सिद्धान् सिद्ध्यर्थमानम्य, सर्वांस्त्रैलोक्यमूर्धगान् ।
इष्ट: सर्वक्रियान्तेऽसौ, शान्तीशो हृदि धार्यते।।१।।
संपूर्ण अंग और पूर्वों के एकदेश ज्ञाता, श्रुतज्ञान को अविच्छिन्न बनाने की इच्छा रखने वाले, महाकारुणिक भगवान श्रीधरसेनाचार्य हुए हैं। उनके मुखकमल से पढ़कर सिद्धान्तज्ञानी श्री पुष्पदंत और श्रीभूतबलि आचार्य हुए हैं। उन्होंने ‘अग्रायणीय पूर्व’ नामक द्वितीय पूर्व के ‘चयनलब्धि’ नामक पांचवीं वस्तु के ‘कर्मप्रकृति प्राभृत’ नामक चौथे अधिकार से निकले हुए जिनागम को छह खण्डों में विभाजित करके ‘षट्खण्डागम’ यह सार्थक नाम देकर सिद्धान्त सूत्रों को लिपिबद्ध किया है।
छह खंड के नाम-१. जीवस्थान २. क्षुद्रकबंध ३. बंधस्वामित्वविचय ४. वेदनाखण्ड ५. वर्गणाखण्ड ६. महाबंध ये नाम हैं।
इनमें से पाँच खण्डों में छह हजार सूत्र हैं और छठे खण्ड में तीस हजार सूत्र हैं, ऐसा ‘श्रुतावतार’ ग्रंथ में लिखा है।
वर्तमान में मुद्रित सोलह पुस्तक-वर्तमान में छपी हुई सोलह पुस्तकों में पाँच खण्ड माने हैं। उनके सूत्रों की गणना छह हजार, आठ सौ, इकतालिस (६८४१) हैं।
प्रथम खण्ड में दो हजार तीन सौ पचहत्तर सूत्र हैं। दूसरे खण्ड में पंद्रह सौ चौरानवे, तृतीय खण्ड में तीन सौ चौबीस, चतुर्थ खंड में पंद्रह सौ पच्चीस और पांचवें खण्ड में एक हजार तेईस हैं। २३७५±१५९४±३२४± १५२५±१०२३·६८४१ हैं।
मुद्रित सोलह पुस्तकों में पाँच खण्डों का विभाजन-छपी हुई धवला टीका समन्वित प्रथम पुस्तक से लेकर छह पुस्तकों तक प्रथम खण्ड है। सातवीं पुस्तक में द्वितीय खण्ड है। आठवीं पुस्तक में तृतीय खण्ड है। नवमी से लेकर बारहवीं ऐसे चार पुस्तकों में चतुर्थ खण्ड है और तेरहवीं से लेकर सोलहवीं तक चार पुस्तकों में पाँचवां खंड है।
प्रथम खण्ड के विषय-प्रथम खण्ड में आठ अनुयोगद्वार हैं एवं अंत में एक चूलिका अधिकार है, इस चूलिका के भी नव भेद हैं।
आठ अनुयोगद्वार के नाम-१. सत्प्ररूपणा, २. द्रव्यप्रमाणानुगम, ३. क्षेत्रानुगम ४. स्पर्शनानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम ७. भावानुगम और ८. अल्पबहुत्वानुगम।
चूलिका के नाम और भेद-१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका २. स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका ३. प्रथम महादण्डक ४. द्वितीय महादण्डक ५. तृतीय महादण्डक ६. उत्कृष्टस्थितिबंध ७. जघन्यस्थितिबंध ८. सम्यक्त्वोत्पत्तिचूलिका और ९. गत्यागती चूलिका।
छह पुस्तकों में प्रथम खण्ड का विभाजन-प्रथम पुस्तक में सत्प्ररूपणा है, द्वितीय पुस्तक में ‘आलाप अधिकार’ नाम से इसी सत्प्ररूपणा का विस्तार है। तृतीय पुस्तक में द्रव्यप्रमाणानुगम और क्षेत्रानुगम है।
चतुर्थ पुस्तक में स्पर्शनानुगम और कालानुगम का वर्णन है। पंचम पुस्तक में अंतरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम है। छठी पुस्तक में नव चूलिकायें हैं।
सातवीं पुस्तक में ‘क्षुद्रकबंध’ नाम से द्वितीय खण्ड है। आठवीं पुस्तक में ‘बंध स्वामित्वविचय’ नाम से तृतीय खण्ड है।
अग्रायणीय पूर्व के अर्थाधिकार चौदह हैं-१. पूर्वान्त २. अपरान्त ३. ध्रुव ४. अध्रुव ५. चयनलब्धि ६. अधु्रवसंप्रणिधान ७. कल्प ८. अर्थ ९. भौमावयाद्य १०. कल्पनिर्याण ११. अतीतकाल १२. अनागतकाल १३. सिद्ध और १४. बुद्ध१।
१. कृति २. वेदना ३. स्पर्श ४. कर्म ५. प्रकृति ६. बंधन ७. निबंधन ८. प्रक्रम ९. उपक्रम १०. उदय ११. मोक्ष १२. संक्रम १३. लेश्या १४. लेश्याकर्म १५. लेश्या परिणाम १६. सातासात १७. दीर्घ ह्रस्व १८. भवधारणीय १९. पुद्गलात्त २०. निधत्तानिधत्त २१. निकाचितानिकाचित २२. कर्मस्थिति २३. पश्चिमस्कंध २४. अल्पबहुत्व२।
चतुर्थ वेदनाखण्ड में ९, १०, ११, १२ ऐसी ४ पुस्तकें हैं।
नवमी पुस्तक में उपर्युक्त २४ अनुयोगद्वारों में से प्रथम ‘कृति’ नाम का अनुयोगद्वार है।
१. वेदनानिक्षेप २. वेदनानयविभाषणता ३. वेदनानामविधान ४. वेदनाद्रव्यविधान ५. वेदनाक्षेत्रविधान ६. वेदनाकालविधान ७. वेदनाभावविधान ८. वेदनाप्रत्ययविधान ९. वेदनास्वामित्वविधान १०.वेदनावेदनाविधान ११. वेदनागतिविधान १२. वेदनाअनंतरविधान १३. वेदनासन्निकर्षविधान १४. वेदनापरिमाणविधान १५. वेदनाभागाभागविधान और १६. वेदनाअल्पबहुत्वविधान।
१. वेदनानिक्षेप २. वेदनानयविभाषणता ३. वेदनानामविधान और ४. वेदनाद्रव्यविधान और ५. वेदनाक्षेत्रविधान।
ग्यारहवीं पुस्तक में-वेदनाकालविधान, वेदनाभावविधान ये दो अनुयोगद्वार हैं।
बारहवीं पुस्तक में-‘वेदनाप्रत्यय विधान’, ‘वेदनाअल्पबहुत्वविधान’ तक ये ९ अनुयोगद्वार हैं। इस प्रकार इन तीन ग्रंथों में ‘वेदना अनुयोगद्वार’ का ही वर्णन होने से यह चौथा खण्ड ‘वेदनाखण्ड’ नाम से विभक्त है।
वर्गणाखण्ड-तेरहवीं पुस्तक में-चौबीस अनुयोगद्वार में से स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीसरे, चौथे और पाँचवें अनुयोगद्वारों का वर्णन है।
चौदहवीं पुस्तक में-‘बंधन’ नाम के छठे अनुयोगद्वार का कथन है।
पंद्रहवीं पुस्तक में-निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय और मोक्ष इन अनुयोगद्वारों का कथन है।
सोलहवीं पुस्तक में-संक्रम, लेश्या आदि से लेकर अल्पबहुत्वपर्यंत १३ अनुयोगद्वार वर्णित हैं।
इन चार ग्रंथों में वर्णित विषय ‘वर्गणाखण्ड’ नाम से कहा गया है।
संक्षेप में षट्खण्डागम के इन पांच खण्डों का १६ पुस्तकों में विभाजन एवं सूत्रसंख्या दी जा रही है।
इस ‘षट्खण्डागम’ ग्रंथराज पर छह टीकायें लिखी गई हैं, ऐसा आगम में उल्लेख है। उनके नाम-
१. श्री कुन्दकुन्ददेव ने तीन खण्डों पर ‘परिकर्म’ नाम से टीका लिखी है जो कि १२ हजार श्लोकप्रमाण थी।
२. श्री शामकुंडाचार्य ने ‘पद्धति’ नाम से टीका लिखी है जो कि संस्कृत, प्राकृत और कन्नड़ मिश्र थी, ये पांच खण्डों पर थी और १२ हजार श्लोकप्रमाण थी।
३. श्री तुंबुलूर आचार्य ने ‘चूड़ामणि’ नाम से टीका लिखी। छठा खण्ड छोड़कर षट्खण्डागम और कषायप्राभृत दोनों सिद्धान्त ग्रंथों पर यह ८४ हजार श्लोकप्रमाण थी।
४. श्री समंतभद्रस्वामी ने संस्कृत में पांच खण्डों पर ४८ हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखी।
५. श्री वप्पदेवसूरि ने ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ नाम से टीका लिखी, यह पांच खण्डों पर और कषायप्राभृत पर थी एवं ६० हजार श्लोकप्रमाण प्राकृत भाषा में थी।
६. श्री वीरसेनाचार्य ने छहों खण्डों पर प्राकृत-संस्कृत मिश्र टीका लिखी, यह ‘धवला’ नाम से टीका है एवं ७२ हजार श्लोकप्रमाण है।
वर्तमान में ऊपर कही हुई पांच टीकाएं उपलब्ध नहीं हैं, मात्र श्री वीरसेनाचार्य कृत ‘धवला’ टीका ही उपलब्ध है जिसका हिंदी अनुवाद होकर छप चुका है। इस ग्रंथ को ताड़पत्र से लिखाकर और हिंदी अनुवाद कराकर छपवाने का श्रेय इस बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज को है। उनकी कृपाप्रसाद से हम सभी इन ग्रंथों के मर्म को समझने में सफल हुये हैं।
मैंने सरल संस्कृत भाषा में ‘सिद्धान्तचिंतामणि’ नाम से टीका लिखी है। भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ की जन्मभूमि हस्तिनापुर ‘जंबूद्वीप’ तीर्थ पर आश्विन शुक्ला पूर्णिमा, वीर नि. सं. २५२१ दिनाँक ८-१०-१९९५ को मैंने यह टीका लिखना प्रारंभ किया था।
अनंतर बराबर मेरा टीका लेखन कार्य चलता रहा। पुन: हस्तिनापुर में सन् २००७ में वैशाख कृ. दूज (४ अप्रैल) को मैंने सोलहवीं पुस्तक की संस्कृत टीका पूर्ण की है।
इस टीका को लिखने का मेरा भाव केवल ‘षट्खण्डागम’ महाग्रन्थराज के रहस्य को समझने का, अपने ज्ञान के क्षयोपशम की वृद्धि का एवं परिणामों की विशुद्धि का ही है।
यह ‘षट्खण्डागम’ कितना प्रामाणिक है, देखिए श्रीवीरसेनस्वामी के शब्दों में-
लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयार-दिवायरो अत्थमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसभूद-पेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा। एवं पमाणीभूदमहारिसिपणालेण आगंतूण महाकम्मपयडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं। तदो भूदबलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्ठं महाकम्मपयडिपाहुड-मुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि। तदो तिकालगोयरासेसपयत्थवि-सयपच्चक्खाणंतकेवलणा-णप्पभावादो पमाणीभूदआइरियपणालेणागदत्तादो दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो। तम्हा मोक्खकंखिणा भवियलोएण अब्भसेयव्वो। ण एसो गंथो थोवो त्ति मोक्खकज्जजणणं पडि असमत्थो, अमियघडसयवाणफलस्स चुलुवामियवाणे वि उवलंभादो१।
लोहाचार्य के स्वर्गलोक को प्राप्त होने पर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्र में बारह सूर्यों के अस्तमित हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वों के एकदेशभूत ‘पेज्जदोस’ और ‘महाकम्मपयडिपाहुड’ आदिकों के धारक हुए। इस प्रकार प्रमाणीभूत, महर्षिरूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुडरूप अमृत जल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ।
उन्होंने भी गिरिनगर की चन्द्र गुफा में सम्पूर्ण महाकम्मपयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्त को अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदी प्रवाह के व्युच्छेद से भयभीत हुए भूतबलि भट्टारक ने भव्यजनों के अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड (षट्खण्डागम) किये।
अतएव त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाले प्रत्यक्ष अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यरूप प्रणाली से आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमान से चूँकि विरोध से रहित है अत: यह ग्रंथ प्रमाण है। इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को इसका अभ्यास करना चाहिए।
चूँकि यह ग्रंथ स्तोक है अत: वह मोक्षरूप कार्य को उत्पन्न करने के लिए असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए; क्योंकि अमृत के सौ घड़ों के पीने का फल चुल्लूप्रमाण अमृत के पीने में भी पाया जाता है।
अत: यह ग्रंथराज बहुत ही महान है, इसका सीधा संबंध भगवान महावीर स्वामी की वाणी से एवं श्री गौतम स्वामी के मुखकमल से निकले ‘गणधरवलय’ आदि मंत्रों से है। इस ग्रंथ में एक-एक सूत्र अनंत अर्थों को अपने में गर्भित किये हुए हैं अत: हम जैसे अल्पज्ञ इन सूत्रों के रहस्य को, मर्म को समझने में अक्षम ही हैं। फिर भी श्रीवीरसेनाचार्य ने ‘धवला’ टीका को लिखकर हम जैसे अल्पज्ञों पर महान उपकार किया है।
इस धवला टीका को आधार बनाकर मैंने टीका लिखी है। इसमें कहीं-कहीं धवला टीका की पंक्तियों को ज्यों का त्यों ले लिया है। कहीं पर उनकी संस्कृत (छाया) कर दी है। कहीं-कहीं उन प्रकरणों से संबंधित अन्य ग्रंथों के उद्धरण भी दिये हैं। श्रीवीरसेनाचार्य के द्वारा रचित टीका में जो अतीव गूढ़ एवं क्लिष्ट सैद्धांतिक विषय हैं अथवा जो गणित के विषय हैं उनको मैंने छोड़ दिया है एवं ‘धवला टीकायां दृष्टव्यं’ धवला टीका में देखना चाहिए, ऐसा लिख दिया है। अर्थात् इस धवला टीका के सरल एवं सारभूत अंश को ही मैंने लिया है। चूँकि यह श्रुतज्ञान ही ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति के लिए ‘बीजभूत’ है।
सिद्धांतचिंतामणिनामधेया, सिद्धान्तबोधामृतदानदक्षा।
टीका भवेत्स्वात्मपरात्मनोर्हि, वैâवल्यलब्ध्यै खलु बीजभूता१।।१७।।
‘षट्खण्डागम’ में-पाँच खण्डों में सूत्र संख्या छह हजार आठ सौ इकतालिस (६८४१) है। इस प्रकार इन सोलह पुस्तकों की संस्कृत टीका मैंने वैशाख कृ. दूज, ४ अप्रैल २००७ को लिखकर पूर्ण की है। यह टीका समस्त विज्ञजनों के लिए श्रुतज्ञान के क्षयोपशम का कारण बने, यही मेरी मंगलकामना है।