्त्रस्तम्भिन्यादिका। मंते च-मंत्रश्च सर्पवृश्चिकविषापहरणाक्षराणि। चुण्णजोगेय-चूर्णयोगश्च गात्रभूषणादिनिमित्तं द्रव्यधूलि:। उप्पादणा य दोसो-उत्पादनायोत्पादननिमित्तं दोष उत्पादनदोष:। स प्रत्येकमभिसम्बध्यते। सोलसमो-षोडशानां पूरण षोडश:। मूलकम्मेय-मूलकर्मावशानां वशीकरणं। धात्रीकर्मणा सहचरितो दोषोऽपि धात्रीत्युच्यते।।४४६।।
तं धात्रीदोषं विवृण्वन्नाह-
मज्जणमंडणधादी खेल्लावणखीरअंबधादी य।
पंच विधधादिकम्मेणुप्पादो धादिदोसो दु।।४४७।।
धापयति दधातीति वा धात्री। मार्जनधात्री-बालं स्नपयति या सा मार्जनधात्री। मण्डयति विभूषयति तिलकादिभिर्या सा मण्डनधात्री मण्डननिमित्तं माता। बालं क्रीडयति रमयति क्रीडनधात्री क्रीडा निमित्तं माता। क्षीरं स्तैन्यं धारयति दधाति या सा क्षीरधात्री स्तनपायिनी। अम्बधात्री जननी, स्वापयति या साप्यम्बधात्री। एतासां पंचविधानां १धात्रीणां क्रियया कर्मणा य आहारादिरुत्पद्यते स धात्रीनामोत्पादनदोष:। बालं स्नापयानेन प्रकारेण बाल: स्नाप्यते येन सुखी गाथार्थ-पूर्व स्तुति, पश्चात् स्तुति, विद्या, मन्त्र, चूर्णयोग और मूलकर्म ये सब सोलह उत्पादन दोष हैं।।४४६।।
आचारवृत्ति-दान ग्रहण के पहले दाता की स्तुति करना सो पूर्वसंस्तुति है। दान ग्रहण करने के बाद दाता की स्तुति करना सो पश्चात्-स्तुति है। आकाशगामिनी, रूपपरिवर्तिनी, शस्त्रस्तंभिनी आदि विद्याएँ हैं। सर्प, बिच्छू आदि के विष दूर करने वाले अक्षर मन्त्र कहलाते हैं। शरीर को भूषित करने आदि के लिए निमित्तभूत धूलि आदि वस्तु चूर्ण हैं। और जो वश नहीं हैं उन्हें वशीकरण करना मूलकर्म है। ये सोलह उत्पादन दोष हैं। अर्थात् धात्री कर्म से सहचरित दोष भी धात्री नाम से कहा जाता है। इसी प्रकार सभी में समझना।
धात्री दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-मार्जनधात्री, मण्डनधात्री, क्रीडनधात्री, क्षीरधात्री और अम्बधात्री इन पांच प्रकार के धात्री कर्म द्वारा उत्पन्न कराया गया आहार धात्री दोष है।।४४७।।
आचारवृत्ति-जो दूध पिलाती है अथवा पालन-पोषण करती है वह धात्री कहलाती है। जो बालक को स्नान कराती है वह मार्जनधात्री है। जो तिलक आदि लगाकर बालक को भूषित करती है वह मण्डन के निमित्त माता है अत: उसे मण्डनधात्री कहते हैं। जो बालक को क्रीडा कराती है, रमाती है वह क्रीडन निमित्त माता है अत: उसे क्रीडनधात्री कहते हैं। जो दूध पिलाती है वह स्तनपायिनी क्षीरधात्री है।
जननी-जन्म देने वाली को अम्बधात्री कहते हैं अथवा जो सुलाती है वह भी अम्बधात्री कहलाती है। जो साधु इन पाँच प्रकार की धात्री की क्रिया करके आहार आदि उत्पन्न कराते हैं उनको धात्री नाम का उत्पादन दोष लगता है। अर्थात् बालक को इस प्रकार से नहलाओ, ऐसे स्नान कराने से यह बालक सुखी और निरोग रहेगा, इत्यादि प्रकार से बालकों के नहलाने सम्बन्धी कार्य को जो गृहस्थ के लिए बताते हैं और उस कार्य से गृहस्थ दान के लिए प्रवृत्ति करता है, पुन: साधु यदि उस आहार को ले लेता है तब उसके यह मार्जनधात्री नामक उत्पादन दोष होता है।नीरोगी च भवतीयेत्वं मार्जननिमित्तं वा कर्म गृहस्थायोपदिशति, तेन च कर्मणा गृहस्थो दानाय प्रवर्तते तद्दानं यदि गृण्हाति साधुस्तस्य धात्रीनामोत्पादनदोष:।
तथा बालं स्वयं मण्डयति मण्डननिमित्तं वा कर्मोपदिशति यस्मै दात्रे स तेन भक्त: सन् दानाय प्रवर्तते तद्दानं यदि गृण्हाति साधुस्तस्य मण्डनधात्रीनामोत्पादनदोष:। तथा बालं स्वयं क्रीडयति क्रीडानिमित्तं च क्रियामुपदिशति यस्मै दात्रे स दाता दानाय प्रवर्वते तद्दानं यदि गृण्हाति साधुस्तस्य क्रीडनधात्री नामोत्पादनदोष:।
तथा येन क्षीरं भवति येन च विधानेन बालाय क्षीरं दीयते तदुपदिशति यस्मै दात्रे स भक्त: सन् दाता दानाय प्रवर्तते तद्दानं यदि गृण्हाति तदा तस्य क्षीरधात्रीनामोत्पादनदोष:। तथा स्वयं स्वापयति स्वापनिमित्तं विधानं चोपदिशति यस्मै दात्रे स दाता दानाय प्रवर्तते तद्दानं यदि गृण्हाति तदा तस्याम्बधात्रीनामोत्पादनदोष:। कथमयं दोष इति चेत् स्वाध्यायविनाशमार्गदूषणा-दिदर्शनादिति।।४४७।।
दूतनामोत्पादनदोषं विवृण्वन्नाह-
जलथलआयासगदं सयपरगामे सदेसपरदेसे।
संबंधिवयणणयणं दूदीदोषो हवदि एसो।।४४८।।
स्वग्रामात्परग्रामं गच्छति जले नावा तथा स्वदेशात्परदेशं गच्छति जले नावा तत्र तस्य गच्छत: कश्चिद् गृहस्थ एवमाह-भट्टारक ! मदीयं संदेशं गृहीत्वा गच्छ स साधुस्तत्सम्बन्धिनो वचनं नीत्वा निवेदयति यस्मै प्रहितं स परग्रामस्थ: परदेशस्थश्च तद्वचनं श्रुत्वा तुष्ट: सन् दानादिकं ददाति तद्दानादिकं यदि साधुर्गृण्हाति तदा तस्य दूतकर्मणोत्पादनदोष:।
तथा स्थले गच्छत आकाशे च गच्छत: साधोर्यत्सम्बन्धिवचननयनं स्वग्रामात्परग्रामे स्वदेशात्परदेशे, उसी प्रकार से जो बालक को स्वयं विभूषित करता है अथवा विभूषित करने के तरीके गृहस्थ को बतलाता है पुन: वह दाता मुनि का भक्त होकर यदि उन्हें आहार देता है और मुनि यदि ले लेता है तो उनके यह मण्डनधात्री नाम का उत्पादन दोष होता है।
उसी प्रकार से जो स्वयं बालक को क्रीड़ा कराता है या क्रीड़ा निमित्त जिसको उपदेश देता है वह दाता यदि दान के लिए प्रवृत्त होता है और मुनि उससे आहार ले लेता है तब उन मुनि के क्रीडनधात्री नामक उत्पादन दोष होता है। जिस प्रकार से स्तन में दूध होता है और जिस विधान से बालक को दूध पिलाया जाता है उस प्रकार का उपदेश जिसको दिया जाय, वह गृहस्थ भक्त होकर आहार दान देवे और यदि मुनि वह आहार ले लेवे तब उनके क्षीरधात्री नामक उत्पादन दोष होता है।
ऐसे ही बालक को स्वयं जो सुलाता है अथवा सुलाने के प्रकार का उपदेश देता है और वह दाता उससे प्रभावित होकर मुनि को आहार देता है, यदि मुनि उससे आहार ग्रहण कर लेते हैं तब उनके अम्बधात्री नाम का उत्पादन दोष होता है।
प्रश्न-यह दोष क्यों है ?
उत्तर-इससे साधु के स्वाध्याय का विनाश होता है और मार्ग अर्थात् मुनिमार्ग में दूषण आदि लगते हैं। अत: यह दोष है।
दूत नामक उत्पादन दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-स्व से पर ग्राम में या स्वदेश से परदेश में जल, स्थल या आकाश से जाते समय किसी के सम्बन्धों के वचनों को ले जाना यह दूत दोष होता है।।४४८।।
आचारवृत्ति-नाव के द्वारा जल को पार करके स्वग्राम से या परग्राम को जाते हों या जल, नदी आदि को पार करने में नाव से बैठकर स्वदेश से परदेश को जाते हों उस समय यदि कोई गृहस्थ ऐसा कहे कि हे भट्टारक ! मे
रा सन्देश लेते जाइए और तब वे साधु भी उसके सन्देश को ले जाकर जिसको कहें वह श्रावक परग्राम का हो या परदेश में मुनि के वचन को सुनकर उन पर सन्तुष्ट होकर उन्हें दान आदि देता है और यदि यस्मिन् ग्रामे तिष्ठति स स्वग्राम इत्युच्यते, तथा यस्मिन् देशे तिष्ठति बहूनि दिनानि स स्वदेश इत्युच्यते।
इत्येवं जलगतं स्थलगतमाकाशगतं च तद्दूतेन नीयते इति तद्दूतमित्युच्यते। यदेतत्सम्बन्धिनो वचनस्य नयनं स एष दूतदोषो भवति। दूतकर्म शासनदोषायेति दोषदर्शनादिति।।४४७।।
निमित्तस्वरूपमाह-
वंजणमंगं च सरं णिण्णं भूमं च अंतरिक्खं च।
लक्खण सुविणं च तहा अट्टविहं होइ णेमित्तं।।४४९।।
व्यञ्जनं मशकतिलकादिकं। अङ्गं च शरीरावयव:। स्वर: शब्द:। छिन्न: छेद:, खड्गादिप्रहारो वस्त्रादिच्छेदो वा। भूमि भूमिविभाग:। अन्तरिक्षमादित्यगृहाद्युदयास्तमनं। लक्षणं नन्दिकावर्तपद्मचक्रादिकं। स्वप्नश्च सुप्तस्य हस्तिविमान-महिषारोहणादिदर्शनं च तथाष्टप्रकारं भवति निमित्तं।
व्यञ्जनं दृष्ट्वा यच्छुभाशुभं ज्ञायते पुरुषस्य तद्वयञ्जननिमित्तमित्युच्यते। तथाङ्गं शिरोग्रीवादिकं दृष्ट्वा पुरुषस्य यच्छुभाशुभं ज्ञायते तदङ्गनिमित्तमिति। तथा यं स्वरं शब्दविशेषं श्रुत्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तत्स्वरनिमित्तमिति। यं प्रहारं छेदं वा दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तच्छिन्ननिमित्तं नाम।
तथा यं भूमिविभागं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तद्भौमनिमित्तं नाम। यदन्तरिक्षस्य व्यवस्थितं ग्रहयुद्धं ग्रहास्तमनं ग्रहनिर्घातादिकं समीक्ष्य प्रजाया: शुभाशुभं विबुध्यते तदन्तरिक्षं नाम। यल्लक्षणं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा मुनि वह आहार ले लेते हैं तो उनके दूतकर्म नाम का उत्पादन दोष होता है।
इसी तरह साधु स्थल से जाते हों या आकाश मार्ग से जा रहे हों, यदि गृहस्थ के सन्देश वचन को ले जाकर अन्य ग्राम या देश में किसी गृहस्थ को कहते हैं और वह गृहस्थ सन्देश को सुनकर प्रसन्न होकर यदि मुनि को दान देता है तथा वे ले लेते हैं तो दूतकर्म दोष होता है।
जिस ग्राम में साधु रहते हैं वह उस समय उनका स्वग्राम है और जिस देश में बहुत दिन रहते हैं वह स्वदेश कहलाता है। जल से पार होते समय, स्थल से जाते समय या आकाश मार्ग से गमन करते समय जो दूत के द्वारा समाचार ले जाया जाता है वह दूतकर्म है उस सम्बन्धी वचन को ले जाने वाले साधु को भी दूत नाम का दोष होता है क्योंकि यह दूतकर्म जिनशासन में दोष का कारण है अत: दोष रूप है।
निमित्त का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-व्यंजन, अंग, स्वर, छिन्न, भूमि, अंतरिक्ष और स्वप्न इस तरह निमित्त आठ प्रकार का होता है।।४४९।।
आचारवृत्ति-मशक, तिलक आदि व्यंजन हैं। शरीर के अवयव अंग हैं। शब्द को स्वर कहते हैं। छेद का नाम छिन्न है, खड्ग आदि का प्रहार अथवा वस्त्रादि का छिन्न होना-कट-फट जाना यह सब छिन्न है।
भूमिविभाग को भूमि कहते हैं। सूर्य, ग्रह आदि के उदय-अस्त सम्बन्धी ज्ञान को अंतरिक्ष कहते हैं, नन्दिकावर्त, पद्म, चक्र आदि लक्षण हैं। सोते में हाथी, विमान, भैंस पर आरोहण आदि देखना स्वप्न है। इस तरह निमित्त ज्ञान आठ प्रकार का होता है।
उसका स्पष्टीकरण-
किसी पुरुष के व्यंजन-मसा, तिल आदि को देखकर जो शुभ या अशुभ जाना जाता है वह व्यंजन निमित्त है। किसी पुरुष के सिर, ग्रीवा आदि अवयव देखकर जो उसका शुभ या अशुभ जाना जाता है वह अंग निमित्त है। किसी पुरुष या अन्य प्राणी के शब्द विशेष को सुनकर जो शुभ-अशुभ जाना जाता है वह स्वर निमित्त है। किसी प्रहार या छेद को देखकर किसी पुरुष या अन्य का जो शुभ-अशुभ जाना जाता है वह छिन्न निमित्त है।
किसी भूमिविभाग को देखकर किसी पुरुष या अन्य का जो शुभ-अशुभ जाना जाता है वह शुभाशुभं ज्ञायते तल्लक्षणनिमित्तं नाम। यं स्वप्नं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं परिच्छिद्यते तत्स्वप्ननिमित्तं नाम। तथा च शब्देन भूमिगर्जनदिग्दाहादिकं परिगृह्यते। एतेन निमित्तेन भिक्षामुत्पाद्य यदि भुंक्ते तदा यस्य निमित्तनामोत्पादनदोष:। रसास्वादनदैन्यादिदोषदर्शनादिति।।४४६।।
आजीवं दोष निरूपयन्नाह-
जादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त आजीवं।
तेहिं पुण उप्पादो आजीव दोसो हवदि एसो।।४५०।।
जातिर्मातृसन्तति:। कुल पितृसन्तति:। मातृशुद्धि:। पितृशुद्धिर्वा। शिल्पकर्म लेपचित्रपुस्तकादिकर्म हस्तविज्ञानं। तप:कर्म तपोऽनुष्ठानं। ईश्वरत्वं च। आजीव्यतेऽनेनाजीव:। आत्मनो जातिं कुलं च निर्दिश्य शिल्पकर्म तप:कर्मेश्वरत्वं च निर्दिश्याजीवनं करोति यतोऽत आजीववचनान्येतानि तेभ्यो जातिकथनादिभ्य: पुनरुत्पाद आहारस्य योऽयं स आजीवदोषो भवत्येष: वीर्यगृहनदीनत्वादिदोषदर्शनादिति।।४५०।।
वनीपकवचनं निरूपयन्नाह-
साणकिविणतिधिमांहणपासंडियसवणकागदाणादी।
पुण्णं णवेति पुठ्ठे पुण्णेत्ति य वणीवयं वयणं।।४५१।।
भौमनिमित्त है। आकाश में होने वाले ग्रह युद्ध, ग्रहों का अस्तमन, ग्रहों का निर्घात आदि देखकर जो प्रजा का शुभ या अशुभ जाना जाता है वह अंतरिक्ष निमित्त है। जिस लक्षण को देखकर पुरुष या अन्य का शुभ-अशुभ जाना जाता है वह लक्षणनिमित्त है। जिस स्वप्न को देखकर पुरुष या अन्य किसी का शुभ या अशुभ जाना जाता है वह स्वप्न निमित्त है। तथा च शब्द से भूमि, गर्जना, दिग्दाह आदि को भी ग्रहण करना चाहिए अर्थात् इनके निमित्त से भी जो जनता का शुभ-अशुभ जाना जाता है वह सब इनमें ही शामिल हो जाता है।
इन निमित्तों के द्वारा जो भिक्षा को उत्पन्न कराकर आहार लेते हैं अर्थात् निमित्त ज्ञान के द्वारा श्रावकों को शुभ-अशुभ बतलाकर पुन: बदले में उनसे दिया हुआ आहार जो मुनि ग्रहण करते हैं उनके यह निमित्त नाम का उत्पादन दोष होता है। इसमें रसों का आस्वादन अर्थात् गृद्धता और दीनता आदि दोष आते हैं।
आजीव दोष का निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-जाति, कुल, शिल्प, तप और ईश्वरता ये आजीव हैं। इनसे पुन: (आहार का) उत्पन्न करना यह आजीव दोष है।।४५०।।
आचारवृत्ति-माता की संतति जाति है। पिता की संतति कुल है।
अर्थात् माता के पक्ष की शुद्धि अथवा पिता के पक्ष की शुद्धि को ही यहाँ जाति या कुल कहा है। लेप, चित्र, पुस्तक आदि कर्म या हस्त विज्ञान शिल्पकर्म हैं। तप का अनुष्ठान तपकर्म है और ईश्वरता, इनके द्वारा जो आजीविका की जाती है वह ‘आजीव’ कहलाती है।
कोई साधु अपनी जाति और कुल का निर्देश करके या शिल्पकर्म या तपश्चरण अथवा ईश्वरत्व को बतलाकर यदि आजीविका करता है अर्थात् जाति आदि के कथन द्वारा अपनी विशेषता बतलाकर पुन: उस दाता के द्वारा दिये गये आहार को जो ग्रहण करता है उसके यह आजीव नाम का दोष होता है; क्योंकि उसमें अपने वीर्य का छिपाना, दीनता आदि करना ऐसे दोष आते हैं।
वनीपक वचन का निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-कुत्ता, कृपण, अतिथि, ब्राह्मण, पाखण्डी, श्रमण और कौवा इनको दान आदि करने से पुण्य है या नहीं। ऐसा पूछने पर पुण्य है ऐसा बोलना वनीपक वचन है।।४५१।।शुनां, कृपणादीनां कुष्ट१व्याध्याद्यार्तादीनां अतिथीनां मध्याह्नकालागतानां भिक्षुकाणां, ब्राह्मणानां मांसादिभक्षिणां पाखंडिनां दीक्षोपजीविनां, श्रवणानामाजीवकानां छात्राणां वा काकादीनां च यद्दानादिकं दीयते तेन पुण्यं भवति किं वा न भवतीत्येवं पृष्टे दानपतिना, ‘भवति पुण्यमिति’ यद्येवं ब्रूयात्तद्वनीपकं वचनं दानपत्युनुकूलवचनं प्रतिपाद्य यदि भुञ्जीत तस्य वनीपकनामोत्पादनदोष: दीनत्वादिदोषदर्शनादिति।।४५१।।
चिकित्सां प्रतिपादयन्नाह-
कोमारतणुतिगिंछारसायणविसभूदखारतंतं च।
सालंकियं च सल्लं तिगिंछदोसो दु अट्टविहो।।४५२।।
कौमारं बालवैद्यं मासिकसावंत्सरिकादिग्रहत्रासनहेतु: शास्त्रं तनुचिकित्साज्वरादिनिराकरणं कण्ठोदरशोधनकारणं च, रसायनं वलिपलितादिनिराकरणं बहुकालजीवित्वं च, विषं स्थावरजंगमं सकृत्रिमभेदभिन्नं। तस्य विषस्य चिकित्सा विषापहार: भूत (त:) पिशाचादि तस्य चिकित्सा भूतापनयनशास्त्रं। क्षारतंत्रं क्षारद्रव्यं दुष्टव्रणादिशोधनकरं। शलाकया निर्वृत्तं शालाकिकं अक्षिपटलादयुद्घाटनं।
शल्यं भूमिशल्यं शरीरशल्यं च तोमरादिकं शरीरशल्यं अस्थ्यादिकं भूमिशल्यं तस्यापनयनकारकं शास्त्रं शल्यमित्युच्यते। तथा विषापनयनशास्त्रं विषमिति। भूतापनयननिमित्तं शास्त्रं भूतमिति, कार्ये
आचारवृत्ति-कुत्ते, कृपण आदि-कुष्ठ व्याधि आदि से पीड़ित जन, अतिथि-मध्याह्न काल में आगत भिक्षुकजन, ब्राह्मण-मांसादि भक्षण की प्रवृत्तिवाले ब्राह्मण, पाखण्डी-दीक्षा से उपजीविका करने वाले, श्रमण-आजीवक नाम के साधु अथवा छात्र और कौवे आदि इनको जो दान दिया जाता है,उससे पुण्य होता है या नहीं ? ऐसा दानपति के द्वारा पूछने पर, ‘पुण्य होता है’ यदि इस प्रकार से मुनि दाता के अनुकूल वचन बोल देते हैं, पुन: दाता प्रसन्न होकर उन्हें आहार देता है और वे ग्रहण कर लेते हैं तो उनके यह वनीपक नाम का उत्पादन दोष होता है। इसमें भी दीनता आदि दोष दिखाई देते हैं।
चिकित्सा दोष का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-कौमार, तनुचिकित्सा, रसायन, विष, भूत, क्षारतन्त्र, शालाकिक और शल्य ये आठ प्रकार का चिकित्सा दोष है।।४५२।।
आचारवृत्ति-कौमार-बाल वैद्य शास्त्र अर्थात् मासिक, सांवत्सरिक आदि पीड़ा देने वाले ग्रहों के निराकरण के लिए उपायभूत शास्त्र।
तनुचिकित्सा-ज्वर आदि को दूर करने वाले और कण्ठ, उदर के शोधन करने वाले शास्त्र। रसायन-शरीर की सिकुड़न, वृद्धावस्था आदि को दूर करने वाली और बहुत काल तक जीवन दान देने वाली औषधि।
विष-स्थावरविष और जंगमविष तथा कृत्रिमविष और अकृत्रिमविष, इन विषों से होने वाली बाधा की चिकित्सा करना अर्थात् विष को दूर करना। भूत-भूत-पिशाच आदि की चिकित्सा करना अर्थात् भूत आदि को निकालने का शास्त्र। क्षारतन्त्र-सड़े हुए घाव आदि का शोधन करने वाली चिकित्सा।
शालाकिक-शलाका से होने वाली चिकित्सा शालाकिक है अर्थात् नेत्र के ऊपर आए हुए पटल-मोतियाबिन्दु आदि को दूर करके नेत्र को खोलने वाली चिकित्सा शालाकिक कहलाती है। शल्य-भूमि-शल्य और शरीर-शल्य ऐसे दो भेद हैं। तोमर आदि को शरीरशल्य कहते हैं और हड्डी आदि को भूमिशल्य कहते हैं।
इन शल्यों को दूर करने वाले शास्त्र भी शल्य नाम से कहे जाते हैं।
यहाँ पर इन आठ चिकित्सा विषयक शास्त्रों को लिया गया है जैसे-विष को दूर करने वाले शास्त्र ‘विष’ नाम से कहे गये हैं। और भूत को दूर करने वाले शास्त्र ‘भूत’ नाम से कहे गये हैं।
चूँकि कारण में कार्य कारणोपचारादिति। अथवा चिकित्साशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते काकाक्षितारकवदिति। एवमष्टप्रकारेण चिकित्साशास्त्रेणोपकारं कृत्वाहारादिकं गृण्हाति तदानीं तस्याष्टप्रकारश्चिकित्सादोषो भवत्येव सावद्यादिदोषदर्शनादिति।।४५२।।
क्रोधमानमायालोभदोषान् प्रतिपादयन्नाह-
कोधेण य माणेण य मायालोभेण चावि उप्पादो।
उप्पादणा य दोसो चदुव्विहो होदि णायव्वो।।४५३।।
१क्रोधमानमायालोभेन च योऽयं भिक्षाया उत्पाद: स उत्पादनदोषश्चतुष्प्रकारस्तैर्ज्ञातव्य इति। क्रोधं कृत्वा भिक्षामुत्पादयति आत्मनो यदि तदा क्रोधो नामोत्पादनदोष: तथा मानं गर्वं कृत्वा यद्यात्मनो भिक्षादिकमुत्पादयति तदा मानदोष:। मायां कुटिलभावं कृत्वा यद्यात्मनो भिक्षादिकमुत्पादयति मायानामोत्पादनदोष:। तथा लोभं कांक्षां प्रदर्श्य भिक्षां यद्यात्मन उत्पादयति तदा लोभोत्पादनदोषो भावदोषादिदर्शनादिति।।४५३।।
पुनरपि तान् दृष्टान्तेन पोषयन्नाह-
कोधो य हत्थिकप्पे माणो २वेणायडम्मि णयरम्मि।
माया वाणारसिए लोहो पुण रासियाणम्मि।।४५४।।
हस्तिकल्पपत्तने कश्चित्साधु: क्रोधेन भिक्षामुत्पादितवान्। तथा वेन्नातटनगरे कश्चित्संयतो मानेन भिक्षामुत्पादितवान्। तथा वाराणस्यां कश्चित्साधु: मायां कृत्वा भिक्षामुत्पादितवान्। तथान्य: संयतो लोभं का उपचार किया गया है। अथवा काकाक्षितारक न्याय के समान चिकित्सा शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए। इन आठ प्रकार के चिकित्सा शास्त्र के द्वारा जो मुनि गृहस्थ का उपकार करके उनसे यदि आहार आदि लेते हैं तो उनके यह आठ प्रकार का चिकित्सा नाम का दोष होता है; क्योंकि इसमें सावद्य आदि दोष देखे जाते हैं।
क्रोध, मान, माया और लोभ दोषों का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से भी आहार उत्पन्न कराना-यह चार प्रकार का उत्पादन दोष होता है।।४५३।।
आचारवृत्ति-क्रोध को करके अपने लिए यदि भिक्षा उत्पन्न कराते हैं तो क्रोध नाम का उत्पादन दोष होता है। उसी प्रकार से गर्व को करके अपने लिए आहार उत्पन्न कराते हैं तो मान दोष होता है। कुटिल भाव करके यदि अपने लिए आहार उत्पन्न कराते हैं तो माया दोष होता है और यदि लोभ-कांक्षा को दिखाकर भिक्षा उत्पन्न कराते हैं तो लोभ नाम का उत्पादन दोष होता है। इन चारों दोषों में भावों का दोष आदि देखा जाता है। अर्थात् परिणाम दूषित होने से ये दोष माने गये हैं।
पुनरपि इनको दृष्टान्त द्वारा पुष्ट करते हैं-
गाथार्थ-हस्तिकल्प में क्रोध, वेन्नतट नगर में मान, वाराणसी में माया और राशियान में लोभ के-इस प्रकार इन चारों के दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं।।४५४।।
आचारवृत्ति-हस्तिकल्प नाम के पत्तन में किसी साधु ने क्रोध करके आहार का उत्पादन कराकर ग्रहण किया। वेन्नतट नगर में किसी संयत ने मान करके आहार को बनवाकर ग्रहण किया। बनारस में किसी साधु ने माया करके आहार को उत्पन्न कराया तथा राशियान देश में अन्य किसी संयत ने लोभ दिखाकर
प्रदर्श्य राशियाने भिक्षामुत्पादितवानिति। तेन क्रोधो हस्तिकल्पे, मानो वेन्नातटनगरे, माया वाराणस्यां, लोभो राशियाने इत्युच्यते। अत्र कथा उत्प्रेक्ष्य वाच्या इति।।४५४।।
पूर्वसंस्तुतिदोषमाह-
दायगपुरदो कित्ती तं दाणवदी जसोधरो वेत्ति।
पुव्वीसंथुदि दोसो विस्सरिदे बोधणं चावि।।४५५।।
ददातीति दायको दानपति: तस्य पुरत: कीर्तिं ख्यातिं ब्रूते। कथं, त्वं दानपतिर्यशोधर: त्वदीया कीर्तिर्विश्रुता लोके। यद्दातुरग्रतो दानग्रहणात्प्रागेव ब्रूते तस्य पूर्वसंस्तुतिदोषो नाम जायते। विस्मृतस्य च दानसम्बोधनं त्वं पूर्वं महादानपतिरिदानीं किमिति कृत्वा विस्मृत इति सम्बोधनं करोति यस्तस्यापि पूर्वसंस्तुतिदोषो भवतीति। यां कीर्तिं ब्रूते, यच्च स्मरणं करोति तत्सर्वं पूर्वसंस्तुतिदोषो नग्नाचार्यकर्तव्यदोषदर्शनादिति।।४५५।।
पश्चात्संस्तुतिदोषमाह-
पच्छा संथुदिदोसो दाणं गहिदूण तं पुणो कित्तिं।
विक्खादो दाणवदी तुज्झ जसो विस्सुदो वेंति।।४५६।।
पश्चात्संस्तुतिदोषो दानमाहारादिकं गृहीत्वा तत: पुन: पश्चादेवं कीर्तिं ब्रूते विख्यातस्त्वं दानपतिस्त्वं, तव यशोविश्रुतमिति ब्रूते यस्तस्य पश्चात् संस्तुतिदोष:, कार्पण्यादिदोषदर्शनादिति।।४५६।।
विद्यानामोत्पादनदोषमाह-आहार उत्पन्न कराकर लिया। इसलिए हस्तिकल्प में क्रोध इत्यादि ये चार दृष्टान्त कहे गये हैं। यहाँ पर इन कथाओं को मानकर कहना चाहिए।
पूर्व-संस्तुति दोष को कहते हैं-
गावार्थ-तुम दानपति हो अथवा यशस्वी हो, इस तरह दाता के सामने उसकी प्रशंसा करना और उसके दान देना भूल जाने पर उसे याद दिलाना पूर्व-संस्तुति नाम का दोष है।।४५५।।
आचारवृत्ति-जो दान देता है, वह दायक कहलाता है, उसके समक्ष उसकी ख्याति करना। कैसे ? तुम दानपति हो, यश को धारण करने वाले हो, लोक में तुम्हारी कीर्ति फैली हुई है। इस तरह आहार ग्रहण के पहले ही यदि मुनि दाता के सामने बोलते हैं तो उनके पूर्व-संस्तुति नाम का दोष होता है।
यदि वह भूल गया है तो उसको याद दिलाना कि तुम पहले महादानपति थे इस समय किस कारण से भूल गये हो। इस तरह यदि कहते हैं तो भी उन मुनि के पूर्व-संस्तुति नाम का दोष होता है। यह नग्नाचार्य-स्तुतिपाठक भाटों का कार्य है। इस तरह स्तुति-प्रशंसा करना यह मुनियों का कार्य नहीं है अत: यह दोष है।
पश्चात्-संस्तुति दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-दान को लेकर पुन: कीर्ति को कहते हैं। तुम दानपति विख्यात हो, तुम्हारा यश प्रसिद्ध है यह पश्चात्संस्तुति दोष है।।४५६।।
आचारवृत्ति- आहार आदि दान ग्रहण करने के पश्चात् जो इस तरह कीर्ति को कहते हैं कि ‘तुम दानपति हो, तुम विख्यात हो, तुम्हारा यश प्रसिद्ध हो रहा है’ यह पश्चात्संस्तुति दोष है, चूंकि इसमें कृपणता आदि दोष देखे जाते हैं।
विद्या नामक उत्पादन-दोष को कहते हैं-
विज्जा साधितसिद्धा तिस्से आसापदाणकरणेहिं।
तस्से माहप्पेण य विज्जादोसो दु उप्पादो।।४५७।।
विद्या नाम साधितसिद्धा साधिता सती सिद्धा भवति तस्या विद्याया आशाप्रदानकरणेन तुभ्यमहं विद्यामिमां दास्यामि तस्याश्च माहात्म्येन यो जीवति तस्य विद्योत्पादनो नाम दोष: आहाराद्याकांक्षाया दर्शनादिति।।४५७।।
मंत्रोत्पादनदोषमाह-
सिद्धे पढिदे मंते तस्य य आसापदाणकरणेण।
तस्स य माहप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु।।४५८।।
सिद्धे पठिते मंत्रे पठितमात्रेण यो मंत्र: सिद्धिमुपयाति स पठितसिद्धो मंत्रस्तस्य मंत्रस्याशाप्रदानकरणेन तवेमं मंत्रं दास्यामीत्याशाकरणयुक्त्या तस्य माहात्म्येन च यो जीवत्याहारादिकं च गृण्हाति तस्य मंत्रोत्पादनदोष:। लोकप्रतारणजिह्वागृद्ध्यादिदोषदर्शनादिति।।४५८।।
अथवा विद्योत्पादनदोषो मंत्रोत्पादनदोषश्चैवं ग्राह्य: इत्याशंक्याह-
आहारदायगाणं विज्जामंतेहिं देवदाणं तु।
आहूय साधिदव्वा विज्जामंतो हवे दोसो।।४५९।।
आहारदात्री भोजनदानशीला देवता व्यंतरादिदेवान् विद्यया मंत्रेण चाहूयानीय साधितव्यास्तासां साधनं क्रियते यद्दानार्थं स विद्यादोषो मंत्रदोषश्च भवति। अथवाऽऽहारदायकानां निमित्तं विद्यया मंत्रेण वाहूय देवतानां साधितव्यं साधनं क्रियते तत् स विद्यामंत्रदोष:। अस्य च पूर्वयोर्विद्यामंत्रदोषयोमध्ये निपात: इति कृत्वा नायं पृथग्दोष: पठितस्तयोरन्तर्भावादिति।।४५९।।
गाथार्थ-जो साधितसिद्ध है वह विद्या है। उसकी आशा प्रदान करने या उसके माहात्म्य से आहार उत्पन्न कराना विद्या दोष है।।४५७।।
आचारवृत्ति-जो साधित करने पर सिद्ध होती हैं उन्हें विद्या कहते हैं। उन विद्याओं की आशा देना अर्थात् ‘मैं तुम्हें इस विद्या को दूंगा’ अथवा उस विद्या के माहात्म्य से जो अपना जीवन चलाते हैं उनके विद्या नाम का उत्पादन दोष होता है। इसमें आहार आदि की आकांक्षा देखी जाती है।
मन्त्र नामक उत्पादन दोष कहते हैं-
गाथार्थ-जो पढ़ते ही सिद्ध हो वह मन्त्र है। उस मन्त्र के लिए आशा देने से और उसके माहात्म्य से आहार उत्पन्न कराना सो मंत्रदोष है।।४५८।।
आचारवृत्ति-जो मंत्र पढ़ने मात्र से सिद्ध हो जाता है वह पठितसिद्ध मन्त्र है। उस मन्त्र की आशा प्रदान करना अर्थात् ‘तुम्हें मैं यह मन्त्र दूँगा’ ऐसी आशा प्रदान करने की युक्ति से और उस मन्त्र के माहात्म्य से जो जीते हैं, आहार उत्पन्न कराकर लेते हैं उनके मन्त्र नाम का उत्पादन दोष होता है; क्योंकि इसमें लोकप्रतारणा, जिह्वा की गृद्धता आदि दोष देखे जाते हैं।
अथवा विद्या-उत्पादन दोष और मन्त्र-उत्पादन दोष का ऐसा अर्थ करना-
गाथार्थ-आहार दायक देवताओं को विद्या मन्त्र से बुलाकर सिद्ध करना विद्यामन्त्र दोष होता है।।४५९।।
आचारवृत्ति-आहार देने वाली देवियाँ हुआ करताr हैं, ऐसे आहार-दायक व्यंतर देवों को विद्या या मन्त्र के द्वारा बुलाकर उनको आहार के लिए सिद्ध करना, सो यह विद्यादोष और मंत्रदोष है। अथवा आहार दाताओं के लिए विद्या या मंत्र से देवताओं को बुलाकर उनको सिद्ध करना सो यह विद्यामंत्र दोष है। इस दोष का पूर्व के विद्यादोष और मन्त्रदोष में ही अन्तर्भाव हो जाता है अत: यह पृथक् दोष नहीं है।
चूर्णदोषमाह-
णेत्तस्संजणचुण्णं भूसणचुण्णं च गत्तसोभयरं।
चुण्णं तेणुप्पादो चुण्णयदोसो हवदि एसो।।४६०।।
नेत्रयोरञ्जनं चूर्णं चक्षुषोर्निर्मलीकरणनिमित्तमञ्जनं द्रव्यरज:। तथा भूषणनिमित्तं चूर्णं येन चूर्णेन तिलकपत्र१-स्थल्यादय: क्रियन्ते तद्भूषणद्रव्यरज:। गात्रस्य शरीरस्य शोभाकरं च चूर्णं येन चूर्णेन शरीरस्य शोभाकरं दीप्त्यादयो भवन्ति तच्छरीरशोभानिमित्तं चूर्णमिति। तेन चूर्णेन योयमुत्पादो भोजनस्य क्रियते स चूर्णोत्पादनामदोषो भवत्येष जीविकादिक्रिययां जीवनादिति।।४६०।।
मूलकर्मदोषं प्रतिपादयन्नाह-
अवसाणं वसियरणं संजोजयणं च विप्पजुत्ताणं।
भणिदं तु मूलकम्मं एवे उप्पादणा दोसा।।४६१।।
अवशानां वशीकरणं यद्विप्रयुक्तानां च संयोजनं यत्क्रियते तद्भणितं मूलकर्म। अनेन मूलकर्मणोत्पादो यो भक्तादिकस्य स मूलकर्मदोष: सुष्ठु लज्जाद्याभोगस्य करणादिति। एते उत्पादनदोषास्तथोद्गमदोषाश्च सर्व एते परित्याज्या अध:कर्मांशदर्शनात्। एतेष्वध:कर्मांशस्य सद्भावोऽस्ति यत:। तथान्ये च दोषा: जुगुप्सादयो दर्शनदूषणादय: सम्भवन्ति येभ्यस्तेऽपि परित्याज्या इति।।४६१।।
अशनदोषान् प्रतिपादयन्नाह-
चूर्ण दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-नेत्रों के लिए अंजनचूर्ण और शरीर को भूषित करने वाले भूषणचूर्ण ये चूर्ण हैं। इन चूर्णों से आहार उत्पन्न कराना सो यह चूर्ण दोष होता है।।४६०।।
आचारवृत्ति-चक्षु को निर्मल करने के लिए जो अंजन या सुरमा आदि होता है वह अंजनचूर्ण है, जिस चूर्ण से तिलक या पत्रवल्ली आदि की जाती है वह भूषणचूर्ण है, शरीर शोभित करने वाला चूर्ण अर्थात् जिस चूर्ण से शरीर में दीप्ति आदि होती है वह शरीर शोभा निमित्त चूर्ण है। इन चूर्णों के द्वारा जो भोजन बनवाते हैं वह चूर्ण नामक उत्पादन दोष है। इससे जीविका आदि करने से यह दोष माना जाता है।
मूलकर्म दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-अवशों का वशीकरण करना और वियुक्त हुए जनों का संयोग कराना यह मूलकर्म कहा गया है। इस प्रकार ये सोलह उत्पादन दोष हैं।।४६१।।
आचारवृत्ति-जो वश में नहीं है उनका वशीकरण करना और जिनका आपस में वियोग हो रहा हैं उनका संयोग करा देना यह मूलकर्म दोष है। इस मूलकर्म के द्वारा आहार उत्पन्न कराकर जो मुनि लेते हैं उनके मूलकर्म नाम का दोष होता है। यह स्पष्टतया लज्जा आदि का कारण है।
ये सोलह उत्पादन दोष कहे गये हैं तथा सोलह ही उद्गम दोष भी कहे गये हैं। ये सभी दोष त्याग करने योग्य हैं, क्योंकि इनमें अध:कर्म का अंश देखा जाता है अर्थात् इन दोषों में अध:कर्म के अंश का सद्भाव है अतएव त्याज्य हैं। तथा सम्यग्दर्शन आदि में दूषण उत्पन्न करने वाले हैं। अन्य भी जुगुप्सा आदि दोष इन्हीं के निमित्त से संभव हैं उनका भी त्याग कर देना चाहिए।
अब अशन दोषों का प्रतिपादन करते हैं-
संकिदमक्खिदणिक्खिदपिहिदं २संववहरणदायगुम्मिस्से।
अपरिणदलित्तछोडिद एषणदोसाईं३ दस एदे।।४६२।।
शंकयोत्पन्न: शंकित:, किमयमाहारोऽध:कर्मणा निष्पन्न उत नेति शंकां कृत्वा भुंक्ते यस्तस्य शंकितनामाशनदोष:। तथा म्रक्षितस्तैलाद्यभ्यक्तस्तेन भाजनादिना दीयमानमाहारं यदि गृण्हाति म्रक्षितदोषो भवति। तथा निक्षिप्त: स्थापित:, सचित्तादिषु परिनिक्षिप्तमाहारं यदि गृण्हाति साधुस्तदा तस्य निक्षिप्तदोष:।
तथा पिहितश्छादित: अप्रासुकेन प्रासुकेन च महता यदवष्टब्धमाहारादिकं तदावरणमुत्क्षिप्य दीयमानं यदि गृण्हाति तदा तस्य पिहितनामाशनदोष:। तथा संव्यवहरणं दानार्थं संव्यवहारं कृत्वा यदि ददाति तद्दानं यदि साधुर्गृण्हाति तदा तस्य संव्यवहरणनामाशनदोष:। तथा दायक: परिवेषक:, तेनाशुद्धेन दीयमानमाहारं यदि गृण्हाति साधुस्तदा तस्य दायकनामाशनदोष:। तथोन्मिश्रोऽप्रासुकेन द्रव्येण पृथिव्यादिसच्चितेन मिश्र उन्मिश्र इत्युच्यते तं यद्यादत्ते उन्मिश्रनामाशनदोष:।
यथाऽपरिणतोऽविध्वस्तोऽग्न्यादिकेनापक्वस्तमाहारं पानादिकं वा यद्यादत्तेऽपरिणतनामाशनदोष:। तथा लिप्तोऽप्रासुकवर्णादिसंसक्तस्तेन भाजनादिना दीयमानमाहारादिकं यदि गृण्हाति तदा तस्य लिप्तनामाशनदोष:। तथा छोडिदं परित्यजनं भुंजानस्यास्थिरपाणिपात्रेणाहारस्य परिशतनं गलनं परित्यजनं यत्क्रियते तत्परित्यजननामाशनदोष:। एतेऽशनदोषा दशैव भवति ज्ञातव्या इति।।४६२।।
गाथार्थ-शंकित, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संव्यवहरण, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और छोटित ये दश अशन दोष हैं।।४६२।।
आचारवृत्ति-शंका से उत्पन्न हुआ आहार शंकित है। ‘क्या यह आहार अध:कर्म से बना हुआ है?’ ऐसी शंका करके जो आहार ग्रहण करते हैं उनके शंकित नाम का अशन दोष है। तेल आदि से चिकने ऐसे बर्तन आदि के द्वारा दिया गया आहार यदि ग्रहण करते हैं तो उनके म्रक्षित दोष होता है।
स्थापित को निक्षिप्त कहते हैं। सचित्त आदि पर रखा हुआ आहार यदि साधु ग्रहण करते हैं तो उन्हें निक्षिप्त दोष लगता है। ढके हुए को पिहित कहते हैं। अप्रासुक अथवा प्रासुक ऐसी किसी बड़े वजनदार ढक्कन आदि से ढके हुए आहार आदि को, उस पर का आवरण खोलकर दिया जाये और जिसे मुनि ग्रहण कर लेते हैं तो उनके पिहित नाम का अशन दोष होता है। तथा दान के लिए यदि संव्यवहार करके वस्त्र या पात्रादि को जल्दी से खींच करके जो दान दिया जाता है और यदि साधु उसे लेते हैं तो उनके संव्यवहरण नाम का अशन दोष होता है।
परोसने वाले को दायक कहते हैं। अशुद्ध दायक के द्वारा दिया गया आहार यदि मुनि लेते हैं तो उनके दायक नाम का दोष होता है। अप्रासुक द्रव्य से अर्थात् पृथ्वी अादि सचित्त वस्तु से मिश्र हुआ आहार उन्मिश्र है। उसे जो मुनि ग्रहण करते हैं उन्हें उन्मिश्र दोष लगता है। जो परिणत नहीं हुआ है, जिसका रूप, रस आदि नहीं बदला है ऐसे आहार या पान आदि जो कि अग्नि आदि के द्वारा अपक्व हैं उनको जो मुनि ग्रहण करते हैं उनके अपरिणत नाम का दोष होता है।
अप्रासुक वर्ण आदि से संसक्त वस्तु लिप्त है। उस गेरु आदि से लिप्त हुए बर्तन आदि से दिया गया आहार आदि मुनि लेते हैं तो उनके लिप्त नाम का अशन दोष होता है। तथा छोटित-गिराने को परित्यजन कहते हैं। आहार करते हुए साधु के यदि अस्थिर-छिद्र सहित पाणिपात्र से आहार या पीने की चीजें गिरती रहती हैं तो मुनि के परित्यजन नाम का अशन दोष होता है। ये दश अशन दोष होते हैं। इनका विस्तार से वर्णन आगे गाथाओं द्वारा करते हैं। शंकितदोषं विवृण्वन्नाह-
असणं च पाणयं वा खादीयमध सादियं च अज्झप्पे।
कप्पियमकप्पियत्ति य संदिद्धं संकियं जाणे।।४६३।।
अशनं भक्तादिकं, पानकं दधिक्षीरादिकं खाद्यं लडुकाशोकवर्त्यादिकं१, अथ स्वाद्यं एलाकस्तूरीलवंगकक्कोलादिकं। वाशब्दैरत्र स्वगतभेदा ग्राह्या:। अध्यात्मे आगमे चेतसि वा कल्पित योग्यमकल्पितमयोग्यमिति सन्दिग्धं संशयस्थं शंकितं जानीहि, आगमे किमेतन्मम कल्प्यमुत नेति यद्येवं संदिग्धमाहारं भुंक्ते तदा शंकितनामाशनदोषं जानीहि। अथवाध्यात्मे चेतसि किमध:कर्मसहितमुत नेति सन्दिग्धमाहारं२ यदि गृण्हीयाच्छंकितं जानीहि।।४६३।।
द्वितीय म्रक्षितदोषमाह-
ससिणिद्धेण य देयं हत्थेण य भायणेण दव्वीए।
एसो मक्खिददोसो परिहरदव्वो सदा मुणिणा।।४६४।।
सस्निग्धेन हस्तेन भाजनेन दर्व्या कटच्छुकेन च यद्देयं भक्तादिकं यदि गृह्यते तदा म्रक्षितदोषो भवति। तस्मादेष म्रक्षितदोष: परिहर्तव्यो मुनिना सम्मूर्च्छनादिसूक्ष्मदोषदर्शनादिति।।४६४।।
तृतीयं निक्षिप्तदोषमाह-
सच्चित्त पुढविआऊ तेऊहरिदं च वीयतसजीवा।
जं तेसिमुवरि ठविदं णिक्खित्त होदि छब्भेयं।।४६५।।
शंकित दोष का वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार भेद रूप आहार हैं। आगम में या मन में ऐसा संदेह करना कि यह योग्य है या अयोग्य ? सो शंकित दोष है।।४६३।।
आचारवृत्ति-भात आदि भोजन अशन कहलाते हैं। दही, दूध आदि पदार्थ पानक हैं। लड्डू आदि वस्तुएँ खाद्य हैं। इलायची, कस्तूरी, लवंग, कक्कोल आदि वस्तुएँ स्वाद्य हैं। ‘वा’ शब्द से इनमें स्वगत भेद ग्रहण करना चाहिए।
अध्यात्म में अर्थात् आगम में इन्हें मेरे योग्य कहा है या अयोग्य ? इस प्रकार से संदेह करते हुए उस संदिग्ध आहार को ग्रहण करना शंकित दोष है। अथवा अध्यात्म अर्थात् चित्त में ऐसा विचार करना कि यह भोजन अध:कर्म से सहित है या नहीं ऐसा, संदेह रखते हुए उसी आहार को ग्रहण कर लेना सो शंकित दोष है।
द्वितीय म्रक्षित दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-चिकनाई युक्त हाथ से या बर्तन से या कलछी-चम्मच से दिया गया भोजन म्रक्षित दोष है। मुनि को हमेशा इसका परिहार करना चाहिए।।४६४।।
आचारवृत्ति-घी, तेल आदि के चिकने हाथ से या चिकने हुए बर्तन से या कलछी, चम्मच से दिया गया जो भोजन आदिक है उसे यदि मुनि ग्रहण करते हैं तो उनके म्रक्षित दोष होता है। सो यह दोष मुनि को छोड़ देना चाहिए क्योंकि इसमें समूर्च्छन आदि सूक्ष्म जीवों की विराधना का दोष देखा जाता है अर्थात् छोटे-मोटे मच्छर आदि जन्तु चिकने हाथ आदि में चिपककर मर सकते हैं अत: यह दोष है।
निक्षिप्त दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-सचित्त पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति तथा बीज और त्रस जीव-उनके ऊपर जो आहार रखा हुआ है वह छह भेद रूप निक्षिप्त होता है।।४६५।।
सचित्तपृथिव्यां सचित्ताप्सु सचित्ततेजसि हरितकायेषु बीजकायेषु त्रसजीवेषु तेषूपरि यत्स्थापितमाहारादिकं तन्निक्षिप्तं भवति षड्भेदं। अथवा सह चित्तेनाप्रासुकेन वर्तते इति सचित्तं। सचित्तं च पृथिवीकायाश्चाप्कायाश्च तेज:कायाश्च हरितकायाश्च बीजकायाश्च त्रसजीवाश्च तेषामुपरि यन्निक्षिप्तं सचित्तं तत् षड्भेदं भवति ज्ञातव्यं।।४६५।।
पिहितदोषप्राह-
सच्चित्तेण व पिहिदं अथवा अचित्तगुरुगपिहिदं च।
त छंडिय जं देयं पिहिदं तं होदि बोधव्वो।।४६६।।
सचित्तेन पिहितमप्रासुकेन पिहितं। अथवाऽचित्तगुरुकपिहितं वा प्रासुकेण (न) गुरुकेण यद्वावृतं तत्त्यक्त्वा यद्देयमाहारादिकं यदि गृह्यते पिहितं नाम दोषं भवति बोद्धव्यं ज्ञातव्यमिति।।४६६।।
संव्यवहारदोषमाह-
संववहरणं किच्चा पदादुमिदि चेल भायणादीणं।
असमिक्खय जं देयं १संववहरणो हवदि दोसो।।४६७।।
संव्यवहरणं संझटिति व्यवहारं कृत्वा, प्रदातुमिति चेलभाजनादीनां संभ्रमेणाहरणं वा कृत्वा, प्रकर्षेण दाननिमित्तं२ वसुभाजनादीनां झटिति संव्यवहरणं कृत्याऽसमीक्ष्य यद्देयं पानभोजनादिकं तद्यदि संगृह्यते संव्यवहरणं दोषो भवत्येष इति।।४६७।।
दायकदोषमाह-
आचारवृत्ति-सचित्त पृथ्वी, सचित्त जल, सचित्त अग्नि, हरित काय वनस्पति, बीज काय और त्रस जीव इन पर रखा हुआ जो आहार आदि है वह छह भेद रूप निक्षिप्त कहलाता है। अथवा चित्तकर सहित अप्रासुक वस्तु को सचित्त कहते हैं। ऐसे पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, हरितकाय, बीजकाय और त्रसकाय जीव होते हैं। उन पर रखी हुई वस्तु सचित्त हो जाती है। इन जीवकायों की अपेक्षा से वह छह भेद रूप हो जाती है ऐसे आहार को लेना निक्षिप्त दोष है।
भावार्थ-अंकुर शक्ति के योग्य गेहूँ आदि धान्य को बीज कहते हैं। ये बीज जीवों की उत्पत्ति के लिए योग्य हैं, योनिभूत हैं इसलिए सचित्त हैं, यद्यपि वर्तमान में इनमें जीव नहीं है।
पिहित दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-जो सचित्त वस्तु से ढका हुआ है अथवा जो अचित्त भारी वस्तु से ढका हुआ है उसे हटाकर जो भोजन देना है वह पिहित है, ऐसा जानना चाहिए।।४६६।।
आचारवृत्ति-अप्रासुक वस्तु से ढका हुआ या प्रासुक किन्तु वजनदार से ढका हुआ है, उसे खोलकर जो आहार आदि दिया जाता है और यदि मुनि उसे लेते हैं तो उन्हें वह पिहित नाम का दोष होता है।
संव्यवहार दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-यदि देने के लिए बर्तन आदि को खींचकर बिना देखे दे देवे तो संव्यवहरण दोष होता है।।४६७।।
आचारवृत्ति-दान के निमित्त वस्त्र या बर्तन आदि को जल्दी से खींचकर बिना देखे जो भोजन आदि मुनि को दिया जाता है और यदि वे वह भोजन-पान आदि ग्रहण कर लेते हैं तो उनके लिए वह संव्यवहरण दोष होता है।
दायक दोष को कहते हैं-
सूदी सुंडी रोगी मदयणपुंसय पिसायणग्गो य।
उच्चारपडिदवंतरुहिरवेसी समणी अंगमक्खीया।।४६८।।
अतिबाला अतिबुड्ढा घासत्ती गब्भिणी य अंधलिया।
अंतरिदा व णिसण्णा उच्चत्था अहव णीचत्था।।४६९।।
सूति: या बालं प्रसाधयति। सुंडी-मद्यपानलम्पट:। रोगी व्याधिग्रस्त:। मदय-मृतकं श्मशाने परिक्षिप्यागतो य: स मृतक इत्युच्यते। मृतकसूतकेन यो जुष्ट: सोऽपि मृतक इत्युच्यते। नपुंसय-न स्त्री न पुमान् नपुंसकमिति जानीहि। पिशाचो वाताद्युपहत:। नग्न: पटाद्यावरणरहितो गृहस्थ:।
उच्चारं मूत्रादीन् कृत्वा य आगत: स उच्चार इत्युच्यते। पतितो मूर्च्छागत:। वान्तश्हर्दिं कृत्वा य आगत:। रुधिरं रुधिरसहित:। वेश्या दासी। श्रमणिकाऽऽर्यिका। अथवा पंचश्रमणिका रक्तपटिकादय:। अंगम्रक्षिका अंगाभ्यंगनकारिणी।।४६८।।
तथा-अतिबाला अतिमुग्धा, अतिवृद्धा अतीवजराग्रस्ता। ग्रासयन्ती भक्षयन्ती उच्छिष्टा। गर्भिणी गुरुभारा पंचमासिका। अंधलिका चक्षूरहिता। अन्तरिता कुड्यादिभिर्व्यवहिता। आसीनोपविष्टा। उच्चस्था उन्नतप्रदेशस्थिता। नीचस्था निम्नप्रदेशस्थिता। एवं पुरुषो वा वनिता च यदि ददाति तदा न ग्राह्यं भोजनादिकमिति।।४६९।।
तथा- फूयण पज्जलणं वा सारण पच्छादणं च विज्झवणं।
किच्चा तहग्गिकज्जं णिव्वादं घट्टणं चावि।।४७०।।
लेवणमज्जणकम्मं पियमाणं दारयं च णिक्खिविय।
एवं विहादिया पुण दाणं जदि दिंति दायगा दोसा।।४७१।।
गाथार्थ-धाय, मद्यपायी, रोगी, मृतक के सूतक सहित, नपुंसक, पिशाचग्रस्त, नग्न, मलमूत्र करके आये हुए, मूर्छित, वमन करके आये हुए, रुधिर सहित, वेश्या, श्रमणिका, तैल मालिश करनेवाली, अतिबाला, अतिवृद्धा, खाती हुई, गर्भिणी, अंधी, किसी के आड़ में खड़ी हुई, बैठी हुई, ऊँचे पर खड़ी हुई या नीचे स्थान पर खड़ी हुई आहार देवें तो दायक दोष है।।४६८-४६९।।
आचारवृत्ति-जो बालक को सजाती है वह सूति या धाय कहलाती है। शौंडी-मद्यपान लंपट। रोगी-व्याधिग्रस्त। श्मशान में मृतक को छोड़कर आया हुआ भी मृतक कहलाता है और जो मृतक के सूतक-पातक से युक्त है वह भी मृतक कहलाता है। जो न स्त्री है न पुरुष वह नपुंसक है।
वात आदि से पीड़ित को पिशाच कहा है। वस्त्र आदि आवरण से रहित गृहस्थ नग्न कहलाते हैं। मल-मूत्रादि करके आये हुए जन को भी उच्चार शब्द से कहा गया है। वमन करके आए हुए को वान्ति कहा गया है। मूर्छा की बीमारीवाला या मूचर््िछत हुआ पतित कहलाता है। जिसके रुधिर निकल रहा है उसको रुंधिर शब्द से कहा है। वेश्या-दासी, श्रमणिका-आर्यिका, रक्तपट वगैरह धारण करने वाली साध्वियाँ, अंगम्रक्षिका अर्थात् तैलादि मालिश करने वाली। तथा-
अतिबाला, अतिमूढ़ा, अतिवृद्धा-अत्यधिक जरा से जर्जरित, भोजन करती हुई, गर्भिणी-पंच महीने के गर्भ वाली (अर्थात् पाँच महीने के पहले तक आहार दे सकती है।), अंधलिका-जिसे नेत्र से दिखता नहीं है, अन्तरिका-जो दीवाल आदि की आड़ में खड़ी है, निषण्णा-जो बैठी हुई है, उच्चस्था-जो ऊँचे प्रदेश पर स्थित है और नीचस्था-जो नीचे प्रदेश पर स्थित है, ऐसी स्त्री (या कुछ विशेषण सहित पुरुष) यदि आहार देते हैं तो मुनि उसे नहीं ले। तथा-
गाथार्थ-फूंकना, जलाना, सारण करना, ढकना, बुझाना तथा लकड़ी आदि को हटाना या पीटना इत्यादि अग्नि का कार्य करके, लीपना, धोना करके तथा दूध पीते हुए बालक को छोड़कर इत्यादि कार्य करके आकर यदि दान देते हैं तो दायक दोष होता है।।४७०-४७१।।
फूयणं-संधुक्षणं मुखवातेनान्येन वा अग्निना काष्ठादीनां प्रज्वालनं प्रद्योतनं वा सारणं काष्ठादीनामुत्कर्षणं, प्रच्छादनं भस्मादिना विध्यापनं जलादिना कृत्वा तथान्यदपि अग्निकार्यं, निर्वातं निर्वाणं काष्ठादिपरित्याग:, घट्टनं चापि कुड्यादिनावरणं।।४७०।।
तथा- लेपनं गोमयकर्दमादिना कुड्यादेर्मार्जनं स्नानादिकं कर्म कृत्वेति सम्बंध:।
पिबन्तं दारकं च स्तनमाददानं बालं निक्षिप्य त्यक्त्वा, अन्यांश्चैवंविधादिकान् कृत्वा पुनर्दानं यदि दत्ते दायकदोषा भवन्तीति।।४७१।।
उन्मिश्रदोषमाह-
पुढवी आऊ य तहा हरिदा बीया तसा य सज्जीवा।
१पंचेहिं तेहिं मिस्सं आहारं होदि उम्मिस्सं।।४७२।।
पृथिवी मृत्तिका, आपश्चाप्रासुक: तथा हरितकाया पत्रपुष्पफलादय:। वीयाणि-बीजानि यवगोधूमादय:। त्रसाश्च सजीवा निर्जीवा: पुनर्मलमध्ये भविष्यन्ति दोषा इति। तै: पंचभिर्मिश्र आहारो भवत्युन्मिश्र: सर्वथा वर्जनीयो महादोष इति कृत्वेति।।४७२।।
अपरिणतदोषमाह-
तिलतंडुलउसिणोदयं चणोदयं तुसोदयं अविद्धत्थं।
अण्णं वहाविहं वा अपरिणदं णेव गेण्हिज्जो।।४७३।।
आचारवृत्ति-फूत्करण-मुख की हवा से या अन्य किसी से अग्नि को फूंकना, प्रज्वालन-काठ आदि को जलाना अथवा प्रद्योतित करना, सारण-काठ आदि का उत्कर्षण करना अर्थात् अग्नि में लकड़ियों को डालना, प्रच्छादन-भस्म आदि से ढक देना, विध्यापन-जल आदि से अग्नि को बुझा देना, निर्वात-अग्नि से लकड़ी आदि को हटा देना, घट्टन-किसी चीज से अग्नि को दबा देना आदि अग्नि सम्बन्धी कार्य करते हुए आकर जो आहार देवे तो दायक दोष है।
लेपन-गोबर, मिट्टी आदि से लीपना, मार्जन-स्नान आदि कार्य करना तथा स्तनपान करते हुए बालक को छोड़कर आना, इसी प्रकार से और भी कार्य करके आकर जो पुन: दान देता है और मुनि ग्रहण कर लेते हैं तो उनके दायक दोष होता है।
उन्मिश्र दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-पृथ्वी, जल, हरितकाय, बीज और सजीव त्रस इन पाँचों से मिश्र हुआ आहार उन्मिश्र होता है।।४७२।।
आचारवृत्ति-मिट्टी, अप्रासुक जल तथा पत्ते, फूल आदि हरितकाय, जौ, गेहूं आदि बीज और सजीव त्रस, इन पांच से मिश्रित हुआ आहार उन्मिश्र दोष रूप होता है। इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। चूंकि यह महादोष है, इस दोष में सजीव त्रसों को लिया गया है। निर्जीव अर्थात् मरे हुए त्रसों के आ जाने का हेतुभूत कारण आहार मलदोष के अन्तर्गत आ जायेगा।
अपरिणत दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-तिलोदक, तण्डुलोदक, उष्ण जल, चने का धोवन, तुषधोवन, विपरिणत नहीं हुए और भी जो वैसे हैं, परिणत नहीं हुए हैं, उन्हें ग्रहण नहीं करे।।४७३।।
तिलोदकं तिलप्रक्षालनं। तंदुलोदकं तंदुलप्रक्षालनं। उष्णोदकं तप्तं भूत्वा शीतं च चणोदकं चणप्रक्षालनं। तुषोदकं तुषप्रक्षालनं। अविध्वस्तमपरिणतं आत्मीयवर्णगन्धरसापरित्यक्तं। अन्यदपि तथाविधमपरिणतं हरीतकीचूर्णादिना अविध्वस्तं। नैवं गृण्हीयात् नैव ग्राह्यमिति। एतानि परिणतानि ग्राह्याणीति।।४७३।।
लिप्तदोषं विवृण्वन्नाह-
गेरुय हरिदालेण व सेडीय मणोसिलामपिट्ठेण।
सपबालो१दणलेवे ण व देयं करभायणे लित्तं।।४७४।।
गैरिकया रक्तद्रवेण, हरितालेन सेढिकया षटिकया पांडुमृत्तिकया, मन:शिलया आमपिष्टेन वा तंदुलादिचूर्णेन सप्रवालेन अपक्वशाकेन अप्रासुकोदकेन वा आर्द्रेणैव हस्तेन भाजनेन वा यद्देयं तल्लिप्तं नाम दोषं विजानीहि।।४७४।।
परित्यजनदोषमाह-
बहु परिसाडणमुज्झिअ आहारो परिगलंत दिज्जंतं।
छंडिय भुंजणमहवा २छंडियदोसो हवे णेओ।।४७५।।
बहुपरिसातनमुज्झित्वा बहुप्रसातनं कृत्वा भोज्यं स्तोकं त्याज्यं बहुपात्रहारेण३ सोऽपि बहुपरिसातनमित्युच्यते। आहारं परिगलंतं दीयमानं तक्रघृतोदकादिभि: परिस्रवंतं छिद्रहस्तैश्च बहुपरिसातनं च कृत्वाहारं यदि गृण्हाति त्यक्त्वा
आचारवृत्ति-तिलोदक-तिल का धोवन, तण्डुलोदक-चावल का धोवन, उष्णोदक-गरम होकर ठण्डा हुआ जल, चणोदक-चने का धोवन, तुषोदक-तुष का धोवन; अवि-ध्वस्त-अपने वर्ण, गंध, रस को नहीं छोड़ा है ऐसा जल; अन्य भी उसी प्रकार से हरड़ आदि के चूर्ण से प्रासुक नहीं किये हैं अथवा जल में हरड़ आदि का चूर्ण इतना थोड़ा डाला है कि वह जल अपने रूप, गंध और रस से परिणत नहीं हुआ है, ऐसे जल आदि को नहीं लेना चाहिए। यदि ये परिणत हो गये हैं तो ग्रहण करने योग्य हैं।
लिप्त दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-गेरु, हरिताल, सेलखड़ी, मन:शिला, गीला आटा, कोंपल आदि सहित जल इन से लिप्त हुए हाथ या बर्तन से आहार देना सो लिप्त दोष है।।४७४।।
आचारवृत्ति-गेरु, हरिताल, सेटिका-सफेद मिट्टी या खड़िया, मनशिल अथवा चावल आदि का आटा, सप्रवाल-अपक्वशाक अथवा अप्रासुक जल इन वस्तुओं से लिप्त हुए हाथ से या बर्तन से जो आहार दिया जाता है वह लिप्त नाम के दोष से सहित है ऐसा जानो।
परित्यजन दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-बहुत-सा गिराकर या गिरते हुए दिया गया भोजन ग्रहण कर और भोजन करते समय गिराकर जो आहार करना है वह व्यक्त दोष है ऐसा जानना चाहिए।।४७५।।
आचारवृत्ति-बहुत-सा भोजन गिराकर आहार लेना अर्थात् भोजन की वस्तुएँ थोड़ी हाथ में रखना, बहुत-सी गिरा देना सो भी परिसातन कहलाता है। घी, छाछ, जल आदि वस्तु देते समय हाथ से बहुत गिर रही हो या अपने छिद्र सहित अंजली पुट से इन वस्तुओं को बहुत गिराते हुए आहार लेना तथा एक कोई वस्तु हाथ से गिराकर अन्य कोई इष्ट वस्तु खा लेना इत्यादि प्रकार से मुनि के व्यक्त दोष होता है।
ये दश अशन दोष कहे गये हैं जो कि त्याग करने योग्य हैं। ये सावद्य को करने वाले हैं। इनसे जीवदया नहीं पलती है और लोक में निन्दा भी होती हैं अत: ये त्याज्य है।
चैकमाहारमपरं भुंक्ते यस्तस्य त्यक्तदोषो भवति। एते अशनदोषा: दश परिहरणीया:। सावद्यकारणाज्जीवदयाहेतोर्लोकजुगुप्सा ततश्चेति।।४७५।।
संयोजनाप्रमाणदोषानाह-
संजोयणा य दोसो जो संजोएदि भत्तपाणं तु।
अदिमत्तो आहारो पमाणदोसो हवदि एसो।।४७६।।
संयोजनं च दोषो भवति। य: संयोजयति भक्तं पानं तु। शीतं भक्तं पानेनोष्णेन संयोजयति। शीतं वा पानं उष्णेन भक्तादिना संयोजयति। अन्यदपि विरुद्धं परस्परं यत्तद्यदि संयोजयति तस्य संयोजननाम दोषो १भवति। अतिमात्र आहार:-अशनस्य सव्यंजनस्य द्वयभागं तृतीयभागमुदकस्योदरस्य२ य: पूरयति, चतुर्थभागं चावशेषयति यस्तस्य प्रमाणभूत आहारो भवति, अस्मादन्यथा य: कुर्यात्तस्यातिमात्रो नामाहारदोषो भवति। प्रमाणातिरिक्ते आहारे गृहीते स्वाध्यायो न प्रवर्तते, पडावश्यकक्रिया: कर्तुं न शक्यंते, ज्वरादयश्च संतापयन्ति, निद्रालस्यादयश्च दोषा जायंते इति।।४७६।।
अंगारधूमदोषानाह-
तं होदि ३सयंगालं जं आहारेदि४ मुच्छिदो संतो।
तं पुण होदि सधूमं जं आहारेदि णिदिदो।।४७७।।
यदि मूर्छित: सन् गृद्ध्या युक्त: आहारमभ्यवहरति भुंक्ते तदा तस्य पूर्वोक्तोऽङ्गारादिदोषो भवति, सुष्ठु गृद्धिदर्शनादिति। तत्पुनर्भवति स पूर्वोक्तो धूमो नाम दोष:, यस्मादाहरति निंदन्जुगुप्समानो विरूपकमेतदनिष्टं मम, एवं कृत्वा यदि भुंक्ते तदानीं धूमो नाम दोषो भवत्येव, अन्त:संक्लेशदर्शनादिति।
संयोजना और प्रमाण दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-जो भोजन और पान को मिला देता है सो संयोजना दोष है। अतिमात्र आहार लेना सो यह प्रमाण दोष होता है।।४७६।।
आचारवृत्ति-ठण्डा भोजन उष्ण जल से मिला देना या ठण्डे जल आदि पदार्थ उष्ण भात आदि से मिला देना। अन्य भी परस्पर विरुद्ध वस्तुओं को मिला देना संयोजना दोष है।
व्यंजन आदि भोजन से उदर के दो भाग पूर्ण करना और जल से उदर का तीसरा भाग पूर्ण करना तथा उदर का चतुर्थ भाग खाली रखना सो प्रमाणभूत आहार कहलाता है। इससे भिन्न जो अधिक आहार ग्रहण करते हैं उनके प्रमाण या अतिमात्र नाम का आहार दोष होता है। प्रमाण से अधिक आहार लेने पर स्वाध्याय नहीं होता है, षट्-आवश्यक क्रियाएँ करना भी शक्य नहीं रहता है। ज्वर आदि रोग भी उत्पन्न होकर संतापित करते हैं तथा निद्रा और आलस्य आदि दोष भी होते हैं। अत: प्रमाणभूत आहार लेना चाहिए।
अंगार और धूम दोष को कहते हैं-
गाथार्थ-जो गृद्धि य्ाुक्त आहार लेता है वह अंगार दोष सहित है। जो निन्दा करते हुए आहार लेता है उसके धूम दोष होता है।।४७७।।
आचारवृत्ति-जो मूर्छित होता हुआ अर्थात् आहार में गृद्धता रखता हुआ आहार लेता है उसके अंगार नाम का दोष होता है, क्योंकि उसमें अतीव गृद्धि देखी जाती है।
जो निन्दा करते हुए अर्थात् यह भोजन विरूपक है, मेरे लिए अनिष्ट है, ऐसा करके भोजन करता है उसके धूम नाम का दोष होता है क्योंकि अंतरंग में संक्लेश देखा जाता है। कारणमाह-
छहिं कारणेहिं असणं आहारंतो वि आयरदि धम्मं।
छहिं चेव कारणेहिं दु णिज्जुहंतो वि आचरदि।।४७८।।
षड्भि: कारणै: प्रयोजनैस्तु निरवशेषमशनमाहारं भोज्यखाद्यलेह्यपेयात्मकमभ्यवहरन्नपि भुंजानोऽप्याचरति चेष्टयति अनुष्ठानं करोति धर्मं चारित्रं। तथैव षड्भि: कारणै: प्रयोजनस्तु निरवशेषं १जुगुप्सन्नपि परित्यजन्नप्याचरति प्रतिपालयति धर्ममिति संबध:। निष्कारणं यदि भुंक्ते भोज्यादिकं तदा दोष:, कारणै: पुनर्भुंजानोऽपि धर्ममाचरति साधुरिति सम्बन्ध:। तथापरै: प्रयोजनै: परित्यजन्नपि भोज्यादिकं धर्ममेवाचरति नाशनपरित्यागे दोष: सकारणत्वात्परित्यागस्येति।।४७८।।
कानि तानि कारणानि यैर्भुंक्तेऽशनमित्याशंकायामाह-
वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमट्ठाए।
तध पाणधम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं।।४७९।।
ममाहारमन्तरेण विशेषेणायुर्न तिष्ठतीत्येवं प्राणार्थं भुंक्ते। तथा धर्मचिन्तया भुंक्ते धर्मो दशप्रकार: उत्तमक्षमादि-लक्षणो मम वशे न तिष्ठति भोजनमंतरेण, क्षमां मार्दवमार्जवं चेत्यादिकं कर्तुं न शक्नोत्ययं जीवोऽशनमन्तरेणेति भुंक्ते। २नातिमात्रं धर्मसंयमयो: पुनरैक्यं क्षमादिभेददर्शनादिति। एभि: षड्भि: कारणैराहारं कुर्याद्यतिरिति सम्बंध:।।४७९।।
वेदना क्षुद्वेदनामुपशमयामीति भुंक्ते। वैयावृत्त्यमात्मनोऽन्येषां च करोमीति वैयावृत्त्यार्थं भुंक्ते। क्रियार्थं षडावश्यकक्रिया मम भोजनमन्तरेण न प्रवर्तते इति ता: प्रतिपालयामीति भुंक्ते। संयमार्थं त्रयोदशविधं संयमं पालयामीति भुंक्ते, अथवाहारमन्तरेणेन्द्रियाणि मम विकलानि भवन्ति तथा सति जीवदयां कर्तुं न शक्नोमीति प्राणसंयमार्थं इन्द्रियसंयमार्थं च भुंक्ते, तथा प्राणचिन्तया भुंक्ते, प्राणा दशप्रकारास्तिष्ठन्ति (न)।
कारण को कहते हैं-
गाथार्थ-छह कारणों से भोजन ग्रहण करते हुए भी धर्म का आचरण करते हैं और छह कारणों से ही छोड़ते हुए भी धर्म का आचरण करते हैं।।४७८।।
आचारवृत्ति-मुनि छह कारणों से-प्रयोजनों से भोज्य, खाद्य, लेह्य, पेय इन चार प्रकार के आहार को ग्रहण करते हुए भी धर्म अर्थात् चारित्र का अनुष्ठान करते हैं। तथा छह प्रयोजनों से ही आहार का त्याग करते हुए भी धर्म का पालन करते हैं। यदि मुनि निष्कारण ही आहार ग्रहण करते हैं तो दोष है। प्रयोजनों से भोजन करते हुए भी धर्म का आचरण करते हैं ऐसा अभिप्राय है।
उसी प्रकार से अन्य प्रयोजनों से ही भोजन का त्याग करते हुए धर्म का ही पालन करते हैं अत: भोजन के परित्याग में दोष नहीं है, क्योंकि वह त्याग कारण सहित होता है।
वे कौन से कारण हैं जिनसे आहार करते हैं ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-वेदना शमन हेतु, वैयावृत्ति के लिए, क्रियाओं के लिए, संयम के लिए तथा प्राणों की चिन्ता और धर्म की चिन्ता के लिए, इन कारणों से आहार करे।।४७९।।
आचारवृत्ति-‘मैं क्षुधा-वेदना का उपशम करूँ’ इसलिए मुनि आहार करते हैं। ‘मैं अपनी और अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करूँ’ इसलिए आहार करते हैं। ‘मेरी छह आवश्यक क्रियाएँ भोजन के बिना नहीं हो सकती हैं, मैं उन क्रियाओं को करूँ’, इसलिए आहार करते हैं। ‘तेरह प्रकार का संयम मैं पालन करूं’ इसलिए भोजन करते हैं। अथवा ‘आहार के बिना मेरी इन्द्रियाँ शिथिल या विकल हो जावेंगी तो मैं जीवदया पालन करने में समर्थ नहीं होऊँगा’ इस तरह से प्राण संयम और इन्द्रिय संयम के पालन करने हेतु आहार करते हैं।
तथा अथ यै: कारणैस्त्यजत्याहारं कानि तानीत्याशंकायामाह-
आदंके उवसग्गे तिरक्खणे बंभचेरगुत्तीओ।
पाणिदयातवहेऊ सरीरपरिहार वोच्छेदो।।४८०।।
आतंके आकस्मिकोत्थितव्यार्धो मारणान्तिकपीडायां सहितायां वाह्यजातीयामाहारव्युच्छेद: परित्याग:। तथोपसर्गे दीक्षाविनाशहेतो देवमानुषतिर्यग्चेतनकृते समुपस्थिते भोजनपरित्याग:। तितिक्षणायां ब्रह्मचर्यगुप्ते: सुष्ठु निर्मलीकरणे सप्तमधातुक्षयायाहारव्युच्छेद:।
तथा प्राणिदयाहेतो यद्याहारं गृण्हामि बहुप्राणिनां घातो भवति तस्माद्यद्याहारं न गृण्हामीति जीवदयानिमित्तमाहारव्युच्छेद:। तथा तपोहेतौ द्वादशविधे तपस्यनशनं नाम तपस्तदद्य करोमीति तपो निमित्तमाहारव्युच्छेद:। तथा शरीरपरिहारे संन्यासकाले जरा मम श्रामण्यहानिकरी, रोगेण च दु:साध्यतमेन जुष्ट:, करणविकलत्वं च मम संजातं स्वाध्यायक्षतिश्च दृश्यते, जीवितव्यस्य च ममोपायो नास्तीत्येवं कारणे शरीरपरित्यागस्तन्निमित्तो भक्तादिव्युच्छेद:।
एतै: षड्भि: कारणैराहारपरित्याग: कार्य:। न पूर्वै: सह विरोधो१ विषयविभागदर्शनादिति, क्षुद्वेदनादिषु सत्स्वपि आतंक: स्यात्, ‘मेरे ये दश विध प्राण आहार के बिना नहीं रह सकते हैं’, विशेष रूप से आहार के बिना आयु प्राण नहीं रह सकता है, अत: प्राणों के लिए मुनि आहार करते हैं। भोजन के बिना उत्तम क्षमा आदि रूप दस प्रकार का धर्म मेरे वश में नहीं रह सकेगा। अशन के बिना यह जीव क्षमा, मार्दव आदि धर्म करने में समर्थ नहीं हो सकता है, इसलिए वे आहार करते हैं।
धर्म और संयम में एकान्त से ऐक्य नहीं है, क्योंकि क्षमादि भेद देखें जाते हैं। इन छह कारणों से यति आहार करते हैं यह अभिप्राय है।
जिन कारणों से आहार छोड़ते हैं वे कौन से हैं ? सो ही कहते हैं-
गाथार्थ-आतंक होने पर, उपसर्ग के आने पर, ब्रह्मचर्य की रक्षा हेतु, प्राणि दया के लिए, तप के लिए और संन्यास के लिए आहार त्याग होता है।।४८०।।
आचारवृत्ति-आतंक-आकस्मिक कोई व्याधि उत्पन्न हो गयी जो कि मारणान्तिक पीड़ाकारक है, ऐसे प्रसंग में आहार का त्याग कर दिया जाता है। उपसर्ग-देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन कृत उपसर्ग के उपस्थित होने पर भोजन का त्याग होता है। ब्रह्मचर्य, गुप्ति की रक्षा के लिए अर्थात् अच्छी तरह ब्रह्मचर्य को निर्मल करने हेतु, सप्तम धातु अर्थात् वीर्य का क्षय करने के लिए आहार का त्याग होता है।
‘यदि मैं आहार ग्रहण करता हूँ तो बहुत से प्राणियों का घात होता है इसलिए आहार ग्रहण नहीं करूंगा’, इस तरह जीव दया के निमित्त आहार का त्याग करते हैं। ‘बारह प्रकार के तपों में अनशन एक तप है उसे मैं करूंगा’ ऐसे तप के लिए भी आहार छोड़ देते हैं।
तथा ‘संन्यास काल में अर्थात् वृद्धावस्था मेरी मुनि-अवस्था में हानि करने वाली है, मैं दुश्साध्य रोग से युक्त हूँ, मेरी इन्द्रियाँ विकल हो गयी हैं या मेरे स्वाध्याय की हानि हो रही है, मेरे जीने के लिए अब कोई उपाय नहीं है’, इस प्रकार के प्रसंगों में शरीर का परित्याग करना होता है। इसी का नाम संन्यासमरण है। उस संन्यास मरण के निमित्त आहार का त्याग करते हैं। अर्थात् इन छह कारणों से आहार का त्याग करना चाहिए।
यहाँ पूर्व कारणों के साथ विरोध नहीं है, क्योंकि विषय विभाग देखा जाता है। क्षुधा-वेदना आदि के होने पर भी आतंक हो सकता है। अथवा यदि प्रचुर जीव-हत्या दिखती है तो भोजन आदि त्याग कर देते हैं। यदि प्रचुरजीवहत्या वा दृश्यते ततो भोजनादिपरित्यागं, शरीरपीडारहितस्य तपोविधानमिति न विरोधो विषयभेददर्शनादिति। आहारोऽत्रानुवर्तते तेन सह सम्बन्धो व्युच्छेदस्येति।।४८०।।
एतदर्थं पुनराहारं न कदाचिदपि कुर्यादिति प्रपंचयन्नाह-
ण बलाउसाउअठ्ठं ण सरीर१स्सुवचयट्ठ तेजट्ठं।
णाणट्ठ संजम झाणट्ठं चेव भुंजेज्जो।।४८१।।
न बलार्थं मम बलं युद्धादिक्षमं भूयादित्येवमर्थं न भुंक्ते नायुषोथं-ममायुर्वृद्धिं यात्विति न भुंक्ते। न स्वादार्थं, शोभनोऽस्य स्वादो भोजनस्येत्येवमर्थं न भुंक्ते। न शरीरस्योपचयार्थं, शरीरं मम पुष्टं मांसवृद्धं वा भवत्विति न भुंक्ते। नापि तेजोऽर्थं, शरीरस्य मम दीप्ति: स्याद्दर्पो वेति न भुंजीताहारमिति।
यद्येवमर्त्थं न भुंक्ते किमर्थं तर्हि भुंक्तेऽत आह-ज्ञानार्थं, ज्ञानं स्वाध्यायो मम प्रवर्ततामिति भुंक्ते। संयमार्थं, संयमो मम स्यादिति भुंक्ते। ध्यानार्थं चैव, आहारमन्तरेण न ध्यानं प्रवर्तते यतो भुक्ते यतिरिति। तथापि भुक्ते इत्यत आह।।४८१।।
णवकोडीपरिसुद्धं असणं बादालवोसपरिहीणं।
संजोजणाय हीणं पमाणसहियं विहिसुदिण्णं।।४८२।।
विगदिंगाल विधूमं छक्कारणसंजुदं कमविसुद्धं।
जत्तासाधणमेतं चोद्दसमलवज्जिदं भुंजे।।४८३।।
शरीर-पीड़ा रहित साधु के तपश्चरण होता है इसलिए विरोध नहीं है क्योंकि विषयभेद देखा जाता है। आहार शब्द की अनुवृत्ति होने से यहाँ पर भी गाथा में व्युच्छेद के साथ आहार का व्युच्छेद अर्थात् त्याग करना ऐसा सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए।
इनके लिए पुन: आहार कदाचित् भी न करे, इसी बात को बताते हैं-
गाथार्थ-न बल के लिए, न आयु के लिए और न स्वाद के लिए, न शरीर की पुष्टि के लिए और न तेज के लिए आहार ग्रहण करे। किन्तु ज्ञान के लिए, संयम के लिए और ध्यान के लिए आहार ग्रहण करे।।४८१।।
आचारवृत्ति-‘युद्धादि में समर्थ ऐसा बल मेरे हो जावे’ इस हेतु मुनि आहार नहीं करते हैं। ‘मेरी आयु बढ़ जावे’ इसलिए भी आहार नहीं करते हैं। ‘इस भोजन का स्वाद बढ़िया है’ इस प्रकार स्वाद के लिए भी भोजन नहीं करते हैं। ‘मेरा शरीर पुष्ट हो जावे अथवा मांस की वृद्धि हो जावे’ इसलिए भोजन नहीं करते हैं और ‘मेरे शरीर में दीप्ति हो या दर्प हो’ इसलिए भी आहार नहीं करते हैं।
यदि इन बल, आयु, स्वाद, शरीर पुष्टि और दीप्ति के लिए आहार नहीं करते हैं तो किसलिए करते हैं ?
‘मेरा स्वाध्याय चलता रहे’ इस तरह ज्ञान के लिए आहार करते हैं। ‘मेरा संयम पलता रहे’ इस तरह संयम के लिए आहार करते हैं और आहार के बिना ध्यान नहीं हो सकेगा इसलिए ध्यान के हेतु यति आहार करते हैं। अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए मुनि आहार करते हैं।
कैसा आहार ग्रहण करते हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-नवकोटि से शुद्ध भोजन, जो कि व्यालीस दोषों से रहित है, संयोजना से हीन है, प्रमाण सहित है और विधिपूर्वक दिया जाता है।
जो कि अंगार दोष से रहित है, धूम दोष रहित है, छह कारणों से युक्त है और क्रम से विशुद्ध है, जो यात्रा के लिए साधनमात्र है तथा चौदह मल दोषों से रहित है, साधु ऐसा अशन ग्रहण करते हैं।।४८२-४८३।।
नवकोटिपरिशुद्धं। कास्ता: कोटयो मनसा कृतकारितानुमतानि तिस्र: कोटय:, तथा वचसा कृतकारितानुमतानि तिस्र: कोटय:, तथा कायेन कृतकारितानुमतानि तिस्र: कोटय एताभि:. कोटिभि: परिशुद्धमशनं, द्विचत्वारिंशद्दोषपरिहीणं उद्गमोत्पादैषणादोषरहितं, संयोजनयारहितं, प्रमाणसहितं, विधिना दत्तं प्रतिग्रहोच्चस्थानपादोदकार्चनाप्रणमनमनोवचन-कायशुद्ध्यशनशुद्धिभिर्दत्तमुपनीतं, श्रद्धाभक्तितुष्टिविज्ञानालुब्ध ताक्षमाशक्तियुक्तेन दात्रेति।।४८२।। तथा-
विगतांगारं, विगतधूम, षट्कारणसंयुक्तं क्रमविशुद्धमुत्क्रमहीनं, यात्रासाधनमात्रं प्राणसंधारणार्थं अथवा मोक्षयात्रा-साधननिमित्तं, चर्तुदशमलवर्जितं भुंक्ते साधुरिति सम्बन्ध:।।४८३।।
अथ कानि चतुर्दशमलानीत्याह-
णहरोमजंतुअट्ठी कणकुंडयपूयचम्मरुहिरमंसाणि।
बीयफलकंदमूला छिण्णाणि मला चउद्दसा होंति।।४८४।।
नखो, हस्तपादाङ्गुल्याग्रप्रभवो मनुष्यजातिप्रतिबद्धतिर्यग्जातिप्रतिबद्धो वा रोमबाल: सोपि मनुष्यतिर्यग्जात:१। जन्तुर्जीव: प्राणिरहितशरीरं। अस्थि कंकाल कण: यवगोधूमादीनां बहिरवयव:। कुंड्यादिशाल्यादीनामभ्यन्तरसूक्ष्मावयवा:। पूयं, पक्वरुधिरं व्रणक्लेद: चर्म शरीरत्वक् प्रथमधातु:। रुधिरं द्वितीयो धातु:। मांसं रुधिराधार तृतीयो धातु:। वीजानि प्रा
आचारवृत्ति-जो आहार नव कोटि से परिशुद्ध है। ये नव कोटि क्या हैं ? मन से कृत, कारित, अनुमोदना का होना ये तीन कोटि हैं; वचन से कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन कोटि हैं तथा काय से कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन कोटि हैं, ऐसे ये नव कोटि हुईं। इन नव कोटि से शुद्ध आहार को मुनि ग्रहण करते हैं। अर्थात् मुनि मन, वचन, काय से आहार न बनाते हैं, न बनवाते हैं और न अनुमोदना करते हैं।
सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष और दस एषणा दोष ये ब्यालीस दोष हैं। इनसे रहित, संयोजना दोष से रहित और प्रमाण सहित आहार लेते हैं। तथा विधि से दिया गया हो अर्थात् पड़गाहन करना, उच्च स्थान देना, पाद प्रक्षालन करना, अर्चना करना, प्रणाम करना, मन-वचन-काय की शुद्धि तथा आहार की शुद्धि यह नवधाभक्ति विधि कहलाती है।
इस विधि से तथा श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, विज्ञान, अलोभ, क्षमा और शक्ति इन सात गुणों से युक्त दाता के द्वारा जो दिया गया है ऐसा आहार लेते हैं। जो अंगार दोष रहित, धूम दोष रहित, छह कारणों से संयुक्त, क्रम्ा से विशुद्ध अर्थात् उत्क्रम से हीन तथा प्राणों के धारण के लिए अथवा मोक्ष की यात्रा के साधन का निमित्त है, चौदह मल दोषों से रहित है ऐसे आहार को यति ग्रहण करते हैं।
भावार्थ-१६ उद्गम दोष, १६ उत्पादन दोष, १० अशन दोष, संयोजन, प्रमाण, अंगार और धूम ये मिलकर छ्यालीस दोष हो जाते हैं। यहाँ पर संयोजन आदि चार को पृथव्â करके उपर्युक्त ४२ को एक साथ लिया है।
चौदह मलदोष क्या हैं ?
गाथार्थ-नख, रोम, जंतु, हड्डी, कण, कुण्ड, पीव, चर्म, रुधिर, मांस, बीज, फल, कंद और मूल ये पृथक्भूत चौदह मलदोष होते हैं।।४८४।।
आचारवृत्ति-नख-मनुष्य या तिर्यंचों के हाथ या पैर की अंगुलियों का अग्र भाग, रोम-मनुष्य और तिर्यंचों के बाल, जन्तु-प्राणियों के निर्जीव शरीर, अस्थि-कंकाल अर्थात् हड्डी, कण-जौ, गेहूँ आदि के बाहर का अवयव-छिलका, कुण्ड-शालि आदि अभ्यन्तर भाग का सूक्ष्म अवयव, पूय-(प्र) रोहयोग्यावयवगोधूमादय:।
फलानि जम्बाम्राम्बाडकफलानि। कंद: कंदल्य१ध:प्रारोहकारणं। मूलं पिप्पला२द्यध:प्ररोहनिमित्तं। छिन्नानि पृथग्भूतानि मलानि चतुर्दश भवन्ति। कानिचिदत्र महामलानि, कानिचिदल्पानि, कानिचिन्महादोषाणि, कानिचिन्दल्पदोषाणि। रुधिरमांसास्थिचर्मपूयानि महादोषाणि सर्वाहारपरित्यागेऽपि प्रायश्चित्तकारणानि द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिय-शरीराणि बालाश्चाहारत्यागकारणनिमित्तानि। नखेनाहार: परित्यज्यते। किंचित्प्रायश्चित्तं क्रियते।
कणकुंडबीजकंदफलमूलानि परिहारयोग्यानि यदि परिहर्तुं न शक्यन्ते भोजनपरित्याग: क्रियते। तथा स्वशरीरे सिद्धभक्तौ कृतायां यदि रुधिरं पूयं च गलति पारिवेशकशरीराद्वा तदाहारस्य त्याग:। तद्दिवसेऽस्य मांसस्य पुनर्दर्शनेनाष्टप्रकारायां पिंडशुद्धौ न पठितानीति पृथगुच्यन्ते इति।।४८४।।
दोषरहितं भुंक्ते यतिरित्युक्ते किं तद्भुंक्ते इत्याशंकायामाह-
पगदा असओ जह्मा तह्मादो दव्वदोत्ति तं दव्वं।
फासुगमिदि सिद्धेवि य अप्पट्ठकदं असुद्धं तु।।४८५।।
द्रव्यभावत: प्रासुकं द्रव्यं भुंक्ते। द्रव्यगतप्रासुकमाह-प्रगता असव: प्राणिनो यस्मात्तस्माद्द्रव्यत: शुद्धमिति तदद्रव्यं यत्रैकेन्द्रिया जीवा न सन्ति न विद्यन्ते स आहारस्तद्द्रव्यत: शुद्ध:, द्वीन्द्रियादय: पुनर्यत्र सजीवा निर्जीवा वा पका हुआ, रुधिर अर्थात् घाव का पीव, चर्म-शरीर की त्वचा (यह प्रथम धातु है), रुधिर-खून (यह द्वितीय धातु है), मांस-रुधिर के लिए आधारभूत (यह तृतीय धातु है), बीज-उगने योग्य अवयव अर्थात् गेहूँ, चने आदि, फल-जामुन, आम, अंबाडक आदि, कंद-कंदली के नीचे से उगने वाला अर्थात् जमीन में उत्पन्न होने वाले अंकुर की उत्पत्ति के कारणभूत अथवा सूरण वगैरह, मूल-पिप्पली आदि जड़, ये चौदह मल होते हैं।
इनमें कुछ तो महामल हैं और कोई अल्पमल हैं। कोई महादोष हैं और कोई अल्प दोष हैं। रुधिर, मांस, हड्डी, चर्म और पीव ये महादोष हैं। आहार में इनके आ जाने पर सर्वाहार का परित्याग करने पर भी प्रायश्चित्त लेना होता है।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के शरीर अर्थात् मृत लट, चिंवटी, मक्खी आदि तथा बाल यदि आहार में आ जावें तो आहार छोड़ देना होता है। आहार में नख आ जाने पर आहार छोड़ देना होता है और किंचित् प्रायश्चित्त भी ग्रहण करना होता है। कण, कुंड, बीज, कंद, फल और मूल इनके आ जाने पर यदि इन्हें न निकाल सके तो आहार छोड़ देना चाहिए।
तथा सिद्धभक्ति कर लेने के बाद यदि मुनि के अपने शरीर से रुधिर या पीव बहने लगता है अथवा आहार देने वाले के शरीर से रुधिर या पीव निकलता है तो उस दिन आहार छोड़ देना होता है। यदि मांस भी दिख जाए तो भी आहार त्याग कर देना चाहिए।
ये मल दोष आठ प्रकार की पिंडशुद्धि में नहीं कहे गए हैं, अत: इनका पृथक् कथन किया गया है।
यति दोषरहित आहार करते हैं तो वे कैसा आहार करते हैं ? सो ही बताते हैं।
गाथार्थ-जिस द्रव्य से जीव निकल गए हैं वह द्रव्य प्रासुक है। इस तरह का भोजन प्रासुक बना होने पर भी यदि वह अपने लिए बना है तो अशुद्ध है।।४८५।।
आचारवृत्ति-मुनि द्रव्य और भाव से जो प्रासुक वस्तु आहार में लेते हैं। द्रव्यगत प्रासुक को कहते हैं-निकल गये हैं असु अर्थात् प्राणी जिसमें से वह द्रव्य से शुद्ध है अर्थात् जिसमें एकेन्द्रिय जीव नहीं है वह आहार द्रव्य से शुद्ध है। पुन: जिसमें द्वीन्द्रिय आदि जीव जीते हुए या निर्जीव हुए भी हैं वह आहार मुनि सन्ति स आहारो दूरत: परिवर्जनीयो द्रव्यतोऽशुद्धत्वादिति।
प्रासुकमिति अनेन प्रकारेण प्रासुकं सिद्धं निष्पन्नमपि द्रव्यं यद्यात्मार्थं कृतमात्मनिमित्तं कृतं चिन्तयति तदा द्रव्यत: शुद्धमप्यशुद्धमेव।।४८५।।
कथं परार्थकृतं शुद्धमित्याशंकायां दृष्टान्तेनार्थमाह-
जह मच्छयाण पयदे मदणुदये मच्छया हि मज्जंति।
ण हि मंडूगा एवं परमट्ठकदे जदि विसुद्धो।।४८६।।
यथा मत्स्यानां प्रकृते मदनोदके यथा मत्स्यानां निमित्तं कृते मदनकारणे जले मत्स्या हि स्फुटं माद्यन्ति विह्वलीभवन्ति न हि मण्डूका, भेका नैव माद्यन्ति।
यस्मिञ्जले मत्स्यास्तस्मिन्नेव मण्डूका अपि तथापि ते न विपद्यन्ते तद्धेतोरभावात्। एवं परार्थे कृते भक्षादिके१ प्रवर्तमानोऽपि यतिर्विशुद्धस्तद्गतेन दोषेण न लिप्यते। कुटुम्बिनोऽध:कर्मादिदोषेण गृह्यन्ते न साधव:। तेन कुटुम्बिन: साधुदानफलेन तं दोषमपास्य स्वर्गगामिनो मोक्षगामिनश्च भवन्ति सम्यग्दृष्टय:, मिथ्यादृष्टय: पुनर्भोगभुवमवाप्नुवंति न दोष इति।।४८६।।
भावत: शुद्धमाह-
आधाकम्मपरिणदो फासुगदव्वेवि बंधओ भणिओ।
सुद्धं गयेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो।।४८७।।
प्रासुके द्रव्ये सति यद्यध:कर्मपरिणतो भवति साधुर्यद्यात्मार्थं कृतं मन्यते गौरवेण तदासी बन्धको भणित: को दूर से ही छोड़ देना चाहिए, क्योंकि वह द्रव्य से अशुद्ध है। इसी प्रकार से प्रासुक सिद्ध हुआ भी द्रव्य यदि अपने लिए तैयार किया गया है तो वह द्रव्य से शुद्ध होते हुए भी अशुद्ध ही है। अर्थात् वह आहार भाव से अशुद्ध है।
पर के लिए बनाया गया भोजन कैसे शुद्ध है ? ऐसी आशंका होने पर दृष्टांत के द्वारा उसको कहते हैं-
गाथार्थ-जैसे मत्स्यों के लिए किये मादक जल में मत्स्य ही मद को प्राप्त होते हैं, इसी तरह पर के लिए किये गये (भोजन) में यति विशुद्ध रहते हैं।।४८६।।
आचारवृत्ति-जैसे मछलियों के लिए जल में मादक वस्तु डालने पर उस जल से मछलियाँ ही विह्वल होती हैं, मेंढक नहीं होते।
जिस जल में मछलियां हैं उसी में मेंढक भी हैं, फिर भी वे विपत्ति को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि उनके लिए उस कारण का अभाव है। इसी तरह पर के लिए बनाये गये भोजन आदि में उसे ग्रहण करते हुए भी यति विशुद्ध हैं वे दोष से लिप्त नहीं होते हैं अर्थात् (दाता के ) कुटुम्बीजन ही अध:कर्म आदि दोष से दूषित होते हैं, साधु नहीं।
बल्कि वे कुटुम्बी-गृहस्थजन यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो साधु के दिये दान के फल से उस अध:कर्म-आरम्भजन्य दोष को दूर करके, स्वर्गगामी और मोक्षगामी हो जाते हैं और यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो पुन: भोगभूमि को प्राप्त कर लेते हैं इसलिए उन्हें दोष नहीं होता है।
भाव से शुद्ध आहार को कहते हैं-
गाथार्थ-अध:कर्म से परिणत हुए मुनि प्रासुक द्रव्य के ग्रहण करने में भी बन्धक कहे गये हैं, किन्तु शुद्ध आहार की गवेषणा करने वाले अध:कर्म से युक्त आहार ग्रहण करने में भी शुद्ध हैं।।४८७।।
आचारवृत्ति-प्रासुक द्रव्य के होने पर भी यदि साधु अध:कर्म से परिणत हैं अर्थात् यदि वे गौरव से उस आहार को अपने लिए किया हुआ मानते हैं तब वे कर्म का बन्ध कर लेते हैं।
पुन: शुद्ध की खोज करते हुए अर्थात् अध:कर्म से रहित और कृत-कारित-अनुमोदना से रहित ऐसा आहार यत्नपूर्वक चाहते हुए साधु कर्मबध्नाति शुद्धं पुनर्गवेषयमाणोऽध:कर्मविशुद्धं कृतकारितानुमतिरहितं यत्नेन पश्यन्नध:कर्मणि सत्यपि शुद्धोऽसौ यद्यप्यध:कर्मणा निष्पन्नोऽसावाहारस्तथापि साधोर्न बंधहेतु: कृतादिदोषाभावादिति।
सव्वोवि पिंडदोसो दुव्वे भावे समासदो दुविहो।
दव्वगदो पुण दव्वे भावगदो अप्पपरिणामो।।४८८।।
सर्वोऽपि पिण्डदोषो द्रव्यगतो भावगतश्च समासतो द्विप्रकार:। द्रव्यमुद्गमादिदोषसहितमप्यध:कर्मणा युक्तं द्रव्यगतमित्युच्यते तस्माद्द्रव्यगत: पुनर्द्रव्यमिति। भावत: पुनरात्मपरिणाम: शुद्धमपि द्रव्यं परिणामानामशुद्ध्याऽशुद्धमिति तस्माद्भावशुद्धिर्यत्नेन कार्या। भावशुद्ध्या सर्वं तपश्चरणं ज्ञानदर्शनादिकं च व्यवस्थितमिति।।४८८।।
द्रव्यस्य भेदमाह-
सव्वेसणं च विद्देसणं च सुद्धासणं च ते कमसो।
एसणसमिदिविसुद्धं णिव्वियडमवंजणं जाणं।।४८९।।
सर्वैषणं चशब्देनासर्वैषणं, विद्वैषणं चशब्देनाविद्वैषणं शुद्धाशनं चशब्देनाशुद्धाशनं च ग्राह्यं। एषणासमितिविशुद्धं सर्वैषणमित्युच्यते। तथा विकृते: पंचरसेभ्यो निष्क्रान्तं निर्विकृतं गुडतैलघृतदधिदुग्धशाकादिरहितं सौवीरशुष्कतक्रादिसमन्वितं विद्वैषणमित्युच्यते।
तथा सौवीरशुष्कतक्रादिभिर्वर्जितमव्यञ्जनं पाकादवतीर्णरूपं मनागप्यन्यथा न कृतं शुद्धाशनमिति क्रमशो कदाचित् अध:कर्म युक्त आहार के ग्रहण करने में भी शुद्ध ही हैं। यद्यपि वह आहार अध:कर्म के द्वारा बनाया हुआ है तो भी साधु के बन्ध का हेतु नहीं है, क्योंकि उसमें उन साधु की कृत-कारित-अनुमोदना आदि नहीं है।
गाथार्थ-सभी पिंड दोष द्रव्य और भाव से संक्षेप में दो प्रकार के हैं। पुन: द्रव्य से सम्बन्धित तो द्रव्य में है और भाव से सम्बन्धित आत्मा का परिणाम है।।४८८।।
आचारवृत्ति-सभी पिंड दोष द्रव्यगत और भावगत की अपेक्षा से संक्षेप से दो प्रकार है, अर्थात् द्रव्य पिण्डदोष और भाव पिण्डदोष ऐसे पिण्डदोष के दो भेद हैं। उद्गम आदि दोष से सहित भी अध:कर्म से युक्त आहार द्रव्यगत पिण्डदोष कहलाता है।
वह द्रव्यगत पुन: द्रव्य दोष है। भाव से अर्थात् आत्म परिणाम से जो अशुद्ध हैं अर्थात् शुद्ध-प्रासुक भी आहार आदि पदार्थ परिणामों की अशुद्धि से अशुद्ध हैं, इसलिए भाव शुद्धि यत्नपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि भावशुद्धि से ही सर्व तपश्चरण और ज्ञान-दर्शन आदि व्यवस्थित होते हैं।
द्रव्य के भेद को कहते हैं-
गाथार्थ-सर्वैषण, विद्वैषण और शुद्धाशन ये क्रमश: एषणा समिति से शुद्ध, निर्विकृति रूप और व्यंजन रहित हैं ऐसा जानो।।४८९।।
आचारवृत्ति-सर्वैषण, ‘च’ शब्द से असर्वैषण, विद्वैषण, ‘च’ शब्द से अविद्वैषण, शुद्धाशन और ‘च’ शब्द से अशुद्धाशन ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् गाथा में तीन चकार होने से प्रत्येक के विपरीत का ग्रहण किया समझना चाहिए। एषणा समिति से शुद्ध आहार सर्वैषण कहलाता है।
तथा विकृति-पाँच प्रकार के रस, उनसे रहित आहार, निर्विकृति रूप है। अर्थात् जो गुड़, तेल, घी, दही और दूध तथा शाक आदि से रहित है तथा सौवीर-भात का मांड या कांजी, शुष्क तक्र-मक्खन निकाला हुआ छाछ इनसे सहित आहार विद्वैषण है। अर्थात् रसादि निर्विकृति आहार तथा मांड, कांजी या छाछ सहित आहार विद्वैषण कहलाता है। तथा कांजी व छाछ आदि से भी रहित आहार अव्यंजन है। ‘
जो पाक से अवतीर्ण हुआ मात्र है, किंचित् भी अन्य रूप नहीं किया गया है वह शुद्धाशन है। अर्थात् केवल पकाये हुए भात या रोटी, दाल या उबाले हुए शाक आदि जिनमें नमक, मिरच, मसाला आदि कुछ भी नहीं डाला गया है वह भोजन व्यंजन-संस्कार यथानुक्रमेण जानीहि। एतत्त्रिविधं द्रव्यमशनयोग्यं। असर्वाशिनं सर्वरससमन्वितं सर्वव्यञ्जनैश्च सहितं कादाचिद्योग्यं कादाचिदयोग्यमिति। एवमनेन न्यायेनैषणासमितिर्व्याख्याता भवति।।४८९।।
तां कथं कुर्यादित्याशंकायामाह-
दव्वं खेत्तं कालं भावं बलवीरियं च णाऊण।
कुज्जा एषणसमिदिं जहोवदिट्ठं जिणमदम्मि।।४९०।।
द्रव्यमाहारादिकं ज्ञात्वा, तथा क्षेत्रं जांगलानूपरूक्षस्निग्धादिकं ज्ञात्वा, तथा कालं शीतोष्णवर्षादिकं ज्ञात्वा तथा भावमात्मपरिणामं श्रद्धामुत्साहं ज्ञात्वा, तथा शरीरबलमात्मनो ज्ञात्वा, तथात्मनो वीर्यं संहननं ज्ञात्वा कुर्यादशनसमितिं जिनागमे यथोपदिष्टामिति। अन्यथा यदि कुर्याद्वातपित्तश्लेष्मादिसमुद्भव: स्यादिति।।४९०।।
भोजनविभागपरिणाममाह-
अद्धमसणस्स सव्विंजणस्स उदरस्स तदियमुदयेण।
वाऊसंचरणट्ठं चउत्थमवसेसये भिक्खू।।४९१।।
रहित है, वही शुद्धाशन कहलाता है। गाथा में यथाक्रम से इनका वर्णन किया गया है।
यह तीन प्रकार का द्रव्य अर्थात् भोजन आहार में ग्रहण करने योग्य है। तथा सर्व-रसों से समन्वित और सर्व व्यंजनों से सहित ऐसा आहार असर्वाशन है वह कदाचित् ग्रहण करने योग्य है, कदाचित् अयोग्य है। इस न्याय से वर्णन करने पर एषणा समिति का व्याख्यान होता है।
उस एषणा समिति का पालन कैसे करें ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा बलवीर्य को जानकर जैसे जिनमत में कही गई है ऐसी एषणा समिति का पालन करें।।४९०।।
आचारवृत्ति-द्रव्य-आहार आदि पदार्थ को जानकर, क्षेत्र-जांगल, अनूप, रूक्ष, स्निग्ध आदि क्षेत्र को जानकर, काल-शीत, उष्ण, वर्षा आदि को जानकर, भाव-आत्मा के परिणाम, श्रद्धा, उत्साह को जानकर तथा अपने शरीर के बल को जानकर एवं अपने वीर्य-संहनन को जानकर साधु, जिनागम में जैसा उसका वर्णन किया गया है उसी तरह से, एषणा समिति का पालन करे। यदि द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा न रखकर चाहे जैसा वर्तन करेगा तो शरीर में पात-पित्त-कफादि की उत्पित्त हो जावेगी।
भावार्थ- क्षेत्र के जांगल, अनूप और साधारण ऐसे तीन भेद माने जाते हैं। जिस देश में जल, वृक्ष, पर्वत आदि कम रहते हैं वह जांगल देश है।
जहाँ पानी, वृक्ष और पर्वत की बहुलता है वह अनूप कहलाता है तथा जहाँ पर जल, वृक्ष व पर्वत अधिक या कम नहीं हैं प्रत्युत सम है, उसे साधारण कहते हैं। जो साधु आहार आदि की वस्तुरूप द्रव्य को, प्रकृति के अनुरूप क्षेत्र को, ऋतु के अनुरूप काल को, अपने भावों को तथा अपने बल वीर्य को देखकर उसके अनुरूप आहार आदि ग्रहण करता है उसका धर्मध्यान ठीक चलता है, संयम में बाधा नहीं आती है।
इसके विपरीत इन बातों की अपेक्षा न रखने से, वात-पित्त आदि दोष कुपित हो जाने से, नाना रोग उत्पन्न हो जाने से क्लेश हो जाता है।
भोजन के विभाग का परिमाण बताते हैं-
गाथार्थ-उदर का आधा भाग व्यंजन अर्थात् भोजन से भरे, तीसरा भाग जल से भरे और वह साधु चौथा भाग वायु के संचरण के लिए खाली रखे।।४९१।।
उदरस्यार्धं सव्यञ्जनेनाशनेन पूरयेत्तृतीयभागं चोदरस्योदकेन पूरयेद्वायो: संचरणार्थं चतुर्थभागमुदरस्यावशेषयेद्भिक्षु:। चतुर्थभागमुदरस्य तुच्छं कुर्याद्येन षडावश्यकक्रिया: सुखेन प्रवर्तते, ध्यानाध्ययनादिकं च न हीयते, अजीर्णादिकं च न भवेदिति।।४९१।।
भोजनयोग्यकालमाह-
सूरुदयत्थमणादो णालीतिय वज्जिदे असणकाले।
तिगदुगएगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्ममुक्कस्से।।४९२।।
सूर्योदयास्तमनयोर्नाडीत्रिकवर्जितयोर्मध्येऽशनकाल:। तस्मिन्नशनकाले त्रिषु मुहूर्तेषु भोजनं जघन्याचरणं द्वयोर्मुहूर्तयोरशनं मध्यमाचरणं एकस्मिन् मुहूर्तेऽशनमुत्कृष्टाचरणमिति सिद्धिभक्तौ कृतायां परिमाणमेतन्न भिक्षामलभमानस्य पर्यटत इति।।४९२।।
भिक्षार्थं प्रविष्टो मुनि: किं कुर्वन्नाचरतीत्याह-
भिक्खा चरियाए पुण गुत्तीगुणसीलसंजमादीणं।
रक्खंतो चरदि मुणी णिव्वेदतिगं च पेच्छंतो।।४९३।।
भिक्षाचर्यायां प्रविष्टो मुनिर्मनोगुप्त्ािं वचनगुप्त्ािं कायगुप्त्ािं रक्षंश्चरति। गुणान् मूलगुणान् रक्षंश्चरति। तथा शीलसंयमादींश्च रक्षंश्चरति। निर्वेदत्रिकं चापेक्ष्यमाण: शरीरवैराग्यं संगवैराग्यं संसारवैराग्यं चापेक्ष्यमाण इत्यर्थ:।।४९३।। तथा-
आचारवृत्ति-साधु अपने उदर के चार भाग करे। उनमें से आधा भाग व्यंजन (भोजन) से पूर्ण करे, तृतीय भाग जल से पूर्ण करे और उदर का चौथा भाग वायु के संचार के लिए खाली रखे। उदर का चौथा भाग खाली ही रखे कि जिससे छह आवश्यक क्रियाएं सुख से हो सकें, स्वाध्याय, ध्यान आदि में भी हानि न होवे तथा अजीर्ण आदि रोग भी न होवें।
भोजन के योग्य काल को कहते हैं-
गाथार्थ-सूर्य के उदय और अस्त काल की तीन-तीन घटिका छोड़कर भोजन के काल में तीन, दो और एक मुहूर्त पर्यन्त जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट है।।४९२।।
आचारवृत्ति-सूर्योदय के तीन घड़ी बाद से लेकर सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक के मध्य में आहार का काल है। उस आहार के काल में तीन मुहूर्त तक भोजन करना जघन्य आचरण है, दो मुहूर्त में भोजन करना मध्यम आचरण है एवं एक मुहूर्त में भोजन करना उत्कृष्ट आचरण है।
यह काल का परिमाण सिद्धभक्ति करने के अनन्तर आहार ग्रहण करने का है न कि आहार के लिए भ्रमण करते हुए विधि न मिलने के पहले का भी। अर्थात् यदि साधु आहार हेतु भ्रमण कर रहे हैं उस समय का काल इसमें शामिल नहीं है।
आहार के लिए निकले हुए क्या करते हुए भ्रमण करते हैं ? हो सी बताते हैं-
गाथार्थ-भिक्षा के लिए चर्या में निकले हुए मुनि पुन: गुप्ति, गुण, शील और संयम आदि की रक्षा करते हुए और तीन प्रकार के वैराग्य का चिन्तन करते हुए चलते हैं या आचरण करते हैं।।४९३।।
आचारवृत्ति-भिक्षा चर्या में प्रविष्ट हुए मुनि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति की रक्षा आणा अणवत्थावि य मिच्छत्ताराहणादणासो यसंजमविराहणावि य चरियाए परिहरेदव्वा।।४९४।।
आणा-आज्ञा वीतरागशासनं रक्षयन् पालयंश्चरतीति सम्बन्ध:। एतांश्च परिहरंश्चरति अनवस्था स्वेच्छा-प्रवृत्तिरपि च, मिथ्यात्वाराधनं सम्यक्त्वप्रतिकूलाचरणं, आत्मनाश: स्वप्रतिघात:, संयमविराधना चापि चर्यायां परिहर्त्तव्या:। भिक्षाचर्यायां प्रविष्टो मुनिरनवस्था यथा न भवति तथा चरति। मिथ्यात्वाराधनात्मनाश: संयमविराधनाश्च यथा न भवन्तीति तथा चरति तथान्तरायांश्च परिहरंश्च रति।।४९४।।
केतेऽन्तराया १इत्याशंक्याह-
कागा मेज्झा छद्दी रोहण रुहिरं च अस्सुवादं च।
जण्हूहिट्ठामरिसं जण्हुवरि वदिक्कमो चेव।।४९५।।
णाभिअधोणिग्गमणं पच्चक्खियसेवणा य जंतुवहो।
कागादिपिंडहरण पाणीदो पिंडपडणं च।।४९६।।
पाणीए जंतुवहो मंसादीदंसणे य उवसग्गे।
पादतरम्मि जीवो संपादो भायणाणं च।।४९७।।
उच्चारं पस्सवणं अभोजगिहपवेसणं तहा पडणं।
उववेसणं सदंसं भूमीसंफास णिट्ठुवणं।।४९८।।
उदरक्किमिणिग्गमणं अदत्तगहणं पहारगामडाहोय।
पादेण किंचि गहणं करेण वा जं च भूमीए।।४९९।।
करते हुए चलते हैं। मूलगुणों की और उत्तरगुणों की रक्षा करते हुए तथा शील, संयम आदि की रक्षा करते हुए विचरण करते हैं। ऐसे मुनि शरीर से वैराग्य, संग से वैराग्य और संसार से वैराग्य का विचार करते हुए विचरण करते हैं।
गाथार्थ-आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम की विराधना इनका चर्या में परिहार करना चाहिए।।४९४।।
आचारवृत्ति-आज्ञा अर्थात् वीतराग शासन की रक्षा करते हुए उनकी आज्ञा का पालन करते हुए साधु विचरण करते हैं, ऐसा सम्बन्ध लगाना। और निम्न दोषों का परिहार करते हुए विचरण करते हैं-अनवस्था-स्वेच्छाप्रवृत्ति, मिथ्यात्वाराधना-सम्यक्त्व के प्रतिकूल आचरण, आत्मनाश-स्व का घात, संयम विराधना-संयम की हानि ये दोष हैं।
चर्या में प्रविष्ट हुए मुनि जैसे अनवस्था न हो वैसा आचरण करते हैं, मिथ्यात्व की आराधना आदि ये दोष जैसे न हो सके वैसा ही प्रयत्न करते हुए पर्यटन करते हैं तथा अन्तरायों का भी परिहार करते हुए आहार ग्रहण करते हैं।
वे अन्तराय कौन से हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-काक, अमेध्य, वमन, रोधन, रुधिर, अश्रुपात, जान्वध:परामर्श, जानूपरि व्यतिक्रम, नाभि से नीचे निर्गमन, प्रत्याख्यातसेवन, जन्तुबध, काकादि पिंडहरण, पाणिपात्र से पिंडपतन, पाणिपुट में जन्तुवध, मांसादि दर्शन, उपसर्ग, पादान्तर में जीव संपात, भाजन संपात, उच्चार, मूत्र, अभोज्यगृह प्रवेश, पतन, उपवेशन,सदंश,भूमिस्पर्श, निष्ठीवन, उदर कृमि निर्गमन, अदत्तग्रहण, प्रहार, ग्रामदाह, पादेन किंचित् ग्रहण
एदे अण्णे बहुगा कारणभूदा अभोयणस्सेह।
बीहणलोगदुगुंछणसंजमणिव्वेदणट्ठं च।।५००।।
िकाका उपलक्षणार्थो गृहीतस्तेन काकवकश्येनादय: परिगृह्यन्ते। गच्छत: स्थितस्य वा वक-काकादयो यदुपरि व्युत्सर्ग कुर्वन्ति तदपि काक इत्युच्यते साहचर्यात्। काको नाम भोजनस्यान्तराय:। तथाऽमेध्यमशुचि तेन पादादिकं यल्लिप्तं तदप्यमेध्यमिति साहचर्यात्, अमेध्यं नामान्तराय:।
तथाछर्दिर्वमनमात्मनो यदि भवति। तथा रोधनं यदि कश्चिद्धरणादिकं करोति। तथा रुधिरमात्मनोऽन्यस्य वा यदि पश्यति। चशब्देन पूयादिकं च ग्राह्यं। तथाऽश्रुपातो दु:खेनात्मनो यद्यश्रूण्यागच्छन्ति परेषामपि सन्निकृष्टानां यद्ययं दोषो भवेत्। तथा जान्वध: आर्शो जान्वध: परामर्श:। तथा जानूपरि व्यतिक्रमश्चैव। सर्वत्रान्तरायेण सम्बन्ध इति।।४९५।।
तथा- नाभ्यधो निर्गमनं नाभेरधो मस्तकं कृत्वा यदि निर्गमनं भवेत्। तथा प्रत्याख्यातस्य सेवना च अवग्रहो यस्य वस्तुनस्तस्य यदि भक्षणं स्यात्। तथा जन्तुवध: आत्मनोऽन्येन या पुरतो जीववधो यदि क्रियते। तथा काकादिभि: पिंडहरणं यदि काकादय: पिण्डमपहरन्ति। तथा पाणिपात्रात्पिण्डतनं भुंजानस्य पाणिपुटाद्यदि पिण्डो ग्रासमात्रं वा पतति।।४९६।।
तथा- पाणिपात्रे जन्तुबधो जन्तुरात्मनागत्य पाणौ भुंजानस्य यदि म्रियते। तथा मांसादिदर्शनं मांसं मृतपंचेन्द्रियशरीरं अथवा भूमि से हाथ से किंचित् ग्रहण करना। भोजन त्याग के और भी बहुत से कारण हैं। ये अन्तराय भय, लोक निन्दा, संयम की रक्षा और निर्वेद के लिए पाले जाते हैं।।४९५-५००।।
आचारवृत्ति-ये बत्तीस अन्तराय कहे गये हैं। इन सभी में अन्तराय शब्द का प्रयोग कर लेना चाहिए।
१. काक-गमन करते हुए या स्थित हुए मुनि के ऊपर यदि काक, वक आदि पक्षी वीट कर देवे तो वह काक नाम का अन्तराय है। यहाँ ‘काक’ शब्द उपलक्षण मात्र है अत: काक, वक, बाज आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए; क्योंकि साहचर्य की अपेक्षा यह कथन किया गया है।
२. अमेध्य-अशुचि पदार्थ विष्ठा आदि से यदि पैर लिप्त हो जाय तो अन्तराय होता है। यहाँ पर अमेध्य के साहचर्य इस अन्तराय को भी अमेध्य कह दिया है।
३. वमन-यदि स्वयं को वमन हो जाय तो वमन नाम का अन्तराय है।
४. रोधन-यदि कोई उस समय रोक दे या पकड़ ले तो अन्तराय है।
५. रुधिर-यदि अपने या अन्य के शरीर से रुधिर१ निकलता हुआ दिख जाय। गाथा में ‘च’ शब्द का तात्पर्य है कि पीव आदि दिखने से भी अन्तराय है।
६. अश्रुपात-दु:ख से यदि अपने अथवा पास में स्थित किसी अन्य के भी अश्रु आ जावें
७. जान्वध: परामर्श-घुटनों से नीचे भाग का यदि हाथ से स्पर्श हो जाय,
८. जानूपरि व्यतिक्रम-घुटनों से ऊपर के अवयवों का स्पर्श हो जावे,
९. नाभ्यधोनिर्गमन-नाभि से नीचे मस्तक करके यदि निकलना पड़ जाये,
१०. प्रत्याख्यात सेवना-जिस वस्तु का त्याग है यदि उसका भक्षण हो जावे,
११. जन्तु वध-यदि अपने से या अन्य के द्वारा सामने किसी जन्तु का वध हो जावे,
१२. काकादिपिंडहरण-यदि कौवे आदि हाथ से ग्रास हरण कर लेवें,
१३. पिंडपतन-यदि आहार करते अपने पाणिपात्र से पिंड-ग्रास मात्र का पतन हो जावे,
१४. पाणी जन्तुवध–यदि आहार करते हुए के पाणिपुट में कोई जन्तु स्वयं आकर मर जावे,
१५. मांसादिदर्शन-यदि मरे हुए पंचेन्द्रिय जीव के शरीर का मांस आदि दिख जावे,
१६. उपसर्ग-यदि देवकृत आदि उपसर्ग हो जावे,
0यदि पंचेन्द्रिय जीव पैरों के अन्तराल से निकल जावे, इत्येवमादीनां दर्शनं यदि स्यात्।
तथोपसर्गो दैविकाद्युपसर्गो यदि स्यात्। तथा पादान्तरे पंचेन्द्रियजीवो यदि गच्छेत्।
तथा सम्पातो भाजनस्य परिवेषकहस्ताद्भाजनं यदि पतेत्।।४९७।।
तथा-उच्चार आत्मनो यद्युदरमलव्युत्सर्ग: स्यात्। तथात्मन: प्रस्रवणं मूत्रादिकं यदि स्यात्। तथा पर्यटतोऽभोजनगृहप्रवेशो यदि भवेत् चांडालादिगृहप्रवेशो यदि स्यात्। तथा पतनमात्मनो मूर्च्छादिना यदि पतनं भवेत्। तथोपवेशनं यद्युपविष्टो भवेत्।
तथा सदंश: सह दंशेन वर्तते इति सदंश: श्वादिभिर्यदि दष्ट: स्यात्। तथा भूमिसंस्पर्श: सिद्धभक्तिं कृतायां हस्तेन भूमिं यदि स्पृशेत्। तथा निष्ठीवनं स्वेन यदि श्लेष्मादिकं क्षिपेत्।।४९८।।
तथा-उदराद्यदि कृमिनिर्गमनं भवेत्। तथा अदत्तग्रहणमदत्तं यदि किंचिद् गृण्हीयात्। तथा प्रहार आत्मनोऽन्यस्य वा खड्गादिभिर्यदि प्रहार: स्यात्। तथा ग्रामदाहो यदि स्यात्। तथा पादेन यदि किंचिद् गृह्यते। तथा करेण वा यदि किंचिद्गृह्यते भूमेरिति सर्वत्राशनस्यान्तरायो भवतीति सम्बन्ध:।।४९९।।
तथा-एते पूर्वोक्ता: काकादयोऽन्तराया: कारणभूता भोजनपरित्यागस्य द्वात्रिंशत्। तथान्ये च बहवश्चां- डालादिस्पर्शकरेष्टमरणसाधर्मिकसंन्यासपतनप्रधानमरणादयोऽशनपरित्यागहेतव:। भयलोकजुगुप्सायां संयमनिर्वेदनार्थं च यदि किंचित्स्यात् भयं राज्ञ: स्यात्, तथा लोकजुगुप्सा च यदि स्यात् तथाप्याहारत्याग:। संयमार्थं चाहारत्यागो निवेदनार्थं चेति।।५००।।
१८. भाजन संपात-यदि आहार देने वाले के हाथ से बर्तन गिर जावे, उच्चार-यदि अपने उदर से मल च्युत हो जावे,
२०. प्रस्रवण-यदि अपने मूत्रादि हो जावे,
२१. अभोज्य गृहप्रवेश-यदि आहार हेतु पर्यटन करते हुए मुनि का चांडाल आदि अभोज्य के घर में प्रवेश हो जावे,
२२. पतन-यदि मूर्छा आदि से अपना पतन हो जावे अर्थात् आप गिर पड़े,
२३. उपवेशन-यदि बैठना पड़ जावे,
२४. सदंश-यदि कुत्ता आदि काट खाये,
२५. भूमि स्पर्श-सिद्धभक्ति कर लेने के बाद यदि हाथ से भूमि का स्पर्श हो जावे,
२६. निष्ठीवन-यदि अपने मुख से थूक, कफ आदि निकल जावे,
२७. उदरकृमि निर्गमन-यदि उदर से कृमि निकल पड़े,
२८. अदत्तग्रहण-यदि बिना दी हुई कुछ वस्तु ग्रहण कर लेवे,
२९ . प्रहार-यदि अपने ऊपर या अन्य किसी पर तलवार आदि से प्रहार हो जावे,
३०. ग्रामदाह-यदि ग्राम में अग्नि लग जावे,
३१. पादेन किंचित् ग्रहण-यदि पैर से कुछ ग्रहण कर लिया जावे,
३२. करेण किंचिद्ग्रहण-अथवा यदि हाथ से कुछ वस्तु भूमि पर ग्रहण कर ली जावे। इस प्रकार उपर्युक्त कारणों से सर्वत्र भोजन में अन्तराय होता है ऐसा समझना चाहिए।
ये पूर्वोक्त काक आदि बत्तीस अन्तराय हैं जो कि भोजन के त्याग के लिए कारणभूत होते हैं। इनसे अन्य भी बहुत से अन्तराय हैं जैसे कि चांडाल आदि का स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधर्मिक संन्यास पतन, प्रधान का मरण आदि, ये भी भोजनत्याग के हेतु हैं। यदि राजा का भय या अन्य किंचित् भय हो जावे, यदि लोकनिन्दा हो जावे तो भी आहार त्याग कर देना चाहिए। संयम के लिए और निर्वेदभाव के लिए भी आहार का त्याग होता है।
पिंडशुद्धि अधिकार का उपसंहार करते हैं-
गाथार्थ-इस जगत् में जिन्होंने पिंडशुद्धि का उपदेश दिया है और जिन्होंने सम्यव्â प्रकार से इसे धारण किया है वे वीर साधुवर्ग मुझे तीन रत्न की शुद्धि प्रदान करें।।५०१।।
पिण्डशुद्धिमुपसंहरन्नाह-
जेणेह पिंडसुद्धी उवदिट्ठा जेहि धारिदा सम्मं।
ते वीरसाधुवग्गा तिरदणसुद्धिं मम दिसंतु।।५०१।।
िसूत्रकार: फलार्थी प्राह-यैरिह पिण्डशुद्धिरुपदिष्टा यैश्चधारिता सेविता सम्यग्विधानेन ते वीरसाधुवर्गास्त्रिरत्नशुद्धिं मम दिशन्तु प्रयच्छन्तु।।५०१।।
।।इत्याचारवृत्तौ वसुनन्दिविरचितायां पिण्डशुद्धिर्नाम षष्ठ: प्रस्ताव:।।
आचारवृत्ति-सूत्रकार फल की इच्छा करते हुए कहते हैं कि जिन्होंने इस लोक में आहारशुद्धि का उपदेश दिया है और जिन्होंने सम्यक् विधान से उसका सेवन किया है वे वीर साधु समूह मुझे तीन रत्न की शुद्धि प्रदान करें।
इस प्रकार आचारवृत्ति नामक टीका में श्रीवसुनंदि आचार्य द्वारा विरचित पिंडशुद्धि नाम का छठा प्रस्ताव पूर्ण हुआ।