क्या धनवान होने से सुखी कहलाते हैं?
आज समाचार पत्र में पढ़ा की विश्व के सबसे अमीर व्यक्ति धनवान होने के बावजूद सुखी नहीं है और न रहे जबकि सामान्य तौर पर पूरी दुनिया धन को कमाने में पागल हो रही है और है मैं यहाँ यह बताना चाहूंगा की संसार में जितनी भी बाह्य सामग्रियां दुख का कारण होती है, बाकी सब सुखाभास है।
आज धनवान लोगों की सूचियां प्रकाशित होती है पर सुखी लोगों की कोई भी सूची प्रकाशित नहीं होती ऐसा क्यों? कारण धन में सुख होता तो क्यों मनुष्य वैरागी होता।
जैन दर्शन में बाह्य सामग्रियों के संचय को परिग्रह कहते हैं। “मूर्च्छाः परिग्रह” (तत्वार्थसूत्र 7 / 17 ) यानी पदार्थों के रक्षण आदि के भाव को परिग्रह कहते हैं। बाह्य और अभयंतर पदार्थों में “यह मेरा है “इस प्रकार के संकल्प को परिग्रह कहते हैं और मूर्च्छा यानी बाह्य और अभ्यन्तर उपाधि के रक्षण आदि के व्यापार को मूर्च्छा कहते हैं। गाय भैस, मणि मुक्त धन आदि चेतन अचेतन बाह्य परिग्रह के और राग-द्वेषादि अभ्यंतर परिग्रह के संरक्षण, अर्जन, संस्कारादि लक्षण व्यापार को मूर्छा कहते हैं।
इसके अलावा-
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान,
कहीं न सुख संसार में सब जग देखो छान ।
विश्व के सबसे अमीर व्यक्ति की धन सम्पदा 20.56 लाख करोड़ रूपये हैं। पर उन्हें खुद के लिए परिवार के लिए और समाज के लिए समय नहीं हैं। धन सम्पदा सबके पुण्य पाप से आती हैं, उसके लिए पुरुषार्थ के साथ भाग्य का भी साथ होता हैं। वारेन बफेट भी सम्पन्नतम होने के बाद भी 27 वर्ष अपनी पत्नी और बच्चों से दूर रहे।
जोड़ जोड़ संचय करें परिग्रह अपरम्पार ।
कितने दिन हैं जीवना, क्यों नित ढोवें भार |
कुटुंब मोह का जाल हैं, कोई न जावे साथ
भला बुरा जो कर गया बनी रहेंगी गाथ।
कितने भी सम्पन्न होने के बावजूद भी यदि आपके पास सुख शांति नहीं, परिवार के प्रति लगाव नहीं वह मृतक समान होता है।
मानुष योनिअनेक विपत्तिमय, सर्वसुखी नहि कोई
कोई इष्ट वियोगी विलखे कोई अनिष्ट संयोगी,
कोई दीन-दरिद्री विलखे कोई तन के रोगी
जो संसार विषै सुख होता तीर्थंकर क्यों त्यागे।
काहे को शिव साधन करते संजमसो अनुरागे।
कोई कितना भी कमा ले या विश्व विजेता बन जाए पर अंत समय वह अकेले ही नगे हाथो जाएगा। इसके लिए यहाँ ध्यान देना जरूरी है की हमें सीमित धन संचय कर परोपकार में उपयोग करे, धार्मिक, सामाजिक, स्वास्थ्य के लिए योगदान दे। सभी लोग अपनी अपनी कंपनी लिमिटेड / सीमित / मर्यादित क्यों बनाते हैं। जब आप अपनी कम्पनी लिमिटेड बनाते हैं तब आप खाने पीने, कार चलाने में सीमा क्यों रखे हैं उन्हें भी अनलिमिटेड / अमर्यादित / असीमित करना चाहिए। आदमी पेट भर खाना चाहता है पर पेटी भर धन संचय क्यों ?
आज हम भौतिक चकाचौंध के पीछे भाग रहे हैं. मृगतृष्णा के समान भाग रहे हैं और अंत में खली हाथ ही जाना हैं और जाते हैं। जितनी तल्लीनता से धन कमाते हैं उससे समय निकाल परिवार, मित्र और आत्मकल्याण की ओर भी ध्यान देना चाहिए आत्म निरिक्षण कर आत्मकल्याण करे वो ही साथ जायेगा बाकी सब सम्पत्ति, परिवार, मित्र जन श्मशान घाट तक जायेंगे जितना अधिक संग्रह उतना अधिक दुःख का कारण, तराजू में जो पड़ला भारी होता हैं। वह नीचे जाता हैं और जो हल्का होता है वह ऊपर जाता है।
पानी का धन पानी में, और नाक कटी बेईमानी में।
धन सुख शांति बाह्य साम्रगी आपके पुण्य पाप के कारण मिलती हैं। जब तक पुण्य का ठाठ हैं तब तक मजा उसके बाद सजा होती हैं।
-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन