जीवनपर्यंत हम कुछ न कुछ खोजते ही रहते हैं। यह खोज वैसे ही प्रसुप्त है जैसे बीज में अंकुर छिपा होता है। हमने धन खोजा। हमने नाना प्रकार के संसाधन खोजे। विज्ञान की खोज से सुख-सुविधाओं को जुटाया। चिकित्सा के साधन, औषधियां खोजने पर भी स्वास्थ्य में गिरावट नहीं रोक पाए। बोध हुआ कि मृत्यु पर धन और सुविधाएं यहीं रह जाते हैं।
सारा जीवन विभिन्न प्रकार की खोज में बिता देने के बाद अंत में अनुभव हुआ कि जो कुछ भी खोजा है, वह सब सारहीन है। जो साथ न जा सके वह सार कैसे होगा। यहां अपने के अतिरिक्त कुछ भी सार नहीं है।
केवल अपनी खोज ही से जीवन सार्थक हो” सकता है। अपनी खोज ही मौलिक खोज है। जिसे खोजना है और पाना है वह हमारे भीतर है। जैसे ही हम अपनी खोज प्रारंभ करेंगे, वैसे ही हमें लगेगा कि जानने के विषय तो बहुत बचते हैं, किंतु जानने का कारण शेष नहीं रहता।
स्वयं को जानना अनिवार्यता है, क्योंकि जो हम हैं, वही संसार है। इतनी महत्वपूर्ण होते हुए भी अपनी खोज को हम टालते क्यों है? शायद हम खुद को भूलना चाहते हैं। हम भूल जाते हैं कि अपने को भूल जाना अक्षम्य एवं गंभीर अपराध है। हमारी इस विस्मृति का कारण सिर्फ एक ही है कि हमारा ध्यान दूसरी चीजों को याद करने में लग जाना। जहां मस्तिष्क के स्मृति-पटल पर हजारों चीजें अंकित हों, वहां स्वयं को याद करने की जगह ही नहीं बचती।
यदि हमें अपनी खोज करनी है तो शेष सभी ओर से अपनी आंखें बंद कर लेनी होगी। मन को इस संकल्पं के साथ मोड़ना होगा कि जब तक मैं स्वयं को नहीं जान लेता तब तक कुछ और जानने का मूल्य भी क्या है? मनीषियों का कहना है कि जो अपने से ही दूर निकल जाता है और स्वयं से ही अजनबी हो जाता है, उसके जीवन में सदा अंधकार बना रहता है। अतः स्वयं के भीतर उत्तर कर अपनी खोज कर स्वयं को आलोकित करने के लिए प्रयासरत रहना ही श्रेयस्कर है।