‘‘यह नंग जंगली, असभ्य यहाँ कहाँ से आ टपका? थोड़ी भी लज्जा नहीं इसे! बेशरमी की पराकाष्ठा को भी लाँघकर आगे बढ़ा चला आ रहा है! लोक व्यवहार से कोसों दूर रहने वाले इस मलिन वेषधारी दीन दरिद्री को एक फटी हुई कोपीन भी नहीं जुट सकी इतने विराट् ऐश्वर्य युक्त विश्व में?…धिक्कार है इसके क्षुद्र जीवन को!! इसका बदसूरत बदन तो देखो… परते की परतें चढ़ रही हैं मैल की ?…मानों वर्षों से पानी के दर्शन ही नसीब न हुए हों-नहाने के लिए!…और दाँत …ऊबड़ खाबड़-पीले रंग के बदबूदार… क्या यह कभी दाँतों को साफ नहीं करता? मंजन नहीं लगाता?… यह आलौकिक जीव इस लौकिक जगत का प्राणी बनकर क्यों इसके लिए भर स्वरूप बना हुआ है?…इसे देखकर तो मेरा जी मिचलाता है।… और इसके खाने पीने का तरीका तो देखो!…भला मनुष्य बैठकर भी नहीं खा सकता!…जंगली असभ्य कहीं का। एक भिखारी भी होता है, तो वह सकोरे-मिट्टी के ठीकरे या हरी पत्तल में खाता है,परन्तु यह नंगा तो बच्चों से भी गया बीता है, जो हाथों में ले लेकर खा रहा है!! इस बेहूदे को विविध व्यंजनों के स्वाद का भी कोई ज्ञान नहीं है। मूर्ख को हलुवा, दूध, मलाई, दही, दाल, दलिया, जो कुछ भी दिया जा रहा है उन सबको एकमेक करके हैवानों जैसा खाता जा रहा है।’’ उपरोक्त विचारधारा है, एक रूपगर्विता उस रूपवती रानी की जो आदमकद दर्पण के सन्मुख खड़ी हुई अपने सोने जैसे शरीर को एकटक देख कर इठला रही है-ठहर-ठहर कर अँगड़ाईयाँ लेकर मानो शरीर को तोड़े डाल रही है। चार दिनों की चाँदनी वाली विनश्वर क्षणभंगुर काया के शृंगार करने मे ही जिसने अपने अमूल्य जीवन की इतिश्री मान ली है।…यह विचारधारा उस ‘जयसेना की है-जिसके शृंगारकाल में ज्ञानध्यान तपोरक्त संयमी विषय-विष विजयी वीर-प्रभु भक्त ज्ञानभूषण जी महाराज उसी के राजमहल में आहर के लिए पड़गाहे जा रहे थे उसी के पति द्वारा…। उन्हीं समदर्शी परम दिगम्बर-निर्गन्थ मुनिश्री के प्रति अनेकविधि अनर्गल प्रलाप करने वाली यह नास्तिक मिथ्यात्वनी कामिनी क्या किसी और का कुछ बिगाड़ रही है?…अपितु अपनी ही गन्दी विचाराधारा से अपने ही भावों और परिणामों से स्वयं को बांध रही-जकड़ रही है। इस विषयानुरक्ता विषभरी परी को यह खबर नहीं कि आत्मा तो ज्ञान मात्र का पिण्ड रूप ऐसा टेप-रिकार्ड (शब्द संग्राहक यंत्र) है, जिसमें शुभ-अशुभ सभी प्रकार के विचार-विकार टेप (टंकित) होते जाते हैं। विचार यानी भाव-कर्म !!…समय आने पर अर्थात् विपाकोदय काल में कर्म योग से जब द्रव्यकर्मों और नोकर्मों का संयोग होता है, तो गति एवं साता-असाता की सामग्री भी उन्हीं के अनुसार मिलती है!…आत्मा तो एक ऐसा ज्वलन्त वैमरा है जिसके सामने जरा सी असावधानी से बैठने पर भव-भव की फोटो ही बिगड़ जाती है! आप समझते होंगे कि अपनी उस फोटों को बिगाड़ने बनाने वाला कोई विधाता फोटोग्राफर है!!…नही…सनातन जैन सिद्धान्त मे तो विधाता का सारा काम ‘नामकर्म’ ही करता है। उसे ही हम विश्वकर्मा कहते हैं!…तो बस! इसी विचारा धारा ने रानी जयसेना की अगले भव की फोटो तो दूर इसी भव की फोटो बिगाड़ दी अर्थात् जो विचार उसकी आत्मा के उपयोग में टेप (टंकित) हुए थे… वे शीघ्र ही उदय मे आ गये- समदर्शी योगीश्वर ने तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ा उसने स्वयं ही अपने विचारों से अपना भविष्य बिगाड़ लिया। कुछ दिनों बाद ही उसे रिसने वाला दुर्गन्ध युक्त गलित कोढ़ फूट निकला!…इतनी बुरी तरह कि बदबू के मारे सिवा मक्खियों के कोई पास भी नहीं फटकता था। सारी चमचमाती कंचन काया धूल में मिल गई। इसलिए तो कहा गया कि रूप-मद में आकर मुनि निन्दा नहीं करनी चाहिये।… जब संसारी जीव शास्त्रोपदेश या सदगुरु के उपदेश द्वारा कुछ नहीं सीखता तो उपार्जित कर्मों के अनुरूप दण्ड पाकर उनसे भयभीत हुए वे स्वयं सत्पथ पर आ जाते हैं अब समझ में आया जयसेना को कि मेरे मुनि-निन्दा के भाव कर्मों का ही यह कु-फल है—विष फल है! ‘‘ बोये पेड़ बबूल के, आम कहाँ से होंय?’’ अब तो इस व्याधि से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है कि पुरुषोत्तम संत की शरण में जाया जावे। वे अवश्य ही कुछ उपचार बतला देंगे।… और उसने ऐसा ही किया। समदर्शी योगिराज ज्ञानभूषण जी महाराज नो उसे महाप्रभावक भक्तामर स्तोत्र के २९ वे श्लोक के मंत्र को विधि पूर्वक अनुष्ठान करने की प्रेरणा की। फलस्वरूप उसका शरीर पूर्ववत् सुन्दर गुलाब सा हो गया।ठीक वैसा ही जैसा कि श्रेष्ठिवर्य श्रीपाल का श्रीसिद्धचक्र के अनुष्ठान से।