धर्म और सदाचार की नीव पर आधारित चक्र-युगल की गृहस्थ जीवन के रथ को प्रगति पथ पर द्रुतगति से संचालित कर गन्तव्य स्थान तक सफलता पूर्वक पहँुचा सकते हैं। यदि दोनों पहियों में समान गति अथवा यति है,समान ही आकार-प्रकार एवं सौष्ठव है तो पथ कितना ही ऊबड़-खाबड़ , पथरीला क्यों न हो, मंद अथवा तीव्रगति से गृहस्थ जीवन का यह रथ अपने पथ पर बेरोकटोक आगे बढ़ता ही जावेगा।परन्तु यदि किसी चक्र में ही विषमता या असमानता है तो समझिये वहीं गत्यावरोध हो गया। गृहस्थिक जीवन-रथ के ये चक्र युगल पति और पत्नी हैं। इनमें समान गति-यति -मति और रति गुणों का होना उतना ही आवश्यक हैं जितना कि हवा और पानी किसी भी प्राणी को, दम्पत्ति में परस्पर निश्चय और व्यवहार अथवा निमित्त और उपादान जैसा अविनाभावी सम्बन्ध अनिवार्य है। सेठ सुदत्त जी के गृहस्थिक जीवन की गाड़ी चूँ चरर-मरर करती हुई आगे येन-केन प्रकारेण बढ़ रही थी-ढिकल रही थी। ढिकल क्या रही थी?-कभी एक चक्र चलता था तो दूसरा गति हीन हो जाता; कभी-कभी तो गाड़ी टूट जाने का सन्देह होने लगता था। इसका एक कारण तो यह था कि पत्नि की दैनिक चर्या यदि जैन धर्मानुमोदित थी तो पति महोदय की उससे सर्वथा विपरीत। पति को यदि रात्रि का भोजन करना होता तो पत्नी को उसका प्रबल विरोध प्रकट करना। स्वभावत: आये दिन तू-तू-मैं-मैं होती ही रहती और दमपत्ति के मन एक दूसरे से ३६ का रूप धारण कर लेते थे। सप्ताह में अधिक से अधिक तीन दिन चूल्हा सुलगता,चार दिन तो अनशन में ही व्यतीत होते थे। संभवत: इस अकाम निर्जरा में वे दाम्पत्य आनन्द के अतिरिक्त किसी अन्य अलौकिक आनन्द की प्रतीक्षा में रहते थे।… चूँकि पत्नि-सुपत्नी थी-पतिव्रता थी-सदाचारिणी थी-पति परायणा थी और थी सर्वगुण सम्पन्न। इसलिए वह अपने पति को सन्मार्ग पर लाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहती थी। अतएव उसे दोष देना अन्याय होगा। क्योंकि उसने धर्म और सत्य की सु़रक्षा के लिए ही गृहस्थी में बगावत का झंडा खड़ा कर दिया था। पति को सन्मार्ग पर लाने वाली कितनी स्त्रियाँ ऐसा साहस करती हैं? भले ही गृह-कलह प्रतिदिन उसी को लेकर होती हो और उसकी सास इस कलह की आग को भड़काने में घी काम करती हो, परन्तु तो भी वह एक आदर्श सच्चरित्र और पतिव्रता थी। सासुओं का स्वभाव प्राय:वधू पर शासन करने का रहता है। भारतीय परम्परा में उन्हें यह शिक्षा वरदान स्वरूप विरासत में मिली प्रतीत होती है। सासुएँ जब स्वयं वधुओं के रूप में होती थीं तो वे देखती रहती थी, कि किस प्रकार बहू पर शासन करना है, उससे अपनी सेवा सुश्रूषा करवाना, किस प्रकार झूठे सच्चे रूप से अपने लड़के का अगाध प्रेम पत्नि पर इतना तीव्र से तव्रतर न हो जाये कि मेरा अधिकार ही उस पर से उठ जावे। अपना अधिकार और शासन जताने के लिए ही सास अपनी बहू पर बुरे से बुरा अत्याचार करने में भी नहीं चूकतीं। वास्तव में इनका खरा-खोटा वर्णन करने के लिए तो एक स्वतंत्र ‘‘सासु-पुराण’ ही चाहिये। इस कथा -प्रसंग में तो यह बताना ही प्रसंगानुकूल है कि वधू के विरोध में उसकी सास तथा पति ने क्या षडयंत्र रचा था और महाप्रभावक श्री भक्तामर स्तोत्र के ४१ वें काव्य से वह किस प्रकार विफल हुआ। सुसज्जित शयन-कक्ष के मध्य एक पलंग रख हुआ हैं। उस पर सेठ सुदत्त अपनी अद्र्धांगनी दृढ़व्रता सहित आसीन हैं। अपेक्षाकृत आज पति की आरे से मोह और प्रेम की कृत्रिमता अधिक थी मानो वे अपनी इस प्रेयसी पर आज सब कुछ न्यौछावर कर देने को तत्पर हों।…परन्तु सच पूछा जावे तो उनके मन की कुटिलता पर वचनिक एवं कायिक मधुरता का पालिश मात्र था। ‘‘मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मण्यन्द्दुरात्मनाम्।’’ के अनुसार मानो साक्षात् ‘‘विष-रस भरा कनक-घट जैसे’’का पार्ट अदा कर रहे थे।… इन दोनों पात्रों के अतिरिक्त उस शयन-कक्ष में इनकी इस नाट्य लीला को देखने वाला अन्य कोई दर्शक नहीं था। हाँ, एक स्वर्ण-कलश विविध रंग की पुष्प मालाओं, श्रीफल एवं मंगल पत्रों से विभूषित साक्षी स्वरूप वहाँ अवश्य रखा हुआ था। यद्यपि वह घट किसी सुनिश्चित योजनाबद्ध पड़यंत्र को आधार बनाकर स्थापित किया गया था तथा सत् की सुरक्षा के लिए वह अपने सम्पर्व में दृढ़व्रत जैसा उपादान पाकर एक अपूर्व निमित्त सिद्ध हुआ।… बातों ही बातों में सेठ सुदत्तकुमार प्रेम गंगा-जल सा निर्मल और पवित्र है। वास्तव में तुम्हारे जिनेन्द्र प्रभु की आराधना से मैं बहुत अधिक प्रभावित हुआ हूँ।… चाहता हूँ कि आज ही अपने पैतृक धर्म का परित्याग कर मैं अर्हंत् धर्म अंगीकार कर लूँ।…फल स्वरूप आज मैं तुम्हें अपना दीक्षा गुरू बनाने जा रहा हूँ और उसी उपलक्ष्य में मैं तुम्हारे लिए जो अमूल्य रत्न जटित उपहार लाया हूँ वह उस स्वर्ण-कुम्भ में सुरक्षित है। आशा है तुम नि:संकोच इसे अपने कंठ में धारण कर मेरे नेत्र युगलों को तृप्त करोगी।’’ ‘‘पतिदेव की आज्ञा शिरोधार्य है।’’-कहती हुई दृढ़व्रता बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उस स्वर्ण-कलश के पास पहुँची और उसमें से रत्नजटित स्वर्णहार निकाल कर पति के समीप लाते हुए बोली-मेरे हृदयेश्वर! यह अनुपम हार मेरे कण्ठ की शोभा नहीं बढ़ा सकता यह अमूल्य हार तो आपके ही विस्तृत वक्ष:स्थल पर लहराते हुए देखना चाहती हूँ; क्योंकि अपने पति परमेश्वर में मेरी श्रद्धा मेरी आस्था आज इसलिये द्विगुणित होकर उल्लासमयी हो रही है कि आज मरे सर्वस्व आर्हत् धर्म अंगीकार करने जा रहे हैं।’’ कहते हुए उस हार को दृढ़व्रता ने अत्यन्त आदर भाव से सुदत्तकुमार के गले में पहिना दिया और यह देखने के लिए हार कैसा लगता है-एक कदम पीछे हटी, परन्तु देखा तो हार की जगह काला-नाग गले मे लहरा रहा था। कुछ क्षणों के उपरान्त सेठ सुदत्तकुमार जी पलंग पर मूच्छित पड़े थे और उनके चारों ओर तांत्रिकों-झाड़ने-फूकने वालो का जमघट लगा था। सास अपनी वधू को पानी पी-पी कर कोस रही थी कि इस डायन कलमँही की भूख आज अपने ही पति का भक्षण कर शान्त हुई है। यहाँ पति की यह अवस्था देख दृढ़व्रत एकाग्रचित हो भक्तामर स्तोत्र के ४१ वें श्लोक- रक्तेक्षणं समद कोकिल कण्ठ नीलं…. का पाठ बार-बार दुहरा रही थी। वह ४१वें काव्य के मंत्र साधन में ऐसी तल्लीन थी कि सास के विष बुझे बाणों का उसके कानों में कोई असर नहीं हो रहा था। एकाएक जैन शासन की अधिष्ठात्री‘‘पद्मा’’ नाम की देवी ने प्रकट होकर कहा-‘‘दृढ़व्रते! आँखे खोलो और उस कुंभ के जल को पतिदेव के शरीर पर छिड़को’’ इतना कहकर वह अन्तर्धान हो गई। दृढ़व्रता ने उस स्वर्ण कलश में भरे हुए जल को पतिदेव पर छिड़का तो सुदत्त ऐसे उठ बैठा जैसे सोकर उठा हो। नागों को वश में करने वाले संपेरों और विषधर का विष उतारने वाले तांत्रिकों ने जब यह चमत्कार देखा तो दंग रह गये औन उनके मुख से बार-बार ये शब्द निकले रहे थे-
जो तोकू कांटा, बुवे, ताहि बोऊ तू फूल। तोहि फूल के फूल हैं, वाको हैं तिरसूल।।