दर-दर की ठोकरे खाकर, जूठन पर जीने वाला भिखारी! और फटे-पुराने चिथड़ों में अपनी लाज ढकने वाली उसकी परिगृहीता नारी!!…और समाज से दूर- बहुत दूर स्थित घासफूस की वह झोपड़ी! हवा के झोंके जिस पर अपनी शक्ति आजमाते हों-पानी की बौछारें जिसको अपना लक्ष्य रखने को सन्नद्ध रहती हों और सूर्य की चिलचिलाती तेज किरणें मानों इसे जलाकर भस्म ही कर देने को लालायित होकर बार-बार झांकती हो!!… ऐसी ही झोपड़ी में संरक्षण पाने वाले वे दोनों प्राणी अपने-जीवन की घडियाँ काट रहे थे। समाज व्यवस्था कोई आज से थोड़े ही बिगड़ी हैं यह तो युग युगान्तरों का रोग है-महारोग है। विषमता तो मानो संसार को उसी प्रकार वरदान में मिली हैं, जिस प्रकार गरीब को जीवन अभिशाप में!!… ऐसे आराम,ठाठबाट और वैभव विभूति में पले हुए रईसों की भृकुटियो के उतार चढ़ाव पर न जाने कितने गरीबों का जीवन-मरण अठखेलियाँ करता है।…गरीबी का चित्रण करने के लिए शब्द योजन अथवा वाग्जाल की कतई आवश्यकता नहीं; क्योंकि भारत के विशाल भाल पर ये अभागे लाल लाखों नहीं,करोड़ों की संख्या में यत्र-तत्र सर्वत्र दिखाई देते हैं। फूटपाथों पर पड़े-पड़े ही इनकी जिन्दगियाँ समाप्त हो जाती हैं और प्राप्त होती है दर्जनों की संख्या मे वही औलादें, जो अपने घिनौने शरीर को दिखा-दिखाकर नरक के साक्षात् दर्शन कराती हैं। अवतार बार-बार पुण्य के पैरों तले रौंदे जाकर भी मानो उनकी चुनौती स्वीकार करने को बाध्य होते ही हैं विषमताओं से ही तो संसार का अस्तित्व है। सुख और दुख-साता और असाता-गरीबी और अमीरी-दाता और भिखारी-रंक और राजा इन दोनों के संमिश्रण का नाम ही तो संसार है। इनमें कोई एक रहे तो फिर उसे मोक्ष की ही संज्ञा न दी जावेगी? कहते हैं, कि घूरे के भी दिन फिरते हैं। फिर इन अभागों के दिन क्यों न फिरते ?सुदामा के दिन यदि नारायण कृष्ण की कृपा से फिरे तो उपरोक्त भिखारी के दिन भी महाप्रभावक श्रीभक्तामरजी के २६वें श्लोक की साधना से फिर गये। टूटी-फूटी खस्ताहाल झोपड़ी से निकल कर सुदामा जी द्वारका की ओर बढ़े थे तो हमारा यह भिखारी झोपड़ी से निकलकर मुनि की ओर! संभवत: उनसे निग्र्रन्थ बढ़ा निग्र्रन्थ को अपने ही जैसा अकिंन अपरिग्रही समझ कर ही और उनमें आत्मीयता की सुगंध पाकर ही उस ओर कदम बढ़ाये हों! कुछ भी हो, कुछ दिन पश्चात् जब वह भक्तामर जी के २६ वें श्लोक की ऋद्धि तथा मंत्र साधना करके बियाबान वन से वापिस लौटा तो झोपड़ी की जगह ऊँची हवेली खड़ी हुई आकाश से बातें करती दिखाई दी।ठीक वैसे ही जैसे कि सुदामा जी द्वारका से लौटे तो झोपड़ी की जगह उन्हें राजमहल के दर्शन हुये थे। तब से उसे भिखारी नहीं कहता, कहलाता है वह नगर सेठ धनमित्र!