प्रकृति चारों ओर शृंगार से ओत-प्रोत थी। सरिताएँ लहराती-इठलाती हुई अपने असीम प्रवाह से बह रही थीं बड़े-बड़े पर्वतराज अपना मोहक हरा परिधान पहिन कर दर्शकों को मोह लेते थे। निर्जन वन-खंड में एक ओर पपीहे को पी-पी पुकार और मेंढकों की वेद-ध्वनि प्रसारित हो रही थी-तो दूसरी ओर मयूर वृन्द नाच-नाच कर कह रहे थे- ‘‘इस बंसत में नाचो-कूदो प्रमुदित हो सखि!’’ चंचल चपला की चपलता और मेघों की गंभीर ध्वनि इस प्रकार दिखाई दे रहे थे, मानो विद्युत के प्रकाश में इन्द्रदेव सितार (वीणा) वादन हेतु प्रस्तुत हो रहे हैं। ‘‘इस शृंगार पूर्ण सुहावने-सौम्य वातावरण में श्रीधर और रूपश्री पाणिग्रहण के पवित्र बन्धन में बंध चुके थे। सम्पूर्ण वैवाहिक क्रियाओं का सानन्द समापन हुआ और रिश्तेदार, सगे सम्बन्धी एक-एक कर जाने लगे। विवाह के पूर्व श्रीधर ने इष्टमित्रों सहित सहपाठियों की बड़ी आव-भगत की किन्तु अब वह उनसे पिण्ड छुड़ाने को आतुर हो रहा था। मनोरंजन गृह में जाकर मित्रों से घन्टों वार्तालाप करने वाला श्रीधर उनकी छाया से भी बचने लगा। मित्र लोग आपस में कहते-‘‘भाई! पहली पहली शादी जो है, और कभी-कभी पास से गुजरते श्रीधर को ताना मार कर कहते-‘‘भाई! इश्क और मुश्क छिपाये नहीं छिपते।’’ इधर श्रीधर था, जो नवोढ़ा नव-वधू के प्रेम के आगे मित्रों के तानों को अतिहीन समझता था। विवाह के पश्चात् आज दशवाँ दिन था।प्रात:काल से ही वर्षा की घनघोर झड़ी लगी हुई थी। नगर में चारों ओर निस्तब्धता थी, केवल पुराने विचारों के भोले-भाले कृषकबन्धु आल्हा ऊदल जैसे जोशीले लोक गीत गा रहे थे और कुछ मन चले नव-जवान आख्यान में वर्णित गुणों को अपने अन्दर जबरदस्ती टटोलकर मूँछों पर ताव दे रहे थे। अधिक काम करने वाले सेवक लोग मेघराज की असीम अनुकम्पा से आकस्मिक अवकाश मना रहे थे और उनके स्वामी मेघराज की इस दुष्टता पर दांत पीस रहे थे। श्रीधर के परिवार वाले मध्यान्ह में भोजन कर चुके थे, किन्तु रूपश्री अभी तक निराहार थी। घनघोर सघन वर्षा में नगर से पाँच मील दूर देवालय में स्थित जिनदेव की आराधना करना टेड़ी खीर थी। सास ने आकर आश्वासन दिया सायंकाल को श्री जिनमन्दिर जी चलेंगे। अभी इस स्थिति में चलना असंभव है! किन्तु जैन धर्मावलम्बी अपनी ली हुई प्रतिज्ञाओं को प्राणपण से निभाते हैं। और घनघोर मूसलाधार वर्षा एक ही दिन नहीं अपितु सात दिन तक लगातार जारी रही। बड़े-बड़े विशाल-भवन आज जल मग्न हो चुके थे। गाँव के गाँव नदियों की बाढ़ में घिर चुके थे। नगर से ५ मील दूर अवस्थित देवालय भी बाढ़ के क्षेत्र में आ चुका था। पानी रूकने पर सात दिन से निराहार रूपश्री जब देवालय की ओर जिनदर्शन हेतु पहुँची तब बीच में पड़ने वाली नदी की बाढ़ ने उसे बीच मे ही रोक दिया। देवालय के चारों ओर उसे जल ही जल दिखाई दे रहा था। निराश होकर समस्त परिवार घर वापिस लौटा। श्वसुरजी घर आकर समझाने लगे— ‘‘बहूरानी! सात दिन के निर्जल उपवास ने तुम्हारी कुन्दन सी काया खराब कर दी। अब और हठ करना उचित नहीं। हमारी इज्जत का ख्याल करो बेटी! राज दरबार में तुम्हारे सर्वनाश पर क्या जवाब दूँगा? दरबारी क्या मुझ नगर श्रेष्ठी को सन्देह की दृष्टि से न देखेंगे? सास ने भी आकर समझाया – श्वसुरजी तो सिर्प राज दरबार में जवाब देने की बात कह रहे थे पर सासु जी कह रही थीं कि वे भगवान को क्या जवाब देंगी? आखिर वही हुआ-सात दिन निराहार रहने वाली रूपश्री आज भी अपने विचार न बदल सकी। उसने सभी को बतलाया कि प्रण और प्राण में समन्वय नहीं हो सकता।प्राणों का उसे उतना मोह नहीं था, जितना ली हुई प्रतिज्ञा का! आज नगर भर में सन्ताप की रेखायें छाई हुई थी। बाढ़ प्रपीड़ित व्यक्ति निरुपाय हो अपने -अपने इष्टदेव की आराधना कर रहे थे। श्रीधर को भी प्रकृति के प्रकोप के आगे सिर झुकाना पड़ा। श्रीधर, जो धर्म को पूर्वजों की बपौती और उसके सदाचारों को ढोंग समझता था, अब महाप्रभावक श्री भक्तामर जी की पोथी उठाकर उसका पाठ एकाग्रचित्त से कर रहा था। उसने पढ़ना प्रारम्भ किया। ‘‘मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा…!’’ और इस श्लोक को पढ़ कर वह रूक गया। उसमें उसे आनन्दानुभूति हो रही थी। इसी श्लोक को अब वह बार-बार दुहरा रहा था कि जिनशासन की अधिष्ठात्री, समस्त अलंकार विभूषिता ‘मीरा देवी’ ने प्रकट होकर कहा- ‘‘वत्स! प्रसन्नोऽस्मि वरं वृणीष्व।’’ श्रीधर ने वर याचना करके समस्त परिवार सहित वायु-रथ पर चढ़कर जिन वन्दना की। मन्दिर जी में मुनिराज का उपदेश उन्हें आज अमृत तुल्य प्रतीत हो रहा था, और इस अनुपम अलौकिक चमत्कार मात्र से उनका धर्म के प्रति सम्पूर्ण श्रद्धान हो चुका था। मुनिश्री से पंचकल्याणक व्रत की प्रतिज्ञा लेकर वे श्रीधर से महात्मा श्रीधर बन चुके थे और उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा विदुषी पत्नी रूपश्री -‘‘मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा…श्लोक को पुनः दुहरा-दुहरा कर जिनदेव के समक्ष पढ़ रही थी।