अध्ययन शालाओं में एक जड़मति छात्र की क्या अवस्था होती है, उसे वह भुक्तभोगी विद्यार्थी ही अनुभव कर सकता है; जो बात-बात में अध्यापक की प्रताड़ना, साथियों और सहपाठियों द्वारा उपहास एवं आत्मग्लानि उसके रसमय जीवन को निराशा से भर देते हैं! निराशा ही क्यों? कभी-कभी तो आत्म-हत्या जैसा लोकनिंद्य जघन्य कार्य भी कर बैठता है वह,या अशरण सा घूमता हुआ विविध मंत्र-तन्त्रों का अनुष्ठान करके कुशाग्र बुद्धि बनने के स्वप्न देखा करता है। ऐसे ही एक अन्तेवासी की यह लघु कथा है जिसने कि महाप्रभावक भक्तामर जी के छटवें काव्य का ऋद्धि-मंत्रसहित अनुष्ठान किया और ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपसम से व्युत्पन्नमति बनकर अपने जीवन को मधुर बनाया। तत्कालीन भारत की राजधानी काशी; राजा हेमवाहन; उसके दो पुत्र-ज्येष्ठ भूपाल,लघु भुजपाल। पहिला अतिमन्द बुद्धि-दूसरा कुशाग्रबुद्धि या आध्यात्मिक भाषा में उन्हें कह सकते हैं-जड़-चेतन या निश्चय और व्यवहार। बारह वर्ष कूकुर की पूँछ नली में रखी गई, जब निकली तब टेढ़ी की टेढ़ी। बारह वर्ष तक पंडित श्रुतधर ने भूपाल के साथ माथापच्ची की और जब देखा कि उसके मस्तिष्क में सिवाय गोबर के और कुछ नहीं भरा है तब उनके पांडित्य ने जवाब दे दिया!… और दूसरी ओर बाहर वर्ष में राजकुमार भुजपाल ने क्या प्राप्त किया, वह भी सुन लीजिए। पिंगल, व्याकरण,तर्व,न्याय, राजनीति, सामुद्रिक, वैद्यक, शास्त्र, विज्ञान, मनोविज्ञान आदि आदि। एक ही गुरू के पढ़ाये ये दो शिष्य, एक ही पिता के ये दो पुत्र परन्तु अन्तर, जमीन और आसमान का।यह दैव दुर्विपाक नहीं तो और क्या है? परिणाम स्वरूप एक का जीवन लोकप्रियता के पथ और दूसरे का लोक-निन्दा के मार्ग पर ढलने लगा!..। निदान, परिस्थितियों से पराजित होकर भूपाल ने अपने लद्युभ्राता भुजपाल की सम्मति के अनुसार उपर्युक्त मंत्र का अनुष्ठान किया और इक्कीस दिन के पश्चात् भूपाल का साक्षात्कार जिन शासन की अधिष्ठात्री ‘ब्राह्मी’ नाम की देवी से हुआ।उससे वर प्राप्त कर वह एक ऐसा धुरन्धर विद्धान हुआ कि पुराणों में उस घटना ने अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है।