अर्थात् त्रैलोक्य शिखर सिद्धशिला पर विराजमान अनन्त सिद्ध परमेष्ठियों को नमस्कार करके जो समस्त क्रियाओं के अन्त में इष्ट—विशेष रूप से मान्य स्वीकार किए गये हैं, ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान मेरे इस अपने हृदय में धारण (विराजमान) किये जाते हैं।
समस्त क्रियाओं के अन्त से यहाँ अभिप्राय यह है कि साधु और श्रावकों की नैमित्तिक क्रियाओं में शान्ति भक्ति करना आवश्यक होता है। श्रावकजन दैनिकपूजा के अन्त में प्रतिदिन शांतिभक्ति पढ़ते हैं और वृहत् पूजा विधानों के अन्त में भी शान्तिभक्ति पढ़कर शान्तिपाठ करने की विधि है।
इसी प्रकार मुनि, आर्यिका आदि के लिए नित्य ही ‘‘अभिषेक वन्दनाक्रिया’’ में सिद्ध, पंचगुरु भक्ति के बाद शान्तिभक्ति पढ़ने का विधान है तथा वृहत्सामायिक विधि से सामायिक करने पर उसमें शान्तिभक्ति करनी होती है। इनके अतिरिक्त अष्टमी क्रिया, नन्दीश्वर क्रिया, वर्षायोग प्रतिष्ठापन-निष्ठापन क्रिया, पाक्षिक-चातुर्मासिक, सांवत्सरिक आदि प्रतिक्रमण को करने में, साधु-सल्लेखना, पंचकल्याणक आदि क्रियाओं के अन्त में शान्ति भक्ति आवश्यक रूप से पढ़ी जाती है।
यह शान्तिभक्ति भक्तों के मन में शान्ति प्रदान करे, इसी अभिप्राय से चरणानुयोग के ग्रन्थों में आचार्यों ने प्रत्येक क्रिया के अन्त में शान्तिभक्ति करने का विधान किया है। वही भाव दर्शाने के लिए गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने प्रथम मंगलाचरण श्लोक में श्री शान्तिनाथ भगवान को नमन करते हुए यह भाव प्रगट किए हैं
कि जो समस्त क्रियाओं के अन्त में इष्ट रूप से स्वीकार किए गए हैं ऐसे शान्तिनाथ भगवान मेरे हृदय में विराजमान होवें। यह भावना आत्मशान्ति की प्रतीक है। पुनः १५ श्लोक के बाद सरस्वती को हृदय में धारण करने की भावना की है—
शारदे! तिष्ठ मच्चित्ते, यावन्नपूर्णमाप्नुयात्।
प्रारब्धकार्यमेतद्धि, तावच्छक्ति च देहि मे।।१६।।
अर्थात् हे सरस्वती मातः ! मैंने (ज्ञानमती ने) नवीन टीका रचने का जो यह कार्य प्रारम्भ किया है जब तक यह कार्य पूर्ण न होवे तब तक आप मेरे हृदय में विराजमान रहें और मुझे शक्ति प्रदान करें ताकि यह कार्य र्नििवघ्न सम्पन्न हो।
अर्थात् अब श्रीमत् भगवन् धरसेनाचार्य गुरु के मुख से उपलब्ध ज्ञान को भव्यजनोें में वितरित करने के लिए पंचमकाल के अन्त में वीरांगज मुनि पर्यन्त इस ज्ञान को ले जाने की इच्छा से पूर्वाचार्यों की व्यवहार परम्परा के अनुसार शिष्टाचार का परिपालन करने के लिए, र निवघ्न सिद्धान्त शास्त्र की परिसमाप्ति आदि हेतु को लक्ष्य में रखते हुए श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्य के द्वारा णमोकार मंत्र मंगल गाथा सूत्र का अवतार किया जाता है—
अरिहन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक के सर्व साधुओं को नमस्कार हो। इस मंगलाचरण की टीका के मध्य के कुछ अंश— इस महामंत्र में कितने पद, कितनी मात्राएँ हैं तथा और भी इस महामंत्र की क्या महिमा है इसका वर्णन है— णमोकार महामंत्रस्याक्षरपदमात्रादयो वण्र्यन्ते—
इस महामंत्र में ३५ अक्षर हैं, पाँच पद हैं, चौंतीस स्वर हैं और तीस व्यंजन हैं। यहाँ सभी वर्ण अजन्त हैं। तब पैंतीस अक्षरों में चौंतीस स्वर वैâसे हो सकते हैं ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं कि—
‘‘णमो अरिहंताणं’’ इस प्रथम पद में कुल सात अक्षर हैं जिनमें छह स्वर जानना चाहिए। मंत्र व्याकरण शास्त्र के अनुसार ‘‘अरिहंताणं’’ पद के अकार का लोप हो जाता है। प्राकृत व्याकरण में
‘‘एङ’’—नेत्यनुवर्तते एड़ित्येदोतौ।
एदोतोः संस्कृतोक्तः सन्धिः प्राकृते तु न भवति।
यथा देवी अहिणंदणो, अहो अच्चरिअं, इत्यादि सूत्र के अनुसार सन्धि नहीं होती है अतः अकार का अस्तित्त्व ज्यों का त्यों रहता है, अकार का लोप खण्डाकार (ड) नहीं होता है किन्तु मंत्र शास्त्र में ‘‘बहुलम्’’ इस सूत्र के अनुसार ‘‘स्वरयोरव्यवधान प्रकृतिभावो लोपो वैकस्य’’ इस नियम से ‘अ’ का लोप विकल्प से हो जाता है अतः ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इस पर में छह स्वर ही माने गए हैं। इस न्याय से पूरे णमोकार मंत्र में चौंतीस स्वर होते हैं। इस प्रकार से उसमें अट्ठावन मात्रा हैं। उन अट्ठावन मात्राओं का दिग्दर्शन कराते हैं—
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं, णमो लाए सव्वसाहूणं।।
ऽइस मंत्र के प्रथम पद में ग्यारह मात्राएँ हैं, द्वितीय पद में आठ, तृतीय पद में ग्यारह, चतुर्थ पद में बारह और पंचम पद में सोलह मात्राएँ, ऐसे कुल मिलाकर ११ + ८ + ११ + १२ + १६ = ५८ मात्राएँ हैं अथवा अरिहंताणं के अकार का लोप हो जाने पर एक मात्रा का वहाँ अभाव हो गया और ‘‘सिद्धाणं’’ इसमें ‘‘संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर दीर्घ हो जाता है।’’
इस नियम से भी अट्ठावन मात्राएँ हो जाती हैं। तात्पर्य यह है कि यहाँ त्रिविक्रम व्याकरण के अनुसार नियम बताया है कि एकार और ओकार में अवर्ण के आने पर सन्धि नहीं होती है इसीलिए णमो अरिहंताणं में ओ के बाद ‘अ’ ज्यों का त्यों रखा गया है किन्तु मंत्रशास्त्र के विधान से अ का लोप मान लेने पर णमो अरिहंताणं पद में १० मात्राएँ ही रह जाती हैं और इसी प्रकार से ५८ मात्राओं का जोड़ भी समुचित बैठ जाता है। तब १० + ९ + ११ + १२ + १६ = ५८ का योग बन जाता है।
इन सभी वर्णों में स्वर और व्यंजन करने पर चौंतीस स्वर और तीस व्यंजन इस प्रकार चौंसठ वर्ण होते हैं क्योंकि ‘‘द्धा ज्झा व्व’’ इन संयुक्ताक्षरों के यहाँ तीन वर्ण ही (व्यंजन) ग्रहण किए हैं न कि छह, पुनः यहाँ ‘‘अ इ उ ए’’ ‘‘ज झ ण त द ध य र ल व ह’’ ये स्वर-व्यंजन ही मूल रूप से इस मंत्र में समाहित हैं तथा मूलवर्ण भी चौंसठ ही होते हैं।
इस महामंत्र में समस्त स्वर-व्यंजनों के अक्षर जोड़ने पर तो ६७ वर्ण होते हैं किन्तु जहाँ इसकी व्याख्या मिली है वहाँ चौंसठ ही अक्षर माने गए हैं किन्तु कहीं खुलासा नहीं आया कि कौन से वर्णों को इसमें जोड़ा गया है अतः मैंने उपर्युक्त तीन वर्णों के संयुक्ताक्षरों में एक-एक व्यंजन हटाकर ६४ मूलवर्णों की संख्या का दिग्दर्शन कराया है।
अतएव—इस महामंत्र में सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुत समाहित है अर्थात् उक्त चौंसठ अक्षरों को अलग-अलग लिखकर प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर में सम्पूर्ण दो के अंकों से गुणा करने पर प्राप्त हुई संख्या में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं।
इस नियम से गुणकार करने पर— एक, आठ, चार, चार, छह, सात, चार, चार, शून्य, सात, तीन, सात, शून्य,, नौ, पाँच, पाँच, एक, छह, एक, पाँच यह संख्या आती है अर्थात् १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ये समस्त द्वादशांग रूप श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं अतएव णमोकार महामंत्र में द्वादशांग रूप समस्त श्रुतज्ञान समाहित है
ऐसा जानना चाहिए अथवा यह मंत्र बारह अंगमयी श्रुतज्ञान रूप ही है, समस्त मंत्रों की यह खानि है अर्थात् इस मंत्र से ही समस्त मंत्र उत्पन्न होते हैं अतः ८४ लाख मंत्रों का उद्भव इस णमोकार मंत्र से ही माना जाता है। इसका माहात्म्य साक्षात् सरस्वती देवी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है। श्री उमास्वामी आचार्यवर्य ने भी कहा है—
‘‘यदि कोई व्यक्ति तराजू के एक पलड़े पर पंचपरमेष्ठी के णमोकार मंत्र के पद और अक्षरों को तथा दूसरे पलड़े पर अनन्तगुणात्मक तीनों लोकों को रखकर तुलना करे तो भी वह णमोकार मंत्र वाले पलड़े को ही अधिक भारी अनुभव करेगा, उस महान् गौरवशाली मंत्र को मैं नमस्कार करता हूँ।’ णमोकार मंत्र पूजन की जयमाला में भी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती ने श्री उमास्वामी के इन्हीं भावों को संजोया है कि—
इक ओर तराजू पे अखिल गुण को चढाउँ।
इक ओर महामंत्र अक्षरोें को धराऊं।।
इस मंत्र के पलड़े को उठा ना सके कोई।
महिमा अनन्त यह धरे न इस सदृश कोई।।
तात्पर्य यह है कि पंचनमस्कार मंत्र तीनों लोकों में सारभूत है, इसके चिन्तन, मनन और ध्यान से परमेष्ठी पदों की प्राप्ति तो परम्परा से होती ही है तथा यह मंत्र संसार में भी लौकिक सम्पदाओं को प्रदान करता है। पुराण ग्रन्थों में अनेकों उदाहरण मिलते हैं कि इस मंत्र को तिर्यंच प्राणियों को भी मरणासन्न अवस्था में सुनाने से उनको देवगति प्राप्त हो गई।
इसका माहात्म्य जानकर योगीजन भी जीवन के अन्तकाल तक इस महामंत्र का आश्रय लेकर अपने समाधिमरण की सिद्धि करते हैं। इस षट्खण्डागम ग्रन्थ में आचार्य श्री पुष्पदन्त—भूतबली भगवन्तों ने प्रारम्भिक मंगलाचरण में ही इस महामंत्र को निबद्ध कर इसके अतिशय को और भी अधिक वृद्धिंगत कर दिया है।