आचार्य-जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पांच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और अन्यों को कराते हैं तथा छत्तीस गुणों से रहित होते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। छत्तीस गुणों के नाम-बारह तप, दशधर्म, पाँच आचार, छह आवश्यक क्रियाएँ, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति ऐसे ये छत्तीस गुण आचार्य परमेष्ठी के होते हैं। ये आचार्य शिष्यों को शिक्षा, दीक्षा और प्रायश्चित्त आदि देते हैं और संघ के नायक कहलाते हैं। उपाध्याय-जो चौदह वर्ष के व्याख्याता हैं अथवा १तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करने वाले हैं। ये शिष्यों को पढ़ाते हैं किन्तु संग्रह करना, दीक्षा देना आदि कार्य नहीं करते हैं। इनके पच्चीस गुण कहे गये हैं। यथा-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग और विपाकसूत्रांग ये ग्यारह अंग हैं। उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, कर्मप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणानुवाद, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार ये चौदह पूर्व कहलाते हैं। ये उपाध्याय परमेष्ठी इन अंग-पूर्वों का पठन-पाठन करने से पच्चीस गुणधारी कहे जाते हैं अथवा तत्कालीन सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता, पढ़ाने वाले होने से भी उपाध्याय कहलाते हैं। साधु-जो अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं अथवा तेरह प्रकार का चारित्र और तेरह प्रकार की क्रियाओं में कुशल हैं।
प्रमाद रहित आवश्यक क्रियाओं को करने वाले हैं अथवा छत्तीस प्रकार के उत्तर गुणों को पालन करते हैं। अठारह हजार शील के भेदों के धारक, चौरासी लाख उत्तरगुणों के पालक साधु परमेष्ठी होते हैं। आचार्य, उपाध्याय, साधु इन तीनों में सर्वप्रथम अट्ठाईस मूलगुण होना परम आवश्यक है। जैसे मूल के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, वैसे ही मूलगुणों के बिना मुनि नहीं हो सकते। मुनि के चार भेद हैं-यति, मुनि, अनगार और ऋषि। उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले यति कहलाते हैं। अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि कहलाते हैं। ऋद्धि को प्राप्त हुए महासाधु ऋषि कहलाते हैं। अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करने वाले गृहत्यागी, वन, मठ, मंदिर आदि में रहने वाले मुनि अनगार कहलाते हैं। आजकल के सभी साधु अनगार लक्षण वाले हैं। मुनियों के छत्तीस उत्तर गुणों का वर्णन-बारह तप और बाईस परीषहों को उत्तर गुण कहते हैं। इनका संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार है- बारह तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अभ्यन्तर तप हैं। अनशन-चार प्रकार के आहार का त्याग करना। अवमौदर्य-भूख से कुछ कम खाना। वृत्तिपरिसंख्यान-आहार के समय अटपटी प्रतिज्ञा ले लेना। रसपरित्याग-मधुर आदि रसों का त्याग करना।
विविक्तशय्यासन-विषयीजनों के संचार रहित स्थान में सोना, बैठना। कायक्लेश-शरीर से आसन आदि के समय कष्ट सहन करना। प्रायश्चित्त-व्रतादि में दोष लग जाने पर गुरु से प्रायश्चित्त ग्रहण करके शोधन करना। विनय-दर्शन, ज्ञानादि का और उनके धारकों का आदर करना। वैयावृत्ति-आचार्य, उपाध्याय आदि की उनके अनुकूल सेवा शुश्रूषा करना। स्वाध्याय-वाचना, पृच्छना आदि पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना। व्युत्सर्ग-अंतरंग, बहिरंग उपाधि का त्याग करना। ध्यान-समस्त चिन्ताओं का त्याग कर धर्म में तथा आत्मचिन्तवन में एकाग्र होना। बाईस परीषहों के नाम-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन। मोक्षार्थी पुरुष इन्हें शांतभाव से सहन करते हैं, तब इन्हें भिक्षा (आहार) नहीं मिलने पर या अल्प मिलने पर परीषहजय कहते हैं। खेद को प्राप्त नहीं होना क्षुधा परीषहजय है। प्यास की बाधा को समाधिरूपी जल से शांत करना तृषापरीषहजय है। आवरण (वस्त्र) आदि से रहित खुले स्थान पर बर्प आदि की ठण्डी को सहन करना शीत परीषहजय है। ग्रीष्मकालीन सूर्य से संतप्त पृथ्वी पर उष्णता को सहन करना उष्ण परीषहजय है। दंश, मशक, बिच्छू, सर्प आदि से काटे जाने पर उनकी पीड़ा को सहन करना दंशमशक परीषहजय है। बालकवत् निर्विकार रहना नग्न परीषहजय है। शून्य स्थान, गुफा आदि में अरुचि न करके ध्यान, अध्ययन करना अरति परीषहजय है। स्त्री द्वारा विभ्रम भाव से बाधा पहुँचाने पर भी निश्चल मन रहना स्त्री परीषहजय है।
वंकरीली सड़कों पर चलते समय खेदखिन्न नहीं होना चर्यापरीषहजय है। नियतकाल तक बैठने पर कष्ट होता है, उसे शांति से सहन करना निषद्या परीषहजय है। स्वाध्याय आदि से थककर एक करवट, शयन करते समय वंकरीली आदि पृथ्वी के निमित्त से हुए कष्ट को सहन करना शय्या परीषहजय है। अज्ञानियों द्वारा कठोर, असभ्य, निन्द्य वचन सुनकर भी क्रोध नहीं करना आक्रोश परीषहजय है। अज्ञानी द्वारा तीक्ष्ण मुद्गर आदि से ताड़ित किये जाने पर भी दु:खी नहीं होना वध परीषहजय है। शरीर के शुष्क हो जाने पर भी आहार, औषधि आदि नहीं मांगना याचना परीषहजय है। बहुत काल तक आहार का लाभ न मिलने पर भी ‘‘लाभादलाभो वरं मे’’ लाभ की अपेक्षा अलाभ ही अच्छा है, ऐसा मानना अलाभ परीषहजय है। अनेक रोगों के हो जाने पर भी औषधि उपचार आदि की अपेक्षा नहीं करना रोग परीषहजय है। तृण, वंकर, कांटे आदि की बाधा को सहन करते हुए प्राणी पीड़ा को परिहार करने की भावना रखना तृणस्पर्श परीषहजय है। स्नान त्याग व्रत होने से मल से लिप्त शरीर होते हुए खाज आदि रोग से उत्पन्न पीड़ा की उपेक्षा कर देना, मलिन शरीर से मन में ग्लानि नहीं लाना मलपरीषहजय है। महातपस्वी, सिद्धान्तवेत्ता, कुशल साधु होने पर भी किसी द्वारा सत्कार पुरस्कार को प्राप्त नहीं होने पर मन में खिन्न नहीं होना सत्कार पुरस्कार परीषहजय है। मैं बहुत ज्ञानी हूँ इत्यादि रूप से विद्या-बुद्धि का मद नहीं करना प्रज्ञा परीषहजय है। ‘यह मूर्ख है’ इत्यादि शब्दों द्वारा दूसरों से अपमानित होने पर भी और मैंने घोर तपश्चरण आदि किया है, फिर भी मुझमें ज्ञान का अतिशय नहीं होता है इत्यादि रूप से खिन्न नहीं होना अज्ञान परीषहजय है। मैं शुद्ध परिणामी चिरदीक्षित हूँ फिर भी मेरी देवादिकों द्वारा कोई पूजा आदि नहीं होती है।
‘महोपवासादि से देवों द्वारा अतिशय किया जाता था, यह सब असत्य दिखता है, ऐसा मन में नहीं सोचना अदर्शन परीषहजय है। साधु, संवर और निर्जरा के लिए इन उत्तरगुणों का पालन भी करते हैं किन्तु यदि इन उत्तरगुणों का पालन न हो सके तो वे मुनि नहीं रहे, ऐसी बात नहीं है। चारित्र के तेरह भेद-पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकार के चारित्र हैं। इसे चरण भी कहते हैं। करण के तेरह भेद-षट् आवश्यक क्रिया, पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, अ:सही और नि:सही ये तेरह प्रकार की क्रिया हैं। इन्हें ही करण कहते हैं। षट् आवश्यक क्रियाओं का वर्णन अट्ठाईस मूलगुणों में आ चुका है। पंचपरमेष्ठी-अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों परमेष्ठियों को नमन करना। किसी मंदिर, निवास स्थान आदि से निकलते समय असही और प्रवेश के समय निसही करना चाहिए। प्रतिक्रमण-व्रतों में लगे हुए दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। उसके सात भेद हैं-ईर्यापथिक, रात्रिक, दैवसिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ। गमन करने, मंदिर आदि में पहुँचने पर ईर्यापथ शुद्धिपाठ ‘ईर्यापथ’ में प्रतिक्रमण होता है। रात्रि के अंत में रात्रिक, दिवस के अंत में-सायंकाल में दैवसिक, पन्द्रह दिन बाद-चतुर्दशी, अमावस्या या पूर्णिमा को किया जाने वाला प्रतिक्रमण पाक्षिक, कार्तिक और फाल्गुन की अष्टान्हिका के अंत में होने वाला चातुर्मासिक, वर्ष के अंत में अर्थात् आषाढ़१ सुदी चतुर्दशी या पूर्णिमा को किया जाने वाला प्रतिक्रमण वार्षिक और मरणकाल में सर्व दोषों का प्रतिक्रमण उत्तमार्थ प्रतिक्रमण कहलाता है। कायोत्सर्ग के भेद-शरीर से ममत्व का त्याग करना-णमोकार मंत्र का स्मरण करना कायोत्सर्ग है। इसका लघु काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल एक वर्ष पर्यन्त है। णमोकार मंत्र की गाथा बोलने में तीन श्वासोच्छ्वास लगना चाहिए।
इस तरह नौ बार णमोकार मंत्र जपने में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास हो जाते हैं। मल, मूत्र विसर्जन के अनन्तर, ईर्यापथ शुद्धि में, साधुओं के निषद्या क्षेत्र की वंदना में और आहार के अनन्तर इनमें पच्चीस श्वासोच्छ्वास में, नव बार णमोकार मंत्र पढ़ना चाहिए और स्वाध्याय, देववन्दना आदि के कायोत्सर्ग में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास होने चाहिए। दैवसिक प्रतिक्रमण में १०८ श्वासोच्छ्वास, रात्रिक में ५६, पाक्षिक में ३००, चातुर्मासिक में ४००, वार्षिक में ५०० श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग होते हैं। साधुओं के अहर्निश २८ कायोत्सर्ग-त्रिकाल देववंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्तिसंबंधी दो-दो २²३·६, दैवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण में सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर और चतुर्विंशतिभक्तिसंबंधी चार-चार ४²२·८, पूर्वाह्न, अपराह्न, पूर्वरात्रिक, अपररात्रिक ऐसे चार कालिक स्वाध्याय में-स्वाध्याय के प्रारंभ में श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति एवं समाप्ति में श्रुतभक्ति ऐसे तीन-तीन भक्तिसंबंधी ४²३·१२, रात्रियोग प्रतिष्ठापन में योगभक्तिसंबंधी एक और निष्ठापनसंबंधी एक ऐसे दो इस तरह सब मिलकर ६±८±१२±२·२८ कायोत्सर्ग साधुओं को नित्य ही करने योग्य हैं।
विशेष-सायंकाल में प्रतिक्रमण के अनन्तर ‘मैं आज रात्रि में इसी वसतिका में निवास करूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा को रात्रियोग प्रतिष्ठापन कहते हैं। इसके अनुष्ठान में योगभक्ति की जाती है, ऐसे ही प्रात: प्रतिक्रमण के अनन्तर उस रात्रियोग का निष्ठापन योगभक्तिपूर्वक कर दिया जाता है। दैवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण में प्रतिक्रमण विधि स्पष्ट है जो कि क्रियाकलाप, मुनिचर्या आदि पुस्तकों में मुद्रित है। सूर्य उदयकाल, सूर्यास्त काल, मध्यान्ह और मध्यरात्रिक इन चारों समय में चार-चार घड़ी का काल छोड़कर बाकी काल चारों समय के स्वाध्याय का काल है। देववन्दना (सामायिक)-सामायिक-देववन्दना करने का इच्छुक मुनि जिनचैत्यालय में जाकर मंदिर की तीन प्रदक्षिणा देवे। सामायिक की यही विधि सिद्धान्तसार में कही गई है- ‘‘आदाहीणं, पदाहीणं, तिखुत्तं, तिऊणदं, चदुस्सिरं वारसावत्तं चेदि।’’ स्वाधीनता, परीति-तीन प्रदक्षिणा, त्रयी निषद्या-तीन बार बैठकर आलोचना करना, त्रिबार कायोत्सर्ग करना, चार शिरोनति, बारह आवर्त, इस प्रकार छह कृतिकर्म देववन्दना में माने गये हैं। देव वन्दना करने वाला मुनि स्वाधीन होकर देववन्दना करे। मंदिर की तीन प्रदक्षिणा देवे। तीन बार आलोचना करते समय बैठकर करे। तीन बार कृत्य विज्ञापना करे। एक कायोत्सर्ग में बारह आवर्त करे और चार शिरोनति करे अर्थात् सबसे प्रथम जिनमंदिर के पास पहुँचकर अपने पैर धोकर मंदिर की तीन प्रदक्षिणा देवे। अन्दर प्रवेश करके जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल का दर्शन करते हुए पहले ‘‘पडिक्कमामि भंत्ते इरियावहिया’’ इत्यादि ईर्यापथ आलोचना पढ़े।
अनन्तर ‘‘भगवन्! देववन्दनां करिष्यामि’’ इत्यादि प्रतिज्ञा करके ‘‘सिद्धं सम्पूर्ण भव्यार्थं’’ से लेकर ‘‘समता सर्वभूतेषु’’ आदिपर्यंत पाठ पढ़े पुन: नव बार जाप्य करके ‘‘थोस्सामि’’ इत्यादि चतुर्विंशति स्तव पढ़े। इनमें सामायिक दण्डक और थोस्सामि के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त करना चाहिए। ऐसे एक कायोत्सर्गसंबंधी चार बार तीन-तीन आवर्त होने से बारह आवर्त हो जाते हैं पुन: वंदना मुद्रा से ‘जयति भगवान’ से प्रारंभ कर चैत्यभक्ति पढ़े और बैठकर ‘‘इच्छामि भंते चेइयभत्ति’’ इत्यादि आलोचना करें, ऐसे ही पंचगुरुभक्ति का क्रम है और अंत में समाधि भक्ति में भी यही क्रम है।१ सभी क्रियाओं के अंत में समाधिभक्ति सर्व दोष शुद्धि के लिए की जाती है। ऐसे त्रिकाल देववन्दना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति इन दो भक्ति संबंधी दो-दो कायोत्सर्ग प्रमुख होते हैं।