मनुष्य को कभी भी कान का कच्चा नहीं होना चाहिये। प्रत्येक परिस्थिति को अपनी विवेक-तुला पर तौल कर ही अपने कत्र्तव्य स्थिर करना चाहिये। बुन्देलखण्ड मे एक कहावत प्रसिद्ध है कि, ‘‘सुनने वाला सावधान हो तो कान भरने वाले का जादू टोना छूमन्तर हो जाता है।’’…आये दिन हमारे पारिवारिक गृहस्थ जीवन में ‘‘तू-तू मैं-मैं हुआ करती हैं। कारण की तली तक पहुँचा जावे तो इन काण्डों की निर्मात्री स्त्रियाँ ही सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैं। अपने पति देवताओं के कान में न जाने वे क्या जादू पूंâकती हैं- कि सहोदर भाई भी जो कल तक परस्पर गले मिलते थे- आज कहो तो वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो जावें।परन्तु यह सब कब होता है? अपने पति देवताओं के कान में न जाने वे क्या जादू फूकती हैं-सहोदर भाई भी जो कल तक परस्पर गले मिलते थे- आज कहो तो वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो जावें।परन्तु यह सब कब होता है? जब कि पति विवेकी नहीं हे उसमें स्वयं की अपनी कुछ अक्ल नहीं है। बीते युग की बात है। गुणवर्मा ने देवालय से आकर महल की संगमरमर जड़ित देहली पर पग रखा ही था कि बड़े भाई सा. ने लाल लाल अँगारे सी आँखे निकालीं और जोर से चिल्ला कर कहा-खबरदार! जो देहली पर पैर रखा। रे मूर्ख! तू मुझ जैसे राजा के भाई होने के योग्य कदापि नहीं?…मैं, तेरा मुँह देखना भी पाप समझता हूँ।… चला जा उलटे पैरों यहाँ से; अन्यथा याद रख; कर्मचारियों से तेरी दुर्दशा कराई जावेगी…।’’ परिस्थिति से अनजान अपने में लीन बेचारा गुणवर्मा अपने अग्रज की यह कठोर आज्ञा सुनकर क्षण भर तो अवाक् रहा। परन्तु बाद में उसे ध्यान आया कि यह केवल अग्रज की नहीं वरन् राजाज्ञा है। वह राजाज्ञा जिसे सेना और सम्पत्ति राजकीय वैभव का अहंभाव है- अभिमान है। सच है-
‘‘प्रभुता पाय काहि मद नाहीं?’’
शासन करने वालों में-सत्ताधीशों में स्वाभावत: घमंड आ ही जाता है और उसको-उसके मद को चूर करने के लिए ऐसी विभूतियों की आवश्यकता युग के लिए बनी ही रहती हैं।वे विभूतियाँ अपने सुखों को लात मारकर अपने भोगों की होली को जलाकर ‘‘परोपकाराय सतां-विभूतय:’’ का पाठ जगत को निरन्तर सुनाती रहती है। ऐसे ही महापुरूषों से सन्मार्ग प्रशस्त होता है। निज कल्याण के साथ-साथ कोटि-कोटि जनता का भी महान् उपकार होता है। भरत ने बाहुबली के साथ जो किया,रावण ने विभीषण के साथ जो किया-वही सब कुछ मथुरा नरेश रणकेतु ने अपनी विवेक की आँखे बन्द कर अपनी प्रेयसी रानी के कहने में आकर अपने लघु भ्राता गुणवर्मा को आखिर देश निकाला दे ही दिया।… कितना करुण दृश्य होगा वह जब कि एक भोला भाला युवराज जिसने कि राजनीति में अभी प्रवेश ही न किया हो, शास्त्र स्वाध्याय, पठन-पाठन ही जिसकी दिन चर्या हो, सत्संगति ही जिसवे जीवन का आधार हो, भगवत् भजन से ही जिसे केवल प्यार हो…और फिर उसके भोलेपन पर छल-प्रपंचों की या कूटनीति की माया का जादू डाला जावे!! पर दुनियाँ में ऐसों का समर्थन करने वाले कितने मिलते हैं?
सबहि सहायक सबल के, कोऊ न निबल सहाय। पवन जगावत आग को, दीपहि देत बुझाय।।’
किसकी खोपड़ी फालतू है जो सत्य रक्षा के पक्ष में बोलकर बैठे बिठाये झगड़ा मोल ले। परन्तु जो मानवता के मूल्य को समझते हैं वे सदैव ऐसों का ही पक्ष लेते हैं। अस्तु प्रमुख राज्य मंत्री ने लाख समझाया पर ‘‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’’ हो ही जाती है; फिर समझ में आवे तो आवे कैसे?‘‘या गति: सा मति:।’’’लौकिक कथाओं में प्रसिद्ध है कि सुग्रीव ने बाली से और विभीषण ने रावण से बदला लेने के लिए श्री रामचन्द्र जी का आश्रय लिया था। पर सदाचारी गुणवर्मा का हृदय चूंकि अत्यन्त विशाल और पवित्र था इसलिये उसने अपमान के हलाहल को पीकर भी चूँ तक नहीं की।बाहुबली के समान उसने भी इस परिस्थिति को अपने वैराग्य का कारण माना…। देखा गया है कि कामना करके यदि साधना होती है, तो उससे ऋद्धि-सिद्धियाँ दूर भागती हैं और निष्काम होकर कोई साधना की जाती है तो ऋद्धि-सिद्धियाँ अपने द्विगुणित प्रभाव समेत आकर हाथ बांधे सामने खड़ी रहती है। यही तो गीता का निष्काम कर्मयोग है कि‘‘
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
‘यद्यपि गुणवर्मा के दयालु हृदय में बदले की दुर्भावना किंचित् भी न थी; तो भी दैव को तो अपना प्रयोजन इन्हें निमित्त बनाकर सिद्ध करना ही था। इसलिए एक दिन जब गुणवर्मा महाप्रभावक श्री भक्तामर स्तोत्र के ४२-४३वें काव्यों का ऋद्धि मंत्र सहित आराधना कर रहे थे कि साक्षात् रणचण्डी सेनाध्यक्ष के वेष में अपनी चतुरंगिणी सेना का नेतृव्य करती हुई उन्हें शुभ संवाद सुना रही थी- ‘‘स्वामिन् रणकेतु रणांगन में पीठ दिखाकर भाग ही रहा था कि मेरे सिपाहियों ने उसकी मुश्वें बाँध लीं।’’-कह कर सेना और सेनापति तत्काल ही अदृश्य हो गए। गुणवर्मा ने अपने ज्येष्ठ अग्रज को बन्धनमुक्त कर दिया और स्वयमेव जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर आयु के अन्त में समाधिमरण करके स्वर्ग का राज्य प्राप्त किया।