यह सभी जानते है कि पानी से तृषा शान्त होती है, परन्तु यह कितनों को ज्ञात है कि पानी से पिपासा शान्त न होकर उल्टे बढ़ती भी है। इस विरोधाभास से आप चौंकिये नहीं; क्योंकि मेरा मन्तव्य खारे पानी से है। हम अपने दैनिक भोजन में जब कभी लवण की मात्रा अधिक कर देते हैं तब स्वाभाविक रूप से हमें बार-बार प्यास लगती है। लवण का यह एक विशेष गुण विज्ञान सम्मत है। वास्तव में खारे जल में लवणादिक पदार्थ घुले रहने के कारण ज्यों-ज्यों उसे पिया जाता है त्यों-त्यों प्यास बढ़ती ही जाती है। अव्वल तो विष के घूंट के समान उसका कंठ के नीचे उतरना कठिन होता है, दूसरे हमारी प्रकृति के लिये वह प्रतिकूल अर्थात् अहितकर भी है वैसे संस्कृत में जल का एक नाम अमृत भी है, परन्तु मैं समझता हूँ कि यह संज्ञा मधुर जल के लिये एक हलका विष सिद्ध कर रहा है। वैज्ञानिक ने तो यहाँ तक कहा है कि लवण ही एक ऐसा पदार्थ है जिसके कारण सर्प के विष का असर हम पर होता है। यदि बारह वर्ष तक हम लवण का प्रयोग न करें तो सर्प के विष का हम पर रंच मात्र भी असर न होगा। प्रत्युत हमें काटकर वह स्वयं मृत्यु को प्राप्त हो सकता है यही कारण है कि प्रकृति ने पीने के लिए यदि हमें मधुर जल की देन दी है तो दूसरे उपयोगों के लिये खारे जल की। इस भाँति जल को विष कहना अंसगत प्रतीत नहीं होता और जिस प्रकार विष एक चिन्ता का विषय है, खारा जल भी उसी प्रकार चिन्ता का विषय हो सकता है। तात्विक लोग इसकी उपेक्षा कदापि नहीं कर सकते । भले ही वैज्ञानिक इस तथ्य की अवहेलना कर उस क्षारीय जल को मधुर रूप परिणत करने में असमर्थ बने रहें किन्तु पुरातन पुराण कहते हैं कि युवराज तुरंगकुमार जैसे तत्त्वदर्शी ने इसे एक महान् गहन चिन्ता का विषय समझा और उसे वैज्ञानिक ढंग से नहीं, अपितु मंत्रों के द्वारा मधुर बनाकर पिपासुओं का अपार उपकार किया। युवराज तुरंगकुमार को महाप्रभावक श्री भक्तामर जी के ग्यारहवें काव्य पर अटूट श्रद्धा थी वह ‘‘पीत्वा पय: शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धो:, क्षारं जलं जलनिघेरसितुं क इच्छेत्।।’’का पाठ प्रतिदिन किया करता था। कावेरी नदी के तट पर युवराज की क्रीड़ाओं हेतु उनके पिता रतनावतीपुरी के राजा रुद्रसेन ने जब एक मनोरम उद्यान बनवाया तो राजपुत्र तुरंगकुमार की इच्छा उस उपवन के बीचों बीच एक बृहत बापिका खुदवाने की हुई । खुदने को तो वह खोदी जा चुकी औरा पानी भी उसमें कई स्रोतों से द्रुतगति से आने लगा किन्तु जब उसे चखा गया तो लवण समुद्र के जल समान उसका स्वाद पाया। बस फिर क्या था, राजकुमार तुरंग इसी बात से अधिक चिन्तित रहने लगे। राजकुमार को चिन्तित देख राजा रुद्रसेन ने औषधि, मणि,मंत्र एवं तंत्र आदि द्वारा अनेकानेक प्रयोग किये कि किसी भी प्रकार वह क्षारीय जल मधुरता को प्राप्त हो परन्तु यह साधारण सी दिखने वाली बात इतनी मामूली न थी। अन्ततोगत्वा एक दिन राजा रुद्रसेन निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि चन्दकीर्ति महाराज के समीप आये और अन्य धार्मिक तात्विक प्रश्नों के उपरान्त लवण जल को मधुर बनाने का उपाय पूछने लगे। मुनि श्री ने कहा- ‘‘पांच स्वर्ण कलशों में प्रासुक जल भरकर श्रीमज्जिनेन्द्रदेव का बृहद् अभिषेक कीजिए। तदुपरान्त उसी क्षारीय जल का उपयोग कर शुद्ध पवित्र भोजन बनाकर दिगम्बर साधु को शुद्ध भाव से निरन्तराय आहार कराइये-परन्तु इतना स्मरण रहे कि जिसने बावड़ी खुदवाई हो वही उसका जल भरकर लावे और जल भरते समय महाप्रभावक श्री भक्तामर जी के ग्यारहवें काव्य का पाठ ऋद्धि मंत्र सहित करता रहे।’’ दूसरे ही दिन युवराज तुरंग ने उपर्युक्त विधि से क्रिया करके एक परम दिगम्बर मुनि को निरन्तराय आहार दान दिया। वह आहार दे ही रहे थे कि इतने में उपवन के रक्षक ने आकर खुश खबरी सुनाई कि न जाने क्यों आज उद्यान की बावड़ी के पनघट पर महिलाओं का जमघट लगा हुआ है-सुनते ही तुरंग के हृदय की चिर पिपासा शान्त हो गई और वह मधुरता से भर गया मानों आज युवराज ने पथिकों को क्षीर सागर के मधुर जल का पान कराया हो। नगर में इस बात को लेकर सर्वत्र खुशियां मनाई गई और जैनधर्म के जय—जयकारों से आकाश गुंजायमान कर दिया।