सुभद्रावती नगरी में ही नहीं वरन् समस्त कोकण प्रदेश की गली-गली में यही चर्चा थी कि आखिर ‘देवल’ इतनी सम्पत्ति पा वैâसे गया।…कल तो फटा जीर्ण-शीर्ण कुरता पहिने हुए लकड़ी को आरे से चीर रहा था। नन्हें-नन्हे बच्चे पास खड़े रोटी के एक टुकड़े को चिल्ला रहे थे। स्त्री ताने मार-मार कर उसके पुरुषार्थ पर हथौड़े की सी चोटें कर रही थी तथा स्वयं मजदूरी कर परिवार के पेट पालने की डींगे हाँक कर रही थी और आज अचानक एकदम काया पलट! रात्रि भर में इतना अद्भुत परिवर्तन! सोचने वाले हैरान थे,देखने वाले दाँतों तले अँगुली दबाकर रह जाते और पडोसी!…उनकी छातियो पर तो साँप लोट रहे थे या ईष्या की दावाग्नि में जले जा रहे थे वे! हाँ, और उनके बारें में तो कहना भूल ही गया जो कल तक सीधे मुँह बात नहीं करते थे; पर आज अपनी ठकुर सुहाती से मानों उसके तलुए ही चाटे जाते थे और वे साहूकार जिन्होंने लाल-लाल आँखे दिखाते हुए तकाजे लगाए और घर के दरवाजे को रोंद डाला;आज चिकनी चुपड़ी बातों द्वारा अपने अत्याचारों पर पर्दा डालने के निकल पड़े- उसकी खुशामद में।बाहरी गिरगिट जैसी रंग बदलने वाली दुनियाँ; धन्य है तुझे!!
सबहि सहायक सबल के, कोऊ न निबल सहाय। पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय।।
परन्तु नहीं; इन सब के बीच में एक वह मानवीय वर्ग भी रहता है जिनका कार्य रहस्योद्घाटन करना ही होता है, वे सदैव कार्य में कारणों की ही खोज किया करते हैं। ऐसे व्यक्ति वैज्ञानिक अथवा दार्शनिक होते हैं…मात्र तत्त्वान्वेषक। ऐसे ही तत्त्वान्वेषक महोदय भी इस रहस्य की भूमिका खोजने ‘देवल’ के पास आये और जिज्ञासु भाव से बोलेः ‘‘अवश्य ही आपने किन्हीं मन्त्रों का साधन किया है? क्या बतलाने का कष्ट करे कि वह कौन सा मंत्र है? कहाँ से वह आप को प्राप्त हुआ और उसकी साधन विधि क्या है?’’ देवल एक सरल सीधी प्रकृति का मनुष्य था।आज वह भले ही अपार वैभव का स्वामी हो गया हो,पर कल तक तो वह एक साधारण कठफार (विश्वकर्मा-बढई) से कुछ अधिक नहीं था। निर्धनता की ठोकरें ही कुछ ऐसी होती है कि निर्धन मनुष्य में कभी-कभी देवत्व के दर्शन होने लगते हैं। देवल की बाहिरी दुनियाँ तो अवश्य बदल गई थी पर अन्तरंग उसका अभी उतना निर्मल था—सरल था।…विनम्रता से यथाक्रम कहना प्रारम्भ किया- श्रीमान् जी! आप को निश्चय न होगा कि गिल्ली डंडे जैसे अल्पवयस्क बालकों के साधारण खेल से मेरे इस क्रान्तिकारी परिवर्तन की कहानी का आरम्भ होता है।…आज से सात दिन पहिले इस सामने वाले चौगान में छोटे बालकों का एक सूमह उपर्युक्त खेल खेल रहा था। इतने में घूमता घामता एक सप्त वर्षीय बालक भी क्रीड़ास्थल पर आ पहँुचा। बगल मेें एक छोटी सी पुस्तिका दबाये था; इससे ज्ञात होता था कि अभी पाठशाला से ही लौटा है और अपने समवयस्कों को खेलते देखकर उसका भी जी खेलने को ललचा गया है मैं उस बालक को देखते ही उस पर मुग्ध हो गया। विचारने लगा कितने निश्चित होते हैं ये नन्हें—्नान्हें भोले बालक, न खाने की चिन्ता, न खिलाने की। एक मैं हूँ, कि दिन भर बसूला चलाता हूँ, तब कहीं मुश्किल से अपने पेट की रोटियाँ जोड़ पाता हूँ, परिवार पालन तो दूर ही रहा।जैसे तैसे विचारों का क्रम टूटा तो क्या देखता हूँ कि यह बालक खेलने की अभिलाषा रखते हुए भी खेल में शामिल इसलियें नहीं हो पा रहा था कि उसके पास डंडा नहीं है। निदान एक दयालु बालक ने डंडा दिया और उसने खेलना शुरू किया पर दिल खोलकर वह खेल भी न पाया था कि वह डंडा ही टूट गया। डंडे के टूटते ही उसका दिल टूट गया। उसके मुख पर छाये हुए विषाद के भाव मैंने स्पष्ट पढ़ लिये। वह दुखी था इसलिये नहीं कि और अधिक न खेल सका पर इसलिये कि इस समय वह दूसरे का ऋणी था। लज्जा से उसका मुख लाल हो गया।…न जाने क्यों उसकी यह स्थिति मुझे असह्य हो गई। मैंने उसे संकेत से बुलाया और पुचकार कर पास बैठाया! पूछा-’’ बेटा! तुम्हारा नाम क्या है?’’ ‘‘सोमक्रान्ति’’-भोलेपन से उसने उत्तर दिया। ‘‘और बेटा!पिता जी का?’’ ‘‘सुधन श्रेष्ठी’’ ‘‘बेटा सोमक्रान्ति! बतलाना यह कौन सी पुस्तिका है?’’ ‘‘ नहीं,बिना स्नान किये इसे नहीं छूने दँगा मैं। यह जैनधर्म का पवित्र ग्रन्थ भक्तामर स्तोत्र है। इसे श्रद्धावान श्रावक ही छू सकते हैं।’’बालक के मुँह से मानो सिखाये हुए शब्द नितान्त भोलेपन से निकलते गये और मैं मोहित होता गया।उसको उकताहट हो रही थी, इसलिये मैंने दो सुन्दर डन्डे बनाकर उसे दिये और कहा कि एक से स्वयं खेलना और दूसरा उस लड़के को जाकर दे दो जिसका कि तुमने लिया था। ‘‘वास्तव में भाई साहब!‘‘ देवल बोलता ही गया-निष्कपटता में ही मित्रता का वास रहता है। देखो न, कहाँ तो मैं अधबूढ़ा खूँसट औरा कहाँ वह सप्तवर्षीय बालक?पर हम दोनों ऐसे घुलमिल कर बातें कर रहे थे, मानो समवयस्क हों।उसके साथ बातें करके तो सचमुच में मैंने इस पचपन वर्ष की उम्र में भी बचपन का आनन्द ले लिया था…भोला बालक डन्डे पाकर इतना खुश हुआ कि उसने पुस्तक देते हुए मुझ से कहा-‘‘पिता जी से न कहना’’ और दौड़ कर चला गया। अब मैंने पुस्तक के पत्र पलटे तो उसके पाँचवे श्लोक पर नजर ठहर गई और कुछ ऐसी श्रद्धा जगी कि उसे याद कर यथाविधि ऋद्धि और मंत्र की साधना के लिए पास के ही जंगल की एक निर्जन गुफा में जाकर ध्यान लगाने लगा! बस फिर क्या था? कल ही रात्रि को जब मैं उपर्युक्त काव्य और ऋद्धि-मंत्र की जाप जप रहा था कि एकाएक ‘अजिता’ नाम की देवी प्रकट हुई और बोली- ‘‘हे वत्स! क्या चाहते हो?’’ ‘‘धन’’मेरे मुँह से बिना सोचे-विचारे ही निकल पड़ा। ‘‘तो देखो, वत्स! यहाँ से ईशान कोण में जो पीपल का झाड़ है-उसके चारों ओर की भूमि खोदो।’’ इतना कह कर देवी अन्तर्धान हो गई और मैं सर पर पैर रखकर भागा उस वृक्ष की तरफ! खोदने पर वास्तव में करोड़ों के हीरे जवाहरात वहाँ गड़े हुए प्राप्त हुए हैं और इनका उपभोग मैं तभी करूँगा जब तक कि एक मनोरम आदिनाथ चैत्यालय का निर्माण कराकर उसमें उपर्युक्त ‘भक्तामर’ का पांचवाँ श्लोक ऋद्धिमन्त्र सहित उसकी दीवारों में अंकित न करा दूँ।